कैसे हों हमारे जन-नायक*
मूर्धानं दिवोऽअरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृतऽआ
जातमग्निम्।
कविसम्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्र जनयन्त देवाः॥ -
ऋग्वेद ६।७।१, यजुर्वेद ७।२४, ३३1८, सामवेद ६७।११४०
ऋाषिः
-भरद्वाज बार्हस्तपत्यः ।
देवता:-वैश्वानरः । छन्दः-आर्षी त्रिष्टुप् । स्वरः-धैवतः।
पदपाठ-मूर्द्धनम्। दिवः ।अरतिम्। पृथिव्याः ।
वैश्ववानरम्। ऋाते।आ। जातम्। अग्निं । कविम्। सम्राजम्। अतिथिम्। जनानाम्। आसन्।
आ। पात्रम्। जनयन्त । देवाः।
किसी भी देश या राष्ट्र की उन्नति
में तीन बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण –
वस्तुओं की गुणवत्ता।
सेवाओं की गुणवत्ता।
नेतृत्व की गुणवत्ता।
जिस देश में वस्तुओं की उत्पादन
उच्च कोटि का हो, दी जाने वाली सेवाओं में कमाल को चुस्ती-फुर्ती और
कार्य-कुशलता हो, और जहाँ का जन-मानस नैतिक-मूल्यों की रक्षा करने हेतु सफल
और सही नेतृत्व को प्रतिष्ठित करने में सक्षम हो, वह देश सब देशों में शिरोमणि होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। __सही नेतृत्व सही जनमानस से ही
उपजता है। इसीलिये वेद में जितना बल मानव-निर्माण पर दिया गया है, वह अद्वितीय एवं अनुपम है। मनुष्य
में दिव्य गुणों को जागृत करना,
यही
अध्यात्म का चरम लक्ष्य है, यही मानव-धर्म है, और यही वेद का आदर्श है।
जो मन्त्र ऊपर प्रस्तुत किया गया
है, वह ऋग्वेद के छठे मण्डल के सातवें
सूक्त का प्रथम मन्त्र है। इस सप्सर्च सूक्त के प्रत्येक मन्त्र में
"वैश्वानर" अर्थात् अग्रणी नायक, समस्त मनुष्यों का हित-सम्पादन करने वाले हृदय-सम्राट के
नेतत्व-प्रधान गुणों का सविस्तार वर्णन है। मन्त्र तथा इसके विषय की महत्ता इसी से
स्पष्ट है, कि यही मन्त्र यजुर्वेद में दो बार
और सामवेद में भी दो बार दोहराया गया है। जब किसी महत्वपूर्ण विषय को प्रभावी ढंग
से सुनिश्चित और सुस्पष्ट रूप में प्रस्तुत करना हो, तो पुनरुक्ति का आश्रय लिया ही
जाता है।
एक बात और 'यथा राजा तथा प्रजा' यह लोकोक्ति कदाचित सामन्तशाही युग
की देन हो, परन्तु वेद के अनुसार, जोकि प्रजातन्त्र का प्रबल पोषक है
'यथा प्रजा, तथा राजा' वाली बात चरितार्थ होती है।
यजुर्वेद भाष्य में महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती इस मन्त्र से पूर्व के मन्त्र
के भावार्थ में लिखते हैं-"प्रजा जनों को उचित है कि सकल शास्त्र का प्रचार
होने के लिये सब विद्याओं में कुशल और अत्यन्त ब्रह्मचर्य के अनुष्ठान करने वाले पुरुष
को सभापति करें।" और इस मन्त्र के आरम्भ में टिप्पड़ी देते हैं कि
"सभापति आदि के निर्वाचन में विद्वान ही मुख्य प्रमाण हैं, अतः विद्वानों का कर्तव्य बतलाते
हैं।" विद्वानों का मुख्य कर्त्तव्य वेद के अनुसार है 'सही नेतृत्व का निर्माण'। सही नेतृत्व ही समाज को, संस्थाओं को, देश को, यहाँ तक कि समस्त विश्व को सही
दिशा दे सकता है।
दूसरी बात यह, कि नेता कोई जन्म से, जाति से, वंश या कुल से नहीं होता। जो भी
परमेश्वर से युक्त होकर परमेश्वर के दिव्य-गुणों को अपने जीवन में धारणा तथा
व्यवहृत करता है, उसके अन्दर नेतृत्व-प्रधान गुणों
का स्वतः विकास होता है। ऐसा ही व्यक्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा ब्रह्म में विचरण करता
हुआ 'ब्रह्मणस्पति' और वाणी तथा पाणि की साधना से 'वाचस्पति' तथा शुभ और श्रेष्ठतम कर्मों के करने
से 'यज्ञपति' कहाता है।
ऋग्वेद के छठे मण्डल के सातवें
सूक्त के इस प्रथम तथा अगले मन्त्र की टेक है-(जनयन्त देवाः) देवगण निर्माण करें, सर्वत्र प्रसिद्ध करें, प्रकाशित करें, प्रादुर्भूत करें। प्रश्न होता है, किसको? और देवगण ही क्यों करें, अन्य क्यों नहीं?
विद्वांसो हि देवाः (शतपथ ३।७।३।१०) विद्वान जन ही 'देवः' कहाते हैं। और विद्वान वे विवेकी
जन होते हैं, जो 'सत्य''असत्य', 'धर्म'-'अधर्म', 'पुण्य'-'पाप', 'अच्छे'-'बुरे' का निक्षयात्मक ज्ञान अपनी
विवेक-बुद्धि से कर सकते हैं। देव चूंकि देना जानते हैं, उनका जीवन दूसरों के लिये होता है, उनका अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं
होता, निष्काम भाव से वे श्रेष्ठत्म
कर्मों को कार्यान्वित करते हैं,
अतः
चाहे बात निर्माण की हो, चाहे चयन की. विद्वानों से अधिक
उपयुक्त नेतृत्व-प्रदाता और कोई हो ही नहीं सकता। जहाँ देवजन आगे नहीं आयेंगे, स्वाभाविक है अविद्वान अर्थात्
असुरगण अवसर का लाभ उठा जायेंगे। स्थान कोई खाली नहीं रहता। एक जाता है, दूसरा आ जाता है। मुख्य बात यह है, कि देवों का स्थान देव ही लें, अतः यह उत्तरदायित्व देवों पर आता
है, कि वे देवों का निर्माण करें, देवत्व का विकास करें, और शीर्षस्थानों पर देवों को ही
प्रतिष्ठित करें। यह निश्चय जानिये कि देवासुरसंग्राम संसार में अनादि काल से चला
आ रहा है, और सृष्टि-पर्यन्त चलता रहेगा। देव
और असुर दोनों ही प्रजापति की सन्तानें हैं, देव सदैव ही अर्चना और श्रम से यज्ञ (श्रेष्ठतम) कर्मों में
प्रवृत्त रहे हैं,
और असुर सदैव से यज्ञों को विध्वंस
करने में लगे रहे हैं, पर एक बात जो स्पष्टतया वेद और
ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुशीलन से प्रतीत होती है, वह यह,
कि
देवों ने असुरों से हार नहीं मानी है, असुरों को उन्होंने पछाड़ा है, दूर भगाया है, यज्ञ और यजमानों की (श्रेष्ठतम
कर्म और श्रेष्ठतम कर्म करने वालों की) सदैव रक्षा की है। देवों ने युद्ध लड़े हैं, संग्रामों को जीता है, शान्ति के लिये, विकास के लिये, निर्माण के लिये।
तो, यह तो बात हुई देवों के दायित्व की। अब प्रश्न बाक़ी जो रहा, कि देव किसका निर्माण करें? देवों को देवों का ही निर्माण करना
है. मनुष्यों को देव बनना है उनमें देवत्व की तथा नेतृत्व की भावना भरनी है, और ऐसे देवों में जो सर्वश्रेष्ठ
हो उसको नायक-नेता बनाना है। गीता में जैसे अर्जुन ने प्रश्न किया है, कि "स्थितप्रज्ञस्य का भाषा?" स्थितप्रज्ञ का क्या लक्षण है, उसी प्रकार प्रश्न किया जा सकता है, कि देवों में देव, अग्रणी नेता के क्या लक्षण हैं? नेता कैसा हो? मन्त्र इसका उत्तर इस प्रकार देता
है-
१. (मूर्धानम् दिवः) ज्ञान के आलोक से प्रकाशित
उच्चतम् शिखर के समान । वर्फ से ढके पर्वतों के उच्च शिखर जिस प्रकार सूर्य के
प्रकाश में आलोकित हो उठते हैं,
उसी
प्रकार नेतृत्व प्रदान करने वाला महापुरुष पुर्ण-परमात्मा के पूर्ण-ज्ञान से पूरी
तरह आलोकित होना चाहिये। एक बार साधारण मनुष्य की साधारण सी भूल को माफ़ किया जा
सकता है, पर संसार नेताओं की भूल को कभी
माफ़ नहीं करता। इतिहास के पन्नों में नेताओं की भूलें बदनुमा दाग की तरह हमेशा-हमेशा
के लिये अमिट हो जाती हैं। इसीलिये मन्त्र में कहा गया कि नेता (चाहे समाज का हो, सदन का हो, या विश्व का) दिव्य-ज्ञान और
दिव्य-गुणों से दीप्त शीर्शस्थ कोटि का होना चाहिये। शतपथ ब्राह्मण ४।२।४।२० के अनुसार जो
सर्वश्रेष्ठ होता है, उसको 'शिर' कहा जाता है। पुरुष का शिर ही उसका
द्यौलोक है, शिर से ही "श्री" है।
कहा जाता है, कि सही निर्णय का आधार ९० प्रतिशत
स्थिति का सही ज्ञान और १० प्रतिशत अन्तर्बोध होता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
हम कह सकते हैं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी जहाँ बाहरी जान. बाहर की रोशनी के लिये
जरूरी है. वहाँ अध्यात्म (परा-विद्या अथवा ब्रह्म-ज्ञान) अन्तर्बोध/अन्दर की रोशनी
के लिये ज़रूरी है। यदि अन्दर-बाहर रोशनी नहीं, तो अंधेरा ही अंधेरा होगा, और अंधेरे में सिवाय टकराव के और कुछ नहीं हो सकता। जो खुद
रोशन है, वही दूसरों को रोशनी दे सकता है।
और नेताओं के लिये तो यह और भी लाज़मी हो जाता है, कि वह पूरी तरह से रोशन हों, उनके दिल और दिमाग रोशन हों, मन और बुद्धि आलोकित हों और उनका अन्तरात्मा अन्तरयामी
परमात्मा के आलोक से नित्य आलोकित रहे।
२. (अ-रसिम् पृथिव्याः ) नेताओं की पार्थिव पदार्थों में
रति महीं होना चाहिये। भौतिक पदार्थों व क्षणिक सुखों के प्रति आसक्ति नहीं, अनासक्ति होनी चाहिये । नेता
पृथिवी का रक्षक और पोषक तो हो,
पर
पृथिवी के किसी भी भाग के प्रति आसक्त अथवा लोलुप न होना चाहिये। जो व्यक्ति पद व
स्थान लोलुप हो, पद या भूमि के आकर्षण से बँधा रहना
चाहे, वेद की दृष्टि में वह नेतृत्व
प्रदान करने का अधिकारी नहीं। ममत्व न रखकर समत्व की भावना रखना, नेतृत्वता का प्रधान गुण है ।
समत्व से ही सर्वोदय सम्भव है। सिद्धिअसिद्धि, मित्र-शत्रु, मान-अपमान,
सुख-दुःख, स्तुति-निन्दा आदि द्वन्दों के
विषय में सम-भावना रखना ही अनासक्ति योग है। नेतृत्व प्रदान करने वाले विद्वानों
को यही उचित है कि द्वन्दों से मुक्त हों, वृत्तियाँ सात्विक हों, आत्म-ज्ञान व आत्मिक बल से परिपूर्ण हो।
३.(वैश्वानरम्) विश्व-नर-हितम्, अर्थात् समस्त मनुष्यों का हितकारी
होना नेता का तीसरा महत्वपूर्ण लक्षण है। इसके लिये भी उसका नि:स्पृह, ममत्वरहित और निरहंकारी होना आवश्यक है। निराभिमानता और
विनम्रता वैश्वानर अर्थात् नायक के प्रधान गुण हैं।
त्वां विश्वे अमृत जायमानं शिशं न
देवा अभि सं नवन्ते।
तव क्रतुभिरमृतत्वमायन्वैश्वानर
यत्पित्रोरदीदेः।। (ऋग्वेद ६।७।४)
इस मन्त्र में वैश्वानर के प्रति बड़ी
सुन्दर बात कही गई है। जिस प्रकार देवगण नव-जात शिशु को आशीर्वाद देने के लिये
उसके प्रति प्रेम से झुकते हैं,
उसी
प्रकार हे अमृत-तुल्य वैश्वानर ! पित्रों (जनमानस) के प्रति तू प्रकाशित हो। तेरे
कर्मों से [जन-मानस] अमृतत्व [दुःखों से छूट कर आनन्द] को प्राप्त हों।) ऋग्वेद
६।७।७ में वैश्वानर को 'अमृतस्य रक्षिता' अमृत (समृद्धि/ आनन्द) का रक्षक कहा गया है। इन सभी से नेतृत्व के आधारभूत
गुणों का बोध होता
४. (ऋते आ जातम्) ऋत' का अर्थ है, ऋताचार सदाचार । 'आ' का अर्थ है अच्छे प्रकार से। 'जातम' का अर्थ है, जाया हुआ, प्रसिद्ध, प्रकाशित । वैश्वानर पूर्णतया
ऋताचारी अर्थात् सदाचारी हो। व्यवहार में मधुर और न्यायशील हो। भौतिक सुखों की
प्राप्ति के लिये असत्य और भ्रष्ट-आचरण का आश्रय कभी न ले। उसका सारा जीवन सत्य की
रक्षा, सत्यान्वेषण तथा सत्य को उजागर
करने के लिये समर्पित होना चाहिये।
५. (अग्निम् ) अग्निवत प्रदीस, प्रकाशमान, ऊर्ध्वगामी अग्रणी, तेजस्वी और पावमान होना नेतृत्व
प्रदान करने के लिये जरूरी है। अग्नि प्रेरक है, हव्य-वाहन है, अग्नि जो कुछ ग्रहण करती है, उसको सूक्ष्मतर करके कई गुणा वायुमण्डल में सबके हित के
लिये वापस कर देती है। अग्नि ऊर्जा है। ताप, प्रकाश और विद्युत अग्नि के ही रूप हैं। इस प्रकार अग्नि
शक्ति का स्रोत है। नेतृत्व प्रदान करने वाला व्यक्ति स्वयं अग्निवत हो। उसके
अन्तर में परमार्थ हेतु एक ज्वाला धधकती हो। उसके जीवन का सूत्र हो 'आगे बढ़ना' और 'ऊँचे चढ़ना' साथ ही अपने साथ औरों के लिये भी
प्रगति, उत्थान और विकास का मार्ग प्रशस्त
करना। अग्नि तेज का प्रतीक है। नेता भी तेजस्वी एवं वर्चस्वी होना चाहिये। अग्नि
शोधक है, नेता भी इस प्रकार का हो, कि जो भी उसके सम्पर्क में आये, वह उससे प्रभावित हुये बिना न रह
सके। अग्नि पावक है, नेता भी ऐसा हो कि उसके सानिध्य
में लोग पावन हो जायें, इसके लिये नेता का 'निजी जीवन' और 'सार्वजनिक जीवन' दोनों ही पवित्र होने चाहिये। नेता
का जीवन एक खुली पुस्तक हो, बेशक चाहे कोई उसकी 'प्राइवेट लाइफ़' में झाँके या 'पब्लिक लाइफ़' में। वेद जीवन को 'प्राइवेट' और 'पब्लिक' में नहीं विभाजित करता। जीवन तो बस
जीवन है, जैसा अन्दर वैसा बाहर, और जैसा बाहर वैसा अन्दर । किसी भी
नेता के स्मरणार्थ इससे अच्छी सूक्ति क्या होगी कि 'जुबान से ज्यादा ऊँची आवाज़ में
व्यक्ति का जीवन बोलता है' (Life speaks
louder than tongue)।
६. (कविं) कवि की विशेषता है, उसका कोमल, भावुक और संवेदनशील होना । चिन्तन
और मनन की दृष्टि से कवि दूरदर्शी भी है, और क्रान्तदर्शी भी। कहते हैं 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पँहुचे कवि'। रचना और सृजन करना उसके कर्म
हैं। नपे-तुले, किन्तु नियम-बद्ध शब्दों में, बहुत ऊँची या बहुत गहरी बात कह
देना कवि की अपनी विशेषता है। कवि के लिये कोई विषय अछूता नहीं, वह सबका है और सब उसके हैं।
कवि-हृदय की तो बात ही क्या; सबकी पीड़ा उसकी पीड़ा है। सर्वत्र
व्याप्त सौन्दर्य और प्रेम का दर्शन उसकी साधना है। कवि के सारे उदात्त गुणों का
समावेश एक नेता में भी होना जरूरी है, तभी वह जन-जन का नायक कहलाने का अधिकारी हो सकेगा।
७. (सम्राजं) सम्राजं का अर्थ है, समान रूप से (अर्थात् पक्षपात रहित
होकर, लोगों के दिलों पर राज करने वाला।
वह 'लीडर' कैसा जिसका कोई अनुयायी न हो।
व्यक्ति नेता बनता है, जनाधार से। और जनाधार जब बनता है, जब जन-जन के दिलों पर वह राज करता
है। जितना अधिक वह जनमानस में लोकप्रिय होता है, उतना ही अधिक वह चमकता है, उतना ही अधिक उसका विस्तार होता है। वेद के दृष्टिकोण से
नेता को विश्वव्यापी बनने का यन करना चाहिये, छोटे-छोटे गुटों, धड़ों और दलों का नहीं। सारी वसुधा उसका कुटुम्ब हो और
चक्रवर्ती सम्राट की भाँति उसके यश व कीर्ति की पताका समस्त भू-मण्डल पर लहराये।
८. (अतिथिं) जिसके आने व जाने की तिथि निश्चित
न हो, वह अतिथि कहाता है। नेतृत्व प्रदान
करने वाले नेता को नेतृत्व प्रदान करना है, पद या कुर्सी से चिपके रहना नहीं। पद या कुर्सी कब मिल जाये, और कब छिन जाये; कब आये, कब चली जाय, कुछ नहीं कहा जा सकता। अतिथि जब
किसी का अतिथेय ग्रहण करता है,
तो
भली-भाँति वह अपनी स्थिति को समझता है, वह जानता है कि मेजबान का घर उसका कुछ क्षणों, घण्टों या दिनों के लिये उसका
आश्रयस्थल ज़रूर है, पर वह उस घर का मालिक नहीं।
मेज़बान के घर अतिथि रहता है,
घर
की वस्तुओं का उपयोग करता है,
भोजन
करता है परन्तु अपने आप को किसी भी वस्तु से बाँधता नहीं। जब जाने का समय आता है, सब कुछ यथावत छोड़कर मेजबान को
आशीर्वाद/शुभकामनायें व्यक्त कर चल पड़ता है। मेज़बान व उसके द्वारा अतिथेय के
प्रति अतिथि के मन में न राग होता है, न द्वेष । इन्हीं सब कारणों से अतिथि सम्मानीय व पूज्यनीय
बनता है। अतिथि की परिभाषा करते हुये महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती कहते हैं
"जो मनुष्य पूर्ण-विद्वान,
परोपकारी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, सत्यवादी, छल-कपट-रहित और नित्य भ्रमण करते
हुये विद्या का प्रचार और अविद्या की निवृत्ति सदा करते हैं, उनको अतिथि' कहते हैं।" (ऋ० भा० भू०
पञ्च०) मनु महाराज ने भी कहा है- 'अनित्यं
हि स्थितो यस्मात् तस्मादतिथिं रुच्यते' (मनु०३।१०२) जिसकी स्थिति अस्थायी होती है, अतएव उसे अतिथि पुकारा जाता है।
मनुस्मृति ४। ३० में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जो पाखण्डी, दुर्गुणी, विकर्मी (उल्टे कार्य करने वाला), वैडालवृत्तिक (छली-कपटी), शठ, हैतुक (कुतर्की), बकवृत्ति (बकवादी, मिथ्याचारी), दिखावा करने वाला, स्वार्थी हो, वह 'अतिथि' के गुणों के विपरीत होने के कारण
सत्कार का पात्र नहीं होता। नेता में कौन से गुण होने चाहिये, और कौन से नहीं, मन्त्र में किस सुन्दरता के साथ एक
अतिथि' शब्द में ही व्यक्त कर दिया। नेता 'अतिथि' रहेगा सम्मान प्राप्त करेगा, पूज्यनीय और वन्दनीय रहेगा।'अतिथि' न बन सका तो बड़े बे-आबरू होकर
निकाल बाहर किया जायेगा। वेद का वचन यह सत्य जानिये।
९.(जनानां आसन्नः पात्रं) जनसमूह में आसन का पात्र हो।
मनुष्यों के बीच, मनुष्यों में कार्य करते हुये
जनता-जनार्दन पात्रता के कारण जिसको अपना नेता प्रतिष्ठित करे, उसको उच्च आसन दे, हर एक की जुबान पर जिसकी प्रशंसा
हो। विद्वान अपने मुख से जिसका यशोगान करें, और स्वयं अपने मन-वचन-कर्म से जनता-जनार्दन का रक्षक हो, उनका परित्राण करने वाला हो, वह योग्य पात्र नेता कहाता है।
स्वयंभूः नेता की नेतागीरी चलने वाली नहीं। स्वयंभूः एकमात्र केवल परमात्मा है, जो अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। अन्य
कोई भी
स्वयंभू:
हो ही नहीं सकता। परस्पर एक दूसरे की प्रशंसा करने से, अभिनन्दन करने और करवा लेने से कोई
भी नेता नहीं बन सकता। कोटि-कोटि कण्ठों से जिन सुपात्रों का मुक्त स्तवन होता है, कोटि-कोटि लोगों के मुख, जिन सुपात्रों की जय जयकार और उनके
कर्तृत्व व सुकर्मों का गुणगान करते नहीं थकते, वे नेता कहाते हैं।
मन्त्र में इस प्रकार नेतृत्व-प्रधान
गुणों का बड़ा सुन्दर विवेचन है। ऐसा नहीं है, कि वेद की कसौटी पर खरे उतरने वाले नेताओं से (ऋषि, मुनि, सन्त, महात्मा, राजा, महाराजा, वीरों, वीरांगनाओं आदि से) यह धरती कभी
शून्य रही है, परन्तु आज जबकि प्रत्येक देश-देशान्तर
में, यहाँ तक कि, विश्व-मंच पर नेताओं की भीड़ ही
भीड़ दीखती है, काश, कुछ ऐसे भी जन-सेवी वैश्वानर
(विश्व नेता) होते, जिन पर धरती माता गर्व कर सकती!
हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर
रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा।
"दिव्य-ज्ञान से उद्भासित, गुणों में हो जो सबका सरताज, अनासक्त, विश्व-विनायक, ऋत में हो जो पूर्ण-प्रज्ञात,
देवगण इस धराधाम पर, करें ऐसा नेतृत्व निर्माण॥ अग्नि, कवि और अतिथि गुणों से, सबका हो जो हृदय-सम्राट, कोटि-कोटि जन जिसका नित, मुख से करें यशो-गुण-गान,
देवगण इस धराधाम पर, करें ऐसा नेतृत्व निर्माण"॥
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