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वैश्वानर-ज्योतिः भूयासम्

 



वैश्वानर-ज्योतिः भूयासम्

एधोऽस्येधिषीमहि समिदसि तेजोऽसि तेजो मयि धेहि।

समावर्ति पृथिवी समुषाः समु सूर्यः ।

समु विश्वमिदं जगत्।

वैश्वानरज्योतिर्भूयासं विभून्कामान्व्यश्न भूः स्वाहा।

-यजुर्वेद २० । २३

ऋषिः- एधोसीत्यस्य प्रजापतिः । देवता-समिद् अग्नि वैश्वानरः । छन्दः-स्वराड अतिशक्वरी।

पदपाठ-एधः । असि। एधिषीमहि। सम्-इध्। असि । तेजः। असि । तेजः । मयि । धेहि। सम्। आववर्ति । पृथिवी। सम्। उषाः । सम् । उ । सूर्यः । सम्।उ।विश्वम्। इदम्।जगत्। वैश्वानर । ज्योतिः। भूयासम्। विभून्। कामान्। वि। अश्नवै। भूः । स्वाहा।

(एधः असि) - तू प्रज्वलित/उद्दीप्त (बढ़ानेवाला)

(एधिषीमहि) - हम उद्दीप्त हो जायें (बढ़े)।

(समिध् असि)- तू [अग्नि का] समिध (सम्यक् ईधन) है,

(तेजः असि) - तू [अग्नि का] तेज है,

(मयि तेजः धेहि) - [प्रकाशमान बनाकर] मुझमें तेज भर दे/ तेजोमय बना दे।

(सम् आववर्ति पृथिवी सम् उषाः सम उ सूर्यः) - सम्यक् वर्त रही है पृथिवी, सम्यक् उषा [और] सम्यक् सूर्य भी,

(सम् उ विश्वम् इदम् जगत्)- सम्यक् ही यह सारा जगत।

(वैश्वानर-ज्योतिः भूयासम्)- मैं वैश्वानर-ज्योति हो जाँऊ,

(विभून् कामान् वि-अनवै)- मैं व्यापक/ महान कामनाओं को विशिष्टता से सिद्ध/ प्राप्त करूँ,

(भूः स्वाहा) - मेरा अस्तित्व सुहुत हो/ समर्पित हो [महान लक्ष्यों-आदर्शों के प्रति] ।

      वेद का लक्ष्य है हम मनुष्यों को महान, सुमहान बनाना। जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र होते हैं (जन्मना जायते शूद्रः)। किन्तु सुसंस्कारवान होने पर ही उनको द्विज कहा जाता है (संस्काराद् द्विज उच्यते)। सु-संस्कारी और द्विज बनने के लिये आवश्यक है, 'जीवन-साधना' की एक ऐसी कार्य-योजना (ऐक्शन प्लान), जिस पर आचरण कर ससीम देह-धारी मनुष्य 'वैश्वानर-अग्नि' के समान हो जाये।

         यजुर्वेद के बीसवें अध्याय में मन्त्र १४ से लेकर मन्त्र २३ तक (शतपथ ब्राह्मण, काँ० १२, अ० ९, ब्रा० २) एक ऐसी ही कार्य योजना है, जिसका लक्ष्य है (वैश्वानर-ज्योति: भूयासम्) मैं वैश्वानर ज्योति हो जाऊँ। इस कार्य-योजना को छ: भागों में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

(१) सब प्रकार के पापों से छुटकारा तथा अपराधों से मुक्ति (यजुः० अ० २० मं० १४-१८)।

(२) जल और ओषधियों के रस से युक्त होकर बाहर और अन्दर की शुचिता। (यजु:०२०।१९)।

(३) आप: से युक्त होकर मल विक्षेप और आवरण को धो कर दूर करना। (यजु:०२०।२०)। 

(४) अन्धकार से ऊपर उठ कर स्व-ज्योति तथा परम ज्योति का साक्षात्कार। (यजु:०२०।२१)।

(५) अग्निस्वरूप परमेश्वर को सम्पूर्ण पवित्रता के साथ समर्पण। (यजु:०२०।२२)।

(६) वैश्वानर-ज्योति की प्राप्ति। (यजु:०२०।२३)।

     इससे पूर्व कि वैश्वानर-ज्योति की प्राप्ति की विधा पर हम चर्चा करें, हमें यह भी समझना लक्ष्य-प्राप्ति के लिये जरूरी है कि वैश्वानरज्योति है क्या? विश्वान् नरान् नयति वैश्वानरः (निरुक्त ७।२१) जो विश्व का नयन, वहन, संचालन करने वाला है वह विश्वनायक वैश्वानर कहाता है। विश्व का पूर्णतया-नयन-वहन-संचालन करने वाला होने से परमात्मा वैश्वानर है। वही वैश्वानर 'वसुः' (सबको बसाने वाला, और सबमें बसा हुआ) तथा 'अग्नि' (गति देने वाला और स्वयं गतिशील एवं ज्योतिष्मान्) है। उसी की ज्योति में, उसी के सुनयन से इस अनन्त और असीम विश्व का धारण और संचालन हो रहा है। वैश्वानरः अग्निः ही वैश्वानरः ज्योतिः है, जिसके बारे में कहा है- वैश्वानरो जायमानो न राजावातिरज्योतिषाग्निस्तमा सि (ऋग०६।९।१) वैश्वानरः अग्निः राजा के समान देदीप्यमान होकर अपनी ज्योति से तमाम अन्धकारों को दूर कर देती है। इतना ही नहीं,

अयं होता प्रथमः पश्यतेममिदं ज्योतिरमृतं मत्र्येषु ।

अयं स जज्ञे ध्रुव आ निषत्तोऽमय॑स्तन्वाई वर्धमानः॥

-ऋग्०६।९।४

      यही अग्नि प्रथम होता है, यही अमृतं ज्योति है। मरणधर्मा जीवों में यही अमर्त्य है। यही सृष्टि को उत्पन्न करने वाली है। यही ध्रुव अर्थात् स्थिर है। सर्वत्र व्यापक है। समस्त ब्रह्माण्ड में यही वर्धमानः है। वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणैव जनाँ उपमिद्ययन्थ (ऋग्० १।५९।१)

      वैश्वानर-अग्नि पृथिवी पर निवास करने वाले सभी प्राणियों और तत्वों की नाभि (आश्रय-केन्द्र) है। गृह-मध्य में स्थापित स्तम्भ, जैसे गृह के अवयवों को थामे रहता है, उसी प्रकार वैश्वानर-अग्नि उपमित रूप से सबकी आश्रय होकर समस्त प्राणियों को नियमों में धारण अर्थात् बाँधे रखती है। आ सूर्ये न रश्मयों धुवासो वैश्वानरे दधिरेऽना वसूनि (ऋग्० १।५९।३) सूर्य में जिस प्रकार किरणें स्थिर हैं, उसी प्रकार वैश्वानर-अग्नि में समस्त वसूनि (वसने या जीवनयापन के लिये आवश्यक तत्व पदार्थ एवं ऐश्वर्य) स्थापित हैं। वैश्वानरो दस्यमग्निर्जघन्वाँ अधूनोत्काष्ठा अव शम्बरं भेत् (ऋग्० १।५९।६) वैश्वानर अग्नि पीड़ा देने वालों की नाशक है। पराकाष्ठा (अति) को कम्पित करने वाली है। शम्बरम् (सुख, शान्ति, ज्ञान को ढक लेने वाले, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, अज्ञान आदि) को विदीर्ण अर्थात् छिन्न-भिन्न करने वाली है। वैश्वानर ज्योति की महिमा का तो कहना ही क्या!

वैश्वानरो महिम्ना विश्वकृष्टिभरद्वाजेषु यजतो विभावा।

शातवनेये शतिनीभिरग्निः पुरुणीथे जरते सूनृावान्॥

-ऋग० १.१५९।७

       वैश्वानर अनिः अपनी महिमा से विश्व की प्रेरक, संचालक, भरण-पोषण करने वाली, सबकी यष्टत्य और विशिष्ट दीप्ति वाली है। वह असंख्य उत्तम कार्यों को संपन्न करने की शक्तियों से युक्त, गति प्रदान करने वाली, उत्तम ज्ञान तथा सत्य विद्याओं वाली, दिव्य सम्पदाओं से युक्त पालक और पूरक हैं । असंख्य ऐश्वर्यों की स्वामिन तथा असंख्य क्रियाओं से सिद्ध वही अग्नि सर्वत्र स्तुत की जाती है। तं त्वा देवासोऽजनयन्त देवं वैश्वानर ज्योतिरिदायि। (ऋगू० १।५९।२) वैश्वानर ज्योति निश्चय से उत्तम गुण-कर्म-स्वभाववाले-आप्त-पुरुषों के लिये हैं। उस प्रकाशमान ज्योति को ही देवजन अपने हृदयों में प्रकाशित करते हैं, उसी ज्योति का साक्षात्कार हम सब करें। ___ स्वभाविक है कि वैश्वानर-ज्योति का साक्षात्कार हर एक के बस की बात नहीं। वैश्वानर-ज्योति, जो प्राणी मात्र के हितकारी, नेतृत्व-प्रदान करने वाले, प्रकाशमान परमात्मा का ही स्वरूप है, वही साक्षात्कार कर सकता है, जो कुछ प्रारम्भिक अनिवार्यताओं की पूर्ति करे। ऋग्वेद में ही कहा गया है- वैश्वानरं कवयों यज्ञियासोऽग्गिं देवा अजनयन्नजुर्यम्। (ऋग्० १०।८८।१३) यज्ञयासः (श्रेष्ठतम कर्मों के करने वाले) कवयः (कवि-मनीषी) देवाः (तत्वज्ञानी) अजुर्यम् (कभी नाश न होने वाली) वैश्वानर अग्नि का साक्षात्कार करते हैं। इसी प्रकार अगले मन्त्र में कहा गया है वैश्वानरं विश्वहां दीदिवांसं मन्त्रैरग्निं कविमच्छ वदामः । (ऋगू० १०।८८।१४) कविम् (क्रान्तदर्शी) मन्त्रों से, सब दिनों चमकने वाले, दीप्तिमान वैश्वानर-अग्नि की साक्षात स्तुति करते हैं।

          उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है, कि जिन चार प्रमुख गुण वाले होना वैश्वानर-ज्योति की प्राप्ति के लिये आवश्यक है, वे हैं

(१)        आर्य अर्थात् गुण, कर्म, स्वभाव से श्रेष्ठ सदाचारी होना।

(२)       कविः अर्थात् क्रान्तदर्शी एवं मन्त्र-सिद्ध होना।

(३)       देवः दाता, विद्वान (तत्वज्ञानी) एवं दिव्य गुणयुक्त होना।

(४)       यज्ञयासः यज्ञ, अर्थात् श्रेष्ठतम कर्मों के सम्पादनकर्ता होना। सदाचारी, ज्ञानवान, यज्ञशील देव ही वैश्वनानर-ज्योति को प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं।

      दूसरी बात जो वैश्वानर-ज्योति के विषय में महत्वपूर्ण है, और जिसका मन्त्र में बड़ा सुन्दर उल्लेख है, वह है प्राकृत देवों का अविचल भाव से परस्पर सहयोगपूर्वक सम्यक् आवर्तन । (सम् आ ववर्ति पृथिवी, सम् उषाः, सम् उ सूर्यः। सम् उ विश्वम् इदम् जगत्) सम्यक् वर्त रही है पृथिवी, सम्यक्तया वर्त रही है उषा। सम्यक् वर्त रहा है सूर्य । सम्यक् वर्त रहा है यह सारा जगत्, अखिल ब्रह्माण्ड या सम्पूर्ण सृष्टि । निरन्तर गति, गमन करने से यह सृष्टि जगत् कहाती है। कैसे हो रहा है यह सम्यक् आवर्तन? कैसे पृथिवी सहनशीलता के साथ भूरि भारों को सहारती हुई अखिल प्रजाओं का पालन-पोषण कर रही है? कैसे उषा अखिल विश्व में सौन्दर्यपूर्ण लालिमा का प्रसार शोभनीयता से कर रही है? किस ज्योति से अनुप्राणित होकर उषा अपने सौन्दर्य को निरन्तर उषा-बेला में बिखेर देती है? किस ज्योति से ज्योर्तिमान है सूर्य? कैसे आलोकित कर रहा है वह अपने तेज और प्रकाश से असंख्य लोकों को? किसके नियमन में वर्त्त रहा है सूर्य? किसके न्याय, नियम, नियन्त्रण तथा व्यवस्था में चल रहा है, यह सारा जगत्? इन अनेकों प्रश्नों का उत्तर कर रहा है, मैं भी विश्व-कल्याण में अपने को अर्पित कर दूँ। 'स्वाहा' का अर्थ ही है-'स्व-आहुति''स्व' और 'स्व-सर्वस्व' से बढ़कर अन्य कोई आहुति नहीं। विश्व-कल्याण से बड़ा कोई यज्ञ नहीं। इस यज्ञ में स्व-आहुति ही सुआहुति है, और जहाँ सु-आहुतियाँ है, वहीं परमानन्द है।

     वैश्वानर बन के (विभून् कामान् वि-अश्रवै) व्यापक कामनाओं को विशिष्टता से सिद्ध करूँ। विश्व-नायक की कामनायें विश्वव्यापिनी होनी ही चाहियें, संकुचित और सीमित नहीं।

       आज विडम्बना यही है कि अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर जो नेता बड़ी- बड़ी बातें कहते हैं उनकी कामनायें केवल अपनी स्वार्थ-पूर्ति तक ही सीमित रहती हैं। संसार का भला हो न हो, उनका अपना हितसाधन होना चाहिये। इसी का नाम भ्रष्ट-आचार है। वेद का सारा बल सद्-आचार पर है। वेद में कामनाओं को स्थान है, परन्तु केवल विराट, महान, व्यापक कामनाओं को। वेद का तो आर्शीवाद ही है, सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः (यजुः० १२।४४) यजमान की कामनायें सत्य हों। इसी प्रकार वेद में आया मे कामान् सम्-अर्धयन्तु (यजुः०२०।१२) मेरी कामनायें सम्यक् वृद्धि को प्राप्त हों। इस दृष्टि से कामनाओं का होना और उन्हें सिद्ध करना बुरा नहीं है, बुरा है कामनाओं का क्षुद्र, संकीर्ण, संकुचित या स्वार्थ-प्रेरित होना। अतः वेद का स्पष्ट निर्देश है, कि मैं व्यापक और महान कामनाओं का सेवन करूं । लोकोक्ति भी है, जो जैसी कामना करता है, वैसा ही बन जाता है। मेरा लक्ष्य है वैश्वानर-ज्योति बनना, तो मेरी कामनायें भी वैश्वानर जैसी ही विश्वव्यापी महान और उदात्त होनी चाहियें। संसार का उपकार करना, विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाना, प्राणियों में सद्भावना बनाये रखना, विश्व का कल्याण करना, और इन्हीं कामनाओं की सिद्धि में जीवन का उत्सर्ग कर देना, मेरा लक्ष्य होना चाहिये। वैश्वानर-अग्निः तो व्रतों की रक्षक है। आवश्यकता इस बात की है, कि व्रत और श्रद्धा के साथ महान कामनाओं की सिद्धि हेतु मैं उस वैश्वानर-अग्निः से संयुक्त हो जाऊँ, जिससे मैं पूरी सार्थकता से कह सँकू वैश्वानर-ज्योतिः भूयासम्।

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