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संस्कृत शुभाषित

 संस्कृत शुभाषित

 संस्कृत शुभाषित

 

   अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका ।

तृणैर्गुणत्वमापन्नैर् बध्यन्ते मत्तदन्तिन: ।।


छोटी­ छोटी वस्तुएँ एकत्र करने से बडे काम भी हो सकते हैं। जैसे घास से बनायी हुई डोरी से मत्त हाथी बांधा जा सकता है।


सुभाषित 2 शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।

साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।। - हितोपदेश


हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते, हर एक हाथी में गंडस्थल में मोती नहीं होते साधु सर्वत्र नहीं होते , हर एक वन में चंदन नहीं होता । उसी प्रकार दुनिया में भली चीजें प्रचुर मात्रा में सभी जगह नहीं मिलती ।


एकवर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धेनुषु ।

तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम् ॥


जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्त्व की सीख देते है।


सर्वं परवशं दु:खं सर्वम् आत्मवशं सुखम् ।

एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुख दु:खयो: ॥


जो चीजें अपने अधिकार में नही है वह सब दु:ख है तथा जो चीज अपने अधिकार में है वह सब सुख है । संक्षेप में सुख और दु:ख के यह लक्षण है ।


अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।

अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥


आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? यदि ज्ञान नहीं तो धन नही मिलेगा । यदि धन नही है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नही तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा?


आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।

सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ॥


जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुवा नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है ।


नीर क्षीर विवेके हंस आलस्यम् त्वम् एव तनुषे चेत् ।

विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क: ॥


अरे हंस यदि तुम ही पानी तथा दूध भिन्न करना छोड दोगे तो दूसरा कौन तुम्हारा यह कुलव्रत का पालन कर सकता है ? यदि बुद्धि वान् तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड दे तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है ?

पापं प्रज्ञा नाशयति क्रियमाणं पुन: पुन: ।

नष्टप्रज्ञ: पापमेव नित्यमारभते नर: ॥


बार बार पाप करने से मनुष्य की विवेक बुद्धि नष्ट होती है और जिसकी विवेक बुद्धि नष्ट हो चुकी हो , ऐसी व्यक्ति हमेशा पापही करती है ।


पुण्यं प्रज्ञा वर्धयति क्रियमाणं पुन:पुन: ।

वृद्ध प्रज्ञ: पुण्यमेव नित्यम् आरभते नर: ॥


बार-बार पुण्य करने से मनुष्य की विवेक-बुद्धि बढती है और जिसकी विवेक-बुद्धि बढ़ती रहती हो , ऐसा व्यक्ति हमेशा पुण्य ही करती है ।


अनेक शास्त्रं बहु वेदितव्यम् अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना: ।

यत् सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात् ।।


पढ़ने के लिए बहुत शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है। अपने पास समय की कमी है और बाधाएं बहुत है। जैसे हंस पानी में से दूध निकाल लेता है उसी तरह उन शास्त्रों का सार समझ लेना चाहिए।


कलहान्तनि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौ)दम् कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम् यशो नॄणाम्


झगडों से परिवार टूट जाते है। गलत शब्दप्रयोग करनेसे दोस्त टूटते है। बुरे शासकोंके कारण राष्ट्रका नाश होता है। बुरे काम करने से यश दूर भागता है।


दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् । 

मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रय: ॥


मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषोंका सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है ।


सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम् । 

सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् ॥


जो व्यक्ती सुख के पिछे भागता है उसे ज्ञान नही मिलेगा । तथा जिसे ज्ञान प्रप्त करना है वह व्यक्ती सुख का त्याग करता है ।

सुख के पिछे भागनेवाले को विद्या कैसे प्राप्त होगी ? तथा जिसको विद्या प्रप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा?


दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् । 

यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥


दिनभर ऐसा काम करो जिससे रातमें चैनकी नींद आ सके ।

वैसेही जीवनभर ऐसा काम करो जिससे मॄत्यूपश्चात सुख मिले ह्मअर्थात सद्गती प्राप्त हो ।


उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्।


कमाए हुए धन का त्याग करने से ही उसका रक्षण होता है। जैसे तालब का पानी बहते रहने से साफ रहता है।


खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।

 आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥


दुष्ट मनुष्य को दुसरे के भीतर के राइ जितना भी दोष पहाड़ जैसे दिखाई देते हैं परन्तू अपने अंदर के बिल्वपत्र जैसे बडे दोष नही दिखाई पड़ते ।


दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । 

यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति ॥


धन खर्च होने के तीन मार्ग है ।दान,उपभोग तथा नाश ।

जो व्यक्ति दान नही करता तथा उसका उपभोगभी नही लेता उसका धन नाश पाता है ।


यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते । 

यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: ॥


मनुष्य , जिस प्रकारके लोगोंके साथ रहता है , जिस प्रकार के लोगोंकी सेवा करता है , जिनके जैसा बनने की इच्छा करता है , वैसा वह होता है ।


गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो,   बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: । 

पिको वसन्तस्य गुणं न वायस:, करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥


गुणी पुरुष ही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नही। बलवान पुरुष ही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नही। वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नही। शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नही।


गुणवान् वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा निर्गुण: स्वजन: श्रेयान् य: पर: पर एव च

गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा। शत्रु तो आखिर शत्रु है।


पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति । 

स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: ॥


जो पैरों से कुचलने पर भी उपर उठता है ऐसा मिट्टी का कण अपमान किए जाने पर भी चुप बैठनेवाले व्यक्ति से श्रेष्ठ है ।


सा भार्या या प्रियं बू्रते स पुत्रो यत्र निवॄति: । 

तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते ॥


जो मिठी वाणी में बोले वही अच्छी पत्नी है, जिससे सुख तथा समाधान प्राप्त होता है वही वास्तवीक में पुत्र है, जिस पर हम बीना झीझके संपूर्ण विश्वास कर सकते है वही अपना सच्चा मित्र है तथा जहां पर हम काम करके अपना पेट भर सकते है वही अपना देश है ।


जरा रूपं हरति, धैर्यमाशा, मॄत्यु:प्राणान् , धर्मचर्यामसूया । 

क्रोध: श्रियं , शीलमनार्यसेवा , ह्रियं काम: , सर्वमेवाभिमान: ॥


वॄद्धत्व से रूप का हरण होता है , आशा से तॄष्णा से धैर्य का , मॄत्यु से प्राण का हरण होता है। मत्सर से धर्माचरण का , क्रोध से सम्पत्ती का तथा दुष्टों की सेवा करनेसे शील का नाश होता है। कामवासना से लज्जा का तथा अभिमान से सभी अच्छी चीजों का अन्त होता है ।

विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् । 

विरला: परकार्यरता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: ॥


दुसरोंके गुण पहचानने वाले थोड़े ही है । निर्धन से नाता रखने वाले भी थोड़े है । दूसरों के काम मे मग्न होने वाले थोडें है। तथा दूसरों का दु:ख देखकर दु:खी होने वाले भी थोड़े है ।


आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । 

स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥


आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनों से मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दूसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।


कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम् । 

इति ते संशयो मा भूत् राजा कालस्य कारणं।


काल राजा का कारण है कि राजा काल का इसमे थोड़ी भी दुविधा नही कि राजा ही काल का कारण है।


आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते । 

नीयते तद् वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥


सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नही मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे हैं।


योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका । 

आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥


यदि चिटी चल पड़ी तो धीरे धीरे वह एक हजार योजनाएं भी चल सकती है । परन्तु यदि गरूड जगह से नही हीला तो वह एक पग भी आगे नही बढ सकता ।


कन्या वरयते रुपं माता वित्तं पिता श्रुतम्। 

बान्धवा: कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरेजना: ।।


विवाह के समय कन्या सुन्दर पती चाहती है। उसकी माता जी सधन जमाइ चाहती है। उसके पिताजी ज्ञानी जमाइ चाहते है। तथा उसके बन्धु अच्छे परिवार से नाता जोडना चाहते है। परन्तु बाकी सभी लोग केवल अच्छा खाना चाहते है।


अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुनः। 

पुन: कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्।।


घन मिलता है, नष्ट होता है। (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नहीं आती।


आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला । 

यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् ॥


आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है ।

इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही सूक्ति जगह पर खड़े रहते है ।


शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् । 

सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥


शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रहते है । परन्तु जो कॄतीशील है वही सही अर्थ से विद्वान है ।

किसी रोगी के प्रति केवल अच्छी भावना से निश्चित किया गया औषध रोगी को ठिक नही कर सकता । वह औषध नियमानुसार लेने पर ही वह रोगी ठिक हो सकता है ।


वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च । 

अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: ॥


सदाचार की मनुष्य को प्रयन्तपूर्व रक्षा करनी चाहिए , वित्त तो आता जाता रहता है । धन से क्षीण मनुष्य वस्तुत: क्षीण नही , बल्कि सद्वर्तनहीन मनुष्य हीन है ।


परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै।।


दूसरों  को दु:ख देकर , धर्म का उल्लंघन कर के या खुद का अपमान सहकर मिले हुए धन से सुख नही प्राप्त होती है।


जानामि धर्मं न च मे प्रावॄत्ति: । 

जानाम्यधर्मं न च मे निवॄत्ति: ॥


दुर्योधन कहता है "ऐसा नही की धर्म तथा अधर्म क्या है, यह मैं नही जानता था । परन्तू ऐसा होने पर भी धर्म के मार्ग पर चलना यह मेरी प्रावॄत्ती नही बन पायी और अधर्म के मार्ग से मैं निवॄत्त भी नही हो सका ।


अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु


दूसरों को दु:ख दिये बिना; विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना; अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना; जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।


परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नॄणाम् धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:

दूसरोंको उपदेश देकर अपना पांडित्य दिखाना बहौत सरल है। परन्तु केवल महान व्यक्ति ही उस तरह से (धर्मानुसार)अपना बर्ताव रख सकता है।


अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं वणपि ब्रावन्। कॄपा न तस्मिन् कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्।।

 

शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये। वह अपने जीवित को हानि पहुचा सकता है यह सोच के उसको समाप्त करना चाहिये।


नेह चात्यन्तसंवास: कर्हिचित् केनचित् सह । राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभि: ॥


हे राजा धॄतराष्ट्र  इस जगत में कभी भी , किसी का किसी से चिरंतन संबंध नहीं होता । अपना खुद के देह से तक नहीं , तो पत्नी और पुत्र की बात तो दूर ॥


इंद्रियाणि पराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन: ।

 मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: ॥


इंद्रियों के परे मन है मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मा है ।


वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्यय: अथैवमागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि।


जब काल विपरीत हो, तब शत्रु को भी कन्धों पे उठाना चाहिये। अनुकूल काल आने पर उसे जैसे घट पत्थर पे फोड़े जाता है, वैसे नष्ट करना चाहिये।


उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा: परस्परं प्रशंसन्ति अहो रुपमहो ध्वनि:


उंटो के विवाह में गधे गाना गा रहे हैं। दोनो एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं वाह क्या रुप है (उंट का), वाह क्या आवाज है (गधे की)। वास्तव मे देखा जाए तो उंटों मे सौंदर्य के कोई लक्षण नही होते, न की गधों मे अच्छी आवाज के, परन्तु कुछ लोगों ने कभी उत्तम क्या है? यही देखा नही होता। ऐसे लोग इस तरह से जो प्रशंसा करने योग्य नही है, उसकी प्रशंसा करते हैं।


आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् । तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥


जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता हैर् जैसे अनेक नदीयां सागर में मिलने पर भी सागर का जल नही बढता, वह शांत ही रहता हैर् ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।


मैत्री करूणा मुदितोपेक्षाणां। सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणां। भावनातश्चित्तप्रासादनम्। पातञ्जल योग 1


आनंदमयता, दूसरे का दु:ख देखकर मन में करूणा, दूसरे का पुण्य तथा अच्छे कर्म समाज सेवा आदि देखकर आनंद का भाव, तथा किसी ने पाप कर्म किया तो मन में उपेक्षा का भाव 'किया होगा छोडो' आदि प्रातिक्रियाएँ उत्पन्न होनी चाहिए।


न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति । न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥


जो सम्मान से गर्वित नहीं होते , अपमान से क्रोधित नहीं होते क्रोधित होकर भी जो कठोर नहीं बोलते, वे ही श्रेष्ठ साधु है ।


हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च । दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् ॥


मूर्ख मनुष्य के लिए प्राति दिन हर्ष के सौ कारण होते है तथा दु:ख के लिए सहस्र कारण। परन्तु पंडितों के मन का संतुलन ऐसे छोटे कारणों से नही बिगड़ता।


एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेभ्योधिका नन्दोन्मूलन दॄष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ॥


जिन्हे छोडकर जाना था वे चले गए। जो छोडं कर जाना चाहते है वे भी चले जाए कोइ चिंता की बात नही। परन्तू इस तृप्ती को प्राप्त करने में जो सैंकडो सेनाओं से भी अधिक बलवान है। और नन्द साम्राज्य के निर्मूलन के कार्य में जिसके प्राताप को दुनीया ने देखा है वह केवल मेरी बुद्धि मुझे छोड़कर न जाए।


दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम् । दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् ॥


रातभर जागने वाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है । जो चलकर थका है, , उसे एक योजन हजार मील  अंतर भी दूर लगता है । सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है ।


देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता: । तत्क्षणादेव लीयन्ते र्धीह्र्रीश्र्रीकान्र्तिकीर्तय: ॥


दे’ इस शब्द के साथ, याचना करने से देह में स्थित पांच देवता बुद्धी, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति, और कीर्ति उसी क्षण देह छोड़कर जाती है ।


यद्यत् परवशं कर्मं तत् तद् यत्नेन वर्जयेत्। यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत् तत् सेवेत यत्नत:।।


जिस काम मैं दुसरों का सहाय्य लेना पडे, ऐसे काम को टालो। (परन्तु) जिसमे दुसरों का सहाय्य न लेना पड़े, ऐसे काम शीघ्राता से पूरे करो।


सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्मवशं सुखम्। एतद्विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदु:खयो:।।


दूसरों पे निर्भर रहना सर्वथा दुःख का कारण होता है। आत्मनिर्भर होना सर्वथा सुखका कारण होता है। सारांश, सुख–दु:ख के ये कारण ध्यान मे रखें।


यस्य भार्या गॄहे नास्ति साध्वी च प्रिायवादिनी । अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गॄहम् ॥


जिस घर में गॄहिणी साध्वी प्रावॄत्ती की न हो तथा मॄदु भाषी न हो ऐसे घर के गॄहस्त ने घर छोड कर वन में जाना चाहिए क्यों की उसके घर में तथा वन में कोइ अंतर नही है ।


अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते । न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: ॥


जो कार्य करने योग्य नही है अच्छा न होने के कारण वह प्राण देकर भी नही करना चाहिए ।


तथा जो काम करना है अपना कर्तव्य होने के कारण वह काम प्राण देना पड़े तो भी करना नही छोड़ना चाहिए ।


ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते । संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥


विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आसक्ति हो जाती है यह आसक्ति ही कामना को जन्म देती है और कामना ही क्रोध को जन्म देती है ।


नात्यन्त गुणवत् किंचित् न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम्। उभयं सर्वकार्येषु दॄष्यते साध्वसाधु वा।।


ऐसा कोई भी कार्य नही है जो सर्वथा अच्छा है। ऐसा कोई भी कार्य नही जो सर्वथा बुरा है। अच्छे और बुरे गुण हर एक कार्य मे होते ही है।


एकत: क्रतव: सर्वे सहस्त्रवरदक्षिणा । अन्यतो रोगभीतानां प्राणिनां प्राणरक्षणम् ॥


महाभारत एक ओर विधीपूर्वक सब को अच्छी दक्षिणा दे कर किया गया यज्ञ कर्म तथा दूसरी ओर दु:खी और रोग से पिडीत मनुष्य की सेवा करना यह दोनों भी कर्म उतने ही पुण्यप्रद है ।


मातॄवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् । आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति ॥


जो व्यक्ति धार्मिक प्रावॄत्ती का है वो परस्त्री को माता के समान पर द्रव्य को माटी समान तथा अन्य सभी प्राणि मात्रों को स्वयं के समान मानता है ।


य: स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रम:। श्वा यदि क्रियते राजा तत् किं नाश्नात्युपानहम्।।


जिसक जो स्वभाव होता है, वह हमेशा वैसा ही रहता है। कुत्ते को अगर राजा भी बनाया जाए, तो वह अपनी जूतें चबाने की आदत नही भूलता।


नात्युच्चशिखरो मेरुर्नातिनीचं रसातलम्। व्यवसायद्वितीयानां नात्यपारो महोदधि:।।


जो मनुष्य उद्योग का सहाय्य लेता है (अपने स्वयं के प्रयत्नों पे निर्भर होता है), उसको पर्बत की चोटी उंची नही, पॄथ्वी का तल नीचा नही, और महासागर अनुल्लंघ्य नही।


दूर्जन: परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कॄतोऽपि सन् । मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर: ॥


दूर्जन ,चाहे वह विद्या से विभूषित क्यू न हो? , उसे दूर रखना चाहिए । मणि से आभूषित साँप, क्या भयानक नहीं होता है।


सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा । चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च ॥


जीवन में आनेवाले सुख का आनंद ले, , तथा दु:ख का भी स्वीकार करें । सुख और दु:ख तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है ॥

अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: । धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥

निरक्षर लोगोंसे ग्रंथ पढ़ने वाले श्रेष्ठ । उनसे भी अधिक ग्रंथ समझने वाले श्रेष्ठ ।


ग्रंथ समझने वालों से भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लाने वाले श्रेष्ठ है।


उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां शथा खे पक्षिणां गति: । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् ॥


जिस तरह दो पंखो के आधार से पक्षी आकाश में उंचा उड सकता है उसी तरह ज्ञान तथा कर्म से मनुष्य परब्रह्म को प्राप्त कर सकता है ।


मनसा चिन्तितंकर्मं वचसा न प्रकाशयेत् । अन्यलक्षितकार्यस्य यत: सिद्धिर्न जायते ॥

मनमे कि हुई कार्य की योजना दूसरों को न बताये । दूसरें को उसकी जानकारी होने से कार्य सफल नही होता ।

गतेर्भंग: स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम् । मरणे यानि चि*नानि तानि चि*नानि याचके ।।

चलते समय संतुलन खोना, बोलते समय आवाज न निकलना, पसीना छूटना और बहुत भयभीत होना यह मरने वाले आदमी के लक्षण याचक के पास भी दिखते है ।

शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा: ॥

 

श्रवण करने की इच्छा, प्रत्यक्ष में श्रवण करना, ग्रहण करना, स्मरण में रखना, तर्कवितर्क, सिद्धान्त निश्चय, अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग है ।

द्वयक्षरस् तु भवेत् मॄत्युर् , त्रयक्षरमं ब्राह्म शाश्वतम् । 'मम' इति च भवेत् मॄत्युर, 'नमम' इति च शाश्वतम् ॥

महाभारत शांतिपर्व मॄत्यु यह दो अक्षरों का शब्द है तथा ब्राह्म जो शाश्वत है वह तीन अक्षरों का है ।

'मम' यह भी मॄत्यु के समान ही दो अक्षरों का शब्द है तथा 'नमम' यह शाश्वत ब्राह्म की तरह तीन अक्षरों का शब्द है ।

रविरपि न दहति तादॄग् यादॄक् संदहति वालुकानिकर:। अन्यस्माल्लब्धपदो नीच: प्रायेण दु:सहो भवति।।

सुर्यप्रकाश से भी तपे हुए रेत का दाह अधिक होती है। (उसी तरह) दूसरों के सहाय्य से बड़ा हुआ नीच मनुष्य ज्यादा उपद्रव देता है।

क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि पर्यङ्कशयनं। क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि: । क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो। मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम्

कभी धरती पे सोना कभी पलंग पे। कभी सब्जी खाना कभी रोटी–चावल। कभी फटे हुए कपडे पहनना कभी बहौत कीमती कपडे पहनना। जो व्यक्ति अपने कार्य मे सर्वथा मग्न हो, उन्हे ऐसी बाहरी सुख दु:खो से कोई मतलब नही होता।

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोस्म्यहम् रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥

राजशिरोमणि,,सदा विजयी होनेवाले रमापति राम की मै प्रार्थना करता हूँ । राक्षसों का नि:पात करनेवाले राम को नमस्कार ।

राम के अलावा कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण नही , मै राम का दास हूँ ।मेरा चित्त राममें लीन है , हे राम , मेरा  उद्धार करो ॥

बुधकौशिक ऋषी विरचित रामरक्षास्तोत्र मे यह श्लोक है । इस श्लोक की विशेषता ये है कि , राम शब्द की सभी आठ विभक्तियों का इसमें प्रयोग किया है ।

मनोजवं मारूततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥

राम रक्षा में से और एक श्लोक। मन और वायु के समान गतिमान , इन्द्रियों को जितने वाले जितेन्द्रिय , बुद्धिमानों में वरिष्ठ , वानरों के मुख्य तथा श्रीराम के दूत अर्थात् , हनुमान को मैं शरण जाता हूं ।

आचाराल्लभते ह्मयु: आचारादीप्सिता: प्राजा: । आचाराद्धनमक्षय्यम् आचारो हन्त्यलक्षणम् ॥

अच्छे व्यवहार से दीर्घ आयु, श्रेष्ठ सन्तती, चिर समॄद्धी प्राप्त होती है तथा अपने दोषों का भी नाष होता है ।

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् । यत्रैतास्तु न शोचन्ति ह्मप्रासीदन्ति) वर्धते तद्धि सर्वदा ॥

जिस परिवार में स्त्री, माता, पत्नी, बहन, पुत्री) दु:खी रहती है उस परिवार का नाश होता है तथा जिस परिवार में वो सुखी रहती है वह परिवार समॄद्ध रहता है ।

अप्रकटीकॄतशक्ति: शक्तोपि जनस्तिरस्क्रियां। लभते निवसन्नन्तर्दारुणि लङ्घ्यो विनर्न तु ज्वलित:।।

बलवान पुरुष का बल जब तक वह नही दिखाता है, उसके बल की उपेक्षा होती है। लकड़ि से कोई नही डरता, मगर वही लकड़ि जब जलने लगती है, तब लोग उससे डरते है।

विक्लवो वीर्यहीनो य: स दैवमनुवर्तते वीरा:। संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते।।

जिसे अपने आप पे भरोसा नही है ऐसा बलहीन पुरुष नसीब के भरोसे रहता है। बलशाली और स्वाभिमानी पुरुष नसीब का खयाल नहीं करता।

यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: । तथा गॄहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: ॥

जिस प्राकार इस जगत में सभी का जीवन वायू पर निर्भर है उसी प्राकार मनुष्य जीवन के सभी आश्रम गॄहस्ताश्रम पर निर्भर है ।

नारीकेलसमाकारा श्यन्तेपि हि सज्ज्ना: । अन्ये बदरिकाकाश बहिरेव मनोहर: ॥

सज्ज्न लोग नारियल के समान होते है। परन्तू दुर्जन लोग बेर के समान होते हैर केवल बाहर से मनोहर दिखते है पर अन्दर से तो यातनात्मक कठोर होते है ।

वॄत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमायाति याति च। अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत:।।

मनुष्य ने अपने शील का संरक्षण प्रयत्न पुर्वक करना चाहिये (उसके धन का नही)। धन कमाया जा सकता है और गवाया भी जा सकता है। धनवान परन्तु शील हीन मनुष्य मॄत के समान है।

तर्का प्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना,   नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम् ,धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गत: स पन्था:

तर्क बहौत चंचल होता है। हर श्रुति अलग आज्ञा देती है। हर ऋषी का मत भिन्न होता है, और कोइ भी एक ऋषी दूसरे से ज्यादा योग्य नही कह सकते। (ऐसे मे) महान व्यक्ती जिस पन्थ पे चलते है, वही सही रास्ता है।

सुखं शेते सत्यवक्ता सुखं शेते मितव्ययी । हितभुक् मितभुक् चैव तथैव विजितेन्द्रिय: ॥

सत्य बोलने वाला , मर्यादित खर्चा करने वाला , हितकारक पदार्थ जरूरी प्रमाण मे खाने वाला , तथा जिसने इन्द्रियों पर विजय पाया है , वह चैन की नींद सोता है ।

परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ । धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकनिकॄष्टमेव च ॥

मनु जो संपत्ती तथा मन की अभिलाषा धर्म के विपरित है उसका त्याग करना चाहिए ।

इतना ही नही तो उस धर्म का भी त्याग करना अनुचित नही होगा जो धर्म भविष्य में संकट उत्पन्न कर सकता है तथा जो किसी समाज के प्राति प्रातिकुल सिद्ध हो सकता है ।

श्रद्धाभक्तिसमायुक्ता नान्यकार्येषु लालसा: । वाग्यता: शुचयश्चैव श्रोतार: पुण्यशालिन: ॥

योग्य श्रोता वही है जिन के पास श्रद्धा तथा भक्ति है, जिनका हेतू केवल ज्ञान प्राप्त करना है और कुछ भी नही, तथा जिनका अपने वाणी पर नियंत्रण है और जो मन से शुद्ध है ।

भेदे गणा: विनश्येयु: भिन्नास्तु सुजया: परै:। तस्मात् संघातयोगेन प्रयतेरन् गणा: ।।

सदा गणराज्यमे अगर एकता न हो तो वह नष्ट हो जाता है, क्योंकि एकता न होने पर शत्रु को उसे नष्ट करने मे आसानी होती है। इसिलिए गणराज्य हमेशा एक रहना चाहिये।

परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा। आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति।।

हर एक मनुष्य दूसरे के दोष दिखाने में प्रविण होता है। अपने खुदके दोष या तो उसे नजर नही आते, या फिर वह उस दोषों को अनदेखी करता है।

गौरवं प्राप्यते दानात् न तु वित्तस्य संचयात् । स्थिति: उच्चै: पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: ॥

दानसे गौरव प्राप्त होता है ,वित्तके संचयसे नहीं । जल देनेवाले बादलों का स्थान उच्च है , बल्कि जल का समुच्चय करने वाले सागर का स्थान नीचे है ।

न भूतपूर्व न कदापि वार्ता हेम्न: कुरङ्ग: न कदापि दॄष्ट: । तथापि तॄष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धि: ॥

न पहले कभी सुवर्णमॄग के बारे में सुना ,न कभी देखा फिरभी रघुनन्दन राम को लोभ हुआ ।

सचमुच , विनाशकाले विपरीतबुद्धी ।

नारून्तुद: स्यादार्तोपि न परद्रोहकर्मधी: । ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत् ॥

दूसरों से दु:ख मिलने पर भी वह शांत रहे , विचार से या कॄती से भी वह दूसरों को दु:ख न दे , उस के मुख से ऐसी वाणी न निकले जिससे दूसरे दु:खी हो , सारांश में वह ऐसा कोइ काम न करे जिससे की वो स्वर्ग से वंचित हो ।

र्कर्पूरधूलिरचितालवाल: कस्तूरिकापंकनिमग्ननाल:,। गंगाजलै: सिक्तसमूलवाल: स्वीयं गुणं मुञ्चति किं पलाण्डु:।।

प्याज के पौधे के लिए आप कपूर कि क्यारी बनाओे, कस्तूरि का उपयोग म्रिग की जगह करो, अथवा उसके जड़पे गंगाजल डालो वह अपनी दुर्गंध नही छोडेगा । मनुष्य का स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ।

जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट:। स हेतु: सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।

जिस तरह बुन्द बुन्द पानी से घड़ा भर जाता है, उसी तरह विद्या, धर्म, और धन का संचय होता है। सारांश, छोटे मात्रा मे होने पर भी इन तिनोंपे दुर्लक्ष नही करना चाहिये।

सेवक: स्वामिनं द्वेष्टि कॄपणं परुषाक्षरम् आत्मानं किं स न द्वेष्टि सेव्यासेव्यं न वेत्ति य:

अगर मालिक कंजुस हो, और कठोर बोलने वाला हो, तो सेवक उसका द्वेश करता है। किसकी सेवा करनी चाहिये किसकी नही ये जिसे नही समझता , वह अपने आप का द्वेश क्यों नही करता? खुदको जो कष्ट होते है उसके लिए बाह्म कारण ढुंडना यह मनुष्य स्वभाव है। अपने उपर आने वाले आपत्ति का कारण ज्दातर अपने आप मे ही ढुंढा जा सकता है।

ऐक्यं बलं समाजस्य तदभावे स दुर्बल: तस्मात ऐक्यं प्रशंसन्ति दॄढं राष्ट्र हितैषिण:

एकता समाज का बल है , एकता हीन समाज दुर्बल है। इसलिए , राष्ट्रहित सोचने वाले एकता को बढ़ावा देते है ।

का त्वं बाले कान्चनमाला कस्या: पुत्री कनकलताया: ॥ हस्ते किं ते तालीपत्रं का वा रेखा क ख ग घ ॥

बाला , तुम कौन हो ऋ कान्चनमाला किनकी पुत्री ? कनक लता कि हाथ में क्या है ? तालीपत्र क्या लिखा है ? क ख ग घ

अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि । अपि वहन्यशनात् साधो विषमश्चित्तनिग्रह: ॥

 

अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाड़ना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है ।

अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्राण्यनेकश: । ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ॥

सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करने से किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नही होता ।

जैसे जिस चमच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्राप्त नही होता ।

यस्य चित्तं निर्विषयं दयं यस्य शीतलम् । तस्य मित्रं जगत्सर्वं तस्य मुक्ति: करस्थिता ।

जिस का मन इंद्रियों के वश में है जिस का हृदय शांत है, संपूर्ण विश्व जिस का मित्र है ऐसे मनुष्य को मुक्ति सहजता से प्राप्त होती है ।

अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन शलाकया चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:।।

अज्ञान के अंधकार से अन्धे हुए मनुष्य की आंखे ज्ञानरुप अंजनसे खोलने वाले गुरुको मेरा प्रणाम।

क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति । अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति ॥

क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो , उसे दुर्जन क्या कर सकता है? अग्नि , जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो , अपने आप बुझ जाता है ।

ग्रन्थानभ्यस्य मेघावी ज्ञान विज्ञानतत्पर: । पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् सर्वमशेषत: ॥

बुद्धीमान मनुष्य जिसे ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थों में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढ़कर उस ग्रन्थ का सार जान लेता है। तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है। उसी तरह जैसे किसान केवल धान्य उठाता है । सार सार गहि लेई भुषा देई उड़ाई।

असूयैकपदं मॄत्यु: अतिवाद: श्रियो वध: । अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: ॥

विद्यार्थी के संबंध में द्वेश यह मॄत्यु के समान है । अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है । सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्रशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रू है ।

नालसा: प्राप्नुवन्त्यर्थान न शठा न च मायिन:। न च लोकरवाद्भीता न च शश्वत्प्रतीक्षिण:।।

आलसी मनुष्य कभी भी धन नही कमा सकता (वह अपने जीवनमे सफल नही हो सकता)। दूसरों की बुराई चाहने वाला, तथा उनकी वंचना करने वाला, लोग क्या कहेंगे यह भय रखनेवाला, और अच्छे मौके के अपेक्षा मे कॄतिहीन रहनेवाला भी धन नही कमा सकता।

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये संचयो न कर्तव्य:। पश्येह मधुकरीणां संचितार्थ हरन्त्यन्ये।।

दान किजिए या उपभोग लीजिए , धन का संचय न करें देखिए , मधुमक्खी का संचय कोर्इ और ले जाता है ॥

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावॄता , या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभॄतिभिर्देवै: सदा वन्दिता , सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ॥

जो कुन्दपुष्प , चंद्रमा या ,, जलबिन्दुओं के हार के समान धवल है , जिसने शुभ्रवस्त्र परिधान किए है , जिसके हाथ वीणा के दण्डसे सुशोभित है और श्वेतपद्म जिसका आसन है, जिसे ब्रह्मा , विष्णु , महेश आदि सदा वन्दन करते है , बुद्धी की जड़ता पूर्णत: नष्ट करनेवाली ऐसी भगवती सरस्वती मेरा रक्षण करें ।

कस्यचित् किमपि नो हरणीयं मर्मवाक्यमपि नोच्चरणीयम् श्रीपते: पदयुगं स्मरणीयं लीलया भवजलं तरणीयम्

दूसरों कि कोई वस्तु कभी चुरानी नही चाहिए। दूसरे के मर्मस्थान पे आघात हो ऐसा कभी बोलना नही चाहिए। श्री विष्णु के चरण का स्मरण करना चाहिए। ऐसा करने से भवसागर पार करना सरल हो जाता है।

बुधाग्रे न गुणान् ब्रायात् साधु वेत्ति यत: स्वयम् मूर्खाग्रेपि च न ब्रुयाद्धुधप्रोक्तं न वेत्ति स:

अपने गुण बुद्धीमान मनुष्य को न बताए, वह उन्हें अपने आप जान लेगा। अपने गुण मुर्ख मनुष्य को भी न बताए। वह उन्हें समझ नही सकेगा।

के शवं पतितं दॄष्ट्वा पाण्डवा हर्षनिर्भरा:। रूदन्ति कौरवा: सर्वे हा हा के शव के शव रूकिये ।।

यदि आपने इस श्लोक का अर्थ समझने का प्रयास किया है ! संस्कॄत मे शब्दों का सही अर्थ समझना अत्यंत आवश्यक है !! यहाँ , के और शव अलग अलग शब्द है । ˜क का अर्थ है पानी कर्इ अर्थ में से एक  इसलिए 'के' मतलब ˜पानी में। पाण्डव का एक अर्थ ˜मछली और कौरव का एक अर्थ ˜कौआ भी होता है। इसलिए , इस श्लोक का अर्थ है ,

पानी में गिरा शव देखकर मछलीयाँ हर्ष निर्भर हुर्इ बल्कि  सब कौए दुःख से चिल्लाने लगे अरे रे पानी में शव'

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत: । उत्पथं प्रातिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् ॥

आदरणिय तथा श्रेष्ठ व्यक्ति यदी व्यक्तीगत अभिमान के कारण धर्म और अधर्म में भेद करना भूल गए या फिर गलत मार्ग पर चले तो ऐसे व्यक्ति को शासन में करना न्याय ही है ।

यद्यद् राघव संयाति महाजनसपर्यया । दिनं तदेव सालोकं शेषास्त्वन्धदिनालया: ॥

हे! रघु वंशके वंशज , श्रेष्ठ तथा सज्जनों की सेवा में व्यतीत हुवा दिन ही प्रकाशमान होता है ।

अन्य सभी दिन सूर्य प्राकाश रहते हुए भी अंधकार के समान प्रातीत होते है ।

यमो वैवस्वतो राजा यस्तवैष दि स्थित: । तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरून् व्राज ॥

यदि विवस्वत के पुत्र भगवान यम आप के मन में बसते है तथा उनसे आपका मत भेद नही है तो आपको अपने पाप धोने परम पवित्र गंगा नदी के तट पर या कुरूओं के भूमी को जाने की कोइ आवश्यकता नही है ।

किम् कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिन: अकुलीनोऽपि विद्यावान् देवैरपि सुपूज्यते

अच्छे कुल मे जन्मी हुआ व्यक्ति अगर ज्ञानी न हो, तो (उसके अच्छे कुल का) क्या फायदा। ज्ञानी व्यक्ति अगर कुलीन न हो, तो भी, इश्वर भी उसकी पूजा करते है।

पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् । नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् । धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् । यत् पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं क: क्षम: ।।

करीर वॄक्ष में मरू भूमी में आने वाला पर्णहीन वॄक्ष  को हम वसंत ऋतू में भी पत्ते नहीं आते है इसमें वसन्त का क्या दोष ।

उल्लू को दिन में नही दिखार्इ देता इसमें सूर्य का क्या दोष ? जल  धाराए चातक के चोंच में नहीं गिरी तो वह बादल का दोष कैसे ? अर्थात् , विधी ने जो माथे पर लिखा है , उसे कौन बदल सकता है ।

यथा हि पथिक: कश्चित् छायामाश्रित्य तिष्ठति । विश्रम्य च पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागम: ॥

जिस प्राकार यात्रा करनेवाला पथिक थोडे समय वॄक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे निकल जाता है उसी समान अपने जीवन में अन्य मनुष्य थोड़े समय के लिए उस वॄक्ष की तरह छांव देते है, और फिर उनका साथ छूट जाता है ।

न व्याधिर्न विषं नापत् तथा नाधिश्च भूतले। खेदाय स्वशरीरस्थं मौर्ख्यमेकम् यथा नॄणाम्।।

इस जगत मे स्वयंकी मूर्खता ही सब दु:खों कि जड होति है। कोई व्याधि, विष, कोई आपत्ति तथा मानसिक व्याधि से उतना दु:ख नही होता।

न वध्यन्ते ह्मविश्वस्ता बलिभिर्दुर्बला अपि विश्वस्तास्त्वेव वध्यन्ते बलिनो दुर्बलैरपि

दुर्बल मनुष्य विश्वसनीय न होने पर भी बलवान मनुष्य उसे मारता नही है। बलवान पुरुष विश्वसनीय होने पर भी दुर्बल मनुष्य उसे मारता ही है।

वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये ।  रक्षन्ति पुण्यानि पुराकॄतानि ॥

जब हम जंगल के मध्य में या फिर रणक्षेत्र के मध्य में या फिर जल में या फिर अग्नी में फस जाते है तब अपने भूतकाल के अच्छे कर्म ही हम को बचाते है ।

यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवादससेभ्यो गां चरन्तीं निवारय ॥

यदी किसी एक काम से आपको जग को वश करना है तो परनिन्दा रूपी धान के खेत में चरने वाली जिव्हा रूपी गाय को वहाँ से हका दो अर्थात दूसरे की निन्दा कभी न करो। संस्कॄत मे गौ: शब्द के अनेक अर्थ है। ; सुभाषितकार ने गौ: के दो अर्थ है इन्द्रिय जिव्हेन्द्रिय तथा गाय को लेकर शब्द का सुन्दर उपयोग किया है।

गुरूशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा । अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते ॥

गुरू कि सेवा करने से या भरपूर धन देने से विद्या प्राप्त कर सकते है अथवा एक विद्या का दूसरी विद्या के साथ विनिमय कर सकते है ,इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा कोर्इ रास्ता उपलब्ध नहीं है ।

यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति तथा गुरुगतं विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति

भूमि मे प्रहार से गड्डा करने वाले को जिस तरह पानी मिलता है, उसी तरह गुरु की सेवा करने वाले को विद्या प्राप्त होती है।

यदि सन्ति गुणा: पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम्। न हि कस्तूरिकामोद: शपथेन विभाव्यते।।

मनुष्य के गुण अपने आप फैलते है, बताने नही पड़ते है। जिस तरह से कस्तूरी को अपनी खुशबु सिद्ध नही करनी पड़ती।

यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ । समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागम: ॥

जैसे लकड़ी के दो टुकडे विशाल सागर में मिलते है तथा एक ही लहर से अलग हो जाते है उसी तरह दो व्यक्ति कुछ क्षणों के लिए सहवास में आते है फिर कालचक्र कि गती से अलग हो जाते है ।

यस्यास्ति वित्तं स नर:कुलीन: , स पण्डित: स श्रुतवान् गुणज्ञ: । स एव वक्ता स च दर्शनीय: , सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ते ॥

जिसके पास धन है वही कुलीन कहलाता है । वही पण्डित , बहुश्रुत , गुणों कि पहचान रखने वाला, वक्ता तथा दर्शनिय समझा जाता है। अर्थात , सभी गुण धन का आश्रय लेते है।

यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद् वा धनम् तत् प्राप्नोति मरूस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् तद्धीरो भव , वित्तवत्सु कॄपणां वॄत्तिं वॄथा मा कॄथा: कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गॄह्णाति तुल्यं पय:।।

विधाता ने ललाट पर जो थोड़ा या अधिक धन लिखा है, वो मरू भूमी में भी मिलेगा। मेरू पर्वत पर जाकर भी उससे ज्यादा नहीं मिलेगा। धीरज रखो, अमीरों के सामने दैन्य ना दिखाओ , देखो यह गागर कुआँ या सागर में से उतना ही पानी ले सकती है। जितना उसमें क्षमता है।

नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते । आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद: ॥

विदुरनीति सागर कभी जल के लिए भिक्षा नही मांगता फिर भी वह सदैव जल से भरा रहता है । यदि हम अपने आप को योग्य बना दे तो सब साधन स्वयं ही अपने पास चली आएंगे ।

बहीव्मपि संहितां भाषमाण: न तत्करोति भवति नर: प्रामत्त: । गोप इव गा गणयन् परेषां न भाग्यवान् श्रामण्यस्य भवति ॥

यदि मनुष्य बहूत से धार्मिक श्लोक स्मरण में भी रखे पर उस प्राकार आचरण न करे तो उस का कोइ लाभ नही है । जैसे गाय चरानेवाला गौवों कि संख्या तो जानता है पर वह उस का मालिक नही रहता ।

वने रणेत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कॄतानि ॥

अरण्य में रणभूमी में , शत्रु समुदाय में, जल, अग्नि, महासागर या पर्वत शिखरपर तथा सोते हुए, उन्मत्त स्थिती में या प्रतिकूल परिस्थिती में मनुष्य के पूर्वपुण्य उसकी रक्षा करतें हैं।

न कालो दण्डमुद्यम्य शिर: कॄन्तति कस्यचित् । कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् ॥

काल किसी का शस्त्र से शिरच्छेद नही करता पर वह बुद्धी भेद करता है जिससे मनुष्य को गलत रास्ता ही सही लगता है। और वह अपने विनाश की ओर बढ़ता है । बुद्धीभेद ही काल का बल है ।

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥

हम सब एक साथ चले; एक साथ बोले, हमारे मन एक हो । प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय है ।

मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते ।  यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति।। धम्मपद 56

जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है ।

परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्च्यात मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पडते है ।

तावज्जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रिय: पुमान् । न जयेद् रसनं यावद् जितं सर्वं जिते रसे ॥ श्रीमद्भागवत 11821

जब तक मनुष्य अपने विविध आहार के उपर स्वनियंत्रण नही रखता तब तक उसने सब इन्द्रियों के उपर विजय पायी है ऐसा नही बोल सकते । आहार के उपर स्वनियंत्रण यही सब से आवश्यक बात है ।

द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।  यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गत: ॥

इस जगत में केवल दो प्राकार के लोग परम आनन्द का अनुभव कर सकते है । एक है नन्हा सा बालक तथा दूसरा है परम योगी ।

न तथा तप्यते विद्ध: पुमान् बाणै: सुमर्मगै: । यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्मसतां पुरूषेषव: ॥ भागवत 11233

मनुष्य के शरीर में लगे बाण उतनी वेदना नही देते जितनी वेदना कठोर शब्द देते है ।

न कश्चिदपि जानाति किं कस्य श्वो भविष्यति अत: श्व: करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान ॥

कल किसका क्या होगा कोर्इ नहीं जानता , इसलिए बुद्धिमान लोग कल का काम आज ही करते है ।

वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलै: सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेष: ।

स तु भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्र: ॥

एक योगी राजा से कहता है, हम यहाँ है आश्रम में वल्कलवस्त्र से भी सन्तुष्ट, जब कि तुमने अपने रेशीम वस्त्र पहने हो महलों में रहते हो फिर भी संतुष्ठ हो। हम उतने ही सन्तुष्ट है, इसमें कोर्इ भेद नही है । जिसकी पिपासा अधिक , वही दरिद्री है । जब की मन में सन्तुष्टता है , दरिद्री कौन और धनवान कौन ?

न ह्मम्मयानि तीर्थानि न देवा मॄच्छिलामया: ।  ते पुनन्त्युरूकालेन दर्शनादेव साधव: ॥ भागवत 104831

नदीयों का पवित्र जल या भगवान की मूर्ती के दर्शन मात्र से भक्त का मन शुद्ध नही होता, अपितु लंबे समय ध्यान लगाने के बाद ही अंत:करण शुद्ध होता है । परन्तू संतों के केवल दर्शन मात्र से ही हम पवित्र हो जाते है ।

ब्राम्हण: सम_क् शान्तो दीनानां समुपेक्षक: । स्त्रवते ब्रम्ह तस्यापि भिन्नभाण्डात् पयो यथा ॥ भागवत 41441

समदृष्टी के अभाव के कारण यदि ब्राम्हण किसी पिड़ित व्यक्ति की सहायता नही करता है तो उसका ब्रम्हत्व समाप्त हो गया ऐसा समझना चाहिए ।

दैवमेवेह चेत् कतर्पुंस: किमिव चेष्टया । स्नानदानासनोच्चारान् दैवमेव करिष्यति ॥

अगर नसिब ही आपका कार्य करने वाला है तो आपको कुछ करने कि क्या आवष्यकता है? स्नान दान धर्म बैठना बोलना यह सभी आपका नसिब ही करेगा ।

कार्यमण्वपि काले तु कॄतमेत्युपकारताम् । महदप्युपकारोऽपि रिक्ततामेत्यकालत: ॥

किसी का छोटा सा भी काम अगर सही समय पे करे तो वह उपकारक होता है । परंतु अगर गलत समय पे करे तो बहुत बड़ा काम भी किसी काम का नही होता है ।

यो यमर्थं प्रार्थयते यदर्थं घटतेऽपि च । अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते ॥

कोर्इ मनुष्य अगर कुछ चाहता है और उसके लिए अथक प्रयत्न करता है तो वह उसे प्राप्त करके ही रहता है ।

यदजर्तं प्राणहरै: परिश्रमै: मॄतस्य तद् वै विभजन्ति रिक्थिन: । कॄतं च यद् दुष्कॄतमर्थलिप्सया तदेव दोषापहतस्य कौतुकम् ॥ गरूड़पुराण  प्राणान्तिक परिश्रमों से प्राप्त किया हुआ मॄत आदमी का जो धन होता है, उसके वारिस वह आपसमें बाँट लेते है । उस धन के लोभ से उसने जो पाप बटोरा है वह पापी मनुष्य के साथ ही जाता है उसे ही पाप के परिणाम भुगतने पड़ते है ,पाप का कोर्इ विभाजन नहीं होता है।

त्यजेत् क्षुधार्ता जननी स्वपुत्रं , खादेत् क्षुधार्ता भुजगी स्वमण्डम् । बुभुक्षित: किं न करोति पापं , क्षीणा जना निष्करूणा भवन्ति ॥

भूख से व्याकूल माता अपने पुत्रका त्याग करेगी भूख से व्याकूल साँप अपने अण्डे खा लेगा भूखा क्या पाप नहीं कर सकता? भूख से क्षीण लोग निर्दय बन जाते हैं ।

अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्य: कुशलो नर: । सर्वत: सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पद: ॥

भवरा जैसे छोटे बड़े सभी फूलो में से केवल मधु इक्कठा करता है उसी तरह चतुर मनुष्य को शास्त्रों में से केवल उनका सार लेना चाहिए ।

न अन्नोदकसमं दानं न तिथिद्र्वादशीसमा । न गायत्रया: परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम् ॥

अन्नदान जैसे दान नही है । द्वादशी जैसे पवित्र तिथी नही है । गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है तथा माता सब देवताओं से भी श्रेष्ठ है ।

यत्र नार्य: तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: । यत्र एता: तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्र अफला: क्रिया: ॥

मनुस्मॄति जहां स्त्रीयों को मान दिया जाता है तथा उनकी पूजा होती है वहां देवताओं का निवास रहता है ।

परन्तू जहां स्त्रीयों की निंदा होती है तथा उनका सम्मान नही किया जाता वहां कोइ भी कार्य सफल नही होता ।

वनेऽपि सिंहा मॄगमांसभक्षिणो बुभुक्षिता नैव तॄणं चरन्ति । एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति ॥

जंगल में मांस खाने वाले शेर भूख लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते ।

खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी । उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा: ॥

जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनु (भी) चमकता है । परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही, दोनो सुरज के सामने फीके पडते है।

स्वभावं न जहात्येव साधुरापद्गतोऽपि सन् । कर्पूर: पावकस्पॄष्ट: सौरभं लभतेतराम् ॥

अच्छी व्यक्ति आपत्काल में भी अपना स्वभाव नहीं छोडती है , कर्पूर अग्निके स्पर्श से अधिक खुशबू निर्माण करता है।

चित्त्स्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये । वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मेकोटिभि: ॥

विवेकचूडामणी अंत:करण के शुद्धी के लिए कर्म है पारमार्थिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए नही । पारमार्थिक ज्ञान तो चिंतन तथा विचार करने से ही प्राप्त होता है कोटि कर्म करने से नही ।

श्रमेण दु:खं यत्किन्चिकार्यकालेनुभूयते । कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रामोद ॥ काम करते समय होनेवाले कष्ट के कारण थोडा दु:ख तो होता है । परन्तु भविष्य में उस काम का स्मरण हुवा तो निश्चित ही आनंद होता है ।

आस्ते भग आसीनस्य }ध्र्वम् तिष्ठति तिष्ठत: । शेते निषद्यमानस्य चरति चरतो भग: ॥

जो मनुष्य कुछ काम किए बिना बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है । जो खड़ा रहता है, उसका भाग्य भी खड़ा रहता है ।

जो सोता है उसका भाग्य भी सोता है और जो चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है ।

अर्थात कर्म से ही भाग्य बदलता है ।

विपदी धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रम: । यशसि चाभिरूचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकॄतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥

आपात्काल मे धैर्य , अभ्युदय मे क्षमा , सदन मे वाक्पटुता , युद्ध के समय बहादुरी , यश में अभिरूचि , ज्ञान का व्यसन ये सब चीजे महापुरूषों मे नैसर्गिक रूप से पायी जाती हैं ।

यावत् भ्रियेत जठरं तावत् सत्वं हि देहीनाम् । अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥

मनुस्मृती, महाभारत अपने स्वयं के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक है उतने पर ही अपना अधिकार है । यदि इससे अधिक पर हमने अपना अधिकार जमाया तो यह सामाजिक अपराध है तथा हम दण्ड के पात्र है ।

अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथौ उभावपि । बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरूषो भवान ॥

एक भिखारी राजा से कहता है, “हे राजन्,  मैं और आप दोनों लोकनाथ है । हां बस फर्क इतना है कि मैं बहुव्रीही समास हूँ तो आप षष्ठी तत्पुरूष हो !”

यदा न कुरूते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् । समदॄष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: ॥

जो मनुष्य किसी भी जीव के प्रती अमंगल भावना नही रखता,, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दृष्टी से देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है ।

शरदि न वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु नि:स्वनो मेघ: नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजन: करोत्येव

शरद ऋतु मे बादल केवल गरजते है, बरसते नही वर्षा ऋतु में बरसते है, गरजते नही। नीच मनुश्य केवल बोलता है, कुछ करता नही, परन्तु सज्जन करता है, बोलता नही।

सर्वार्थसंभवो देहो जनित: पोषितो यत: । न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा ॥

एक सौ वर्ष की आयु प्राप्त हुआ मनुष्य देह भी अपने माता पिता के ऋणोंसे मुक्त नही होता ।

जो देह चार पुरूषार्थों   की प्राप्ती का प्रामुख साधन है उसका निर्माण तथा पोषण जिन के कारण हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना असंभव है ।

अमॄतं चैव मॄत्युश्च द्वयं देहप्रातिष्ठितम् । मोहादापद्यते मॄत्यु: सत्येनापद्यतेऽमॄतम् ॥

मृत्यु तथा अमरत्व दोनों एक ही देह में निवास करती है । मोह के पिछे भागने से मॄत्यु आती है तथा सत्य के पिछे चलने से अमरत्व प्राप्त होता है ।

परिवर्तिनि संसारे मॄत: को वा न जायते । स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्न्तिम् ॥

इस जीवन मॄत्यु के अखंडीत चक्र में जिस की मॄत्यु होती है क्या उसका पुन: जन्म नही होता? परन्तु उसी का जन्म, जन्म होता है जिससे उसके कुल का गौरव बढ़ता है ।

को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरित: मॄदंगो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम्

मुख खाद्य से भरकर किस को अंकीत नहि किया जा सकता। आटा लगाने से मॄदुंग भी मधुर ध्वनि निकालता है।

सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्मर्धं त्यजति पण्डित: अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दु:सह:

जब सर्वनाश निकट आता है, तब बुद्धिमान मनुष्य अपने पास जो कुछ है उसका आधा गवाने की तैयारी रखता है। आधे से भी काम चलाया जा सकता है, परंतु सब कुछ गवाना बहुत दु:खदायक होता है।

गुणेषु क्रियतां यत्न: किमाटोपै: प्रयोजनम् विक्रीयन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिता:

स्वयं मे अच्छे गुणों की वॄद्धी करनी चहिए। दिखावा करके लाभ नही होता। दुध न देनेवाली गाय उसके गले मे लटकी हुअी घंटी बजाने से बेची नही जा सकती।

साहित्यसंगीतकलाविहीन: साक्षात् पशु: पुच्छविषाणहीन: । तॄणं न खादन्नपि जीवमान: तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥

नीतिशतक जिस व्यक्ती को कला संगीत में रूची नही है वह तो केवल पूंछ तथा सिंग रहीत पशू है । यह तो पशूओंका सौभाग्य है की वह घास नही खाता है।

न प्राष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति । न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥

संत तो वही है जो मान देने पर हर्षित नही होता अपमान होने पर क्रोधीत नही होता तथा स्वयं क्रोधीत होने पर कठोर शब्द नही बोलता ।

असभ्दि: शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम् । सभ्दिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ॥

दुर्जनो कि ली हुइ शपथ भी पानी के उपर लिखे हुए अक्षरों जैसे क्षणभंगूर ही होती है । परन्तू संतो जैसे व्यक्तिने सहज रूप से बोला हुआ वाक्य भी शिला के उपर लिखा हुआ जैसे रहता है ।

आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा । पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: ॥

शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है परन्तु पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना तो बहुत ही सुलभ है । ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणो से युक्त करना कठिन है पर उसे दुर्गुणों से भरना तो सुलभ ही है ।

लुब्धमर्थेन गॄ*णीयात् क्रुद्धमञ्जलिकर्मणा मूर्खं छन्दानुवॄत्त्या च तत्वार्थेन च पण्डितम्

लालची मनुष्य को धन (का लालच) देकर वश किया जा सकता है। क्रोधित व्यक्ति के साथ नम्र भाव रखकर उसे वश किया जा सकता है। मूर्ख मनुष्य को उसके इछानुरुप बर्ताव कर वश कर सकते है। तथ ज्ञानि व्यक्ति को मुलभूत तत्व बताकर वश कर सकते है।

अधर्मेणैथते पूर्व ततो भद्राणि पश्यति । तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति ॥

कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समॄद्वि व संपन्नता पाता है । अच्छा दैव का अनुभव भी करता है । शत्रु को भी जीत लेता है । परन्तू अन्त मे उसका विनाश निश्चित है । वह जड़ समेत नष्ट होता है ।

विद्या मित्रं प्रावासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च । व्याधितस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य च ॥

विद्या प्रावास के समय मित्र है । पत्नी अपने घर मे मित्र है ।

व्याधी ग्रस्त शरीर को औषधी मित्र है तथा मॄत्यु के पश्च्यात धर्म अपना मित्र है ।

रूपयौवनसंपन्ना: विशालकुलसंभवा: । विद्याहीना: न शोभन्ते निर्गन्धा: किंशुका: इव ॥

नरपतिहितकर्ता द्वेष्यतां याति लोके जनपदहितकर्ता त्यज्यते। पार्थिवेन इति महति विरोधे विद्यमाने समाने नॄपतिजनपदानां दुर्लभ: कार्यकर्ता।

राजा का कल्याण करने वालो का लोग द्वेश करते है। लोगों का कल्याण करने वाले को राजा त्याग देता है। इस तरह दोनो ओर से बड़ा विरोध होते हुए भी राजा और प्रजा दोनो का कल्याण करने वाला मनुष्य दुर्लभ होता है।

दीपो नाशयते ध्वांतं धनारोग्ये प्रयच्छति।  कल्याणाय भवति एव दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते।।

दिया अंधकार का नाश करता है और आरोग्य तथा धन देता है। सबके कल्याण करने वाले दिये को मेरा प्रणाम हो।

तत् कर्म यत् न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये । आयासाय अपरं कर्म विद्या अन्या शिल्पनैपुणम् ॥

जिस कर्म से मनुष्य बन्धन में नही बन्ध जाता वही सच्चा कर्म है । जो मुक्ति का कारण बनती है वही सच्ची विद्या है ।

शेष कर्म तो कष्ट का ही कारण होती है तथा अन्य प्राकार की विद्या तो केवल नैपुण्य युक्त कारागिरी है ।

अक्षरद्वयम् अभ्यस्तं नास्ति नास्ति इति यत् पुरा । तद् इदं देहि देहि इति विपरीतम् उपस्थितम्।।

संपत्ती के परमोच्च शिखर पर यदि मनुष्य ने याचक को नही नही कहा तो निश्चितही भविष्य में ऐसे मनुष्य को दिजीए दिजीए ऐसे कहनेकी परिस्थिती नियती ले आएगी ।

अन्य क्षेत्रे कॄतं पापं पुण्य क्षेत्रे विनश्यति । पुण्य क्षेत्रे कॄतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥

अन्य क्षेत्र में किए पाप पुण्य क्षेत्र में धुल जाते है । पर पुण्य क्षेत्र में किए पाप तो वज्रलेप की तरह होते है।

असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमन्दिरम् । हरो हिमालये शेते हरि: शेते महोदधौ ॥

इस सारहीन जगत में केवल श्वशुर का घर रहने योग्य है ।  इसी कारण शंकर भगवान हिमालय में रहते है तथा विष्णू भगवान समुद्र में रहते है ।

एकेन अपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् । सह एव दशभि: पुत्रै: भारं वहति गर्दभी ॥

सिंहिन को यदि एक छावा भी है तो भी वह आराम करती है क्योंकी उसका छावा उसे भक्ष्य लाकर देता है । परन्तु गधी को दस बच्चे होने पर भी स्वयं भार का वहन करना पड़ता है ।

आचार: प्रथमो धर्म: अित्येतद् विदुषां वच:। तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषत:।।

अच्छा बर्ताव रखना यह सबसे जादा महात्त्वपूर्ण है ऐसा पंडीतोने कहा इसलिए अपने प्राणोका मोल देके भी अच्छा बर्ताव रखना चाहिए।

न तथा शीतलसलिलं न चन्दनरसो न शीतला छाया । फलादयति पुरूषं यथा मधुरभाषिणी वाणी ॥

शीतल जल चंदन अथवा छाया किसी में भी इतनी शीतलता नही होती जितनी के मधुर वणी में होती है ।

न मर्षयन्ति चात्मानं संभावयितुमात्मना । अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम् ॥

शूर जनों को अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना सहन नहीं होता । वे वाणी के द्वारा प्रदर्शन न करके दुष्कर कर्म ही करते है ।

चलन्तु गिरय: कामं युगान्तपवनाहता: । कॄच्छे्रपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मन: ॥

युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें परन्तु धैर्यवान् पुरूषों के निश्चल हृदय किसी भी संकट में नहीं डगमगाते ।

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् । मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्

महान व्यक्तियों के मनमे जो विचार होता है वही वे बोलते है और वही कॄतिमेभी लाते है। उसके विपारित नीच लोगोंके मनमे एक होता है वै बोलते दुसरा है और करते तिसरा है।

जीवने यावदादानं स्यात्,,, प्रदानं ततोऽधिकम् । इतयेषा प्रार्थनाऽस्माकं भगवन्परिपूर्यताम्

हमारे जीवन में हमारी याचनाओं से अधीक हमारा दान हो यह एक प्रार्थना हे भगवन् तुम पूरी कर दो।

सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा । शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: ॥

सत्य मेरी माता, ज्ञान मेरे पिता, धर्म मेरा बन्धु, दया मेरा सखा, शान्ति मेरी पत्नी तथा क्षमा मेरा पुत्र है । यह सब मेरे रिश्तेदार है ।

दूरस्था: पर्वता: रम्या: वेश्या: च मुखमण्डने । युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरत: ॥

पहाड़ दूर से बहुत अच्छे दिखते है ।  मुख विभुषित करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है । युद्ध की कहानिया सुनने को बहौत अच्छी लगती है । ये तिनो चिजे पर्याप्त अंतर रखने से ही अच्छी लगती है ।

उपाध्यात् दश आचार्य: आचार्याणां शतं पिता । सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेण अतिरिच्यते ॥

आचार्य उपाध्याय से दस गुना श्रेष्ठ होते है । पिता सौ आचार्या के समान होते है । माता पिता से हजार गुना श्रेष्ठ होते है ।

आर्ता देवान् नमस्यन्ति, तप: कुर्वन्ति रोगिण: । निर्धना: दानम् इच्छन्ति, वॄद्धा नारी पतिव्रता ॥

संकट में लोग भगवान की प्रार्थना करते है, रोगी व्यक्ति तप करने की चेष्टा करता है । निर्धन को दान करने की इच्छा होती है तथा वॄद्ध स्त्री पतिव्रता होती है । लोग केवल परिस्थिती के कारण अच्छे गुण धारण करने का नाटक करते है ।


शोको नाशयते धैर्य, शोको नाशयते श्रॄतम् । शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपु: ॥


शोक धैर्य को नष्ट करता है, शोक ज्ञान को नष्ट कर

ता है, शोक सर्वस्व का नाश करता है । इस लिए शोक जैसा कोइ शत्रू नही है ।


भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला ।  शल्यग्राहवती कॄपेण महता कर्णेन वेलाकुला ॥


अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी ।सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी कैवर्तक: केशव: ॥


भीष्म और द्रोण जिसके दो तट है जयद्रथ जिसका जल है शकुनि ही जिसमें नीलकमल है शल्य जलचर ग्राह है कर्ण तथा कॄपाचार्य ने जिसकी मर्यादा को आकुल कर डाला है अश्वत्थामा और विकर्ण जिस के घोर मगर है ऐसी भयंकर और दुर्योधन रूपी भंवर से युक्त रणनदी को केवल श्रीकॄष्ण रूपी नाविक की सहायता से पाण्डव पार कर गये ।


श्रिय: प्रसूते विपद: रुणद्धि, यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्ष्टि । संस्कार सौधेन परं पुनीते, शुद्धा हि बुद्धि: किलकामधेनु: ॥


शुद्ध बुद्धि निश्चय ही कामधेनु जैसी है क्योंकि वह धन-धान्य पैदा करती है; आने वाली आफतों से बचाती है; यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है; और दूसरों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र करती है। इस तरह विद्या सभी गुणों से परिपूर्ण है।

सृष्टि के प्रारंभ में मानव एवं सृष्टि उत्पत्ति

अभिज्ञानशाकुन्तल संक्षिप्त कथावस्तु

महाकविकालिदासप्रणीतम्‌  - अभिज्ञानशाकुन्तलम्‌ `- भूमिका

वैराग्य संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी

अग्नि सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्

PART-2- BRAHM KOWLEDGE

BRAHMA-KNOWLEDGE-PART-1

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK

Chapter XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV

S’rimad Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP -16,17,18

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. XV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIV.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XIII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XII.

VISHNU PURANA. - BOOK III.  CHAP. XI.

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. X

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. IX

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VIII

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VII.

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. VI

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. V

VISHNU PURANA. - BOOK III. CHAP. IV

VISHNU PURANA. - BOOK III.- CHAP. III

VISHNU PURANA. - BOOK III.- CHAP. II.

VISHNU PURAN BOOK III.CHP-1

Self – Suggestion- Chapter 8

Self-Suggestion Chapter 7

Self-Suggestion- Chapter 6

चंद्रकांता (उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री

खूनी औरत का सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी

ब्राह्मण की बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)

Self – Suggestion -Chapter 5

Self - Suggestion - Chapter 4

Self-Suggestion -- Chapter 3

SELF SUGGESTION Chapter 2

SELF-SUGGESTION AND THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG

VISHNU PURAN - BOOK II.

VISHNU PURAN-BOOK I - CHAPTER 11-22

VISHNU PURANA. - BOOK I. CHAP. 1. to 10

Synopsis of the Vishnu Purana

Introduction of All Puranas

CHARACTER-BUILDING.

SELF-DE-HYPNOTISATION.

THE ROLE OF PRAYER. = THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.  

HIGHER REASON AND JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.

THE GREAT EGOIST--BALI

QUEEN CHUNDALAI, THE GREAT YOGIN

CREATION OF THE UNIVERSE

THE WAY TO BLESSED LIBERATION

MUDRAS MOVE THE KUNDALINI

LOCATION OF KUNDALINI

SAMADHI YOGA

THE POWER OF DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.

THE POWER OF THE PRANAYAMA YOGA.

INTRODUCTION

KUNDALINI, THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

TO THE KUNDALINI—THE MOTHER OF THE UNIVERSE.

Yoga Vashist part-1 -or- Heaven Found   by   Rishi Singh Gherwal   

Shakti and Shâkta -by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),

Mahanirvana Tantra- All- Chapter  -1 Questions relating to the Liberation of Beings

Mahanirvana Tantra

Tantra of the Great Liberation

Translated by Arthur Avalon

(Sir John Woodroffe)

Introduction and Preface

CONCLUSION.

THE VAMPIRE'S ELEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S TENTH STORY.

THE VAMPIRE'S NINTH STORY.

THE VAMPIRE'S EIGHTH STORY.

THE VAMPIRE'S SEVENTH STORY.

THE VAMPIRE'S SIXTH STORY.

THE VAMPIRE'S FIFTH STORY.

THE VAMPIRE'S FOURTH STORY.

THE VAMPIRE'S THIRD STORY.

THE VAMPIRE'S SECOND STORY.

THE VAMPIRE'S FIRST STORY.

श्वेतकेतु और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA

यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE UIVERSITY OF VEDA

उषस्ति की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति, _4 -GVB the uiversity of veda

वैराग्यशतकम्, योगी भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda

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