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मानवीय व्यवहार का मूल:- पारस्परिक मित्रता की भावना

 



मानवीय व्यवहार का मूल:-

 पारस्परिक मित्रता की भावना

दृते दृह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याऽहं चक्षुषा सीणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥

-यजुर्वेद २६ । १८

 ऋषिः-दध्यङ् आथर्वण। देवता:-ईश्वरः । छन्दः-भूरिग् जगती।

         पदपाठ-दृते। दृह। मा। मित्रस्य। मा। चक्षुषा । सर्वाणि। भूतानि।सम्-ईक्षन्ताम्। मित्रस्य।अहम्।चक्षुषा। सर्वाणि भूतानि। सम्-ईक्षे। मित्रस्य। चक्षुषा। सम्-ईक्षामहे।

(दृते) - हे सर्वाधार, सर्वव्यापक, सर्व शक्तिमान सर्वरसपरिपूर्ण परमेश्वर!

(मा दृह) - मुझे दृढ़ कर।

(सर्वाणि भूतानि मा मित्रस्य - समस्त प्राणि-वर्ग मुझको मित्र

(चक्षुषा सम्-ईक्षन्ताम्) की दृष्टि से सम्यक् देखें।

(अहम् सर्वाणि भूतानि -मैं (स्वयं) सब प्राणियों को मित्र

मित्रस्य चक्षुषा सम्-ईक्षे) की दृष्टि से सम्यक् देखू।

(मित्रस्य चक्षुषा सम्-ईक्षामहे)-[हम सब लोग परस्पर एक दूसरे को] मित्र की दृष्टि से सम्यक देखते रहें। देखा करें।

     यह मन्त्र वेद के उन अनेक मन्त्रों में से एक है, जिनको 'मानवधर्म' का मूलाधार कहा जा सकता है। प्यार पाना और प्यार देना, हर प्राणी का अधिकार भी है, और कर्त्तव्य भी। मानवाधिकारों का सिलसिला 'मानव-धर्म' के मूलभूत आदर्शों से शुरू होता है।

        मन्त्र का पहला भाग प्रत्येक प्राणी की उस आकांक्षा को व्यक्त करता है, जिसमें कामना है-(सर्वाणि भूतानि मा मित्रस्य चक्षुषा समीक्षन्ताम्) समस्त प्राणी-वर्ग मुझको मित्र की दृष्टि से सम्यक देखे। हर कोई चाहता है, कि कोई भी उसको बुरी नजर से न देखे। प्रत्येक मनुष्य की यह कामना होती है, कि कोई भी उसको टेढ़ी, क्रूर, क्रोधित, लोलुप, आक्रामक, हिंसक, दुष्ट, संदिग्ध, संशकित, कुपित, तथा भयावह आँखों से न देखे। दूसरे के नेत्रों में करुणा, दया, मैत्री और प्रेम छलकता हो, यह सभी चाहते हैं। यहाँ तक कि विषैले जीव-जन्तुओं, 'हिंसक वन्य पशुओं तथा घोर शत्रुओं से भी इस मनुष्य की अपेक्षा यही रहती है, कि वे उसको न तो लेशमात्र भयभीत करें, न छेड़ें; एकदम उसके प्रति निःस्पृहता का व्यवहार करें।

      कितनी बड़ी विडम्बना है, कि अपने प्रति इस प्रकार की चाहतों और अपेक्षाओं को रखते हुये भी, दूसरों के प्रति, यह मनुष्य यह समझता है, कि वह पूर्णतया स्वतन्त्र है। दूसरों को वह जैसे चाहे, वैसी नज़र से देख सकता है। उसकी मरज़ी है, कि जिसको वह चाहे,-लोलुप, कामुक, क्रोधित, हिंसक, दुष्ट, संशकित तथा कुपित नज़रों से देखे; मानो, अच्छी/बुरी नज़र से दूसरों को देखना उसका मौलिक अधिकार हो। और तो और, शान्त और अपने में मस्त पशुपक्षियों को छेड़ना, उनको डराना, तंग करना, मारना तथा पीड़ित करना यह अपना अधिकार समझता है। विपक्षी अथवा शत्रु को देख कर इस मनुष्य की आँखें अंगारे बरसाने लगती है। अवसर मिल जाने पर विरोधियों और शत्रुओं को जैसे चाहे, जब चाहे, पीड़ा देना, मार देना या मिटा देना, यह अपना अधिकार समझता है। अपने के अतिरिक्त दूसरों के लिये इसकी उक्ति है, कि "मुहब्बत और जंग में सब कुछ जायज़ है।" कैसी विचित्र, किन्तु सत्य है यह विडम्बना, जिसका अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता रहता है, सृष्टि का यह अनमोल प्राणी, जिसकी संज्ञा है "मानव"

       हममें से प्रत्येक को प्रस्तुत वेद-मन्त्र के माध्यम से अच्छी तरह से समझ लेना होगा, कि जब तक हम इस प्रकार के दोहरे मापदण्ड (अपने लिये एक प्रकार के, और अन्यों के लिये दूसरे प्रकार के) अपनाते रहेंगे, हम किसी के लिये प्राणी द्वारा मित्र की दृष्टि से कभी नहीं देखे जायेंगे। पृथ्वी के समस्त प्राणी मुझको मित्र की दृष्टि से देखें, इसके लिये यह जरूरी है, कि मुझमें वे सब पात्रतायें हों, जो प्रत्येक प्राणी को मुझसे अपेक्षित हैं। इसके लिये सबसे पहले मुझे अपना आत्मनिरीक्षण स्वयं करना होगा, और उसके पश्चात अपने गुण, कर्म और स्वभाव को ऐसा ढालना होगा, जिससे मैं अन्यों द्वारा मित्र की दृष्टि से देखा जाऊँ। खाली कामना करने से कि 'सर्वाणि भूतानि मा मित्रस्य चक्षुषा समीक्षन्ताम' से काम नहीं चलने वाला। कामना के अनुरूप साधना एवं पुरुषार्थ दोनों ज़रूरी हैं । यथा कामना तथा साधना।

      इससे पूर्व की हम मन्त्र के शब्दों पर आगे विचार करें, दो शब्दों को समझ लेना बहुत ज़रूरी है। एक शब्द है, 'मित्र'। दूसरा है 'समीक्षा'

___ 'त्रिमिदा स्नेहने' इस धातु से औणादिक 'क्त्र' प्रत्यय के होने से 'मित्र' शब्द सिद्ध होता है। 'मेद्यति स्त्रिाति स्त्रिाते वा सः मित्रः' जो सबसे स्नेह करने और सबको प्रीति करने योग्य है, उसका नाम मित्र है। इस प्रकार जो सुहृद, स्नेही, हितैषी, उपकारक सखा है, उसका नाम 'मित्र' है। कहते हैं, सख्यता समान ख्याति वाले के साथ होती है। दोस्ती हम-जिन्स के साथ होती है।

'कुनद हम-जिन्स वा हम-जिन्स परवाज़।

कबूतर वा कबूतर, बाज़ वा बाज़॥'

      अर्थात् सजात पक्षी सजात के साथ उड़ता है; कबूतर कबूतर के साथ, बाज़ बाज़ के साथ। पर मनुष्यों में मित्रता के बारें में मनु महाराज का कथन है-

धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च।

अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघु मित्रं प्रशस्यते॥-मनुस्मृति ७ । २०९

     'धर्म को जानने वाला और किये हुये उपकार को सदा मानने वाला, संतुष्ट-प्रकृति वाला, अनुरागी तथा स्थिरारम्भी (आरम्भ से ही दृढ़व्रती) छोटे मित्र को प्राप्त होकर भी प्रशंसित होता है।' इस प्रकार मित्रता केवल बराबर बालों में ही होती हो, ऐसी बात नहीं। मित्रता बड़े और छोटे, लघु और महान सबमें हो सकती है, बशर्ते कि मित्रता के मूलभूत गुणों से हम युक्त हों।

         कौन से वे गुण हैं, जिनके आश्रय से हम दूसरों की मित्रता के पात्र हो सकते हैं, अर्थात् हम यह अपेक्षा कर सकते हैं, कि संसार के समस्त प्राणी हमें मित्र की दृष्टि से देखें? संक्षेप में इनको इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

 (१) धर्मज्ञता-अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय शुचिता, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य, तथा अक्रोध यह जो धर्म के दस लक्षण कहे गये हैं, उनसे युक्त होना। इन लक्षणों के विपरीत, अर्थात् अधर्मज्ञ होने से हम मित्रता के योग्य ही नहीं रहते।

(२) कृतज्ञता-अर्थात् दूसरों के किये गये उपकारों के प्रति सदैव कृतज्ञता मन, वचन, कर्म से प्रगट करना । कृतघन्ता मित्रता की सबसे बड़ी कैंची है।

(३) सेवा तथा सहायता के लिये तत्परता-मित्र वही है, जो आवश्यकता पड़ने पर सेवा तथा सहायता द्वारा दूसरों के काम आये। दूसरे तभी हमें मित्र की दृष्टि से देखेंगे जब हम ज़रूरत के वक्त उनके काम आयें।

(४) होठों पर मुस्कान, दृष्टि में प्यार, और हृदय में सद्भावना-अपने अधरों पर यदि मुस्कान बनी रहती हो, आँखों से प्यार टपकता हो और हृदय में सबके लिये सद्भावना हो, तो बरबस दूसरे भी हमारी और मित्रता की दृष्टि से आकर्षित होंगे ही।

(५) आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्- अर्थात् जो कुछ भी हमारी अपनी आत्मा के अनुकूल न हो, वह सब कुछ मन, वचन, कर्म से दूसरों के प्रति भी व्यवहृत हम न करें। जो व्यवहार हम अपने लिये पसन्द नहीं करते, वही व्यवहार दूसरों के प्रति भी हम न करें। तभी हम दूसरों की मित्रता के पात्र बन सकेंगे। दूसरा महत्वपूर्ण शब्द है-'समीक्षा'। मन्त्र में यह तीन रूपों में आया है- 'समीक्षन्ताम', 'समीक्षे', 'समीक्षामहे' समीक्षा का अर्थ केवल सम्यक् देखना ही नहीं है, वरन मीमांसा करना भी है। मित्र की हाँ में हाँ भरे जाना सच्ची मित्रता की कसौटी नहीं है। कसौटी है मित्रता की रक्षा हेतु देख-भाल कर मित्र को भले-बुरे का ज्ञान कराना; मित्र का सही मार्ग-दर्शन करना; मित्र के अच्छे कार्यों के लिये उसकी भरपूर प्रशंसा कर उसको उत्साहित बनाये रखना. तथा मित्र की त्रुटियों या कमियों को देखकर उसको उचित परामर्श के द्वारा सही रास्ते पर इस प्रकार ले आना, कि वह किंचित भी लज्जित या अपमानित महसूस न करें। अच्छे साहित्य के सृजन तथा प्रसार में जो भूमिका एक समीक्षक की होती है, मानवीय व्यवहार के क्षेत्र में वही भूमिका एक मित्र की होनी चाहिये। लक्ष्य बस एक ही होना चाहिये, कि मित्र का हित हो, अहित न हो। इसी में मित्रता की लाज है।

             इस दृष्टि से विचार करें, तो अनुभव होता है कि कितनी उदात्त भावना है मन्त्र के इस भाग में सर्वाणि भूतानि मा मित्रस्य चक्षुषा समीक्षन्ताम् भूतल के समस्त प्राणी मुझे मित्र (हितेच्छु, पथ-प्रदर्शक एवं सुहृद-समीक्षक) की दृष्टि से मेरे हित-सम्पादन हेतु देखें, जांचपड़ताल करें, मेरे क्रिया-कलापों का अध्ययन करें, मेरा मार्ग-दर्शन करें। मेरे लिये इससे बढ़कर और सौभाग्य की बात क्या हो सकती है, कि संसार के समस्त प्राणियों की रूचि मुझमें हो, मेरी आत्मोन्नति या आत्म विकास में हो। इसी भाव को अथर्ववेद में यों व्यक्त किया गया है- 'यस्मै च कामयामहे सर्वस्मै च विपश्यते' (अथर्व० १९ । ३२।८) जिसके लिये हमारी कामना है, हम चाहते हैं, उसके तथा समस्त देखने वाले प्राणियों के लिये हमें प्रिय कर। 'प्रियं सर्वस्य पश्यत' (अथर्व० १९ । ६२।१) समस्त देखने वालों का [मुझे] प्रिय कर। समस्त प्राणियों का मैं प्रिय बनें, सब मुझे मित्र की दृष्टि से देखें, तो मुझे स्वयं क्या करना होगा? इसका भी उत्तर मन्त्र ने दिया- (अहम् सर्वाणि भूतानि मित्रस्य चक्षुषा समीक्षे) मैं [स्वयं भी] समस्त प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखू। यह तभी सम्भव है, जब हम निम्न विधाओं को अपनायें।

(१) अकारण ही किसी के बारे में पहले से ही कोई ग़लत धारणा न बनायें। सुनी-सुनायी बातों पर बिना समीक्षा किये यदि हम विश्वास कर लेंगे, तो किसी को भी मित्र की दृष्टि से नहीं देख पायेंगे।

(२) किसी से मिलें तो मधुरता से। बिछुड़ें तो मधुरता से। बोलें तो मधुरता से। कटुता से मित्रता नहीं प्राप्त की जा सकती। वेद का निर्देश है-

मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।

वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधु संदृशः॥

-अथर्व०१।३४।३

     मधुर हो मेरा मिलन। मधुर हो मेरा परायण। वाणी से बोलूं मधुर। हो जाऊँ मधु-सम मधुर। मित्र की दृष्टि के लिये मधुरता परम आवश्यक है।

(३) दूसरों में रुचि लें; बनावटी नहीं, वास्तविक । अपने आपको योग्य सेवा के लिये प्रस्तुत करने में संकोच न करें।

(४) कोई कितनी भी क्षुद्र, अकिंचन, छोटा और वैभवहीन क्यों न हो, हम उसको मानवीय आधार पर यही अनुभव करायें कि हमारे लिये उसका अपना महत्व है। प्रत्येक को अपनी इज्जत प्यारी होती है । मित्र की दृष्टि से देखने के लिये हमें प्रत्येक व्यक्ति को वह इज्जत देनी ही चाहिये, जिसका वह हकदार है।

(५) मित्र की दृष्टि से देखने के लिये यह ज़रूरी है कि हम एक अच्छे सुनने वाले हों। दूसरों को अधिक से अधिक उनके अपने बारे में कहने तथा बोलने का मौका दें, और जो कुछ अन्य अपने विषय में कहें, उसको हम ध्यान से सुनें। ठीक से सुन लेने से हम दूसरों का दुःख-दर्द काफ़ी हद तक बाँट कर मित्रता का आधार सुदृढ़ कर लेते हैं।

(६) मर्यादित तथा अवसरोचित सलाह, सहायता तथा सेवा प्रदान करने को तत्पर रहें। जरूरत के वक्त यदि हम किसी के काम किसी अच्छे उद्देश्य के लिये आ सकते हैं, तो ज़रूर आवें। मित्रता की परख इसी में है।

(७) अच्छे कार्यों तथा उनके कुशलता के सम्पादन के लिये दूसरों की निष्कपटता तथा पूर्ण सद्भाव से खुलकर प्रशंसा करें। दूसरों में कमियाँ नहीं, गुणों को देखने की आदत डालें और यह एहसास दूसरों को पूरी इमानदारी और नेकनीयती से करायें कि हम उनके इन गुणों की हार्दिक क़द्र करते हैं।

(८) चाटुकारिता, तेल-मालिश तथा चिकनी-चुपड़ी बातें एवं अतिरंजित अथवा अतिशयोक्तिक प्रशंसा करने से बचें। सच्ची मित्रता की दृष्टि से इनका कोई महत्व नहीं। हमें मित्र की दृष्टि से प्रत्येक को देखना है; एक खुशामदी, चापलूस, चाटुकार तथा पराश्रयी की दृष्टि से नहीं।

(९) जो व्यवहार हम अपने लिये पसन्द नहीं करते हैं, वैसा ही व्यवहार हम दूसरों के प्रति न करें। यह कुछ बाते हैं, जिनको अपनाने से प्रत्यके को मित्र की दृष्टि से देखने की हमारी प्रवृत्ति हो जाती है।

     अगली बात जो मन्त्र में आयी, और जो समस्त मानवीय व्यवहार का मूल है, वह है (वयं) मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे हम सब लोग एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें। हमारा सामान्य पारस्परिक व्यवहार मित्रता का हो। हम सब मनुष्य होने के नाते सामाजिक प्राणी हैं। प्रत्येक प्राणी अपनी सामान्य सी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दूसरों पर निर्भर है और दूसरे हम पर। सारा सृष्टि-क्रम परस्परतन्त्रता (INTERDEPENDENCE) के सिद्धान्त पर आधारित है। हमारी अल्पज्ञता और अपूर्णता ही हमें बाधित करती हैं, कि हम अन्य प्राणियों तथा शक्तियों का आश्रय लें। हमारी स्वतन्त्रता केवल कर्म करने की है; परन्तु हममें से कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह सारे के सारे कर्म अकेले बिना किसी की सहायता के कर सकता है। इसी प्रकार व्यक्तिगत नियमों तथा उनके पालन में हम स्वाधीन हो सकते हैं, परन्तु सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियमों के पालन में पराधीन होना ही पड़ता है। इस प्रकार समूचे मानव समाज का तन्त्र न तो पूर्णतया स्वतन्त्र है, और न ही परतन्त्र होने के लिये है। यह है ही परस्परतन्त्रता पर आधारित। यह बात पिण्ड में भी है, और ब्रह्माण्ड में भी। हम अपने शरीर को ही लें। हमारे शरीर के सब अंग एक दूसरे पर आधारित हैं। मैं हाथ से लिख रहा हूँ, परन्तु यह लेखन तभी सम्भव है, जब मेरी आँखें, मेरा मन तथा मस्तिष्क सहयोग करें। यही स्थिति मानव समाज की है। जब तक परस्पर सह-अस्तित्व की भावना नहीं होगी, कोई भी कार्य का निष्पादन सम्भव नहीं है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के बिना न रह सकता है, न जीवन-यापन कर सकता है। अतः पारस्परिक मित्रता के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। यदि हम परस्पर एक दूसरे के मित्र नहीं होंगे, तो क्या एक दूसरे के शत्रु होकर रह सकेंगे? शत्रुता से तो अशान्ति ही अशान्ति होगी। दुःख ही दुःख उपजेंगे। यदि सूख और शान्ति चाहिये तो परस्पर हम सबको एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखना ही होगा। इस विषय में महात्मा विदुर ने क्या खूब कहा है-

एव मनुष्यमप्येक गुणैरपि समन्वितम्।

शक्यं द्विषन्तो मन्यन्ते वायु ममिवैकजम्॥ अन्योऽन्यसमुपष्टम्भादन्योन्यापाश्रयेण च।

ज्ञातयं सम्प्रवर्धन्ते सरसीवोत्पलान्युत ॥

-विदुर नीति ४।६४-६५

      "अनेक गुणों से युक्त होने पर भी अकेले मनुष्य को द्वेषी उसी प्रकार नष्ट करने योग्य समझते हैं, जैसे अकेले खड़े हुये दृढमूल वृक्ष को वायु का तेज़ झोंका गिरा देता है; परन्तु एक-दूसरे के आश्रय और सहयोग से सम्बन्धी-जन ऐसे वृद्धि को प्राप्त होते हैं जैसे सरोवर में कमल"।

यः कश्चिदष्यसम्बद्धो मित्र भावेन वर्तते।

स एव बन्धुस्तन्मित्रं स गतिस्तत्परायणम्॥

-विदुर नीति ४।३८

        "किसी प्रकार का रिश्ता न होते हुये भी जो व्यक्ति मित्र भाव से वर्तता है, वही वास्तव में बन्धु है, मित्र है, वही आश्रय और वही सहारा होता है।"

        पारस्परिक मित्रता को कैसे विकसित किया जाये, कैसे अधिकाधिक लोगों को प्रभावित कर उनको मित्रता प्राप्त की जाये इसके भी कुछ विशेषक हैं, जैसे-

(१) पारस्परिक एक दूसरे पर विश्वास।

(२) परस्पर एक दूसरे की भावनाओं का आदर एवं सम्मान।

(३) अपनी गलती को, यदि वह ग़लती है, बिना झिझक एवं संकोच के साथ शीघ्र ही स्वीकार कर लेना।

(४) व्यर्थ की शिकायतों, छिद्रान्वेषण, निन्दा, उलाहना तथा व्यंगों का यथा-सम्भव आश्रय न लेना।

(५) अपने कथन से मुकरना नहीं, किन्तु कहे हुये को सत्य करके दिखा देना।

(६) परस्पर एक दूसरे को उत्साहित एवं प्रेरित करना, उदात्त भावनाओं को बढ़ावा देना तथा संकट में एक दूसरे की सहृदयता से सहायता करना।

(७) सैद्धान्तिक आलोचना करते समय (जो प्रायः ज़रूरी हो जाती है) यह सुनिश्चित कर लेना कि जिन सिद्धान्तों और नियमों को हम मनवाना चाहते हैं, उनका हम स्वयं भी पालन करने वाले हों। सैद्धान्तिक विषयों में, वाणी की तुलना में, जिसका जीवन स्वयं बोलता हो, वह दूसरों पर अधिक प्रभावी होता है।

(८) पारस्परिक मित्रता में स्वार्थ और अहङ्कार का कोई स्थान नहीं। पारस्परिक सहयोग, सह-अस्तित्व और एक दूसरे के हित के ध्यान रखने की भावना ही मित्रता में सर्वोपरि मनुष्य जब स्वार्थी हो जाता है, तभी आपस का स्नेह, स्निग्धता, सौहाद्रता और प्यार ख़त्म हो जाता है इससे बचने के लिये आवश्यकता होती है, स्थिरता और दृढ़ता की । इसीलिये मन्त्र के आरम्भ में ही प्रार्थना है- (दुते, मां दृश्रह) हे सर्वाधार परमेश्वर ! मुझे दृढ़ कर। दृति, जिससे 'दृते' बना है, चमड़े का वह थैला होता है, जिसको आधार बनाकर नये तैराक तैरने का अभ्यास करते हैं । तरल पदार्थ, जैसे तैल आदि रखने के लिये भी कहीं-कहीं इस प्रकार के थैलों का प्रयोग होता है। अतः 'दृते' में मूल भावना है आधार की, जिससे तरल पदार्थ सुरक्षित रहे, अथवा जो प्रयोगी को सुरक्षा प्रदान कर सके। प्रेम के मामले में वह प्रेममय प्रभु ही सबका आधार है। व्यापक और नित्य भी वही प्रभु है । अत्यन्त श्रेष्ठ और वरणीय एवं इस आत्मा का युज्य सखा होने के कारण वही प्रभु 'वरुण' और 'मित्र' है। सर्व-व्यापक होने के कारण वही प्रभु मुझमें, तुझमें और सबमें समाया हुआ है। जब यह एहसास मनुष्य को होता है, तो समस्त प्राणी मित्र दीखते हैं, कोई भी पराया नहीं रह जाता। इसीलिये मन्त्र में कहा कि हे सर्वव्यापक सर्वाधार, सर्वरक्षक परमेश्वर ! मुझको दृढ़ बना । मेरी मित्र-भावना और मित्रता में स्थिरता एवं दृढ़ता ला।

       वस्तुत: संसार में उससे बढ़कर सुखी कोई नहीं, जिसके सब मित्र हों, शत्रु कोई नहीं; परमात्मा जिसका परम सखा हो, और जीवन में (सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु) अथर्व०९।१५।६) समस्त आशायें जिसकी मित्र हों। सर्वाणि भूतानि, अर्थात् प्राणीमात्र के साथ जिसकी मित्रता हो। मैं सबको मित्र की दृष्टि से देखता होऊं, और सब मुझे मित्र की दृष्टि से सम्यक् देखते हों। हमारा आपस का व्यवहार समान मित्रता पर आधारित हो, जिसमें ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, स्पृश्य और अस्पृश्य जैसी कोई बात न हो। ठीक ही कहा गया-

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवाव धार्यताम्।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥

      'धर्म का सर्वस्व (सार) सुनो। सुनकर धारण करो। अपनी आत्मा के प्रतिकूल व्यवहार किसी से न करो।' मित्रता की दृष्टि से देखने और देखे जाने का सार इसी में है।

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