यजुर्वेद अध्याय 1, हिन्दी भाष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती
इ॒षे
त्वो॒र्जे त्वा॑ वा॒यव॑ स्थ दे॒वो वः॑ सवि॒ता प्रार्प॑यतु॒ श्रेष्ठ॑तमाय॒
कर्म॑ण॒ऽआप्या॑यध्वमघ्न्या॒ऽइन्द्रा॑य भा॒गं प्र॒जाव॑तीरनमी॒वाऽअ॑य॒क्ष्मा मा व॑
स्ते॒नऽई॑शत॒ माघश॑ꣳसो ध्रु॒वाऽअ॒स्मिन् गोप॑तौ स्यात ब॒ह्वीर्यज॑मानस्य प॒शून्
पा॑हि ॥१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
इसके
प्रथम अध्याय के प्रथम मन्त्र में उत्तम-उत्तम कामों की सिद्धि के लिये मनुष्यों
को ईश्वर की प्रार्थना करनी अवश्य चाहिये,
इस बात का प्रकाश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्य लोगो ! जो (सविता) सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाला सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त
(देवः) सब सुखों के देने और सब विद्या के प्रसिद्ध करनेवाला परमात्मा है, सो
(वः) तुम हम और अपने मित्रों के जो (वायवः) सब क्रियाओं के सिद्ध करानेहारे स्पर्श
गुणवाले प्राण अन्तःकरण और इन्द्रियाँ (स्थ) हैं,
उनको (श्रेष्ठतमाय)
अत्युत्तम (कर्मणे) करने योग्य सर्वोपकारक यज्ञादि कर्मों के लिये (प्रार्पयतु)
अच्छी प्रकार संयुक्त करे। हम लोग (इषे) अन्न आदि उत्तम-उत्तम पदार्थों और विज्ञान
की इच्छा और (ऊर्जे) पराक्रम अर्थात् उत्तम रस की प्राप्ति के लिये (भागम्) सेवा
करने योग्य धन और ज्ञान के भरे हुए (त्वा) उक्त गुणवाले और (त्वा) श्रेष्ठ
पराक्रमादि गुणों के देने हारे आपका सब प्रकार से आश्रय करते हैं। हे मित्र लोगो !
तुम भी ऐसे होकर (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त हो तथा हम भी हों। हे भगवन्
जगदीश्वर ! हम लोगों के (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (प्रजावतीः)
जिनके बहुत सन्तान हैं तथा जो (अनमीवाः) व्याधि और (अयक्ष्माः) जिनमें राजयक्ष्मा
आदि रोग नहीं हैं, वे (अघ्न्याः) जो-जो गौ आदि पशु वा उन्नति करने योग्य हैं, जो
कभी हिंसा करने योग्य नहीं, जो इन्द्रियाँ वा पृथिवी आदि लोक हैं, उन
को सदैव (प्रार्पयतु) नियत कीजिये। हे जगदीश्वर ! आपकी कृपा से हम लोगों में से
दुःख देने के लिये कोई (अघशंसः) पापी वा (स्तेनः) चोर डाकू (मा ईशत) मत उत्पन्न हो
तथा आप इस (यजमानस्य) परमेश्वर और सर्वोपकार धर्म के सेवन करनेवाले मनुष्य के
(पशून्) गौ, घोड़े और हाथी आदि तथा लक्ष्मी और प्रजा की (पाहि) निरन्तर
रक्षा कीजिये, जिससे इन पदार्थों के हरने को पूर्वोक्त कोई दुष्ट मनुष्य
समर्थ (मा) न हो, (अस्मिन्) इस धार्मिक (गोपतौ) पृथिवी आदि पदार्थों की रक्षा
चाहनेवाले सज्जन मनुष्य के समीप (बह्वीः) बहुत से उक्त पदार्थ (ध्रुवाः) निश्चल
सुख के हेतु (स्यात) हों। इस मन्त्र की व्याख्या शतपथ-ब्राह्मण में की है, उसका
ठिकाना पूर्व संस्कृत-भाष्य में लिख दिया और आगे भी ऐसा ही ठिकाना लिखा जायगा, जिसको
देखना हो, वह उस ठिकाने से देख लेवे ॥१॥
भावार्थभाषाः
-विद्वान् मनुष्यों को सदैव परमेश्वर और धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से ऋग्वेद
को पढ़ के गुण और गुणी को ठीक-ठीक जानकर सब पदार्थों के सम्प्रयोग से पुरुषार्थ की
सिद्धि के लिये अत्युत्तम क्रियाओं से युक्त होना चाहिये कि जिससे परमेश्वर की
कृपापूर्वक सब मनुष्यों को सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि हो। सब लोगों को चाहिये कि
अच्छे-अच्छे कामों से प्रजा की रक्षा तथा उत्तम-उत्तम गुणों से पुत्रादि की शिक्षा
सदैव करें कि जिससे प्रबल रोग, विघ्न और चोरों का अभाव होकर प्रजा और
पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हों,
यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की
खान है। हे मनुष्य लोगो ! आओ अपने मिलके जिसने इस संसार में आश्चर्यरूप पदार्थ रचे
हैं, उस जगदीश्वर के लिये सदैव धन्यवाद देवें। वही परम दयालु
ईश्वर अपनी कृपा से उक्त कामों को करते हुए मनुष्यों की सदैव रक्षा करता है ॥१॥
वसोः॑
प॒वित्र॑मसि॒ द्यौर॑सि पृथि॒व्य᳖सि मात॒रिश्व॑नो घ॒र्मोऽसि वि॒श्वधा॑ऽअसि।
प॒र॒मेण॒ धाम्ना॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत् ॥२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
वह
यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे विद्यायुक्त मनुष्य ! तू जो (वसोः) यज्ञ (पवित्रम्) शुद्धि का हेतु (असि) है।
(द्यौः) जो विज्ञान के प्रकाश का हेतु और सूर्य की किरणों में स्थिर होनेवाला
(असि) है। जो (पृथिवी) वायु के साथ देशदेशान्तरों में फैलनेवाला (असि) है। जो
(मातरिश्वनः) वायु को (घर्मः) शुद्ध करनेवाला (असि) है। जो (विश्वधाः) संसार का
धारण करनेवाला (असि) है तथा जो (परमेण) उत्तम (धाम्ना) स्थान से (दृꣳहस्व) सुख का
बढ़ानेवाला है। इस यज्ञ का (मा) मत (ह्वाः) त्याग कर तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः)
यज्ञ की रक्षा करनेवाला यजमान भी उसको (मा) न (ह्वार्षीत्) त्यागे। धात्वर्थ के
अभिप्राय से यज्ञ शब्द का अर्थ तीन प्रकार का होता है अर्थात् एक जो इस लोक और
परलोक के सुख के लिये विद्या, ज्ञान और धर्म के सेवन से वृद्ध अर्थात्
बड़े-बड़े विद्वान् हैं, उनका सत्कार करना। दूसरा अच्छी प्रकार
पदार्थों के गुणों के मेल और विरोध के ज्ञान से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना और
तीसरा नित्य विद्वानों का समागम अथवा शुभगुण विद्या सुख धर्म और सत्य का नित्य दान
करना है ॥२॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं, उससे
पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य,
वायुरूपी प्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब
की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृद्धि, परस्पर
कोमलता से वर्त्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं।
इसलिये सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिये विद्या और पुरुषार्थ के साथ
प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये ॥२॥
वसोः॑
प॒वित्र॑मसि श॒तधा॑रं॒ वसोः॑ प॒वित्र॑मसि स॒हस्र॑धारम्। दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता
पु॑नातु॒ वसोः॑ प॒वित्रे॑ण श॒तधा॑रेण सु॒प्वा᳕ काम॑धुक्षः ॥३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
उक्त यज्ञ कैसा सुख करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-जो (वसोः) यज्ञ (शतधारम्) असंख्यात संसार का धारण करने और (पवित्रम्) शुद्धि
करनेवाला कर्म (असि) है तथा जो (वसोः) यज्ञ (सहस्रधारम्) अनेक प्रकार के
ब्रह्माण्ड को धारण करने और (पवित्रम्) शुद्धि का निमित्त सुख देनेवाला (असि) है, (त्वा)
उस यज्ञ को (देवः) स्वयं प्रकाशस्वरूप (सविता) वसु आदि तेंतीस देवों का उत्पत्ति
करनेवाला परमेश्वर (पुनातु) पवित्र करे। हे जगदीश्वर ! आप हम लोगों से सेवित जो
(वसोः) यज्ञ है, उस (पवित्रेण) शुद्धि के निमित्त वेद के विज्ञान (शतधारेण)
बहुत विद्याओं का धारण करनेवाले वेद और (सुप्वा) अच्छी प्रकार पवित्र करनेवाले
यज्ञ से हम लोगों को पवित्र कीजिये। हे विद्वान् पुरुष वा जानने की इच्छा करनेवाले
मनुष्य ! तू (काम्) वेद की श्रेष्ठ वाणियों में से कौन-कौन वाणी के अभिप्राय को
(अधुक्षः) अपने मन में पूर्ण करना अर्थात् जानना चाहता है ॥३॥
भावार्थभाषाः
-जो मनुष्य पूर्वोक्त यज्ञ का सेवन करके पवित्र होते हैं, उन्हीं
को जगदीश्वर बहुत-सा ज्ञान देकर अनेक प्रकार के सुख देता है, परन्तु
जो लोग ऐसी क्रियाओं के करनेवाले वा परोपकारी होते हैं, वे
ही सुख को प्राप्त होते हैं, आलस्य करनेवाले कभी नहीं। इस मन्त्र में
(कामधुक्षः) इन पदों से वाणी के विषय में प्रश्न है ॥३॥
सा
वि॒श्वायुः॒ सा वि॒श्वक॑र्मा॒ सा वि॒श्वधा॑याः। इन्द्र॑स्य त्वा भा॒गꣳ
सोमे॒नात॑नच्मि॒ विष्णो॑ ह॒व्यꣳर॑क्ष ॥४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
जो
पूर्वोक्त मन्त्र में तीन प्रश्न कहे हैं,
उनके उत्तर अगले मन्त्र में
क्रम से प्रकाशित किये हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (विष्णो) व्यापक ईश्वर ! आप जिस वाणी का धारण करते हैं, (सा)
वह (विश्वायुः) पूर्ण आयु की देनेवाली (सा) वह (विश्वकर्मा) जिससे कि सम्पूर्ण
क्रियाकाण्ड सिद्ध होता है और (सा) वह (विश्वधायाः) सब जगत् को विद्या और गुणों से
धारण करनेवाली है। पूर्व मन्त्र में जो प्रश्न है,
उसके उत्तर में यही तीन
प्रकार की वाणी ग्रहण करने योग्य है,
इसी से मैं (इन्द्रस्य)
परमेश्वर के (भागम्) सेवन करने योग्य यज्ञ को (सोमेन) विद्या से सिद्ध किये रस
अथवा आनन्द से (आ तनच्मि) अपने हृदय में दृढ़ करता हूँ तथा हे परमेश्वर ! (हव्यम्)
पूर्वोक्त यज्ञ सम्बन्धी देने-लेने योग्य द्रव्य वा विज्ञान की (रक्ष) निरन्तर
रक्षा कीजिये ॥४॥
भावार्थभाषाः
-तीन प्रकार की वाणी होती है अर्थात् प्रथम वह जो कि ब्रह्मचर्य में पूर्ण विद्या
पढ़ने वा पूर्ण आयु होने के लिये सेवन की जाती है। दूसरी वह जो गृहाश्रम में अनेक
क्रिया वा उद्योगों से सुखों की देनेवाली विस्तार से प्रकट की जाती और तीसरी वह जो
इस संसार में सब मनुष्यों के शरीर और आत्मा के सुख की वृद्धि वा ईश्वर आदि
पदार्थों के विज्ञान को देनेवाली वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में विद्वानों से
उपदेश की जाती है। इस तीन प्रकार की वाणी के विना किसी को सब सुख नहीं हो सकते, क्योंकि
इसी से पूर्वोक्त यज्ञ तथा व्यापक ईश्वर की स्तुति,
प्रार्थना और उपासना करना
योग्य है। ईश्वर की यह आज्ञा है कि जो नियम से किया हुआ यज्ञ संसार में रक्षा का
हेतु और प्रेम सत्यभाव से प्रार्थित ईश्वर विद्वानों की सर्वदा रक्षा करता है, वही
सब का अध्यक्ष है, परन्तु जो क्रिया में कुशल धार्मिक परोपकारी मनुष्य हैं, वे
ही ईश्वर और धर्म को जानकर मोक्ष और सम्यक् क्रियासाधनों से इस लोक और परलोक के
सुख को प्राप्त होते हैं ॥४॥
अग्ने॑
व्रतपते व्र॒तं च॑रिष्यामि॒ तच्छ॑केयं॒ तन्मे॑ राध्यताम्। इ॒दम॒हमनृ॑तात्
स॒त्यमुपै॑मि ॥५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
वाणी का व्रत क्या है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (व्रतपते) सत्यभाषण आदि धर्मों के पालन करने और (अग्ने) सत्य उपदेश करनेवाले
परमेश्वर ! मैं (अनृतात्) जो झूँठ से अलग (सत्यम्) वेदविद्या, प्रत्यक्ष
आदि प्रमाण, सृष्टिक्रम,
विद्वानों का सङ्ग, श्रेष्ठ
विचार तथा आत्मा की शुद्धि आदि प्रकारों से जो निर्भ्रम, सर्वहित, तत्त्व
अर्थात् सिद्धान्त के प्रकाश करनेहारों से सिद्ध हुआ, अच्छी
प्रकार परीक्षा किया गया (व्रतम्) सत्य बोलना,
सत्य मानना और सत्य करना है, उसका
(उपैमि) अनुष्ठान अर्थात् नियम से ग्रहण करने वा जानने और उसकी प्राप्ति की इच्छा
करता हूँ। (मे) मेरे (तत्) उस सत्यव्रत को आप (राध्यताम्) अच्छी प्रकार सिद्ध
कीजिये जिससे कि (अहम्) मैं उक्त सत्यव्रत के नियम करने को (शकेयम्) समर्थ होऊँ और
मैं (इदम्) इसी प्रत्यक्ष सत्यव्रत के आचरण का नियम (चरिष्यामि) करूँगा ॥५॥
भावार्थभाषाः
-परमेश्वर ने सब मनुष्यों को नियम से सेवन करने योग्य धर्म का उपदेश किया है, जो
कि न्याययुक्त, परीक्षा किया हुआ,
सत्य लक्षणों से प्रसिद्ध और
सब का हितकारी तथा इस लोक अर्थात् संसारी और परलोक अर्थात् मोक्ष सुख का हेतु है, यही
सब को आचरण करने योग्य है और उससे विरुद्ध जो कि अधर्म कहाता है, वह
किसी को ग्रहण करने योग्य कभी नहीं हो सकता,
क्योंकि सर्वत्र उसी का
त्याग करना है। इसी प्रकार हमको भी प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि हे परमेश्वर ! हम लोग
वेदों में आप के प्रकाशित किये सत्यधर्म का ही ग्रहण करें तथा हे परमात्मन् ! आप
हम पर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग उक्त सत्यधर्म का पालन कर के अर्थ, काम
और मोक्षरूप फलों को सुगमता से प्राप्त हो सकें। जैसे सत्यव्रत के पालने से आप
व्रतपति हैं, वैसे ही हम लोग भी आप की कृपा और अपने पुरुषार्थ से
यथाशक्ति सत्यव्रत के पालनेवाले हों तथा धर्म करने की इच्छा से अपने सत्कर्म के
द्वारा सब सुखों को प्राप्त होकर सब प्राणियों को सुख पहुँचानेवाले हों, ऐसी
इच्छा सब मनुष्यों को करनी चाहिये ॥५॥
कस्त्वा॑
युनक्ति॒ स त्वा॑ युनक्ति॒ कस्मै॑ त्वा युनक्ति॒ तस्मै॑ त्वा युनक्ति। कर्म॑णे
वां॒ वेषा॑य वाम् ॥६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
किसने
सत्य करने और असत्य छोड़ने की आज्ञा दी है,
सो अगले मन्त्र में उपदेश
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-(कः) कौन सुख स्वरूप (त्वा) तुझको अच्छी-अच्छी क्रियाओं के सेवन करने के लिये
(युनक्ति) आज्ञा देता है। (सः) सो जगदीश्वर (त्वा) तुम को विद्या आदिक शुभ गुणों
के प्रकट करने के लिये विद्वान् वा विद्यार्थी होने को (युनक्ति) आज्ञा देता है।
(कस्मै) वह किस-किस प्रयोजन के लिये (त्वा) मुझ और तुझ को (युनक्ति) युक्त करता है, (तस्मै)
पूर्वोक्त सत्यव्रत के आचरण रूप यज्ञ के लिये (त्वा) धर्म के प्रचार करने में
उद्योगी को (युनक्ति) आज्ञा देता है,
(सः) वही ईश्वर (कर्मणे) उक्त
श्रेष्ठ कर्म करने के लिये (वाम्) कर्म करने और करानेवालों को नियुक्त करता है, (वेषाय)
शुभ गुण और विद्याओं में व्याप्ति के लिये (वाम्) विद्या पढ़ने और पढ़ानेवाले तुम
लोगों को उपदेश करता है ॥६॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में प्रश्न और उत्तर से ईश्वर जीवों के लिये उपदेश करता है। जब कोई
किसी से पूछे कि मुझे सत्य कर्मों में कौन प्रवृत्त करता है? इसका
उत्तर ऐसा दे कि प्रजापति अर्थात् परमेश्वर ही पुरुषार्थ और अच्छी-अच्छी क्रियाओं
के करने की तुम्हारे लिये वेद के द्वारा उपदेश की प्रेरणा करता है। इसी प्रकार कोई
विद्यार्थी किसी विद्वान् से पूछे कि मेरे आत्मा में अन्तर्यामिरूप से सत्य का
प्रकाश कौन करता है? तो वह उत्तर देवे कि सर्वव्यापक जगदीश्वर। फिर वह पूछे कि
वह हमको किस-किस प्रयोजन के लिये उपदेश करता और आज्ञा देता है? उसका
उत्तर देवे कि सुख और सुखस्वरूप परमेश्वर की प्राप्ति तथा सत्य विद्या और धर्म के
प्रचार के लिये। मैं और आप दोनों को कौन-कौन काम करने के लिये वह ईश्वर उपदेश करता
है? इसका परस्पर उत्तर देवें कि यज्ञ करने के लिये। फिर वह
कौन-कौन पदार्थ की प्राप्ति के लिये आज्ञा देता है?
इसका उत्तर देवें कि सब
विद्याओं की प्राप्ति और उनके प्रचार के लिये। मनुष्यों को दो प्रयोजनों में
प्रवृत्त होना चाहिये अर्थात् एक तो अत्यन्त पुरुषार्थ और शरीर की आरोग्यता से
चक्रवर्त्ती राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति करना और दूसरे सब विद्याओं को अच्छी प्रकार
पढ़ के उनका प्रचार करना चाहिये। किसी मनुष्य को पुरुषार्थ को छोड़ के आलस्य में
कभी नहीं रहना चाहिये ॥६॥
प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳरक्षः॒
प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳरक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः।
उ॒र्व᳕न्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि ॥७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
सब
मनुष्यों को उचित है कि दुष्ट गुण और दुष्ट स्वभाववाले मनुष्यों का निषेध करें, इस
बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-मुझ को चाहिये कि पुरुषार्थ के साथ (रक्षः) दुष्ट गुण और दुष्ट स्वभाववाले मनुष्य
को (प्रत्युष्टम्) निश्चय करके निर्मूल करूँ तथा (अरातयः) जो राति अर्थात् दान आदि
धर्म से रहित दयाहीन दुष्ट शत्रु हैं,
उनको (प्रत्युष्टाः)
प्रत्यक्ष निर्मूल (रक्षः) वा दुष्ट स्वभाव,
दुष्टगुण, विद्याविरोधी, स्वार्थी
मनुष्य और (निष्टप्तम्) (अरातयः) छलयुक्त होके विद्या के ग्रहण वा दान से रहित
दुष्ट प्राणियों को (निष्टप्ताः) निरन्तर सन्तापयुक्त करूँ। इस प्रकार करके (अन्तरिक्षम्)
सुख के सिद्ध करनेवाले उत्तम स्थान और (उरु) अपार सुख को (अन्वेमि) प्राप्त होऊँ
॥७॥
भावार्थभाषाः
-ईश्वर आज्ञा देता है कि सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विद्या और धर्म
के उपदेश से औरों को भी दुष्टता आदि अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिये तथा उन
को बहु प्रकार का ज्ञान और सुख देकर सब मनुष्य आदि प्राणियों को विद्या, धर्म, पुरुषार्थ
और नाना प्रकार के सुखों से युक्त करना चाहिये ॥७॥
धूर॑सि॒
धूर्व॒ धूर्व॑न्तं॒ धूर्व॒ तं यो॒ऽस्मान् धूर्व॑ति॒ तं धू॑र्व॒ यं व॒यं धूर्वा॑मः।
दे॒वाना॑मसि॒ वह्नि॑तम॒ꣳ सस्नि॑तमं॒ पप्रि॑तमं॒ जुष्ट॑तमं देव॒हूत॑मम् ॥८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
सब
क्रियाओं के धारण करनेवाले ईश्वर और पदार्थविद्या की सिद्धि के हेतु भौतिक अग्नि
का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे परमेश्वर ! आप (धूः) सब दोषों के नाश और जगत् की रक्षा करनेवाले (असि) हैं, इस
कारण हम लोग इस बुद्धि से (देवानाम्) विद्वानों को विद्या मोक्ष और सुख में
(वह्नितमम्) यथायोग्य पहुँचाने (सस्नितमम्) अतिशय कर के शुद्ध करने (पप्रितमम्) सब
विद्या और आनन्द से संसार को पूर्ण करने (जुष्टतमम्) धार्मिक भक्तजनों के सेवा
करने योग्य और (देवहूतमम्) विद्वानों की स्तुति करने योग्य आप की नित्य उपासना
करते हैं। (यः) जो कोई द्वेषी, छली,
कपटी, पापी, कामक्रोधादियुक्त
मनुष्य (अस्मान्) धर्मात्मा और सब को सुख से युक्त करनेवाले हम लोगों को (धूर्वति)
दुःख देता है और (यम्) जिस पापीजन को (वयम्) हम लोग (धूर्वामः) दुःख देते हैं, (तम्)
उसको आप (धूर्व) शिक्षा कीजिये तथा जो सबसे द्रोह करने वा सबको दुःख देता है, उसको
भी आप सदैव (धूर्व) ताड़ना कीजिये ॥८॥ हे शिल्पविद्या को जानने की इच्छा करनेवाले
मनुष्य ! तू जो भौतिक अग्नि (धूः) सब पदार्थों का छेदन और अन्धकार का नाश करनेवाला
(असि) है तथा जो कला चलाने की चतुराई से यानों में विद्वानों को (वह्नितमम्) सुख
पहुँचाने (सस्नितमम्) शुद्धि होने का हेतु (पप्रितमम्) शिल्पविद्या का मुख्य साधन
(जुष्टतमम्) कारीगर लोग जिस का सेवन करते हैं तथा जो (देवहूतमम्) विद्वानों को
स्तुति करने योग्य अग्नि है, उस को (वयम्) हम लोग (धूर्वामः) ताड़ते हैं और
जिसका सेवन युक्ति से न किया जाय तो (अस्मान्) हम लोगों को (धूर्वति) पीड़ा करता
है, (तम्) उस (धूर्वन्तम्) पीड़ा करनेवाले अग्नि को (धूर्व)
यानादिकों में युक्त कर तथा हे वीर पुरुष ! तुम (यः) जो दुष्ट शत्रु (अस्मान्) हम
लोगों को (धूर्वति) दुःख देता है (तम्) उस को (धूर्व) नष्ट कर तथा जो कोई चोर आदि
है, उसका भी (धूर्व) नाश कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः
-जो ईश्वर सब जगत् को धारण कर रहा है,
वह पापी दुष्ट जीवों को उन
के किये हुए पापों के अनुकूल दण्ड देकर दुःखयुक्त और धर्मात्मा पुरुषों को उत्तम
कर्मों के अनुसार फल देके उन की रक्षा करता है,
वही सब सुखों की प्राप्ति, आत्मा
की शुद्धि कराने और पूर्ण विद्या का देनेवाला,
विद्वानों के स्तुति करने
योग्य तथा प्रीति और इष्ट बुद्धि से सेवा करने योग्य है, दूसरा
कोई नहीं। तथा यह प्रत्यक्ष भौतिक अग्नि भी सम्पूर्ण शिल्पविद्याओं की क्रियाओं को
सिद्ध करने तथा उनका मुख्य साधन और पृथिवी आदि पदार्थों में अपने प्रकाश अथवा उनकी
प्राप्ति से श्रेष्ठ है, क्योंकि जिस से सिद्ध की हुई आग्नेय आदि उत्तम
शस्त्रास्त्रविद्या से शत्रुओं का पराजय होता है,
इस से यह भी विद्या की
युक्तियों से होम और विमान आदि के सिद्ध करने के लिये सेवा करने के योग्य है ॥८॥
अह्रु॑तमसि
हवि॒र्धानं॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्। विष्णु॑स्त्वा
क्रमतामु॒रु वाता॒याप॑हत॒ꣳरक्षो॒ यच्छ॑न्तां॒ पञ्च॑ ॥९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
यजमान और भौतिक अग्नि के कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे ऋत्विग् मनुष्य ! तुम जो अग्नि से बढ़ा हुआ (अह्रुतम्) कुटिलतारहित
(हविर्धानम्) होम के योग्य पदार्थों का धारण करना है, उस
को (दृंहस्व) बढ़ाओ, किन्तु किसी समय में (मा ह्वाः) उस का त्याग मत करो तथा यह
(ते) तुम्हारा (यज्ञपतिः) यजमान भी उस यज्ञ के अनुष्ठान को (मा ह्वार्षीत्) न
छोड़े। इस प्रकार तुम लोग (पञ्च) एक तो ऊपर की चेष्टा होना, दूसरा
नीचे को, तीसरा चेष्टा से अपने अङ्गों को संकोचना, चौथा
उनका फैलाना, पाँचवाँ चलना-फिरना आदि इन पाँच प्रकार के कर्मों से हवन
के योग्य जो द्रव्य हो उसको अग्नि में (यच्छन्ताम्) हवन करो। (त्वा) वह जो हवन
किया हुआ द्रव्य है, उस को (विष्णुः) जो व्यापनशील सूर्य्य है, वह
(अपहतम्) (रक्षः) दुर्गन्धादि दोषों का नाश करता हुआ (उरु वाताय) अत्यन्त वायु की
शुद्धि वा सुख की वृद्धि के लिये (क्रमताम्) चढ़ा देता है ॥९॥
भावार्थभाषाः
-जब मनुष्य परस्पर प्रीति के साथ कुटिलता को छोड़कर शिक्षा देनेवाले के शिष्य होके
विशेष ज्ञान और क्रिया से भौतिक अग्नि की विद्या को जानकर उस का अनुष्ठान करते हैं, तभी
शिल्पविद्या की सिद्धि के द्वारा सब शत्रु दारिद्र्य और दुःखों से छूटकर सब सुखों
को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार विष्णु अर्थात् व्यापक परमेश्वर ने सब मनुष्यों के
लिये आज्ञा दी है, जिसका पालन करना सबको उचित है ॥९॥
दे॒वस्य॑
त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॒
जुष्टं॑ गृह्णाम्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॑ गृह्णामि ॥१०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उस
यज्ञ के फल का ग्रहण किस करके होता है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्नकर्त्ता सकल ऐश्वर्य के दाता तथा (देवस्य) संसार
का प्रकाश करनेहारे और सब सुखदायक परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस संसार
में (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य्य से तथा
(पूष्णः) पुष्टि करनेवाले प्राण के (हस्ताभ्याम्) ग्रहण और त्याग से (अग्नये)
अग्निविद्या के सिद्ध करने के लिये (जुष्टम्) विद्या पढ़नेवाले जिस कर्म की सेवा
करते हैं, (त्वा) उसे (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार
(अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और जल की विद्या से (जुष्टम्) विद्वानों ने जिस कर्म को
चाहा है, उस के फल को (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ ॥१०॥
भावार्थभाषाः
-विद्वान् मनुष्यों को उचित है कि विद्वानों का समागम वा अच्छे प्रकार अपने
पुरुषार्थ से परमेश्वर की उत्पन्न की हुई प्रत्यक्ष सृष्टि अर्थात् संसार में सकल
विद्या की सिद्धि के लिये सूर्य्य,
चन्द्र, अग्नि
और जल आदि पदार्थों के प्रकाश से सब के बल वीर्य्य की वृद्धि के अर्थ अनेक
विद्याओं को पढ़ के उन का प्रचार करना चाहिये अर्थात् जैसे जगदीश्वर ने सब
पदार्थों की उत्पत्ति और उन की धारणा से सब का उपकार किया है, वैसे
ही हम लोगों को भी नित्य प्रयत्न करना चाहिये ॥१०॥
भू॒ताय॑
त्वा॒ नारा॑तये॒ स्व᳖रभि॒विख्ये॑षं॒ दृꣳह॑न्तां॒ दुर्याः॑
पृथि॒व्यामु॒र्व᳕न्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि। पृ॒थि॒व्यास्त्वा॒ नाभौ॑
सादया॒म्यदि॑त्याऽउ॒पस्थेऽग्ने॑ ह॒व्यꣳ र॑क्ष ॥११॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उन
यज्ञशाला आदिक घर कैसे बनाने चाहिये,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-मैं जिस यज्ञ को (भूताय) प्राणियों के सुख तथा (अरातये) दारिद्र्य आदि दोषों के
नाश के लिये (अदित्या) वेदवाणी वा विज्ञानप्रकाश के (उपस्थे) गुणों में (सादयामि)
स्थापना करता हूँ और (त्वा) उसको कभी (न) नहीं छोड़ता हूँ। हे विद्वान् लोगो ! तुम
को उचित है कि (पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में (दुर्य्याः) अपने घर (दृंहन्ताम्)
बढ़ाने चाहिये। मैं (पृथिव्याः) (नाभौ) पृथिवी के बीच में जिन गृहों में (स्वः) जल
आदि सुख के पदार्थों को (अभिविख्येषम्) सब प्रकार से देखूँ और (उर्वन्तरिक्षम्)
उक्त पृथिवी में बहुत-सा अवकाश देकर सुख से निवास करने योग्य स्थान रचकर (त्वा)
आपको (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ। हे (अग्ने) जगदीश्वर ! आप (हव्यम्) हमारे
देने-लेने योग्य पदार्थों की (रक्ष) सर्वदा रक्षा कीजिये ॥ यह प्रथम पक्ष हुआ ॥११॥
अब दूसरा पक्ष−हे (अग्ने) परमेश्वर ! मैं (भूताय) संसारी जीवों के सुख तथा
(अरातये) दरिद्रता का विनाश और दान आदि धर्म करने के लिये (पृथिव्याः) पृथिवी के
(नाभौ) बीच में (सबके स्वामी तथा उपासनीय जानकर) (स्वः) सुखस्वरूप (त्वा) आपको
(अभिविख्येषम्) प्रकाश करता हूँ तथा आपकी कृपा से मेरे घर आदि पदार्थ और उनमें
रहनेवाले मनुष्य आदि प्राणी (दृंहन्ताम्) वृद्धि को प्राप्त हों और मैं
(पृथिव्याम्) विस्तृत भूमि में (उरु) बहुत से (अन्तरिक्षम्) अवकाशयुक्त स्थान को
निवास के लिये (अदित्या उपस्थे) सर्वत्र व्यापक आपके समीप सदा (अन्वेमि) प्राप्त
होता हूँ। कदाचित् (त्वा) आपका (न सादयामि) त्याग नहीं करता हूँ। हे जगदीश्वर ! आप
मेरे (हव्यम्) अर्थात् उत्तम पदार्थों की सर्वदा (रक्ष) रक्षा कीजिये ॥यह दूसरा
पक्ष हुआ ॥११॥ तथा तीसरा और भी कहते हैं−मैं शिल्पविद्या का जाननेवाला यज्ञ को
करता हुआ (भूताय) सांसारिक प्राणियों के सुख और (अरातये) दरिद्रता आदि दोषों के
विनाश वा सुख से दान आदि धर्म करने की इच्छा से (पृथिव्याः) (नाभौ) इस पृथिवी पर
शिल्पविद्या की सिद्धि करनेवाला जो (अग्ने) अग्नि है, उसको
हवन करने वा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये (सादयामि) स्थापन करता हूँ, क्योंकि
उक्त शिल्पविद्या इसी से सिद्ध होती है,
(अदित्याः) (उपस्थे) तथा जो
अन्तरिक्ष में स्थित मेघमण्डल में (हव्यम्) होम द्वारा पहुँचे हुए उत्तम-उत्तम
पदार्थों की (रक्ष) रक्षा करनेवाला है,
इसीलिये इस अग्नि को
(पृथिव्याम्) पृथिवी में स्थापन करके (उर्वन्तरिक्षम्) बड़े अवकाशयुक्त स्थान और
विविध प्रकार के सुखों को (अन्वेमि) प्राप्त होता हूँ अथवा इसी प्रयोजन के लिये
(त्वा) इस अग्नि को पृथिवी में स्थापन करता हूँ। इस प्रकार श्रेष्ठ कर्मों को करता
हुआ (स्वः) अनेक सुखों को (अभिविख्येषम्) देखूँ तथा मेरे (दुर्य्याः) घर और उनमें
रहनेवाले मनुष्य (दृꣳहन्ताम्) शुभ गुण और सुख से वृद्धि को प्राप्त हों, इसलिये
इस भौतिक अग्नि का भी त्याग मैं कभी (न) नहीं करता हूँ ॥ यह तीसरा अर्थ हुआ ॥११॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और ईश्वर ने आज्ञा दी है कि हे मनुष्य लोगो ! मैं
तुम्हारी रक्षा इसलिये करता हूँ कि तुम लोग पृथिवी पर सब प्राणियों को सुख पहुँचाओ
तथा तुम को योग्य है कि वेदविद्या,
धर्म के अनुष्ठान और अपने
पुरुषार्थ द्वारा विविध प्रकार के सुख सदा बढ़ाने चाहिये। तुम सब ऋतुओं में सुख
देने के योग्य, बहुत अवकाशयुक्त,
सुन्दर घर बनाकर, सर्वदा
सुख सेवन करो और मेरी सृष्टि में जितने पदार्थ हैं,
उनसे अच्छे-अच्छे गुणों को
खोजकर अथवा अनेक विद्याओं को प्रकट करते हुए फिर उक्त गुणों का संसार में अच्छे
प्रकार प्रचार करते रहो कि जिससे सब प्राणियों को उत्तम सुख बढ़ता रहे तथा तुम को
चाहिये कि मुझको सब जगह व्याप्त, सब का साक्षी,
सब का मित्र, सब
सुखों का बढ़ानेहारा, उपासना के योग्य और सर्वशक्तिमान् जानकर सब का
उपकार, विविध विद्या की वृद्धि,
धर्म में प्रवृत्ति, अधर्म
से निवृत्ति, क्रियाकुशलता की सिद्धि और यज्ञक्रिया के अनुष्ठान आदि
करने में सदा प्रवृत्त रहो ॥११॥ इस मन्त्र में महीधर ने भ्रान्ति से
(अभिविख्येषम्) यह पद (ख्या प्रकथने) इस धातु का दर्शन अर्थ में माना है। यह धातु
के अर्थ से ही विरुद्ध होने करके अशुद्ध है ॥११॥
प॒वित्रे॑
स्थो वैष्ण॒व्यौ᳖ सवि॒तुर्वः॑ प्रस॒व उत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒
सूर्य्य॑स्य रश्मिभिः॑। देवी॑रापोऽअग्रेगुवोऽअग्रेपु॒वोऽग्र॑ऽइ॒मम॒द्य य॒ज्ञं
न॑य॒ताग्रे॑ य॒ज्ञप॑तिꣳ सु॒धातुं॑ य॒ज्ञप॑तिं देव॒युव॑म् ॥१२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अग्नि
में जिस द्रव्य का होम किया जाता है,
वह मेघमण्डल को प्राप्त होके
किस प्रकार का होकर क्या गुण करता है,
इस बात का उपदेश ईश्वर ने
अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे विद्वान् लोगो ! तुम जैसे (सवितुः) परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुस इस
संसार में (अच्छिद्रेण) निर्दोष और (पवित्रेण) पवित्र करने का हेतु जो
(सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (रश्मिभिः) किरण हैं,
उन से (वैष्णव्यौ)
यज्ञसम्बन्धी प्राण और अपान की गति तथा (पवित्रे) पदार्थों के भी पवित्र करने में
हेतु (स्थः) हों और जैसे उक्त सूर्य्य की किरणों से (अग्रेगुवः) आगे समुद्र वा
अन्तरिक्ष में चलनेवाले (अग्रेपुवः) प्रथम पृथिवी में रहनेवाली सोम ओषधि के सेवन
तथा (देवीः) दिव्यगुणयुक्त (वः) वह (आपः) जल पवित्र हों, वैसे
(नयत) पवित्र पदार्थों का होम अग्नि में करो,
वैसे ही मैं भी (अद्य) आज के
दिन (इमम्) इस (यज्ञम्) पूर्वोक्त क्रियासम्बन्धी यज्ञ को प्राप्त करके (अग्रे) जो
प्रथम (सुधातुम्) श्रेष्ठ मन आदि इन्द्रिय और सुवर्ण आदि धनवाला (यज्ञपतिम्) यज्ञ
का नियम से पालक तथा (देवयुवम्) विद्वान् और श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त होने वा
उनका प्राप्त कराने (यज्ञपतिम्) यज्ञ की इच्छा करनेवाला मनुष्य है, उसको
(उत्पुनामि) पवित्र करता हूँ ॥१२॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो पदार्थ संयोग से विकार को प्राप्त होते हैं, वे
अग्नि के निमित्त से अतिसूक्ष्म परमाणुरूप होकर वायु के बीच रहा करते हैं और कुछ
शुद्ध भी हो जाते हैं, परन्तु जैसी यज्ञ के अनुष्ठान से वायु और
वृष्टि, जल की उत्तम शुद्धि और पुष्टि होती है, वैसी
दूसरे उपाय से कभी नहीं हो सकती, इससे विद्वानों को चाहिये कि होमक्रिया से
शुद्ध किये वायु, अग्नि, जल आदि पदार्थ वा शिल्पविद्या से अच्छी-अच्छी
सवारी बना के अनेक प्रकार के लाभ उठावें अर्थात् अपनी मनोकामना सिद्ध करके औरों की
भी कामनासिद्धि करें। जो जल इस पृथिवी से अन्तरिक्ष को चढ़कर, वहाँ
से लौटकर, फिर पृथिवी आदि पदार्थों को प्राप्त होते हैं, वे
प्रथम और जो मेघ में रहनेवाले हैं,
वे दूसरे कहाते हैं। ऐसी
शतपथ-ब्राह्मण में मेघ का वृत्र तथा सूर्य्य का इन्द्र नाम से वर्णन करके युद्धरूप
कथा के प्रकाश से मेघविद्या दिखलाई है ॥१२॥
यु॒ष्माऽइन्द्रो॑ऽवृणीत
वृत्र॒तूर्य्ये॑ यू॒यमिन्द्र॑मवृणीध्वं वृत्र॒तूर्ये॒ प्रोक्षि॑ता स्थ। अ॒ग्नये॑
त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑म्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि। दैव्या॑य॒
कर्म॑णे शुन्धध्वं देवय॒ज्यायै॒ यद्वोऽशु॑द्धाः पराज॒घ्नुरि॒दं व॒स्तच्छु॑न्धामि
॥१३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
जल किस प्रकार के हैं वा इन्द्र और वृत्र का युद्ध कैसे होता है, सो
अगले मन्त्र में कहा गया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-यह जैसे (इन्द्रः) सूर्य्यलोक (वृत्रतूर्य्ये) मेघ के वध के लिये (युष्माः)
पूर्वोक्त जलों को (अवृणीत) स्वीकार करता है,
जैसे जल (इन्द्रम्) वायु को
(अवृणीध्वम्) स्वीकार करते हैं, वैसे ही (यूयम्) हे मनुष्यो ! तुम लोग उन जल, औषधि, रसों
को शुद्ध करने के लिये (वृत्रतूर्य्ये) मेघ के शीघ्रवेग में (प्रोक्षिताः) संसारी
पदार्थों के सींचनेवाले जलों को (अवृणीध्वम्) स्वीकार करो और जैसे वे जल शुद्ध
(स्थ) होते हैं, वैसे तुम भी शुद्ध हो। इसलिये मैं यज्ञ का अनुष्ठान
करनेवाला (दैव्याय) सब को शुद्ध करनेवाले (कर्मणे) उत्क्षेपण=उछालना, अवक्षेपण=नीचे
फेंकना, आकुञ्चन=सिमेटना,
प्रसारण=फैलाना, गमन=चलना
आदि पाँच प्रकार के कर्म हैं, उन के और (देवयज्यायै) विद्वान् वा श्रेष्ठ
गुणों की दिव्य क्रिया के लिये तथा (अग्नये) भौतिक अग्नि से सुख के लिये (जुष्टम्)
अच्छी क्रियाओं से सेवन करने योग्य (त्वा) उस यज्ञ को (प्रोक्षामि) करता हूँ तथा
(अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम से वर्षा के निमित्त (जुष्टम्) प्रीति देनेवाला और
प्रीति से सेवने योग्य (त्वा) उक्त यज्ञ को (प्रोक्षामि) मेघमण्डल में पहुँचाता
हूँ। इस प्रकार यज्ञ से शुद्ध किये हुए जल (शुन्धध्वम्) अच्छे प्रकार शुद्ध होते
हैं। (यत्) जिस कारण यज्ञ की शुद्धि से (वः) पूर्वोक्त जलों के अशुद्धि आदि दोष
(पराजघ्नुः) निवृत्त हों, (तत्) उन जलों की शुद्धि को मैं (शुन्धामि)
अच्छे प्रकार शुद्ध करता हूँ ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ है ॥१॥१३॥ हे यज्ञ
करनेवाले मनुष्यो ! (यत्) जिस कारण (इन्द्रः) सूर्य्यलोक (वृत्रतूर्य्ये) मेघ के
वध के निमित्त (युष्माः) पूर्वोक्त जल और (इन्द्रम्) पवन को (अवृणीत) स्वीकार करता
है तथा जिस कारण सूर्य्य ने (वृत्रतूर्य्ये) मेघ की शीघ्रता के निमित्त (युष्माः)
पूर्वोक्त जलों को (प्रोक्षिताः) पदार्थ सींचनेवाले (स्थ) किये हैं, इससे
(यूयम्) तुम (त्वा) उक्त यज्ञ को सदा स्वीकार करके (नयत) सिद्धि को प्राप्त करो।
इस प्रकार हम सब लोग (दैव्याय) श्रेष्ठ कर्म वा (देवयज्यायै) विद्वान् और दिव्य
गुणों की श्रेष्ठ क्रियाओं के तथा (अग्नये) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये
(जुष्टम्) प्रीति करानेवाले यज्ञ को (प्रोक्षामि) सेवन करें तथा (अग्नीषोमाभ्याम्)
अग्नि और सोम से प्रकाशित होनेवाले (त्वा) उक्त यज्ञ को (प्रोक्षामि) मेघमण्डल में
पहुँचावें। हे मनुष्यो ! इस प्रकार करते हुए तुम सब पदार्थों वा सब मनुष्यों को
(शुन्धध्वम्) शुद्ध करो और (यत्) जिससे (वः) तुम लोगों के अशुद्धि आदि दोष हैं, वे
सदा (पराजघ्नुः) निवृत्त होते रहें। वैसे ही मैं वेद का प्रकाश करनेवाला तुम लोगों
के शोधन अर्थात् शुद्धिप्रकार को (शुन्धामि) अच्छे प्रकार बढ़ाता हूँ ॥२॥१३॥
भावार्थभाषाः
-(इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है) परमेश्वर ने अग्नि और सूर्य्य को इसलिये रचा
है कि वे सब पदार्थों में प्रवेश कर के उनके रस और जल को छिन्न-भिन्न कर दें, जिस
से वे वायुमण्डल में जाकर फिर वहाँ से पृथिवी पर आके सब को सुख और शुद्धि करनेवाले
हों। इस से मनुष्यों को उत्तम सुख प्राप्त होने के लिये अग्नि में सुगन्धित
पदार्थों के होम से वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा श्रेष्ठ सुख बढ़ाने के
लिये प्रीतिपूर्वक नित्य यज्ञ करना चाहिये। जिस से इस संसार के सब रोग आदि दोष
नष्ट होकर उस में शुद्ध गुण प्रकाशित होते रहें। इसी प्रयोजन के लिये मैं ईश्वर
तुम सबों को उक्त यज्ञ के निमित्त शुद्धि करने का उपदेश करता हूँ कि हे मनुष्यो !
तुम लोग परोपकार करने के लिये शुद्ध कर्मों को नित्य किया करो तथा उक्त रीति से
वायु, अग्नि और जल के गुणों को शिल्पक्रिया में युक्त करके अनेक
यान आदि यन्त्रकला बना कर अपने पुरुषार्थ से सदैव सुखयुक्त होओ ॥१३॥
शर्मा॒स्यव॑धूत॒ꣳ
रक्षोऽव॑धूता॒ऽअरा॑त॒योऽदि॑त्या॒स्त्वग॑सि॒ प्रति॒ त्वादि॑तिर्वेत्तु। अद्रि॑रसि
वानस्प॒त्यो ग्रावा॑सि पृ॒थुबु॑ध्नः॒ प्रति॒ त्वादि॑त्या॒स्त्वग्वे॑त्तु ॥१४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
यज्ञ किस प्रकार का है, और किस प्रकार से करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! तुम्हारा घर (शर्म) सुख देनेवाला (असि) हो। उस घर से (रक्षः)
दुष्टस्वभाववाले प्राणी (अवधूतम्) अलग करो और (अरातयः) दान आदि धर्मरहित शत्रु
(अवधूताः) दूर हों। उक्त गृह (अदित्याः) पृथिवी की (त्वक्) त्वचा के तुल्य (असि)
हों, (अदितिः) ज्ञानस्वरूप ईश्वर ही से उस घर को (प्रतिवेत्तु)
सब मनुष्य जानें और प्राप्त हों तथा जो (वानस्पत्यः) वनस्पति के निमित्त से
उत्पन्न होने (पृथुबुध्नः) अतिविस्तारयुक्त अन्तरिक्ष में रहने तथा (ग्रावा) जल का
ग्रहण करनेवाला (अद्रिः) मेघ (असि) है,
उस और इस विद्या को (अदितिः)
जगदीश्वर तुम्हारे लिये (वेत्तु) कृपा करके जनावे। विद्वान् पुरुष भी (अदित्याः)
पृथिवी की (त्वक्) त्वचा के समान (त्वा) उक्त घर की रचना को (प्रतिवेत्तु) जानें
॥१४॥
भावार्थभाषाः
-ईश्वर मनुष्यों को आज्ञा देता है कि तुम लोग शुद्ध और विस्तारयुक्त भूमि के बीच
में अर्थात् बहुत से अवकाश में सब ऋतुओं में सुख देने योग्य घर को बना के उस में
सुखपूर्वक वास करो तथा उसमें रहनेवाले दुष्ट स्वभावयुक्त मनुष्यादि प्राणी और दोषों
को निवृत्त करो, फिर उसमें सब पदार्थ स्थापन और वर्षा का हेतु जो यज्ञ है, उस
का अनुष्ठान कर के नाना प्रकार के सुख उत्पन्न करना चाहिये, क्योंकि
यज्ञ के करने से वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा संसार में अत्यन्त सुख सिद्ध
होता है ॥१४॥
अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि
वा॒चो वि॒सर्ज॑नं दे॒ववी॑तये त्वा गृह्णामि बृ॒हद् ग्रा॑वासि वानस्प॒त्यः सऽइ॒दं
दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः श॑मीष्व सु॒शमि॑ शमीष्व। हवि॑ष्कृ॒देहि॒ हवि॑ष्कृ॒देहि॑ ॥१५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-मैं सब जनों के सहित जिस हवि अर्थात् पदार्थ के संस्कार के लिये (बृहद्ग्रावा)
बड़े-बड़े पत्थर (असि) हैं और (वानस्पत्यः) काष्ठ के मूसल आदि पदार्थ (देवेभ्यः)
विद्वान् वा दिव्यगुणों के लिये उस यज्ञ को (देववीतये) श्रेष्ठ गुणों के प्रकाश और
श्रेष्ठ विद्वान् वा विविध भोगों की प्राप्ति के लिये (प्रतिगृह्णामि) ग्रहण करता
हूँ। हे विद्वान् मनुष्य ! तुम (देवेभ्यः) विद्वानों के सुख के लिये (सु, एमि)
अच्छे प्रकार दुःख शान्त करनेवाले (हविः) यज्ञ करने योग्य पदार्थ को (शमीष्व)
अत्यन्त शुद्ध करो। जो मनुष्य वेद आदि शास्त्रों को प्रीतिपूर्वक पढ़ते वा पढ़ाते
हैं, उन्हीं को यह (हविष्कृत्) हविः अर्थात् होम में चढ़ाने
योग्य पदार्थों का विधान करनेवाली जो कि यज्ञ को विस्तार करने के लिये वेद के
पढ़ने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की शुद्ध सुशिक्षित और
प्रसिद्ध वाणी है, सो प्राप्त होती है ॥१५॥
भावार्थभाषाः
-जब मनुष्य वेद आदि शास्त्रों के द्वारा यज्ञक्रिया और उसका फल जान के शुद्धि और
उत्तमता के साथ यज्ञ को करते हैं, तब वह सुगन्धि आदि पदार्थों के होम द्वारा
परमाणु अर्थात् अति सूक्ष्म होकर वायु और वृष्टि जल में विस्तृत हुआ सब पदार्थों
को उत्तम कर के दिव्य सुखों को उत्पन्न करता है। जो मनुष्य सब प्राणियों के सुख के
अर्थ पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञ को नित्य करता है, उस
को सब मनुष्य हविष्कृत् अर्थात् यह यज्ञ का विस्तार करनेवाला, यज्ञ
का विस्तार करनेवाला उत्तम मनुष्य है,
ऐसा वारम्वार कहकर सत्कार
करें ॥१५॥
कु॒क्कु॒टो᳖ऽसि॒
मधु॑जिह्व॒ऽइष॒मूर्ज॒माव॑द॒ त्वया॑ व॒यꣳ स॑ङ्घा॒तꣳ स॑ङ्घातं जेष्म व॒र्षवृ॑द्धमसि॒
प्रति॑ त्वा व॒र्षवृ॑द्धं वेत्तु॒ परा॑पूत॒ꣳ रक्षः॒ परा॑पूता॒ अरा॑त॒योऽप॑हत॒ꣳ
रक्षो॑ वा॒युर्वो॒ विवि॑नक्तु दे॒वो वः॑ सवि॒ता हिर॑ण्यपाणिः॒
प्रति॑गृभ्णा॒त्वच्छि॑द्रेण पा॒णिना॑ ॥१६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी यह यज्ञ कैसा है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-जिस कारण यह यज्ञ (मधुजिह्वः) जिस में मधुर गुणयुक्त वाणी हो तथा (कुक्कुटः) चोर
वा शत्रुओं का विनाश करनेवाला (असि) है और (इषम्) अन्न आदि पदार्थ वा (ऊर्जम्)
विद्या आदि बल और उत्तम से उत्तम रस को देता है,
इसी से उसका अनुष्ठान सदा
करना चाहिये। हे विद्वान् लोगो ! तुम उक्त गुणों को देनेवाला जो तीन प्रकार का
यज्ञ है, उसके अनुष्ठान और गुण के ज्ञाता (असि) हो, अतः
हम लोगों को भी उसके गुणों का (आवद) उपदेश करो,
जिससे (वयम्) हम लोग (त्वया)
तुम्हारे साथ (संघातं संघातम्) जिनमें उत्तम रीति से शत्रुओं का पराजय होता है
अर्थात् अति भारी संग्रामों को वारम्वार (आ जेष्म) सब प्रकार से जीतें, क्योंकि
आप युद्धविद्या के जाननेवाले (असि) हैं,
इसी से सब मनुष्य
(वर्षवृद्धम्) शस्त्र और अस्त्रविद्या की वर्षा को बढ़ानेवाले (त्वा) आप तथा
(वर्षवृद्धम्) वृष्टि के बढ़ानेवाले उक्त यज्ञ को (प्रतिवेत्तु) जानें। इस प्रकार
संग्राम करके सब मनुष्यों को (परापूतम्) पवित्रता आदि गुणों को छोड़नेवाले (रक्षः)
दुष्ट मनुष्य तथा (परापूताः) शुद्धि को छोड़नेवाले और (अरातयः) दान आदि धर्म से
रहित शत्रुजन तथा (रक्षः) डाकुओं का जैसे (अपहतम्) नाश हो सके, वैसा
प्रयत्न सदा करना चाहिये। जैसे यह (हिरण्यपाणिः) जिसका ज्योति हाथ है, ऐसा
जो (वायुः) पवन है, वह (अच्छिद्रेण) एकरस (पाणिना) अपने गमनागमन व्यवहार से
यज्ञ और संसार में अग्नि और सूर्य्य से अति सूक्ष्म हुए पदार्थों को
(प्रतिगृभ्णातु) ग्रहण करता है। वा (हिरण्यपाणिः) जैसे किरण हैं हाथ जिस के वह
(हिरण्यपाणिः) किरण व्यवहार से (सविता) वृष्टि वा प्रकाश के द्वारा दिव्य गुणों के
उत्पन्न करने में हेतु (देवः) प्रकाशमय सूर्य्यलोक (वः) उन पदार्थों को
(विविनक्तु) अलग-अलग अर्थात् परमाणुरूप करता है,
वैसे ही परमेश्वर वा
विद्वान् पुरुष (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पाणिना) अपने उपदेशरूप व्यवहार से सब
विद्याओं को (विविनक्तु) प्रकाश करें,
वैसे ही कृपा करके प्रीति के
साथ (वः) तुमको अत्यन्त आनन्द करने के लिये (प्रतिगृभ्णातु) ग्रहण करते हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि यज्ञ
का अनुष्ठान, संग्राम में शत्रुओं का पराजय, अच्छे-अच्छे
गुणों का ज्ञान, विद्वानों की सेवा,
दुष्ट मनुष्य वा दुष्ट दोषों
का त्याग तथा सब पदार्थों को अपने ताप से छिन्न-भिन्न करनेवाला अग्नि वा सूर्य्य
और उनका धारण करनेवाला वायु है, ऐसा ज्ञान और ईश्वर की उपासना तथा विद्वानों
का समागम करके और सब विद्याओं को प्राप्त होके सब के लिये सब सुखों की उत्पन्न
करनेवाली उन्नति सदा करनी चाहिये ॥१६॥
धृष्टि॑र॒स्यपा॑ऽग्नेऽअ॒ग्निमा॒मादं॑
जहि॒ निष्क्र॒व्याद॑ꣳ से॒धा दे॑व॒यजं॑ वह। ध्रु॒वम॑सि पृथि॒वीं दृ॑ꣳह ब्रह्म॒वनि॑
त्वा क्षत्र॒वनि॑ सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑ ॥१७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब
अग्निशब्द से किस-किस का ग्रहण किया जाता और इससे क्या क्या कार्य्य होता है, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (अग्ने) परमेश्वर ! आप (धृष्टिः) प्रगल्भ अर्थात् अत्यन्त निर्भय (असि) हैं, इस
कारण (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि पदार्थों को छोड़ के (आमादम्) कच्चे
पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा श्रेष्ठ गुणों से मिलाप करानेवाले
(अग्निम्) भौतिक वा विद्युत् अर्थात् बिजुलीरूप अग्नि को आप (सेध) सिद्ध कीजिये।
इस प्रकार हम लोगों के मङ्गल अर्थात् उत्तम-उत्तम सुख होने के लिये शास्त्रों की
शिक्षा कर के दुःखों को (अपजहि) दूर कीजिये और आनन्द को (आवह) प्राप्त कीजिये तथा
हे परमेश्वर ! आप (ध्रुवम्) निश्चल सुख देनेवाले (असि) हैं, इस
से (पृथिवीम्) विस्तृतभूमि वा उसमें रहनेवाले मनुष्यों को (दृंह) उत्तम गुणों से
वृद्धियुक्त कीजिये। हे अग्ने जगदीश्वर ! जिस कारण आप अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, इससे
मैं (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि)
(क्षत्रवनि) (सजातवनि) ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा प्राणिमात्र के सुख वा दुःख
व्यवहार के देनेवाले (त्वा) आप को (उपदधामि) हृदय में स्थापन करता हूँ ॥ यह इस
मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ तथा हे विद्वान् यजमान ! जिस कारण यह (अग्ने) भौतिक
अग्नि (धृष्टिः) अतितीक्ष्ण (असि) है तथा निकृष्ट पदार्थों को छोड़ कर उत्तम
पदार्थों से (देवयजम्) विद्वान् वा दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाले यज्ञ को
(आवह) प्राप्त कराता है, इससे तुम (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि
पदार्थों को छोड़ के (आमादम्) कच्चे पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा दिव्य
गुणों के प्राप्त करानेवाले (अग्निम्) प्रत्यक्ष वा बिजुलीरूप अग्नि को (आवह)
प्राप्त करो तथा उसके जानने की इच्छा करनेवाले लोगों को शास्त्रों की उत्तम-उत्तम
शिक्षाओं के साथ उसका उपदेश (सेध) करो तथा उसके अनुष्ठान में जो दोष हों, उनको
(अपजहि) विनाश करो। जिस कारण यह अग्नि सूर्य्यरूप से (ध्रुवम्) निश्चल (असि) है, इसी
कारण यह आकर्षणशक्ति से (पृथिवीम्) विस्तृत भूमि वा उसमें रहनेवाले प्राणियों को
(दृंह) दृढ़ करता है, इसी से मैं (त्वा) उस (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि)
(सजातवनि) ब्राह्मण, क्षत्रिय वा जीवमात्र के सुख दुःख को अलग-अलग करानेवाले भौतिक
अग्नि को (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये हवन करने की
वेदी वा विमान आदि यानों में (उपदधामि) स्थापन करता हूँ ॥ यह दूसरा अर्थ हुआ ॥१७॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने यह भौतिक अग्नि आम
अर्थात् कच्चे पदार्थ जलानेवाला बनाया है,
इस कारण भस्मरूप पदार्थों के
जलाने को समर्थ नहीं है। जिससे कि मनुष्य कच्चे-कच्चे पदार्थों को पका कर खाते हैं
[वह आमात्] तथा जिस करके सब प्राणियों का खाया हुआ अन्न आदि द्रव्य पकता है [वह
जाठर] और जिस करके मनुष्य लोग मरे हुए शरीर को जलाते हैं, वह
क्रव्यात् अग्नि कहाता है और जिससे दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाली विद्युत् बनी
है तथा जिससे पृथिवी का धारण और आकर्षण करनेवाला सूर्य्य बना है और जिसे वेदविद्या
के जाननेवाले ब्राह्मण वा धनुर्वेद के जाननेवाले क्षत्रिय वा सब प्राणिमात्र सेवन
करते हैं तथा जो सब संसारी पदार्थों में वर्त्तमान परमेश्वर है, वही
सब मनुष्यों का उपास्य देव है तथा जो क्रियाओं की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि है, यह
भी यथायोग्य कार्य्य द्वारा सेवा करने के योग्य है ॥१७॥
अग्ने॒
ब्रह्म॑ गृभ्णीष्व ध॒रुण॑मस्य॒न्तरि॑क्षं दृꣳह ब्रह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑
सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑। ध॒र्त्रम॑सि॒ दिवं॑ दृꣳह ब्रह्म॒वनि॑
त्वा क्षत्र॒वनि॑ सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑।
विश्वा॑भ्य॒स्त्वाशा॑भ्य॒ऽउप॑दधामि॒ चित॑ स्थोर्ध्व॒चितो॒ भृगू॑णा॒मङ्गि॑रसां॒
तप॑सा तप्यध्वम् ॥१८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी अग्नि शब्द से अगले मन्त्र में फिर दोनों अर्थों का प्रकाश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (अग्ने) परमेश्वर ! आप (धरुणम्) सब के धारण करनेवाले (असि) हैं, इससे
मेरी (ब्रह्म) वेद मन्त्रों से की हुई स्तुति को (गृभ्णीष्व) ग्रहण कीजिये तथा
(अन्तरिक्षम्) आत्मा में स्थित जो अक्षय ज्ञान है,
उसको (दृंह) बढ़ाइये। मैं
(भ्रातृव्यस्य) शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) सब मनुष्यों के सुख
के निमित्त वेद के शाखा-शाखान्तर द्वारा विभाग करनेवाले ब्राह्मण तथा (क्षत्रवनि)
राजधर्म के प्रकाश करनेहारे (सजातवनि) जो परस्पर समान क्षत्रियों के धर्म और
संसारी मूर्तिमान् पदार्थ हैं, इनका प्राणियों के लिये अलग-अलग प्रकाश
करनेवाले (त्वा) आपको (उपदधामि) हृदय के बीच में धारण करता हूँ। हे सब के धारण
करनेवाले परमेश्वर ! जो आप (धर्त्रम्) लोकों के धारण करनेवाले [असि] हैं, इससे
कृपा करके हम लोगों में (दिवम्) अत्युत्तम ज्ञान को (दृंह) बढ़ाइये और मैं
(भ्रातृव्यस्य) शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि)
(सजातवनि) उक्त वेद राज्य वा परस्पर समान विद्या वा राज्यादि व्यवहारों को यथायोग्य
विभाग करनेवाले (त्वा) आपको (उपदधामि) वारंवार अपने हृदय में धारण करता हूँ। तथा
मैं (त्वा) आपको सर्वव्यापक जानकर (विश्वाभ्यः) सब (आशाभ्यः) दिशाओं से सुख होने
के निमित्त वारंवार (उपदधामि) अपने मन में धारण करता हूँ। हे मनुष्यो ! तुम लोग
उक्त व्यवहार को अच्छी प्रकार जानकर (चितः) विज्ञानी (ऊर्ध्वचितः) उत्तम ज्ञानवाले
पुरुषों की प्रेरणा से कपालों को अग्नि पर धरके तथा (भृगूणाम्) जिनसे विद्या आदि
गुणों को प्राप्त होते हैं, ऐसे (अङ्गिरसाम्) प्राणों के (तपसा) प्रभाव से
(तप्यध्वम्) तपो और तपाओ ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ अब दूसरा भी कहते हैं
॥ हे विद्वान् धर्मात्मा पुरुष ! जिस (अग्ने) भौतिक अग्नि से (धरुणम्) सब का धारण
करनेवाला तेज (ब्रह्म) वेद और (अन्तरिक्षम्) आकाश में रहनेवाले पदार्थ ग्रहण वा
वृद्धियुक्त किये जाते हैं, (त्वा) उसको तुम होम वा शिल्पविद्या की सिद्धि
के लिये (गृभ्णीष्व) ग्रहण करो (दृंह) वा विद्यायुक्त क्रियाओं से बढ़ाओ और मैं भी
(भ्रातृव्यस्य) शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (त्वा) उस (ब्रह्मवनि)
(क्षत्रवनि) (सजातवनि) संसारी मूर्तिमान् पदार्थों के प्रकाश करने वा राजगुणों के
दृष्टान्तरूप से प्रकाश करानेवाले भौतिक अग्नि को शिल्पविद्या आदि व्यवहारों में
(उपदधामि) स्थापन करता हूँ। ऐसे स्थापन किया हुआ अग्नि हमारे अनेक सुखों को धारण
करता है। इसी प्रकार सब लोगों का (धर्त्रम्) धारण करनेवाला वायु (असि) है तथा
(दिवम्) प्रकाशमय सूर्य्यलोक को (दृंह) दृढ़ करता है। हे मनुष्यो ! जैसे उसको मैं
(भ्रातृव्यस्य) अपने शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि)
(सजातवनि) वेद राज्य वा परस्पर समान उत्तम-उत्तम शिल्पविद्याओं को यथायोग्य
कार्य्यों में युक्त करनेवाले उस भौतिक अग्नि को (उपदधामि) स्थापन करता हूँ, वैसे
तुम भी उत्तम-उत्तम क्रियाओं में युक्त करके विद्या के बल से (दृंह) उसको बढ़ाओ।
हे विद्या चाहनेवाले पुरुष ! जो पवन,
पृथिवी और सूर्य्य आदि लोकों
को धारण कर रहा है उसे तुम अपने जीवन आदि सुख वा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये
यथायोग्य कार्यों में लगाकर उसकी विद्या से (दृंह) वृद्धि करो तथा जैसे हम अपने
शत्रुओं के विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) अग्नि के उक्त गुणों
के समान वायु को शिल्पविद्या आदि व्यवहारों में (उपदधामि) संयुक्त करते हैं, वैसे
ही तुम भी अपने अनेक दुःखों के विनाश के लिये उसको यथायोग्य कार्य्यों में संयुक्त
करो। हे मनुष्यो ! जैसे मैं वायुविद्या का जाननेवाला (त्वा) उस अग्नि वा वायु को
(विश्वाभ्यः) सब (आशाभ्यः) दिशाओं से सुख होने के लिये यथायोग्य शिल्पव्यवहारों
में (उपदधामि) धारण करता हूँ, वैसे तुम भी धारण करो तथा शिल्पविद्या वा होम
करने के लिये (चितः) (ऊर्ध्वचितः) [स्थ] पदार्थों के भरे हुए पात्र वा सवारियों
में स्थापन किये हुए कलायन्त्रों को (भृगूणाम्) जिनसे पदार्थों को पकाते हैं, उन
[अङ्गिरसाम्] अङ्गारों के (तपसा) ताप से (तप्यध्वम्) उक्त पदार्थों को तपाओ ॥१८॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ईश्वर का यह उपदेश है कि हे मनुष्यो ! तुम
विद्वानों की उन्नति तथा मूर्खपन का नाश वा सब शत्रुओं की निवृत्ति से राज्य बढ़ने
के लिये वेदविद्या को ग्रहण करो तथा वृद्धि का हेतु अग्नि वा सब का धारण करनेवाला
वायु, अग्निमय सूर्य्य और ईश्वर इन्हें सब दिशाओं में व्याप्त
जानकर यज्ञसिद्धि वा विमान आदि यानों की रचना धर्म के साथ करो तथा इन से इन को
सिद्ध कर के दुःखों को दूर कर के शत्रुओं को जीतो ॥१८॥
शर्मा॒स्यव॑धूत॒ꣳ
रक्षोऽव॑धूता॒ऽअरा॑त॒योऽदि॑त्या॒स्त्वग॑सि॒ प्रति॒ त्वादि॑तिर्वेतु। धि॒षणा॑सि
पर्व॒ती प्रति॒ त्वादि॑त्या॒स्त्वग्वे॑त्तु दि॒वः स्क॑म्भ॒नीर॑सि धि॒षणा॑सि
पार्वते॒यी प्रति॑ त्वा पर्व॒ती वे॑त्तु ॥१९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
इस
के अनन्तर ईश्वर ने यज्ञ का स्वरूप और इसके अङ्ग अगले मन्त्र में उपदेश किये हैं ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! तुम लोग जो यज्ञ (शर्म) सुख का देनेवाला (असि) है और (अदितिः)
नाशरहित है तथा जिससे (रक्षः) दुःख और दुष्टस्वभावयुक्त मनुष्य (अवधूतम्) विनाश को
प्राप्त तथा (अरातयः) दान आदि धर्मों से रहित पुरुष (अवधूताः) नष्ट (असि) होते हैं
और जो (अदित्याः) अन्तरिक्ष वा पृथिवी के (त्वक्) त्वचा के समान (असि) है, (त्वा)
उसे (प्रति वेत्तु) जानो और जिस विद्यारूप उक्त यज्ञ से (पर्वती) बहुत ज्ञानवाली
(दिवः) प्रकाशमान सूर्यादि लोकों की (स्कम्भनीः) रोकनेवाली [असि] है तथा
(पार्वतेयी) मेघ की कन्या अर्थात् पृथिवी के तुल्य (धिषणा) वेदवाणी [(असि)] है, (अदित्याः)
पृथिवी के (त्वक्) शरीर के तुल्य विस्तार को प्राप्त होती है, (त्वा)
उसे (प्रतिवेत्तु) यथावत् जानो और जिस सत्सङ्गतिरूप यज्ञ से (पर्वती) उत्तम-उत्तम
ब्रह्मज्ञान प्राप्त करनेवाली (धिषणा) द्यौः अर्थात् प्रकाशरूपी बुद्धि (असि)
प्राप्त होती है, (त्वा) उसे भी (प्रतिवेत्तु) जानो ॥१९॥
भावार्थभाषाः
-मनुष्यों को अपने विज्ञान से अच्छी प्रकार पदार्थों को इकट्ठा करके उन से यज्ञ का
अनुष्ठान करना चाहिये जो कि वृष्टि वा बुद्धि का बढ़ानेवाला है, वह
अग्नि और मन से सिद्ध किया हुआ सूर्य्य के प्रकाश को त्वचा के समान सेवन करता है
॥१९॥
धा॒न्य᳖मसि
धिनु॒हि दे॒वान् प्रा॒णाय॑ त्वोदा॒नाय॑ त्वा व्या॒नाय॑ त्वा। दी॒र्घामनु॒
प्रसि॑ति॒मायु॑षे धां दे॒वो वः॑ सवि॒ता हिर॑ण्यपाणिः॒ प्रति॑गृभ्णा॒त्वच्छि॑द्रेण
पा॒णिना॒ चक्षु॑षे त्वा म॒हीनां॒ पयो॑ऽसि ॥२०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
किस
प्रयोजन के लिये उक्त यज्ञ करना चाहिये,
सो अगले मन्त्र में प्रकाश
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-जो (धान्यम्) यज्ञ से शुद्ध उत्तम स्वभाववाला सुख का हेतु रोग का नाश करनेवाला
तथा चावल आदि अन्न वा (पयः) जल (असि) है,
वह (देवान्) विद्वान् वा जीव
तथा इन्द्रियों को (धिनुहि) तृप्त करता है,
इस कारण हे मनुष्यो ! मैं
जिस प्रकार (त्वा) उसे (प्राणाय) अपने जीवन के लिये वा (त्वा) उसे (उदानाय)
स्फूर्ति बल और पराक्रम के लिये वा (त्वा) उसे (व्यानाय) सब शुभ गुण, शुभ
कर्म वा विद्या के अङ्गों के फैलाने के लिये तथा (दीर्घाम्) बहुत दिनों तक
(प्रसितिम्) अत्युत्तम सुखबन्धनयुक्त (आयुषे) पूर्ण आयु के भोगने के लिये (धाम्)
धारण करता हूँ, वैसे तुम भी उक्त प्रयोजन के लिये उस को नित्य धारण करो।
जैसे (वः) हम लोगों को (हिरण्यपाणिः) जिस का मोक्ष देना ही व्यवहार है, ऐसा
सब जगत् का उत्पन्न करनेहारा (देवः) (सविता) सब ऐश्वर्य का दाता ईश्वर
(अच्छिद्रेण) अपनी व्याप्ति वा [पाणिना] उत्तम व्यवहार से (महीनाम्) वाणियों के
[चक्षुषे] प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये (प्रत्यनुगृभ्णातु) अपने अनुग्रह से ग्रहण करता
है, वैसे ही हम भी उस ईश्वर को (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पाणिना)
स्तुतियों से ग्रहण करें और जैसे (हिरण्यपाणिः) पदार्थों का प्रकाश करनेवाला
(देवः) (सविता) सूर्य्यलोक (महीनाम्) लोक-लोकान्तरों की पृथिवियों में नेत्र
सम्बन्धी व्यवहार के लिये (अच्छिद्रेण) निरन्तर तीव्र प्रकाश से (पयः) जल को
(प्रतिगृभ्णातु) ग्रहण कर के अन्न आदि पदार्थों को पुष्ट करता है, वैसे
ही हम लोग भी उसे (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पाणिना) व्यवहार से (महीनाम्) पृथिवी के
(चक्षुषे) पदार्थों की दृष्टिगोचरता के लिये स्वीकार करते हैं ॥२०॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जो यज्ञ से शुद्ध किये हुए अन्न, जल
और पवन आदि पदार्थ हैं, वे सब की शुद्धि, बल, पराक्रम
और दृढ़ दीर्घ आयु के लिये समर्थ होते हैं। इससे सब मनुष्यों को यज्ञकर्म का
अनुष्ठान नित्य करना चाहिये तथा परमेश्वर की प्रकाशित की हुई जो वेदचतुष्टयी
अर्थात् चारों वेदों की वाणी है, उस के प्रत्यक्ष करने के लिये ईश्वर से
अनुग्रह की इच्छा तथा अपना पुरुषार्थ करना चाहिये और जिस प्रकार परोपकारी मनुष्यों
पर ईश्वर कृपा करता है, वैसे ही हम लोगों को भी सब प्राणियों पर नित्य
कृपा करनी चाहिये अथवा जैसे अन्तर्यामी ईश्वर आत्मा और वेदों में सत्य ज्ञान तथा
सूर्यलोक संसार में मूर्तिमान् पदार्थों का निरन्तर प्रकाश करता है, वैसे
ही हम सब लोगों को परस्पर सब के सुख के लिये सम्पूर्ण विद्या मनुष्यों को
दृष्टिगोचर करा के नित्य प्रकाशित करनी चाहिये और उनसे हमको पृथिवी का चक्रवर्ती
राज्य आदि अनेक उत्तम उत्तम सुखों को उत्पन्न निरन्तर उत्पन्न करना चाहिये ॥२०॥
दे॒वस्य॑
त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। सं व॑पामि॒
समाप॒ऽओष॑धीभिः॒ समोष॑धयो॒ रसे॑न। सꣳ रे॒वती॒र्जग॑तीभिः पृच्यन्ता॒ सं
मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्ताम् ॥२१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
जिन
औषधियों से अन्न बनता है, वे यज्ञादि करने से कैसे शुद्ध होती हैं, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! जैसे मैं (सवितुः) सकल ऐश्वर्य्य के देनेवाले (देवस्य) परमेश्वर के
(प्रसवे) उत्पन्न किये हुए प्रत्यक्ष संसार में,
सूर्य्यलोक के प्रकाश में
(अश्विनोः) सूर्य्य और भूमि के तेज की (बाहुभ्याम्) दृढ़ता से (पूष्णः) पुष्टि
करनेवाले वायु के (हस्ताभ्याम्) प्राण और अपान से (त्वा) पूर्वोक्त तीन प्रकार के
यज्ञ का (संवपामि) विस्तार करता हूँ,
वैसे ही तुम भी उसको विस्तार
से सिद्ध करो। जैसे इस उत्पन्न किये हुए संसार में (ओषधीभिः) यवादि ओषधियों से
(आपः) जल और (ओषधयः) ओषधी (रसेन) आनन्दकारक रस से तथा (जगतीभिः) उत्तम ओषधियों से
(रेवतीः) उत्तम जल और जैसे (मधुमतीभिः) अत्यन्त मधुर रसयुक्त ओषधियों से (मधुमतीः)
अत्यन्त उत्तम रसरूप जल ये सब मिल कर वृद्धियुक्त होते हैं, वैसे
हम सब लोगों को भी ओषधियों से जल और ओषधि,
उत्तम जल से तथा सब उत्तम
ओषधियों से उत्तम रसयुक्त जल तथा अत्युत्तम मधुर रसयुक्त ओषधियों से प्रशंसनीय
रसरूप जल इन सबों को यथायोग्य परस्पर (संपृच्यन्ताम्) युक्ति से वैद्यक वा
शिल्पशास्त्र की रीति से मेल करना चाहिये ॥२१॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्यों को ईश्वर के उत्पन्न किये
हुए सूर्य्य से प्रकाश को प्राप्त हुए इस संसार में अनेक प्रकार से संप्रयुक्त
करने योग्य पदार्थों को मिलाने के योग्य पदार्थों से मेल कर के उक्त तीन प्रकार के
यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये। जैसे जल अपने रस से ओषधियों को बढ़ाता है और
वे उत्तम रसयुक्त जल के संयोग से रोगनाश करने से सुखदायक होती हैं और जैसे ईश्वर
कारण से कार्य्य को यथावत् रचता है तथा सूर्य्य सब जगत् को प्रकाशित करके और
निरन्तर रस को भेदन करके पृथिवी आदि पदार्थों का आकर्षण करता है तथा वायु रस को
धारण करके पृथिवी आदि पदार्थों को पुष्ट करता है,
वैसे हम लोगों को भी यथावत्
संस्कारयुक्त संयुक्त किये हुए पदार्थों से विद्वानों का सङ्ग तथा विद्या की
उन्नति से वा होम शिल्प कार्य्यरूपी यज्ञों से वायु और वर्षा जल की शुद्धि सदा
करनी चाहिये ॥२१॥
जन॑यत्यै
त्वा॒ संयौ॑मी॒दम॒ग्नेरि॒दम॒ग्नीषोम॑योरि॒षे त्वा॑ घ॒र्मो᳖ऽसि
वि॒श्वायु॑रु॒रुप्र॑थाऽउ॒रु प्र॑थस्वो॒रु। ते॑ य॒ज्ञप॑तिः प्रथताम॒ग्निष्टे॒ त्वचं॒
मा हि॑ꣳसीद् दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता श्र॑पयतु॒ वर्षि॒ष्ठेऽधि॒ नाके॑ ॥२२॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
यज्ञ किस प्रयोजन के लिये करना चाहिये,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! जैसे मैं (जनयत्यै) सर्व सुख उत्पन्न करनेवाली राज्यलक्ष्मी के लिये
(त्वा) उस यज्ञ को (संयौमि) अग्नि के बीच में पदार्थों को छोड़कर युक्त करता हूँ, वैसे
ही तुम लोगों को भी अग्नि के संयोग से सिद्ध करना चाहिये। जो हम लोगों का (इदम्)
यह संस्कार किया हुआ हवि (अग्नेः) अग्नि के बीच में छोड़ा जाता है, (इदम्)
वह विस्तार को प्राप्त होकर (अग्नीषोमयोः) अग्नि और सोम के बीच पहुँच कर (इषे)
अन्न आदि पदार्थों के उत्पन्न करने के लिये होता है और जो (विश्वायुः) पूर्ण आयु
और (उरुप्रथाः) बहुत सुख का देनेवाला (घर्मः) यज्ञ (असि) है, उसका
जैसे मैं अनेक प्रकार विस्तार करता हूँ,
वैसे (त्वा) उसको हे पुरुषो
! तुम भी (उरु प्रथस्व) विस्तृत करो। इस प्रकार विस्तार करनेवाले (ते) तुम्हारे
लिये (यज्ञपतिः) यज्ञ का स्वामी (अग्निः) यज्ञ सम्बन्धी अग्नि (सविता) अन्तर्यामी
(देवः) जगदीश्वर (उरु प्रथताम्) अनेक प्रकार सुख को बढ़ावे [(ते त्वचं) तुम्हारे
शरीर को] (मा हिंसीत्) कभी नष्ट न करे तथा वह परमेश्वर (वर्षिष्ठे) अतिशय करके
वृद्धि को प्राप्त हुआ (अधिनाके) जो अत्युत्तम सुख है, उसमें
(त्वा) तुम को (श्रपयतु) सुख से युक्त करे ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ अब
दूसरा कहते हैं। हे मनुष्यो ! जैसे मैं जो (विश्वायुः) पूर्ण आयु तथा (उरुप्रथाः)
बहुत सुख का देनेवाला (घर्मः) यज्ञ (असि) है,
(त्वा) उस यज्ञ को (जनयत्यै)
राज्यलक्ष्मी तथा (इषे) अन्न आदि पदार्थों के उत्पन्न करने के लिये (संयौमि)
संयुक्त करता हूँ तथा उसकी सिद्धि के लिये (इदम्) यह (अग्नेः) अग्नि के बीच में और
(इदम्) यह (अग्नीषोमयोः) अग्नि और सोम के बीच में संस्कार किया हुआ हवि [संवपामि]
छोड़ता हूँ, वैसे तुम भी उस यज्ञ को (उरु प्रथस्व) विस्तार को प्राप्त
करो, जिस कारण यह (अग्निः) भौतिक अग्नि (ते) तुम्हारे (त्वचम्)
शरीर को (मा हिंसीत्) रोगों से नष्ट न करे और जैसे (देवः) जगदीश्वर (सविता)
अन्तर्यामी (वर्षिष्ठे) अतिशय करके वृद्धि को प्राप्त हुआ, जो
(अधिनाके) अत्युत्तम सुख है, उस में (त्वा) उस यज्ञ को अग्नि के बीच में
परिपक्व करता है, वैसे तुम भी उस यज्ञ को (श्रपयतु) परिपक्व करो और (ते)
तुम्हारे (यज्ञपतिः) यज्ञ का स्वामी भी उस यज्ञ को (उरु प्रथताम्) विस्तारयुक्त
करे ॥२२॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार जानना चाहिये। मनुष्यों को इस प्रकार का यज्ञ करना
चाहिये कि जिससे पूर्ण लक्ष्मी, सकल आयु,
अन्न आदि पदार्थ, रोगनाश
और सब सुखों का विस्तार हो, उसको कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि
उसके बिना वायु और वृष्टि जल तथा ओषधियों की शुद्धि नहीं हो सकती और शुद्धि के
बिना किसी प्राणी को अच्छी प्रकार सुख नहीं हो सकता,
इसलिए ईश्वर ने उक्त यज्ञ
करने की आज्ञा सब मनुष्यों को दी है ॥२२॥
मा
भे॒र्मा॒ संवि॑क्था॒ऽअत॑मेरुर्य॒ज्ञोऽत॑मेरु॒र्यज॑मानस्य प्र॒जा भू॑यात् त्रि॒ताय॑
त्वा द्वि॒ताय॑ त्वैक॒ताय॑ त्वा ॥२३॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
निःशङ्क
होकर उक्त यज्ञ सब को करना चाहिये,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे विद्वान् पुरुषो ! तुम (अतमेरुः) श्रद्धालु होकर (यजमानस्य) यजमान के यज्ञ के
अनुष्ठान से (मा भेः) भय मत करो और उससे (मा संविक्थाः) मत चलायमान हो। इस प्रकार
(यज्ञः) यज्ञ करते हुए तुम को उत्तम से उत्तम (अतमेरुः) ग्लानिरहित श्रद्धावान्
(प्रजा) सन्तान (भूयात्) प्राप्त हो और मैं (त्वा) भौतिक अग्नि को उक्त गुणयुक्त
तथा (एकताय) सत्य सुख के लिये (द्विताय) वायु तथा वृष्टि जल की शुद्धि तथा
(त्रिताय) अग्नि, कर्म और हवि के होने के लिये (संयौमि) निश्चल करता हूँ
॥२३॥
भावार्थभाषाः
-ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा और आशीर्वाद देता है कि किसी मनुष्य को यज्ञ, सत्याचार
और विद्या के ग्रहण से डरना वा चलायमान कभी न होना चाहिये, क्योंकि
मनुष्यों को उक्त यज्ञ आदि अच्छे-अच्छे कार्यों से ही उत्तम-उत्तम सन्तान शारीरिक, वाचिक
और मानस विविध प्रकार के निश्चल सुख प्राप्त हो सकते हैं ॥२३॥
दे॒वस्य॑
त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्।
आद॑देऽध्वर॒कृतं॑ दे॒वेभ्य॒ऽइन्द्र॑स्य बा॒हुर॑सि॒ दक्षि॑णः स॒हस्र॑भृष्टिः
श॒तते॑जा वा॒युर॑सि ति॒ग्मते॑जा द्विष॒तो व॒धः ॥२४॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
भी उक्त यज्ञ कैसा और क्यों उसका अनुष्ठान करना चाहिये, सो
अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-मैं (सवितुः) अन्तर्यामी प्रेरणा करने (देवस्य) सब आनन्द के देनेवाले परमेश्वर की
(प्रसवे) प्रेरणा में (अश्विनोः) सूर्य्य,
चन्द्र और अध्वर्य्युओं के
[बाहुभ्याम्] बल और वीर्य्य से तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक वायु के (हस्ताभ्याम्) जो
कि ग्रहण और त्याग के हेतु उदान और अपान हैं,
उन से (देवेभ्यः) विद्वान्
वा दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिये (अध्वरकृतम्) यज्ञ से सुखकारक [(त्वा) उस]
कर्म को (आददे) अच्छे प्रकार ग्रहण करता हूँ और मेरा किया हुआ जो यज्ञ है सो
(इन्द्रस्य) सूर्य्य का (सहस्रभृष्टिः) जिसमें अनेक प्रकार के पदार्थों के पचाने
का सामर्थ्य वा (शततेजाः) अनेक प्रकार का तेज तथा (दक्षिणः) प्राप्त करनेवाला
(बाहुः) किरणसमूह (असि) है और जिस (इन्द्रस्य) सूर्य्य वा मेघमण्डल का
(तिग्मतेजाः) तीक्ष्ण तेजवाला (वायुः) वायु हेतु (असि) है, उस
से हम को अनेक प्रकार के सुख तथा (द्विषतः) शत्रुओं का (वधः) नाश करना चाहिये ॥२४॥
भावार्थभाषाः
-ईश्वर आज्ञा करता है कि मनुष्यों को अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ यज्ञ जिस में
भौतिक अग्नि के संयोग से ऊपर को अच्छे-अच्छे पदार्थ छोड़े जाते हैं, वह
सूर्य्य की किरणों में स्थिर होता है तथा पवन उस को धारण करता है और वह सब के
उपकार के लिये हजारों सुखों को प्राप्त कराके दुःखों का विनाश करनेवाला होता है
॥२४॥
पृथि॑वि
देवयज॒न्योष॑ध्यास्ते॒ मूलं॒ मा हि॑ꣳसिषं व्र॒जं ग॑च्छ गो॒ष्ठानं वर्ष॑तु ते॒
द्यौर्ब॑धा॒न दे॑व सवितः पर॒मस्यां॑ पृथि॒व्या श॒तेन॒ पाशै॒र्यो᳕ऽस्मान्द्वेष्टि॒
यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मस्तमतो॒ मा मौ॑क् ॥२५॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
उक्त यज्ञ कहाँ जाके क्या करनेवाला होता है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (देव) सूर्य्यादि जगत् के प्रकाश करने तथा (सवितः) राज्य और ऐश्वर्य्य के
देनेवाले परमेश्वर ! (ते) आपकी कृपा से मैं (देवयजनि) विद्वानों के यज्ञ करने की
जगह (ते) यह जो (पृथिवि) भूमि है, उसके [और (ओषध्याः) जो यवादि ओषधि हैं] उनके
(मूलम्) वृद्धि करनेवाले मूल को (मा हिꣳसिषम्) नाश न करूँ और मैं (पृथिव्याम्)
अनेक प्रकार सुखदायक भूमि में (यः) जिस यज्ञ का अनुष्ठान करता हूँ, वह
(व्रजम्) जलवृष्टिकारक मेघ को (गच्छ) प्राप्त हो,
वहाँ जाकर (गोष्ठानम्)
सूर्य्य की किरणों के गुणों से (वर्षतु) वर्षाता है और (द्यौः) सूर्य्य के प्रकाश
को (वर्षतु) वर्षाता है। हे वीर पुरुषो ! आप (अस्याम्) इस उत्कृष्ट पृथिवी में
(यः) जो कोई अधर्मात्मा डाकू (अस्मान्) सब के उपकार करनेवाले धर्मात्मा सज्जन हम
लोगों से (द्वेष्टि) विरोध करता है (च) और (यम्) जिस दुष्ट शत्रु से (वयम्)
धार्मिक शूर हम लोग (द्विष्मः) विरोध करें,
(तम्) उस दुष्ट (परम्) शत्रु
को (शतेन) अनेक (पाशैः) बन्धनों से (बधान) बाँधो और उसको (अतः) इस बन्धन से कभी
(मा मौक्) मत छोड़ो ॥२५॥
भावार्थभाषाः
-ईश्वर आज्ञा देता है कि विद्वान् मनुष्यों को पृथिवी का राज्य तथा उसी पृथिवी में
तीन प्रकार के यज्ञ और ओषधियाँ इनका नाश कभी न करना चाहिये। जो यज्ञ अग्नि में हवन
किये हुए पदार्थों का धूम मेघमण्डल को जाकर शुद्धि के द्वारा अत्यन्त सुख उत्पन्न
करनेवाला होता है, इससे यह यज्ञ किसी पुरुष को कभी छोड़ने योग्य नहीं है तथा
जो दुष्ट मनुष्य हैं, उनको इस पृथिवी पर अनेक बन्धनों से बाँधे और
उनको कभी न छोड़ें, जिससे कि वे दुष्ट कर्मों से निवृत्त हों और सब मनुष्यों
को चाहिये कि परस्पर ईर्ष्या-द्वेष से अलग होकर एक-दूसरे की सब प्रकार सुख की
उन्नति के लिये सदा यत्न करें ॥२५॥
अपा॒ररुं॑
पृथि॒व्यै दे॑व॒यज॑नाद्वध्यासं व्र॒जं ग॑च्छ गो॒ष्ठानं॒ वर्ष॑तु ते॒ द्यौर्ब॑धा॒न
दे॑व सवितः पर॒मस्यां॑ पृथि॒व्या श॒तेन॒ पाशै॒र्यो᳕ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं
द्विष्मस्तमतो॒ मा मौ॑क्। अर॑रो॒ दिवं॒ मा प॑प्तो द्र॒प्सस्ते॒ द्यां मा स्क॑न्
व्र॒जं ग॑च्छ गो॒ष्ठानं॒ वर्ष॑तु ते॒ द्यौर्ब॑धा॒न दे॑व सवितः पर॒मस्यां॑
पृथि॒व्या श॒तेन॒ पाशै॒र्यो᳕ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मस्तमतो॒ मा
मौ॑क् ॥२६॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
इस यज्ञ से क्या क्या कार्य सिद्ध होता है,
इस विषय का उपदेश अगले
मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (देव) सर्वानन्द के देनेवाले जगदीश्वर ! (सवितः) सब प्राणियों में अन्तर्यामी, सत्य
प्रकाश करनेहारे आप की कृपा से हम लोग परस्पर उपदेश करें कि जैसे यह सब का प्रकाश करनेवाला
सूर्य्यलोक इस पृथिवी में अनेक बन्धन के हेतु किरणों से खींचकर पृथिवी आदि सब
पदार्थों को बाँधता है, वैसे तुम भी दुष्टों को बाँधकर अच्छे-अच्छे
गुणों का प्रकाश करो और जैसे मैं (पृथिव्यै) पृथिवी में (देवयजनात्) विद्वान् लोग
जिस संग्राम से अच्छे-अच्छे पदार्थ वा उत्तम-उत्तम विद्वानों की सङ्गति को प्राप्त
होते हैं, उस से (अररुम्) दुष्ट स्वभाववाले शत्रुजन को (अपवध्यासम्)
मारता हूँ, वैसे ही तुम लोग भी उसको मारो तथा जैसे मैं (व्रजम्)
उत्तम-उत्तम गुण जतानेवाले सज्जनों के सङ्ग को प्राप्त होता हूँ, वैसे
तुम भी उसको (गच्छ) प्राप्त हो। जैसे मैं (गोष्ठानम्) पठन-पाठन व्यवहार को
बतानेवाली मेघ की गर्जना के समतुल्य वेदवाणी को अच्छे-अच्छे शब्दरूपी बूँदों से
हर्षाता हूँ, वैसे तुम भी (वर्षतु) वर्षाओ। जैसे मेरी विद्या की (द्यौः)
शोभा सब को दृष्टिगोचर है, वैसे (ते) तुम्हारी भी विद्या सुशोभित हो।
जैसे मैं (यः) जो मूर्ख (अस्मान्) विद्या का प्रचार करनेवाले हम लोगों से
(द्वेष्टि) विरोध करता है (च) और (यम्) जिस विद्याविरोधीजन को (वयम्) हम विद्वान्
लोग (द्विष्मः) दुष्ट समझते हैं, (तम्) उस (परम्) विद्या के शत्रु को (अस्याम्)
इस सब पदार्थों की धारण करने और विविध सुख देनेवाली (पृथिव्याम्) पृथिवी में
(शतेन) बहुत से (पाशैः) बन्धनों से नित्य बाँधता हूँ, कभी
उससे उसको नहीं त्यागता, वैसे हे वीर लोगो ! तुम भी उसको (बधान) बाँधो, कभी
उसको (अतः) उस बन्धन से (मा मौक्) मत छोड़ो और जो दुष्ट जन हम लोगों से विरोध करें
तथा जिस दुष्ट से हम लोग विरोध करें,
उसको उस बन्धन से कोई मनुष्य
न छोड़े। इस प्रकार सब लोग उसको उपदेश करते रहें कि हे (अररो) दुष्टपुरुष ! तू
(दिवम्) प्रकाश उन्नति को (मा पप्तः) मत प्राप्त हो तथा (ते) तेरा (द्रप्सः) आनन्द
देनेवाला विद्यारूपी रस (द्याम्) आनन्द को (मा स्कन्) मत प्राप्त करे। हे
श्रेष्ठों के मार्ग चाहनेवाले मनुष्यो ! जैसे मैं (व्रजम्) विद्वानों के प्राप्त
होने योग्य श्रेष्ठ मार्ग को प्राप्त होता हूँ,
वैसे तुम भी (गच्छ) उसको
प्राप्त हो। जैसे यह (द्यौः) सूर्य का प्रकाश (गोष्ठानम्) पृथिवी का स्थान
अन्तरिक्ष को सींचता है, वैसे ही ईश्वर वा विद्वान् पुरुष (ते)
तुम्हारी कामनाओं को (वर्षतु) वर्षावें अर्थात् क्रम से पूरी करें। जैसे यह (देव)
व्यवहार का हेतु (सवितः) सूर्य्यलोक (अस्याम्) इस बीज बोने योग्य (पृथिव्याम्)
बहुत प्रजायुक्त पृथिवी में (शतेन) अनेक (पाशैः) बन्धन के हेतु किरणों से आकर्षण
के साथ पृथिवी आदि सब पदार्थों को बाँधता है,
वैसे तुम भी दुष्टों को
बाँधो और (यः) जो न्यायविरोधी (अस्मान्) न्यायाधीश हम लोगों से (द्वेष्टि) कोप
करता है (च) और (यम्) अन्यायकारी जन पर (वयम्) सम्पूर्ण हितसम्पादन करनेवाले हम
लोग (द्विष्मः) कोप करते हैं, (तम्) उस (परम्) शत्रु को (अस्याम्) इस
(पृथिव्याम्) उक्त गुणवाली पृथिवी में (शतेन) अनेक (पाशैः) साम, दाम, दण्ड
और भेद आदि उद्योगों से बाँधता हूँ और जैसे मैं उसको उस दण्ड से बाँधकर कभी नहीं
छोड़ता, वैसे ही तुम भी (बधान) बाँधो अर्थात् बन्धनरूप दण्ड सदा
दो। (अतः) उसको कभी (मा मौक्) मत छोड़ो ॥२६॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर आज्ञा देता है कि हे मनुष्यो ! तुम
लोगों को विद्या के सिद्ध करनेवाले कार्य्यों के नियमों में विघ्नकारी दुष्ट जीवों
को सदा मारना चाहिये और सज्जनों के समागम से विद्या की वृद्धि नित्य करनी चाहिये।
जिस प्रकार अनेक उद्योगों से श्रेष्ठों की हानि दुष्टों की वृद्धि न हो सो नियम
करना चाहिये और सदा श्रेष्ठ सज्जनों का सत्कार तथा दुष्टों को दण्ड देने के लिये
उनका बन्धन करना चाहिये। परस्पर प्रीति के साथ विद्या और शरीर का बल सम्पादन करके
क्रिया तथा कलायन्त्रों से अनेक यान बनाकर सब को सुख देना ईश्वर की आज्ञा का पालन
तथा ईश्वर की उपासना करनी चाहिये ॥२६॥
गा॒य॒त्रेण
त्वा॒ छन्द॑सा॒ परि॑गृह्णामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा॒ परि॑गृह्णामि॒ जाग॑तेन
त्वा॒ छन्द॑सा॒ परि॑गृह्णामि॒। सु॒क्ष्मा चासि॑ शि॒वा चा॑सि स्यो॒ना चासि॑ सु॒षदा॑
चा॒स्यू॑र्ज॑स्वती॒ चासि॒ पय॑स्वती च ॥२७॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
यज्ञ का ग्रहण वा अनुष्ठान किससे करना चाहिये,
सो अगले मन्त्र में प्रकाश
किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-जिस यज्ञ से उत्तम पदार्थों के साथ (सुक्ष्मा) यह पृथिवी शोभायमान (असि) होती है
(च) तथा जिससे सुखकारक गुण (च) अथवा मनुष्यों के साथ यह (शिवा) मङ्गल की देनेवाली
(असि) होती है (च) तथा जिस कर के उत्तम से उत्तम सुखों के साथ यह पृथिवी (स्योना)
सुख उत्पन्न करनेवाली (असि) होती है (च) और जिससे उत्तम-उत्तम सुख करनेवाले और
चलने के साथ यह (सुषदा) सुख से स्थिति करने योग्य (असि) होती है [च] तथा जिन उत्तम
यव आदि अन्नों के साथ यह (ऊर्जस्वती) अन्नवाली (असि) होती है। (च) और जिन उत्तम
मधुर आदि रसवाले फलों करके यह पृथिवी (पयस्वती) प्रशंसा करने योग्य रसवाली (असि)
होती है, (त्वा) उस यज्ञ को मैं यज्ञविद्या का जाननेवाला मनुष्य
(गायत्रेण) गायत्री (छन्दसा) जो कि चित्त को प्रफुल्लित करनेवाला है, उससे
(परिगृह्णामि) सब प्रकार से सिद्ध करता हूँ और मैं (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुभ् (छन्दसा)
जो कि स्वतन्त्रतारूप से आनन्द का देनेवाला है,
उससे (त्वा) पदार्थसमूह को
(परिगृह्णामि) सब प्रकार से इकट्ठा करता हूँ तथा मैं (जागतेन) जगती जो कि (छन्दसा)
अत्यन्त आनन्द का प्रकाश करनेवाला है,
उससे (त्वा) उस भौतिक अग्नि
को (परिगृह्णामि) अच्छी प्रकार स्वीकार करता हूँ ॥२७॥
भावार्थभाषाः
-वेद का प्रकाश करनेवाला ईश्वर हम लोगों के प्रति कहता है कि हे मनुष्यो ! तुम लोग
वेदमन्त्रों के विना पढ़े, उन के अर्थों के विना जाने और यज्ञ का
अनुष्ठान विना किये सुखरूप फल को प्राप्त नहीं हो सकते और जो सब शुभ गुणयुक्त
सुखकारी अन्न, जल और वायु आदि पदार्थ हैं,
उनको शुद्ध नहीं कर सकते।
इससे यह तीन प्रकार के यज्ञ की सिद्धि यत्नपूर्वक सम्पादन कर के सदा सुख ही में
रहना चाहिये और जो इस पृथिवी में वायु,
जल तथा ओषधियों को दूषित
करनेवाले दुर्गन्ध, अपगुण तथा दुष्ट मनुष्य हैं,
वे सर्वदा निवारण करने
चाहियें ॥२७॥
पु॒रा
क्रू॒रस्य॑ वि॒सृपो॑ विरप्शिन्नुदा॒दाय॑ पृथि॒वीं जी॒वदा॑नुम्।
यामैर॑यँश्च॒न्द्रम॑सि स्व॒धाभि॒स्तामु॒ धीरा॑सोऽअनु॒दिश्य॑ यजन्ते।
प्रोक्ष॑णी॒रासा॑दय द्विष॒तो व॒धो॒सि ॥२८॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
वे
दोष कैसे निवारण करने और वहाँ मनुष्यों को फिर क्या करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे (विरप्शिन्) महाशय महागुणवान् जगदीश्वर ! आपने (याम्) जिस (स्वधाभिः) अन्न आदि
पदार्थों से युक्त और (जीवदानुम्) प्राणियों को जीवन देनेवाले पदार्थ तथा (पृथिवीम्)
बहुत सी प्रजायुक्त पृथिवी को (उदादाय) ऊपर उठाकर (चन्द्रमसि) चन्द्रलोक के समीप
स्थापन की है, इस कारण [ताम्] उस पृथिवी को (धीरासः) धीर बुद्धिवाले
पुरुष प्राप्त होकर आपके (अनुदिश्य) अनुकूल चलकर [(यजन्ते)] यज्ञ का अनुष्ठान
नित्य करते हैं। जैसे (चन्द्रमसि) आनन्द में वर्त्तमान होकर (धीरासः) बुद्धिमान्
पुरुष (याम्) जिस (जीवदानुम्) जीवों की हितकारक (पृथिवीम्) पृथिवी के [(अनुदिश्य)]
आश्रित होकर सेना और शस्त्रों को (उदादाय) क्रम से लेकर (विसृपः) जो कि युद्ध
करनेवाले पुरुषों के प्रभाव दिखाने योग्य और (क्रूरस्य) शत्रुओं के अङ्ग विदीर्ण
करनेवाले संग्राम के बीच में शत्रुओं को जीत कर राज्य को [ऐरयन्] प्राप्त होते हैं
तथा जैसे इस उक्त प्रकार से धीर पुरुष (पुरा) पहिले समय में प्राप्त हुए जिन
क्रियाओं से (प्रोक्षणीः, उ) अच्छी प्रकार पदार्थों को सींच के उनको
[आसादय] सम्पादन करते हैं, वैसे ही (विरप्शिन्) महान् ऐश्वर्य्य की इच्छा
करनेवाले पुरुष ! तू भी उसको प्राप्त होके ईश्वर का पूजन तथा पदार्थ सिद्धि
करनेवाली उत्तम-उत्तम क्रियाओं का सम्पादन कर। जैसे (द्विषतः) शत्रुओं का (वधः)
नाश (असि) हो, वैसे कामों को करके नित्य आनन्द में वर्तमान रह ॥२८॥
भावार्थभाषाः
-जिस ईश्वर ने क्रम से अन्तरिक्ष में पृथिवी,
पृथिवियों के समीप चन्द्रलोक, चन्द्रलोकों
के समीप पृथिवियाँ, एक-दूसरे के समीप तारालोक और सब के बीच में अनेक
सूर्य्यलोक तथा इन सब में नाना प्रकार की प्रजा रचकर स्थापन की है, वही
परमेश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य है। जब तक मनुष्य बल और क्रियाओं से
युक्त होकर शत्रुओं को नहीं जीतते,
तब तक राज्यसुख को नहीं
प्राप्त हो सकते, क्योंकि बिना युद्ध और बल के शत्रु जन कभी नहीं डरते तथा
विद्वान् लोग विद्या, न्याय और विनय के बिना यथावत् प्रजा के पालन
करने को समर्थ नहीं हो सकते, इस कारण सब को जितेन्द्रिय होकर उक्त पदार्थों
का सम्पादन करके सब के सुख के लिये उत्तम-उत्तम प्रयत्न करना चाहिये ॥२८॥
प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳ
रक्षः॒ प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳ रक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः।
अनि॑शितोऽसि सपत्न॒क्षिद्वा॒जिनं॑ त्वा वाजे॒ध्यायै॒ सम्मा॑र्ज्मि। प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳ
रक्षः॒ प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳ रक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः।
अनि॑शितासि सपत्न॒क्षिद्वा॒जिनीं॑ त्वा वाजे॒ध्यायै॒ सम्मा॑र्ज्मि ॥२९॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
उक्त संग्राम कैसे जीतना और यज्ञ का अनुष्ठान कैसे करना चाहिये, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-मैं जिस [अनिशितः] अतिविस्तृत [सपत्नक्षित्] शत्रुओं के नाश करनेवाले संग्राम से
(प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और जिससे (प्रत्युष्टा अरातयः) सत्यविरोधी
अच्छी प्रकार दाहरूप दण्ड को प्राप्त (असि) होते हैं, वा
जिस बन्धन से (निष्टप्तं रक्षः) बाँधने योग्य (निष्टप्ता अरातयः) विद्या के विघ्न
करनेवाले निरन्तर संताप को प्राप्त होते हैं,
(त्वा) उस (वाजिनम्) वेग आदि
गुणवाले संग्राम को (वाजेध्यायै) जो कि अन्न आदि पदार्थों से बलवान् करने के योग्य
सेना है, उसके लिये युद्ध के साधनों को (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार
शुद्ध करता हूँ, अर्थात् उनके दोषों का विनाश करता हूँ और मैं जिस
(सपत्नक्षित्) शत्रु का नाश करनेवाले और (अनिशिता) अति विस्तारयुक्त सेना से
(प्रत्युष्टं रक्षः) परसुख का न सहनेवाला मनुष्य वा (प्रत्युष्टा अरातयः) उक्त
अवगुणवाले अनेक मनुष्य (निष्टप्तं रक्षः) जुआ खेलने और परस्त्रीगमन करने तथा
(निष्टप्ता अरातयः) औरों को सब प्रकार से दुःख देनेवाले मनुष्य अच्छी प्रकार
निकाले जाते हैं, (त्वा) उस (वाजिनीम्) बल और वेग आदि गुणवाली सेना को
(वाजेध्यायै) बहुत साधनों से प्रकाशित करने के लिये (संमार्ज्मि) अच्छी प्रकार
उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से शुद्ध करता हूँ। [यह प्रथम अर्थ हुआ] ॥ और जो कि
(अनिशितः) बड़ी क्रियाओं से सिद्ध होने योग्य वा (सपत्नक्षित्) दोषों वा शत्रुओं
के विनाश करनेहारे (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और (प्रत्युष्टा अरातयः)
जिसमें सत्यविरोधी अच्छी प्रकार दाहरूप दण्ड को प्राप्त (असि) होते हैं, वा
(निष्टप्तं रक्षः) जिस बन्धन से बाँधने योग्य (निष्टप्ता अरातयः) विद्या के विघ्न
करनेवाले निरन्तर सन्ताप को प्राप्त होते हैं (त्वा) उस (वाजिनम्) यज्ञ को
(वाजेध्यायै) अन्न आदि पदार्थों के प्रकाशित होने के लिये (संमार्ज्मि) शुद्धता से
सिद्ध करता हूँ। इस प्रकार जिस (सपत्नक्षित्) शत्रुओं का नाश करनेवाली (अनिशिता)
अतिविस्तारयुक्त क्रिया से (प्रत्युष्टं रक्षः) विघ्नकारी प्राणी और (प्रत्युष्टा
अरातयः) दुर्गुण तथा नीच मनुष्य नष्ट होते हैं,
(निष्टप्तं रक्षः) काम, क्रोध
आदि राक्षसी भाव दूर होते हैं, (निष्टप्ता अरातयः) जिसमें दुःख तथा दुर्गन्ध
आदि दोष नष्ट [(असि)] होते हैं, (त्वा) उस (वाजिनीम्) सत्क्रिया को
(वाजेध्यायै) अन्न आदि पदार्थों के प्रकाशित होने के लिये (सम्मार्ज्मि) भली
प्रकार सिद्ध करता हूँ। इसी प्रकार आप भी इस यज्ञ तथा सत्क्रिया को पवित्रतापूर्वक
सिद्ध करो, यह दूसरा अर्थ हुआ ॥२९॥
भावार्थभाषाः
-ईश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्यों को विद्या और शुभ गुणों के प्रकाश और दुष्ट
शत्रुओं की निवृत्ति के लिये नित्य पुरुषार्थ करना चाहिये तथा सदैव श्रेष्ठ शिक्षा
शस्त्र-अस्त्र और सत्पुरुषयुक्त उत्तम सेना से श्रेष्ठों की रक्षा तथा दुष्टों का
विनाश करना चाहिये, जिसे करके अशुद्धि आदि दोषों के विनाश होने से सर्वत्र
पवित्रता फैले ॥२९॥
अदि॑त्यै॒
रास्ना॑सि॒ विष्णो॑र्वे॒ष्पो᳖स्यू॒र्ज्जे त्वाऽद॑ब्धेन॒ त्वा॒ चक्षु॒षाव॑पश्यामि।
अ॒ग्नेर्जि॒ह्वासि॑ सु॒हूर्दे॒वेभ्यो॒ धाम्ने॑ धाम्ने मे भव॒ यजु॑षे यजुषे ॥३०॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर
उक्त यज्ञ किस प्रकार का और कौन फल का देनेवाला होता है, सो
अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-हे जगदीश्वर ! जो आप (अदित्यै) पृथिवी के (रास्ना) रस आदि पदार्थों के उत्पन्न
करनेवाले (असि) हैं, (विष्णोः) व्यापक (वेष्पः) पृथिवी आदि सब पदार्थों में
प्रवर्त्तमान भी (असि) हैं तथा (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (जिह्वा) जीभरूप (असि) हैं
वा (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (धाम्ने धाम्ने) जिनमें कि वे विद्वान् सुखरूप
पदार्थों को प्राप्त होते हैं, जो तीनों धाम अर्थात् स्थान, नाम
और जन्म हैं, उन धामों की प्राप्ति के तथा (यजुषे यजुषे) यजुर्वेद के
मन्त्र-मन्त्र का आशय प्रकाशित होने के लिये (सुहूः) जो श्रेष्ठता से स्तुति करने
के योग्य है, इस प्रकार के (त्वा) आप को मैं (अदब्धेन) प्रेमसुखयुक्त
(चक्षुषा) विज्ञान से (ऊर्ज्जे) पराक्रम (अदित्यै) पृथिवी तथा (देवेभ्यः) श्रेष्ठ
गुणों वा (धाम्ने धाम्ने) स्थान, नाम और जन्म आदि पदार्थों की प्राप्ति तथा
(यजुषे यजुषे) यजुर्वेद के मन्त्र-मन्त्र के आशय जानने के लिये [(त्वा) आपको]
(अवपश्यामि) ज्ञानरूपी नेत्रों से देखता हूँ,
आप भी कृपा करके [मे] मुझको
विदित और मेरे पूजन को प्राप्त (भव) हूजिये ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ अब
दूसरा कहते हैं ॥ जिस कारण यह यज्ञ (अदित्यै) अन्तरिक्ष के सम्बन्धी (रास्ना)
रसादि पदार्थों की क्रिया का कारण (असि) है,
(विष्णोः) यज्ञसम्बन्धी
कार्य्यों का (वेष्पः) व्यापक (असि) है,
(अग्नेः) भौतिक अग्नि का
(जिह्वा) जिह्वारूप (असि) है, (देवेभ्यः) तथा दिव्य गुण (धाम्ने धाम्ने)
कीर्ति, स्थान और जन्म इनकी प्राप्ति वा [मे] मेरे लिये (यजुषे
यजुषे) यजुर्वेद के मन्त्र-मन्त्र का आशय जानने के लिये (सुहूः) अच्छी प्रकार
प्रशंसा करने योग्य (भव) होता है, इस कारण (त्वा) उस यज्ञ को मैं (अदब्धेन)
सुखपूर्वक (चक्षुषा) प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ नेत्रों से (अवपश्यामि) देखता हूँ
तथा (त्वा) उसे (अदित्यै) पृथिवी आदि पदार्थ (देवेभ्यः) उत्तम-उत्तम गुण [(ऊर्जे)
पराक्रम] (धाम्ने धाम्ने) स्थान-स्थान तथा (यजुषे यजुषे) यजुर्वेद के
मन्त्र-मन्त्र से हित होने के लिये (अवपश्यामि) क्रिया की कुशलता से देखता हूँ
॥३०॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को जैसे यह जगदीश्वर वस्तु-वस्तु में
स्थित तथा वेद के मन्त्र-मन्त्र में प्रतिपादित और सेवा करने योग्य है, वैसे
ही यह यज्ञ वेद के प्रति मन्त्र से अच्छी प्रकार सिद्ध प्रतिपादित विद्वानों ने
सेवित किया हुआ, सब प्राणियों के लिये पदार्थ-पदार्थ में पराक्रम और बल के
पहुँचाने के योग्य होता है ॥३०॥
स॒वि॒तुस्त्वा॑
प्रस॒वऽउत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रेण॒ सूर्य्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। स॒वि॒तुर्वः॑
प्र॒स॒वऽउत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। तेजो॑ऽसि
शु॒क्रम॑स्य॒मृत॑मसि॒ धाम॒ नामा॑सि प्रि॒यं दे॒वाना॒मना॑धृष्टं देव॒यज॑नमसि ॥३१॥
हिन्दी
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
उक्त
यज्ञ कैसे पवित्र होता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः
-जो यज्ञ (सवितुः) परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में (अच्छिद्रेण)
निरन्तर (पवित्रेण) पवित्र तथा (सूर्य्यस्य) प्रकाशमय सूर्य्य की (रश्मिभिः)
किरणों के साथ मिल के सब पदार्थों को शुद्ध करता है (त्वा) उस यज्ञ वा यज्ञकर्त्ता
को मैं (उत्पुनामि) उत्कृष्टता के साथ पवित्र करता हूँ। इसी प्रकार (सवितुः)
परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पवित्रेण)
शुद्धिकारक (सूर्य्यस्य) जो कि ऐश्वर्य हेतुओं के प्रेरक प्राण के (रश्मिभिः)
अन्तराशय के प्रकाश करनेवाले गुण हैं,
उनसे (वः) तुम लोगों को तथा
प्रत्यक्ष पदार्थों को यज्ञ करके (उत्पुनामि) पवित्र करता हूँ। हे ब्रह्मन् ! जिस
कारण आप (तेजोऽसि) स्वयंप्रकाशवान् (शुक्रमसि) शुक्र (अमृतमसि) नाशरहित (धामासि)
सब पदार्थों का आधार (नामासि) वन्दना करने योग्य (देवानाम्) विद्वानों के
(प्रियम्) प्रीतिकारक (अनाधृष्टम्) तथा किसी की भयता में न आने योग्य वा
(देवयजनमसि) विद्वानों के पूजा करने योग्य हैं,
इससे मैं (त्वा) आपका ही
आश्रय करता हूँ ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ जिस कारण यह यज्ञ (तेजोऽसि)
प्रकाश और (शुक्रमसि) शुद्धि का हेतु (अमृतमसि) मोक्ष सुख का देने तथा (धामासि) सब
अन्न आदि पदार्थों की पुष्टि करने वा (नामासि) जल का हेतु (देवानाम्) श्रेष्ठ
गुणों की (प्रियम्) प्रीति कराने तथा (अनाधृष्टम्) किसी को खण्डन करने के योग्य
नहीं अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट और (देवयजनम्) विद्वान् जनों को परमेश्वर का पूजन
करानेवाला (असि) है, इस कारण इस यज्ञ से मैं (सवितुः) जगदीश्वर के (प्रसवे)
उत्पन्न किये हुए संसार में (अच्छिद्रेण) निरन्तर (पवित्रेण) अति शुद्ध यज्ञ वा
(सूर्य्यस्य) ऐश्वर्य्य उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर के गुण अथवा ऐश्वर्य्य के
उत्पन्न करानेवाले सूर्य्य की (रश्मिभिः) विज्ञानादि प्रकाश वा किरणों से (वः) तुम
लोग वा प्रत्यक्ष पदार्थों को (उत्पुनामि) पवित्र करता हूँ ॥ यह दूसरा अर्थ हुआ
॥३१॥
भावार्थभाषाः
-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर यज्ञ विद्या के फल को जनाता है कि जो
तुम लोगों से अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ है,
वह सूर्य्य की किरणों के साथ
रहकर अपने निरन्तर शुद्ध गुण से सब पदार्थों को पवित्र करता है तथा वह उसके द्वारा
सब पदार्थों को सूर्य्य की किरणों से तेजवान् शुद्ध उत्तम रसवाले सुखकारक
प्रसन्नता का हेतु दृढ़ और यज्ञ करानेवाले पदार्थों को उत्पन्न कर के उनके भोजन, वस्त्र
से शरीर की पुष्टि, बुद्धि और बल आदि शुद्ध गुणों को सम्पादन करके सब जीवों को
सुख देता है ॥३१॥ ईश्वर ने इस अध्याय में मनुष्यों को शुद्ध कर्म के अनुष्ठान दोष
और शत्रुओं की निवृत्ति, यज्ञक्रिया के फल को जानने, अच्छी
प्रकार पुरुषार्थ करने, विद्या के विस्तार करने, धर्म
के अनुकूल प्रजा पालने, धर्म के अनुष्ठान में निर्भयता से स्थिर होने, सब
के साथ मित्रता से वर्त्तने, वेदों से सब विद्याओं का ग्रहण करने और कराने
को शुद्धि तथा परोपकार के लिये प्रयत्न करने को आज्ञा दी है, सो
यह सब मनुष्यों को अनुष्ठान करने के योग्य है ॥३१॥
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