मृत्यु के बन्धन से मुक्ति,
अमृत से नहीं
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
-ऋग्वेद ७।५९ । १२
ऋषिः-वसिष्ठ। देवताः-रुद्रः।
छन्दः-अनुष्टप। स्वर:-गान्धारः।
पदपाठ-त्रि-अम्बकम्।यजामहे।
सु-गन्धिम्।पुष्टि-वर्धनम्। उर्वारुकम्। इव । बन्धनात्। मृत्योः । मुक्षीय। मा।
अमृतात्॥
(त्र्यम्बकम्
यजामहे
-सुगिन्धयुक्त, पुष्टिवर्धक त्रि-अम्बक
सुगन्धिम् पुष्टि-वर्धनम्) परमेश्वर का (हम) यजन करते हैं। (उर्वारुकम् इव - उर्वारुक के समान (मैं) मृत्यु
के
बन्धनात् मृत्योः मुक्षीय) बन्धनों से मुक्त हो जाऊँ,
(मा अमृतात्)
- अमृत से नहीं।
यों तो वेद के सभी मन्त्र अत्यन्त
महत्वपूर्ण हैं, परन्तु गायत्री मन्त्र के पश्चात जितनी प्रसिद्धि इस 'महामृत्युञ्जय मन्त्र' को मिली है, उतनी अन्यों को नहीं। और शायद यही
कारण है कि जितनी मिट्टी पलीद इस मन्त्र की हुई है, उतनी किसी अन्य मन्त्र की नहीं। कोई इस मन्त्र से किसी
शारीरिक रोग या कष्ट का शमन चाहता है, ताकि मृत्यु उसके पास न आवे। कोई इस मन्त्र से अपने किसी
प्रिय मरणासन्न व्यक्ति का त्राण चाहता है, ताकि मृत्यु को जितना हो सके टाला जा सके। कुछ एक पुरोहितों, पण्डितों और ज्योतिषीयों का यह 'महामृत्युञ्जय मन्त्र' रोजी-रोटी का साधन है, जिसका अनुष्ठान वे अपने यजमानों को ग्रहों, उपग्रहों के कोप से बचाने के लिये
भरपूर दान दक्षिणा के बदले करते हैं।
तान्त्रिकों में भी 'महामृत्युञ्जय मन्त्र' का अनुष्ठान प्रचलित है सिद्धियों को सिद्ध करने तथा अपने
आपको 'मृत्युञ्जयी' प्रदर्शित करने के लिये। अपने
भक्तों को भी तन्त्र के मायाजाल में फंसा कर वे इस मन्त्र का अनुष्ठान करवाते हैं, ताकि उनके भक्तों को कोई हानि न
पहुँचे, वे निष्कंटक हो जायें।।
इससे पूर्व कि हम मन्त्र के अर्थों
पर विचार करें, हमें यह अच्छी तरह से समझना होगा, कि 'वेद' कोई जादू-टोने या चमत्कार के
ग्रन्थ नहीं । वेद तो जीवन-ग्रन्थ हैं। उनमें है, निर्भ्रान्त सत्य ज्ञान, जो परमात्मा की ओर से मनुष्यों को मिला है, जीवन को सफ़ल और सार्थक बना कर, उस परमानन्द की प्राप्ति के लिये, जिस आनन्द की युगों-युगों से
देहधारी आत्माओं को तलाश है। वेद तो उन सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, जिनका जानना समझना और व्यवहृत करना
सब मनुष्यों को हितकर है और जिनका आदिमूल परमेश्वर है।
प्रस्तुत मन्त्र में वह 'साधना विज्ञान' भरा पड़ा है, जिसको जीवन-पर्यन्त करने से मनुष्य, जैसा कि मन्त्र के शब्दार्थ से
स्पष्ट है, 'मृत्यु के बन्धन से मुक्त और अमृत
से युक्त हो जाता है'। मन्त्र में मुक्ति की कामना है, परन्तु 'मृत्यु' से नहीं, अपितु 'मृत्यु के बन्धनों से'। सामान्य रूप से भी, जिसे लोग मृत्यु कहते हैं, उसका परिणाम दुःख नहीं, क्योंकि वह तो चिर-शान्ति है। दःख, भय, क्लेश,
पीडा, जो भी मनुष्य भोगता है, वह तो जीते जी भोगता है। मर गया तो
कहाँ का दुःख, कैसी पीड़ा, कौन सा भय? तो जीते जी, न चाहते हुये भी, जो दुःख, भय, क्लेश,
पीड़ा, कष्ट आदि भोगने पड़ते हैं, वे ही हैं 'मृत्यु के बन्धन'; जिनसे मुक्ति की मन्त्र में बड़ी
प्रबल याचना की गई है। मन्त्र को यदि सही रूप में समझना
है, तो तीन शब्दों को पहले ठीक-ठीक
समझना होगा। यह हैं-(१) मृत्युः (२) मृत्योः बन्धनात (मृत्यु के बन्धन), और (३) अमृत।
मृत्यु का एक दृष्टि से अर्थ है- मृत्+युः अर्थात् 'मिट्टी का खेल'। मिट्टी को आकार देना और फिर उसका
मिट्टी में ही मिल जाना। कुम्हार मिट्टी से बरतन, खिलौने,
मूर्तियाँ
आदि बनाता है, कुछ कच्चे टूट जाते हैं, कुछ पकने के दौरान टूट जाते हैं, कुछ अधपके टूट जाते हैं, कुछ पकने के बाद कुछ दिनों तक रहते
हैं, पर आखिर एक दिन मिट्टी के होने के
कारण टूट ही जाते हैं। बनने बिगड़ने-टूटने का यह सिलसिला चलता रहता है, परन्तु फिर भी कुम्हार का
मृत्तिका-शिल्प चलता रहता है,
और
चलता रहेगा जब तक मिट्टी के बरतन,
खिलौने
और मूर्तियों आदि की माँग (अर्थात् उनकी आवश्यकता) रहेगी। हर एक समझदार व्यक्ति
इससे सहमत होगा, कि मिट्टी के बरतन
बनते-बिगड़ते-टूटते रहें, तो कोई बात नहीं, परन्तु 'मृत्कला' और 'मृत्तिका-शिल्प' नहीं समाप्त होने चाहिये, इनका बना रहना समय की आवश्यकताओं
के अनुसार ज़रूरी है।
अब ज़रा आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें।
अपने पर नजर डालें। 'आत्मा' और 'शरीर' के संयोग पर हमारा वर्तमान रूप में अस्तित्व है। इसमें 'आत्मा' तो अमर है। इसको न कोई मार सकता है, न मिटा सकता है, न काट सकता है, न जला सकता है। परमात्मा की तरह
जीवात्मा भी अनादि है। किन्तु परमात्मा जहाँ सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और अनन्त सामर्थ्य
वाला है, जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्पशक्ति और शून्य-सामर्थ्य वाला
है। जीवात्मा को सामर्थ्य प्रदान करता है 'शरीर', जिसका बनाने वाला है परमात्मा, किन्तु उपादान कारण है प्रकृति ।
जो चीज़ बनी है, अर्थात् जिसका आदि है, उनका अन्त होना ही होना है। इस
प्रकार जहाँ शरीर की उत्पत्ति इसका 'जन्म' है, वहाँ शरीर का अन्त इसकी मृत्यु' है। जब तक जीवात्मा को शक्ति और
सामर्थ्य प्राप्ति हेतु शरीर की आवश्यकता रहेगी। मिट्टी की यह खिलौना-शरीर-बनता भी
रहेगा, और टूटता भी रहेगा; जन्मता भी रहेगा, मरता भी रहेगा। मिट्टी के खिलौने
की क्या गारंटी। संभाल के रखो तो वर्षों बना रहे; असावधानी से क्षण भर में टूट जाये। अतः जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु भी है। और जिसकी
मृत्यु है, उसका जन्म भी निश्चित है। इस
प्रकार हर मौत एक नई ज़िन्दगी का पैग़ाम है। शरीर की मृत्यु आगे-पीछे, समय-असमय, काल, स्थिति और कर्मानुसार होती रही है, होती रहेगी। किसी भी मन्त्रतन्त्र
से इसको टाला या रोका नहीं जा सकता।
मृत्यु को एक अन्य प्रकार से यों
परिभाषित किया जा सकता है, कि जो कुछ भी 'अमृत' नहीं है, वह मृत है। अतः 'अमृत' का अभाव या उसका विपरीत मृत्यु है।
'अमृत' शब्द के जितने अर्थ हैं, उतने ही तद्विपरीत अर्थ 'मृत्यु' शब्द के लिये जा सकते हैं। इस
दृष्टि से विचार 'अमृत' की व्याख्या में करेंगे।
मृत्यु के विषय में एक तीसरा दृष्टिकोण है 'मार्ग या पथ की दृष्टि से'। इस संसार में दो मार्ग हैं जीवन को
चलाने के लिये । एक है 'श्रेय' मार्ग और दूसरा है 'प्रेय' मार्ग। एक है 'सत्य' तथा 'धर्म' का मार्ग, और दूसरा है-'असत्य' तथा 'अधर्म' का मार्ग । एक का नाम है, 'योग-जीवन पद्धति' और दूसरे मार्ग का नाम है 'भोग जीवन-पद्धति'। जिस प्राणी का मार्ग' श्रेय'
है, 'सत्य', 'धर्म' तथा 'योग' पर आधारित है, वह जीते जी 'अमृत' की ओर जा रहा है।
और जिस व्यक्ति ने 'प्रेय' मार्ग को अपनाया है, जो केवल 'असत्य' 'अधर्म' और मौज-मज़ा तथा विषय-भोग पर
आधारित है, वह जीते जी साक्षात मृत्यु के गर्त में जा रहा
है।
मृत्यु के विषय में चौथा दृष्टिकोण यह है, कि मृत्यु जीते जी भी, एक नहीं, अनेकों रूप में हो सकती है, यदि जीवन के व्यवहार में सावधानी
नहीं बरती गई। जैसे, जिसका अनैतिक कार्यों से नैतिक पतन
हो गया, उसकी नैतिक मृत्यु। जो चरित्र से
गिर गया, उसी चारित्रिक मृत्यु । जिसने अपनी
आत्मा की आवाज़ को कुचल डाला। उसकी आत्मिक मृत्यु । जो अपने माता-पिता तथा स्वजनों
का न हुआ, उनसे विमुख हो गया, उसकी पारिवारिक मृत्यु। जिसने
असामाजिक तत्वों के साथ मिलकर समाज का अहित किया, उच्च सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ा उसकी सामाजिक मृत्यु।
जिसने अनाचार और भ्रष्टाचार का आश्रय लेकर राष्ट्र के साथ धोखा किया, राष्ट्र के प्रति निष्ठा की शपथ
लेकर राष्ट्र का ही अहित किया,
उसकी
राष्ट्रीय मृत्यु । इसी प्रकार डरपोक, बलहीन,
मानसिक
रूप से पराजित अकर्मण्य और कायर व्यक्ति, जीते हुये भी अनेकों बार मरा करते है।
मृत्यु के इस विश्लेषण से 'मृत्यु के बन्धनों' को समझा जा सकता है। एक मृत्यु
जिसे देहान्त कहते हैं, वह तो अवस्थान्तर मृत्यु है। यह तो
होनी ही है। क्या हम नहीं देखते कि शैशव की मृत्यु पर कुमारावस्था का जन्म होता
है। कुमारावस्था की मृत्यु पर युवावस्था का जन्म होता है। युवावस्था की मुत्य पर
वृद्धावस्था का जन्म होता है। वृद्धावस्था की मृत्यु ही देहान्त है, जिसका फल पुनर्जन्म है। 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युधर्वं जन्म
मृतस्य च' (गीता २।२७) जन्मने वाले की मृत्यु
निश्चित है, और मरने वाले का जन्म निश्चित है।
इस मरण और जन्म में 'कर्मों के बन्धन' तो प्रभावी हो सकते हैं, परन्तु मृत्यु के कोई बन्धन नहीं।
यह मृत्यु तो पुराने वस्त्र उतारने के समान है, ताकि नये वस्त्रों को धारण किया जा सके। अब यदि कोई पुराने
वस्त्र को नहीं त्यागना चाहता,
तो
यह पुराने वस्त्र का बन्धन नहीं,
कोरा
अज्ञान है। तो यहाँ मृत्यु का बन्धन नहीं, अज्ञान का बन्धन है। हाँ, अन्य सब प्रकार की मृत्यों, जिनका विवेचन पहले किया जा चुका है, उनके बन्धन हैं। इन पाशों में जो
उलझा, वह उलझता जाता है। अमृत को छोड़कर
विषपान करना (अध्यात्म में, परमात्मा को छोड़कर विषयों के सेवन
में लिप्त रहना) मृत्यु का बन्धन है। ' श्रेय मार्ग' को छोड़कर 'प्रेय मार्ग' को अपनाना मृत्यु का बन्धन है। जीते जी, नैतिक चारित्रिक, पारिवारिक, सामाजिक मृत्यों का शिकार होना
मृत्यु का बन्धन है। कायरता, आसक्ति, प्रमाद, लोलुपता तथा काम-क्रोध, लोभ, मद और मोह के वशीभूत होकर मृत्यु
को बुलावा देना मृत्यु के बन्धन हैं। संक्षेप में, जो कुछ भी अन्ततोगत्वा कष्टमय, पीड़ामय, दुःखमय, तथा मृत्युमय है, उनमें फंसना और उलझना मृत्यु के
बन्धनों में अपने आप को जकड़ना है। मन्त्र में मृत्यु के जिन बन्धनों से मुक्त
होने की बात कही गई है, वे बन्धन यही हैं, जिनके कारण अखिल विश्व में नैतिकता
कराह रही है, और मानवता मर रही है।
'अमृत' क्या है? शरीर के लिये 'प्राण',
'वायु','अन्न', 'वीर्य' अमृत है। मन के लिये 'सुविचार', 'शुभ-संकल्प', 'निर्भयता' आदि अमृत है। बुद्धि के लिये
सद्ज्ञान', 'सत्यविद्या', 'सद्विवेक' अमृत है। चित्त के लिये अनासक्ति', 'निर्लेपता', 'निस्पृहता' तथा 'समत्वता' अमृत है। आत्मा के लिये 'परमात्मा' अमृत है। संक्षेप में, शरीर के लिये जो कुछ भी आयुवर्धक व
पुष्टिकारक है, मन, बुद्धि,
चित्त
को जो कुछ भी प्रबुद्ध तथा समता (शान्ति) प्रदान करने वाला है, आत्मा को जो 'आत्म-ज्ञान', 'आत्मबल' तथा 'आत्मानन्द' प्रदान करने वाला है, वह सब 'अमृत' है। उससे उल्टा जो कुछ है, वह 'मृत्यु' है। और जो 'अमृत' है, वही 'ब्रह्म' है। इसीलिये वेद में आया 'यस्यच्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः' (यजुः० २५।१३) जिसकी छाया (आश्रय) अमृत है, [और] जिसकी उपेक्षा (छाया से वंचित
स्थिति) मृत्यु है। आध्यात्मिक दृष्टि से इससे सरल, सुन्दर तथा सुस्पष्ट परिभाषा 'अमृत' और 'मृत्यु' की नहीं हो सकती। कैसे प्राप्त करें, उस 'अमृत' को? तो उत्तर है-उस सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देने वाले परमात्मा
की आत्मा और अन्तःकरण की हवियों से विशेष भक्ति करें। इसी को महामृत्युञ्जय मन्त्र
में यो कहा है--(त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्) हम महान यश [कीर्ति] की सुगन्ध से
युक्त, पुष्टि का वर्धन करने वाले उस
त्र्यम्बक परमेश्वर का निरन्तर यजन करें। परमात्मा को यहाँ 'त्र्यम्बक' कहा है। त्रि-अम्बक का अर्थ है, तीन नेत्रों वाला। परमात्मा अपनी
व्यापकता से तीनों कालों (भूत,
वर्तमान, भविष्य, अथवा सृष्टि से सम्बद्ध 'उत्पत्ति', 'स्थिति' तथा 'प्रलयकाल') तथा तीनों लोकों (द्यौ, अन्तरिक्ष, पृथिवी) पर अपनी दृष्टि रखता है।
इस प्रकार 'दिव्यद्रष्टा', 'सर्वद्रष्टा' और 'हितद्रष्टा' होने से परमात्मा त्र्यम्बक है।
त्र्यम्बक ही 'शिव' है, 'शाश्वत'
है, और 'शंकर' है। ऐसे त्र्यम्बक की प्राप्ति के
लिये साधक जो 'स्तुति', 'उपासना' तथा 'समर्पण' (अर्थात् पूजा, संगतिकरण, तथा दान) करता है, वही उसका यजन है। इस यज्ञ में
हवियाँ होनी चाहिये अन्त:करण चतुष्टय (मन, बुद्धि,
चित्त
और अंह) तथा अन्तरात्मा की। किन्तु यह हवियाँ सुगन्धियुक्त और पुष्टिवर्धक होनी
चाहियें। जिसका अन्त:करण मलिन है,
दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुष्कर्मों की
दुर्गन्ध जिसके अन्त:करण से आ रही हो, वह उस त्र्यम्बक का यजन नहीं कर पायेगा। जिसका आत्मा न
स्वयं आत्मबल और आत्म-ज्ञान से पुष्ट है,और न मानव समाज में बल और ज्ञान का वर्धन करने वाला है, वह भी उस त्र्यम्बक परमेश्वर से
युक्त नहीं हो पायेगा। इस प्रकार साधक जब सुगन्धियुक्त और पुष्टिवर्धक होता है, तब वह उस त्र्यम्बक की संदृष्टि
में ठहर पाता है, वरना यजन का मात्र दिखावा करने पर
त्र्यम्बक का रुद्र रूप उसको रुला डालता है।
ध्यान रहे, त्र्यम्बक परमेश्वर के अलंकारिक भाषा में जैसे तीननेत्र है, वैसे ही दो रूप हैं-'भव' और 'शर्व' 'भव' कल्याणकारी है, वह सुखी करता है। 'शर्व' संहारकारी है, वह सब ओर से चढ़ाई करता है। भवा शौँ मृडतं माभियात (अथर्व० ११ ।२।१)। चूंकि वह
सर्वदृक है, अतः उसकी दृष्टि से कोई बच नहीं
पाता। जो जैसा अच्छा बुरा करता है, वैसा ही फल वह उससे पाता है। कीर्ति और यश की सुगन्धि से
युक्त तथा ज्ञान और बल से पुष्टिवर्धक जन जब उस त्र्यम्बक प्रभु से युक्त होते हैं
आत्मना आत्म-समर्पण करके, और करते हैं निरन्तर उसका यजन, तब ही उनको अमृत की प्राप्ति होती
है। क्योंकि
'अकामो धीरो अमृतः स्वयंभूरसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः।
तमेव विद्वान न विभाय
मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम्॥
(अथर्व०१०।८।४४)
वह परमात्मा ही अकामः, धीरः, अमृतः, स्वयंभू, रस से परिपूर्ण और कहीं से भी न्यून
नहीं है। उसी धीर, जरा-रहित, युवा परमात्मा को जाननेवाला
विद्वान मृत्यु से भयभीत नहीं होता। ___ मैं भी यदि इच्छुक हूँ, कि (उर्वारुकम् इव बन्धनात मृत्योः मुक्षीय, मा अमृतात्) उर्वारुक के समान मृत्यु के
बन्धनों से मुक्त हो जाऊँ, [किन्तु] अमृत से नहीं, तो सुगन्धियुक्त और पुष्टिवर्धक बन
कर त्र्यम्बक प्रभु का यजन करूँ। इस प्रकार यह महामृत्युञ्जय मन्त्र व्यक्तिगत
यौगिक साधना का मन्त्र है, जिसका अनुष्ठान जीते जी हर उस
व्यक्ति को करना चाहिये, जो अमरत्व पाना चाहता है। जब सारा
जीवन उर्वारुक के समान सुगन्धियुक्त और पुष्टिवर्धक होगा, अर्थात् जीवन भर ऐसे श्रेष्ठतम
कर्म किये होंगे, जिनकी खुशबू दूर-दूर तक फैली होगी, जब ऐसे सुन्दर कर्मों से मानव समाज, स्व-राष्ट्र और सम्पूर्ण वसुधा का
पुष्टिवर्धन हुआ होगा, तब वह प्रभु का प्यारा व्यक्ति
मृत्यु के बन्धनों से मुक्त होकर अमर-पद को अत्यन्त सहजता से प्राप्त करेगा, इसमे सन्देह नहीं।
मन्त्र में (उर्वारुकम् इव) उर्वारुक के समान जो उपमा दी है, वह भी अपने-आप में बड़ी ही
महत्वपूर्ण है। 'उरु' का अर्थ है बड़ा। 'आ' का अर्थ है पूर्ण। 'रुक' कहते हैं 'परिपक्वता' को। मानवों में जो व्यक्ति महान और
पूर्णतया परिपक्व है, वह एक प्रकार से 'उर्वारुक' है। इसी प्रकार फलों में जो फल
अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होकर पूरी तरह पक जाता है, उसकी संज्ञा होती है, उर्वारुक। ऐसे फल हैं आम, खरबूजा, तरबूज़ आदि। इन पके हुये फलों का
रस मधुर और अमृत के समान गुणकारी होता है। इन फलों की तीन प्रमुख विशेषतायें इस
प्रकार हैं-(१) पकने वाले फल के साथ-साथ अन्य फल भी पकने शुरु हो जाते हैं। ख़रबूजों के विषय
में तो प्रचलित कहावत ही है, कि 'ख़रबूजे को देखकर ख़रबूजा रंग
पकड़ता है'। (२) पूर्णतया पक जाने के उपरान्त यह फल
स्वयमेव ही अपनी शाख या बेल से अलग हो जाते हैं. इन्हें तोडना नहीं पड़ता। (३) पके हुये यह फल सुगन्धियुक्त और
पुष्टिवर्धक होते हैं। तो वेद के अनुसार हमारी जीवन-साधना उर्वारुक समान बनने के
लिये होनी चाहिये। हम यदि अपने जीवन में परिपक्व होंगे, तो हमारी देखादेखी अन्यों में भी परिपक्वता आयेगी। हम ही
यदि उच्छृखल हो गये, तो अन्यों में भी उच्छंखलता को बढ़ावा
मिलेगा। आज सम्पूर्ण पृथिवी पर ऐसे श्रेष्ठ नर-नारियों की आवश्यकता है, जिनके अन्दर परिपक्वता हो, जिनका जीवन और जिनके कार्य
सुगन्धियुक्त और पुष्टिवर्धक हों,
जिन्होंने
स्वयं अमृत छका हो, जिससे वे दूसरों को भी अमृत छका
सकें। स्वभाविक है कि ऐसे अमृतमय व्यक्ति मर कर (अर्थात् देह त्याग कर) भी नहीं
मरते। देह त्याग के समय भी उनके मुख पर ऐसी आभा. ऐसी दीप्ति. ऐसी सन्तुष्टि होती
है, जो अन्यों के लिये अविस्मरणीय
प्रेरणा का स्त्रोत बन जाती है। मृत्यु का भय उनको सताता नहीं। मृत्यु के बन्धनों
से ऊपर उठकर वे अमर पद को प्राप्त कर लेते हैं, हमेशा-हमेशा के लिये अमर हो जाते हैं। ऐसे साधकों के प्रति
वेद का कथन है
अग्नेष्टै प्राणममृतादायुष्मतो
वन्वे जातवेदसः।
यथा न रिष्या अमृतः सजूरसस्तत्तै
कृणोमिततेसमृध्यताम्।।
-अथर्व०८।२।१३
"जातवेदस (सर्वज्ञ) प्रभु तेरे प्राण को
अग्निस्वरूप, अमृतमय और उत्तम आयुष्य से सम्पन्न
करे। जिससे अमृतमय होकर तू रिसे नहीं (अर्थात् जीवन्त जीवन जीये तेरा ऊर्ध्व-गमन
हो, अधोगमन नहीं)। तुझे उस ब्रह्म से
युक्त करता हूँ जो अमृत है। निश्चय से तेरा जीवन समृद्धि से भरपूर हो।"
अन्तिम बात। यों तो वेद के अनुसार दीर्घ
आयुष्य को प्राप्त करना, शरीर और आत्मा को पुष्ट रखना
मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये। पर 'अमृत' और 'अमरत्व' की दृष्टि से आयुष्य की अंको में
गिनती नहीं, जीवन की गुणवत्ता और गुणात्मकता
महत्वपूर्ण है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार 'प्रजापतिर्वा अमृतः' प्रजापति होना अमृत है।
प्रजापति वही है, जो प्रजा (अर्थात् लोगों) का रक्षण
करता है। प्रजा को असत्य से हटा कर सत्य की ओर, अन्धकार से हटा कर प्रकाश की ओर और मृत्यु (दुःखों, क्लेशों, कष्टों) से छुड़ा कर अमृत की ओर
सतत प्रेरित करता है, ओर तदानुकूल पुरुषार्थ करता है। जीवतां ज्योतिरभ्येवाझ' (अथर्व०८।२।२) जीवन्त होकर ज्योति को साक्षात प्राप्त करना
अमृत है। सत्य विद्या और श्रेष्ठतम कर्मों का श्रम और तप से यजन करना अमृत है। 'भय', 'भ्रान्ति' और 'भोग' ही मृत्यु के बन्धन हैं। उत्तम
ज्ञान, कर्म और उपासना द्वारा इन बन्धनों
से मुक्त होकर 'निर्भय', 'निभ्रान्त' और 'निर्भोग' हो जाना अमृत है। दुर्गुणों और
अनिष्टकारक कर्मों से अलग रहकर सुगन्धियुक्त और पुष्टिवर्धक कर्मों का जीवन में
सुसम्पादन करना अमृत है। ऐसे अमृत से मैं आत्म साधना द्वारा जीवन भर त्र्यम्बक (दिव्य, शुद्ध और सर्वदृक) परमात्मा का यजन करते हुये युक्त
रहूँ, यह है महामृत्युञ्जय मन्त्र का
अभिप्राय। अमृत की साध लेकर मैं जीवन में वह साधना और ऐसे श्रेष्ठतम कर्म करूँ, कि युग-युग तक मैं अमर हो जाँऊ, यह है महामृत्युञ्जय मन्त्र का सही अनुष्ठान ॥
वेदों में जिस तथ्य को बार-बार दोहराया गया
है, वह यही
"तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था
विद्यतेऽयनाय"
-यजुर्वेद ३१ । १८
उस परम-पुरुष परमात्मा को जानकर ही
जीवात्मा मृत्यु को पार कर पाता है। अन्य कोई मार्ग मृत्यु से तरने के लिये नहीं
है।
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