महाकविकालिदासप्रणीतम्
अभिज्ञानशाकुन्तलम्
`
डा. राजदेव मिश्रा
समर्पणम्
ययोः प्रसादाद्विवृ्तिं
प्रयातं
भव्यं वरेण्यं शुभनाट्यमेंतत्
।
उमामहेशौ जगतः
सुवन्द्यौ
ताभ्यां सहर्षं सुमर्पयतेऽदः
॥।
-सम्पादकद्वरयम्
पुरोवाक्
वाणी के वरदान महाकवि कालिदास की लोकविश्रुत कृति “अभिज्ञानशाकुन्तल' के
विषय में आधिकारिक रूप से कुछ लिखना असाध्य नहीं तो दुःसाध्य अवश्य है । फिर भी
सहृदय मनीषियों एवं प्रबुद्ध जिज्ञासुओं, विशेषतः
विद्यार्थियों, की आकक्षा एवं अपेक्षा को दृष्टिगत कर उक्त
कृति पर लेखनी चलाने का प्रयास करना पड़ा । वस्तुतः यह प्रयास कालिदास के ही शब्दों
में प्राशुलभ्ये फले लोभादुद्राहुरिव वामनः" की भांति है ।
उक्त पुस्तक तीन भागों में विभक्त होकर अभिज्ञ अध्येताओं के समक्ष प्रस्तुत
हे--(१) भूमिका, (२) मूलभाग, (३) परिशिष्ट । भूमिका में कालिदास के जीवन-वृत्त, स्थिति-काल एवं कृतियों पर प्रकाश डालकर, शाकुन्तला
की बृहत् समीक्षा की गयी है । द्वितीय भाग में श्लोक का अन्वय, ` शब्दार्थ, अनुवाद्, संस्कृत-व्याख्या
एवं संस्कृत-सरलार्थ प्रस्तुत करने क पश्चात तद्गत (श्लोकगत) पदो (शब्दों) की
व्याकरणात्मक व्याख्या तथा उसमें प्रयुक्त छन्दो -अलङ्कारों को लक्षण सहित
प्रस्तुत किया गया है । अन्त में "टिप्पणी' शीर्षक के
अन्तर्गत अपेक्षित पदों अथवा वाक्यांशों की व्याख्या एवं स्पष्टीकरण दिया गया हे ।
गद्यांशों के शब्दों का व्याकरण तथा शादार्थ आदि देकर फिर उनका अनुवाद हे । तृतीय
भाग में कुल आठ परिशिष्टो को निर्दिष्ट कर उनमें ग्रन्थ से सम्बद्ध अनेक उपयोगी
तथा आवश्यक विषयों पर प्रकाश डाला गया हे । इस प्रकार ग्रन्थ को सर्वांगपूर्ण
व्याख्या के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास अवश्य किया गया है, परन्तु प्रयास की वास्तविक सफलता की कसौटी तो सहृदय-हृदय की सन्तुष्टि ही
है । सूत्रधार का यह कथन (आपरितोषाद् विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्"
एक प्रकार से हमारे ही मन की बात का प्रकाशन है । हमारा यह सारस्वत प्रयास यदि
सुधी पाठकों की जिज्ञासा एवं अपेक्षा का किञ्चिन्मात्र भी समाधान कर सका तो हम
अपने प्रयास को सफल मानेंगे ।
जिन मनीषी विद्वानों की कृतियों से हमें अपने इस प्रयास में सफलता मिली है, उनके
विज्ञ लेखकों के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं । इस ग्रन्थ को शुद्ध एवं परिष्कृत
रूप प्रदान कराने नर विद्द्वर डां प्रभुनाथ द्विवेदी तथा डा ० शिवाकान्त शुक्ल का
प्रयास श्लाध्य है, अतः इन्हें हार्दिक धन्यवाद । प्रकाशक
घनश्याम दास एण्ड सन्स एवं मुद्रक सीमा प्रेस का सहयोग भी उल्लेख्य है । ग्रन्थ के
विषय में विद्रज्जनों के किसी सुझाव का हम स्वागत करेंगें ।
श्रावणीपूर्णिमा, वि० सं०
२०५७
१५/०८/२०००, फैजाबाद
।
विनीत,
सम्पादकदक
भूमिका
संस्कृत - साहित्य
व्यापकता एवं सर्वाङ्गीणता
संस्कृत- साहित्य जैसा विशाल एवं
सर्वाङ्गपूर्णं साहित्य संसार की किसी अन्य भाषा में उपलब्ध नहीं है । इसकी
विशालता एवं सर्वाङ्गीणता को समझने के लिए चारों वेदों, उपवेद,
व्याकरण, ज्योतिष आदि छः वेदाङ्गो, माण्डूक्य, तैत्तिरीय आदि उपनिषदों, ऐतरेय, शतपथ आदि ब्राह्मणों, आरण्यको,
पुराणों, न्याय- वैशेषिक, वेदान्त-मीमांसा, सांख्य-योगादि षड्दर्शन सम्बन्धी
ग्रन्थों के अतिरिक्त काव्य के सभी अङ्गों, महाकाव्यों,
खण्डकाव्यो, चम्पूकाव्यो, कथा तथा नार॒यशासख्, दशरूपक, काव्यालंकार,
काव्यादर्श, ध्वन्यालोक तथा काव्यप्रकाश आदि
काव्यशास्त्र ग्रन्थों से परिचय पाना आवश्यक है । इतना ही नहीं इधर आधुनिक काल में
भी शतशः महाकाव्यो, गीतकाव्यों, नारको,
लघुकथाओं की रचनायें हुई हैं, और आज भी हो रही है; अतः उन्हें भी दृष्टिगत करना आवश्यक है । इन सब का आकलन कर लेने के
पश्चात् संस्कृत-साहित्य की व्यापकता तथा विशालता स्पष्ट हो जाती है और संस्कृत
को मृत भाषा कहने वालों की धारणा स्वतः धराशायी हो जाती है । `
संस्कृत- साहित्य में मानव के लिए निर्धारित चार पुरुषार्थो धर्म, अर्थ, काम
तथा मोक्ष ) का विवेचन बड़े ही मार्मिक ढंग से हुआ है । “धर्मार्थकामाः सममेंव
सेव्या यो ह्येकसक्तः स नरो जघनूयः' का उद्घोष करने वाले
संस्कृत-वाङ्मय में अर्थ अथवा काम की उपेक्षा हुयी है"- इस प्रकार की धारणा
निर्मूल ही है ।
वस्तुतः संस्कृत-साहित्य में आध्यात्मिक अभ्युत्थान के साधन श्रेय तथा
भौतिक विकास के साधन प्रेय दोनों का सम्यक् विवेचन किया गया हे । ।
काव्यवैभव
संस्कृत का काव्यवैभव अत्यन्त उदात्त, प्राञ्जल, सर्वाङ्गपूर्ण एवं गतिशील हे । कवि के कर्म को काव्य' कहा जाता है- कवेः कर्म काव्यम् ।' कवि अपार काव्य
संसार का स्रष्टा है ओर उसका कर्म ( काव्यसृष्टि) भी अलौकिक गुणों से विभूषित
है-
"अपारे
काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः" ' ।
कवि में दर्शन एवं वर्णन दोनों की अनुपम् क्षमता होती है । वह अपने प्रातिभ
चक्षु से न केवल वर्तमान अपितु अतीत, अनागत, व्यवहित-अव्यवहित
सभी पदार्थों का सृक्ष्मातिसृक्ष्म पर्यवेक्षण करने में समर्थ होता है । इसीलिए वह
क्रान्तदर्शी कहलाता है और उसके लिये यह उक्ति चरितार्थ होती है “यत्र न रविः
तत्र कविः” । यह (कवयः क्रान्तदर्शिनः" ही उसकी अनुभूति है । इस अनुभूति
को जब वह अपनी अलौकिक वर्णनों के द्वारा वाणी का कलेवर प्रदान करता है तब वही (
अनुभूति ) वर्णित होकर झटिति काव्य की पदवी को प्राप्त कर लेती है ।
कवि की इसी वर्णना-शक्ति को लक्ष्य कर मम्मट ने लोकोत्तरवर्णना में निपुण
कवि के कर्म को "काव्यः संज्ञा प्रदान की है-
' “काव्यं
लोकोत्तरवर्णनानिपुणकविकर्म ' - काव्यप्रकाश, १.२, वृत्ति
संस्कृत की मौलिकता, व्यापकता तथा सर्वाङ्गीणता के विषय में इतना
कहना प्रासङ्किक यथार्थं है कि संस्कृत-साहित्य प्रत्येक क्षेत्र में विकास की
चरमावस्था को प्राप्त कर चुका है । पर विशाल सागर स्वरूप उसके जिस रत्नविशेष ने
उसकी कीति में चार चाँद लगाये है, वह है उसका काव्यवैभव ।
अपने इसी काव्यात्मक वैभव के कारण संस्कृत- साहित्य भारतीय तथा अभारतीय उभयविध
विद्वानों की प्रशंसा का भाजन बना हुआ है । निस्सन्देह संस्कृत- साहित्य काव्य की
सभी धाराओं के चमत्कारात्मक सौन्दर्य से मण्डित है। संस्कृत कवियों ने जिस
कविता-कामिनी की सृष्टि की है वह अपनी स्वर-माधुरी, संगीतात्मक
प्रवाह, पदलालित्य तथा भावव्यञ्जना के द्वारा सदियों से सहृदयों
के सरस हृदय को हटात् अपनी ओर खींचकर उसे रससिक्त कर रही है । सम्प्रति यहाँ पर
संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ महाकवि कालिदास के विषय में कुछ कहना अभीष्ट है । संस्कृत
के जिन कवियों की अनुपम एवं रससिक्त रचनाओं ने उसके माहात्म्य का देश-विदेश में
जयघोष गुञ्जित किया हे, उनमें महाकवि कालिदास सर्ववरेण्य हें
। ।
यद्यपि संस्कृत-काव्य जगत् को गौरवास्पद एवं सहृदय-हृदय-वन्द्य बनाने में
अनेक महाकवियों का स्तुत्य योगदान रहा है, पर व्यास एवं वाल्मीकि के पाश्चात्
उसको उच्चता की पराभूमि में प्रतिष्ठित करने का प्रधान श्रेय महाकवि कालिदास को ही
है महाकवि कालिदास सदियों से संस्कृत
काव्यवैभव एवं भारतीय प्रतिभा-प्रतिष्ठा को पहचान बन गये है । सम्प्रति भारत के
साथ ही पाश्चात्य जगत् में संस्कृत काव्यलोक की जो दिग्दिगन्तव्यापिनी सारस्वत
कीर्ति प्रसृत है उसमें इस महाकवि का अविस्मरणीय योगदान है । उन्होंने महाकाव्य,
खण्डकाव्य एवं दृश्य काव्य इन तीनों क्षेत्रों में अतुल यश प्राप्त
किया है । इस दृष्टि से उनकी सभी रचनायें सरस, वरेण्य एवं रस
संचार में सर्वथा समर्थ हे । रघुवंश जैसा यशस्वी महाकाव्य, मेघदूत
जैसा हृदयावर्जक खण्डकाव्य एवम् अभिज्ञानशाकुन्तल जैसा विश्ववन्द्य नाटक अन्य और
किस कवि का हो सकता है।
महाकवि कालिदास
प्राचीन भारतीय मनीषियों एवं तत्त्ववेत्ताओं की दृष्टि में जीवनी का कोई
महत्त्व नहीं था । उनका दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य अपने जीवनवृत्त से नहीं
प्रत्युत अपनी कीर्ति से अजर-अमर होता है-- कीर्तिर्यस्य स जीवति' । कीर्ति
की आधारशिला कृति होती है क्योंकि अनुपम कृति के द्वारा ही मनुष्य विमल कीर्ति को
प्राप्त करता है । यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने एक ओर जहां अपनी रचनाओं में
प्रतिपाद्य विषयों के सूक्ष्मातिसृक्ष्म अंशों के विवेचन एवं विश्लेषण में अपना
जीवन बिताया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपने जीवनवृत्त के विषय
में स्वयं कुछ भी लिखने का प्रयास नहीं किया । पाश्चात्य आलोचकों की दृष्टि में यह
भले ही भारतीय मनीषियों की अदूरदर्शिता रही हो पर यदि वे भारतीय विचारकों की
वास्तविक दृष्टि को समझने का प्रयास करें तो उन्हें स्वयं अपनी ही अदूरदर्शिता पर
पश्चाताप करना पड़ेगा । “कविर्मनीषी. परिभूः स्वयंभूः" की परम्परा में
पलने वाले महाकवि कालिदास उक्त भारतीय परम्परा के अपवाद कैसे हो सकते थे? उन्होंने अपनी जीवनी के विषय में कहीं कुछ
नहीं लिखा । फलतः आज उनके जीवन-वृत्त, स्थितिकाल आदि के विषय में
गहन मन्थन एवं प्रयास करने पर भी ` कोई सर्वसम्मत समाधान नहीं
निकल सका ।
अनेक कालिदास--'कालिदास उपाधि-धारियों के कारण भी समस्या
उलझ जाती है । साहित्य-जगत् में सरस्वती के वरपुत्र कालिदास की असाधारण प्रसिद्धि
के कारण बाद में उनका नाम अन्य के लिए उपाधि हो गया । किसी ने कालिदास की उपाधि
प्राप्त की, तो किसी ने कालिदास को अपने उपनाम के रूप में
प्रतिष्ठित कर लिया । राजशेखर ने तो तीन ही कालिदास का उल्लेख किया पर री०एस०
नारायण शास्त् ने ऐसे कालिदासों की संख्या नौ गिनायी हे ।
उक्त कारणों से विवश होकर हमें अपने प्रिय महाकवि के जीवनवृत्त आदि की जानकारी
के लिये या तो उनकी कृतियों में उल्लिखित किन्हीं आधार-तत्वों को ढुढ़ना पड़ता है
या किवदन्तियों की शरण में जाना पड़ता है अथवा उन रचनाओं, प्रशस्तियों
एवं कथनों का आश्रय लेना पड़ता है जिनसे उनकी (कालिदास की) जीवनी आदि के विषय में किञ्चिन्मात्र
भी प्रकाश पड़ता है । यहाँ कालिदास के जीवनवृत्त, जन्म-स्थान,
स्थितिकाल तथा रचनाओं आदि के विषय में संक्षेपतः प्रकाश डाला जा रहा
है ।
जीवन- वृत्त
किंवदन्तियां
भारतीय परम्परा सार्वभौम ख्याति को
प्राप्त करने वाले अपने महापुरुषों के जीवन- वृत्त को किसी न किसी किंवदन्ती के
साथ जोड़ने में सिद्धहस्त हे । ऐसी ही किंवदन्तियां महाकवि कालिदास के साथ जुड़ी हैं।
१. एक किंवदन्ती के अनुसार वे ब्राह्यण-कुल में उत्पन्न हुए थे और पशुपालन
- आदि का निकृष्ट कार्य करते थे । प्रारम्भ में वे महान् मूर्ख थे । ईर्ष्या और
द्वेषवश पण्डितों ने छल-प्रपञ्च करके उनका विवाह उस समय की सुविख्यात विदुषी, शारदानन्द
की कुमारी पुत्री विद्योत्तमा से करा दिया । कुछ समय बाद जब विद्योत्तमा को
कालिदास की मूर्खता का पता चला तो उसने उन्हें घर से बाहर कर दिया । बाद में काली
की उपासना करके उन्होंने विद्या अर्जित की ओर विद्वान एवं कवि बनकर घर लौटे ।
उन्होंने “अनावृतकपाटं द्वारं देहि' कहकर
दरवाजा खटखटाया । विद्योत्तमा ने उनसे पूछा (अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ")
कालिदास ने अपनी वाणी का उत्कर्ष दिखलाने के लिए अस्ति" शब्द से प्रारम्भ
होने वाले ( अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवातात्मा.... ) कुमारसम्भव, कश्चित् ' से प्रारम्भ होने वाले ( कशचित्
कान्ताविरहगुरुणा... ) मेघदूत तथा वाक् शब्द से प्रारम्भ होने वाले (वागर्थाविव संपृक्तौ ) रघुवंश की रचना की
। कालिदास के विश्वविख्यात नाटक अभिज्ञानशाकुन्तल तथा अन्य ग्रन्थों की रचना कैसे
हुई इसका किंवदन्ती में उल्लेख नहीं है । उक्त किंवदन्ती का सारांश यही हे कि
मूर्खं कालिदास को महाकवि बनाने का श्रेय उनकी पत्नी को है ।
महाकवि तुलसीदास के विषय में भी एक ऐसी
ही किंवदन्ती प्रचलित है, जिसके अनुसार अपनी पत्नी की डाँट सह कर वे
महाकवि बन गये । किवदन्तियों के अनुसार दोनों ही अपनी पत्नी की डाँट सहकर ही
महाकवि बने । अन्तर केवल इतना है कि कालिदास अपने घर में डाँटे गये थे जबकि
तुलसीदास अपनी ससुराल में । यदि पत्नी की डाँट से ही महाकवि बनने की बात हो तो,
भला कौन नहीं डाँट खाने के लिए तैयार हो जायेगा ?
२. एक अन्य किवदन्ती के अनुसार कालिदास ( मातृगुप्त नाम से) विक्रमादित्य की
सभा में प्रतिष्ठित थे।
३. जैन विद्वान् मेंरुतुङ्गाचार्य कालिदास को अवन्ती के राजा विक्रमादित्य
का जामाता मानते हैं ।
उक्त किवदन्तियों के आधार पर कालिदास के जीवनवृत्त के विषय में किसी निष्कर्ष
पर पहुंचना कठिन है, पर उनकी कृतियों में उल्लिखित तथ्यों के आधार
पर हम कुछ अनुमान लगने में समर्थ हो जाते हैं ।
कालिदास जन्मतः ब्राह्मण थे । रघुवंश के
प्रथम सर्ग में उन्होंने “क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः' इस
कथन के द्वारा जिस प्रकार अपने विनय का प्रकाशन किया है, उससे
लगता है कि वे स्वभावतः विनम्र एवं निरभिमानी थे । उन्होंने अपने ग्रन्थों में “जगतः
पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेंश्वरौ" ( रघुवंश ) तथा “या सृष्टिः स्त्रष्टुद्या
"(शाकु ०) आदि में शिव के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की हे । इससे ऐसा
प्रतीत होता है कि वे सामान्यतः देवतामात्र के प्रति श्रद्धालु होते हुए भी शिव के
प्रति अधिक आस्थावान् थे । उनका वर्णाश्रम धर्म के प्रति अटूट विश्वास था। वे
राज-प्रासादों से लेकर आश्रमों तक के जीवन से पूर्ण परिचित थे । वे आश्रम-प्रधान
संस्कृति तथा कर्तव्यनिष्ठ तपोमय जीवन के पक्षधर थे । उन्हें जीवन के हर क्षेत्र
का व्यावहारिक अनुभव प्राप्त था। यह बात उनकी रचनाओं की उन अगणित सूक्तियों से
प्राप्त होती है जो जीवन के हर क्षेत्र की हर परिस्थिति में हमें शिक्षा देती है
ओर हमारा मार्गदर्शन करती हैं ।
कालिदास ने वेद, वेदाङ्ग, दर्शन, पुराण, धर्म शास्त्र, संगीत,
आयुर्वेद आदि विविध शास्रों का अध्ययन किया था। उन्होंने सम्पूर्णं
भारत के पर्वतों, नदियों, वनों का जिस
प्रकार सजीव वर्णन किया है उससे यह भी ज्ञात होता है कि उन्हें न केवल भूगोल
विद्या का ज्ञान था अपितु उन्होंने भ्रमण करके साक्षात् अनुभव भी प्राप्त किया
था।
इस प्रकार "लोकशास्त्रद्वेक्षणात्" अर्जित ज्ञान का
सम्बल लेकर उनकी नैसर्गिकी काव्य-प्रतिभा काव्य-सर्जना में प्रवृत्त हुई । उनमें
काव्यप्रतिभा कितनी थी ? इस विषय में आगे प्रकाश डाला जायेगा |
जन्म- स्थान
कालिदास के जन्म-स्थान के विषय में भी बहुत विवाद है। कालिदास की लोकविश्रुति
एवं अतुल कीर्ति के कारण लोग अपनी जन्मभूमि से कालिदास का नाता जोड़कर अपनी
जन्मभूमि की महत्ता का प्रख्यापन करना चाहते हैं । अनेक राज्यों में उनके जन्मस्थान
के रूप में जिन स्थानों का नाम लिया जाता है उनमें से कुछ प्रमुख स्थानों के नाम निम्नांकित
है--
1. कश्मीर-- कश्मीरी विद्वान् प्रो° कल्ला ने अपनी कृति “कालिदास
का जन्म- स्थान” में कालिदास का जन्म कश्मीर में माना है ।
२. बंगाल- बंगाली लोग कालिदास के नामगत काली' ओर (दास' इन दो पदो तथा भेघटूत' के प्रथम श्लोक (आषाढस्य
प्रथमदिवसे" के आधार पर कालिदास को बंगाल- भूमि का रत्न मानते हैं क्योंकि
बंगाल की इष्ट देवी काली है और वहाँ नाम के साथ दास लगाने की प्रथा है। बंगाल में
तो कालिदास के नाम पर स्मारक भी बन गया है ।
३. विदर्भ- इसके समर्थक डां०° पीटर्सन आदि है ।
४. मिथिला- इसके समर्थक पं० आदित्य नाथ झा आदि विद्वान् हे । एक अभिलेख
में कालिदास का चौपड़ी" यह उल्लेख ही उनके मत का आधार है ।
५. विदिशा-इसके समर्थक हरप्रसाद शास्री तथा परांजपे है । मेघदूत में विदिशा
के प्रति कालिदास का विशेष आग्रह ही उनके मत का मूलाधार है ।
६. उज्जयिनी ( मालवा )-- महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी का बड़ा हृदयावर्जक
वर्णन किया है, जिससे उस नगरी के प्रति उनके अनुरागातिशय का पता चलता है ।
कालिदास के आश्रयदाता चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी
बनाया था। इन सब तथ्यों के आधार पर प्रो मिराशी आदि विद्रान् उज्जयिनी को कालिदास
की कर्म-भूमि मानते हैं । सम्प्रति उज्जयिनी में प्रतिवर्ष कालिदास के नाम पर समारोह
होता है ।
उक्त स्थानों के अतिरिक्त अयोध्या, गढ़वाल, जालौर ( जोधपुर के समीप ) से भी कालिदास का सम्बन्ध जोड़ा जाता है ।
ऐसी दशा में कालिदास की जन्मभूमि
तथा कर्मभूमि के रूप में किसी स्थान-विशेष का निर्धारण करना कठिन है पर उज्जयिनी
के पक्ष में दिये गये तर्को के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि महाकवि का
उज्जयिनी से किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध अवश्य रहा है । अधिकांश विद्वान् भी
इसी मत के पोषक हैं ।
स्थितिकाल
जीवनवृत्त एवं जन्मस्थान की भांति
कालिदास के स्थितिकाल का निर्धारण भी एक जटिल प्रश्न है । अनेक भारतीय एवं
पाश्चात्य विद्वानों ने उनके समय का निर्धारण करने के लिये एड़ी चोटी का पसीना एक
किया है पर सर्वसम्मत समाधान निकालने में वे असफल रहे हैं । जब आज तक यही निर्णय न
हो सका कि महाकवि कालिदास किस शताब्दी में हुए तब उनकी जन्मतिथि एवं मरणतिथि का
निश्चय करना तो एक प्रकार से टेढ़ी खीर ही हे ।
काल की पूर्वापर सीमा- विश्वसनीय सामग्री के अभाव में कालिदास के
स्थितिकाल के विषय में विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक मत स्थिर किये गये है ।
विद्वानों की कल्पना एवं रुचि की अनेकरूपता तथा किंवदन्तियों के बाहुल्य के कारण
काल निर्धारण सम्बन्धी समस्या ओर उलझ गयी है । यदि कालिदास के स्थितिकाल के विषय में
प्रचलित सभी मतों ( ई पू० ८ वीं शताब्दी के मत से लेकर ईसा की ११ वीं शताब्दी तक
के मतों ) को दृष्टिगत किया जाये तब तो कालिदास की पूर्व सीमा ई० प० ८ वीं शताब्दी
तथा अपर सीमा ११
वीं शतान्दी तक पहुंच जाती है । पर ठोस
अन्तः ओर बाह्य साक्ष्य के आधार पर विचार करने पर उनके काल की पूर्गवर्ती सीमा १५०
ई पूर्व से पहले ओर ई० की सांतवी शताब्दी के पश्चात् नहीं जा सकती । साक्ष्य
निम्नांकित है _
( १) कालिदास ने अपने मालविकाग्निमित्र नाटक का नायक प्रसिद्ध शुंगवंशी
नरेश अग्निमित्र को बनाया हे । अग्निमित्र मोर्यवंश के विनाशक सेनापति पुष्यमित्र
के पुत्र थे} पुष्यमित्र का समय ९५० ई ० पूर्व माना जाता हे । ऐसी स्थिति
में कालिदास १५० ई० पूर्व के पहले नहीं हो सकते ।
(२) कन्नोज-सग्राट् हर्ष के आश्रित
महाकवि बाणभट्ट विरचित हर्षचरित की प्रस्तावना में कालिदास का उल्लेख हुआ है-- निर्गतासु
न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु" । हर्ष के आश्रित होने के कारण बाणभटु का
समय ६०६ ई० से ६४७ ई० है ।
(२३ ) पुलकेशी द्वितीय के आश्रित कवि रविकीर्ति ने ऐहोल वाले शिलालेख में कालिदास
का नाम लिखा है-- “स विजयतां रविकीर्तिः कवितश्रितकालिदासभारविकीरतिः” । उक्त
शिलालेख का समय शक संवत् ५५६ (ई ० ३३४ ) है । अतः कालिदास को ई ० की सातवीं
शताब्दी के बाद का नहीं माना जा सकता । अधिकांश विद्वान् उक्त दोनों सीमाओं के
मानने के पक्षधर हे । अब हमें इन्हीं दो सीमाओं ( ई० पू० द्वितीय शताब्दी से लेकर
ई ° की सातवीं शताब्दी ) के मध्य कालिदास के काल का निर्धारण करना है ।
अनेक मत--जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है
कालिदास के समय-निर्धारण में निम्नांकित तीन मत प्रमुख है, अतः
संक्षेप में उन्हीं का विवेचन नीचे किया जा रहा है--
१. छठीं शताब्दी का मत
२. गुप्तकालीन मत
३. ई० पूर्व प्रथम शताब्दी का मत
(1) छटीं शताब्दी का मत-- इस मत के समर्थक डा. हार्नली, फार्ग्युसन
तथा डा° हरप्रसाद शास्त्री आदि हे । डा ° हार्नली के अनुसार छठीं शतान्दी में सम्राट यशोधर्मन ने बालादित्य नरसिंह
गुप्त की सहायता से हूणवंश के प्रतापी राजा मिहिरकुल को परास्त किया था। विजयान्तर
'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण कर उन्होंने
विजय के उपलक्ष्य में एक नवीन संवत् चलाया जो विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ
। अपने चलाये गये संवत् की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये यशोधर्मन् ने अपने
संवत् के ६०० पूर्व से, अर्थात् ई० पूर्व ५७ से, प्रारम्भ होने की बात प्रचारित की । डो० हार्नली की नवीन संवत्सर की
कल्पना का उपयोग फर्गयुसन ने कालिदास के समय निर्धारण में किया ।
समर्थन में तर्क-- इस मत के समर्थन में दिये गये कुछ तर्क निम्नाङ्कित
है--
१. विक्रमादित्य की सभा में कालिदास का होना प्रसिद्ध ही है।
२. कालिदासविरचित रघुवंश' नामक महाकाव्य में रघु की दिग्विजय को
सीमा यशोधर्मन् की राज्य सीमा से मिलती है । कालिदास की रचनाओं में यवन, शक, हूण आदि का उल्लेख मिलता हे । हूणो ने ५०० ई० में
भारत पर आक्रमण किया था ।
३. मैक्समूलर के अनुसार छटीं शताब्दी ही संस्कृत के पुनरुत्थान का समय है ।
अतः कालिदास का उस काल में होना सम्भव है ।
४. ज्योतिर्विदाभरण नामक ग्रन्थ के अनुसार कालिदास शकारि विक्रमादित्य के नवरत्नं
में से थे । उस ग्रन्थ का रचना काल ५८० ई० है |
५. छठी शताब्दी के ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने वर्षा-ऋतु का आरम्भ आषाढ से माना
है ओर कालिदास ने मेघदूत में (आषाढस्य प्रथमदिवसे" कहकर आषाढ से वर्षा-ऋतु का
आरम्भ स्वीकार किया है । इसके साथ ही कालिदास ने अपनी रचनाओं में वराहमिहिर के
अनेक ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का उल्लेख किया है ।
खण्डन-- १. छटीं शताब्दी के राजा यशोधर्मन् के द्वारा विजय के
उपलक्ष्य में संवत् चलाकर उसे ६०० वर्ष पहले से आरम्भ होने का प्रचार न तर्कसङ्गत
है ओर न इतिहाससम्मत । अतः फर्गयुसन महोदय की कल्पना आधारहीन है । मालव संवत् के
नाम से उक्तं संवत् पहले से ही प्रचलित था ओर उसका विक्रमः नाम बाद् में पड़ा ।
२- भारतीय जनश्रुति के अनुसार कालिदास शकारि विक्रमादित्य के आश्रित कवियों
में से एक थे । शकार" यह उपाधि शको को परास्त करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय
ने धारण की थी । वस्तुतः छटी शताब्दी में विक्रमादित्य नाम का अन्य कोई राजा नहीं
हुआ ।
३. रघुवंश के रघु-दिग्विजय वर्णन में जिन शको, यवनो
का उल्लेख हुआ हे वे आक्रमणकारी नहीं थे । रघु ने उन्हें भारत की सीमा के बाहर ही
परास्त किया था ।
४. प्रथम शताब्दी के अश्वघोष ( ७८ ई० ) कृत बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्दादि काव्यों
तथा भास के नाटकों से यह सिद्ध हो चुका है कि छठी शतान्दी के पुर्व में भास, अश्वघोष
तथा काव्यात्मक शिलालेखों के रहते छटीं शताब्दी के पूर्व काल को अंधकार-काल कहना
तथा छठी शातान्दी को संस्कृत का पुनरुज्जीवन-काल कहना समीचीन नहीं है ।
५. ज्योतिर्विदाभरणः' जैसे
अप्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर कुछ कहना ठीक नहीं है।
६. वर्षाऋतु के आषाढ मास से प्रारम्भ होने के आधार पर कालिदास को वराहमिहिर
का समकालीन मानना उचित नहीं है । आषाढ से वर्षा-ऋतु के प्रारम्भ की मान्यता भी
वराहमिहिर से पूर्व की है ।
७. मध्य भारत के मन्दसौर नामक स्थान मेँ वत्सभटिकृत शिलालेख ( ४७३ ई० ) मेँ
कालिदास के ऋतुसंहार एवं मेघदूत के पद्यों की स्पष्ट झलक है ।
८) गुप्तकालीन अथवा चतुर्थं
शताब्दी का मत-- भारतीय जनश्रुति के अनुसार
......-.- कालिदासकवयो नीताः शकारातिना' लेख के आधार पर तथा
कालिदास के ग्रन्थों में अङ्कित विक्रम" पद् के श्लेष के आधार पर यह अनुमान
लगाया जा सकता है कि कालिदास किसी शकारि विक्रमादित्य के आश्रय में थे जिसकी
राजधानी उज्जयिनी थी ।
चद्धरगुप्त द्वितीय ( २३७५-४१३ ) तथा उसके पौत्र स्कन्दगुप्त दोनों ने ही
विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी । दो विक्रमादित्य की स्थिति होने के कारण यह मत
दो भागों में विभक्त हो जाता है-
1. पूना के प्रो० के०वी० पाठक कालिदास को स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य का समकालीन
मानते हे । कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने ४५५ ई० में हुणों को परास्त कर विक्रमादित्य
को उपाधि धारण की थी । यह मत जिन तथ्यों पर आधारित है वे ठीक नहीं है । क्योंकि रघुवंश में रघु द्वार हूणों को परास्त
करने की घटना ४५५ ई० पूर्व की ही सिद्ध होती है जब हूंणो का भारत में आगमन हुआ था
। दूसरी बात यह है कि स्कन्दगुप्त हणारि थे न कि शकारि । उसने शुङ्गवंशी क्षत्रप
के विजय के उपलक्ष्य में पूर्वप्रचलित मालव संवत् को ( अपना नाम विक्रम लगाकर )
विक्रम संवत् नाम से चलाया ।
२. प्रो° पाठक के मत के विपरीत पाश्चात्य विद्वान् डँ° कीथ, मैक्डंनल, विण्टरनित्ज
तथा भारतीय विद्वान् डां० आर० डी० भण्डारकर, म०म० रामावतार
शर्मा आदि कालिदास को चन्द्रगुप्त द्वितीय ( ३७५-४१३० ) का आश्रित कवि मानते हैं ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शको को भारत से निकाल कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी
। इस मत के पक्ष में निम्नाङ्कित तर्क दिये जाते हैं--
1. शकारि विक्रमादित्य ( चन्द्रगुप्त द्वितीय ) की राजधानी उज्जयिनी थी ।
वह स्वयं विद्वान् पण्डितों का आश्रयदाता एवं दानी था । अतः ऐसे राजा के आश्रय
में कालिदास जैसे कवि का रहना समीचीन एवं सङ्गत है । कालिदास की कृतियों में
वर्णित सुख-समृद्धि, राजकीय वैभव तथा विलास भी चन्द्रगुप्त द्वितीय
के समय के प्रतीत होती है ।
२. चौथी शताब्दी की हरिषेण द्वारा विरचित
प्रयाग बाली प्रशस्ति में किये गये समुद्रगुप्त ( ३३६-३७५ ई०) के विजय वर्णन में
तथा रघुवंश के चतुर्थ सर्ग के रघुदिग्विजय- वर्णन में बहुत कुछ समतायें है ।
मालविकाग्निमित्र में वर्णित अश्वमेध यज्ञ समुद्रगुप्त के अश्वमेध यज्ञ को इङ्गित
करता है । सम्भव है समुदरगुप्त के विजयवर्णनों को दृष्टिगत कर ही कालिदास ने रघु
के दिग्विजय का वर्णन किया हो
३. कालिदास के विक्रमोर्वशीय नाटक का नामकरण विक्रमादित्य नाम को ध्यान में
रख कर किया गया है तथा कुमारसम्भव महाकाव्य की रचना चन्द्रगुप्त के पुत्र
कुमारगुप्त के जन्म को लक्षित कर की गयी प्रतीत होती है । इसी प्रकार वाकाटक राजा
रुद्रसेन तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती क विवाहोत्सव पर कालिदास ने
अपने मालविकाग्नमित्र की रचना की ।
४. रघुवंश के “ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः", “इन्दुनवोत्थानमिवेन्दुमत्यै' इत्यादि
पंक्तियों में इन्दु" तथा “चन्द्रमस्' शब्दः चन्दगुप्त
को ही लक्षित करता है । स्ववीर्यगुप्ता हि मनोः प्रसृतिः", जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे धर्ममनातुरः तथा “जुगोप
गोरूपधरामिवोर्वाम्' इत्यादि स्थलों में अनेक
बार गुप्" धातु का प्रयोग भी उनके गुप्तकालीन होने का सङ्केत करते हैं ।
खण्डन--१. चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा पूर्वप्रचलित मालव संवत् को अपने
नाम से चलाने की बात सङ्गत नहीं है । यदि विजय के उपलक्ष्य में उसे संवत् चलाना
ही था तो उसने नया संवत् क्यों नहीं चलाया ? दूसरी बात यह है कि
चन्द्रगुप्त द्वितीय के पितामह चन्द्रगुप्त प्रथम ने स्वयं गुप्त संवत् चलाया था
। अपने पितामह द्रारा चलाये संवत् को न अपना कर दूसरे संवत् को अपनाना
हास्यास्पद है । चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद किसी गुप्त राजा ने विक्रम संवत् को
नहीं अपनाया । स्कन्दगुप्त के गिरिनार वाले शिलालेख का ही उल्लेख है-- गुप्तप्रकाले
गणनां विधाय ।' वस्तुस्थिति यह है कि विक्रम संवत् का प्रथमोल्लेख
नवीं शताब्दी में मिलता है ।
२. किसी भी गुप्त राजा का नाम विक्रमादित्य नहीं है । चन्द्रगुप्त द्वितीय और
स्कन्दगुप्त की "विक्रमादित्यः उपाधि है । कोई भी उपाधि तभी प्रचलित होती है
जब उस नाम का कोई व्यक्ति पहले से ही ख्याति प्राप्त कर चुका हो । यदि कालिदास' उपाधिधारियों
को ही वास्तविक कालिदास मान लिया जाये तब तो संस्कृत साहित्य को कम से कम दस कालिदास
प्राप्त हो जायेंगे । अतः 'विक्रमादित्य' उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीय को वास्तविक विक्रमादित्य मानना कथमपि
न्याय-सङ्गत नहीं है । इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय को शकारि कहना भी ठीक नहीं
है ।
३. कालिदास के रघुवंश में वर्णित दिग्विजय का मूल हरिषेण विरचित प्रयाग की प्रशस्ति
में वर्णित समुद्रगुप्त के दिग्विजय में दंटना असंगत है । दिग्विजय का वर्णन अति प्राचीन
ग्रन्थों रामायण, महाभारत पुराणादि में भी मिलता है । इसी प्रकार
कालिदास के समक्ष उनके पूर्ववर्ती राजाओं 'पुष्यमित्रादि
द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञो का वर्णन भी विद्यमान था ।
४. चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त के जन्म की स्मृति में
कुमारसम्भव की तथा विक्रमादित्य के विक्रम" शब्द के आधार पर
"विक्रमोर्वशीय" की रचना मानना भी ठीक नहीं है । संस्कृत-साहित्य के
अन्य ग्रन्थ में भी पुत्र अर्थ में कुमार शब्द अत्यधिक प्रचलित है । कालिदास ने
अपनी कृतियों में कुमार के पर्यायवाची पत्र, तनय, आत्मज
आदि शब्द का भी प्रयोग किया है । कालिदास ने कुमार-सम्भव में कुमार शब्द का प्रयोग
इसलिये किया हे कि शिव के पुत्र स्कन्द् के लिये कुमार शब्द् अधिक प्रचलित है ।
विक्रमोर्वशीय में प्रयुक्त विक्रम शब्द को चन्दगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के
लिये मानना अनुचित है क्योंकि विक्रमोर्वशीय में विक्रम शब्द पराक्रम का पर्याय है
और उससे पुरूरवा के पराक्रम की सूचना मिलती है । अग्निमित्र पुष्यमित्र का पुत्र
था और उसका समय सम्भवतः १५० ई० पू० रहा होगा ।
कालिदास ने अपने समय के समीप होने के कारण उसके
गुणों से प्रभावित होकर उसकी प्रशंसा में अपने नाटक की रचना की हे । अतः
चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती के विवाह के अवसर पर विक्रमोर्वशीय कौ
रचना मानना भी ठीक नहीं हे । यदि ऐसी बात होती तो वे गुप्तवंशी राजाओं में से ही
किसी को अपने नाटक का नायक बनाते।
५. कालिदास् के काव्यों में गुप्" धातु का बारम्बार प्रयोग गुप्त
राजाओं के लिये किया गया हे, यह मान्यता भी निराधार हे । कालिदास के
काव्यों में सामान्य रक्षा अर्थ में ही, रकतर्थक अन्य धातुओं
रक्ष्, पा, अ आदि ) की भति ही
"गुप्" का प्रयोग हुआ है ।
६. कालिदास ने अपने काव्यों में ( "चन्द्रमसैव रत्रिः' आदि
स्थलो में ) जो चन्द्र अथवा चन्द्र के पर्यायवाची “इन्दु आदि शब्दों का प्रयोग
किया है, वह भी सामान्य अर्थ में ही । संस्कृत के प्रायः सभी
काव्य-ग्रन्थों में चन्द्रवर्णन एक सामान्य बात है ।
अतः ठोस प्रमाण के बिना केवल उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर ही महाकवि कालिदास
को चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालिक मानना उचित नहीं है ।
(3) ई ० प° प्रथम शताब्दी का मत-- भारतीय जनश्रुतियों के
अनुसार कालिदास का सम्बन्ध किसी विक्रमादित्य नामक राजा से था जो विद्याव्यसनी,
उदारचेता ओर कवियों आदि का आश्रयदाता था। अनेक भारतीय तथा पाश्चात्य
विद्वानों की यह मान्यता है कि कालिदास ई०पू० प्रथम शताब्दी में विराजमान
विक्रमादित्य के आश्रित कवि थे । उनके मत में विक्रमादित्य परमारवंशी थे और उन्होंने
शकों को परास्त कर विजय के उपलक्ष्य में मालवगणस्थिति संवत् चलाया जो बाद् में
विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ । विरोधी पक्ष को ई ०प० प्रथम शताब्दी में
विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता, उनके द्वारा विक्रम संवत्
चलाये जाने की बात तथा कालिदास का उक्त का आश्रित होना मान्य नहीं है। क्योंकि
उनकी दृष्ट में विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता आदि को सिद्ध करने के लिए कोई ठोस
प्रमाण नहीं मिलता । अतः सर्वप्रथम इन तीनों के विषय में विचार करना आवश्यक है ।
विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता-- 1. हाल की
गाथासप्तशती प्र. शताब्दी ई ) में विक्रमादित्य नामक एक प्रतापी, उदार
तथा महादानी राजा का उल्तेख है जिसने शकों पर विजय पाने के उपलक्ष्य में भृत्यों
को लाखों रुपये का उपहार दिया था-- “विक्रमादित्योऽपि भृत्यस्य करे लक्षं ददाति'-
टीकाकार गदाधर ।
२. गुणाढ्य ( ७८ ई० ) की बृहत्कथापर
आश्रित सोमदेवकृत कथासरितूसागर में उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य का उल्लेख है ।
उसके अनुसार विक्रमादित्य परमारवंशी महेन्रादित्य का पुत्र था और उसने शकों को
पराजित कर विजय के उपलक्ष्य में मालवगणस्थिति संवत् चलवाया जो बाद में विक्रम
संवत् के नाम से प्रचलित हुआ । उक्त ग्रंथ में विक्रमादित्य के राज्याभिषेक का भी
वर्णन है तथा पिता-पुत्र दोनों के शैव होने की बात कही गयी है ।
३. जैनकवि मेंरुतुङ्गाचार्य द्वारा
विरचित पद्यावली से पता चलता है कि उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल के पुत्र
विक्रमादित्य ने शकों से उज्जयिनी का राज्य महावीर के निर्वाण के ४७० वें वर्ष (
ई० ५७ वर्ष ) में छीन लिया था।
४. सर विलियम जोन्स, विन्सेन्ट स्मिथ, स्टेन
कोनो तथा एजर्टन आदि पाश्चात्य और प्रो० क्षेत्रेशचन्द्र चटोपाध्याय, डा. राजबली पाण्डेय आदि भारतीय
विद्रानों ने भी विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को मान्यता प्रदान की है ।
उक्त प्रमाण तथा अन्य तथ्यों के होने पर भी विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को स्वीकार
न करना एक प्रकार का दुराग्रह ही है । केवल शिलालेख आदि सामग्री के आधार पर ही
किसी की ऐतिहासिकता सिद्ध नहीं होती । ऐसा होने पर तो न जाने कितने महापुरुषों की
सत्ता अमान्य हो जायेगी ।
विक्रमादित्य उपाधि- इस सन्दर्भ में विक्रमादित्य उपाधि तथा विक्रम
संवत् के प्रवर्तन के समाधान पर थोड़ा विचार कर लेना प्रसङ्गोपेत
है--विक्रमादित्य'- इस उपाधि ने किन्हीं आलोचकों को और भ्रमित
किया है । इसलिये वे कालिदास का सम्बन्ध विक्रमादित्य उपाधि-धारी चन्द्रगुप्त
द्वितीय अथवा स्कन्दगुप्त के साथ जोड़ते हैं । वास्तविकता यह है कि ई०पृ० प्रथम
शताब्दी के राजा महेन्द्रादित्य के पुत्र का वास्तविक नाम ही विक्रमादित्य था। विक्रमादित्य
उसकी उपाधि नहीं थी । उसकी उदाश्ता, विद्याप्रेम, दानवीरता तथा न्यायप्रियता ने उसे इतना लोकप्रिय बना दिया था कि उसके नाम
के साथ अनेक जनश्रुतियां जुड गयीं । भारत के ग्रामीण क्षेत्र का भी शायद ही कोई
हिन्दू हो जिसने विक्रमादित्य का नाम न सुना हो । महापुरुषों के नाम को परवर्ती
लोगों द्वारा उपाधि के रूप में धारण करने की प्रथा प्रत्येक देश में प्रचलित है ।
चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा स्कन्दगुप्त द्वारा विक्रमादित्य की तथा कुमारगुप्त के
द्वारा महेन्द्रादित्य की उपाधि धारण करना इसी तथ्य का द्योतक हे । ऐसी स्थिति में
कालिदास का सम्बन्ध वास्तविक विक्रमादित्य के साथ न जोड़कर विक्रमादित्य उपाधिधारी
चन्द्रगुप्त द्वितीय आदि के साथ जोड़ना ठीक नहीं है ।
विक्रम संवत्- जहां तक ई०पू० प्रथम शताब्दी वाले विक्रमादित्य के
द्वारा विक्रम संवत् के प्रवर्तन का प्रश्न है उसके बारे में विरोधियों का यह
कहना है कि यदि उक्त: विक्रमादित्य ने संवत् का प्रवर्तन किया हो तो उन्होंने
अपने नाम से क्यों नहीं चलाया ?
उन्होंने संवत् को मालव नाम से क्यों चलाया था ? पांचवीं
तथा छटीं शतान्दी के शिलालेखों में मालवगणस्थित्या' श्रीमालवगणा'
आदि रूपों में इस संवत् का उल्लेख है । संवत् के साथ विक्रम"
नाम नवीं या दसवीं शताब्दी में जुड़ा ।
इस प्रसङ्ग में दो बाते कहनी है ।
प्रथम यह कि 'गणस्थिति' का अर्थ गणना पद्धति है ।
दूसरी यह कि विक्रमादित्य ने प्रारम्भ में संवत् के साथ अपना नाम जोड़ना उचित न समझकर
उसमें मालवगणः' का ही नाम जोड़ दिया । बाद में उनकी ख्याति
के कारण वह संवत् विक्रम के नाम से चल पड़ा।
कालिदास का विक्रमादित्य का आश्रित
होना- विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता सम्बन्धी समस्या का समाधान हो जाने के बाद यह
प्रश्न विचारणीय हो जाता है कि कालिदास विक्रमादित्य के आश्रित थे या नहीं ? निम्नांकित
तथ्यों को दृष्टिगत करने पर यह सिद्ध हो जाता हे कि कालिदास विक्रमादित्य के
आश्रित थे--
1. विक्रमादित्य विद्याव्यसनी, काव्यप्रेमी तथा संस्कृत के
अनुरागी थे । अतः उनके आश्रय में कालिदास की स्थिति सर्वथा संभव है ।
२. कालिदास ने रघुवंश में अवन्ति के राजा विक्रमादित्य का श्रद्धा के साथ उल्लेख
किया है- अवन्तिनाथोऽयमुदग्बाहु....' ६/३२ तथा अभिज्ञानशावुन्तलः
में संवत् १६९९ ( १६४२ ई० ) की हस्तलिखित पाण्डुलिपि में भी विक्रमादित्य का
स्पष्ट उल्लेख हुआ है । इससे यह सिद्ध होता है कि कालिदास विक्रमादित्य के आश्रित
थे और उनके शाकुन्तल का अभिनय उनकी सभा में हुआ था।
3. कालिदास ने अपने नाटक विक्रमोर्वशीय के नाम में नारक के नायक पुरूरूवा के
स्थान पर "विक्रम" नाम प्रतिष्ठित किया है और नाटक में “महेन्द्र शब्द
का प्रयोग अनेक बार किया हे । इससे भी कालिदास को विक्रमादित्य की आश्रयता सिद्ध
होती है ।
४. शाकुन्तल, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय
तथा रघुवंश में महाकवि ने भगवान् शङ्कर की वन्दना की है । विक्रमादित्य भी शैव थे
। कालिदास के काव्यों में सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन हुआ है । विक्रमादित्य भी
सूर्यवंशी थे । यहाँ यह स्मरणीय ह कि गुप्त राजा वैष्णव थे तथा उनका सम्बन्ध
चन्द्रवंश से था ।
५. “ज्योतिर्विदाभरण' में उल्लिखित नवरत्नों के बीच कालिदास के
नाम का देखकर यह अनुमान लगाना कि "कालिदास ई० पूर्व प्रथम शताब्दी में नहीं
थे' ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें चित क्षपणक, शंकु आदि अज्ञात है । दूसरे सभी नव कवियों की समकालीनता भी सन्दिग्ध है ।
अतः उक्त प्रमाणों से विक्रम संवत् के प्रवर्तक शकारि विक्रमादित्य ( ई. पू.
प्रथम शताब्दी ) के आश्रय में कालिदास की स्थिति निर्विवाद रूप से प्रमाणित हो
जाती है । यो विक्रमादित्य के आश्रय में कालिदास को स्थिति सिद्ध हो जाने पर उनका
ई० पू० प्रथम शताब्दी में विद्यमान होना भी सिद्ध हो जाता है । परन्तु निम्नाङ्कत
साक्ष भी कालिदास की सत्ता ई०पु० प्रथम शताब्दी में सिद्ध करते है । अतः वे भी द्र्रष्टव्य
है।
१. अश्वघोष तथा कालिदास की रचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है
कि अश्वघोष पर कालिदास का प्रभाव है । अश्वघोष कुषाण सम्राट कनिष्क ( प्रथम शताब्दी
) के गुरु तथा राजकवि थे । अतः विरोधि का कालिदास को अश्वघोष का परवर्ती मानना ठीक
नहीं है ।
२. कालिदास की रचनाओं में अनेक अपाणिनीय प्रयोग मिलते हैं जिससे यह सिद्ध
हेता है कि कालिदास ने अपने काव्यों की रचना तब की जब पाणिनीय व्याकरण का प्रभाव
पुरी तरह प्रतिष्ठित नहीं हो पाया था । यह काल ई ०पू० प्रथम शताब्दी के बाद का
नहीं हो सकता क्योंकि प्रथम शताब्दी के अश्वघोष में तथा परवर्ती कवियों में
अपाणिनीय प्रयोग बहुत कम मिलते हैं ।
३. कालिदास ने “मालविकाग्निमित्र' नाटक का नायक अग्निमित्र को
बनाया है। अग्निमित्र का समय १५० ई०पू० है । उक्त नाटक में चित्रित कुछ बाते भी
कालिदास को अग्निमित्र का समीपवर्ती सिद्ध करती हैं ।
४. भीटा ( प्रयाग ) के एक मुद्राचित्र में हरिण का शिकार कर्ता हुआ एक रथारुढ़
राजा दिखलाया गया है । उक्त स्थान शुंङ्ग की सीमा में पड़ता है । इससे सिद्ध होता
है कि कालिदास शुंङ्गो का शासन समाप्त होने के पहले थे । शुंग का समय ई° पू०
२५ है ।
५. गुप्तकालीन शिलालेखों की भाषा शैली से
कालिदास की भाषा शैली की तुलना करने प॒र यह स्पष्ट हो जाता हे कि शिलालेखों की
समासबहुल और कृत्रिम भाषा शैली की अपेक्षा कालिदास की शैली सरल एवं स्वाभाविक है ।
उसमें लम्बे समासों का भी अभाव है । इससे भी कालिदास का गुप्तकाल की अपेक्षा
पूर्ववतीं होना सिद्ध होता है । कालिदास की शौली महाभाष्य ( ई० पुर्व द्वितीय
शताब्दी ) के निकट है ।
६. कालिदास ने रघुवंश में इन्दुमती के स्वयंवर के अवसर पर अवन्तिनाथ पाण्ड्य
का-“अवन्तिनाथोऽयमुदग्रबाहुः......" तथा उस पर रघु के विजय का वर्णन
किया है-- तस्यामेंवं रघोः पण्ड्या प्रतापं न विषेहिरे ४/४९ । पाण्ड्य
राजाओं की स्थिति ई०पू० प्रथम शताब्दी में थी ।
उक्त प्रमाणों तथा तथ्यों के आधार पर कालिदास का स्थितिकाल ई ०पू० प्रथम शताब्दी
में मानना समीचीन एवं सङ्गत है ।
कालिदास की रचनायें
संस्कृत-जगत् में महर्षि वाल्मीकि एवं भगवान् वेदव्यास के अनन्तर जिस
महाकवि ने सर्वाधिक सम्मान एवं लोकप्रियता प्राप्त की है उसका नाम हे कालिदास ।
संस्कृत- साहित्य का यह सौभाग्य है कि उसने महाकवि कालिदास जैसे कविरत्न को
प्राप्त किया है जो महाकाव्य, खण्ड-काव्य तथा नाट्य-तीनों काव्यविधाओं की
रचना में कुशल है । कालिदास के परवर्ती
संस्कृत-साहित्य पर तो कालिदास का इस प्रकार प्रभाव पड़ा है कि कई कवियों ने अमरता
प्राप्त करने के लिये अपनी रचनाओं के साथ कालिदास का नाम भी जोड़ दिया ।
परिणामस्वरूप यह विषय निर्विवाद नहीं रह सका कि कालिदास की वास्तविक रचनायें कितनी
हैं ? कालिदास के नाम प॒र विरचित जिन कृतियों का नाम लिया
जाता है उनमें प्रमुख कृतियाँ निम्नाङ्कित है--
१. ऋतुसंहार २. कुमारसम्भव ३. मेघदूत ४.
रघुवंश ५. मालविकाग्निमित्र ६. विक्रमोर्वशीय ७. अभिज्ञानशाकुन्तल ८. श्रुतबोध ९.
राक्षसकाव्य १०. शृद्धारतिलक ११. गङ्गाष्टक १२. श्यामलादण्डक १३. नलोदयकाव्य
१४.पुष्पबाणविलास १५. ज्योतिर्विदाभरण १६. कुन्तलेश्वरदौत्य १७. लम्बोदर प्रहसन
१८. सेतु-बन्ध तथा १९. कालिस्तोत्र आदि ।
उक्त कृतियो में संख्या दो से लेकर संख्या सात तक की रचनायें निर्विवाद रूप
से कालिदास की मानी जाती है । प्रथम कृति ऋतु-संहार' के बारे में विद्वान्
एकमत नहीं हैं, परन्तु परम्परा उसे भी कालिदास की कृति स्वीकार करती है । अतः
इन्हीं सात कृतियों को कालिदास की रचना मानकर उनका परिचय दिया जा रहा है ।
काव्य-विधा की दृष्टि से उक्त सात कृतियों
को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है-
१. गीति-काव्य अथवा खण्ड काव्य-(क)
ऋतुसंहार (ख) मेघदूत ।
२. महाकाव्य--(क) कुमारसम्भव (ख)
रघुवंश ।
३. नाट्य अथवा दृश्य काव्य-(क)
मालविकाग्निमित्र (ख) विक्रमोर्वशीय (ग) अभिज्ञानशाकुन्तल ।
इन सात कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस
प्रकार है-
९. ऋतुसंहार यह कालिदास की प्रथम रचना मानी जाती हे । इसमें कुल छः सर्ग है
और उनमें क्रमशः ग्रीष्म, वर्षा, शरद् , हेमन्त, शिशिर तथा वसन्त इन छः ऋतुओं का अत्यन्त
स्वाभाविक, सरस एवं सरल वर्णन हे । इसमें ऋतुओं का सहदयजनों
के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव का भी हृदयग्राही चित्रण है । प्राकृतिक दृश्यों का
चित्रण हृदय को अत्यन्त आह्लादित करता है । इस काव्य में कालिदास की कमनीय शैली के
दर्शन न होने के कारण कुछ विद्वान् इसे
कालिदास की रचना नहीं मानते ।
२. मेघदूत--यह एक खण्ड-काव्य अथवा गीति-काव्य है । इसके दो भाग हैं -
(१) पूर्वमेघ (२) उत्तरमेघ । इसमें अपनी वियोग-विधुरा कान्ता के पास वियोगी
यक्ष मेघ के द्वारा अपना प्रणय-संदेश भेजता है । पूर्वमेघ में महाकवि, रामगिरि
से लेकर अलका तक के मार्ग का विशद वर्णन करते समय, भारतवर्ष
की प्राकृतिक छटा का एक अतीव हृदयावर्जक चित्र खड़ा कर देता हे । वस्तुतः पूर्वमेघ
में बाह्य-परकृति का सजीव चित्र आंखों के समक्ष नाचने लगता हे । उत्तरमेघ में मानव
की अन्तः प्रकृति का ऐसा विशद चित्रण हुआ है जिससे सहृदय का चित्त-चञ्चरीक नाच
उठता है ।
इस खण्ड-काव्य ने कालिदास को सहृदय जनों
के मानस मन्दिर में महनीय स्थान का भागी बना दिया हे । इसकी महत्ता का आकलन इसी से
किया जा सकता है कि इस पर विद्वानों द्वारा लगभग ७० टीकायं लिखी गयीं और इसको
आदर्श मानकर प्रचुर मात्रा में सन्देश- काव्यों की रचनायें की गयीं । आलोचक की मेघे
मेघे गतं वयः" यह उक्ति यथार्थ ही है।
३. कुमारसम्भव यह एक महाकाव्य है । इसमें कुल सत्रह सर्ग है । मल्लिनाथ ने
प्रारम्भिक आठ सर्गों पर ही टीका लिखी है और परवती अलंङ्कारशास्त्रियों ने इन्हीं
आठ सर्गों के पद्य को अपने गन्थों में उद्धृत किया है । इसलिए विद्रान्
प्रारम्भिक आठ सर्गों को ही कालिदास द्वारा विरचित मानते हैं । इस महाकाव्य में
शिव के पत्र कुमार की कथा वर्णित है । कुमार को षाण्मातुर, कार्तिकेय
तथा स्कन्द भी कहा जाता है । इसकी शैली मनोरम एवं प्रभावशाली है । भगवान् शङ्कर
के द्वारा मदनदहन, रतिविलाप, पार्वती
की तपःसाधना तथा शिव-पार्वती के प्रणय-प्रसंग आदि का वृत्तान्त बड़े ही कमनीय ढंग
से वर्णित है जिससे सरसजनों का मन इसमें रमता है ।
४. रघुवंश-उन्नीस सर्गों में रचित
कालिदास का यह सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है । इसमें राजा दिलीप से प्रारम्भ कर
अग्निवर्ण तक के सूर्यवंशी राजाओं की कथाओं का काव्यात्मक वर्णन है । सूर्यवंशी
राजाओं में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वर्णन हेतु महाकवि ने छः सर्गों ( १०-१५ )
को निबद्ध किया है ।
कालिदास की इस कृति में लक्षण ग्रन्थों में प्रतिपादित महाकाव्य का
सम्पूर्ण लक्षण घटित हो जाता है । इस महाकाव्य में कालिदास की काव्यप्रतिभा एवं
काव्य-शैली दोनों को खुलकर खेलने का अवसर प्राप्त हुआ है । इसकी रसयोजना, अलङ्कार-विधान,
चरित्र-चित्रण तथा प्रकृति-सौन्दर्य आदि सभी अपनी पराकाष्ठा पर
पहुंच कर सहृदय समाज का रसावर्जन करते हुए कालिदास की कीर्ति-कौमुदी को चतुर्दिक्
बिखेरते है । रघुवंश की व्यापकता एवं लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता
है कि उस पर लगभग. ४० टीकायें लिखी गयी हैं और इसकी रचना करने के कारण कालिदास को रघुकार'
की पदवी से विभूषित किया जाता है ।
५. मालविकाग्निमित्र--यह पंच अंकों का एक नाटक है । इसमें शुङ्गवंशीय राजा
अग्निमित्र तथा मालविका की प्रणय कथा का मनोहर तथा हदयहारी चित्रण है । इसमें विलासी
राजाओं के अन्तःपुर में होने वाली कामक्रीडाओं तथा रानियों की पारस्परिक ई्ष्यादि का
अतीव यथार्थ तथा सजीव चित्रण है ।
६. विक्रमोर्वशीय--इस नाटक में कुल
पाँच अङ्क है । ऋग्वेद आदि में वर्णित चन्द्रवंशीय राजा पुरूरवा तथा अप्सरा उर्वशी
का प्रेमाख्यान इस नाटक का इतिवृत्त है । परोपकार-परायण पुरूरवा द्वारा अप्सरा उर्वशी
का राक्षसों के चंगुल से उद्धार, से ही इसकी कथा का प्रारम्भ होता हे ।
तदनन्तर उर्वशी की पुरूरवा के प्रति कामासक्ति ओर उर्वशी के वियोग में राजा की
मदोन्मत्ता ही प्रतिपाद्य विषय बन जाती है । नाट्य-कौशल की उपेक्षा कर कवि ने इसमें
अपने काव्यात्मक चमत्कार का ही प्रदर्शन किया है ।
७. अभिज्ञानशाकुन्तल-- कालिदास की नारट्य कला को चरम परिणति शाकुन्तल में
हुई है । यह भारतीय तथा अभारतीय दोनों प्रकार के आलोचकों में समान आदर का भाजन है
। जहाँ एक ओर भारतीय परम्परा काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला
कहकर इसकी महनीयता का गुणगान करती ह वहीं पाश्चात्य जर्मन विद्वान् महाकवि गेटे ऐश्वर्य
यदि वाञ्छसि प्रियसखे ! शाकुन्तलं सेव्यताम्" कहकर उसके रसास्वाद
हेतु सम्पूर्ण सहृदय जगत् का आह्वन करते हैं । शाकुन्तल में सब मिलाकर सात अङ्क
हैँ और इसमें पुरुवंशीय नरेश दुष्यन्त तथा कण्वदुहिता शकुन्तला की प्रणय-कथा का
अतीव चित्ताकर्षक एवं मनोरम वर्णन है । शाकुन्तल की विस्तृत समीक्षा आगे की जायेगी
।
वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. X
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IX
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VIII
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VII.
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VI
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
-or- Heaven Found by Rishi Singh Gherwal
Shakti and Shâkta
-by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),
Mahanirvana Tantra-
All- Chapter -1 Questions relating to
the Liberation of Beings
Tantra
of the Great Liberation
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
GVB THE UNIVERSITY OF VEDA
यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10,
GVB THE UIVERSITY OF VEDA
उषस्ति की
कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
वैराग्यशतकम्, योगी
भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी
व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda
G.V.B. THE
UNIVERSITY OF VEDA ON YOU TUBE
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