वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
॥ अथ श्रीगोस्वामितुलसीदासकृत वैराग्यसंदीपनी ॥
दोहा
-
राम
बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर ।
ध्यान
सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसि तोर ॥ १॥
तुलसी
मिटै न मोह तम किएँ कोटि गुन ग्राम ।
हृदय
कमल फूलै नहीं बिनु रबि-कुल-रबि राम ॥ २॥
सुनत
लखत श्रुति नयन बिनु रसना बिनु रस लेत ।
बास
नासिका बिनु लहै परसै बिना निकेत ॥ ३॥
सोरठा
-
अज
अद्वैत अनाम अलख रूप-गुन-रहित जो ।
माया
पति सोई राम दास हेतु नर-तनु-धरेउ ॥ ४॥
दोहा
-
तुलसी
यह तनु खेत है मन बच कर्म किसान ।
पाप-पुन्य
द्वै बीज हैं बवै सो लवै निदान ॥ ५॥
तुलसी
यह तनु तवा है तपत सदा त्रैताप ।
सांति
होई जब सांतिपद पावै राम प्रताप ॥ ६॥
तुलसी
बेद-पुरान-मत पूरन सास्त्र बिचार ।
यह
बिराग-संदीपनी अखिल ग्यान को सार ॥ ७॥
दोहा
-
सरल
बरन भाषा सरल सरल अर्थमय मानि ।
तुलसी
सरलै संतजन ताहि परी पहिचानि ॥ ८॥
चौपाई
-
अति
सीतल अति ही सुखदाई ।
सम
दम राम भजन अधिकाई ॥
जड
जीवन कौं करै सचेता ।
जग
महँ बिचरत है एहि हेता ॥ ९॥
दोहा
-
तुलसी
ऐसे कहुँ कहूँ धन्य धरनि वह संत ।
परकाजे
परमारथी प्रीति लिये निबहंत ॥ १०॥
की
मुख पट दीन्हे रहैं जथा अर्थ भाषंत ।
तुलसी
या संसारमें सो बिचारजुत संत ॥ ११॥
बोलै
बचन बिचारि कै लीन्हें संत सुभाव ।
तुलसी
दुख दुर्बचन के पंथ देत नहिं पाँव ॥ १२॥
सत्रु
न काहू करि गनै मित्र गनै नहिं काहि ।
तुलसी
यह मत संत को बोलै समता माहि ॥ १३॥
चौपाई
-
अति
अनन्यगति इंद्री जीता ।
जाको
हरि बिनु कतहुँ न चीता ॥
मृग
तृष्णा सम जग जिय जानी ।
तुलसी
ताहि संत पहिचानी ॥ १४॥
दोहा
-
एक
भरोसो एक बल एक आस बिस्वास ।
रामरूप
स्वाती जलद चातक तुलसीदास ॥ १५॥
सो
जन जगत जहाज है जाके राग न दोष ।
तुलसी
तृष्णा त्यागि कै गहै सील संतोष ॥ १६॥
सील
गहनि सब की सहनि कहनि हीय मुख राम ।
तुलसी
रहिए एहि रहनि संत जनन को काम ॥ १७॥
निज
संगी निज सम करत दुरजन मन दुख दून ।
मलयाचल
है संतजन तुलसी दोष बिहून ॥ १८॥
कोमल
बानी संत की स्त्रवत अमृतमय आइ ।
तुलसी
ताहि कठोर मन सुनत मैन होइ जाइ ॥ १९॥
अनुभव
सुख उतपति करत भय-भ्रम धरै उठाइ ।
ऐसी
बानी संत की जो उर भेदै आइ ॥ २०॥
सीतल
बानी संत की ससिहू ते अनुमान ।
तुलसी
कोटि तपन हरै जो कोउ धारै कान ॥ २१॥
चौपाई
-
पाप
ताप सब सूल नसावै ।
मोह
अंध रबि बचन बहावै ॥
तुलसी
ऐसे सदगुन साधू ।
बेद
मध्य गुन बिदित अगाधू ॥ २२॥
दोहा
-
तन
करि मन करि बचन करि काहू दूखत नाहिं ।
तुलसी
ऐसे संतजन रामरूप जग माहिं ॥ २३॥
मुख
दीखत पातक हरै परसत कर्म बिलाहिं ।
बचन
सुनत मन मोहगत पूरुब भाग मिलाहिं ॥ २४॥
अति
कोमल अरु बिमल रुचि मानस में मल नाहिं ।
तुलसी
रत मन होइ रहै अपने साहिब माहिं ॥ २५॥
जाके
मन ते उठि गई तिल-तिल तृष्णा चाहि ।
मनसा
बाचा कर्मना तुलसी बंदत ताहि ॥ २६॥
कंचन
काँचहि सम गनै कामिनि काष्ठ पषान ।
तुलसी
ऐसे संतजन पृथ्वी ब्रह्म समान ॥ २७॥
चौपाई
-
कंचन
को मृतिका करि मानत ।
कामिनि
काष्ठ सिला पहिचानत ॥
तुलसी
भूलि गयो रस एह ।
ते
जन प्रगट राम की देहा ॥ २८॥
दोहा
-
आकिंचन
इंद्रीदमन रमन राम इक तार ।
तुलसी
ऐसे संत जन बिरले या संसार ।२९ ॥
अहंबाद
मैं तैं नहीं दुष्ट संग नहिं कोइ ।
दुख
ते दुख नहिं ऊपजै सुख तैं सुख नहिं होइ ॥ ३०॥
सम
कंचन काँचै गिनत सत्रु मित्र सम दोइ ।
तुलसी
या संसारमें कात संत जन सोई ॥ ३१॥
बिरले
बिरले पाइए माया त्यागी संत ।
तुलसी
कामी कुटिल कलि केकी केक अनंत ॥ ३२॥
मैं
तं मेट्यो मोह तम उग्यो आतमा भानु ।
संत
राज सो जानिये तुलसी या सहिदानु ॥ ३३॥
सोरठा
-
को
बरनै मुख एक तुलसी महिमा संत की ।
जिन्ह
के बिमल बिबेक सेस महेस न कहि सकत ॥ ३४॥
दोहा
-
महि
पत्री करि सिंधु मसि तरु लेखनी बनाइ ।
तुलसी
गनपत सों तदपि महिमा लिखी न जाइ ॥ ३५॥
धन्य
धन्य माता पिता धन्य पुत्र बर सोइ ।
तुलसी
जो रामहि भजे जैसेहुँ कैसेहुँ होइ ॥ ३६॥
तुलसी
जाके बदन ते धोखेहुँ निकसत राम ।
ताके
पग की पगतरी मेरे तन को चाम ॥ ३७॥
तुलसी
भगत सुपच भलौ भजै रैन दिन राम ।
ऊँचो
कुल केहि कामको जहाँ न हरिको नाम ॥ ३८॥
अति
ऊँचे भूधरनि पर भुजगन के अस्थान ।
तुलसी
अति नीचे सुखद ऊख अन्न अरु पान ॥ ३९॥
चौपाई
-
अति
अनन्य जो हरि को दासा ।
रटै
नाम निसिदिन प्रति स्वासा ॥
तुलसी
तेहि समान नहिं कोई ।
हम
नीकें देखा सब कोई ॥ ४०॥
चौपाई
-
जदपि
साधु सबही बिधि हीना ।
तद्यपि
समता के न कुलीना ॥
यह
दिन रैन नाम उच्चरै ।
वह
नित मान अगिनि महँ जरै ॥ ४१॥
दोहा
-
दास
रता एक नाम सों उभय लोक सुख त्यागि ।
तुलसी
न्यारो ह्वै रहै दहै न दुख की आगि ॥ ४२॥
रैनि
को भूषन इंदु है दिवस को भूषन भानु ।
दास
को भूषन भक्ति है भक्ति को भूषन ग्यानु ॥ ४३॥
ग्यान
को भूषन ध्यान है ध्यान को भूषन त्याग ।
त्याग
को भूषन शांतिपद तुलसी अमल अदाग ॥ ४४॥
चौपाई
-
अमल
अदाग शांतिपद सारा ।
सकल
कलेस न करत प्रहारा ॥
तुलसी
उर धारै जो कोई ।
रहै
अनंद सिंधु महँ सोई ॥ ४५॥
बिबिध
पाप संभव जो तापा ।
मिटहिं
दोष दुख दुसह कलापा ॥
परम
सांति सुख रहै समाई ।
तहँ
उतपात न बेधै आई ॥ ४६॥
तुलसी
ऐसे सीतल संता ।
सदा
रहै एहि भाँति एकंता ॥
कहा
करै खल लोग भुजंगा ।
कीन्ह्यौ
गरल-सील जो अंगा ॥ ४७॥
दोहा
-
अति
सीतल अतिही अमल सकल कामना हीन ।
तुलसी
ताहि अतीत गनि बृत्ति सांति लयलीन ॥ ४८॥
चौपाई
-
जो
कोइ कोप भरे मुख बैना ।
सन्मुख
हतै गिरा-सर पैना ॥
तुलसी
तऊ लेस रिस नाहिं ।
सो
सीतल कहिए जग माहीं ॥ ४९॥
दोहा
-
सात
दीप नव खंड लौ तीनि लोक जग माहिं ।
तुलसी
सांति समान सुख अपर दूसरो नाहीं ॥ ५०॥
चौपाई
-
जहाँ
सांति सतगुरु की दई ।
तहाँ
क्रोध की जर जरि गई ॥
सकल
काम बासना बिलानी ।
तुलसी
बहै सांति सहिदानी ॥ ५१॥
तुलसी
सुखद सांति को सागर ।
संतन
गायो करन उजागर ॥
तामें
तन मन रहै समोई ।
अहं
अगिनि नहिं दाहैं कोई ॥ ५२॥
दोहा
-
अहंकार
की अगिनि में दहत सकल संसार ।
तुलसी
बाँचै संतजन केवल सांति अधार ॥ ५३॥
महा
सांति जल परसि कै सांत भए जन जोइ ।
अहं
अगिनि ते नहिं दहैं कोटि करै जो कोइ ॥ ५४॥
तेज
होत तन तरनि को अचरज मानत लोइ ।
तुलसी
जो पानी भया बहुरि न पावक होइ ॥ ५५॥
जद्यपी
सीतल सम सुखद जगमें जीवन प्रान ।
तदपि
सांति जल जनि गनौ पावक तेल प्रमान ॥ ५६॥
चौपाई
-
जरै
बरै अरु खीझि खिझावै ।
राग
द्वेष महँ जनम गँवावै ॥
सपनेहुँ
सांति नहि उन देही ।
तुलसी
जहाँ-जहाँ ब्रत एही ॥ ५७॥
दोहा
-
सोइ
पंडित सोइ पारखी सोई संत सुजान ।
सोई
सूर सचेत सो सोई सुभट प्रमान ॥ ५८॥
सोइ
ग्यानी सोइ गुनी जन सोई दाता ध्यानि ।
तुलसी
जाके चित भई राग द्वेष की हानि ॥ ५९॥
चौपाई
-
राग
द्वेष की अगिनि बुझानी ।
काम
क्रोध बासना नसानी ॥
तुलसी
जबहि सांति गृह आई ।
तब
उरहीं उर फिरी दोहाई ॥ ६०॥
दोहा
-
फिरी
दोहाई राम की गे कामादिक भाजि ।
तुलसी
ज्यों रबि कें उदय तुरत जात तम लाजि ॥ ६१॥
यह
बिराग संदीपनी सुजन सुचित सुनि लेहु ।
अनुचित
बचन बिचारि के जस सुधारि तस देहु ॥ ६२॥
॥ इति श्रीमद्गोस्वामीतुलसीदासकृत वैराग्यसंदीपनी
संपूर्णम् ॥
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
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