ऐसे हों वीर युवा हमारे
विप्रासो न मन्मभिः स्वाध्यौ देवाव्योई न य॒ज्ञैः
स्वप्नसः।
राजानो न चित्राः सुसंदृर्शः क्षितीनां न मयी अरेपसः॥
-ऋग्० १०1७८।१
ऋषिः-स्यूमरश्मिर्भार्गवः । देवता:-मरुतः ।
छन्दः--आर्ची त्रिष्टुप्।
पदपाठ-विप्रासः।न।मन्मभिः।सु-आध्यादेव-अव्य
। न । यज्ञैः । सु-अनसः । राजानः । न । चित्राः । सु-संदृशः। क्षितीनां । न ।
मर्याः । अ-रेपसः।।
(विप्रासो न मन्मभिः स्वाध्यो)-
विप्रो के समान मननीय विविध विद्याओं के सुअध्ययनी हों।
(देवाव्यो न यज्ञैः स्वप्नसः) -
यज्ञों से देवों को तृप्त करने वालों के समान सुकर्मा हों।
(राजानो न चित्राः सुसन्दृश:)-
राजाओं (रञ्जनकर्ताओं) के समान सुचित्रित एवं सुदर्शनीय हों। (क्षितीनां न मर्या
अरेपसः) - क्षितिजों के समान मनुष्यों को सौमनस्यता तथा निर्मलता प्रदान करने वाले
हों।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के अठत्तरवें
अष्टर्च सूक्त का देवता (विषय) है 'मरुत'। सभी आठ मन्त्रों में मरुतों के
गुण, कर्म और स्वभाव का सुन्दर विवेचन
है। पर पहले तो हम यह समझ लें, कि 'मरुत' हैं कौन?
निरुक्त के अनुसार 'वीर नायक' मरुत हैं। निघन्टु के अनुसार 'ऋत्विज' यज्ञों में मरुत हैं । ऐतरेय
ब्राह्मण के अनुसार 'प्राण' मरुत हैं । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्रचण्ड 'वायु' मरुत हैं । पर 'मरुत' हैं अत्यन्त महत्वपूर्ण। भू-मण्डल
पर जीवन के लिये जैसे 'वायु' आवश्यक है, उसी प्रकार शरीर में 'प्राण' यज्ञों ( श्रेष्ठतम कर्मों) में यज्ञ-कर्ता
'ऋत्विज' और समाज व राष्ट्र में सामाजिक एवं
राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु 'वीर' पुरुष। अतः वेद की दृष्टि में यह सब 'मरुत' हैं। इनके होने से रोना नहीं पड़ता, सन्तोष व्याप्ता है; न होने से सारी व्यवस्था ही चरमरा
जाती है, और स्थिति अत्यन्त विषम हो जाती
है।
ऋग्वेद के इस सूक्त में जिन मरुतों
के गुण, कर्म और स्वभाव का विवेचन है, वे हैं सामाजिक आर्थिक और
राष्ट्रीय रक्षा और व्यवस्था में लगे 'वीर युवा', चाहे वे 'स्वयं-सेवक' हों, या 'प्रहरी', 'रक्षक', 'सुरक्षा कर्मी', 'सेना-नायक', 'सैनिक', 'सामाजिक क्रान्ति' और 'सामाजिक न्याय' के प्रणेता-'क्रान्तिवीर' आर्थिक व राष्ट्रीय विकास में
संलग्न उद्योग-वीर, अथवा 'राष्ट्र-वीर'। मुख्य बात है किसी भी श्रेष्ठ
कार्यक्षेत्र (यज्ञ) में इन अदम्य पुरुषों तथा स्त्रियों में वीरोचित गुणों की
प्रधानता।
'मरुत' प्रतीक हैं, किसी भी राष्ट्र की 'युवा-शक्ति' के, जिनके ऊपर 'राष्ट्रीय-सुरक्षा' 'राष्ट्रीय-व्यवस्था' और 'राष्ट्रीय विकास' की जिम्मेवारी आयद होती है। वे
प्रतीक हैं, उस
सैन्यशक्ति'के
भी, जो राष्ट्र के अन्दर व बाहर के
शत्रुओं व आततायीयों से राष्ट्र की रक्षा करती है।
इसी सूक्त के दूसरे मन्त्र में ऐसे
वीरों (मरुतों) के बारे में कहा गया है
अग्निर्न ये भ्राज॑सा रुक्मवक्षसो
वातासो न स्वयुजः सद्यऊतयः।
प्रज्ञातारो न ज्येष्ठाः सुनीतयः
सुशीणों न सोमा॑ ऋतं यते॥ -ऋग्वेद १०।७८।२
'वे अग्नि के समान तेजस्वी, शत्रुओं को दग्ध करने वाले, चमकते वक्ष (छाती) वाले, प्रचण्ड वायुओं के समान स्वयं
युक्त होनेवाले, तुरन्त कर्त्तव्यों पर आरूढ़ होने
वाले, उत्कृष्ट ज्ञान वाले, ज्येष्ठों के समान परिपक्व, सुनीति पर चलने वाले, सु-शर्मा, सौम्य और ऋत (सही) आचरण वाले हों।' स्पष्ट है, कि यहाँ प्रसंग वीरों का है, राष्ट्र की युवा-शक्ति एवं
सैन्य-शक्ति का है। मरुतों (वीरों) में वीरोचित गुण कैसे होते हैं, देखें यह मन्त्र।
वार्तासो न ये धुनयो
जिगनवोऽग्नीनां न जिला विरोकिर्णः।
वर्मण्वन्तो न योधाः शिमीवन्तः
पितॄणां न शंसाः सुरातयः॥ -ऋग्वेद १०॥७८।३
'ये प्रबल वायुओं के समान शत्रुओं की धुनाई करने वाले, द्रुत गति से आगे बढ़ने वाले, अग्नियों की जिह्वा (लपटों) के
समान विविध दीप्तियों वाले तथा योद्धओं के समान कवच व आयुधों से युक्त होते हैं।
पितों से प्रशंसित, रक्षा जैसे उत्तम कार्यों में
स्थित ये सुख-शान्ति प्रदान करने वाले होते हैं।'
इतना कुछ होते हुये भी किसी भी
राष्ट्र की युवा-शक्ति या सैन्य शक्ति में कुछ अभाव रहता है, जिसकी ओर मन्त्र-दृष्टा ऋषि हमारा
ध्यान, प्रथम मन्त्र द्वारा, जो इस लेख का विषय है, बड़ी सुन्दरता से खींच रहा है।
वीरों में जोश और बल की कमी नहीं,
पर
सफलता के लिये 'जोश' के साथ 'होश' और 'बल' के साथ 'बुद्धि' और 'विवेक' का होना भी जरूरी है। परमात्मा के
अमर ज्ञान 'वेद' की यही विशेषता है, कि प्रत्येक क्षेत्र में वह
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की ओर ध्यान दिलाता है। अपूर्ण मनुष्य को पूर्णता की
ओर प्रेरित करने का वेद ज्ञान का सर्वत्र सतत प्रयास है। काश, इस धरा पर प्रत्येक युवा और
प्रत्येक सैनिक इस ज्ञान से अपना स्व-विकास कर पाता तो युवाओं के जुनून और सैनिकों
के अपराध की शिकार सामान्य जनता न होती।
आज यह समझा जाता है, कि युवाओं के लिये राजनीति
(पोलिटिकल साइंस) और सैनिकों के लिये सैन्य विज्ञान (मिलिटेरी साइंस) का ज्ञान
पर्याप्त है, पर वेद की दृष्टि से युवाओं और
सैनिकों के लिये यह पर्याप्त नहीं। वेद की पहली कामना मरुतों के लिये है (विप्रासो
न मन्मभिः स्वाध्यो) विद्वानों के समान मनन करने योग्य विविध विद्याओं के सु-अध्ययनी
बनों। जो स्वयं और दूसरों को ज्ञानादि से भरपूर करते हैं, ऐसे मेधावी श्रेष्ठ पुरुष कहलाते
हैं, 'विप्र'। विप्रों की विशेषता यह होती है
कि अन्य विविध विद्याओं के साथसाथ आत्म विज्ञान' (साइंस आफ सोल) और 'ब्रह्म विज्ञान (सांइस आफ डिवाइन) में भी निष्णांत
होते हैं। ब्रह्म-ज्ञान से युक्त विप्र ही सही अर्थों में ब्राह्मण कहलाता है।
आत्म-चिन्तन और ब्रह्म-चिन्तन,
तदनुरूप
मनन एवं निदिध्यासन, यही स्वाध्याय और ध्यान के विषय
हैं। आत्म-ज्ञान और बल दोनों का देने वाला परमात्मा है, जिसकी सब विप्र (विद्वान) लोग
उपासना करते हैं-य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते (यजुः० २५।१३)। तो ऐसे विप्रों के
समान युवा-शक्ति और सैन्य-शक्ति दोनों को उचित है कि वे परमात्मा का आश्रय लें।
स्वाध्याय में कभी प्रमाद न करें। मात्र अग्नित्व (क्षात्र बल) ही पर्याप्त नहीं, देवत्व (ब्राह्म बल) भी वीरों के
जीवन में होना चाहिये। सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, पूण्य और पाप में अन्तर जानने का नाम 'विवेक' है। युवाओं और सैनिकों में वीरता
के साथ-साथ विवेक भी होना चाहिये,
जिसके
लिये आत्मा और परमात्मा का वेद के स्वाध्याय से चिन्तन, मनन, और निदिध्यासन उतना ही जरूरी है, जितना शरीर के लिये भोजन। वस्तुतः
आत्मा का भोजन तो परमात्मा ही है। शरीर की पष्टता से शारीरिक बल और आत्मा की
पुष्टता से आत्मिक बल की प्राप्ति होती है। वीरों के लिये दोनों ही जरूरी हैं। इसी
लिये वीरों को लक्ष्य करते हुये मन्त्रदृष्टा ऋषि ने पहली बात कही कि विप्रों के
समान मननीय और ध्यानशील सु-अध्ययनी बनों, जिससे तुम्हारा विवेक जाग्रत रहे।
दूसरी बात मन्त्र में कही गई है (देवाव्यो न यज्ञैः स्वप्तसः) यज्ञों से देवों को तृप्त करने
वालों के समान सु-अप्रसः, अर्थात् सुकर्म करने वाले बनो। यज्ञौ वै श्रेष्ठतमं कर्म (शतपथ ब्राह्मण १।७।१।५)
श्रेष्ठतम कर्मों का नाम यज्ञ है। और जो शुभ व श्रेष्ठ है वही धर्म है। यज्ञ में
समाहित है-देव पूजा (सत्कार),
संगतिकरण
(सान्निध्यता)
और दान (समर्पण)। देवों की तृप्ति
यज्ञों से होती है। देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा (निरुक्त ७।१५) दान, दीपन और द्योतन देवों के लक्षण
हैं।
परमेश्वर तो देव है ही, परन्तु उस परमेश्वर की दिव्य
ज्योति और दिव्य प्रकाश से जो जगमगा रहे हैं, वे भी देव हैं। सूर्य चन्द्र आदि प्राकृत देव और ऋषि मुनि, सन्त, महात्मा, विचारक, वैज्ञानिक, चिकित्सक तथा अन्य सत्यनिष्ठ
विद्वान आदि, जो उस से प्रादर्भूत हैं, मानुषी देव हैं। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा (ऋग्०१।१६४।५०) देव भी यज्ञों का
यजन यज्ञ से करते हैं। देवों का देवत्व यज्ञों के ही कारण होता है। यज्ञ ही देवों
का जीवन उनका प्राण, उनका सर्वस्व होता है। देव मेधं जुषन्त वह्नयः (ऋग्०१।३।९) यज्ञों को वहन करने
वाले ज्ञान और क्रिया से सिद्ध यज्ञों का ही यथावत सेवन करते हैं। मन्त्र के
अनुसार मरुतों (वीरों) को यह स्पष्ट निर्देश है कि देवों के समान वे भी
यज्ञ-कर्मों में प्रवृत्त हों,
और
सुकर्मों की धारा प्रवाहित कर दें। इसी लिये मन्त्र में सु-अप्नस: का प्रयोग हुआ है। अपः नाम प्रवाहों का है। प्रवाह दो ही
होते हैं, एक तरल पदार्थों के, दूसरे कर्मों के। 'सु' कर्मों को सुकर्म,
अर्थात्
श्रेष्ठ, पवित्र कल्याणकारी कर्म बनाने के
लिये हैं। वीरों के कर्म सुकर्म हों, और सुकर्म सतत प्रवाहित होते रहें, इसी में मरुतों की, युवा तथा सैन्य शक्ति की सार्थकता
है। इस से यह भी सिद्ध होता है,
कि
युद्ध तथा विपत्ति काल के अतिरिक्त युवा तथा सैन्य शक्ति का उपयोग कल्याणकारी
कार्यों में निरन्तर किया जाना चाहिये, तभी ही किसी राष्ट्र में देवत्व की वृद्धि और देवों की
तृप्ति होगी। ध्यान रहे, कि ब्रह्म यज्ञ के पश्चात देव-यज्ञ
और राष्ट्र-यज्ञ से बड़ा कोई यज्ञ (श्रेष्ठतम कर्म) नहीं।
तीसरी बात मरुतों (वीरों) के लिये
जो कही गई है, वह है (राजानो न चित्रा: सुसन्दृशः) राजाओं (रञ्जनकत्ताओं) के समान सुदर्शनीय चित्रित होओ।
हर व्यक्ति अपने आपको अपने कार्यों से चित्रित करता है। आप कोई लेख पढ़ें। लेखक को
बेशक आपने न देखा हो, पर लेख के आधार पर लेखक की एक
कल्पना (इमेज) एक धारणा आपके मस्तिष्क में बन जाती है। आज युवाओं की क्या इमेज
हमारे दिमाग में है, सेना, पुलिस की क्या इमेज हमारे दिमाग
हैं है, जन-नायकों की क्या इमेज हम लिये
फिरते हैं? यह कल्पना, धारणा, इमेज अच्छी-बुरी, शोभनीय-अशोभनीय जैसी भी है, इसके चित्रण के लिये वे ही
ज़िम्मेवार हैं। वेद कहता है कितनी सुन्दर बात, कि अपनी इमेज रञ्जनकर्ताओं के समान सुदर्शनीय चित्रित करो।
चित्रण में चरित्र आ ही जाता है,
मनुष्य
जैसा भी अपने आप को चित्रित करता है, वैसी ही उसकी गति, प्रगति,
चेष्टा
और कृति होती है।
वेद की युवाओं से बड़ी कामना है।
उचित भी है, क्योंकि जो स्वयं जीर्ण हो चुके हैं, वे किसी का क्या जीर्णोद्धार कर
सकते हैं। वेद में युवाओं के लिये आया है-
तमु उष्टहि यो अन्तः सिन्धी सूनुः
।
सत्यस्य युवानम् अद्रो वाचं सुशेवम
॥ (अथर्व०६।१
। २)
अर्थात् उन्हीं युवाओं को स्तुतों, जो संसार-सागर के मध्य में सत्य के
प्रेरक, अद्रोह के वाचक और सु-सेवाकारी
हों। वेद तो युवाओं को सत्य का प्रेरक और सुसेवाकारी देखना चाहता है। राजाओं
(रञ्जनकर्ताओं) के बारे में भी वेद का कथन है
देवो न यः पृथिवीं विश्वधाया
उपक्षेति हितमित्रो न राजा।
पुर :सदः शर्मसदो न वीरा अनव॒द्या
पतिजुष्टेव नारी। -ऋग्०१।७३।३
अर्थात् जो राजा देव के समान
सर्वधारक, मित्रों
के हितकर्ता के समान सुख-स्थित, वीरों के समान साहसी और शुद्ध गुण युक्त पति-परायण नारी के
समान होता है, वही
पृथिवी को (पृथिवीवासियों को) सुखों में निवास कराता है। जो प्रजा का रंजन करता है
वही राजा है, तन्त्र-प्रणाली
चाहे कोई भी हो। वेद का आदेश है कि मरुत (वीर) ऐसे राजा के समान अपनी सुदर्शनीय
धारणा (इमेज) चित्रित करें। युवा-शक्ति और सैन्य शक्ति दोनों ही राष्ट्र में सत्य
की प्रेरक, अद्रोह
की वाचक और सु-सेवाकारी हो, जिसके सारे राष्ट्र को उन पर गर्व हो। वेद में तो यहाँ तक
कहा है-
'यद वश्चित्रं युगे युगे नव्यं
घोषादमर्त्यम्।
अस्मासु तन्मरुतो यच्च दुष्टरं
दिघृता यच्च दुष्टरम्'। (ऋग्० १ । १३९।८, अथर्व० २०।६७।२)
अर्थात्, हे मरुतो! तुम्हारा जो यह चिर-नवीन
अविनाशी चित्र है, दुस्तर है, निश्चय ही दुस्तर है, (किन्तु) उसे युग-युग में तम
घोषणापूर्वक धारण करो (जिससे), वह हम लोगों को सुखप्रद हो । वस्तुत: मरुत (वीर) वही हैं जो
किसी भी शुभ, श्रेष्ठ
लक्ष्य वा साधना के लिये जीवन की आहुति देने को उद्यत रहते हैं, लेकिन अपने चित्र (इमेज) को
बिगड़ने नहीं देते।
अन्तिम बात, जो मन्त्र में कही गई है, वह है (क्षितीनां न मर्या अरेपसः) क्षितिजों के समान मनुष्यों को
सौमनस्यता वा निर्मलता प्रदान करने वाले बनो।
पृथिवी और आकाश जहाँ मिलते दिखाई
पड़ते हैं, उसे
क्षितिज कहते हैं, वरना भूमि और आकाश की दूरी सब समझते हैं। वेद में उपमायें
भी खूब होती हैं। जानते हुये भी कि हर मनुष्य का अपना पृथक-पृथक अस्तित्व है, मनुष्यों-मनुष्यों में दूरी कम
करने का सौमनस्यता लाने का प्रयास मरुतों (वीरों) को क्षितिजों के समान करना
सर्वोपरि है। किन्तु यह सार्थक जब होगा जब वीर स्वयं (अरेपसः) पाप-अपराध में से रहित निष्पाप
होंगे, और अन्य मनुष्यों को भी पाप-अपराध
में न पड़ने देंगे। निष्पाप वीर ही निर्मलता का संचार कर मनुष्यों-मनुष्यों में
सामंजस्यता ला सकते हैं। प्रत्येक राष्ट्र की युवा और सैन्य शक्ति को निष्पापता के
साथ समाज और राष्ट्र में सामंजस्यता को लाना है, वेद की तो यही उदात्त भावना है।
मरुत क्षात्रबल के प्रतीक हैं।
किसी भी राष्ट्र की युवा-शक्ति और सैन्य-शक्ति भी क्षात्र-बल का ही प्रतीक होती
है। जिस समाज में मरुतों का बाहुल्य होता है, वही समाज वास्तव में बलशाली होता है। इसीलिए वेद मरुतों से
यह अपेक्षा रखता है कि मरुत पूरे राष्ट्र को ओज और बल से स्थिर करें।
"उग्रं व ओजः स्थिरा शवांस्यौ
मरुत् भिर्गणस्तु विष्मान्" (ऋग्वेद ७।५६।७)।
वेद में मरुतों को विश्ववेदसः भी
कहा गया है । “....मरुतो विश्ववेदसु आते त्वष्टा पत्सु जवं दधातु।" (यजु:०९।८; अथर्व० ६।९२।१) अर्थात् मरुत वीर
सर्वप्रापक, सर्वप्रकार के ज्ञान-विज्ञान से
युक्त, इस प्रकार का नियमन तथा निरीक्षण
करें जिससे किसी भी राष्ट्र की कल्याणकारी योजनाएँ पूरे वेग और गति से निष्पादित
हो सकें।
इसके लिये मरुतों का ब्रह्म-बल से
भी युक्त होना राष्ट्रोत्थान और मानवता की रक्षा के लिये बहुत जरूरी है। जहाँ
क्षत्रियत्व और ब्रह्मणत्व दोनों जीवन में संयुक्त हो जाते हैं, वही राष्ट्र उन्नत राष्ट्र, और वही लोक पुण्यलोक होता है।
ईश्वर करे, कि हमारी युवा-शक्ति और
सैन्य-शक्ति जिसकी शौर्य, वीरता और साहस के बारे में दो राय
नहीं, देवत्व और ब्रह्मणत्व से भी
ओत-प्रोत हो; मानवता के सुखद भविष्य के लिये यह
अत्यन्त आवश्यक है।
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