सुमहान् कौन?
अयमु ष्य सुमहाँ अवेदि होता मन्द्रो मनुषो यह्वो
अग्निः।
विभा अंकः ससृजानः पृथिव्यां
कृष्णपविरोषधीभिर्ववक्षे॥
-ऋग्वेद ७।८।२
ऋषिः-वसिष्ठ । देवता:-अग्नि ।
छन्दः-त्रिष्टुप्।
पदपाठ-अयम्।उ।स्यः ।सु-महान्।
अवेदि।होता। मन्द्रः। मनुषः। यह्वः। अग्निः । वि। भाः। अकः। ससृजानः । पृथिव्यम्।
कृष्ण-पविः । ओषधीभिः । ववक्षे॥
स्य: उ सुमहान् अवेदि - वह ही सुमहान जाना जाता है
अयम् होता, मन्द्रः - यह जो (है) होता, मन्द्रः, मनुषः, यह्वः, अग्निः -मनुषः, यह्वः, अग्निः।
वि ससृजानः पृथिव्याम् - (जिसने) विविध (रचनात्मक भाः अकः
साधनायें करते हुये) पृथिवी पर प्रकाश
संसृजित कर दिया, कृष्ण-पविः, ओषधीभिः - (जो) कृष्ण-पविः (है), (तथा) ववक्षे ओषधियों से धारित [धरा को रोग रहित]
किया करता है।
महानता की दृष्टि से उस महानतम् परम-पुरुष
परमेश्वर से बढ़ कर कोई नहीं,
परन्तु
चूँकि मत्र में 'मनुष: ' शब्द आया हुआ है, और निराकार, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि परमेश्वर 'मनुषः' हो ही नहीं सकता, अतः मन्त्र केवल देहधारी मनुष्यों के लिये है, जिनके अन्तर में 'आत्मा-रुपी' अग्नि: व्याप्त है। किन गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर मनुष्य
महान ही नहीं, सुमहान होता है, और किस प्रकार मनुष्य को अपनी
महानता का सदुपयोग करना चाहिये यही ऋग्वेद के सातवें मण्डल के इस सप्तर्च आठवें
सूक्त का विषय अंग्रेजी में एक उक्ति है, जिस का भाव है, कि कुछ पैदा ही बड़े होते हैं, कुछ बड़े बन जाते हैं और कुछों पर
बड़प्पन थोप दिया जाता है। अंग्रेजी में 'बड़े' और 'महान' के लिये एक ही शब्द है 'ग्रेट'। अंग्रेजीदां इस उक्ति को महानता
के संदर्भ में व्यक्त करते हैं,
पर
वेद की दृष्टि में यह उक्ति सर्वथा ग़लत और निस्सार है। पहली बात यह कि वेद की
दृष्टि में न कोई छोटा है, और न कोई बड़ा। (अज्येष्ठासो अर्कनिष्ठास एते सं
भ्रातरो वावृधः सौभगाय ऋग्० ५।६०।५)। और दूसरी बात यह, कि धन-ऐश्वर्य से बड़ा' होना और बात है, और 'महान्' होना नितान्त भिन्न बात है। महानता, और वह भी सुमहानता का मनुष्य की धन, सम्पत्ति और वैभव से दूर का भी
सम्बन्ध नहीं।
वेद-मन्त्र में मन्त्र-द्रष्टा ऋषि
वसिष्ठ ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है (स्यः उ सुमहान् अवेदि) वह ही सुमहान जाना जाता है, जिसमें मन्त्र में वर्णित गुण कर्म
स्वभाव हों। यहाँ 'अवेदि' शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण है। महत्व यह, कि मात्र किसी की घोषणा, कि वह 'सु-महान' है, कोई मायने नहीं रखती। अन्य लोग जब उसको सुमहान समझें और
जानें, तब वह सुमहान जाना जायेगा।
सुमहानता अपनी दृष्टि में नहीं,
औरों
की दृष्टि में आकलन किया जाने वाला गुण है। अन्यों की दृष्टि में मनुष्य कब
सुमहान् जाना जाता है, जब यह सिद्ध हो जाय कि वह (अयम् होता, मन्द्रः, मनुषः, यह्वः, अग्निः ) यह 'होता', 'मन्द्रः''मनुषः', 'यहवः', और 'अग्निः' है। इन पाँचों गुणों के प्रकटीकरण
में सु-महानता स्थित है। कहा भी है-"पञ्चस्वन्तः पुरुष आ विवेश" (यजु:०२३१५२) पाँच के भीतर पुरुष
(की महानता) प्रविष्ट है। आइये,
इन
पर थोड़ा विचार करें।
सुमहानता का प्रथम लक्षण बताया 'होता'। वेद में होता को इस प्रकार
परिभाषित किया है-“अग्निष्टद्धो क्रतुविद् विजानन् यजिष्ठो देवाँ तशो
य॑जाति।" (ऋग०१०।२१५) 'होता' अग्निष्ठ, क्रतुविद्, विजानन, यजिष्ठ, होता हुआ ऋतु (देश, काल, स्थिति) अनुसार देवों का यजन करता
है। होता अग्निष्ठ अर्थात ब्रह्म में प्रविष्ट हुआ अग्नि-प्रकाश/ज्योति का
प्रादुर्भाव करता है। वह क्रतुविद्, अर्थात,
कर्म-कुशल
कर्मयोगी होता है। प्रत्येक संस्था और प्रत्येक स्थान में 'होता' वह खामोश कर्म-कुशल कार्यकर्ता है, जिसके होने से सब कुछ होता है, और न होने से कुछ नहीं होता।
विजानन् से तात्पर्य है, विशिष्ट ज्ञान वाला 'ज्ञानी', जो परमात्मा को अतिशय प्रिय है।
यज्ञ (श्रेष्ठतम कर्म) में जिसकी अतिशय स्थिति हो, वह यजिष्ठ कहाता है। ऐसा प्रवीण पुरुष ऋत्वनुसार, युगानुसार, या यूं कहिये, समय की आवश्यकताओं के अनुरूप, देवों का, दिव्यताओं का यजन (सृजन, सत्कार, संगतिकरण) करता हुआ जब सर्वस्व
समर्पित कर देता है, तब वह
"होता"सर्व-आहुतिकार के रूप में जाना जाता है। होता' केवल 'आह्वाता' (आह्वान करने वाला) ही नहीं है, वह परमपिता परमेश्वर को 'आदाता' (अंगीकार करने वाला) और समाज, राष्ट्र। विश्व के हितार्थ अपना सब
कुछ दान करने वाला 'दाता' भी है। यज्ञों में पूर्णाहुति 'सर्वं वै पूर्ण स्वाहा', एक बार नहीं तीन बार, करने वाला 'होता' ही है, तभी वह 'सुमहान' जाना जाता है।
सुमहानता का दूसरा लक्षण है-'मन्द्रः' अर्थात आनन्दवृत्ति वाला होना। आनन्दवृत्ति उसी की हो सकती
है, जो अपने नियत वा सौंपे गये कार्यों
को करने में रस लेता है. तथा जो समत्व योग का पथिक है। जो कर्त्तव्य-पथ पर
जय-पराजय, सुख-दुःख, लाभहानि, मान-अपमान की परवाह किये बिना
मुस्कान के साथ आगे ही आगे बढ़ता चला जाय, वह मन्द्रः है। प्रत्येक अवस्था में शान्त, सौम्य, गम्भीर, किन्तु पुष्प के समान खिले रहने की
वृत्ति का नाम आनन्दवृत्ति है। जो स्वयं अन्दर से प्रसन्नवदन है, वही दूसरों को भी प्रसन्नता दे
सकता है। जो स्वयं आनन्दित है,
वही
दूसरों को आनन्द प्रदान कर सकता है। और जो ऐसा करता है वही मन्द्रः है, वही सुक्रतु है, वही सुमहान है।
सुमहानता का तीसरा लक्षण है-'मनुषः' अर्थात मनुष्यता। मानुषी आकृति वाले तो बहुत हैं, परन्तु मनुष्यता को तो खोजना पड़ता
है। मानवता के गुणों से जो ओत-प्रोत हो, वह है,
वेद
की दृष्टि में 'मनुषः' अर्थात् मननशील मानव । वेद में 'अमानुषः' को 'अकर्मा', 'अमन्तु', 'अन्यव्रत' और 'दस्यु' कहा गया है। अर्थापत्ति (उनके उलट) से, 'मनुषः'
के
गुण होगें, 'सुकर्मा', 'सुमन्तु', 'अनन्यवत' और 'आर्य'। सुकर्मा ही सुक्रतु अर्थात
कर्म-कुशल है। 'सुमन्तु' मननशील,
सहनशील
और मर्यादापालक है। 'अनन्यवती' अनन्य श्रद्धा, निष्ठा और ऋजुता से व्रतों का पालन करने वाला हैं। 'आर्य' श्रेष्ठ, संयमी, सच्चरित्र और व्यवहारकुशल है। इन
सब को मिला कर बनता है 'मनुष्य'। मनुष्य का आराध्यदेव होता है एक'परमेश्वर', आस्था होती है एक-'मनुष्यता', धर्म होता है एक'परोपकार'। परोपकार ही है, वेद की भाषा में 'यज्ञ' (श्रेष्ठतम कर्म), और गीता की भाषा में 'निष्काम कर्म', वरना सारे कर्म जो
स्व-हित के लिये किये जाते हैं, कितने भी शुभ और श्रेष्ठ क्यों न
हों, 'सकाम कर्म ही होते हैं। सकाम
कर्मों से एक व्यक्ति सुमानव तो हो सकता है, सुमहान नहीं। सुमहानता तो निष्काम कर्मयोगियों को ही मिलती
है।
वेद की दृष्टि में एक सच्चे मनुषः में दो और विशेषतायें होती हैं, वे हैं नृत्य और हास्य । प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय सुवीरासो
विदथमा वंदेम (अथर्व० १२।२।२२) समष्टि सृष्टि में सुवीर मनुष्य नाचते, हँसते, मुस्कराते सुमहानता की ओर बढ़ते
चले जाते हैं। नृत्य में गति है,
ताल
है, साधना है। हास में उल्लास है, प्रसन्नता है, आनन्द है (हास से यहाँ उपहास या
परिहास से नहीं, निश्चल, निर्मल, मोहक तथा मृदु हास्य से तात्पर्य
है) और जिनके जीवन में गति नहीं,
सुर
नहीं, ताल नहीं, जो हमेशा खिन्न, परेशान, उदास वा रोते हुये दीखते हों, वे मनुष्य की आकृति वाले होकर भी मनुषः नहीं, और जो मनुषः नहीं, वह सुमहान तो होने से रहे।
सुमहानता का चौथा लक्षण है-'यवः' अर्थात महानता; क्षुद्रता,
संकीर्णता, हेयता नहीं। महानता के चिन्ह हैं, पवित्र विचार और विशाल हृदय। इसी
लिये ब्रह्म यज्ञ में 'ओं भूः पुनातु शिरसि' और 'ओं महः पुनातु हृदये' द्वारा साधक तदनुरूप प्रार्थना करता है। वस्तुतः महान वही
है, जिसके विचार महान हों, दिल महान हो, और कर्म महान हों। वेद का निम्न
मन्त्र भी महानता के लक्षणों पर अच्छा प्रकाश डालता है
स तुर्वणिर्महाँ अरेणु पौंस्य
गिरेभृष्टिर्न भ्राजते तुजा शवः।
येन शुष्ण मायिनमायसो मर्दै दुध
आभूषु रामयन्नि दामनि॥
-ऋग्० १.५६.३
(सुः महान्) वह महान है, जो (तुर्वणिः ) सद्य-सहायक (अरेणु) विकार-रहित (पौंस्ये) पुरुषार्थयुक्त, (तुजा) दुःखों का नाशक, (शवः) उत्तम बल से युक्त (शुष्णाम्) निःस्पृह, (मायिनम्) बुद्धिमान, (आयसः) विज्ञान से युक्त, (आभूषु) गुणों से सुभूषित है। (न) जैसे (गिरेः) पर्वतों के (भृष्टिः) ऊँचे शिखर (भाजते) प्रकाशित होते हैं (तम्) उसी प्रकार (मदे) आनन्द में (दामनि) दमकता तथा (निरमयत्) नितरां रमण कराता है। मानव की
महानता के कितने अपूर्व लक्षण हैं यह । एक वाक्य में कहा जाय तो सुमहानता ऊचे उठने
और मानवों को ऊचा उठाने में है। मानवप्रजा के दुःखों को दूर करने और मानवता के
पोषण में है।
सुमहानता का पाँचवा लक्षण है-'अग्निः' अर्थात अग्निस्वरूप परमेश्वर की ज्योति से ज्योतिर्मय
अन्तरात्मा । सुमहान वह है जिसके अन्त:स्थल में आग है, प्रकाश है, ताप है, और विद्युत जैसा उत्साह है। जो
स्वयं रोशन है, वही दूसरों को रोशनी दे सकता है। अग्निनाग्निः समिध्यते' (ऋ० १।१२।६,
साम०८४४)
अग्निः से अग्नि का वर्धन होता है, ज्योति से ज्योति प्रज्वलित होती है। एक एवानिर्बहुधा समिद्ध' (ऋग्० ८।५२।२) एक अकेला अग्नि बहुत प्रकार से प्रकाशित होता
है। अग्निर्वे
अग्रणीर्भवति अग्नि ही आगे ले जाने वाला है। अग्रऽआयुषि पवसऽआ सुवोर्जमिषे च नः (यजुः० १९ । ३८) अग्नि आयुष्य को
पवित्र करता है। हमें जीवनी शक्ति और इच्छा शक्ति प्रदान करता है। वस्तुतः, मनुष्य कार्यों में प्रवृत्त और महान
लक्ष्यों के प्रति समर्पित जभी होता है, जब उसके अन्दर आग धधक रही हो, और यही धधक, यही उत्सर्ग, उत्क्रमण और उत्थान की भावना
मनुष्य को सुमहान् बनाती है।
सुमहानता के लक्षणों अर्थात गुणों के
पश्चात् उचित है कि 'सु-महान' के कर्म और स्वभाव को भी समझ कर
आत्मसात किया जाये । मन्त्र में आया (वि ससृजानः पृथिव्याम् भाः अकः)। आज तक इस धरा पर जितने भी महापुरुष
हुये हैं, सभी ने अपने-अपने ढंग से रचनात्मक
साधनाओं द्वारा सृजन करते हुये विविध रूपों में इस पृथिवी को प्रकाशित किया है।
इसी लिये मन्त्र का भाव है, कि वह सुमहान है, जिसने विविध/नाना प्रकार की ज्ञान
और विज्ञान के क्षेत्र में सृजनात्मक साधनाओं द्वारा इस पृथिवी को चमकाया है, कान्तियुक्त किया है। सृष्टि के
आदि से, ऋषियों से लेकर (जिन्होंने
परमेश्वर की परम कल्याणी वाणी वेद ज्ञान को उजागर किया) आज तक मनीषियों, विचारकों, वैज्ञानिकों आदि द्वारा जो भी
उपलब्धियाँ विभिन्न क्षेत्रों में हुई हैं, उस से पृथिवी का गौरव बढ़ा है। पृथिवीवासियों की समस्याओं
का समाधान हुआ है। इस पर भी यदि कोई पृथिवी पर आज व्याप्त भ्रष्टाचार, अनैतिकता, लोलुपता, युद्ध-लिप्सा आतंक की ओर ध्यान
दिलाना चाहे, तो कारण और उत्तर एक ही है-'महापुरुषों का अभाव'। इसी लिये युग-युग में जितने भी
महापुरुष हुये हैं उनकी अप्रतिम देन को नकारा नहीं जा सकता, चाहे वह धर्म की संस्थापना और
अधर्म से युद्ध के क्षेत्र में हो, न्याय की रक्षा और अन्याय के विरूद्ध संग्राम के क्षेत्र
में हों, ज्ञान, भक्ति व उपासना के क्षेत्र में हो, अथवा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के
क्षेत्र में हो । वेद माता की कामना यही है कि हम पूर्ववर्ती सुमहान महामानवों के
व्यक्तित्व और कर्तृत्व से प्रेरणा लेकर पृथिवी पर इस समय व्याप्त अन्धकार, अविद्या, अज्ञान, अभाव और अन्याय को हटा कर विद्या, ज्ञान, परिपूर्णता और न्याय को प्रतिष्ठित
कर इसको पुनः चमका दें, जगमगा दें। 'प्रतिधिना पृथिव्या पृथिवीं जिन्व' (यजुः०१५। ६.) प्रतिधारणा, अर्थात,
आत्म-निष्ठा
से, पृथिवी पर, पृथिवीवासियों को अनुप्राणित करें।
पृथिवी हमारा धर्मक्षेत्र है,
पृथिवी
ही हमारा कुरुक्षेत्र है। वेद में तो यहाँ तक कहा है 'द्यां मा लेखीरन्तरिक्ष मा हिश्सीः
पृथिव्या संभव' (यजुः० ५।४३) धौ पर मत लिख, अन्तरिक्ष में मत उथल-पुथल कर, पृथिवी से संयुक्त हो। हमारा महान
सौभाग्य इसी में है कि सु-महानों ने समय-समय पर जिस प्रकार पृथिवी को प्रकाशित
किया है, उसी प्रकार सुकर्मों द्वारा हम भी
ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी को आगे
बढ़ावें, वसुन्धरा को विविध रूप से प्रकाशित
करें। कैसे? कैसे का उत्तर है मन्त्र में, (कृष्ण पविः) काली को उजाली में परिवर्तित करके। अन्धकार में प्रकाश
करके। अन्धकार को कोसने के बजाय प्रकाश का एक दीप अथवा मोमबत्ती जलाकर। चन्द्रमा
कृष्ण-पवि है। सूर्य अन्धकार का मूलोच्छेदन कर देता है, लेकिन अन्धकार जाता नहीं।
सूर्यास्त होते ही फिर अन्धकार आ जाता है। किन्तु चन्द्रमा की अन्धकार से कोई
लड़ाई नहीं। वह अन्धकार में ही अपने स्व-प्रकाश से मधुर चान्दनी की छटा बिखेर देता
है । घोर घनी अंधियारी रात को शीतल चान्दनी रात में परिवर्तित कर देता है। यह है, सुमहानता का प्रतीक । विश्व
साहित्य में देख लीजिये, इतना सटीक और सजीव उदाहरण केवल
आपको वेद में ही मिलेगा, अन्यत्र नहीं। सुमहान होने के लिये
यदि हम सूर्य के समान तेजस्वी वा प्रतापी न भी बन सकें, पर चन्द्रमा के समान शीतल और सौम्य
तो हो ही सकते है, बस शर्त एक है, चन्द्रमा में प्रकाश उसका अपना
नहीं, उसने लिया हुआ है, हम भी प्रकाश को ले लें परम पिता
परमात्मा से, अपने आपको युक्त करके उस परमेश
प्रभु से। उसकी महानता से हम भी सुमहान हो जायेंगे।
अंतिम बात है 'सुमहान' का स्वभाव । सुमहान (ओषधीभिः ववक्षे) ओषधियों से धारित हुआ करता है।
किस लिये?। दुःखी रोग-ग्रस्त संसार को रोग
मुक्त कर सुखी करने के लिये। सुमहान व्यक्ति की टेक होती है
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न
पुनर्भवम्।
कामये दुःख-तप्तानाम्
प्राणिनामार्तिनाशनम्॥
"न तो मुझे राज्य की कामना है, न स्वर्ग की, न मुक्ति की। मेरी तो एक ही कामना
है कि दु:खों से संत्पत प्राणिमात्र की व्यथा को दूर कर सकूँ।" सुमहान पुरुष
पाप से घृणा करते हैं, पापियों से नहीं। पतितों और दलितों
को वे उठाते हैं। अमानुष को मानुष बनाते हैं। सब से प्रेम करना उनका स्वभाव होता
है, पर आसक्ति किसी में नहीं। सब की
सेवा करता उनको स्वीकार होता है,
पर
किसी की अधीनता अथवा बंधन नहीं। औषधीयाँ जैसे शारीरिक व्याधियों का निदान प्रस्तुत
करती हैं, उसी प्रकार सुमहान मानव सामाजिक
तथा अन्तर्देशीय व्याधियों का निदान प्रस्तुत कर मानवीय मूल्यों और मानवतावाद की
रक्षा करते हैं। समस्याओं का निदान सुमहानों की प्रवृत्ति बन जाती है। इसी लिये
मन्त्र में कहा 'ओषधीभिः ववक्षे' व्याधियों की शमनकारक ओषधीयों से, समस्याओ के निवारणकारक निदानों से
वे वहन किये जाते हैं। कुरीतियों और बुराइयों को दूर करके मानव समाज को निर्दोष और
निष्पाप बनाना उनकी सुमहान साधना होती है।
इस सम्बन्ध में महान वैज्ञानिक लुई पास्चर
के निम्न शब्द बहुत ही प्रासंगिक हैं -"मैं तुम से यह नहीं पूछना चाहता, कि तुम्हारा धर्म क्या है। मैं यह
भी नहीं जानना चाहता कि तुम्हारे विचार क्या हैं। मैं तुमसे केवल यह जानना चाहता
हूँ कि तुम्हारी पीड़ा (तकलीफ) क्या है। शायद मैं उसको कुछ दूर कर सकूँ।"
सुमहान कोई पैदा नहीं होता। न सुमहानता
किसी पर थोपी जा सकती है। सतत सुमहान साधना से नर और नारायण की सेवा करते हुये जो
आगे बढ़ते और ऊंचे उठते चले जाते हैं, वे ही स्त्री पुरुष जाने जाते हैं, महानों में महान, "सुमहान्"।
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