प्रभु कि महिमा से जिवन
का उद्धार
सत्रे
ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥"
यंस्माध्चो अपातक्षन यजुर्यस्मादपाक्षन
समानि यस्य लोकामान्यथर्वागिसों मुखम। स्कम्भं तं भूहि कतम: स्विदेव स:॥
अर्थातः-उस स्कम्भ जगदाधार विराट परमेश्वर की
महिमा को कौन जान सकता है? इससे ऋग्वेद का विस्तार हुआ, जिससे यजुर्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद जिसके लोम के समान है और अथर्ववेद जिसका मुख है यहाँ
अथर्ववेद को मुख कह इसकी सर्वोच्चता का प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण यज्ञ के चार
प्रधान ऋत्वियो के नेता ब्रह्मा के लिये अथर्ववेदित होने की अनिवार्यता रखी गयी है।
अथर्ववेद काण्ड १॰ सूक्त ७ मंत्र १४ स्वत: यह प्रमाणित करता है कि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा
ये चार ऋषि सर्व प्रथम सृष्टि में उत्पन्न हुये। इन्ही के हृदयो में क्रमश: ऋग, यजु, साम तथा अथर्ववेद
का प्रकाश हुआ। यह कैसे हुआ? इसके लिये एक मंत्र ऋग्वेद का कहता है कि इन सब की क्लोंनिग
हुई अर्थात इनको विशेष रूप से लैब में तैयार किया गया। वह प्रयोगशाला मंगल ग्रह पर
बनाई गई क्योंकि यहाँ आने से पहले मानव जाती मंगल पर रहती थी। इसके भी प्रमाण वेदों
में मिलते है। इन प्रयोगशालाओं में विशेष प्रकार मित्रा और वरुणा नामक दिव्य ऊर्जावों
का उपयोग करके मानव शरीर को युवा उत्पन्न किया गया। यह अमैथुन श्रृष्टी के नाम से जानते
है। इनके द्वार ही बाद में मैथुनी श्रृष्टी का आरंभ किया गया। महर्षि दयानन्द ने भी
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में वेदोत्पति विषय पर लिखते हुये इसी की पुष्टि की है।
अग्निवायुरव्यंगिरोमनुष्य देहधारि जीवद्वारेण
परमेश्वरेण श्रुतिर्वेद: प्रकाशीकृत इति बोध्यम"।
यह निश्चय है कि परमेश्वर ने अग्नि वायु आदित्य
तथा अंगिरा इन देहधारी जीवो के द्वारा वेद का अर्थ प्रकाश किया। इन चारो ने ही ब्रह्मा
को वेद ज्ञान दिया इसी कारण ये ब्रह्मर्षि कहलाये। अंगिरा का अर्थ यही रूढ़ हुआ कि
देवों ओर ऋषियों को वेद पढ़ाने वाला आचार्य। ब्रह्मार्षि अंगिरा तथा इनके वंशज अंगिरस
(अंगों का रस विर्य है) ऋषियो में सप्तऋषि के नामों से जिनको जानते हैं। सूर्य की सात
किरणों को भी सप्तऋषि कहते हैं। इसी प्रकार यह आत्मा रूपी सूर्य है जिससे यह सात प्रकार
की किरणे निकलती हैं। आत्मा को अन्न भी कहते हैं इस अन्न से-से ही पहले रस बनाता है
फिर रस से खुन बनता है, खुन से मांस बनात है मासं से मेद बनता है मेद से मज्जा बनता
है मज्जा से हड्डी बनती है और हड्डी से विर्य बनता है। जिससे मानव शरीर का निर्माण
होता है।
ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक वेदताओं
का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य
तेज: सम्पन्न महर्षि अग्नी, वायु, अंगिरा और अदित्य आदि ऋषियों का सर्वप्रथमे उद्भव हुआ। यह सब
शरीर विज्ञान है इसके द्वारा ही शरीर का निर्वाण हुआ कहीं पर भी यह नहीं कहा है। कि
अत्मा का निर्वाण या परमात्मा का निर्वाण कैसे और कहाँ हुआ? क्योंकि आत्मा और परमात्मा ही निर्वाण करता है। इस शरीर के, अब हम शरीर का साक्षात्कार करें, क्योंकि मृत्यु इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है यह शरीर ही मृत्यु
है। हम सब साक्षात मृत्यु पर सवार है फिर भी हमें आजीवन खयाल नहीं आता है इस मृत्यु
का, हर समय हम यही सोचते हैं कि मृत्यु अभी
नहीं है जीवन अभी है और इस जीवन का आनन्द ले ले, मृत्यु तो कभी भविष्य में आने वाली एक काल्पनिक घटना है। प्राचिन
समय में हमारे पास ऐसा विज्ञान था जिससे हम इस शरीर को मरने से पहले इसको नया कर देते
थे, क्योंकि यह शरीर अरबो खरबों कोशीकाओं से
निर्मित है जो हर समय अपना रूप आकार बदल रही है। कोशीकाओं के परीवर्तन मात्र से शरीर
बदलता है। यह जब माँ के गर्भ में रहता है तो बहुत सूक्ष्म रहता है। यह दो तत्वों से
मिल कर बनता है जिसे हम सब आज के वैज्ञानिक भाषा में अंडाणु और शुक्राणु के नाम से
जानते हैं। इन दोनों का निसेचन माँ के गर्भ में होता है। (निसेचन भी दो प्रकार के होते
है एक बाहर होता है एस माँ के गर्भ में होता है। जिसके लिये किसी माँ के गर्भ की आवश्यक्ता
नहीं होती है। जैसा कि क्लोनिगं के समय सर्व प्रथम श्रृष्टी के प्रारम्भ में हुआ था।)
जिससे युग्मनज कहते हैं यह दोनों का योग होता है जिससे एक भ्रुड़ का रूप बनता है। जो
हमारी शरीर का प्रथम चरण है। यह भ्रुण बनने से पहले जिसे हम सब अंडाणु और शुक्राणु
कहते है। यह एक स्त्री और पुरुष शरीर के लिंग से निकलने वाली उनका विर्य या रज कहते
हैं। इसे हमारे प्राचिन वैदिक भाषा में मित्र और वरुण कहते है। यह दो प्रकार की विद्युत
ऊर्जा है। जो सूर्य की मुख्यतः दो किरणों का नाम है। जिस प्राकर से जो सूर्य से किरण
निकलती है वह खतरनाक और ज्वलन शिल होती है। लेकिन यही किरण जब चन्द्रमा पर पड़ती है
और वहाँ से हमारी पृथ्वी पर आती है। वह ठण्डी, शान्त, निर्मल, कोमल और शुष्क होती है। जिसे आधुनिक भाषा में गीली और सुखी विद्युत
के रूप में जानते हैं। अर्थात एसी और डीसी. है। जिसको दो वंशो के नाम पर भी जानते हैं।
सूर्य और चन्द्र वंश यह स्त्री और पुरुष शरीर के रूपक है यह दो प्रकार की ऊर्जाये है
जो एक दूसरे के पुरक है। जो एक ही सूर्य रूप आत्मा से निकली है। यह आत्मा इनसे अलग
है एक तीसरा अदृश्य तत्व है जो देनों में एक सामन गती करती है, यह दो प्रकार की ऊर्जा
शक्तीयाँ है जो शरीर निर्माण के लिये परम आवश्यक तत्व मानी जाती है। हमारे प्राचिन
काल के ऋषि आदी जो बहुत श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे जिन्होंने शरीर की उन कोशिकाओं का अध्ययन
करके यह जान लिया था कि वह कौन-सी कोशिका है, जो मानव शरीर में बृद्धावस्था को लाती
है। उस कोशिका को निकला कर उनके स्थान पर नई कोशिका को प्रत्यारोपित कर देते थे। जिससे
आदमी जल्दी वृद्ध ही नहीं होता था जिसके कारण वह कई सौ सालो तक जिन्दा रहता था। यजुर्वेद
में ऐसे कई मंत्र आते हैं जो यह बताते हैं कि मनुष्य कम से कम चार सौ साल तक तो अवश्य
जिन्दा रहे।
त्र्या॒यु॒षं ज॒म॑दग्नेः क॒श्यप॑स्य त्र्यायु॒षम्। यद्दे॒वेषु॑ त्र्यायु॒षं
तन्नो॑ऽअस्तु त्र्यायु॒षम् ॥६२॥
हिन्दी -
स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्य को
कैसी आयु भोगने के लिये ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः- हे जगदीश्वर ! आप (यत्) जो (देवेषु) विद्वानों
के वर्त्तमान में (त्र्यायुषम्) ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों का परोपकार से युक्त आयु
वर्त्तता जो (जमदग्नेः) चक्षु आदि इन्द्रियों का (त्र्यायुषम्) शुद्धि बल और
पराक्रमयुक्त तीन गुणा आयु और जो (कश्यपस्य) ईश्वरप्रेरित (त्र्यायुषम्) तिगुणी
अर्थात् तीन सौ वर्ष से अधिक भी आयु विद्यमान है (तत्) उस शरीर, आत्मा और समाज को
आनन्द देनेवाले (त्र्यायुषम्) तीन सौ वर्ष से अधिक आयु को (नः) हम लोगों को
प्राप्त कीजिये ॥६२॥
भावार्थभाषाः- इस मन्त्र में चक्षुः सब इन्द्रियों में और
परमेश्वर सब रचना करने हारों में उत्तम है, ऐसा सब मनुष्यों को समझना चाहिये। और (त्र्यायुषम्)
इस पदवी की चार बार आवृत्ति होने से तीन सौ वर्ष से अधिक चार सौ वर्ष पर्यन्त भी
आयु का ग्रहण किया है। इसकी प्राप्ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करके और अपना
पुरुषार्थ करना उचित है, सो प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिए−हे जगदीश्वर ! आपकी कृपा
से जैसे विद्वान् लोग विद्या, धर्म, और परोपकार के अनुष्ठान से आनन्दपूर्वक तीन सौ वर्ष पर्यन्त
आयु को भोगते हैं, वैसे ही तीन प्रकार के ताप से रहित शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्काररूप अन्तःकरण, इन्द्रिय और प्राण आदि को सुख करनेवाले विद्या-विज्ञान
सहित आयु को हम लोग प्राप्त होकर तीन सौ वा चार सौ वर्ष पर्यन्त सुखपूर्वक भोगें ॥यजुर्वेद
3-६२॥
यह साधरण लोगों की उम्र है जो विशेष लोग
है वह तो हजारों और लाखों साल तक जिने में सक्षम थे। जिसमें अधिकतर वैज्ञानिक किस्म
के ऋषि महर्षी हुआ करते थे या वह राजा महाराजा जिनके आश्रय में यह संसार और साधरण जन
रहते थे। हमारें पुराने साहित्य में यह बात आती है कि किस प्रकार से ऋषि महर्षी अपने
योग बल से पर्वतों और दूसरें जण पदार्थों को आज्ञा देते थे और वह जड़ जैसे पर्वत आदि
उनकी आज्ञा को सहर्ष स्विकार कर लेते थे। ऐसे ही एक ऋषि थे, पुलस्त्य ऋषि के पुत्र हुए विश्रवा, कालान्तर में जिनके वंश में कुबेर एवं रावण आदि ने जन्म लिया
तथा राक्षस जाति को आगे बढ़ाया। पुलस्त्य ऋषि का विवाह कर्दम ऋषि की नौ कन्याओं में
से एक से हुआ जिनका नाम हविर्भू था। यह कर्दप ऋषि भारत में नहीं रहते थें यह आज के
आधुनिक देश जिसको आस्ट्रेलिया के नाम से जानते है वहाँ के रहने वाले थे। पुलस्त ऋषि
वहाँ पर धर्म प्रचार करने गये थे जहाँ पर उनकी मुलाकात कर्दप ऋषि की कन्या हविर्भी
से हुआ जिससे उन्होने शादी की जिनसे दो ऋषि पुत्र हुए-महर्षि अगस्त्य एवं विश्रवा।
विश्रवा की दो पत्नियाँ थीं-एक थी राक्षस सुमाली एवं राक्षसी ताड़का की पुत्री कैकसी, जिससे रावण, कुम्भकर्ण तथा
विभीषण उत्पन्न हुए, तथा दूसरी थी इलाविडा-जिसके
कुबेर उत्पन्न हुए. इलाविडा चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु की अलामबुशा नामक अप्सरा से
उत्पन्न पुत्री थी।
ये वैवस्वत मनु श्राद्धदेव के वंशावली की कड़ी
थे यह मनु ही सर्वप्रथम इस पृथ्वी पर सप्त ऋषयों के साथ अवतरित हुए, अर्थात मंगल ग्रह से अपने स्पैसक्राफ्ट में चल कर यहाँ पृथ्वी
के हिमालय के शिखर पर उतरे। और यहाँ पर अपनी मनव कलोनीयों को बसाया। जिसमें सबसे पहले
उन्होंने अपनी प्रयोग शाला बनाई और क्लोन की बिधी से युवा मानव के साथ सभी जीवों को
तैयार किया और इसके साथ ही यहा पृथ्वी पर मनुष्य युग का प्रारंभ किया। ईसके पहले यहाँ
पृथ्वी पर डायना सुर आदि विसाल जीव। रहते थे जब मानव ने यहाँ रहना प्रारंभ किया तो
उसने सभी बड़े और खतरनाक जीवों को यहाँ पृथ्वी पर से समाप्त कर दिया। जैसा कि आज के
वैज्ञानिक प्रयाश कर रहें है। मंगल आदि ग्रहों पर जा कर वहाँ अपनी कालोनि बसाने की
योजना पर काम कर रहें है। अगले कुछ एक सालों में मानव मंगल ग्रह पर जा कर रहने लगेगा।
क्योंकि यह पृथ्वी ज़्यादा समय तक मनव के रहने के योग्य नहीं रहगी इसका अनुमान वैज्ञानिको
को हो चुका है। एक प्रस्न और उठता है कि मानव से पहले यहाँ पृथ्वी पर दूसरे खतरना जीव
कहाँ से आयें। इसका उत्तर यह है कि इन विशाल जीवों को मनव से पहले यहाँ पर कृतिम रूप
से तैयार करके दुसरे ग्र से प्रत्यारोपित किया गया-गया था कि वह इस पृथ्वी को मानव
के रहने के योग्य बनाये। यहाँ वायु मंडल को शुद्ध करने के लिये।
वैज्ञानिक
शोध कतई इस तरह की कहानी को सच नहीं मान सकते। सृष्टि उत्पत्ति और विकास में क्रमविकास
और कार्य-कारण का सिद्धांत कार्य करता है। वेदों में सृष्टि रचना को वैज्ञानिक तरीके
से समझाया गया है। वेदों में ब्रह्मांड उत्पत्ति का जो सिद्धांत है विज्ञान आज उसके
नजदिक पहुंच गया है। अब लोगों को कहानी से ज़्यादा तथ्य पर विश्वास होता है। यहाँ वेद-गीता
के उत्पत्ति के सिद्धांत को समझने का प्रयास करते हैं। ब्रह्म और ब्रह्मांड और आत्मा-तीनों
ही आज भी मौजूद हैं। सर्वप्रथम ब्रह्म था आज भी ब्रह्म है और अनंत काल तक ब्रह्म ही
रहेगा। यह ब्रह्म कौन है? ईश्वर है, परमेश्वर है या परमात्मा? यह तीनों नहीं है और तीनों ही है। यह ब्रह्म संपूर्ण विश्व
के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी है। ब्रह्म ने सृष्टि की रचना नहीं
की। ब्रह्म की उपस्थिति से सृष्टि की रचना हो गई. यह सात दिन या सात करोड़ वर्ष का
मामला नहीं है यह अनंत काल के अंधकार के बाद अरबों वर्ष के क्रमश: विकास का परिणाम
है।
उत्पत्ति और विकास:
अब सृष्टि की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ यह जानते
हैं। ब्रह्म की जगह हम समझने के लिए अत्मा को रख देते हैं। आप पांच तत्वों को तो जानते
ही हैं-आकाश, वायु, अग्नि, जल और ग्रह (धरती
या सूर्य) । सब सोचते हैं कि सबसे पहले ग्रहों की रचना हुई फिर उसमें जल, अग्नि और वायु की, लेकिन यह सच नहीं है।
ग्रह या कहें की जड़ जगत की रचना सबसे अंतिम
रचना है। तब सबसे पहले क्या उत्पन्न हुआ? जैसे आप सबसे पहले हैं फिर आपका शरीर सबसे अंत में। आपके और शरीर के बीच जो है
आप उसे जानें। अग्नि जल, प्राण और मन। प्राण
तो वायु है और मन तो आकाश है। शरीर तो जड़ जगत का हिस्सा है। अर्थात धरती का। जो भी
दिखाई दे रहा है वह सब जड़ जगत है।
नीचे गिरने का अर्थ है जड़ हो जाना और ऊपर उठने
का अर्थ है ब्रह्माकाश हो जाना। अब इन पांच तत्वों से बड़कर भी कुछ है क्योंकि सृष्टि
रचना में उन्हीं का सबसे बड़ा योगदान रहा है।
अवकाश और आकाश के पूर्व अंधकार:
आकाश एक अनुमान है। दिखाई देता है लेकिन पकड़
में नहीं आता। धरती के एक सूत ऊपर से, ऊपर जहाँ तक नजर जाती है उसे आकाश ही माना जाता है। लेकिन ऊपर अंतरिक्ष भी तो है।
आकाश अर्थात वायुमंडल का घेरा-स्काई. खाली स्थान
अर्थात स्पेस। जब हम खाली स्थान की बात करते हैं तो वहाँ अणु का एक कण भी नहीं होना
चाहिए, तभी तो उसे खाली स्थान कहेंगे। है
ना? हमारे आकाश-अंतरिक्ष में तो हजारों अणु-परमाणु
घुम रहे हैं।
खाली स्थान को अवकाश कहते हैं। अवकाश था तभी आकाश-अंतरिक्ष
की उत्पित्ति हुई. अर्थात अवकाश से आकाश बना। अवकाश अर्थात अनंत अंधकार। अंधकार के
विपरित प्रकाश होता है, लेकिन यहाँ जिस
अंधकार की बात कही जा रही है उसे समझना थोड़ा कठिन ज़रूर है। यही अद्वैतवादी सिद्धांत
है।
जब तक एक है तो दूसरा भी होगा लेकिन अद्वैत सिद्धांत
कहता है कि वह परम एक, शुद्ध एक। सारे धर्म द्वैतवादी
है लेकिन हिंदू धर्म अद्वैतवादी है। सचमुच सबकुछ दो जैसा दिखाई देता है लेकिन है नहीं।
अंत में एक ही हाथ लगेगा दो जैसा व्यवहार करता हुआ।
नर और मादा सृष्टि की सबसे अंतिम रचना है। नकारात्मक
और सकारात्म शक्तियाँ भी बाद की उत्पत्ति है। इसलिए कहना की ईश्वर के विपरित शैतान
है यह ईश्वर के खिलाफ बात है। सबसे बड़ी ईशनिंदा यही है कि आपने शैतान को ईश्वर के
विपरित माना या उसे ईश्वर के समकक्ष रखा। जो लोग द्वैतवादी है वह अधूरे हैं।
सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से
श्वास ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। '-ऋग्वेद
ब्रह्म (आत्मा) से आकाश अर्थात जो कारण रूप
द्रव्य (ब्रह्माणु) सर्वत्र फैल रहा था उसको इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न होता है।
वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि बिना अवकाश (खाली स्थान) के प्रकृति और परमाणु कहाँ ठहर सके और बिना अवकाश
के आकाश कहाँ हो। अवकाश अर्थात जहाँ कुछ भी नहीं है और आकाश जहाँ सब कुछ है।
आकाश के पश्चात वायु:
आत्मा से अवकाश, अवकाश से आकाश और आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई. वायु आठ तरह
की होती है। सूर्य से धरती तक जो सौर्य तूफान आता है वह किसकी शक्ति से यहाँ तक आता
है? संपूर्ण ब्रह्मांड में वायु का साम्राज्य
है, लेकिन हमारी धरती की वायु और अंतरिक्ष की
वायु में फर्क है।
वायु को ब्रह्मांण का प्राण और आयु कहा जाता
है। जैसे-हमारे शरीर में हमारे बाद मन की सत्ता है। फिर प्राण की और फिर जल, अग्नि और शरीर की। शरीर और हमारे बीच वायु का सेतु है।
वायु के पश्चात अग्नि:
वायु में ही अग्नि और जल तत्व छुपे हुए रूप में
रहते हैं। वायु ठंडी होकर जल बन जाती है गर्म होकर अग्नि का रूप धारण कर लेती है। वायु
का वायु से घर्षण होने से अग्नि की उत्पत्ति हुई. अग्नि की उत्पत्ति ब्रह्मांड की सबसे
बड़ी घटना थी। वायु जब तेज गति से चलती है तो धरती जैसे ग्रहों को उड़ाने की ताकत रखती
है लेकिन यहाँ जिस वायु की बात कही जा रही है वह किसी धरती ग्रह की नहीं अंतरिक्ष में
वायु के विराट समुद्री गोले की बात कही जा रही है।
अग्नि से जल की उत्पत्ति: वायु जब बदल गई विराट
अग्नि के गोले में तो उसी में जल तत्व की उत्पत्ति हुई. अंतरिक्ष में आज भी ऐसे समुद्र
घुम रहे हैं जिनके पास अपनी कोई धरती नहीं है लेकिन जिनके भीतर धरती बनने की प्रक्रिया
चल रही है।
जल से धरती की उत्पत्ति हुई: सचमुच ऐसा ही हुआ।
जलता हुआ जल कहीं जमकर बर्फ बना तो कहीं भयानक अग्नि के कारण काला कार्बन होकर धरती
बनता गया कहना चाहिए कि ज्वालामुखी बनकर ठंडा होते गया। अब आप देख भी सकते हैं कि धरती
आज भी भीतर से जल रही है और हजारों किलोमिटर तक बर्फ भी जमी है। धरती पर 75 प्रतिशत
जल ही तो है। कोई कैसे सोच सकता है कि जल भी जलता होगा या वायु भी जलती होगी?
जीवन की उत्पत्ति:
अब यहीं से जीवन की उत्पत्ति की शुरुआत की बात
कर सकते हैं कि कैसे बने पेड़, पौधे, फिर जलचर जंतु, फिर उभयचर, फिर नभचर तथा अंत में थलचर जीव-जंतु।
आत्मा का नीचे गिरना जड़ हो जाना है और आत्मा का ऊपर उठना ब्रह्म हो जाना है।
यह नीचे गिरने और ऊपर उठने की प्रक्रिया अनंत
काल से जारी और आज भी चल रही है। जब आत्मा जड़ बन गई तो उसने फिर से उठने का प्रयास
किया और फिर वह मोटे तौर पर जल में पौधों के रूप में अभिव्यक्त हुई. फिर जलचर के रूप
में, फिर उभयचर और फिर थलचर के रूप में। थलचर
में भी आत्मा ने मानव के रूप में खुद को अच्छे तरीके से अभिव्यक्त किया। यह क्रमश:
हुआ। कैसे?
आकाश के पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्नि, अग्नि के पश्चात जल, जल के पश्चात पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है। -तैत्तिरीय उपनिषद
ब्रह्मांड का मूलक्रम-अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी.
अनंत जिसे आत्मा कहते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं।
यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या
बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस गुना ज़्यादा यह अग्नि तत्व
से घिरा हुआ है और इससे भी दस गुना ज़्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।
वायु से दस गुना ज़्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है
और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है, वहाँ से यह दस गुना ज़्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है और यह तामस अंधकार भी अपने
से दस गुना ज़्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है।
उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी
से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति
का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही
गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
जीवन के दुःख का मुल कारण हमारा स्वयं का ज्ञान
ही है। इसको अपने जीवन में मैने अनुभव कर लिया है। क्योंकि यह मेरा अपना स्वयं का अनुभव
है। मैने अपने जीवन को जितना अधिक ज्ञान पुर्वक जीया उतना ही अधिक मेरें जीवन में दुःख, समस्या और कष्टों से भर गया। जहाँ तक मैने जाना है और अनुभव
किया यह संसार स्वयं नहीं बना है। इसको बनाने वाला है जिस प्रकार से हम देखते है कि
एक कम्प्युटर प्रोग्रामर होता है। वह काल्पनिक दुनिया का निर्माण कर के एक प्रोग्राम
बनाता है। जिसमें सब कुछ सच लगता है और वह सब कुछ होता है जैसा कि हमारे दुनिया में
होता उस काल्पनिक दुनिया में सारे नियम हमारे दुनिया के नियम ही काम करते है। वह एक
प्रकार का गेम होता है। जिसको हम कम्प्युटर पर खेलते है। उस समय हम यह खेल बिल्कुल
वास्तविक समझते है। यद्यपि वह सब झुठ और कल्पना के अतिरीक्त कुछ नहीं है। ऐसा ही हमारी
दुनिया के साथ है इसका बनाने वाला जिसे हम सब परमेश्वर कहते है। वास्तव में परमेश्वर
जैसा कोई नहीं है।
हाँ यह अवश्य है कि एक प्रोग्रामर है जिसने हमारी
दुनिया और हम सब को प्रोग्राम किया है और अपनी तरह से इस हमारी दुनिया को चला रहा है।
जब उसे प्रतित होता है कि कोई ऐसा व्यक्ती है जो इस दुनिया में जन्म ले लिया है जो
इस दुनिया के वास्तविक ज्ञान को जान चुका है। या सत्य को जाने के लिये उत्सुक है तो
वह प्रोग्रामर जो हर समय हर व्यक्ती से अपने प्रोग्राम और नेटवर्क से जुड़ा रहता है।
वह ऐसी-ऐसी समस्या और कष्टों को उसके सामने खड़ी करता है। जिससे या तो वह अपने मार्ग
को छोड़ दे या वह अपनी मृत्यु को उपलब्ध हो जाये। जिस प्रकार से राजा हरिश्चन्द्र को
कितना भयानक कष्टों को सहना पड़ा अपनी सत्याता के कारण जिससे देवताओं के राजा का सिहासन
हिलने लाग था। यहाँ पर हमने जाना कि किस प्रकार से हम सब को बनाने वाला प्रोग्रामर
यह किसी किमत पर नहीं चाहता है। कि सत्य का या स्वयं के सत्य का ज्ञान किसी को हो।
जो उसकी आज्ञा का उलंघन करता है। उसको वह जल्दी से जल्दी इस दुनिया से उठा लेता है
और हम अक्सर सुनते है कि जो इमानदार सत्य वादी ज्ञानी पुरुष होते है उनके हिस्से में
ही बहुत अधिक परेशानिया और कष्ट क्यों आते है। जिसका वह सामना नहीं कर सकते है और अंत
में वह मृत्यु को उपलब्ध होते है। ऐसे एक व्यक्ती नहीं पूरी दुनिया में ऐसे बहुत व्यक्ती
आज तक हो चुके है। उदाहरण के लिये मर्ययादा पुरुषोत्म राम को देख ले, योगेश्वर कृष्ण को देख ले, व्यास ऋषि जिनको हाथियों ने कुचल दिया, पाणिनी को मगरमक्ष ने खा लिया, कड़ाद जो वैशेषिक दर्शनकार हुये। वह एक-एक कड़ के लिये आजिवन
परेशान हो कर मर गये। जिसको हम पंतजली कहते है वह पत्ता और जल खा कर मर गये। इसामसिह
को क्रास पर लटा दिया गया। सुकरात को जहर पिल दिया गया। गैलेलियों को की आंखों को अंधा
करके मार डाला गया। सरमद का सर कलम कर दिया गया। मंसुर को एक-एक अंग काट कर मार दिया
गया। ऐसा क्यों किया गया क्या यह सब एक इत्फाक है। या इसके पिछे एक योजना के तहत कार्य
किया जा रहा है। सिखों के दस गुरुओं को कितना भंयकर मृत्यु दिया गया। महात्मा बुद्ध, महाविर इत्यादि कितने हुए जिनको यह दुनिया ने बुरी तरह यातना
दे-दे कर मार दिया। महर्शि दयानंद, स्वामि विवेका
नंद, रामकृष्ण परमहंस, लियो टालस्टाय, गोर्कि, इवान तुर्गनेव, पुरी दुनिया में ऐसे कितने लोग है। जिनको योजना बद्ध तरिके से
मारा गया आज के आधुनिक ओशों को कौन नहीं जानता कितना भयंकर कष्ट दे कर मारा गया। उनके
शरीर में थेलियम नाम का खतरनाक विश डाल दिया गया जिससे उनकी पुरी शरीर धिरे-धिरे गल
गई. यह सब क्यों बेमौत मारे गये इनके सात और बी कितने गुमनाम लोग है जो रोज मर रहे
है जिनका ज्ञान ही हम सब को नहीं हो पाता है। इन सब का कसुर केवल एक है कि वह सब ज्ञानी
थे और ज्ञान कि बाते करते थे। जो इस नस्वर दुनिया के लिये और इसका जो बनाने वाला प्रोग्रामर
है उसके लिये ठीक नहीं है। जिसके कारण ही वह ऐसे लोगों को चुन-चुन कर मारता है। क्योंकि
वह नहीं चाहता है ना उसकी प्रकृति ही चाहती है कि कोई उसके सत्य का उजागर करें। इसलिये
तो उपनिषद कहते है कि सत्य का मार्ग छुरे के धार पर चलने के समान है। जिसके कारण ही
लोग सत्य के मार्ग पर नहीं चल पाते है। लेकिन कुच ऐसे लोग होते है जो सत्य के मार्ग
के अनुयाई बन जाते है जिनका एक-एक कदम सत्य और ज्ञान से भरपुर होता है वह इसी के लिये
जिते और मरते है। जिनका स्वभाव ही बन गया है सत्य के मार्ग पर चलना सत्या ही बोलना
सत्य ही करना उनका जीवन साक्षात नरक के समान होता है वह आग के मार्ग पर चलते है वह
हमेशा अपनी चिता पर ही बैठ कर विणा बजाते है। आचार: प्रथमो धर्म: अित्येतद् विदुषां
वच: तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषत:। अच्छा बर्ताव रखना यह सबसे जादा
महात्त्वपूर्ण है ऐसा पंडीतोने कहा इसलिए अपने प्राणोका मोल देके भी अच्छा बर्ताव निरंतर
निमग्न रहते है। श्रेष्ठ पुरुष होते है। आर्ता देवान् नमस्यन्ति, तप: कुर्वन्ति रोगिण:। निर्धना: दानम् इच्छन्ति, वॄद्धा नारी पतिव्रता॥
संकट में लोग भगवान की प्रार्थना करते है, रोगी व्यक्ति तप करने की चेष्टा करता है। निर्धन को दान करने
की इच्छा होती है तथा वॄद्ध स्त्री पतिव्रता होती है। लोग केवल परिस्थिति के कारण अच्छे
गुण धारण करने का नाटक करते है। अर्थात यह सब झुठे है वास्तव में यह सब सत्य से दूर
होते है इसलिये ऐसा दिखावा करने वालो से यह दुनिया भरी पड़ी है और इसी की हर तरफ से
शिक्षा दि जा रही है। जिससे झुठे मानव निरंतर जन्म ले रहे है और सच्चे मानव का संहार
निरंतर हो रहा है। इस संसार में सुख पुर्वक जो जीना चाहते है तो असत्य आडम्बर झुठ के
मार्ग से ही संभव है। सत्य का मार्ग और ज्ञान का मार्ग तो संसार का संहार करने वाला
है। जो इसका बनाने वाला नहीं चाहता है। भविष्य में ऐसा संभव है कि हम अपना स्वयं का
ब्रह्माण्ड बना पाये जहाँ सब कुछ सत्य और ज्ञान पूर्ण हो जहाँ असत्य और अज्ञान को ठहरने
के लिए कोई स्थान ना हो। जिस प्रकार से फ़िल्मी अभिनेता और अभिनेत्री हमें दूर से देखने
से अच्छे लगते है ऐसे ही यह दुनिया जितनी झुठी, अज्ञान और असत्य को धारण करती है उतनी ही आकर्षण लगती है। जिसके
कारण ही सरल हृदय मंद बुद्धि पुरुष, बच्चे और औरते
इसके संमोहन के शिकार होते है। जैसा कि श्लोक कहता है। दूरस्था: पर्वता: रम्या: वेश्या:
च मुखमण्डने। युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरत:॥
पहाड़ दूर से बहुत अच्छे दिखते है। मुख विभुषित
करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है। युद्ध की कहानिया सुनने को बहुत अच्छी लगती
है। ये तिनो चिजे पर्याप्त अंतर रखने से ही अच्छी लगती है।
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा:॥ सत्य मेरी माता, ज्ञान मेरे पिता, धर्म मेरा बन्धु, दया मेरा सखा, शान्ति मेरी पत्नी तथा क्षमा मेरा पुत्र है। यह सब मेरे रिश्तेदार
है। जो व्यक्ती इस मार्ग पर चलता है उसका अपने संसार में कोई नहींं रहता है वह अकेला
ही रहता है उसके लिये उसका ज्ञान और सत्य ही सब कुछ है भले हि उसके लिये उसको अपनी
शरीर रूपी संसार से संधिवीच्छेद करना पड़े वह सहर्ष स्विकार करता है। न मर्षयन्ति चात्मानं
संभावयितुमात्मना। अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम्॥ शूर जनों को अपने
मुख से अपनी प्राशंसा करना सहन नहीं होता।
वे वाणी के द्वारा प्रादर्शन न करके दुष्कर कर्म
ही करते है। चलन्तु गिरय: कामं युगान्तपवनाहता:। कॄच्छे्रपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं
मन:॥ युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें परन्तु धैर्यवान् पुरूषों
के निश्चल) दय किसी भी संकट में नहीं डगमगाते।
यहाँ हम अपने समाज में यह प्रायः देखते है कि हर
आदमी असमर्थ क्यों है? अभी हमारे एक लेख पर एक
महोदया ने कहाँ कि आप अपनी वर्तनि को सुधारें जिससे शब्दों को समझने में आसानी होगी।
इसमें दो बातें उभर कर आ रही है। पहली बात कि जिसने भी यह लिखा है कि वर्तनि को सुधारें, चलिये हम मान लेते है। कि वर्तनि में कुछ गल्तियाँ अवश्य होगी, इसमें शब्दों को समझने में कहाँ से समस्या आने लगी। जो कह रही है कि शब्दों को समझने में आसानि होगी। अर्थात उनके
कहने का मतलब है कि उनको शब्दों को समझने में कठिनाई हो रही है। इसका मतलब यह भी निकलता
है कि उनके पास शब्द ज्ञान नहीं है। हमारा उद्देश्य यहाँ पर यह नहीं है। कि हम शब्दों
का ज्ञान दे और वह शब्द समझने में आसान हो, यद्यपि हमारा उद्देश्य है कि मुझे जो समझ में आता है जिसको मैने
अनुभव किया है। उसको मैं बाटता हूं। यह तो उसी प्रकार से हो गया कि जैसे एक आदमी प्यासा
है, और उसको पिने के लिये पानी दिया जाता है जो कुयें से निकाला गया है। और प्यासा
आदमी कहता है मुझे तुम शुद्ध पानी रिफाइन किया हुआ दो। जिससे मुझे ज़्यादा सुख मिलेगा, क्योंकि यह पानी पंचने में दिक्कत दे रहा है? इसका मतलब यह हुआ कि आदमी का पाचन तंत्र कमजोर है। वह प्राकृतिक
चिजों को पचाने का सामर्थ नहीं रखता है। उसे कृतिम चिजे पंचाने में ज़्यादा सुबिधा जनक
प्रतित होती है। इसका मतलब यह भी हुआ कि यह आदमी नकली है। इससे यह ज्ञात होता है कि
सरलता कि तरफ लोगों का झुकाव अत्यधिक हो चुका है। जिससे उनको थोड़ा भी कठिन विषय समझने
में दिक्कत आने लगती है। इस तरह से आदमी अपनी असमर्थता को व्यक्त कर रहा है? जिसें मैं आसानी से समझ सकता हूँ। इस दुनिया में कोई भी कार्य
आसान कहाँ है? हर कार्य बहुत कठिन और मुस्किल है, आप जिस कार्य को आसान समझते है। उसको एक बार करके देखें, तो आपकों यह बखुबी ज्ञान हो जायेगा
कि जिस कार्य को हम आसान समझते थे। वह कार्य बहुत कठिन और दुसाध्य है। क्योंकि हर कार्य
का जो चरमोंत्कर्ष है। वहाँ पर उस विषय का एक विशेषज्ञ पहले से विद्यमान है, जिसके पास सारकारी प्रमाण पत्र भी होता है। जो किसी दूसरे के
कार्य को ग़लत या उसमें त्रुटि निकालने के लिये तैयार है। इस तरह से हम किस भी कार्य
को यह नहीं कह सकते है। कि वह पूर्ण रूपेण शुद्ध और ठीक है। जो सबके लिये आसान और फायदे
मंद ही होगा। इसका हमारे पास कोई गारंटी नहीं है। कोई भी कार्य किसी के लिये फायदेमंद
होता है और उसे अच्छा लगता है और वह करता है और वहीं कार्य किसी दूसरे को बुरा लगता
है। जिससे उसको नुकसान समझ में आता है। जिस प्रकार से हम अपने समाज में देख सकते है।
कि हमारी सरकारें हर तरफ से यह प्रयाश करती है। कि लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा जागरुक
किया जाये जो नशिली वस्तुयें है, जिससे लोगों का
स्वास्थ्य खराब होता है, जिसके कारण लोग
बीमार होते है और अपना बहुत मेहनत से कमाये हुए धन को अपने स्वास्थ्य के लिये खर्च
करते है। जिसमें से अधिकतर लोग मृत्यु के शिकार होते है, जिसका कारण सिगरेट, बिड़ी, गुटका, तम्बाकु, उत्पाद के अतिरिक्त, गाजां, भांग अफिम, शराब, स्मैक, ब्राउनसुगर, का अत्यधिक उपयोग
है। लोग यह जानते है कि यह नुकसान दायक है, फिर भी लोग खुब इसका उपयोग करते है। इसमें दो बातें है पहली
बात कि लोग कमजोर हैं उनकी इन्द्रिया कमजोर है वह सब लाचार बेवश और असमर्थ है। दूसरी
बात यह कि उनको कमजोर निरंतर बनाया जा रहा है। जिससे उनका भरपुर शोषड़ हो सके जिसको
बेचने के लिये बहुत बड़े-बड़े अभिनेता और व्यापारी लगे है। उसका दिन रात प्रचार करके
जो बेकार और जहर के समान वस्तु है। उसको भी अमृत बता कर बेचा जा रहा है। जिससे वह सब
लोग बहुत चाह कर भी स्वयं को इस लत से मुक्त नहीं रख सकते है। दूसरा कारण है जो व्यक्ति
इस व्यापार में लगे है। वह कभी भी नहीं चाहते है कि उनका यह व्यापार किसी भी सर्त पर
कभी भी बन्द हो। क्योंकि इससे उन सब को बहुत अधिक फायदा होता है? जिसमे सरकार को भी फायदा होता है, जिससे सरकार भी यह नहीं चाहती कि यह सब बाज़ार में बिकना बन्द
हो। इसी तरह और भी बहुत सि वस्तुये है जो समाज के लिये बहुत अधिक हानिकारक है। जो समाज
का सर्वनाश कर रही है। हर तरफ से, जैसे आज हमारे
समाज में हर वस्तु में मिलावट हो रही है। ना पानी शुद्ध मिल रहा है ना हि दुध ही शुद्ध
मिल रहा है। जो पानी शुद्ध पानी के रूप में बाज़ार बेचा जा रहा है वह नुकसान दायक सिद्ध
हो रहा है। दुध के नाम पर पाउडर और पानी बेचा जा रहा है। सब्जीयों में, अनाज में, दवा में सब में
मिलावट हो रही है। हर क्षेत्र में आज स्मगलिंग हो रही है। दवा, के नाम पर भोजन के नाम पर, हथियार के नाम पर, नशा के नाम पर। मैं ऐसा नहीं समझता कि कोई ऐसा क्षेत्र अभी बचा है कि जिसमें अशुद्धता
नहीं हो रही है, मिलावट नहीं हो रही है। हमारे समाज
में किसी वस्तु को शुद्ध वस्तु को प्राप्त करना आज उथना ही मुस्किल है जितने मुस्किल
कार्य है मिट्टि में सोना को निकालना। यह कार्य आसान नहीं है और आज के समय में आदमी
कोई भी कार्य में सरलता चाहता है। आदमी का स्वाभाव बन गया है कि वह कठिनई से भागने
का और सरलता कि तरफ हर आदमी का झुकाव बढ़ गया है। जिस प्रकार से पहाड़ी पर चढ़ना हमेशा
कठिन होता है। उसी पहाड़ी से उतरने में बहुत सरलता होती है। पहाड़ी भी सहायता करना
चाहती है। क्योकि वह पहाड़ी नहीं चाहती है कि कोई आसानी से उसके उपर पतह करें? जो हिमालय के शिखर पर चढ़ते है उनको बहुत कठिनाईयों का समना
करना पड़ता है। लेकिन जो हिमालय के शिखर से निचे उतरते है उनको आसानी होती है। क्योंकि
हिमालय उनकी सहायता करता है उनको निचे उतरने में? जिस प्रकार से पानी को हमेशा निचे यात्रा करने में प्रकृति का
गुरुत्वाकर्षण करता है। उसी प्रकार से यह प्रकृति आग की सहायता करती उपर चढ़ने में।
इस संसार में जो उपर किसी तरह से पहुंच चुके है। वह कभी भी नहीं चाहते है कि कोई उस
स्थान पर दूबारा चढ़े जिससे उनके अहंकार को चोट पहंचती है। और वह तरह-तरह से हर प्रकार
से कठिनाईया उपस्थित करते है उपरे चढ़ने वाले के लिये। जिस प्रकार से संसार में सरकारें
और उद्योगपति, अभिनेता इत्यादि संसार में समाज का
शोषड़ करते है। क्योंकि इसमें उनके रस आता है। जैसा कि वेदों मेंआता है समानता के अधिकार
के बारे में क्या यहाँ समानता का अधिकार हम समाज में सब को उपलब्ध करा पाने में कभी
सफल हो सकते है? पतन के और भी अनंत मार्ग है जो समाज
में प्रचारित किये जा रहे है। कि इनसे कल्याण मानव का होता है। जिसकी जाल में यह भोला
भाला मानव फंस कर अपने जीवन की दुर्गति करता रहता है। वहुत कम ही मानव है जो यहाँ पर
समर्थ है यद्यपि वह भी इस समाज औऱ मानव के व्यवहार से दुःखी है इसली लिये तो कहते है
कि सर्वें विवेकिनः संसार दुःखः॥ संसार को दुःख पुर्ण बनाया गया है और यहाँ हर आदमी
को परतन्त्रता में ही सुख दिखाई देती है यह माया नहीं तो क्या है? उसे ऐसा दिखाया जाता है जिसके कारण ही आदमी कि समझ में निरंतर
अवनति हो रही है और वह कहता है कि वह विद्वान है क्योंकि उसके पास विश्वविद्यालय कि
उपाधी है जो यह सिद्ध करती है।
अभिज्ञानशाकुन्तल
संक्षिप्त कथावस्तु
महाकविकालिदासप्रणीतम् - अभिज्ञानशाकुन्तलम् `- भूमिका
वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XIII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XII.
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. X
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IX
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VIII
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. VII.
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VI
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
-or- Heaven Found by Rishi Singh Gherwal
Shakti and Shâkta
-by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),
Mahanirvana Tantra-
All- Chapter -1 Questions relating to
the Liberation of Beings
Tantra
of the Great Liberation
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
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यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10,
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कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
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वैराग्यशतकम्, योगी
भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी
व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda
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