Ad Code

14 सुन्दर जातक ज्ञानवर्धक कथाएं

 

जातक कथा - कर्पूरतिलक

       ब्रह्मवन में कर्पूरतिलक नामक हाथी था। उसको देखकर सब गीदड़ों ने सोचा, "" यदि यह किसी तरह से मारा जाए तो उसकी देह से हमारा चार महीने का भोजन होगा। " उसमें से एक बूढ़े गीदड़ ने इस बात की प्रतिज्ञा की-मैं इसे बुद्धि के बल से मार दूँगा। फिर उस धूर्त ने कर्पूरतिलक हाथी के पास जा कर साष्टांग प्रणाम करके कहा-महाराज, कृपादृष्टि कीजिये। हाथी बोला-तू कौन है, सब वन के रहने वाले पशुओं ने पंचायत करके आपके पास भेजा है कि बिना राजा के यहाँ रहना योग्य नहीं है, इसलिए इस वन के राज्य पर राजा के सब गुणों से शोभायमान होने के कारण आपको ही राजतिलक करने का निश्चय किया है। जो कुलाचार और लोकाचार में निपुण हो तथा प्रतापी, धर्मशील और नीति में कुशल हो वह पृथ्वी पर राजा होने के योग्य होता है।

      राजानं प्रथमं विन्देत्ततो भार्या ततो धनम्। राजन्यसति लोकेsस्मिन्कुतो भार्या कुतो धनम्॥

      पहले राजा को ढ़ूंढ़ना चाहिये, फिर स्त्री और उसके बाद धनको ढूंढ़े, क्योंकि राजा के नहीं होने से इस दुनिया में कहाँ स्त्री और कहाँ से धन मिल सकता है? राजा प्राणियों का मेघ के समान जीवन का सहारा है और मेवे के नहीं बरसने से तो लोक जीता रहता है, परंतु राजा के न होने से जी नहीं सकता है। इस राजा के अधीन इस संसार में बहुधा दंड के भय से लोग अपने नियत कार्यों में लगे रहते है और न तो अच्छे आचरण में मनुष्यों का रहना कठिन है, क्योंकि दंड के ही भय से कुल की स्त्री दुबले, विकलांग रोगी या निर्धन भी पति को स्वीकार करती है। इस लिए लग्न की घड़ी टल जाए, आप शीघ्र पधारिये। यह कह उठ कर चला फिर वह कर्पूरतिलक राज्य के लोभ में फँस कर गीदड़ों के पीछे दौड़ता हुआ गहरी कीचड़ में फँस गया। फिर उस हाथी ने कहा- "" मित्र गीदड़, अब क्या करना चाहिए? कीचड़ में गिर कर मैं मर रहा हूँ। लौट कर देखो। गीदड़ ने हँस कर कहा- "" महाराज, मेरी पूँछ का सहारा पकड़ कर उठो, जैसा मुझ सरीखे की बात पर विश्वास किया, तैसा शरण रहित दुःख का अनुभव करो।

     यदासत्सड्गरहितो भविष्यसि भविष्यसि। तदासज्जनगोष्ठिषु पतिष्यसि पतिष्यसि॥ जैसा कहा गया है-

   जब बुरे संगत से बचोगे तब जानो जीओगे और जो दुष्टों की संगत में पड़ोगे तो मरोगे। फिर बड़ी कीचड़ में फँसे हुए हाथी को गीदड़ों ने खा लिया।

 

जातक कथा- दुदारंत

      उत्तर दिशा में अर्बुदशिखर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक बड़ा पराक्रमी सिंह रहता था। उस पर्वत की कंदरा में सोते हुए सिंह की लटा के बालों को एक चूहा नित्य काट जाया करता था, तब लटाओं के छोर को कटा देख कर क्रोध से बिल के भीतर घुसे हुए चूहे को नहीं पा कर सिंह सोचने लगा-

      क्षुद्रशत्रुर्भवेद्यस्तु विक्रमान्नैव लभ्यते। तमाहन्तु पुरस्कार्यः सदृशस्तस्य सैनिकः॥

          अर्थात, जो छोटा शत्रु हो और पराक्रम से भी न मिले तो उसको मारने के लिए उसके चाल और बल के समान घातक उसके आगे कर देना चाहिए। यह सोचकर उसने गाँव में जा कर भरोसा दे कर दधिकर्ण नामक बिलाव को यत्न से ला कर माँस का आहार दे कर अपनी गुफा में रख लिया। बाद में उसके भय से चूहा भी बिल से नहीं निकलने लगा-जिससे यह सिंह बालों के नहीं कटने के कारण सुख से सोने लगा। जब चूहे का शब्द सुनता था तब-तब माँस के आहार से उस बिलाव को तृप्त करता था। फिर एक दिन भूख के मारे बाहर घूमते हुए उस चूहे को बिलाव ने पकड़ लिया और मार डाला। बाद में उस सिंह ने बहुत समय तक जब चूहे को नहीं देखा और उसका शब्द भी न सुना, तब उसके उपयोगी न होने से बिलाव के भोजन देने में भी कम आदर करने लगा। फिर दधिकर्ण आहारबिहार से दुर्बल हो कर मर गया।

  2.     मंदर नामक पर्वत पर दुदार्ंत नामक एक सिंह रहता था और वह सदा पशुओं का वध करता रहता था। तब सब पशुओं ने मिल कर उस सिंह से विनती की, सिंह एक साथ बहुत से पशुओं की क्यों हत्या करते हो? जो प्रसन्न हो तो हम ही तुम्हारे भोजन के लिए नित्य एक पशु को भेज दिया करेंगे। फिर सिंह ने कहा-जो यह तुमको इष्ट है तो यों ही सही। उस दिन से निश्चित किये हुए एक पशु को खाया करता था। फिर एक दिन एक बूढ़े शशक (खरगोश) की बारी आई.

      त्रासहेतोर्विनीतिस्तु क्रियते जीविताशया। पंच्त्वं चेद्गमिष्यामि किं सिंहानुनयेन में?

     वह सोचने लगा—जीने की आशा से भय के कारण की अर्थात मारने वाले की विनय की जाती है और वह मरना ही ठहरा, फिर मुझे सिंह की विनती से क्या काम है? इसलिए धीरे-धीरे चलता हूँ, पीछे सिंह भी भूख के मारे झुंझला कर उससे बोला—तू किसलिए देर करके आया है? शशक बोला—महाराज, मैं अपराधी नहीं हूँ, मार्ग में आते हुए मुझको दूसरे सिंह ने बल से पकड़ लिया था। उसके सामने फिर लौट आने की सौगंध खा कर स्वामी को जताने के लिए यहाँ आया हूँ। सिंह क्रोधयुक्त हो कर बोला—शीघ्र चल कर दुष्ट को दिखला कि वह दुष्ट कहाँ बैठा है। फिर शशक उसे साथ ले कर एक गहरा कुँआ दिखलाने को ले गया। वहाँ पहुँच कर, स्वामी, आप ही देख लीजिए, यह कह कर उस कुँए के जल में उसी सिंह की परछाई दिखला दी। फिर सिंह क्रोध से दहाड़ कर घमंड से उसके ऊपर अपने को गिरा कर मर गया।

  3.       किसी वृक्ष पर काग और कागली रहा करते थे, उनके बच्चे उसके खोड़र में रहने वाला काला सांप खाता था। कागली पुनः गर्भवती हुई और काग से कहने लगी- "" हे स्वामी, इस पेड़ को छोड़ो, इसमें रहने वाला काला साँप हमारे बच्चे सदा खा जाता है।

         दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥

 

      अर्थात दुष्ट स्त्री, धूर्त मित्र, उत्तर देने वाला सेवक, सर्प वाले घर में रहना, मानो साक्षात् मृत्यु ही है, इसमें संदेह नहीं है। काग बोला-प्यारी, डरना नहीं चाहिए, बार-बार मैंने इसका अपराध सहा है, अब फिर क्षमा नहीं करूँगा। कागली बोली-किसी प्रकार ऐसे बलवान के साथ तुम लड़ सकते हो? काग बोला-यह शंका मत करो।

         बुद्धिर्यस्य बलं तस्य, निर्बुध्देस्तु कुतो बलम्? पश्य सिंहो मदोन्मत्त: शशकेन निपातितः।

       अर्थात जिसको बुद्धि है उसको बल है और जो निर्बुद्धि है उसका बल कहाँ से आवे? देख मद से उन्मत्त सिंह को शशक ने मार डाला। कागली बोली-जो करना है करो। काग बाला-यहाँ पास ही सरोवर में राजपुत्र नित्य आ कर स्नान करता है। स्नान के समय उसके अंग से उतार कर घाट पर रखे हुए सोने के हार को चोंच में पकड़ कर इस बिल्ले में ला कर धर दीजिये। पीछे एक दिन राजपुत्र के नहाने के लिए जल में उतरने पर कागली ने वही किया। फिर सोने के हार के पीछे ढूंढ़ते हुए खोखल में राजा के सिपाही ने उस वृक्ष के बिल में काले साँप को देखा और मार डाला।

        4. पक्षी और बंदरों की कहानी नर्मदा के तीर पर एक बड़ा सेमर का वृक्ष है। उस पर पक्षी घोंसला बनाकर उसके भीतर, सुख से रहा करते थे। फिर एक दिन बरसात में नीले-नीले बादलों से आकाशमंडल के छा जाने पर बड़ी-बड़ी बूँदों से मूसलाधार बारिश बरसने लगा और फिर वृक्ष के नीचे बैठे हुए बंदरों को ठंडी के मारे थर-थर काँपते हुए देख कर पक्षियों ने दया से विचार कहा—अरे भाई बंदरों, सुनों:-

       अस्माभिर्निमिता नीडाश्चंचुमात्राहृतैस्तृणै:। हस्तपादादिसंयुक्ता यूयं किमिति सीदथ?

       हमने केवल अपनी चोंचों की मदद से इकट्ठा किये हुए तिनकों से घोंसले बनाये हैं और तुम तो हाथ, पाँव आदि से युक्त हो कर भी ऐसा दुःख क्यों भोग रहे हो? यह सुन कर बंदरों ने झुँझला कर विचारा-अरे, पवनरहित घोंसलों के भीतर बैठे हुए सुखी पक्षी हमारी निंदा करते हैं, करने दो। जब तक वर्षा बंद हो बाद जब पानी का बरसना बंद हो गया, तब उन बंदरों ने पेड़ पर चढ़ कर सब घोंसले तोड़ डाले और उनके अंडे नीचे गिरा दिया।

       5. हाथियों का झुंड और बूढ़े शशक की कहानी किसी समय वर्षा के मौसम में वर्षा न होने से प्यास के मारे हाथियों का झुंड अपने स्वामी से कहने लगा—हे स्वामी, हमारे जीने के लिए अब कौन—सा उपाय है? छोटे-छोटे जंतुओं को नहाने के लिए भी स्थान नहीं है और हम तो स्नान के लिए स्थान न होने से मरने के समान है। क्या करें? कहाँ जाएँ? हाथियों के राजा ने समीप ही जो एक निर्मल सरोवर था, वहाँ जा कर दिखा दिया। फिर कुछ दिन बाद उस सरोवर के तीर पर रहने वाले छोटे-छोटे शशक हाथियों के पैरों की रेलपेल में खुँद गये। बाद में शिलीमुख नामक शशक सोचने लगा—प्यास के मारे यह हाथियों का झुंड, यहाँ नित्य आएगा। इसलिए हमारा कुल तो नष्ट हो जाएगा। फिर विजय नामक एक बूढ़े शशक ने कहा—खेद मत करो। मैं इसका उपाय करूँगा। फिर वह प्रतिज्ञा करके चला गया और चलते-चलते इसने सोचा—कैसे हाथियों के झुंड के पास खड़े हो कर बातचीत करनी चाहिए.

     स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नयि भुजंगमः। पालयन्नपि भूपालः प्रहसन्नपि दुर्जनः॥

      अर्थात हाथी स्पर्श से ही, साँप सूँघने से ही, राजा रक्षा करता हुआ भी और दुर्जन हँसता हुआ भी मार डालता है। इसलिए मैं पहाड़ की चोटी पर बैठ कर झुंड के स्वामी से अच्छी प्रकार से बोलूँ। ऐसा करने पर झुंड का स्वामी बोला-तू कौन है? कहाँ से आया है? वह बोला-मैं शशक हूँ। भगवान चंद्रमा ने आपके पास भेजा है। झुंड के स्वामी ने कहा-क्या काम है बोल? विजय बोला:-

     उद्यतेष्वपि शस्रेषु दूतो वदति नान्यथा। सदैवांवध्यभावेन यथार्थस्य हि वाचकः।

      अर्थात, मारने के लिए शस्त्र उठाने पर भी दूत अनुचित नहीं करता है, क्योंकि सब काल में नहीं मारे जाने से (मृत्यु की भीति न होने से) वह निश्चय करके सच्ची ही बात बोलने वाला होता है। इसलिए मैं उनकी आज्ञा से कहता हूँ, सुनिये-जो ये चंद्रमा के सरोवर के रखवाले शशकों को निकाल दिया है, वह अनुचित किया। वे शशक हमारे बहुत दिन से रक्षित हैं, इसलिये मेरा नाम "" शशांक" प्रसिद्ध है। दूत के ऐसा कहते ही हाथियों का स्वामी भय से यह बोला-सोच लो, यह बात अनजानपन की है। फिर नहीं करुँगा। दूत ने कहा—जो ऐसा है तो उसे सरोवर में क्रोध से काँपते हुए भगवान चंद्रमाजी को प्रणाम कर और प्रसन्न करके चला जा। फिर रात को झुंड के स्वामी को ले जा कर ओर जल में हिलते हुए चंद्रमा के गोले को दिखला कर झुंड के स्वामी से प्रणाम कराया और इसने कहा-हे महाराज, भूल से इसने अपराध किया है, इसलिए क्षमा कीजिये, फिर दूसरी बार नहीं करेगा। यह कह कर विदा लिया।

       6 .मानसरोवर, आज जो चीन में स्थित है, कभी मानस-सरोवर' के नाम से विश्वविख्यात था और उसमें रहने वाले हंस तो नीले आकाश में सफेद बादलों की छटा से भी अधिक मनोरम थे। उनके कलरव सुन्दर नर्तकियों की नुपुर ध्वनियों से भी अधिक सुमधुर थे। उन्हीं सफेद हंसों के बीच दो स्वर्ण हंस भी रहते थे। दोनों हंस बिल्कुल एक जैसे दिखते थे और दोनों का आकार भी अन्य हंसों की तुलना में थोड़ा बड़ा था। दोनों समान रूप से गुणवान और शीलवान भी थे। फर्क था तो बस इतना कि उनमें एक राजा था और दूसरा उसका वफादार सेनापति। राजा का नाम धृतराष्ट्र था और सेनापति का नाम सुमुख। दोनों हंसों की चर्चा देवों, नागों, यक्षों और विद्याधर ललनाओं के बीच अक्सर हुआ करती थी। कालान्तर में मनुष्य योनि के लोगों को भी उनके गुण-सौन्दर्य का ज्ञान होने लगा। वाराणसी नरेश ने जब उनके विषय में सुना तो उस के मन में उन हंसों को पाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई. तत्काल उसने अपने राज्य में मानस-सदृश एक मनोरम-सरोवर का निर्माण करवाया, जिसमें हर प्रकार के आकर्षक जलीय पौधे और विभिन्न प्रकार के कमल जैसे पद्म, उत्पल, कुमुद, पुण्डरीक, सौगन्धिक, तमरस और कहलर विकसित करवाये। मत्स्य और जलीय पक्षियों की सुंदर प्रजातियाँ भी वहाँ बसायी गयीं। साथ ही राजा ने वहाँ बसने वाले सभी पक्षियों की पूर्ण सुरक्षा की भी घोषणा करवायी, जिससे दूर-दूर से आने वाले पंछी स्वच्छंद भाव से वहाँ विचरण करने लगे।

7.      एक बार, वर्षा काल के बाद जब हेमन्त ॠतु प्रारम्भ हुआ और आसमान का रंग बिल्कुल नीला होने लगा तब मानस के दो हंस वाराणसी के ऊपर से उड़ते हुए जा रहे थे। तभी उनकी दृष्टि राजा द्वारा निर्मित सरोवर पर पड़ी। सरोवर की सुन्दरता और उसमें तैरते रमणीक पक्षियों की स्वच्छंदता उन्हें सहज ही आकर्षित कर गयी। तत्काल वे नीचे उतर आये और महीनों तक वहाँ की सुरक्षा, सुंदरता और स्वच्छंदता का आनंद लेते रहे। अन्ततोगत्वा वर्षा ॠतु के प्रारंभ होने से पूर्व वे फिर मानस को प्रस्थान कर गये। मानस पहुँच कर उन्होंने अपने साथियों के बीच वाराणसी के कृत्रिम सरोवर की इतनी प्रशंसा की कि सारे के सारे हंस वर्षा के बाद वाराणसी जाने को तत्पर हो उठे।

       हंसों के राजा युधिष्ठिर और उसके सेनापति सुमुख ने अन्य हंसों की इस योजना को समुचित नहीं माना। युधिष्ठिर ने उनके प्रस्ताव का अनुमोदन न करते हुए, यह कहा कि पंछी और जानवरों की एक प्रवृत्ति होती है। वे अपनी संवेदनाओं को अपनी चीखों से प्रकट करते हैं। किन्तु जन्तु जो कहलाता है "मानव" बड़ी चतुराई से करता है अपनी भंगिमाओं को प्रस्तुत जो होता है उनके भावों के ठीक विपरीत। फिर भी कुछ दिनों के बाद हंस-राज को हंसों की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और वह वर्षा ॠतु के बाद मानस के समस्त हंसों के साथ वाराणसी को प्रस्थान कर गया। जब मानस के हंसों का आगमन वाराणसी के सरोवर में हुआ और राजा को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने एक निषाद को उन दो विशिष्ट हंसों को पकड़ने के लिए नियुक्त किया। एक दिन युधिष्ठिर जब सरोवर की तट पर स्वच्छंद भ्रमण कर रहा था तभी उसके पैर निषाद द्वारा बिछाये गये जाल पर पड़े। अपने पकड़े जाने की चिंता छोड़ उसने अपनी तीव्र चीखों से अपने साथी-हंसों को तत्काल वहाँ से प्रस्थान करने को कहा जिससे मानस के सारे हंस वहाँ से क्षण मात्र में अंतर्धान हो गये। रह गया तो केवल उसका एकमात्र वफादार हमशक्ल सेनापति-सुमुख। हंसराज ने अपने सेनापति को भी उड़ जाने की आज्ञा दी मगर वह दृढ़ता के साथ अपने राजा के पास ही जीना मरना उचित समझा। निषाद जब उन हंसों के करीब पहुँचा तो वह आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि पकड़ा तो उसने एक ही हंस था फिर भी दूसरा उसके सामने निर्भीक खड़ा था। निषाद ने जब दूसरे हंस से इसका कारण पूछा तो वह और भी चकित हो गया, क्योंकि दूसरे हंस ने उसे यह बताया कि उसके जीवन से बढ़कर उसकी वफादारी और स्वामी-भक्ति है। एक पक्षी के मुख से ऐसी बात सुनकर निषाद का हृदय परिवर्तन हो गया। वह एक मानव था; किन्तु मानव-धर्म के लिए वफादार नहीं था। उसने हिंसा का मार्ग अपनाया था और प्राणातिपात से अपना जीवन निर्वाह करता था। शीघ्र ही उस निषाद ने अपनी जागृत मानवता के प्रभाव में आकर दोनों ही हंसों को मुक्त कर दिया। दोनों हंस कोई साधारण हंस तो थे नहीं। उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह जान लिया था कि वह निषाद निस्सन्देह राजा के कोप का भागी बनेगा। अगर निषाद ने उनकी जान बख़्शी थी तो उन्हें भी निषाद की जान बचानी थी। अत: तत्काल वे निषाद के कंधे पर सवार हो गये और उसे राजा के पास चलने को कहा। निषाद के कंधों पर सवार जब वे दोनों हंस राज-दरबार पहुँचे तो समस्त दरबारीगण चकित हो गये। जिन हंसों को पकड़ने के लिए राजा ने इतना प्रयत्न किया था वे स्वयं ही उसके पास आ गये थे। विस्मित राजा ने जब उनकी कहानी सुनी तो उसने तत्काल ही निषाद को राज-दण्ड से मुक्त कर पुरस्कृत किया। उसने फिर उन ज्ञानी हंसों को आतिथ्य प्रदान किया तथा उनकी देशनाओं को राजदरबार में सादर सुनता रहा।

      इस प्रकार कुछ दिनों तक राजा का आतिथ्य स्वीकार कर दोनों ही हंस पुन: मानस को वापिस लौट गये।

      8.  हिमालय के घने वनों में कभी सफेद हाथियों की दो विशिष्ट प्रजातियाँ हुआ करती थीं-छद्दन्त और उपोसथ। छद्दन्त हाथियों का रंग सफेद हुआ करता था और उनके छ: दाँत होते थे। (ऐसा पालि साहित्य में उल्लिखित है।) छद्दन्त हाथियों का राजा एक कंचन गुफा में निवास करता था। उसके मस्तक और पैर माणिक के समान लाल और चमकीले थे। उसकी दो रानियाँ थी-महासुभद्दा और चुल्लसुभद्दा। एक दिन गजराज और उसकी रानियाँ अपने दास-दासियों के साथ एक सरोवर में जल-क्रीड़ा कर रहे थे। सरोवर के तट पर फूलों से लदा एक साल-वृक्ष भी था। गजराज ने खेल-खेल में ही साल वृक्ष की एक शाखा को अपनी सूंड से हिला डाला। संयोगवश वृक्ष के फूल और पराग महासुभद्दा को आच्छादित कर गये। किन्तु वृक्ष की सूखी टहनियाँ और फूल चुल्लसुभद्दा के ऊपर गिरे। चुल्लसुभद्दा ने इस घटना को संयोग न मान, स्वयं को अपमानित माना। नाराज चुल्लसुभद्दा ने उसी समय अपने पति और उनके निवास का त्याग कर कहीं चली गई. तत: छद्दन्तराज के अथक प्रयास के बावजूद वह कहीं ढूंढे नहीं मिली। कालान्तर में चुल्लसुभद्दा मर कर मद्द राज्य की राजकुमारी बनी और विवाहोपरान्त वाराणसी की पटरानी। किन्तु छद्दन्तराज के प्रति उसका विषाद और रोष इतना प्रबल था कि पुनर्जन्म के बाद भी वह प्रतिशोध की आग में जलती रही। अनुकूल अवसर पर उसने राजा से छद्दन्तराज के दन्त प्राप्त करने को उकसाया। फलत: राजा ने उक्त उद्देश्य से कुशल निषादों की एक टोली बनवाई जिसका नेता सोनुत्तर को बनाया। सात वर्ष, सात महीने और सात दिनों के पश्चात् सोनुत्तर छद्दन्तराज के निवास-स्थान पर पहुँचा। उसने वहाँ एक गड्ढा खोदा और उसे लकड़ी और पत्तों से ढ्ँक दिया। फिर वह चुपचाप पेड़ों की झुरमुट में छिप गया। छद्दन्तराज जब उस गड्ढे के करीब आया तो सोनुत्तर ने उस पर विष-बुझा बाण चलाया। बाण से घायल छद्दन्त ने जब झुरमुट में छिपे सोनुत्तर को हाथ में धनुष लिये देखा तो वह उसे मारने के लिए दौड़ा। किन्तु सोनुत्तर ने संन्यासियों का गेरुआ वस्र पहना हुआ था जिस के कारण गजराज ने निषाद को जीवन-दान दिया। अपने प्राणों की भीख पाकर सोनुत्तर का हृदय-परिवर्तन हुआ। भाव-विह्मवल सोनुत्तर ने छद्दन्त को सारी बातें बताई कि क्यों वह उसके दांतों को प्राप्त करने के उद्देश्य से वहाँ आया था। चूँकि छद्दुंत के मजबूत दांत सोनुत्तर नहीं काट सकता था इसलिए छद्दुंत ने मृत्यु-पूर्व स्वयं ही अपनी सूँड से अपने दांत काट कर सोनुत्तर को दे दिये। वाराणसी लौट कर सोनुत्तर ने जब छद्दन्त के दाँत रानी को दिखलाये तो रानी छद्दन्त की मृत्यु के आघात को संभाल न सकी और तत्काल मर गयी।

       9.  हिमालय के फूल अपनी विशिष्टताओं के लिए सर्वविदित हैं। दुर्भाग्यवश उनकी अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। कुछ तो केवल किस्से-कहानियों तक ही सिमट कर रह गयी हैं। यह कहानी उस समय की है, जब हिमालय का एक अनूठा पेड़ अपने फलीय वैशिष्ट्य के साथ एक निर्जन पहाड़ी नदी के तीर पर स्थित था। उसके फूल थाईलैंड के कुरियन से भी बड़े, चेरी से भी अधिक रसीले और आम से भी अधिक मीठे होते थे। उनकी आकृति और सुगंध भी मन को मोह लेने वाली थी। उस पेड़ पर वानरों का एक झुण्ड रहता था, जो बड़ी ही स्वच्छंदता के साथ उन फूलों का रसास्वादन व उपभोग करता था। उन वानरों का एक राजा भी था जो अन्य बन्दरों की तुलना कई गुणा ज़्यादा बड़ा, बलवान्, गुणवान्, प्रज्ञावान् और शीलवान् था, इसलिए वह महाकपि के नाम से जाना जाता था। अपनी दूर-दृष्टि उसने समस्त वानरों को सचेत कर रखा था कि उस वृक्ष का कोई भी फल उन टहनियों पर न छोड़ा जाए जिनके नीचे नदी बहती हो। उसके अनुगामी वानरों ने भी उसकी बातों को पूरा महत्तव दिया क्योंकि अगर कोई फल नदी में गिर कर और बहकर मनुष्य को प्राप्त होता तो उसका परिणाम वानरों के लिए अत्यंत भयंकर होता। एक दिन दुर्भाग्यवश उस पेड़ का एक फल पत्तों के बीचों-बीच पक कर टहनी से टूट, बहती हुई उस नदी की धारा में प्रवाहित हो गया। उन्हीं दिनों उस देश का राजा अपनी औरतों दास-दासीयों तथा के साथ उसी नदी की तीर पर विहार कर रहा था। वह प्रवाहित फल आकर वहीं रुक गया। उस फल की सुगन्ध से राजा की औरतें सम्मोहित होकर आँखें बंद कर आनन्दमग्न हो गयीं। राजा भी उस सुगन्ध से आनन्दित हो उठा। शीघ्र ही उसने अपने आदमी उस सुगन्ध के स्रोत के पीछे दौड़ाये। राजा के आदमी तत्काल उस फल को नदी के तीर पर प्राप्त कर पल भर में राजा के सम्मुख ले आए. फल का परीक्षण कराया गया तो पता चला कि वह एक विषहीन फल था। राजा ने जब उस फल का रसास्वादन किया तो उसके हृदय में वैसे फलों तथा उसके वृक्ष को प्राप्त करने की तीव्र लालसा जगी। क्षण भर में सिपाहियों ने वैसे फलों पेड़ को भी ढूँढ लिया। किन्तु वानरों की उपस्थिति उन्हें वहाँ रास नहीं आयी। तत्काल उन्होंने तीरों से वानरों को मारना प्रारम्भ कर दिया। वीर्यवान् महाकपि ने तब अपने साथियों को बचाने के लिए कूदते हुए उस पेड़ के निकट की एक पहाड़ी पर स्थित एक बेंत की लकड़ी को अपने पैरों से फँसा कर, फिर से उसी पेड़ की टहनी को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर लेट अपने साथियों के लिए एक पुल का निर्माण कर लिया। फिर उसने चिल्ला कर अपने साथियों को अपने ऊपर चढ़कर बेतों वाली पहाड़ी पर कूद कर भाग जाने की आज्ञा दी। इस प्रकार महाकपि के बुद्धि कौशल से सारे वानर दूसरी तरफ की पहाड़ी पर कूद कर भाग गये।

     राजा ने महाकपि के त्याग को बड़े गौर से देखा और सराहा। उसने अपने आदमियों को महाकपि को जिन्दा पकड़ लाने की आज्ञा दी। उस समय महाकपि की हालत अत्यन्त गंभीर थी। साथी वानरों द्वारा कुचल जाने के कारण उसका सारा शरीर विदीर्ण हो उठा था। राजा ने उसके उपचार की सारी व्यवस्थता भी करवायी, मगर महाकपि की आँखें हमेशा के लिए बंद हो चुकी थीं।

  10.      हजारों साल पहले मगध जनपद के एक निकटवर्ती वन में हजार हिरणों का एक समूह रहता था जिसके राजा के दो पुत्र थे-लक्खण और काल। जब मृगराज वृद्ध होने लगा तो उसने अपने दोनों पुत्रों को उत्तराधिकारी घोषित किया और प्रत्येक के संरक्षण में पाँच-पाँच सौ मृग प्रदान किए ताकि वे सुरक्षित आहार-विहार का आनंद प्राप्त कर सकें।

       उन्हीं दिनों फसल काटने का समय भी निकट था तथा मगधवासी अपने लहलहाते खेतों को आवारा पशुओं से सुरक्षित रखने के लिए अनेक प्रकार के उपक्रम और खाइयों का निर्माण कर रहे थे। मृगों की सुरक्षा के लिए वृद्ध पिता ने अपने दोनों पुत्रों को अपने मृग-समूहों को लेकर किसी सुदूर और सुरक्षित पहाड़ी पर जाने का निर्देश दिया। काला एक स्वेच्छाचारी मृग था। वह तत्काल अपने मृगों को लेकर पहाड़ी की ओर प्रस्थान कर गया। उसने इस बात की तनिक भी परवाह नहीं की कि लोग सूरज की रोशनी में उनका शिकार भी कर सकते थे। फलत: रास्ते में ही उसके कई साथी मारे गये।

     लक्खण एक बुद्धिमान और प्रबुद्ध मृग था। उसे यह ज्ञान था कि मगधवासी दिन के उजाले में उनका शिकार भी कर सकते थे। अत: उसने पिता द्वारा निर्दिष्ट पहाड़ी के लिए रात के अंधेरे में प्रस्थान किया। उसकी इस बुद्धिमानी से उसके सभी साथी सुरक्षित पहाड़ी पर पहुँच गए. चार महीनों के बाद जब लोगों ने फसल काट ली तो दोनों ही मृग-बन्धु अपने-अपने अनुचरों के साथ अपने निवास-स्थान को लौट आये। जब वृद्ध पिता ने लक्खण के सारे साथियों को जीवित और काला के अनेक साथियों के मारे जाने का कारण जाना तो उसने खुले दिल से लक्खण की बुद्धिमत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

 

    11.    हिमवंत के वन में कभी एक जंगली भैंसा रहता था। कीचड़ से सना, काला और बदबूदार। किंतु वह एक शीलवान भैंसा था। उसी वन में एक नटखट बंदर भी रहा करता था। शरारत करने में उसे बहुत आनंद आता था। मगर उससे भी अधिक आनंद उसे दूसरों को चिढ़ाने और परेशान करने में आता था। अत: स्वभावत: वह भैंसा को भी परेशान करता रहता था। कभी वह सोते में उसके ऊपर कूद पड़ता; कभी उसे घास चरने से रोकता तो कभी उसके सींगों को पकड़ कर कूदता हुआ नीचे उतर जाता तो कभी उसके ऊपर यमराज की तरह एक छड़ी लेकर सवारी कर लेता। भारतीय मिथक परम्पराओं में यमराज की सवारी भैंसा बतलाई जाती है। उसी वन के एक वृक्ष पर एक यक्ष रहता था। उसे बंदन की छेड़खानी बिल्कुल पसन्द न थी। उसने कई बार बंदर को दंडित करने के लिए भैंसा को प्रेरित किया क्योंकि वह बलवान और बलिष्ठ भी था। किंतु भैंसा ऐसा मानता था कि किसी भी प्राणी को चोट पहुँचाना शीलत्व नहीं है; और दूसरों को चोट पहुँचाना सच्चे सुख का अवरोधक भी है। वह यह भी मानता था कि कोई भी प्राणी अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता। कर्मों का फल तो सदा मिलता ही है। अत: बंदर भी अपने बुरे कर्मों का फल एक दिन अवश्य पाएगा और एक दिन ऐसा ही हुआ जबकि वह भैंसा घास चरता हुआ दूर किसी दूसरे वन में चला गया। संयोगवश उसी दिन एक दूसरा भैंसा पहले भैंसा के स्थान पर आकर चरने लगा। तभी उछलता कूदता बंदर भी उधर आ पहुँचा। बंदर ने आव देखी न ताव। पूर्ववत् वह दूसरे भैंसा के ऊपर चढ़ने की वैसी ही धृष्टता कर बैठा। किंतु दूसरे भैंसा ने बंदर की शरारत को सहन नहीं किया और उसी तत्काल जमीन पर पटक कर उसकी छाती में सींग घुसेड़ दिये और पैरों से उसे रौंद डाला। क्षण मात्र में ही बंदर के प्राण पखेरु उड़ गये।

       12. कभी हिमालय के घने वनों में एक हाथी रहता था। उसका शरीर चांदी की तरह चमकीला और सफेद था। उसकी आँखें हीरे की तरह चमकदार थीं। उसकी सूंड सुहागा लगे सोने के समान कांतिमय थी। उसके चारों पैर तो मानो लाख के बने हुए थे। वह अस्सी हज़ार गजों का राजा भी था। वन में विचरण करते हुए एक दिन सीलवा ने एक व्यक्ति को विलाप करते हुए देखा। उसकी भंगिमाओं से यह स्पष्ट था कि वह उस निर्जन वन में अपना मार्ग भूल बैठा था। सीलवा को उस व्यक्ति की दशा पर दया आयी। वह उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ा। मगर व्यक्ति ने समझा कि हाथी उसे मारने आ रहा था। अत: वह दौड़कर भागने लगा। उसके भय को दूर करने के उद्देश्य से सीलवा बड़ी शालीनता से अपने स्थान पर खड़ा हो गया, जिससे भागता आदमी भी थम गया। सीलवा ने ज्योंही पैर फिर आगे बढ़ाया वह आदमी फिर भाग खड़ा हुआ और जैसे ही सीलवा ने अपने पैर रोके वह आदमी भी रुक गया तीन बार जब सीलवा ने अपने उपक्रम को वैसे ही दो हराया तो भागते आदमी का भय भी भाग गया। वह समझ गया कि सीलवा कोई खतरनाक हाथी नहीं था। तब वह आदमी निर्भीक हो कर अपने स्थान पर स्थिर हो गया। सीलवा ने तब उसके पास पहुँचा कर उसकी सहायता का प्रस्ताव रखा। आदमी ने तत्काल उसके प्रस्ताव को स्वीकार किया। सीलवा ने उसे तब अपनी सूँड के उठाकर पीठ पर बिठा लिया और अपने निवास-स्थान पर ले जाकर नाना प्रकार के फलों से उसकी आवभगत की। अंतत: जब उस आदमी की भूख-प्यास का निवारण हो गया तो सीलवा ने उसे पुन: अपनी पीठ पर बिठा कर उस निर्जन वन के बाहर उसकी बस्ती के करीब लाकर छोड़ दिया। वह आदमी लोभी और कृतघ्न था। तत्काल ही वह एक शहर के बाज़ार में एक बड़े व्यापारी से हाथी दाँत का सौदा कर आया। कुछ ही दिनों में वह आरी आदि औजार और रास्ते के लिए समुचित भोजन का प्रबन्ध कर सीलवा के निवास स्थान को प्रस्थान कर गया। जब वह व्यक्ति से सीलवा के सामने पहँचा तो सीलवा ने उससे उसके पुनरागमन का उद्देश्य पूछा। उस व्यक्ति ने तब अपनी निर्धनता दूर करने के लिए उसके दाँतों की याचना की। उन दिनों सीलवा दान-पारमी होने की साधना कर रहा था। अत: उसने उस आदमी की याचना को सहर्ष स्वीकार कर लिया तथा उसकी सहायता के लिए घुटनों पर बैठ गया ताकि वह उसके दाँत काट सके. उस व्यक्ति ने शहर लौटकर सीलवा के दांतों को बेचा और उनकी भरपूर कीमत भी पायी। मगर प्राप्त धन से उसकी तृष्णा और भी बलवती हो गयी। वह महीने भर में फिर सीलवा के पास पहुँच कर उसके शेष दांतों की याँचना कर बैठा। सीलवा ने उस पुन: अनुगृहीत किया। कुछ ही दिनों के बाद वह लोभी फिर से सीलवा के पास पहुँचा और उसके शेष दांतों को भी निकाल कर ले जाने की इच्छा जताई. दान-परायण सीलवा ने उस व्यक्ति की इस याचना को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर क्या था? क्षण भर में वह आदमी सीलवा के मसूढ़ों को काट-छेद कर उसके सारे दांत-समूल निकाल कर और अपने गन्तव्य को तत्काल प्रस्थान कर गया। खून से लथपथ दर्द से व्याकुल कराहता सीलवा फिर जीवित न रह सका और कुछ समयोपरान्त दम तोड़ गया। लौटता लोभी जब वन की सीमा भी नहीं पार कर पाया था तभी घरती अचानक फट गयी और वह आदमी काल के गाल में समा गया। तभी वहाँ वास करती हुई एक वृक्ष यक्षिणी ने यह गान गाया। मांगती है तृष्णा और॥। और—! मिटा नहीं सकता जिसकी भूख को सारा संसार।

   13.   समुद्र के किनारे खड़े एक पेंगुइन ने जब ऊँचे आसमान में उड़ते बाज को देखा तो सोचने लगा-"बाज भी क्या पक्षी है...कितने शान से खुले आकाश में घूमता है...और एक मैं हूँ जो चाहे जितना भी पंख फड़-फड़ा लूँ ज़मीन से एक इंच ऊपर भी नहीं उठ पाता..." और ऐसा सोच कर वह कुछ उदास हो गया। ठीक इसी पल बाज ने भी पेंगुइन को नीचे समुद्र में तैरते हुए देखा...और सोचने लगा, "ये पेंगुइन भी क्या कमाल का पक्षी है... जो धरती की सैर भी करता है और समुद्र की गहराइयों में गोता भी लगाता है... और यहाँ मैं...बस यूँही इधर-उधर उड़ता फिरता हूँ!" जानते हैं इसके बाद क्या हुआ? कुछ नहीं... बाज आकाश की ऊँचाइयों में खो गया और पेंगुइन समद्र की गहराइयों में... दोनों अपनी मन में आये नेगेटिव थॉट्स को भूल गए और बिना समय गँवाए भगवान की दी हुई उस ताकत को... उस शक्ति को प्रयोग करने लगे जिसके साथ वह पैदा हुए थे। सोचिये अगर वह बाज और पेंगुइन बाज और पेंगुइन न होकर इंसान होते तो क्या होता? बाज यही सोच-सोच कर परेशान होता कि वह पानी के अन्दर तैर नहीं सकता और पेंगुइन दिन-रात बस यही सोचता कि काश वह आकाश में उड़ पाता... और इस चक्कर में वे दोनों ही अपनी-अपनी existing strengths या skills सही ढंग से use नहीं कर पाते। काश हम इंसान भी इन पक्षियों से सीख पाते कि ईश्वर ने हर किसी के अन्दर अलग-अलग गुण दिए हैं... हर किसी ने अलग-अलग क्षमताओं के साथ जन्म लिया है और हर इंसान किसी दुसरे इंसान से किसी ना किसी रूप में बेहतर है। लेकिन दुर्भाग्यवश बहुत से लोगों का ध्यान अपनी प्रतिस्पर्धियों की बजाय दूसरों की उपलब्धियों पर ही लगा रहता है, जिसे देखकर वे जलते हैं और अपनी शक्ति का ग़लत जगह लगाते हैं।

  14.   हज़ारों साल पहले किसी वन में एक बुद्धिमान बंदर रहता था। वह हज़ार बंदरों का राजा भी था।

      एक दिन वह और उसके साथी वन में कूदते-फाँदते ऐसी जगह पर पहुँचे जिसके निकट क्षेत्र में कहीं भी पानी नहीं था। नयी जगह और नये परिवेश में प्यास से व्याकुल नन्हे वानरों के बच्चे और उनकी माताओं को तड़पते देख उसने अपने अनुचरों को तत्काल ही पानी के किसी स्रोत को ढूंढने की आज्ञा दी।

      कुछ ही समय के बाद उन लोगों ने एक जलाशय ढूंढ निकाला। प्यासे बंदरों की जलाशय में कूद कर अपनी प्यास बुझाने की आतुरता को देख कर वानरराज ने उन्हें रुकने की चेतावनी दी, क्योंकि वे उस नये स्थान से अनभिज्ञ था। अत: उसने अपने अनुचरों के साथ जलाशय और उसके तटों का सूक्ष्म निरीक्षण व परीक्षण किया। कुछ ही समय बाद उसने कुछ ऐसे पदचिह्मों को देखा जो जलाशय को उन्मुख तो थे मगर जलाशय से बाहर को नहीं लौटे थे। बुद्धिमान् वानर ने तत्काल ही यह निष्कर्ष निकाला कि उस जलाशय में निश्चय ही किसी खतरनाक दैत्य जैसे प्राणी का वास था। जलाशय में दैत्य-वास की सूचना पाकर सारे ही बंदर हताश हो गये। तब बुद्धिमान वानर ने उनकी हिम्मत बंधाते हुए यह कहा कि वे दैत्य के जलाशय से फिर भी अपनी प्यास बुझा सकते हैं क्योंकि जलाशय के चारों ओर बेंत के जंगल थे जिन्हें तोड़कर वे उनकी नली से सुड़क-सुड़क कर पानी पी सकते थे। सारे बंदरों ने ऐसा ही किया और अपनी प्यास बुझा ली।

    15.     श्रावस्ती के निकट जेतवन में कभी एक जलाशय हुआ करता था। उसमें एक विशाल मत्स्य का वास था। वह शीलवान्, दयावान् और शाकाहारी था।

      उन्हीं दिनों सूखे के प्रकोप के उस जलाशय का जल सूखने लगा। फलत: वहाँ रहने वाले समस्त जीव-जन्तु त्राहि-त्राहि करने लगे। उस राज्य के फसल सूख गये। मछलियाँ और कछुए कीचड़ में दबने लगे और सहज ही अकाल-पीड़ित आदमी और पशु-पक्षियों के शिकार होने लगे।

      अपने साथियों की दुर्दशा देख उस महान मत्स्य की करुणा मुखर हो उठी। उसने तत्काल ही वर्षा देव अर्जुन का आह्वान अपनी सच्छकिरिया' के द्वारा किया। अर्जुन से उसने कहा, "हे अर्जुन अगर मेरा व्रत और मेरे कर्म सत्य-संगत रहे हैं तो कृपया बारिश करें।" उसकी सच्छकिरिया अचूक सिद्ध हुई. वर्षा देव ने उसके आह्वान को स्वीकारा और सादर तत्काल भारी बारिश करवायी।

       इस प्रकार उस महान और सत्यव्रती मत्स्य के प्रभाव से उस जलाशय के अनेक प्राणियों के प्राण बच गये।

 

श्वेतकेतु और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA

यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE UIVERSITY OF VEDA

उषस्ति की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति, _4 -GVB the uiversity of veda

वैराग्यशतकम्, योगी भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda

G.V.B. THE UNIVERSITY OF VEDA ON YOU TUBE

Post a Comment

0 Comments

Ad Code