ब्रह्म विज्ञान
✍️ रणसिंह
आर्य
ब्रह्म विद्या सीखने की पद्धति
हमारे पूर्वज महान् ऋषियों
ने विद्या प्राप्ति के लिये एक विशिष्ट पद्धति-शैली का निर्देश किया है। जो साधक
इस पद्धति से ब्रह्म विद्या प्राप्ति के लिये प्रयास करत है वह विद्या के वास्तविक
स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और जो इस प्रक्रिया से पुरुषार्थ नहीं करता है उसे
विद्या प्राप्त नहीं होती है।
चतुर्भिः प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति ।
आगमकालेन, स्वाध्यायकालेन, प्रवचनकालेन, व्यवहारकालेनेति' ॥
(महाभाष्य अ. १/१/१/१)
अर्थात् विद्या चार
प्रकार से आती है - आगमकाल, स्वाध्यायकाल, प्रवचनकाल और व्यवहारकाल। आगमकाल उसको कहते हैं जब मनुष्य पढ़ाने वाले से
सावधान होकर ध्यान पूर्वक विद्या को सुने। स्वाध्यायकाल उसको कहते हैं जब पढ़ी सुनी विद्या पर स्वस्थ चित्त होकर विचार करे !
प्रवचनकाल उसे कहते हैं जब दूसरों को प्रेम पूर्वक पढ़ावे। व्यवहारकाल उसको कहते
हैं जब पढ़ी, विचारी पढ़ायी विद्या को आचरण में लावे।
विद्या प्राप्ति के लिये
इससे मिलती-जुलती एक अन्य शैली भी है - श्रवण, मनन,
निदिध्यासन और साक्षात्कार। इसके अनुसार पहले विद्यार्थी
विद्या को गुरुमुख से सुने-पढ़े, पश्चात् उस पर विचार करे, तत्पश्चात् उस विषय में निर्णय लेवे और अन्त में उस
पर आचरण करे। इस प्रक्रिया से विद्यार्थी के मन पर विद्या के संस्कार दृढ़ बनते
हैं, मनन करने में श्रद्धा बन जाती है। इसके विपरीत पढ़ा, सुना,
विचारा सब व्यर्थ सा ही हो जाता है यदि विद्या व्यवहार में नहीं उतरती है।
प्रत्येक कार्य की सफलता के कारण
(१) पूर्व जन्म में
उपाजित संस्कार ।
(२) तीव्र इच्छा।
(३) पर्याप्त साधनों की
उपलब्धि ।
(४) कार्य करने की सही
विधि (शैली ) ।
(५) पूर्ण पुरुषार्थ ।
(६) घोर तपस्या ।
उपरोक्त कारण
ज्यादा व अच्छे हों तो शीघ्र सफलता मिलती है।
ब्रह्म विद्या का अधिकारी
विद्या ब्राह्मण
के पास गई और बोली : -
विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मां शेवधिष्टेऽहमस्मि ।
असूयकायानृजवेऽयताय न मा बूया वीर्यवती तथा स्याम ॥
(निरुक्त २/१/१)
हे ब्राह्मण विद्वान् ! मैं
आपकी निधि हूँ अत: मेरी रक्षा करो। जो निन्दक, कुटिल और असंयमी हो उसके लिये मेरा उपदेश मत करो।
यमेव
विद्याः शुचिमप्रमत्तं मेधाविनं ब्रह्मचर्योपपन्नम् ।यस्ते न दुह्येत् कतमच्चनाह
तस्मै मा बूया निधिपाय ब्रह्मन् इति ॥
(निरुक्त २/१)
जो पवित्रात्मा, प्रमाद रहित, बुद्धिमान्, ब्रह्मचर्य से युक्त और आप से किञ्चित् भी वैर न करता हो उस विद्याधनरक्षक के
लिये मेरा उपदेश करें।
क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः स्वयं जुह्ृत एकरषि
श्रद्धयन्तः । तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवद्यैस्तु
चीर्णम् ॥
(मु.उप.३/२/१०)
जो लोग पुरुषार्थी, वेद को पढ़ने वाले, ईश्वर विश्वासी, श्रद्धालु होकर एक ज्ञानी गुरु को स्वयं स्वीकार करते हैं। उन्हीं जिज्ञासुओं
को वह विद्वान् ब्रह्मविद्या का उपदेश करे।
योग
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
। (योगदर्शन १/२) चित्त की वृत्तियों को रोकने को योग
(= समाधि) कहते हैं ।
"चित्त की वृत्तियों को सब बुराइयों से हटा
कर शुभ गुणों में स्थिर करके , परमेश्वर के समीप में
मोक्ष को प्राप्त करने को योग कहते हैं, और वियोग उसको
कहते हैं कि परमेश्वर और उसकी आज्ञा से विरुद्ध बुराइयों में फँस करके उससे दूर हो
जाना। उपासक योगी और संसारी मनुष्य जब व्यवहार में प्रवृत्त होते हैं, तब योगी की वृत्ति सदा हर्ष-शोक रहित, आनन्द से
प्रकाशित होकर उत्साह और आनन्द युक्त रहती है; और संसार के
मनुष्य की वृत्ति सदा हर्ष-शोक रूप दु:ख सागर में ही डूबी रहती है। उपासक योगी की
वृत्ति तो ज्ञान रूप प्रकाश में सदा बढ़ती रहती है संसारी मनुष्य की वृत्ति सदा
अंधकार में फँसती जाती है।" (महर्षि दयानन्द) चित्त वृत्ति निरोध योग है। पर विवेक = वास्तविक विज्ञान न होने से मन रूपी
उपकरण को व्यक्ति चेतन मान लेता है, जिससे वह इसे
अधिकार में नहीं कर पाता है। मन के बारे में हम मानते हैं कि यह 'चला जाता है क्या ऐसा मानना ठीक है ? विचार कहाँ से
आते हैं ?
स्वयं प्रत्यक्ष करके देखो, वास्तविकता का पता चल जायेगा। "हमने लगभग चालीस वर्ष पूर्व परीक्षण शुरु
किया था। अधिकार पूर्वक खोज की कि मेरी इच्छा के विरुद्ध न कोई विचार आ सकता है न
जा सकता है"। अच्छा भोजन खाने के लिये व्यक्ति सुसज्जित है - भूखा है; क्या वह कहता है कि मेरा मन खाने के लिये जाने नहीं देता ? परन्तु सन्ध्या में तो कहते हैं कि मेरा मन ईश्वर में नहीं लगता। सर्दी में मन
क्या कम्बल नहीं ओढ़ने देता ? विद्यार्थी परीक्षा भवन
में तीन घण्टे क्या कहता है कि मन नहीं लगता ? वस्तुत: अज्ञान
के कारण भूल है। मन स्वत: कुछ नहीं करता हम ही मन से करते हैं। सन्ध्या में होने
वाला मन का भटकाव भी स्वत: नहीं होता, हमारे द्वारा
किया जाता है।
ईश्वर के स्वरूप में मग्न
( तल्लीन) होना योग है। मन की वृत्ति जब बाहर से रुकती है तब परमेश्वर में स्थिर
हो जाती है।
जिससे सारे
दु:खों से छूट जायें, जिससे मोक्ष- ईश्वर को प्राप्त करें
योग उसका नाम है।
वैदिक धर्म प्रश्नोत्तरी
मन, इन्द्रिय तथा आत्मा का विचार जो मनुष्य नहीं करता वह अयोगी रहता है। उसे भीतर
का कोई ज्ञान नहीं होता और इन्द्रियों के साथ मन, मन के साथ आत्मा बहिर्मुख हो जाती है। बाह्य स्थूल पदार्थों में जो सुख दीखता
है उससे हजारों गुना सुख ईश्वरानन्द में मिलता है। योग में दृश्य पदार्थों से मन
को हटाने से आत्मा का संयोग विभु पदार्थ परमात्मा से होता है। जिसने कभी विचार
नहीं किया, उसको आत्मा-परमात्मा का कुछ भी आभास नहीं
होता। जिस समय आत्मा घबराहट में होता है उस समय कोई भी विचार का कार्य व्यक्ति से
नहीं होता। मनुष्य का सम्पूर्ण बाह्य व्यवहार भीतर की व्यवस्था के कारण है। ध्यान
में विचार करने से मनुष्य की वृत्ति परमेश्वर के साथ जुड़ती है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्
॥
यह परमात्मतत्त्व न केवल
प्रवचनों से प्राप्त होता है, न केवल
मेधाबुद्धि के उपार्जन से ही और न केवल बहुत कुछ सुनने से। जो आचरण के साथ साथ
हृदय के अन्तस्थल में उसे ढूंढ़ता है वही उसे प्राप्त करता है और वह परमात्मा अपनी
महिमा का प्रकाशन अपने उस अनुरागी भक्त के समक्ष करता है।
ईश्वरोपासना - योगाभ्यास
की पद्धति - जिससे ईश्वर के ही आनन्द स्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं। जब जब मनुष्य लोग ईश्वर की उपासना करना चाहें, तब-तब इच्छा के अनुकूल एकान्त स्थान में बैठकर अपने मन को शुद्ध और आत्मा को
स्थिर करें, तथा सब इन्द्रिय और मन को सच्चिदानन्द आदि
लक्षण वाले अन्तर्यामी अर्थात् सब में व्यापक और न्यायकारी आत्मा की ओर अच्छे
प्रकार से लगाकर सम्यक् चिन्तन करके उसमें अपने आत्मा को नियुक्त करें। फिर उसी की
स्तुति, प्रार्थना और उपासना को बारम्बार करके
अपने आत्मा को भली -भाँति से उसमें लगा दें।
महर्षि दयानन्द
कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, हठयोग, राजयोग, सहजयोग, मन्त्रयोग आदि कोई भिन्न योग नहीं हैं।
अलग अलग योगांगों का क्रमश: अभ्यास करने से नहीं परन्तु पतञ्जलि ऋषि द्वारा बताये
अष्टांग योग का साथ-साथ अनुष्ठान करने से दु:खों का अत्यन्त अभाव और परमानन्द की
प्राप्ति होती है। इन सब योगांगों का उद्देश्य यह है कि परमात्मा के साथ जो नित्य
योग है अर्थात् नित्य सम्बन्ध है उसकी जागृति हो जाये ।
निष्काम कर्म (कर्मयोग)
उसको कहते हैं जिसमें कर्म संसार की प्राप्ति के लिये न हो कर परमात्मा की
प्राप्ति के लिए हो जाये ।
दूरी के तीन प्रकार -
स्थान, समय और ज्ञान, तीन प्रकार की दूरी होती है। ईश्वर सर्वव्यापक व नित्य होने से स्थान और समय
से तो सदा जीवात्मा से मिला हुआ है परन्तु ज्ञान की दृष्टि से दूरी जब समाप्त हो
जाती है तब कहते हैं - ज्योति से ज्योति मिल गई । यह ज्योति कोई भौतिक प्रकाश
नहीं। यदि सूर्य जैसा भौतिक प्रकाश प्रभु का (में ) है तो कहीं भी और कभी भी
अन्धेरा न हो। यह प्रकाश ज्ञान का प्रकाश होता है। जैसे जब विद्यार्थी की समझ में
कोई प्रश्न आ जाये तो कहता है हाँ अब मेरी बुद्धि में प्रकाश (चान्दनी सी) हो गया, सवाल समझ गया अर्थात् ज्ञान हो गया। परमात्मा अपनी तरफ से दूर नहीं, जीवात्मा ही उससे विमुख हो जाता है। सम्मुख होने पर ईश्वर सब जगह, सब समय, सब वस्तुओं में और सब जीवों में है ।
परमात्मा पापी से पापी, दुराचारी के भी उतने ही पास है जितना संत महात्मा, जीवनमुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी आदि के निकट है। ऐसे परमात्मा को प्राप्त करने के लिये अष्टांग
योग का अनुष्ठान करें ।
इस सर्वोपकारी सत्य शाश्वत
सुख के देने वाले योगशास्त्र को महर्षि पतञ्जलि ने चार भागों में विभक्त किया है
जिसे पाद कहते हैं।
(१) पहले पाद में योग के लक्षण-मनोनिग्रह-
चित्त की वृत्तियों को रोकने के उपाय लिखे हैं। सो समाधिपाद है । इसमें ५१ सूत्र
हैं ।
(२) दूसरे पाद में अष्टांग योग का वर्णन और
शम- दम आदि योग के साधनों का विस्तार से वर्णन । सो साधनपाद है। इसमें ५५ सूत्र
हैं।
(३) इसमें योग
साधना के गौण फल वाक् सिद्धि और अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति का वर्णन है । सो
विभूतिपाद है। इसमें ५५ सूत्र हें ।
(४) चतुर्थ पाद में योग के प्रधान फल मोक्ष का वर्णन है इस कारण इसका नाम
कैवल्यपाद है। इसमें ३४ सूत्र हैं।
क्रियात्मक
योग
ब्रह्मविद्या-योगविज्ञान
यह ऋषियों की मानव समाज को अर्पित अनुपम भेंट है। वह योग विज्ञान ईश्वरोपासना और
व्यवहार में ईश्वर की आज्ञापालन (निष्काम कर्म) करने से प्राप्त होता है।
जिसमें क्रियाओं की
प्रधानता हो वह क्रियात्मक योग है। ऐसा नहीं कि व्यावहारिक दैनिक जीवन में चाहे
कुछ भी उलटे सीधे काम करते रहें और प्रात: सायं दो समय सन्ध्या के मंत्र मन में
बोल लिये तो हो गया
योगाभ्यास।
यह योग नहीं।
वैदिक जीवन जीने की शैली
ही वह क्रियात्मक योग है जिसमें उठने जागने से सोने तक नियमित दिनचर्या हो। क्रिया
की अधिकता वाले इस प्रकार के योग अभ्यास में दिन भर के क्रिया-कलाप करते हुए ईश्वर
को सम्मुख रखते हुए ईश्वर से सम्बन्ध बनाये रखना। आठ अंगो का पालन व्यवहार में
लाना। उठते ही ईश्वर की गोद में बैठने का अनुभव करना। दिन भर उससे जुड़े रहना।
उठते-बैठते, खाते-पीते, व्यवसाय, सेवा, कर्त्तव्य कर्म
करते हुए योग के यम-नियमों का पालन करते हुए जीवन जीना ईश्वरीय आज्ञानुसार अपने
आपको दिव्य मानव में परिवर्तित करना है। क्रियात्मक जीवन ही योगी का जीवन है।
वेदविहित शुभ कर्मों का करना ही निवृत्ति मार्ग है। वे मनुष्य जीवित कहलाने के
अधिकारी हैं, जो अपने जीवन को लोकहित के कार्यों में
लगाते हैं व उठने से सोने तक सब क्रिया करते हुए ईश्वर से आबद्ध रहते हैं ।
हमें योगानुसार चलना है, चाहे कठिनाइयां कितनी ही क्यों न आयें। हमारी प्रत्येक क्रिया यमनियमानुसार
संयमित हो। झूठ छल कपट से अस्त-व्यस्त जीवन न हो, खान-पान में मद्य-मांस न हो, असन्तोष से ग्रस्त न हो।
व्यवहार में यमनियमों के बिना योग, ध्यान, धारणा, जप, समाधि सब व्यर्थ
हैं ।
ईश्वर के गुणों का कीर्तन, स्तुति, प्रार्थना, उपासना, उसके गुणों को मांगना (अपनाना) यह भी
क्रियात्मक योग है। ईश्वर की तरह लोक से अप्रभावित रहना, दु:खी न होना। ब्रह्म सम है 'निर्दोषं हि समं ब्रह्म'| मन के अपने आप में ठहर जाने पर, उसकी वृत्तियों
का अनारम्भ होने पर शरीर के दुःखों का अभाव हो जाता है, क्लेशों की निवृत्ति हो जाती है ।
ज्ञान-कर्म-उपासना, विवेक-वैराग्य-अभ्यास और तप-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधान इसमें सब आ गया।
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