Ad Code

किरातार्जुनीय महाकाव्य mhakavaya

 



किरातार्जुनीय महाकाव्य

।। श्री गणेशाय नमः ।।

 

भारवि कृत

किरातार्जुनीय महाकाव्य

---------------

भूमिका

---------------

 

किरातार्जुनीय संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्यों में से अन्यतम है जो छठी शताब्दी या उसके पहले लिखा गया है । इसको महाकाव्यों की 'बृहत्त्रयी' में प्रथम स्थान प्राप्त है । महाकवि कालिदास की कृतियों के अनन्तर संस्कृत साहित्य में भारवि के किरातार्जुनीय का ही स्थान है । बृहत्त्रयी के दुसरे महाकाव्य 'शिशुपाल वध' तथा 'नैषध' हैं । किरातार्जुनीय राजनीति प्रधान महाकाव्य है । राजनीति वीररस से अछूती क्योंकर हो सकती है ? फलतः इसका प्रधान रस 'वीर' है ।

 

इसके नायक माध्यम पाण्डव अर्जुन हैं । किरातार्जुनीय में किरात वेषधारी शङ्कर जी और अर्जुन के युद्ध का प्रमुख रूप से वर्णन है । यह कथा महाभारत के वन पर्व से ली गयी है । महाकाव्य का आरम्भ इस प्रकार से हुआ है, जैसे किसी नाटक का रंगमंच पर अभिनय आरम्भ हो रहा हो । करवों की कपड़ द्यूतक्रीड़ा से पराजित पाण्डव जब द्वैतवन में निवास कर रहे थे तब उन्हें यह चिंता हुई कि दुर्योधन का शासन किस प्रकार चल रहा है, इसका पता लगाना चाहिए । क्योंकि अवश्य ही वह अपने क्रूर और कपटी स्वभाव वाले सहयोगियों के कारण प्रजाजन का विद्वेषी सिद्ध हुआ होगा । प्रजा के आन्तरिक असन्तोष के कारण किसी भी राजा का शासन दीर्घ-कालव्यापी नहीं हो सकता । अतः किसी प्रकार से हस्तिनापुर के लिए एक गुप्तचर भेजकर वहां की स्थिति की जानकारी प्राप्त करनी ही चाहिए । इसी उद्देश्य से उन्होंने एक वनवासी किरात को चुना, जो ब्रह्चारी का वेश धारण कर हस्तिनापुर गया और वहां कुछ काल तक रहकर सब बातें अपनी आँखों से देखकर लौट आया ।

 

भारवि के विकट चित्रबन्धों में यद्यपि काव्य की आत्मा रस का पूर्ण परिपाक नहीं हुआ है, तथापि तात्कालिक संस्कृतज्ञ-समाज की अभिरुचि के आग्रह से उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा । क्योंकि इन विकट चित्रबन्धों की रचना किसी सामान्य काव्य-कौशल की बात नहीं है । भारवि के अर्धभ्रमक, सर्वतोभद्र, एकाक्षर पाद, एकाक्षर श्लोक, द्वयक्षर श्लोक, निरौष्ठव, पादान्तादियमक, पदादि यमक, प्रतिलोमानुलोमपाद, प्रतिलोमानुलोमार्द्ध आदि विकट बन्धों को देखकर सामान्य बुद्धि को विषमित हो जाना पड़ता है । किरातार्जुनीय का समूचा पन्द्रहवाँ सर्ग मानो इसी अद्भुत पाण्डित्य-प्रदर्शन के ही लिए रचा गया हो । एक श्लोक ऐसा भी दिया है जिसके भिन्न भिन्न तीन अर्थ होते हैं तथा इसी प्रकार एक श्लोक ऐसा भी दिया है, जिसमें केवल एक अक्षर '' का प्रयोग हुआ है । दोनों के नमूने नीचे दिए जा रहे हैं ।

 

अर्थत्रयवाची श्लोक -

जगती शरणे युक्तो हरिकान्त सुधासित ।

दानवर्षी कृताशसो नागराज इवाबभौ ।।

सर्ग १५, ४५

 

एकाक्षर श्लोक -

न नोन नुन्नो नुन्नानो नाना नानानना ननु ।

नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत् ।।

सर्ग १५, २४

 

इसी प्रकार भारवि के काव्य शिल्प का उत्कृष्ट नमूना हम निम्न लिखित सर्वतोभद्र बन्ध में भी देखते हैं ।

 

दे  वा  का  नि  नि  का  वा  दे

वा  हि  का स्व  स्व का  हि  वा

का का  रे         रे  का  का

नि  स्व    व्य  व्य    स्व  नि

 

इस सर्वतोभद्र बन्ध की विशेषता यह है कि इसे जिस ओर से भी पढ़िए पूरा श्लोक बन जाता है । श्लोक का वास्तविक स्वरुप निम्नलिखित है जो आठों कोष्ठकों के चतुष्टय के क्रमश चारों ओर से बन जाता है ।

 

देवकानि निकावादे वाहिकास्व स्वकाहिवा ।

काकारेभभरे काका निस्वभव्य व्यभस्वनि ।।

 

सर्ग १५, श्लोक २५

श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनीं प्रजासु वृत्तिं यमयुङ्क्त वेदितुम् ।

स वर्णिलिङ्गी विदितः समाययौ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः ।। १.१ ।।

 

अर्थ: कुरूपति दुर्योधन के राजयलक्ष्मी की रक्षा करने में समर्थ, प्रजावर्ग के साथ किये जाने वाले उसके व्यवहार को भली भाँति जानने के लिए जिस किरात को नियुक्त किया गया था, वह ब्रह्मचारी का (छद्म) वेश धारण कर, वहां की सम्पूर्ण परिस्थिति को समझ-बूझकर द्वैत वन में (निवास करने वाले ) राजा युधिष्ठिर के पास लौट आया ।

 

टिप्पणी: इस महाकाव्य की कथा का सन्दर्भ महाभारत से लिया गया है । जैसा कि सुप्रसिद्ध है, पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर, भीम एवं अर्जुन आदि से धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन कि तनिक भी नहीं पटती थी । एक बार फुसलाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ जुआ खेला और अपने मामा शकुनि कि धूर्तता से युधिष्ठिर को हरा दिया । युधिष्ठिर न केवल राजपाट के अपने हिस्से को ही गँवा बैठे, प्रत्युत यह दांव भी हार गए कि वे अपने सब भाइयों के साथ बारह वर्ष तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करेंगे । फल यह हुआ कि अपने चारों भाइयों तथा पत्नी द्रौपदी के साथ यह बारह वर्षों तक जगह-जगह ठोकर खाते हुए घूमते फिरते रहे । एक बार वह सरस्वती नदी के किनारे द्वैतवन में निवास कर रहे थे कि उनके मन में आया की किसी युक्ति से दुर्योधन का राज्य के प्रजावर्ग के साथ किस प्रकार का व्यवहार है, यह जाना जाय । इसी जानकारी को प्राप्त करने के लिए उन्होंने एक चतुर वनवासी किरात को नियुक्त किया, जिसने ब्रह्मचारी का वेश धारण कर हस्तिनापुर में रहकर दुर्योधन की प्रजानीति के सम्बन्ध में गहरी जानकारी प्राप्त की । प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में उसी जाकारी को वह द्वैतवन में निवास करने वाले युधिष्ठिर को बताने के लिए वापस लौटा है ।

 

इस पूरे सर्ग में कवी ने वशस्थ वृत्त का प्रयोग किया है, जिसका लक्षण है - "जतौ तु वशस्थमुदीरित जरौ ।" अर्थात जगण, तगण, जगण और  और रगण के संयोग से वशस्थ छन्द बनता है । श्लोक की प्रथम पंक्ति में वने वनेचर" शब्दों में 'वने' की दो बार आवृत्ति होने से 'वृत्यानुप्रास' अलङ्कार है, महाकवि ने मांगलिक 'श्री' शब्द से अपने ग्रन्थ का आरम्भ करके वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण किया है ।

 

 

कृतप्रणामस्य महीं महीभुजे जितां सपत्नेन निवेदयिष्यतः ।

न विव्यथे तस्य मनो न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः ।। १.२ ।।

 

अर्थ: उस समय के लिए उचित प्रणाम करने के अनन्तर शत्रुओं (कौरवों) द्वारा अपहृत पृथ्वीमण्डल (राज्य) की यथातथ्य बातें राजा युधिष्ठिर से निवेदन करते हुए उस वनवासी किरात के मन को तनिक भी व्यथा नहीं हुई । (ऐसा क्यों न होता) क्योंकि किसी के कल्याण की अभिलाषा करने वाले लोग (सत्य बात को छिपा कर केवल उसे प्रसन्न करने के लिए) झूठ-मूठ की प्यारी बातें (बना कर) कहने की इच्छा नहीं करते ।

 

टिप्पणी: क्योंकि यदि हितैषी भी ऐसा करने लगें तो निश्चय ही कार्य-हानि हो जाने पर स्वामी को द्रोह करने की सूचना तो मिल ही जायेगी । इस श्लोक में भी 'मही मही' शब्द की पुनरावृत्ति से वृत्यनुप्रास अलङ्कार है और वह अर्थान्तरन्यास से ससृष्ट है ।

 

 

द्विषां विघाताय विधातुमिच्छतो रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः ।

स सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनीं विनिश्चितार्थामिति वाचमाददे ।। १.३ ।।

 

अर्थ: एकांत में उस वनवासी किरात ने शत्रुओं का विनाश करने के लिए प्रयत्नशील राजा युधिष्ठिर की आज्ञा प्राप्तकर सरस सुन्दर शब्दों में असन्दिग्ध अर्थ एवं निश्चित प्रमाणों से युक्त वाणी में इस प्रकार से निवेदन किया ।

 

टिप्पणी: इस श्लोक से यह ध्वनित होता है कि उक्त वनवासी किरात केवल निपुण दूत ही नहीं था, एक अच्छा वक्ता भी था । उसने जो कहा, सुन्दर मनोहर शब्दों में सुस्पष्ट तथा निश्चय पूर्वक कहा । उसकी वाणी में अनिश्चयात्मक अथवा सन्देह की कहीं गुञ्जाइश नहीं थी । उसके शब्द सुन्दर थे और अर्थ स्पष्ट तथा निश्चित ।

 

इसमें सौष्ठव और औदार्य - इन दो विशेषणों के साभिप्राय होने के कारण 'परिकर' अलङ्कार है, जो 'पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग' से अनुप्राणित है। यद्यपि 'आङ्' उपसर्ग के साथ 'दा' धातु का प्रयोग लेने के अर्थ में ही होता है किन्तु यहाँ पर सन्दर्भानुरोध से कहने के अर्थ में ही समझना चाहिए ।

 

(किरात को भय है कि कहीं मेरी अप्रिय कटु बातों से राजा युधिष्ठिर अप्रसन्न न हो जाएँ अतः वह सर्वप्रथम क्षमा-याचना के रूप में निवेदन करता है ।)

 

 

क्रियासु युक्तैर्नृप चारचक्षुषो न वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः ।

अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।। १.४ ।।

 

अर्थ: कोई कार्य पूरा करने के लिए नियुक्त किये गए (राज) सेवकों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे दूतों की आँखों से ही देखने वाले अपने स्वामी को (झूठी तथा प्रिय बातें बता कर) न ठगें ।

इसलिए मैं जो कुछ भी अप्रिय अथवा प्रिय बातें निवेदन करूँ उन्हें आप क्षमा करेंगे, क्योंकि सुनने में मधुर तथा परिणाम में कल्याण देने वाली वाणी दुर्लभ होती है ।

 

टिप्पणी: दूत के कथन का तात्पर्य यह है कि मैं अपना कर्तव्य पालन करने के लिए ही आप से कुछ अप्रिय बातें करूँगा, वह चाहे आपको अच्छी लगें या बुरी। अतः कृपा कर उनके कहने के लिए मुझे क्षमा करेंगे क्योंकि मैं अपने कर्तव्य से विवश हूँ।

 

इस श्लोक में 'पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग' अलङ्कार है, जो चतुर्थ चरण में आये हुए अर्थान्तरन्यास अलङ्कार से ससृष्ट है। यहाँ अर्थान्तरन्यास को सामान्य से विशेष के समर्थन रूप में जानना चाहिए।

 

 

स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः ।

सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ।। १.५ ।।

 

अर्थ: जो मित्र अथवा मन्त्री राजा को उचित बातों की सलाह नहीं देता वह अधम मित्र अथवा अधम मन्त्री है तथा (इसी प्रकार) जो राजा अपने हितैषी मित्र अथवा मन्त्री की हित की बात नहीं सुनता वह राजा होने योग्य नहीं है । क्योंकि राजा और मन्त्री के परस्पर सर्वदा अनुकूल रहने पर ही उनमें सब प्रकार की समृद्धियाँ अनुरक्त होती हैं ।

 

टिप्पणी: दूत के कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय मैं जो कुछ निर्भय होकर कह रहा हूँ वह आपकी हित-चिन्ता ही से कह रहा हूँ ।  मेरी बातें ध्यान से सुनें ।

इस श्लोक में कार्य से कारण का समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ।

 

 

निसर्गदुर्बोधमबोधविक्लवाः क्व भूपतीनां चरितं क्व जन्तवः ।

तवानुभावोऽयमबोधि यन्मया निगूढतत्त्वं नयवर्त्म विद्विषाम् ।। १.६ ।।

 

अर्थ: स्वभाव से ही दुर्बोध(राजनीतिक रहस्यों से भरा) राजाओं का चरित कहाँ और अज्ञान से बोझिल मुझ जैसा जीव कहाँ ? (दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है) । (अतः) शत्रुओं के अत्यन्त गूढ़ रहस्यों से भरी जो कूटनीति कि बातें मुझे (कुछ) ज्ञात हो सकीय हैं, यह तो (केवल) आपका अनुग्रह है ।

 

टिप्पणी: दूत कि वक्तृत्व कला का यह सुन्दर नमूना है । अपनी नम्रता को वह कितनी सुन्दरता से प्रकट करता है । इस श्लोक में विषम अलङ्कार है ।

 

विशङ्कमानो भवतः पराभवं नृपासनस्थोऽपि वनाधिवासिनः ।

दुरोदरच्छद्मजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधनः ।। १.७ ।।

 

अर्थ: राज सिंहासन पर बैठा हुआ भी दुर्योधन (राज्याधिकार से च्युत) वन में निवास करनेवाले आप से अपनी पराजय कि आशङ्का रखता है । अतएव जुए द्वारा कपट से जीती हुई पृथ्वी को वह न्यायपूर्ण शासन द्वारा अपने वश में करने कि इच्छा करता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि यद्यपि दुर्योधन सर्व-साधन सम्पन्न है और आपके पास कोई साधन नहीं है, फिर भी आप से वह सदा डरा रहता है कि कहीं आपके न्याय-शासन से प्रसन्न जनता आपका साथ न दे दे और आप उसे राजगद्दी से न उतार दें । इसलिए वह यद्यपि जूआ में समूचे राजपाट को आपसे जीत चूका है, फिर भी प्रजा का ह्रदय जीतने के लिए न्यायपरायणता में तत्पर है । वह आपकी ओर से तनिक भी असावधान नहीं है, क्योंकि आप सब को वह वनवासी होने पर भी प्रजवल्लभ होने के कारण अपने से अधिक बलवान समझता है । अतः जनता को अपने प्रति आकृष्ट कर रहा है ।

पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार

[किस प्रकार की न्याय बुद्धि से वह पृथ्वी को जीतना चाहता है - आगे इसे सुनिए]

 

तथाऽपि जिह्मः स भवज्जिगीषया तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः ।

समुन्नयन्भूतिमनार्यसंगमाद्वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः ।। १.८ ।।

 

अर्थ: आप से सशंकित होकर भी वह कुटिल प्रकृति दुर्योधन आप को पराजित करने की अभिलाषा से दान-दाक्षिण्यादि सद्गुणों से अपने निर्मल यश का(उत्तरोत्तर) विस्तार कर रहा है क्योंकि नीच लोगों के सम्पर्क से वैभव प्राप्त करने की अपेक्षा सज्जनो से विरोध प्राप्त करना भी अच्छा ही होता है ।

 

टिप्पणी: सज्जनों का विरोध दुष्टों की सङ्गति से इसलिए अच्छा होता है कि सज्जनों के साथ विरोध करने से और कुछ नहीं तो उनकी देखा-देखी स्पर्धा में उनके गुणों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करने की प्रेरणा तो होती ही है । जब कि दुष्टों की सङ्गति तात्कालिक लाभ के साथ ही दुर्गति का कारण बनती है । क्योंकि दुष्टों की सङ्गति से बुरे गुणों का अभ्यास बढ़ेगा, जो स्वयं दुर्गति के द्वार हैं ।

 

इस श्लोक में सामान्य से विशेष का समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है, जो पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित है ।

 

कृतारिषड्वर्गजयेन मानवीमगम्यरूपां पदवीं प्रपित्सुना ।

विभज्य नक्तंदिवमस्ततन्द्रिणा वितन्यते तेन नयेन पौरुषम् ।। १.९ ।।

 

अर्थ: (वह दुर्योधन) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं अहङ्कार रूप प्राणियों के छहों शत्रुओं को जीतकर, अत्यन्त दुर्गम मनु आदि नीतिज्ञों की बनाई  हुई शासन-पद्धति पर कार्य करने की लालसा से आलस्य को दूर भागकर, रात-दिन के समय को प्रत्येक काम के लिए अलग-अलग करके, नैतिक शक्ति द्वारा अपने पुरुषार्थ को सबल बना रहा है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन अब वही जुआरी और आलसी दुर्योधन नहीं रह गया है। उसने छहों दुर्गुणों को दूर करके स्वयम्भुव मनु के दुर्गम आदर्शों के अनुरूप अपने को राजा बना लिया है । उसमें आलस्य तो तनिक भी नहीं रह गया है । दिन और रात - सब में उसके पृथक-पृथक कार्य नियत हैं। उसके पराक्रम को नैतिक शक्ति का बल मिल गया है और इस प्रकार वह दुर्जेय बन गया है ।

परिकर अलङ्कार ।

 

सखीनिव प्रीतियुजोऽनुजीविनः समानमानान्सुहृदश्च बन्धुभिः ।

स सन्ततं दर्शयते गतस्मयः कृताधिपत्यामिव साधु बन्धुताम् ।। १.१० ।।

 

अर्थ: वह दुर्योधन अब निरहङ्कार होकर सर्वदा निष्कपट भाव से सेवा करने वाले सेवकों को प्रीतिपात्र मित्रों कि तरह मानता है। मित्रों को निजी कुटुम्बियों कि तरह सम्मानित करता है तथा अपने कुटुम्बियों को राज्याधिकारी कि भांति आदर देता है।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि उसमें अब वह पूर्व अभिमान नहीं है। यह अत्यन्त उदार ह्रदय बन गया है। उसने पूरे राज्य में बन्धुता का विस्तार कर दिया है, उसका यह व्यवहार सदा-सर्वथा रहता है, दिखावट कि गुंजाइश नहीं है। और उसके इस व्यवहार से सब लोग सन्तुष्ट होते हैं। वह ऐसा करके यह दिखाना चाहता है कि मुझमें अहङ्कार का लेश नहीं है।

 

असक्तमाराधयतो यथायथं विभज्य भक्त्या समपक्षपातया ।

गुणानुरागादिव सख्यमीयिवान्न बाधतेऽस्य त्रिगणः परस्परम् ।। १.११ ।।

 

अर्थ: यथोचित विभाग कर, किसी के साथ कोई विशेष पक्षपात न करके वह दुर्योधन अनासक्त भाव से धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, जिससे ये तीनों भी उसके (स्पृहणीय) गुणों से अनुरक्त होकर उसके मित्र-से बन गए हैं और परस्पर उनका विरोध भाव नहीं रह गया है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन धर्म, अर्थ, काम का ठीक-ठीक विभाग कर प्रत्येक का इस प्रकार आचरण करता है कि किसी में आसक्त नहीं मालूम पड़ता। सब का समय नियत है, किसी से कोई पक्षपात नहीं है। उसके गुणों पर ये तीनो भी रीझ उठे हैं। यद्यपि ये परस्पर विरोधी हैं, तथापि उसके लिए इनमें मित्रता हो गयी है और प्रतिदिन इनकी वृद्धि हो रही है।

वाच्योतप्रेक्षा अलङ्कार

 

निरत्ययं साम न दानवर्जितं न भूरि दानं विरहय्य सत्क्रियां ।

प्रवर्तते तस्य विशेषशालिनी गुणानुरोधेन विना न सत्क्रिया ।। १.१२ ।।

 

अर्थ: उस दुर्योधन कि निष्कपट साम नीति दान के बिना नहीं प्रवर्तित होती तथा प्रचुर दान सत्कार के बिना नहीं होता और उसका अतिशय सत्कार भी बिना विशेष गन के नहीं होता। (अर्थात वह अतिशय सत्कार भी विशेष गुनी तथा योग्य व्यक्तियों का ही करता  है। )

 

टिप्पणी: राजनीति में चार नीति कही गयी हैं - साम, दाम, दण्ड और भेद । दुर्योधन इन चारों उपायों को बड़ी निपुणता से प्रयोग करता है। अपने से बड़े शत्रु को वह प्रचुर धन देकर मिला लेता है। उसका देना भी सम्मानपूर्वक होता है अर्थात धन और सम्मान दोनों के साथ साम-नीति का प्रयोग करता है किन्तु इसमें यह भी नहीं समझना चाहिए कि वह ऐरे-गैरे सभी लोगों को इस प्रकार धन-सम्मान देता है। नहीं, केवल गुणियों को ही, सब को नहीं। पूर्ववर्ती विशेषणों से परवर्ती वाक्यों की स्थापना के कारण एकावली अलङ्कार इस श्लोक में है।

[आगे दुर्योधन की दण्ड-नीति का प्रकार कवि बतला रहा है। ]

 

वसूनि वाञ्छन्न वशी न मन्युना स्वधर्म इत्येव निवृत्तकारणः ।

गुरूपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा निहन्ति दण्डेन स धर्मविप्लवं ।। १.१३ ।।

 

अर्थ: इन्द्रियों को वश में रखनेवाला वह दुर्योधन न तो धन के लोभ से और न क्रोध से (ही किसी को दण्ड देता है) अपितु लोभादि कारणों से रहित होकर, इसे अपना ( राजा का ) धर्म समझ कर ही वह अपने गुरु द्वारा उपदिष्ट ( शास्त्र सम्मत ) दण्ड का प्रयोग करके शत्रु हो या अपना निज का पुत्र हो, अधर्म का उपशमन करता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि वह दण्ड देने में भी पक्षपात नहीं करता । न तो किसी को धन-सम्पत्ति या राज्य पाने के लोभ से दण्ड देता है और न किसी को क्रोधित होने पर । बल्कि दण्ड देने में वह अपना एक धर्म समझता है । शास्त्रों के अनुसार जिसको जिस किसी अपराध का दण्ड उचित है वही वह देगा । दण्डनीय चाहे शत्रु हो या अपना ही पुत्र क्यों न हो । दुष्ट ही उनके शत्रु हैं और शिष्ट ही उसके मित्र हैं ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

[ अब आगे दुर्योधन कि भेदनीति का वर्णन है । ]

 

विधाय रक्षान्परितः परेतरानशङ्किताकारमुपैति शङ्कितः ।

क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः ।। १.१४ ।।

 

अर्थ: सर्वदा अशुद्ध चित्त रहने वाला वह दुर्योधन सर्वत्र चारों ओर अपने आत्मीय जनों को रक्षक नियुक्त करके अपने को सब का विश्वास करने वाला प्रदर्शित करता है । कार्यों की सफल समाप्ति पर राज-सेवकों को पुरस्कार रूप में प्रदान की गयी धन-सम्पत्ति उसको कृतज्ञता की सूचना देती हैं ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन ने राज्य के सभी उच्च पदों पर अपने आत्मीय जनों को नियुक्त कर रखा है तथापि वह सर्वदा सशंक रहता है और प्रकट में ऐसा व्यवहार करता है मानो सब का विश्वास करता है । किसी भी कर्मचारी को वह यह ध्यान नहीं आने देता कि वह राजा का विश्वासपात्र नहीं है । यही नहीं, जब कभी उसका कोई कार्य सफल समाप्त होता है तब वह उसमें लगे हुए कर्मचारियों को प्रचुर धन-सम्पत्ति पुरस्कार रूप में देता है । वही धन-सम्पत्तियाँ ही उसकी कृतज्ञता का सुन्दर विज्ञापन करती हैं । इस प्रकार के कृतज्ञ एवं उपकारी राजा में सेवकों कि सच्ची भक्ति होना स्वाभाविक ही है ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

 

 

अनारतं तेन पदेषु लम्भिता विभज्य सम्यग्विनियोगसत्क्रियाम् ।

फलन्त्युपायाः परिबृंहितायतीरुपेत्य संघर्षमिवार्थसम्पदः ।। १.१५ ।।

 

अर्थ: उस दुर्योधन द्वारा भलीभांति, समझ-बूझकर यथायोग्य पात्र में प्रयोग किये जाने से सत्कृत साम, दाम, दण्ड और भेद - ये चारों उपाय, एक दुसरे से परस्पर स्पर्धा करते हुए - से उत्तरोत्तर बढ़ने वाली धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य राशि को सर्वदा उत्पन्न किया करते हैं ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन साम दामादि नीतियों का यथायोग्य पात्र में खूब समझ-बूझकर प्रयोग करता है और इससे उत्तरोत्तर उसकी अचल धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती चली जा रही है ।

 

 

अनेकराजन्यरथाश्वसंकुलं तदीयमास्थाननिकेतनाजिरं ।

नयत्ययुग्मच्छदगन्धिरार्द्रतां भृशं नृपोपायनदन्तिनां मदः ।। १.१६ ।।

 

अर्थ: छितवन (सप्तपर्ण) के पुष्प की सुगन्ध के समान गन्ध वाले राजाओं द्वारा भेंट में दिए गए हाथियों के मद जल, अनेक राजाओं के रथी और घोड़ों से भरे हुए उसके (दुर्योधन के) सभा-भवन के प्रांगण को अत्यन्त गीला बनाये रखते हैं ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन की सभा में देश-देशान्तर के राजा सर्वदा जुटे रहते हैं और उनके रथों, घोड़ों और हाथियों की भीड़ से उसके सभाभवन का प्रांगण गीला बना रहता है । अर्थात उसका प्रभाव अब बहुत बढ़ गया है ।

उदात्त अलङ्कार

 

सुखेन लभ्या दधतः कृषीवलैरकृष्टपच्या इव सस्यसम्पदः ।

वितन्वति क्षेममदेवमातृकाश्चिराय तस्मिन्कुरवश्चकासति ।। १.१७ ।।

 

अर्थ: चिरकाल से प्रजा के कल्याण के लिए यत्नशील उस राजा दुर्योधन के कारण नदी और नहरों आदि की सिंचाई की सुविधा से समन्वित कुरुप्रदेश की भूमि मानो वहां के किसानों के बिना अधिक परिश्रम उठाये ही बड़ी सुविधा के साथ स्वयं प्राप्त होने वाले अन्नों की समृद्धि से सुशोभित हो रही है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन केवल राजनीती पर ही ध्यान नहीं दे रहा है, वह प्रजा की समृद्धि को भी बढ़ा रहा है । उसने समूचे कुरु-प्रदेश को अब वर्षा के जल पर ही नहीं निर्भर रहने दिया है, नहरों व कुओं से सिंचाई की सुविधा कर दी है । समूचा कुरु-प्रदेश धन-धान्य से भरा-पूरा हो गया है ।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

महौजसो मानधना धनार्चिता धनुर्भृतः संयति लब्धकीर्तयः ।

न संहतास्तस्य न भेदवृत्तयः प्रियाणि वाञ्छन्त्यसुभिः समीहितुम् ।। १.१८ ।।

 

अर्थ: महाबलशाली, अपने कुल एवं शील का स्वाभिमान रखनेवाले, धन-सम्पत्ति द्वारा सत्कृत, युद्धभूमि में कीर्ति प्राप्त करनेवाले, परोपकार परायण  तथा एक कार्य में सब के सब लगे रहने वाले धनुर्धारी शूरवीर उस दुर्योधन को अपने प्राणों से ( भी ) प्रिय करने की अभिलाषा रखते हैं ।

 

टिप्पणी: धनुर्धारियों के सभी विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर तथा पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार की ससृष्टि इस श्लोक में है ।

 

उदारकीर्तेरुदयं दयावतः प्रशान्तबाधं दिशतोऽभिरक्षया ।

स्वयं प्रदुग्धेऽस्य गुणैरुपस्नुता वसूपमानस्य वसूनि मेदिनी ।। १.१९ ।।

 

अर्थ: महान यशस्वी, परदुःखकातर, समस्त उपद्रवों एवं बाधाओं को शान्त कर प्रजावर्ग की सुरक्षा की सुव्यवस्था का सम्पादन करनेवाले, कुबेर के समान उस दुर्योधन के गुणों से रीझी हुई धरती (नवप्रसूता दुधारू गौ की भांति) धन-धान्य (रुपी दूध स्वयं दे रही है।) को स्वयं उत्पन्न करती है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के दया-दाक्षिण्य आदि गुणों ने पृथ्वी को द्रवीभूत सा कर दिया है । इसका परिणाम यह हुआ है कि समूचे कुरु प्रदेश कि धरती मानो द्रवित होकर स्वयमेव दुर्योधन को धन-धान्य रुपी दूध दे रही है ।

समासोक्ति अलङ्कार । अतिशयोक्ति का भी पुट है ।

 

महीभृतां सच्चरितैश्चरैः क्रियाः स वेद निःशेषमशेषितक्रियः ।

महोदयैस्तस्य हितानुबन्धिभिः प्रतीयते धातुरिवेहितं फलैः ।। १.२० ।।

 

अर्थ:  आरम्भ किये हुए कार्यों को समाप्त करके ही छोड़ने वाला वह दुर्योधन अपने प्रशंसनीय चरित्र वाले राजदूतों के द्वारा अन्य राजाओं कि सारी कार्यवाहियां जान लेता है । (किन्तु) ब्रह्मा के समान उसकी इच्छाओं की जानकारी, उनकी महान समाप्ति के फलों द्वारा ही होती है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के गुप्तचर समग्र भूमण्डल में फैले हुए हैं । वह समस्त राजाओं कि गुप्त बातें तो मालूम कर लेता है किन्तु उसकी इच्छा तो तभी ज्ञात होती है जब कार्य पूरा हो जाता है ।

काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार है ।

 

न तेन सज्यं क्वचिदुद्यतं धनुर्न वा कृतं कोपविजिह्ममाननम् ।

गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम् ।। १.२१ ।।

 

अर्थ: उस (दुर्योधन) ने कहीं भी अपने सुसज्जित धनुष को नहीं चढ़ाया तथा (उसने) अपने मुंह को भी (कहीं) कोढ़ से टेढ़ा नहीं किया । (केवल उसके) दया-दाक्षिण्य आदि उत्तम गुणों के प्रति अनुरक्त होने के कारण उसके शासन को सभी राजा लोग माला की भांति अपने शिर पर धारण किये रहते हैं ।

 

टिप्पणी: दुर्योधन की नीतिमत्ता का यह फल है कि वह न तो कहीं धनुष का प्रयोग करता है और न कहीं मुंह से ही क्रोध प्रकट करने की उसे आवश्यकता होती है, किन्तु फिर भी सभी राजा उसके शासन को शिरसा स्वीकार करते हैं । यह केवल उसके दया-दाक्षिण्य आदि गुणों का प्रभाव है ।

पूर्वार्द्ध में साभिप्राय विशेषणों से प्रकार अलङ्कार है तथा उत्तरार्द्ध में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार है ।

 

स यौवराज्ये नवयौवनोद्धतं निधाय दुःशासनमिद्धशासनः ।

मखेष्वखिन्नोऽनुमतः पुरोधसा धिनोति हव्येन हिरण्यरेतसम् ।। १.२२ ।।

 

अर्थ: अप्रतिहत आज्ञा वाला (जिसकी आज्ञा या आदेश का पालन सब करते हैं) वह दुर्योधन नवयौवन-सुलभ उद्दण्डता से पीड़ित दुःशासन को युवराज पद पर आसीन करके स्वयं पुरोहित की अनुमति से बड़ी तत्परता के साथ आलस्य छोड़कर यज्ञों में हवनीय सामग्रियों द्वारा अग्निदेवता को प्रसन्न करता है ।

 

टिप्पणी: अर्थात अब वह शासन के छोटे-मोटे कामों के सम्बन्ध से भी निश्चिन्त है और धर्म-कार्यों में अनुरक्त है । धर्म कार्य में अनुरक्त ऐसे राजा का अनिष्ट भला हो ही कैसे सकता है ।

काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

 

 

प्रलीनभूपालमपि स्थिरायति प्रशासदावारिधि मण्डलं भुवः ।

स चिन्तयत्येव भियस्त्वदेष्यतीरहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता ।। १.२३ ।।

 

अर्थ: वह दुर्योधन (शत्रु) राजाओं के विनष्ट हो जाने के कारण सुस्थिर भूमण्डल पर समुद्र पर्यन्त राज्य शासन करते हुए भी आप की ओर से आनेवाली विपदा के भय से चिन्तित ही रहता है । क्यों न ऐसा हो, बलवान के साथ का वैर-विरोध अमङ्गलकारी ही है ।

 

टिप्पणी: समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का शत्रुहीन राजा भी अनपे विरोधी से भयभीत है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

 

कथाप्रसङ्गेन जनैरुदाहृतादनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः ।

तवाभिधानाद्व्यथते नताननः स दुःसहान्मन्त्रपदादिवोरगः ।। १.२४ ।।

 

अर्थ: बातचीत के प्रसङ्ग में लोगों द्वारा लिए जानेवाले आप के नाम से इन्द्रपुत्र अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम को स्मरण करता हुआ वह दुर्योधन (विष की औषधि करने वाले मन्त्रवेत्ता द्वारा गरुड़ और वासुकि के नामों से युक्त ) मन्त्रों के प्रचण्ड पराक्रम को न सह सकने वाले सर्प की भांति नीचे मुख करके व्यथा का अनुभव करता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि आप का नाम सुनते ही उसे गहरी पीड़ा होती है । अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम का स्मरण करके वह मंत्रोच्चारण से सन्तप्त सर्प की भांति शिर नीचे कर लेता है ।

उपमा अलङ्कार ।

 

तदाशु कर्तुं त्वयि जिह्ममुद्यते विधीयतां तत्रविधेयमुत्तरम् ।

परप्रणीतानि वचांसि चिन्वतां प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां धियः ।। १.२५ ।।

 

अर्थ: अतएव आप के साथ कपट एवं कुटिलता का आचरण करने में उद्यत उस दुर्योधन के साथ उचित उत्तर देने वाली कार्यवाही आप शीघ्र करें । दूसरों की कही गयी बातों को भुगताने वाले सन्देशहारी मुझ जैसे लोगों की बातें तो केवल परिस्थिति की सूचना मात्र देती हैं ।

 

टिप्पणी: दूत का तात्पर्य है कि अब आपको उस दुर्योधन के साथ क्या करना चाहिए, इसका शीघ्र निर्णय कर लें । इस सम्बन्ध में मेरे जैसे लोग तो यही कर सकते हैं कि जो कुछ वहां देखकर आये हैं, उसकी सूचना आप को दे दें । क्या करना चाहिए, इस सम्बन्ध में सम्मति देने के अधिकारी हम जैसे लोग नहीं हैं ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

इतीरयित्वा गिरमात्तसत्क्रिये गतेऽथ पत्यौ वनसंनिवासिनाम् ।

प्रविश्य कृष्णा सदनं महीभुजा तदाचचक्षेऽनुजसन्निधौ वचः ।। १.२६ ।।

 

अर्थ: उपर्युक्त बातें कहकर, पारितोषिक द्वारा सत्कृत उस वनवासी चर के (वहां से) चले जाने के अनन्तर राजा युधिष्ठिर द्रौपदी के भवन में प्रविष्ट हो गए और वहां उन्होंने अपने छोटे भाइयों की उपस्थिति में वे साड़ी बातें द्रौपदी को कह सुनाईं ।

 

टिप्पणी: वह वनवासी चर दुर्योधन की गोपनीय बातों की सूचना देकर उचित पुरस्कार द्वारा सम्मानित होकर जब चला गया, तब राजा युधिष्ठिर ने वे साड़ी बातें अपने छोटे भाइयों से तथा द्रौपदी से भी जाकर बता दीं ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

निशम्य सिद्धिं द्विषतामपाकृतीस्ततस्ततस्त्या विनियन्तुमक्षमा ।

नृपस्य मन्युव्यवसायदीपिनीरुदाजहार द्रुपदात्मजा गिरः ।। १.२७ ।।

 

अर्थ: द्रुपदसुता शत्रुओं की सफलता सुनकर, उनके द्वारा होने वाले अपकारों को दूर करने में अपने को असमर्थ समझ कर राजा युधिष्ठिर के क्रोध को प्रज्ज्वलित करने वाली वाणी में (इस प्रकार) बोली ।

 

टिप्पणी: स्त्रियों को पति के क्रोध को उद्दीप्त करने वाली कला खूब आती है । दुर्योधन के अभ्युदय की चर्चा सुन कर द्रौपदी को वह सब विपदाएं स्मरण हो आईं, जो अतीत में भोगनी पड़ी थीं । उसने अनुभव किया कि ये हमारे निकम्मे पति अभी तक उसका प्रतिकार भी नहीं कर सके । अतः उसने युधिष्ठिर के क्रोध को उत्तेजित करने वाली बातें कहना आरम्भ किया ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

भवादृशेषु प्रमदाजनोदितं भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् ।

तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां निरस्तनारीसमया दुराधयः ।। १.२८ ।।

 

अर्थ: (यद्यपि) आप जैसे राजाओं के लिए स्त्रियों द्वारा कही गयी अनुशासन सम्बन्धी बातें (आप के) तिरस्कार के समान हैं तथापि नारी जाति सुलभ शालीनता को छुडानेवाली (छोड़ने के लिए विवश करने वाली) ये मेरी दुष्ट मनोव्यथाएं मुझे बोलने के लिए विवश कर रही हैं ।

 

टिप्पणी: द्रौपदी कितनी बुद्धिमती थी । उसकी भाषण-पटुता देखिये । कितनी विनम्रता से वह अपना अभिप्राय प्रकट करती है । उसके कथन का तात्पर्य यह है कि दुखी व्यक्ति के लिए अनुचित कर्म भी क्षम्य होता है ।

 

काव्यलिङ्ग और उपमा की समृष्टि ।

 

अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभिश्चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः ।

त्वया स्वहस्तेन मही मदच्युता मतङ्गजेन स्रगिवापवर्जिता ।। १.२९ ।।

 

अर्थ: इन्द्र के समान पराक्रमशाली अपने वंश में उत्पन्न होनेवाले भरत आदि राजाओं द्वारा चिरकाल तक सम्पूर्ण रूप से धारण की हुई इस धरती को तुमने मद चुवाने वाले (मदोन्मत्त) गजराज द्वारा माला की भांति अपने ही हाथों से (तोड़फोड़) कर त्याग दिया है ।

 

टिप्पणी: भरत आदि पूर्ववंशजों के महान पराक्रम की याद दिलाकर द्रौपदी युधिष्ठिर को लज्जित करना चाहती है । कहाँ थे वह लोग और कहाँ हो तुम कि अपने ही साम्राज्य को अपने ही हाथों से नष्ट कर दिया । अपने ही अवगुणों से यह अनर्थ हुआ है ।

उपमा अलङ्कार ।

 

व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः ।

प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधानसंवृताङ्गान्निशिता इवेषवः ।। १.३० ।।

 

अर्थ: वे मूर्ख बुद्धि के लोग पराजित होते हैं जो (अपने) मायावी (शत्रु) लोगों के साथ मायावी नहीं बनते, क्योंकि दुष्ट लोग उस प्रकार के सीधे-सादे निष्कपट लोगो में, उघाड़े हुए अंगों में तीक्ष्ण बाणों की भांति प्रवेश करके उनका विनाश कर देते हैं ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि मायावी दुर्योधन को जीतने के लिए तुम को अपनी या धर्मात्मापने की नीति छोड़नी होगी । तुम्हें भी उसी तरह मायावी बनना होगा । जिस तरह उघडे शरीर में तीक्ष्ण बाण घुस कर अंगों का नाश कर देते हैं, उसी तरह से निष्कपट रहनेवालों के बीच में उसके कपटी शत्रु भी प्रवेश कर लेते हैं और उसका सत्यानाश कर देते हैं ।

अर्थान्तरन्यास से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार ।

 

गुणानुरक्तां अनुरक्तसाधनः कुलाभिमानी कुलजां नराधिपः ।

परैस्त्वदन्यः क इवापहारयेन्मनोरमां आत्मवधूं इव श्रियं ।। १.३१ ।।

 

अर्थ: सब प्रकार के साधनों से युक्त एवं अपने उच्च कुल का अभिमान करनेवाला तुम्हारे शिव दूसरा कौन ऐसा राजा होगा, जो सन्धि आदि (सौन्दर्य आदि) राजोचित गुणों से (स्त्रियोचित गुणों से) अनुरक्त, वंश परम्परा द्वारा प्राप्त (उच्च कुलोत्पन्न) मन को लुभानेवाली अपनी पत्नी की भांति राज्यलक्ष्मी को दूसरों से अपहृत कराएगा ।

 

टिप्पणी: स्त्री के अपहरण के समान ही राज्यलक्ष्मी का अपहरण भी मानहानिकारक है । तुम्हारे समान निर्लज्ज ऐसा कोई दूसरा राजा मेरी दृष्टी में नहीं है, जो अपने देखते हुए अपनी पत्नी की भांति अपनी राज्यलक्ष्मी को अपहरण करने दे रहा है ।

मालोपमा अलङ्कार

 

 

भवन्तं एतर्हि मनस्विगर्हिते विवर्तमानं नरदेव वर्त्मनि ।

कथं न मन्युर्ज्वलयत्युदीरितः शमीतरुं शुष्कं इवाग्निरुच्छिखः ।। १.३२ ।।

 

अर्थ: हे राजन ! ऐसा विपत्ति का समय आ जाने पर भी, वीर पुरुषों के लिए निंदनीय मार्ग पर खड़े हुए आप को (मेरे द्वारा) बढ़ाया हुआ क्रोध, सूखे हुए शमी वृक्ष को अग्नि की भांति क्यों नहीं जला रहा है ।

 

टिप्पणी: अर्थात आप को तो ऐसी विपदावस्था में उद्दीप्त क्रोध से जल उठाना चाहिए था । शत्रु द्वारा उपस्थित की गयी ऐसी दूरदशाजनक परिस्थिति में भी आप कायरों की भांति शान्तचित्त हैं, इसका मुझे आश्चर्य हो रहा है ।

उपमा अलङ्कार ।

 

 

अवन्ध्यकोपस्य निहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयं एव देहिनः ।

अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः ।। १.३३ ।।

 

अर्थ: जिसका क्रोध कभी निष्फल नहीं होता - ऐसे विपत्तियों को दूर करने वाले व्यक्ति के वश में लोग स्वयं ही हो जाते हैं (किन्तु) क्रोध से विहीन व्यक्ति के साथ प्रेम भाव पैदा होने से मनुष्य का आदर नहीं होता और न शत्रुता होने से भय ही होता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य है कि जिस मनुष्य में अपने अपकार का बदला चुकाने कि क्षमता नहीं होती उसकी मित्रता से न कोई लाभ होता है और न शत्रुता से कोई भय होता है । क्रोध अथवा अमर्ष से विहीन प्राणी नगण्य होता है । मनुष्य को समय पर क्रोध करना चाहिए और समय पर क्षमा करनी चाहिए ।

 

परिभ्रमंल्लोहितचन्दनोचितः पदातिरन्तर्गिरि रेणुरूषितः ।

महारथः सत्यधनस्य मानसं दुनोति ते कच्चिदयं वृकोदरः ।। १.३४ ।।

 

अर्थ: (पहले) लाल चन्दन लगाने के अभ्यस्त, रथ पर चलनेवाले (किन्तु सम्प्रति) धुल से भरे हुए पैदल - एक पर्वत से दुसरे पर्वत पर भ्रमण करनेवाले यह भीमसेन क्या सत्यपरायण (आप) के चित्त को खिन्न नहीं करते हैं ?

 

टिप्पणी: 'सत्यपरायण' यहाँ उलाहने के रूप में उत्तेजना देने के लिए कहा गया है । छोटे भाइयों कि दुर्दशा का चित्र खींच कर द्रौपदी युधिष्ठिर को अत्यन्त उत्तेजित करना चाहती है । उसके इस व्यंग्य का तात्पर्य यह है कि ऐसे पराक्रमी भाइयों कि ऐसी दुर्गति हो रही है और आप उन मायावियों के साथ ऐसी सत्यपरायणता का व्यवहार कर रहे हैं ।

 

परिकर अलङ्कार ।

 

विजित्य यः प्राज्यं अयच्छदुत्तरान्कुरूनकुप्यं वसु वासवोपमः ।

स वल्कवासांसि तवाधुनाहरन्करोति मन्युं न कथं धनंजयः ।। १.३५ ।।

 

अर्थ: इन्द्र के समान पराक्रमी जिस (अर्जुन) ने सुमेरु के उत्तरवर्ती कुरुप्रदेशों को जीत कर प्रचुर सुवर्ण एवं राशि लाकर आपको दी थी वही अर्जुन अब वल्कलोन का वस्त्र धारण कर तुम्हारे ह्रदय में क्रोध को क्यों नहीं पैदा कर रहा है ?

 

टिप्पणी: जिसने जीवनपर्यन्त सुखभोग के लिए पर्याप्त धनराशि अपने पराक्रम से जीत कर आपको दी थी, वही आप के कारण आज वल्कलधारी है, यह देखकर भी आप में क्रोध क्यों नहीं होता - यह आश्चर्य है ।

 

वनान्तशय्याकठिनीकृताकृती कचाचितौ विष्वगिवागजौ गजौ ।

कथं त्वं एतौ धृतिसंयमौ यमौ विलोकयन्नुत्सहसे न बाधितुं ।। १.३६ ।।

 

अर्थ: वन की विषम भूमि में सोने से जिनका शरीर कठोर बन गया है, ऐसे चरों ओर बाल उलझाए हुए, जङ्गली हाथी की भान्ति, इन दोनों जुड़वें भाइयों (नकुल और सहदेव) को देखते हुए, (तुम्हारे) धैर्य और सन्तोष तुम्हें छोड़ने को क्या नहीं तैयार होते ।

 

टिप्पणी: भीम और अर्जुन की पराक्रम-चर्चा के साथ सौतेली माता के सुकुमार पुत्रों की दुर्दशा की चर्चा भी युधिष्ठिर को और अधिक उत्तेजित करने के लिए की गयी है । इसमें तो उनके धैर्य और सन्तोष की खुले शब्दों में निन्दा भी की गयी है कि ऐसा धैर्य और सन्तोष कहीं नहीं देखा गया ।

उपमा अलङ्कार

 

इमां अहं वेद न तावकीं धियं विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः ।

विचिन्तयन्त्या भवदापदं परां रुजन्ति चेतः प्रसभं ममाधयः ।। १.३७ ।।

 

अर्थ: मैं (इतनी विपत्ति में भी आपको स्थिर रखनेवाली) आपकी बुद्धि को नहीं समझ पाती । मनुष्य-मनुष्य की चित्तवृत्ति अलग-अलग विचित्र होती है । आप की इन भयङ्कर विपत्तियों को (तो) सोचते हुए (भी) मेरे चित्त को मनोव्यथाएं अत्यन्त व्याकुल कर देती हैं ।

 

टिप्पणी: अर्थात आप जिस विपत्ति को झेल रहे हैं वह तो देखने वालों को भी परेशान कर देती है, किन्तु आप हैं जो बिलकुल निश्चिन्त और निष्क्रिय हैं । यह परम आश्चर्य है ।

 

पुराधिरूढः शयनं महाधनं विबोध्यसे यः स्तुतिगीतिमङ्गलैः ।

अदभ्रदर्भां अधिशय्य स स्थलीं जहासि निद्रां अशिवैः शिवारुतैः ।। १.३८ ।।

 

अर्थ: जो आप पहले अत्यन्त मूलयवान शय्या पर सोकर स्तुति पाठ करनेवाले बैतालिकों के मङ्गल गान से जगाये जाते थे, व्है आप अब कुशों से आकीर्ण वनस्थली में शयन करते हुए अमङ्गल की सूचना देनेवाली शृगालियों के रुदन शब्दों से निद्रा-त्याग करते हैं ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है की विपदा ही क्यों, आप की भी तो दुर्दशा हो रही है ।

विषम अलङ्कार

 

पुरोपनीतं नृप रामणीयकं द्विजातिशेषेण यदेतदन्धसा ।

तदद्य ते वन्यफलाशिनः परं परैति कार्श्यं यशसा समं वपुः ।। १.३९ ।।

वंशस्थ छन्द

 

अर्थ: हे राजन ! आपका जो यह शरीर पहले ब्राह्मणों के भोजनादि से शेष अन्न द्वारा परिपोषित होकर मनोहर दिखाई पड़ता था, वही आज जङ्गली फल-फूलों के भक्षण से, आपके यश की साथ, अत्यन्त दुर्बल हो गया है ।

 

टिप्पणी: अर्थात न केवल शरीर ही दुर्बल हो गया है, वरन आपकी कीर्ति भी धूमिल हो गयी है ।

सहोक्ति अलङ्कार

 

 

अनारतं यौ मणिपीठशायिनावरञ्जयद्राजशिरःस्रजां रजः ।

निषीदतस्तौ चरणौ वनेषु ते मृगद्विजालूनशिखेषु बर्हिषां ।। १.४० ।।

वंशस्थ छन्द

 

अर्थ: सर्वदा मणि के बने हुए सिंहासन पर विश्राम करनेवाले आप के जिन दोनों पैरों को (अभिवादन के लिए झुकने वाले) राजाओं के मस्तक की मालाओं की धूलि लगती थी, (अब) वही दोनों चरण हरिणो अथवा ब्राह्मणों के द्वारा छिन्न कुशों के वनों में विश्राम पाते हैं ।

 

टिप्पणी: इससे बढ़कर विपत्ति अब और क्या आएगी ।

विषम अलङ्कार

 

 

द्विषन्निमित्ता यदियं दशा ततः समूलं उन्मूलयतीव मे मनः ।

परैरपर्यासितवीर्यसम्पदां पराभवोऽप्युत्सव एव मानिनाम्  ।। १.४१ ।।

वंशस्थ छन्द

 

अर्थ: आप की यह दुर्दशा शत्रु के कारण हुई है, इसलिए मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध सा होता है । (वैसे) शत्रुओं द्वारा जिसके बल एवं पराक्रम का तिरस्कार नहीं हुआ है, ऐसे मनस्वियों का पराभव भी उत्साहवर्धक ही होता है ।

 

टिप्पणी: मानियों की विपदा बुरी नहीं है, उनकी मानहानि बुरी है । वही सब से बढ़ कर असहनीय है ।

उत्प्रेक्षा और अर्थान्तरन्यास अलङ्कारों की ससृष्टि

 

 

विहाय शान्तिं नृप धाम तत्पुनः प्रसीद संधेहि वधाय विद्विषां ।

व्रजन्ति शत्रूनवधूय निःस्पृहाः शमेन सिद्धिं मुनयो न भूभृतः ।। १.४२ ।।

वंशस्थ छन्द

 

अर्थ: (इसलिए) हे राजन ! शान्ति को त्याग कर आप (अपने) उस तेज को शत्रुओं के विनाशार्थ पुनः प्राप्त करें तथा प्रसन्न हों । निस्पृह मुनि लोग (ही) शत्रुओं (कामादि मनोविकारों) को तिरस्कृत कर के शान्ति के द्वारा सिद्धि की प्राप्ति करते हैं, राजा लोग नहीं ।

 

टिप्पणी: शान्ति द्वारा प्राप्त होने वाले मोक्षादि पदार्थों की भांति राज्यलक्ष्मी शान्ति से प्राप्त नहीं होती, वह वीरभोग्या है । आपको तो अपने शत्रु का विनाश करने वाला तेज पुनः धारण करना होगा ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

पुरःसरा धामवतां यशोधनाः सुदुःसहं प्राप्य निकारं ईदृशं ।

भवादृशाश्चेदधिकुर्वते परान्निराश्रया हन्त हता मनस्विता ।। १.४३ ।।

वंशस्थ छन्द

 

अर्थ: तेजस्वियों में अग्रगामी, यश को सर्वस्व माननेवाले आप जैसे शूरवीर अत्यन्त कठिनाई से सहने योग्य, इस प्रकार से शत्रु द्वारा होने वाले अपमान को प्राप्त करके यदि सन्तोष करते हैं तो हाय !  स्वभिमानिता बेचारी निराश्रय होकर नष्ट हो गयी ।

 

टिप्पणी: अर्थात आप जैसे तेजस्वी तथा यश को ही जीवन का उद्देश्य माननेवाला भी यदि शत्रु द्वारा प्राप्त दुर्दशा को सहन करता है तो साधारण मनुष्य के लिए क्या कहा जाय ? अतः पराक्रम करना ही अब आपका धर्म है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

अथ क्षमां एव निरस्तसाधनश्चिराय पर्येषि सुखस्य साधनं ।

विहाय लक्ष्मीपतिलक्ष्म कार्मुकं जटाधरः सञ्जुहुधीह पावकं ।। १.४४ ।।

वंशस्थ छन्द

 

अर्थ: अथवा (अपनी सूर्य तेजस्विता का नहीं धारण करना चाहते और) अपने पराक्रम का त्याग कर चिरकाल तक शान्ति को ही सुख का कारण मानते हो तो राजचिन्ह से चिन्हित धनुष को फेंककर जटा धारण कर लो और इस तपोवन में अग्नि में हवन करो ।

 

 

टिप्पणी: अर्थात बलवानों के लिए भी यदि शान्ति ही सुखदायी हो तो विरक्तों की तरह बलवानों को भी धनुष धारण करने से क्या लाभ है ? उसे फेंक देना चाहिए ।

 

 

न समयपरिरक्षणं क्षमं ते निकृतिपरेषु परेषु भूरिधाम्नः ।

अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा विदधति सोपधि संधिदूषणानि ।। १.४५ ।।

पुष्पिताग्रा छन्द

 

अर्थ: नीचता पर उतारू शत्रुओं के रहते हुए आप जैसे परम तेजस्वी के लिए तरह वर्ष की अवधि की रक्षा की बात सोचना अनुचित है, क्योंकि विजय के अभिलाषी राजा अपने शत्रुओं के साथ किसी न किसी बहाने से सन्धि आदि को भङ्ग कर ही देते हैं ।

 

टिप्पणी: जो शक्तिमान होते हैं, उनके लिए सर्वदा अपना कार्य करना ही कल्याणकारी है, समय अथवा प्रतिज्ञा की रक्षा कायरों के लिए उचित है ।

काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

विधिसमयनियोगाद्दीप्तिसंहारजिह्मं शिथिलबलं अगाधे मग्नं आपत्पयोधौ ।

रिपुतिमिरं उदस्योदीयमानं दिनादौ दिनकृतं इव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतु भूयः ।। १.४६ ।।

मालिनी छन्द

 

अर्थ: देव और कालचक्र के कारण अगाध विपत्ति समुद्र में डूबे हुए, प्रताप के नष्ट हो जाने से अप्रसन्न, विनष्ट धन-सम्पत्ति, शत्रुरूपी अन्धकार को विनष्ट कर उदित होने वाले आप को प्रातः काल के (कालचक्र के कारण पश्चिम समुद्र में निमग्न, प्रकाश के नष्ट हो जाने से निस्तेज एवं अन्धकार को दूर कर उदित होने वाले) सूर्य की भान्ति राज्यलक्ष्मी (कान्ति) फिर से प्राप्त हो ।

 

टिप्पणी: रात्रि भर पश्चिम के समुद्र में डूबे हुए निस्तेज सूर्य को प्रातः काल उदित होने पर जिस प्रकार पुनः उसकी कान्ति प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार इतने दिनों तक विपत्तियों के अगाध समुद्र में डूबे हुए, निस्तेज एवं निर्धन आप को भी आपकी राज्यलक्ष्मी जल्द ही प्राप्त हो - यह मेरी कामना है ।

 

सर्ग का आरंभ श्री शब्द से हुआ था और उसका अन्त भी लक्ष्मी शब्द से हुआ । मंगलाचरण के लिए ऐसा ही शास्त्रीय विधान है । यह मालिनी छन्द है, जिसका लक्षण है, "ननमयययुतेय मालिनी भोगिलोकौ ।" छन्द में पूर्णोपमा अलङ्कार है ।

 

 

इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये प्रथमः सर्गः ।।

 

=================================================

 

 

विहितां प्रियया मनःप्रियां अथ निश्चित्य गिरं गरीयसीम् ।

उपपत्तिमदूर्जिताश्रयं नृपं ऊचे वचनं वृकोदरः ।। २.१ ।।

 

अर्थ: द्रौपदी के कथन के अनन्तर भीमसेन प्रियतमा द्रौपदी द्वारा कही गयी मन को प्रिय लगने वाली वाणी को अर्थ-गौरव से संयुक्त मानकर राजा युधिष्ठिर से युक्तियुक्त एवं गंभीर अर्थों से युक्त वचन (इस प्रकार) बोले ।

 

टिप्पणी: द्रौपदी की उत्तेजक बातों से भीम मन ही मन प्रसन्न हुए थे, और उनमें उन्हें अर्थ की गंभीरता भी मालूम पड़ी थी । अतः उसी का अनुमोदन करने के लिए वह तर्कसंगत एवं अर्थ-गौरव से युक्त वाणी में आगे स्वयं युधिष्ठिर को समझाने का प्रयत्न करते हैं ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

 

यदवोचत वीक्ष्य मानिनी परितः स्नेहमयेन चक्षुषा ।

अपि वागधिपस्य दुर्वचं वचनं तद्विदधीत विस्मयं ।। २.२ ।।

 

अर्थ: क्षत्रिय कुलोचित स्वाभिमान से भरी द्रौपदी ने स्नेह से पूर्ण नेत्रों से (ज्ञान नेत्रों से) चारों ओर देखकर जो बातें (अभी) कहीं हैं, बृहस्पति के लिए भी कठिनाई से कहने योग्य उन बातों से सब को विस्मय होगा ।   अथवा कठिनाई से भी न कहने योग्य उन बातों से बृहस्पति को भी आश्चर्य होगा ।

 

टिप्पणी: भीमसेन के कथन का तात्पर्य यह है कि द्रौपदी ने जो कुछ कहा है वह यद्यपि स्त्रीजन सुलभ शालीनता के विरुद्ध होने के कारण विस्मयजनक है । तथापि उसमें बृहस्पति को भी आश्चर्यचकित करने वाली बुद्धि की बातें हैं, उन्हें आपको अङ्गीकार करना ही उचित है ।

 

वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार ।

 

विषमोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसां इवाशयः ।

स तु तत्र विशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः ।। २.३ ।।

 

अर्थ: नीतिशास्त्र बड़ा ही दुरूह और गहन विषय है, फिर भी जलाशय की भान्ति अभ्यास आदि (सन्तरण आदि) करने से उसमें प्रवेश किया जा सकता है । किन्तु इस प्रसङ्ग से ऐसा व्यक्ति मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, जो सन्धि विग्रह आदि कार्यों को (स्नानादि कार्यों को) देश काल की परिस्थिति के अनुसार (गड्ढा, पत्थर, ग्रह आदि की जानकारी) प्रस्तुत करता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है की नीतिशास्त्र बड़ा गम्भीर है । यह उस जलाशय के समान है जिसमें बन्धे हुए घाट के बिना प्रवेश करना बड़ा दुष्कर है । पता नहीं कहाँ उसमें गहरा गड्ढा है, कहाँ शिलाखण्ड है, कहाँ ग्राह बैठा है ? राजनीति में भी इसी तरह की गुत्थियां रहती हैं, उसमें धीरे धीरे प्रवेश के अभ्यास द्वारा ही गति की जा सकती है । जैसे कोई विरला ही सरोवर की भीतरी बातों को जानता है और स्नानार्थी को सब सूचनाएं देकर स्नान के लिए प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार सन्धि-विग्रह आदि कार्यों को जाननेवाला कोई विरला ही होता है, जो समय समय पर उनके उपयोग की आवश्यकता समझाकर राजनीति सिखानेवालों दक्ष बनाता है । सभी लोग ऐसा नहीं कर सकते । द्रौपदी में वह सब गुण हैं, जो विस्मयजनक है किन्तु वह जो कुछ इस समय कह रही है, उसका हमें पालन करना चाहिए

 

परिणामसुखे गरीयसि व्यथकेऽस्मिन्वचसि क्षतौजसां ।

अतिवीर्यवतीव भेषजे बहुरल्पीयसि दृश्यते गुणः ।। २.४ ।।

 

अर्थ: परिणाम में लाभदायक और श्रेष्ठ किन्तु क्षीण शक्ति वालों (दुर्बल पाचनशक्ति वालों) के लिए भयङ्कर दुःखदायी, स्वल्प मात्रा में भी अत्यन्त पराक्रम देनेवाली औषधि की भान्ति द्रौपदी की (इस) वाणी में अत्यन्त गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार उत्तम औषधि की अल्प मात्रा में भी आरोग्य, बल, पोषण आदि अनेक गुण होते हैं, परिणाम लाभदायक होता है, किन्तु वही क्षीण पाचन शक्ति वालों के लिए भयङ्कर कष्टदायिनी होती है, उसी प्रकार द्रौपदी की यह वाणी भी यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु श्रेष्ठ है । इसका परिणाम उत्तम है और इसके अनुसार आचरण करने से निश्चय ही आपके ऐश्वर्य एवं पराक्रम की वृद्धि होगी । मुझे तो इसमें मानरक्षा, राज्यलक्ष्मी की पुनः प्राप्ति आदि अनेक गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।

 

उपमा अलङ्कार।

 

 

इयं इष्टगुणाय रोचतां रुचिरार्था भवतेऽपि भारती ।

ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः ।। २.५ ।।

 

अर्थ: सुन्दर अर्थों से युक्त द्रौपदी की यह वाणी गुणग्राही आप के लिए भी रुचिकर होनी चाहिए । क्योंकि गुणों को ग्रहण करनेवाले विद्वान् लोग (किसी) वाणी में वक्ता की स्पृहा नहीं रखते ।

 

टिप्पणी: अर्थात गुणग्राही लोग किसी भी बात की अच्छे को तुरन्त स्वीकार कर लेते हैं, वे यह नहीं देखते कि उसका वक्ता कोई पुरुष है या स्त्री है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

 

चतसृष्वपि ते विवेकिनी नृप विद्यासु निरूढिं आगता ।

कथं एत्य मतिर्विपर्ययं करिणी पङ्कं इवावसीदति ।। २.६ ।।

 

अर्थ: हे राजन ! आन्वीक्षिकी आदि चारोंह विद्याओं में प्रसिद्धि को प्राप्त करनेवाली आपकी विवेकशील बुद्धि, दलदल में फांसी हुई हथिनी की भान्ति विपरीत अवश्था को प्राप्त करके क्यों विनष्ट हो रही है ?

 

टिप्पणी: अर्थात जैसे हथिनी दलदल में फंसकर विनष्ट हो जाती है उसी प्रकार चारों विद्याओं में निपुण आपकी बुद्धि आज की विपरीत परिस्थिति में फंसकर क्यों नष्ट हो रही है ?

 

उपमा अलङ्कार।

 

विधुरं किं अतः परं परैरवगीतां गमिते दशां इमां ।

अवसीदति यत्सुरैरपि त्वयि सम्भावितवृत्ति पौरुषं ।। २.७ ।।

 

अर्थ: शत्रुओं द्वारा आपके इस दयनीय अवस्था में पहुंचाए जाने पर, देवताओं द्वारा भी प्रशंसित आपका जो पुरुषार्थ नष्ट हो रहा है उससे बढ़कर कष्ट देने वाली दूसरी बात (भला) क्या होगी ?

 

टिप्पणी: अर्थात आपके जिस ऐश्वर्य एवं पराक्रम की प्रशंसा देवता लोग भी करते थे, वह नष्ट हो गया है, अतः इससे बढ़कर कष्ट की क्या बात होगी । शत्रुओं ने आपको ऐसी दुर्दशाजनक स्थिति में पहुँचा दिया है, इसका आपको बोध नहीं हो रहा है ।

काव्यलिङ्ग अथवा अर्थापत्ति अलङ्कार ।

 

द्विषतां उदयः सुमेधसा गुरुरस्वन्ततरः सुमर्षणः ।

न महानपि भूतिं इच्छता फलसम्पत्प्रवणः परिक्षयः ।। २.८ ।।

वियोगिनी छन्द

 

अर्थ: ऐश्वर्य की कामना करनेवाले व्यक्ति, क्षय-पर्यवसायी शत्रु की उन्नति को सह लेते हैं किन्तु अभ्युदयकारी शत्रु की वर्तमान कालिक अवनति की भी उपेक्षा नहीं करते ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

 

अचिरेण परस्य भूयसीं विपरीतां विगणय्य चात्मनः ।

क्षययुक्तिं उपेक्षते कृती कुरुते तत्प्रतिकारं अन्यथा ।। २.९ ।।

वियोगिनी छन्द

 

अर्थ: ऐश्वर्याभिलाषी चतुर व्यक्ति शत्रु के क्षीयमान अभ्युदय की तो उपेक्षा करते हैं किन्तु अभ्युदोन्मुख विपदग्रस्त शत्रु की वे कथमपि उपेक्षा नहीं करते ।

 

टिप्पणी: महाकवि भारवि का राजनैतिक तलस्पर्शी ज्ञान यहाँ सुस्पष्ट प्रतीत होता है । शत्रु की उपेक्षा कब करनी चाहिए और कब उसका प्रतिकार करना चाहिए इसका विवेचन, मनन करने योग्य है ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

राजनीति शास्त्र के विरुद्ध उपेक्षात्मक आचरण करने का फल अनिष्ट होता है यह बतलाते हुए महाकवि भारवि भीमसेन के द्वारा कहते हैं -

 

अनुपालयतां उदेष्यतीं प्रभुशक्तिं द्विषतां अनीहया ।

अपयान्त्यचिरान्महीभुजां जननिर्वादभयादिव श्रियः ।। २.१० ।।

वियोगिनी छन्द

 

अर्थ: जो पृथ्वीपति उत्साह के अभाव में शत्रुओं की बर्धिष्णु प्रभुशक्ति की उपेक्षा करते हैं, उनकी राज्यलक्ष्मी मानो जनापवाद (लोकनिन्दा) के भय से छोड़कर अन्यत्र अविलम्ब चली जाती है जैसे षण्ड की पत्नी षण्डपति को छोड़ कर चल देती है

हेतुत्प्रेक्षालङ्कार

 

क्षययुक्तं अपि स्वभावजं दधतं धाम शिवं समृद्धये ।

प्रणमन्त्यनपायं उत्थितं प्रतिपच्चन्द्रं इव प्रजा नृपं ।। २.११ ।।

वियोगिनी छन्द

 

अर्थ: हे राजन ! जिस प्रकार परिक्षीण प्रतिपच्चन्द्र को बर्धिष्णु होने से लोग प्रणाम करते हैं उसी प्रकार परिस्थिति विशेष से जो राजा क्षीणबल हो गया हो किन्तु प्रजाकल्याणार्थ उत्साह-तेज से सम्पन्न हो उस राजा को भी लोग नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं, उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं । उत्साह तेज-सम्पन्न राजा को जन-बल स्वतः ही प्राप्त रहता है अतः शत्रु का प्रतिकार करने में अपने को हीन बल न समझो !

 

 

टिप्पणी: बर्धिष्णु चन्द्र जिस प्रकार वंदनीय होता है उसी प्रकार उत्साह सम्पन्न राजा क्षीणवाल होने पर भी प्रजाजनों के द्वारा आदरणीय होता है । पूर्णचन्द्र क्षय-पर्यवसायी होने से सन्तोषजनक नहीं होता जितना बर्धिष्णु प्रतिपच्चन्द्र होता है । इस सुप्रसिद्ध उपमान के द्वारा राजा युधिष्ठिर को शत्रु का प्रतिकार करने हेतु उत्साह धारण करने के लिए भीमसेन प्रेरित करता है । प्रतिपच्चन्द्र क्षीणवत होने पर भी केवल बर्धिष्णु होने के कारण जैसे वंदनीय होता है उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर सम्प्रति आप, क्षीणबल होने पर भी यदि लोक-कल्याणार्थ उत्साह धारण करोगे तो आप भी प्रजा के आदरणीय बन जाओगे । राजा दुर्योधन इस समय भले ही बल सम्पन्न हो किन्तु वह पूर्णचन्द्र कि तरह उत्साह सम्पन्न न होने से बर्धिष्णु नहीं है अतः प्रजा का समर्थन उसे प्राप्त नहीं है । उत्साह सम्पन्न राजा ही प्रजा को सर्वाधिक प्रिय होता है । यह गम्भीर भाव महाकवि भारवि ने बड़ी खूबी से यहाँ हृदयगम कराया है ।

 

प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपञ्चाङ्गविनिर्णयो नयः ।

स विधेयपदेषु दक्षतां नियतिं लोक इवानुरुध्यते ।। २.१२ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: सहायक, कार्य साधन के उपाय, देश और काल का विभाग तथा विपत्ति प्रतिकार, इन कार्य सिद्धि के पाँचों अंगों का सम्यक निर्णय करने वाली नीति, राजकोष और चतुरङ्गिणीसेना की उत्पादक होती है । यह नीति कर्त्तव्य-कर्म में नैपुण्य प्रदान करती है । जैसे कृषक वर्ग दैवानुसारी होता है उसी प्रकार प्रभु शक्ति भी उत्साह शक्ति का अनुसरण करती है । तात्पर्य यह है कि कार्य की सिद्धि में मुख्यतः उत्साह शक्ति ही कारण होती है ।

उपमा अलङ्कार

 

टिप्पणी:

-कामन्दकीय नीतिशास्त्र में कार्यसिद्धि के पांच अंग बताये गए हैं ।

-सभी कार्य प्रायः द्रव्य-साध्य होते हैं अथवा दण्डसाध्य होते हैं ।

-द्रव्य(कोश) और दण्डकी उत्पादक मन्त्रणा-नीति होती है । किन्तु नीति की सफलता उत्साह-मूलक है । उत्साह के साथ क्षिप्रकारिता (अदीर्घसूत्रता) का होना अत्यावश्यक है । अन्यथा 'कालः पिबति तद्रसम्'

-कृषक गण नियति (दैव)वादी हो सकते हैं क्षात्रधर्मावलम्बी राजा तो नीति वादी होता है । नीति के माध्यम से कार्य सिद्धि के पञ्चाङ्गों का निश्चय कर, कार्यसिद्धि प्राप्त करने में नैपुण्य प्राप्त किया जाता है । नीति ही राजकोश और दण्ड (चतुरङ्गिनी सेना) की जननी है ।

- नीति का साफल्य उत्साह शक्ति पर ही सर्वथा निर्भर होता है ।

- नियतिवादी परतन्त्र होता है और नीति वादी स्वतन्त्र । राजनीति के गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करने में महाकवि भारवि सिद्ध-हस्त हैं ।

 

अभिमानवतो मनस्विनः प्रियं उच्चैः पदं आरुरुक्षतः ।

विनिपातनिवर्तनक्षमं मतं आलम्बनं आत्मपौरुषं ।। २.१३ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: स्वाभिमान धारण करने वाले मनुष्य को अपने अभीष्ट उन्नत स्थान पर प्रतिष्ठित होते समय उसे अपने स्वयं के पुरुषार्थ (पराक्रम) का ही सहारा लेना पड़ता है । अभीस्ट स्थान की प्राप्ति में आने वाली विघ्न-बाधाओं का निवारण करने में समर्थ, अपने स्वयं के पराक्रम का ही सहारा उसे लेना पड़ता है । क्योंकि मनस्वी पुरुषों का एकमात्र आलम्बन उनका स्वयं का ही एकमात्र पुरुषार्थ होता है । मनस्वी पुरुष सदा स्वावलम्बी होते हैं ।

 

विपदोऽभिभवन्त्यविक्रमं रहयत्यापदुपेतं आयतिः ।

नियता लघुता निरायतेरगरीयान्न पदं नृपश्रियः ।। २.१४ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: विपत्तियां पराक्रम शून्य पुरुष पर ही आक्रमण करती हैं । विपदग्रस्त मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय होता है । विपत्ति से घिरने पर उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है । नष्ट गौरव पुरुष राज्यलक्ष्मी पाने का पात्र नहीं होता है । ये सभी दोष एकमात्र पौरुष का आश्रय करने से दूर हो जाते हैं ।

 

 

तदलं प्रतिपक्षं उन्नतेरवलम्ब्य व्यवसायवन्ध्यतां ।

निवसन्ति पराक्रमाश्रया न विषादेन समं समृद्धयः ।। २.१५ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: इसलिए उन्नति में बाधक होने वाली उद्योग शून्यता का (अनुत्साह का) आश्रय करना अनुचित है, क्योंकि सर्वप्रकार की समृद्धियाँ पराक्रमी एवं सतत उद्योगशील व्यक्ति को ही संवरण करती हैं । उत्साहरहित(आलसी) मनुष्य का समृद्धियाँ परित्याग करती हैं ।

 

टिप्पणी: अभ्युदयाकांक्षी पुरुष को सतत उद्योग प्रवण रहना चाहिए, इस बात को कवी ने बहुत ही रोचक ढंग से कहा है ।

अर्थान्तरन्यास तथा काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

अथ चेदवधिः प्रतीक्ष्यते कथं आविष्कृतजिह्मवृत्तिना ।

धृतराष्ट्रसुतेन सुत्यज्याश्चिरं आस्वाद्य नरेन्द्रसम्पदः ।। २.१६ ।।

 

अर्थ: अब यदि आप अवधि की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो (यह सोचने की भूल है कि) जिसने अब तक अपने अनेक छाल-कपटपूर्ण कार्यों का पर्चे दिया है, वह धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन, चिरकाल तक राज्यश्री का सुख अनुभव करके उसे आसानी से कैसे छोड़ देगा ?

 

टिप्पणी: अर्थात जिस कुटिल दुर्योधन ने अधिकार होते हुए भी हमारे भाग को हड़प लिया है वह इतने दिनों तक उसका उपभोग करके हमारी वनवास कि अवधि बीतने के अनन्तर उसे सुख से लौटा देगा - ऐसा समझना भूल है । आप को इसी समय जो कुछ करना है, करना चाहिए ।

अर्थापत्ति अलङ्कार।

 

द्विषता विहितं त्वयाथवा यदि लब्धा पुनरात्मनः पदं ।

जननाथ तवानुजन्मनां कृतं आविष्कृतपौरुषैर्भुजैः ।। २.१७ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: अथवा हे राजन ! शत्रु दुर्योधन द्वारा लौटाए गए अपने राज्य सिंहासन को यदि आप पुनः प्राप्त कर लेंगे तब आपके छोटे भाइयों (अर्जुन आदि) की उन भुजाओं से फिर लाभ क्या होगा, जिनका पराक्रम अनेक बार प्रकट हो चूका है ।

 

टिप्पणी: शत्रु की कृपा द्वारा यदि आपको सिंहासन मिल भी जाता है तब हमारी भुजाओं का पराक्रम व्यर्थ ही रह जाएगा ।

अर्थापत्ति अथवा परिकर अलङ्कार

 

 

मदसिक्तमुखैर्मृगाधिपः करिभिर्वर्तयति स्वयं हतैः ।

लघयन्खलु तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिं अन्यतः ।। २.१८ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: सिंह अपने द्वारा मारे गए मुख भाग से मद चूने वाले हाथियों से ही अपनी जीविका निर्वाहित करता है । अपने तेज से संसार को पराजित करने वाला महान पुरुष किसी अन्य की सहायता से ऐश्वर्य की अभिलाषा नहीं किया करता ।

 

टिप्पणी: तेजस्वी पुरुष किसी दुसरे द्वारा की गई जीविका नहीं ग्रहण करते । 'मदसिक्तमुखैः' यह विशेषण मदोन्मत्त गजेन्द्र का विनाशक होने का सूचक है और 'मृगाधिप' पद का ग्रहण करने से राजाओं में सिंह सदृश तू (युधिष्ठिर) मदोन्मत्त गजरावत भीष्म-द्रोणादिक का विनाशकर राज्य को पुनः पा सकता है । इसका सूचक है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

अभिमानधनस्य गत्वरैरसुभिः स्थास्नु यशश्चिचीषतः ।

अचिरांशुविलासचञ्चला ननु लक्ष्मीः फलं आनुषङ्गिकं ।। २.१९ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: अपनी जाति कुल और मर्यादा की रक्षा को ही अपना सर्वस्वा समझने वाले (पुरुष) अपने अस्थिर (नाशवान) प्राणो के द्वारा स्थिर यश की कामना करते हैं । इस प्रसङ्ग में (उन्हें) बिजली की चमक के सामान चञ्चला (क्षणिक) राज्यश्री (यदि प्राप्त हो जाती है तो वह) अनायास ही प्राप्त होने वाला फल है ।

 

टिप्पणी: महाकवि भारवि ने वास्तु विनिमय करते हुए किस बात का महत्व है इसे बहुत ही प्रभावी ढंग से निरूपित किया है । महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश में इस विषय पर विवेचन किया है 'एकान्त विध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेध्वनास्था खलु भौतिकेषु' दोनों महाकवियों का वर्णन नैपुण्य प्रशंसनीय है । तात्पर्य यह कि मनस्वी पुरुष केवल यश के लिए अपने प्राण गँवाते हैं, धन के लिए नहीं । क्योंकि यश स्थिर है और लक्ष्मी बिजली की चमक के समान चञ्चला है । उन्हें लक्ष्मी की प्राप्ति भी होती है, किन्तु उनका उद्देश्य यह नहीं होता । उसकी प्राप्ति तो अनायास ही हो जाती है ।

परिवृत्ति अलङ्कार

 

ज्वलितं न हिरण्यरेतसं चयं आस्कन्दति भस्मनां जनः ।

अभिभूतिभयादसूनतः सुखं उज्झन्ति न धाम मानिनः ।। २.२० ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: मनुष्य राख की ढेर को तो अपने पैरो आदि से कुचल देते हैं किन्तु जलती हुई आग को नहीं कुचलते । इसी कारण से मनस्वी लोग अपने प्राणो को तो सुख के साथ छोड़ देते हैं किन्तु अपनी तेजस्विता अथवा मान-मर्यादा को नहीं छोड़ते ।

 

टिप्पणी: मानहानिपूर्ण जीवन से अपनी तेजस्विता के साथ मर जाना ही अच्छा है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

*संस्कृत भाषा अखिल विश्व की भाषाओं में सर्वाधिक समृद्ध भाषा है । संस्कृत भाषा में अग्निवाचक ३४ शब्द हैं । 'हिरण्यरेता' यह भी अग्नि के अनेक नामों में से एक है ।

 

 

किमपेक्ष्य फलं पयोधरान्ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः ।

प्रकृतिः खलु सा महीयसः सहते नान्यसमुन्नतिं यया ।। २.२१ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: (भला) सिंह किस फल की आशा से गरजते हुए बादलों पर आक्रमण करता है । मनस्वी लोगों का यह स्वभाव ही है कि जिसके कारण से वे दूसरों(शत्रु) की अभ्युन्नति को सहन नहीं करते । शत्रु को आतङ्कित करने में किसी प्रयोजन की आवश्यकता ही नहीं होती है अतः हे राजन! आप चुप न बैठो, अपने पराक्रम से शत्रु का शीघ्र विध्वंस करो ।

 

टिप्पणी: अपने उत्कर्ष के इच्छुक मनस्वी लोग दूसरों कि वृद्धि या अभ्युन्नति को सहन भी नहीं कर सकते । मनस्वियों का यही पुरुषार्थ है कि वे दूसरों को पीड़ा पहुंचकर अपनी कीर्ति बढ़ायें ।

 

यहाँ 'पयोधर' पद का प्रयोग मेघ का ही द्योतक मानना चाहिए ।  सजल मेघ का गर्जन गंभीर होता है और वही सिंह के कोप को उद्दीप्त करने में समर्थ होता है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

कुरु तन्मतिं एव विक्रमे नृप निर्धूय तमः प्रमादजं ।

ध्रुवं एतदवेहि विद्विषां त्वदनुत्साहहता विपत्तयः ।। २.२२ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे राजन युधिष्ठिर! इसलिए आप अपनी असावधानी से उत्पन्न मोह को दूर कर पुरुषार्थ में ही अपनी बुद्धि लगाइये । (दूसरा कोई उपाय नहीं है। ) शत्रुओं की विपत्तियां केवल आपके अनुत्साह के कारण से रुकी हुई हैं - यह निश्चय जानिये ।

 

टिप्पणी: अर्थात यदि आप तनिक भी पुरुषार्थ और उत्साह धारण कर लेंगे तो शत्रु विपत्तियों में निमग्न हो जाएंगे ।

काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

 

द्विरदानिव दिग्विभावितांश्चतुरस्तोयनिधीनिवायतः ।

प्रसहेत रणे तवानुजान्द्विषतां कः शतमन्युतेजसः ।। २.२३ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे राजन ! आपके हम चारों भाई दिग्गजों की तरह हैं । चारों समुद्र जैसे सर्वत्र चारों दिशाओं में प्रसिद्ध हैं । शत्रुओं के द्वारा सर्वथा अजेय हैं । रणभूमि में आते हुए इन्द्र के समान पराक्रमशाली आप के कनिष्ठ (चारों) भाइयों को शत्रुओं में से कौन सहन कर सकता है ?

 

टिप्पणी: अर्थात ऐसे परम पराक्रमशील एवं तेजस्वी भाइयों के रहते हुए आप किस बात की चिन्ता कर रहे हैं । आप को निःशंक होकर दुर्योधन से भिड़ जाना चाहिए ।

उपमा तथा अर्थापत्ति अलङ्कार

 

भीमसेन शुभाकांक्षा के बहाने परिणाम का कथन करते हुए कहता है कि -

ज्वलतस्तव जातवेदसः सततं वैरिकृतस्य चेतसि ।

विदधातु शमं शिवेतरा रिपुनारीनयनाम्बुसन्ततिः ।। २.२४ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे राजन युधिष्ठिर! आपके ह्रदय में शत्रु द्वारा निरन्तर प्रज्वलित क्रोधाग्नि की शान्ति शत्रुओं की विधवा स्त्रियों की आँखों से निरन्तर झरने वाली आंसुओं की झड़ी करें ।

(भीमसेन की कामना इस वचनावली से सुस्पष्ट है । वनवास के असहनीय कष्टों ने भीमसेन के मुख से मुखरिता प्राप्त की है । भीमसेन भी धीरोदात्त एवं गम्भीर स्वभाव का है किन्तु शत्रु कृत अपमान और असंख्य कष्टों से विवश होकर उसे ऐसा निर्णय लेकर कहने के लिए विवश होना पड़ा है । बड़े भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर वनवास स्वीकार करने वाला भीमसेन जब ऐसा कह रहा है तब उसका कारण भी वैसा ही अवश्य होना चाहिए । )

 

टिप्पणी: यहाँ जल सिञ्चन के साथ शत्रुवध का सादृश्य गम्य है ।

उपमा अलङ्कार

 

भीम को अत्यधिक क्रुद्ध जानकर धर्मराज युधिष्ठिर उसको सांत्वना देते हैं ।

इति दर्शितविक्रियं सुतं मरुतः कोपपरीतमानसं ।

उपसान्त्वयितुं महीपतिर्द्विरदं दुष्टं इवोपचक्रमे ।। २.२५ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: जब राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन में बढ़ा हुआ क्रोध उसके कठोर भाषण से जाना तो भीमसेन उन्हें बिगड़े हुए क्रोधोन्मत्त हाथी की तरह जान पड़ा और युधिष्ठिर ने समझ लिया कि यदि युक्ति से तथा सामोपचार से इसे सांत्वना न देने पर यह काबू से बाहर होकर हाथ से निकल जावेगा क्योंकि क्रोधोन्मत्त व्यक्ति में विचार-शक्ति नष्ट हो जाती है । अतः समजस राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन के कठोर भाषण का उत्तर कठोर शब्दों से देना उचित न समझकर सौम्य शब्दों से ही समझाना आरम्भ किया । क्योंकि ठण्डा लोहा ही गरम लोहे को काट पाता है ।

 

टिप्पणी: यहाँ भीमसेन का नाम ग्रहण टाल कर उसे मरुतसुत (वायुपुत्र) कहने का तात्पर्य यह है कि वायु जिस प्रकार वात्या(आंधी) आदि रूपों में क्षण-क्षण में अपने रूप बदलती है । 'पितुश्चरित्र पुत्र एवानुकुरुते' इस नियम के अनुसार वृकोदर होने से (वायु संसर्गजन्य गुण-दोषों से तत्काल प्रभावित होता है उसी प्रकार द्रौपदी सान्निध्य से) वह भी कुपित हो गया है । यह अभिव्यञ्जित करने हेतु 'मरुतसुतम्'  कहा गया है ।

राजा को अपने अप्रसन्न बन्धु-बान्धवों को मृदु वचनों के द्वारा बिगड़े हुए हाथी कि तरह अपने वश में करने का प्रयत्न को करना ही चाहिए - यह नीति कि बात है ।

पूर्णोपमा अलङ्कार

 

राजा युधिष्ठिर भीमसेन को प्रथम स्तुति के द्वारा प्रसन्न करने का प्रयास करते हुए कहते हैं -

अपवर्जितविप्लवे शुचय्हृदयग्राहिणि मङ्गलास्पदे ।

विमला तव विस्तरे गिरां मतिरादर्श इवाभिदृश्यते ।। २.२६ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: भीमसेन से युधिष्ठिर कहते हैं कि - जिस प्रकार निर्मल लौह आदि से विनिर्मित सुन्दर और माङ्गलिक दर्पण में प्रतिबिम्ब सुस्पष्ट दिखाई देता है, तद्वत पवित्र और निर्मल तुम्हारी वाणी में तुम्हारी निर्मल बुद्धि सुस्पष्ट दिखाई पड़ती है ।

 

टिप्पणी: वचन कि विशुद्धता में ही बुद्धि का वैशद्य भी दिखाई पड़ता है ।

उपमा अलङ्कार

 

 

स्फुटता न पदैरपाकृता न च न स्वीकृतं अर्थगौरवं ।

रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामर्थ्यं अपोहितं क्वचिथ् ।। २.२७ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन तुम्हारे ! भाषण के सभी वाक्य अत्यन्त सुस्पष्ट हैं । उनमें अर्थगाम्भीर्य भी प्रचुर मात्रा में है । कहीं पर भी पुनरुक्ति दोष श्रवणगोचर नहीं हुआ ।

 

टिप्पणी: वाक्य में एकाधिक निषेधार्थक '' होने पर उसका अर्थ निषेध न होकर स्वीकार होता है । । यहाँ 'पदै गिराम् अर्थ गौरव स्वीकृत न इति न' इस वाक्य में '' दो बार प्रयुक्त हुआ है, अतः उसका अर्थ पदों के द्वारा वाणी का गौरव स्वीकार नहीं किया गया, ऐसा नहीं अपितु, स्वीकार किया गया है । केवल एक '' का प्रयोग होने पर उसका निषेध-परक ही अर्थ होता है । जैसाकि मनुस्मृति में मांसभक्षण, मद्यपान आदि का निषेध करते हुए 'न मासभक्षणे दोष न च मद्ये, इस मनु वचन का अर्थ मास भक्षण और मद्यपान करने में दोष बताकर निषेध करने में ही है क्योंकि इसमें भी एकाधिक '' कार का प्रयोग हुआ है ।

मनुवचन का अर्थ मांसभक्षण में और मद्य पीने में दोष नहीं है ऐसा करना भूल है । अन्यथा अर्थ की संगती नहीं होगी ।

दीपक अलङ्कार

 

उपपत्तिरुदाहृता बलादनुमानेन न चागमः क्षतः ।

इदं ईदृगनीदृगाशयः प्रसभं वक्तुं उपक्रमेत कः ।। २.२८ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: (राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं) हे भीमसेन ! तुमने अपनी शक्ति के अनुरूप ही सशक्त तर्क अपने भाषण में प्रस्तुत किये हैं । उपस्थित किये गए तर्कों के द्वारा शास्त्रमत का खण्डन भी नहीं हुआ । अतः वे तर्क शास्त्र के अविरोधी हैं । अतः तुम्हारा कथन शास्त्र सम्मत ही है । तुम्हारे भाषण को क्षत्रियोचित न कहने का सामर्थ्य कौन रखता है ? कोई भी इसे क्षात्रधर्म विरुद्ध नहीं कह सकता है ।

 

टिप्पणी: यह श्लोक निन्दा-परक नहीं समझना चाहिए । युधिष्ठिर जैसे सरल ह्रदय एवं मातृवत्सल व्यक्ति का अभिप्राय अन्यथा नहीं हो सकता ।

अर्थापत्ति अलङ्कार

 

अवितृप्ततया तथापि मे हृदयं निर्णयं एव धावति ।

अवसाययितुं क्षमाः सुखं न विधेयेषु विशेषसम्पदः ।। २.२९ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: (यद्यपि तुमने सभी बातों का अच्छी तरह निर्णय कर दिया है) तथापि संशयग्रस्त होने के कारण मेरा ह्रदय अभी तक निर्णय का विचार ही कर रहा है । सन्धि-विग्रह आदि कर्तव्यों के निर्णय में, उनके भीतर आनेवाली विशेष सम्पत्तिया अनायास ही अपना स्वरुप प्रकट करने में समर्थ नहीं होती ।

 

टिप्पणी: मुख्य कार्य करने का निश्चय करने के पहले उस कार्य के भीतर आनेवाली छोटी-मोटी बातों का भी गहराई से विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि वे सब सरलतापूर्वक समझ में नहीं आती ।

काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

विचारोत्तर कार्य करने के लाभ तथा अविवेक से किये जाने वाले कार्यों से होने वाली हानि को धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को बतलाते हुए कहते हैं कि -

सहसा विदधीत न क्रियां अविवेकः परं आपदां पदं ।

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयं एव सम्पदः ।। २.३० ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: बिना सोचे-समझे कोई कार्य नहीं करना चाहिए । अविवेक (कार्याकार्य विचार शून्यता) अनेक आपत्तियों का कारण होता है । निश्चित रूप से सर्वविध सम्पत्तियाँ गुणवान विवेकी पुरुष का स्वयं वरन करती हैं । अर्थात यदि कोई बलात राज्यादि सम्पत्ति अपने वश में कर लेता है तो सम्पत्ति स्वयं उसका परित्याग कर देती है । सोच-समझकर कार्य करनेवाले पुरुष को ही सम्पत्ति अपना स्वामी बनाना पसन्द करती है । अन्य (अविमृष्यकारी) को नहीं चाहती है ।

 

टिप्पणी: तर्कशास्त्र में अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा पुष्ट तर्क की प्रतिष्ठा है । महाकवि भारवि युधिष्ठिर के मुख से अब भीमसेन के द्वारा प्रस्तुत तर्कों का खण्डन करते हुए तर्कशास्त्रोक्त अन्वय व्यतिरेक की कसौटी पर अपने तर्कों को खरा सिद्ध करते हैं ।

अन्वय और व्यतिरेक की सुबोध परिभाषा इस प्रकार है - 'तत् सत्वे तत् सत्ता - अन्वयः।' 'तद् असत्वे तद् असत्ता -व्यतिरेकः ।'

 

यहाँ विवेक के अभाव में परमापत् प्राप्ति है ।  वही सम्पत्ति की असत्ता (अभाव) है । यही व्यतिरेक का स्वरुप है ।

इस पद्य में पूर्वार्ध में वर्णित अर्थ को ही उत्तरार्ध में अन्वय के माध्यम से कहा गया है जैसे -

विमृष्यकारित्वम् = विवेकः तत् सत्वे सम्पदः सत्ता इत्यन्वयः ।  विमृष्यकारित्वम् का अर्थ विवेक है अर्थात विवेक (आगा पीछा खूब सोच समझकर कार्य करने की प्रवृत्ति) के सत्ता (आस्तित्व) होने पर सम्पाती की सत्ता होती है ।

 

तर्कशास्त्र में अन्वायव्याप्ति का उदाहरण -

"यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र अग्निः अस्ति ।"

 

व्यतिरेक व्याप्ति की उदारहण -

"यत्र यत्र धूमः नास्ति तत्र तत्र अग्निः अपि नास्ति ।"

 

इसके अनुसार कह सकते हैं कि - "यत्र यत्र विमृष्यकारिता अस्ति तत्र तत्र सम्पत्तिः अस्ति ।"  इत्यन्वयः ।

 

"यत्र यत्र च सम्पत्तिः नास्ति तत्र तत्र विवेकः (विमृष्यकारिता) आपि नास्ति ।" इति व्यतिरेकः ।

 

 

*इस पद्य के कारण भारवि को सवालाख सुवर्ण मुद्रा कि प्राप्ति हुई थी, ऐसी जनश्रुति है ।

 

क्या साहसिक को फल सिद्धि प्राप्त होती हुई दिखाई नहीं देती ? तो विवेक की क्या आवश्यकता है ? इस आशंका का समाधान करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं -  अभिवर्षति योऽनुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा ।

स सदा फलशालिनीं क्रियां शरदं लोक इवाधितिष्ठति ।। २.३१ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन ! जो नीतिमान पुरुष स्व-कर्त्तव्य रूप कार्य विषयों को बीजतुल्य संरक्षणीय समझकर उचित देश-काल का विचार करने के पश्चात उचित समय में और उचित स्थान में बोकर विवेक रूप जल से उनको सींचता रहता है वह पुरुष ही शरद्काल सम्प्राप्त होने पर फल से सुशोभित सस्य सम्पत्ति को प्राप्त करता है । अन्य जन नहीं ।

 

साहसिक को होने वाली कार्यसिद्धि "काकतालीयन्याय" से यदा-कदा ही होती है किन्तु विवेकी पुरुष को होने वाली कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।

 

टिप्पणी: काकतालीय न्याय - किसी ताल वृक्ष पर बैठा हुआ कौआ उड़ा, उसके उड़ते ही वह तालवृक्ष किसी कारणान्तर से गिरने पर लोग कहते हैं कि कौवे ने ताल को गिरा दिया । यही काकतालीय न्याय है । वस्तुतः ताल के गिरने में कारण कौवा न होकर अन्य कोई कारण होता है । उसी प्रकार अविवेकी पुरुष कि कार्य सिद्धि भी काकतालीय न्याय जैसी ही होती है । उसे विश्वसनीय नहीं माननी चाहिए किन्तु विवेकी पुरुष की कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।

श्लेषमूलक अतिश्योक्ति, उपमा अलङ्कार

 

शुचि भूषयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंक्रिया ।

प्रशमाभरणं पराक्रमः स नयापादितसिद्धिभूषणः ।। २.३२ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन ! गुरु परम्परा से सम्प्राप्त शास्त्र शुद्ध (शास्त्रानुमोदित) उपदेश के द्वारा शरीर की शोभा होती है । उस शास्त्रोपदेश की शोभा शांतिप्रियता है । शांतिप्रियता की शोभा यथा समय स्व-विक्रम प्रदर्शन है तथा नीति द्वारा उपार्जित विवेक से प्राप्त कार्य सिद्धि ही उस विक्रम(पराक्रम) की शोभा होती है ।

 

एकावली अलङ्कार

 

मतिभेदतमस्तिरोहिते गहने कृत्यविधौ विवेकिनां ।

सुकृतः परिशुद्ध आगमः कुरुते दीप इवार्थदर्शनं ।। २.३३ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: युधिष्ठिर कहते हैं - हे भीमसेन ! जैसे हवा से सुरक्षित दीपक की रौशनी (प्रकाश) अन्धकार में पड़ी हुई वस्तु को प्रकाशित करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार सोच-समझकर कार्य करने वाले विवेकी पुरुष की वृद्धि भ्रम रूप अन्धकार(अज्ञान) से आच्छन्न(ढके हुए) गहन कार्यों के मार्गों का अच्छा(भली प्रकार से) बाध कराती है ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार अन्धेरे पथ को वायु आदि के विघ्नों से रहित दीपक आलोकित करता है उसी प्रकार से विवेकी पुरुष का शास्त्रज्ञान भी कर्तव्याकर्तव्य के मोह में पड़े व्यक्ति का पथ प्रदर्शन करता है ।

पूर्णोपमा अलङ्कार

 

स्पृहणीयगुणैर्महात्मभिश्चरिते वर्त्मनि यच्छतां मनः ।

विधिहेतुरहेतुरागसां विनिपातोऽपि समः समुन्नतेः ।। २.३४ ।।

वियोगिनी

 

 

अर्थ: प्रशंसनीय गुण सम्पन्न महापुरुषों के द्वारा आचरित मार्ग में मन लगाने वालों की कदाचित दैववश अवनति भी हो जावे तो वह अवनति पाप अथवा अपराधों के कारण नहीं होती । सत्पथानुयायी जनों की अवनति भी समुन्नति के तुल्य होती है ।

 

शिवं औपयिकं गरीयसीं फलनिष्पत्तिं अदूषितायतिं ।

विगणय्य नयन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः ।। २.३५ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: विजय की इच्छा करने वाले पुरुष अशुभ क्रोध के संवेग का दमन कर स्वप्रयोजन की सिद्धि और उसकी भावी स्थिरता का विचार आकरके वे अपने पुरुषार्थ(पराक्रम) को लोककल्याण के कार्य में प्रयुक्त करते हैं । ऐसा राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा ।

 

अपनेयं उदेतुं इच्छता तिमिरं रोषमयं धिया पुरः ।

अविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताप्युदीयते ।। २.३६ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि अभ्युदयेच्छु पुरुष को चाहिए कि वह सबसे पहले अपनी बुद्धि निर्मल करे, अज्ञान रूप तिमिर को अपनी बुद्धि से अलग करे । सूर्या भगवान् भी निशान्धकारका विनाश करके ही उदय को प्राप्त होते हैं । रात्रि जन्य तम का विनाश किये बिना सूर्य का भी उदय नहीं होता है ।

 

टिप्पणी: जब परम तेजस्वी भास्कर भी ऐसा करते हैं तब साधारण मनुष्य को तो ऐसा करना ही चाहिए ।

विशेष के द्वारा सामान्य का समर्थन होने से "अर्थान्तरन्यास" नामक अलङ्कार है ।

 

दुर्बल  के लिए ऐसा हो सकता है लेकिन बलवान को तो क्रोध से ही कार्य सिद्धि होती है, इस आशंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि -

बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभवं रुणद्धि यः ।

क्षयपक्ष इवैन्दवीः कलाः सकला हन्ति स शक्तिसम्पदः ।। २.३७ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि - बलसम्पन्न पुरुष भी क्रोध से उत्पन्न मोह रूप तम को रोकने में जब असमर्थ होता है तब कृष्णपक्षीय चन्द्रमा की तरह वह क्रमशः उत्तरोत्तर समस्त कला सम्पत्ति(तीनो शक्तियों से समन्वित सम्पत्ति) को खो बैठता है । क्रोधान्ध व्यक्ति क्रोधजनित मोह के आक्रमण को रोकने में असमर्थ होता है अतः सर्वप्रथम क्रोध का ही त्याग करना चाहिए । प्रभु-मन्त्र और उत्साह रूप शक्ति से रहित राजा स्वयं अपना अस्तित्व खो देता है ।

 

टिप्पणी: विशिस्ट समय पर ही सब कार्य होते हैं इसी हेतु से काल सबको कारण है । इसलिए कृष्णपक्ष(काल विशेष) कलाक्षय का कारण है । अन्धकार की वृद्धि कृष्णपक्ष में होती है इस कारण से ही कृष्णपक्ष का उल्लेख किया गया है । अन्धकार जो कृष्णपक्ष में वृद्धिमान होता है उसमें कारण है उसकी वृद्धि को न रोकना । अन्धकार को न रोकने से चन्द्रमा जैसे की भी शक्तिसम्पदा का विनाश हो जाता है, जैसे कृष्णपक्षीय चन्द्र तम की अभिवृद्धि को न रोकने के कारण कलाक्षय को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो मनुष्य प्रभूत बल सम्पन्न होने पर भी क्रोधजन्य तम (अज्ञान) की वृद्धि को नहीं रोकता है वह भी अटूट शक्ति सम्पदा को गँवा बैठता है ।

 

*राज्यं नाम शक्तित्रयायत्तम् । - दशकुमारे

राज्य शक्ति के तीन तत्त्व - प्रभाव शक्ति, मन्त्र शक्ति तथा उत्साह शक्ति ।

त्रिसाधनाशक्तिरिवार्थ सञ्चयम् । - रघु. ३।१३

 

समवृत्तिरुपैति मार्दवं समये यश्च तनोति तिग्मतां ।

अधितिष्ठति लोकं ओजसा स विवस्वानिव मेदिनीपतिः ।। २.३८ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: जो समचित्तवृत्ति को धारण करने वाला राजा है, आवश्यकतानुसार समय-समय पर कोमल और कठोर वृत्ति को प्रकट करता रहता है वह राजा सूर्य के सामान अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को अभिभूत करता है । सूर्य कभी कोमल और कभी प्रचण्ड अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को प्रभावित करने से आदरणीय होता है अतः हे भीमसेन ! केवल क्रोध को ही न अपनाओ । क्रोध भी उपादेय है किन्तु सर्वदा सर्वत्र नहीं ।

 

टिप्पणी: समय-समय पर मृदुता तथा तीक्ष्णता धारण करने वाला मनुष्य सूर्य की भांति अपने तेज से सब को वशवर्ती बनता है ।

उपमा अलङ्कार

 

क्व चिराय परिग्रहः श्रियां क्व च दुष्टेन्द्रियवाजिवश्यता ।

शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रियैरसुरक्षा हि बहुच्छलाः श्रियः ।। २.३९ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को कहते हैं कि कहाँ प्रदीर्घकाल तक लक्ष्मी को अपने आधिपत्य में रखना और कहाँ बेलगाम घोड़ों की भांति विषयासक्त निरंकुश बेकाबू इन्द्रियों को स्वाधीन रखना ?

लक्ष्मी (सम्पत्ति) शारदीय मेघों जैसी अत्यन्त चञ्चल तथा अनेक बहानो से छोड़ कर जाने वाली होती है ।

अतः अवशेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा लम्बे समय तक लक्ष्मी को स्वाधीन रखना सम्भव नहीं है । दोनों का एकाधिकरण्य असम्भव है । दोनों एकत्र (एक स्थान में) एक साथ नहीं रह सकते हैं ।

 

टिप्पणी: किसी प्रकार से एक बार प्राप्त की गयी लक्ष्मी चञ्चल इन्द्रिय वालों के वश में चिरकाल तक नहीं ठहर सकती ।

इस पद्य में दो बार प्रयुक्त 'क्व' शब्द लक्ष्मी का चिरकालिक परिग्रह और दुष्टैन्द्रियवाजिवश्यता के महदन्तर का सूचन करता है ।

वाक्यार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

किं असामयिकं वितन्वता मनसः क्षोभं उपात्तरंहसः ।

क्रियते पतिरुच्चकैरपां भवता धीरतयाधरीकृतः ।। २.४० ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन ! स्वभावतः ही अतिचञ्चल मन को असमय में ही क्षुभित होने का अवसर देते हुए आप अपने धीरज से पहले ही जिस समुद्र को तिरस्कृत कर चुके हो उसे ही पुनः क्यों श्रेष्ठ बनाते हो । गम्भीरता में समुद्र की महानता पहले से ही सर्वविदित है किन्तु आपने तो अपनी गम्भीरता में उसे पूर्व में ही तिरस्कृत बना दिया था अर्थात उस समुद्र से अधिक धीरज आप में है यह अनेक बार सिद्ध कर चुकने के पश्चात अब पुनः द्रुत गति प्राप्त मन को असामयिक क्षोभ का अवसर देकर गम्भीरता में समुद्र को ही आपसे अधिक गम्भीर होने का अवसर क्यों प्रदान करते हो । समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन कभी करता नहीं है किन्तु आज आप असामयिक घबड़ाहट को प्रश्रय देकर समुद्र को ही सर्वाधिक महान होना क्यों सिद्ध करना चाहते हो ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि तुम तो समुद्र से भी बढ़कर धीर-गम्भीर थे, फिर क्यों आज वेगयुक्त मन की चञ्चलता को बढ़ा रहे हो । धैर्य में तुमसे पराजित समुद्र भी क्षोभ में अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता और तुम अपनी मर्यादा छोड़ कर उसे अपने से ऊंचा बना रहे हो । अपने से पराजित को कोई भी ऊंचा नहीं बनाना चाहता ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

श्रुतं अप्यधिगम्य ये रिपून्विनयन्ते स्म न शरीरजन्मनः ।

जनयन्त्यचिराय सम्पदां अयशस्ते खलु चापलाश्रयं ।। २.४१ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन ! नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित कर लेने पर यदि जो लोग शरीरज काम-क्रोधादि षडरिपुओं को अपने अधीन नहीं करते हैं तो सचमुच वे शीघ्र ही अपनी मूर्खता के कारण सम्पत्ति विनाशजन्य अपयश के पात्र बन जाते हैं ।

 

काम-क्रोधादि शत्रुओं से परास्त पुरुषों को वे नीति आदि शास्त्र पढ़े हुए होने पर भी लक्ष्मी उनका परित्याग कर देती है । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वे निन्दा के पात्र बन जाते हैं ।

नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित करने का फल शरीरज षडरिपुओं को जीतकर स्वाधीन कर लेना है, यदि कोई पुरुष नीति आदि शास्त्रों में पारङ्गत होकर भी यदि अपने शरीरज षडरिपुओं को स्वाधीन नहीं करता है तो उसका शास्त्रीय ज्ञान व्यर्थ है । वह शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी मूर्ख ही है । यही मूर्खता व्यवहार में चपलता(प्रमाद) उत्पन्न करती है । व्यवहार में प्रमाद उत्पन्न होने पर लक्ष्मी उस पुरुष को त्याग देती है । लक्ष्मी व्यावहारिक दक्षता में अनुरक्त होती है, कोरे शास्त्र ज्ञान में नहीं । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वह पुरुष शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी निन्दनीय बन जाता है ।

 

वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

क्रोध से कार्यहानि की आशंका व्यक्त करते हुए - उससे बचते रहने के लिए राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं -

अतिपातितकालसाधना स्वशरीरेन्द्रियवर्गतापनी ।

जनवन्न भवन्तं अक्षमा नयसिद्धेरपनेतुं अर्हति ।। २.४२ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन ! काल(समय) और सहायता की अतिक्रमण-कारिणी और अपनी ही इन्द्रियों को कष्ट प्रदायिनी असहिष्णुता (असहनशीलता) सामान्य मनुष्य की तरह आपको नीतिसाध्य फल की प्राप्ति (सिद्धि) से वञ्चित करने में समर्थ नहीं होगी ।

*अक्षमा = असहिष्णुता (क्रोध की चरमसीमा)

 

उपकारकं आयतेर्भृशं प्रसवः कर्मफलस्य भूरिणः ।

अनपायि निबर्हणं द्विषां न तितिक्षासमं अस्ति साधनं ।। २.४३ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: आने वाले समय में अत्यन्त उपकारक(हितकारी) तथा कर्म के फलों को बहुत बड़ी मात्रा में देने वाला और अपनी किसी भी प्रकार की हानि न करते हुए शत्रुओं का विनाशक,तितिक्षा(क्षमा) के बराबर अन्य कोई भी साधन नहीं है । क्षमा भी शत्रु का विनाश करने का अमोघ साधन है । शत्रु के विनाश के अन्यान्य साधन हैं किन्तु उनके प्रयोग से प्रयोक्ता की भी न्यूनाधिक हानि अवश्य होती ही है । किन्तु क्षमा एक ऐसा साधन है जिसके प्रयोग से प्रयोक्ता को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती । क्षमा के कारण कर्मफलों की पर्याप्त मात्रा में प्राप्ति होती है । क्षमावान का यश बढ़ता है और जिसे क्षमा की जाती उसकी हानि अनिवार्य रूप से होती है । शक्ति-सम्पन्न वीरों के लिए क्षमकारिता निश्चित रूप से भूषण है । क्षमा से ही शत्रु की एकांतिक और आत्यन्तिक हानि सम्भव है । अन्य किसी भी उपाय से नहीं, युद्ध से तो कदापि नहीं ।

 

टिप्पणी: क्षमा के अनेक गुण हैं किन्तु क्षमा सबलों के लिए भूषण है, निर्बलों के लिए कदापि नहीं । निर्बल व्यक्ति के द्वारा यदि क्षमा करने की बात भी की जाय तो उपहासास्पद होता है । परिग्रहवान ही जैसे त्याग कर सकता है उसी प्रकार सबल व्यक्ति ही क्षमा करने का पात्र होता है । अभावग्रस्त जैसे त्याग करने का अधिकारी नहीं होता उसी प्रकार निर्बल व्यक्ति भी क्षमा करने का अधिकारी नहीं है ।

पाण्डव शक्ति सम्पन्न हैं अतः उनके द्वारा क्षमा करना भोषणास्पद है । सबके लिए नहीं और सर्वदा नहीं ।

कोप बलवान के लिए भी हानिकारक है निर्बलों का कोप ही उनका सम्पूर्ण विनाश कर देता है । सबलों का कोप भी (स्वयं के लिए भी) हानिकारक ही है ।  कोप अन्तः शत्रु है ।

 

यहाँ उपमान से उपमेय का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाने के कारण व्यतिरेक अलङ्कार है ।

 

क्या तितिक्षापूर्वक समय बिताने से दुर्योधन सभी अन्य राजाओं को अपने वश में कर लेगा ।' इस आशंका का समाधान करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं कि -

प्रणतिप्रवणान्विहाय नः सहजस्नेहनिबद्धचेतसः ।

प्रणमन्ति सदा सुयोधनं प्रथमे मानभृतां न वृष्णयः ।। २.४४ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन ! मनस्वी जनों में अग्रगण्य वृष्णिकुल भूषण यादव लोग उनके प्रति विनम्र भाव से उन्हें सदा प्रणाम करने में तत्पर हम पाण्डवों को छोड़कर वे कौरवों का पक्ष कभी नहीं लेंगे क्योंकि उनका चित्त हम पाण्डवों में सदा ही स्वाभाविक प्रेम से आबद्ध है ।

यादव लोग अपने वास्तविक बल से घमण्डी हैं और कौरव लोग मिथ्या अहङ्कारी हैं । यादवों के प्रति सहज स्नेहवश हम पाण्डव विनम्र भाव रखते हैं, और वे भी हमारे विनय के वशीभूत होकर हम से प्रेम करते हैं वे हमारे पक्ष को छोड़कर अहङ्कारी कौरवों का पक्ष कभी भी नहीं स्वीकार करेंगे । क्योंकि वे यादव भी हमीं से अकृत्रिम स्नेह रखते हैं ।

 

दुर्योधन मिथ्या अहङ्कारी होने से वह यादवों के समक्ष नत-मस्तक नहीं हो सकता और वे यादव लोग स्वभावतः ही मनस्वी होने के कारण कौरवो का औद्धित्य सह नहीं सकते । अतः निरन्तर यादव कौरवों के वश में रहना असम्भव है । सम्प्रति भले ही किसी कारण कौरवों के पक्षधर हों किन्तु अन्ततोगत्वा यादव हम पाण्डवों का ही पक्ष लेंगे क्योंकि उनका भी स्वाभाविक प्रेम हमारे विनय भाव के कारण हम पाण्डवों में ही है ।

 

सुहृदः सहजास्तथेतरे मतं एषां न विलङ्घयन्ति ये ।

विनयादिव यापयन्ति ते धृतराष्ट्रात्मजं आत्मसिद्धये ।। २.४५ ।।

 

अभियोग इमान्महीभुजो भवता तस्य ततः कृतावधेः ।

प्रविघाटयिता समुत्पतन्हरिदश्वः कमलाकरानिव ।। २.४६ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ:दुर्योधन ने जो हमारे वनवास की अवधि बाँध दी है, उसके भीतर यदि आप उसके (दुर्योधन के) ऊपर अभियान करते हैं तो हमारा यह कार्य इन यदुवंशी तथा इनके मित्र राजाओं को, हरे रंगों के अश्वोंवाले सूर्य द्वारा कमलों की पंखुड़ियों की भांति, उदय होते ही छिन्न-भिन्न कर देगा।

 

टिप्पणी: अन्यायी का साथ कोई नहीं देगा और इस प्रकार आपका असमय का अभियान अपने ही पक्ष को छिन्न-भिन्न करने का कारण बन जाएगा ।

उपमा अलङ्कार

 

उपजापसहान्विलङ्घयन्स विधाता नृपतीन्मदोद्धतः ।

सहते न जनोऽप्यधःक्रियां किं उ लोकाधिकधाम राजकं ।। २.४७ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ:अभिमान के मद में मतवाला वह दुर्योधन अन्य राजाओं का अपमान कर उन्हें भेदयोग्य बना देगा और जब साधारण मनुष्य भी अपना अपमान नहीं सहन कर सकते तो साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक तेजस्वी राजा लोग फिर क्यों सहन करेंगे ?

 

टिप्पणी: अपमानित लोग टूट जाते ही हैं और ऐसी स्थिति में समय आने पर सम्पूर्ण राजमण्डल हमारे पक्ष में हो जाएगा

 

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

असमापितकृत्यसम्पदां हतवेगं विनयेन तावता ।

प्रभवन्त्यभिमानशालिनां मदं उत्तम्भयितुं विभूतयः ।। २.४८ ।।

अर्थ: कार्य को अधूरा छोड़ने वाले अभिमानी व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ ऊपर से धारण किये गए स्वल्प विनय के द्वारा प्रतिहत वेग अभिमान को बढ़ने में समर्थ हो जाती हैं ।

 

टिप्पणी: अर्थात वह अपने स्वार्थों के कारण बगुला भगत बना रहता है, किन्तु किसी कार्य की समाप्ति के भीतर तो उसका अभिमान प्रकट होकर ही रहता है क्योंकि थोड़ी देर के लिए चिकनी-चुपड़ी, विनयभरी बातों से उसके न्यून वेग वाले अभिमान को बढ़ावा ही मिलता है । लोग समझ जाते हैं कि यह बनावटी विनयी है, सहज नहीं ।

काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

*अभिमान द्वारा होने वाले अनर्थ की चर्चा(अगले दो श्लोक)

 

मदमानसमुद्धतं नृपं न वियुङ्क्ते नियमेन मूढता ।

अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपरज्यते जनः ।। २.४९ ।।

 

अर्थ: दर्प और अहँकार से उद्धत राजा को मूर्खता अवश्य ही नहीं छोड़ती । अत्यन्त मूर्ख राजा न्यायपथ से पृथक हो जाता है और अन्यायी राजा से जनता अलग हो जाती है ।

 

टिप्पणी: अर्थात कार्य का अवसर आने पर अभिमान के कारण देश के सभी राजा तथा जनता भी दुर्योधन से पृथक हो जायेगी ।

कारणमाला अलङ्कार

 

अपरागसमीरणेरितः क्रमशीर्णाकुलमूलसन्ततिः ।

सुकरस्तरुवत्सहिष्णुना रिपुरुन्मूलयितुं महानपि ।। २.५० ।।

अर्थ: द्वेष की वायु से प्रेरित, धीरे-धीरे चञ्चल बुद्धि मन्त्रियों आदि अनुगामियों से विनष्ट शत्रु यदि महान भी है, तब भी (भयङ्कर तूफ़ान से प्रकम्पित तथा क्रमशः डालियों और जड़ समेत विनष्ट ) वृक्ष की भांति क्षमाशील पुरुष द्वारा विनष्ट करने में सुगम हो जाता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि क्षमाशील पुरुष धीरे-धीरे बिना प्रयास के ही अपने शत्रुओं का समूल नाश कर डालता है ।

कारणमाला और उपमा अलङ्कार

 

*यदि कहिये की थोड़े से अन्तर्भेद के कारण वह सुसाध्य कैसे हो गया तो यह सुनिए -

अणुरप्युपहन्ति विग्रहः प्रभुं अन्तःप्रकृतिप्रकोपजः ।

अखिलं हि हिनस्ति भूधरं तरुशाखान्तनिघर्षजोऽनलः ।। २.५१ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: अणुमात्र भी अन्तरङ्ग सचिवादि का उदासीनता से उत्पन्न वैर राजा का विनाश कर देता है । क्योंकि वृक्षों की शाखाओं के परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्नि समूचे पर्वत को जला देती है ।

 

टिप्पणी: जैसे मामूली वृक्षों की डालियों की रगड़ से उत्पन्न दावाग्नि विशाल पर्वत को जला देती है, उसी प्रकार राजाओं के साधारण सेवकों में उत्पन्न पारस्परिक कटुता या विरोध राजा को नष्ट कर देता है ।

दृष्टान्त अलङ्कार

 

यद्यपि दुर्योधन का उत्कर्ष हो रहा है, तथापि इस समय तो उसकी उपेक्षा ही करना उचित है क्योंकि- मतिमान्विनयप्रमाथिनः समुपेक्षेत समुन्नतिं द्विषः ।

सुजयः खलु तादृगन्तरे विपदन्ता ह्यविनीतसम्पदः ।। २.५२ ।।वियोगिनी

अर्थ: बुद्धिमान व्यक्ति अविनयी, उद्दण्ड, मदोन्मत्त अतएव प्रमादशील शत्रु  की उपेक्षा करता रहे उसकी उन्नति की चिन्ता न करे क्योंकि ऐसे अविनयी शत्रु स्वभावतः ही प्रभावशील होते हैं, वे अपने किये हुए प्रमाद के द्वारा ही विपत्तियों को आमन्त्रित करते हैं । विपद प्राप्त शत्रु को जीतना सरल होता है क्योंकि अविनयी व्यक्ति को प्राप्त हुई सम्पत्ति, वह रक्षण करने में अपने ही स्वभावदोष के कारण असमर्थ होता है । अविनयी पुरुष की सम्पत्तियों का अन्त उसी के द्वारा बुलाई गयी विपत्तियों से हुआ करता है । अविनयी पुरुष के पास सम्पत्ति टिकती नहीं है । अतः वर्धमान अविनयी शत्रु की बुद्धिमान पुरुष उपेक्षा करते हैं । जो सहज साव्य है उसके लिए प्रयत्न करने में शक्ति का व्यय क्यों किया जाय ?

 

टिप्पणी: अविनयी शत्रु को उपेक्षा से ही जीता जा सकता है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

अविनीत शत्रु को उपेक्षा से कैसे जीता जा सकता है - यह सुनिए

लघुवृत्तितया भिदां गतं बहिरन्तश्च नृपस्य मण्डलं ।

अभिभूय हरत्यनन्तरः शिथिलं कूलं इवापगारयः ।। २.५३ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: हे भीमसेन ! मदोन्मत्त अभिमानी राजा अपने तुच्छ व्यवहार के कारण पडोसी राजाओं को तथा अपने राज्य के मन्त्री वर्ग और प्रजावर्ग को कुपित करता रहता है फलतः अपने और पराये, घर के और बाहर के सभी लोगों का प्रेम वह खो बैठता है और आपस में फूट (भेद) पैदा होती है । मित्र राजाओं में तथा अपने मन्त्रीवर्ग और प्रजावर्ग में क्रमशः भेद बुद्धि पनपने पर जिस तरह नदी के वेग से जर्जरित हुए दोनों किनारों को स्वयं नदी ही गिराकर नष्ट कर डालती है उसी प्रकार आन्तरिक भेद से जर्जरित मित्रराजमण्डल एवं अमात्यादिप्रकृति-मण्डल वाला दुर्वृत्ति राजा अपने ही तुच्छ व्यवहार के कारण विनाश को प्राप्त होता है ।

 

टिप्पणी: परस्पर भेद के कारण अविनयी राजा का विनाश सुगम रहता है ।

उपमा अलङ्कार

 

 

अनुशासतं इत्यनाकुलं नयवर्त्माकुलं अर्जुनाग्रजं ।

स्वयं अर्थ इवाभिवाञ्छितस्तं अभीयाय पराशरात्मजः ।। २.५४ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: इस प्रकार से (शत्रु द्वारा हुए अपमान का स्मरण करने के कारण) क्षुब्ध भीमसेन को सुन्दर न्याय-पथ का उपदेश करते हुए युधिष्ठिर के पास मानो अभिलषित मनोरथ की भांति वेदव्यास जी स्वयमेव आ पहुंचे ।

 

उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

*धर्मराज युधिष्ठिर के पास आये हुए व्यासमुनि कैसे हैं इसका वर्णन महाकवि भारवि युग्मश्लोकों द्वारा करते हैं - मधुरैरवशानि लम्भयन्नपि तिर्यञ्चि शमं निरीक्षितैः ।

परितः पटु बिभ्रदेनसां दहनं धाम विलोकनक्षमं ।। २.५५ ।।

सहसोपगतः सविस्मयं तपसां सूतिरसूतिरेनसां ।

ददृशे जगतीभुजा मुनिः स वपुष्मानिव पुण्यसंचयः ।। २.५६ ।।

वियोगिनी

 

अर्थ: अपने शान्तिपूर्ण दृष्टिनिक्षेप से प्रतिकूल स्वभाव वाले पशु-पक्षियों को भी शान्ति दिलाते हुए, चारों ओर से  उज्जवल तथा देखने योग्य तेज को धारण करने वाले, अकस्मात् आये हुए तपस्या के मूल कारण तथा आपत्तियों के निवारणकर्ता उन भगवान् वेदव्यास को मानो शरीरधारी पुण्यपुञ्ज की भांति राजा युधिष्ठिर ने बड़े विस्मय के साथ देखा ।

द्वितीय श्लोक में उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

*युग्मश्लोक - जहाँ दो श्लोकों का एकत्र अन्वय कर अर्थ पूर्ण होता है ।

 

अथोच्चकैरासनतः परार्ध्यादुद्यन्स धूतारुणवल्कलाग्रः ।

रराज कीर्णाकपिशांशुजालः शृङ्गात्सुमेरोरिव तिग्मरश्मिः ।। २.५७ ।।

उपजाति वृत्ति

 

अर्थ: इसके बाद (वेदव्यास जी के स्वागतार्थ) अपने श्रेष्ठ ऊंचे सिंहासन से उठते हुए राजा युधिष्ठिर के लाल रङ्ग की किरण-पुञ्जों को विस्तृत करने वाले सुमेरु पर्वत से ऊपर उठते हुए सूर्य की भांति सुशोभित हुए ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार से सुमेरु के शिखर से ऊंचे उठते हुए सूर्य सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अपने ऊंचे सिंहासन से भगवान् वेदव्यास के स्वागतार्थ उठते हुए राजा युधिष्ठिर सुशोभित हुए ।

उपमा अलङ्कार

 

 

अवहितहृदयो विधाय स अर्हां ऋषिवदृषिप्रवरे गुरूपदिष्टां ।

तदनुमतं अलंचकार पश्चात्प्रशम इव श्रुतं आसनं नरेन्द्रः ।। २.५८ ।।

पुष्पिताग्रा

 

अर्थ: धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वस्थचित्त होकर गुरुजन परम्परा से ज्ञात विधि से अनुसार ऋषिश्रेष्ठ की ऋषिजनोचित पूजा कर चुकने के पश्चात उनके द्वारा अनुमत आसन को अलङ्कृत किया जैसे शम(क्षमा) शास्त्राध्ययन (शास्त्रीय ज्ञान) को विभूषित करता है ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार से क्षमा शास्त्रज्ञान को सुशोभित करती है उसी प्रकार से युधिष्ठिर ने वेदव्यास जी की आज्ञा से अपने सिंहासन को सुशोभित किया ।

 

व्यक्तोदितस्मितमयूखविभासितोष्ठस्तिष्ठन्मुनेरभिमुखं स विकीर्णधाम्नः ।

तन्वन्तं इद्धं अभितो गुरुं अंशुजालं लक्ष्मीं उवाह सकलस्य शशाङ्कमूर्तेः ।। २.५९ ।।

वसन्ततिलका

 

अर्थ: मुस्कुराने के कारण छिटकी हुई दांत की किरणों से राजा युधिष्ठिर के दोनों ओंठ उद्भासित हो रहे थे । उस समय चतुर्दिक व्याप्त तेजवाले वेदव्यास जी के सम्मुख बैठे हुए यह प्रदीप्त तेज की किरण-पुञ्जों को फैलाते हुए बृहस्पति के सम्मुख बैठे पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति को धारण कर रहे थे ।

 

टिप्पणी: देवगुरु बृहस्पति के सम्मुख बैठे हुए चन्द्रमा के समान राजा युधिष्ठिर सुशोभित हो रहे थे ।

उपमा और निदर्शना अलङ्कार

 

महाकाव्य के काव्य शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार सर्ग में प्रायः एक ही वृत्त हो किन्तु अन्त में छन्द भेद होना चाहिए । इस नियम का निर्वाह करते हुए कवि ने काव्य सर्जन नैपुण्य प्रदर्शन करते हुए इस द्वितीय सर्ग में आरम्भ से ५६वें श्लोक तक वियोगिनी छन्द का अप्रतिहत प्रयोग किया है । ५७ से उपजाति, पुष्पिताग्रा, वसन्ततिलका छन्द का क्रमशः प्रयोग कर भिन्न छन्द में सर्गान्त करने के नियम का निर्वाह किया है । महाकवि भारवि ने सम्पूर्ण काव्य में प्रति सर्ग के अन्तिम श्लोक में लक्ष्मी शब्द का प्रयोग किया है । श्री शब्द का प्रयोग इस काव्य के आरम्भ में किया है ।

 

 

।। इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये द्वितीयः सर्गः ।।

 

 

=================================================

 

 

ततः शरच्चन्द्रकराभिरामैरुत्सर्पिभिः प्रांशुं इवांशुजालैः ।

बिभ्राणं आनीलरुचं पिशङ्गीर्जटास्तडित्वन्तं इवाम्बुवाहं ।। ३.१ ।।

 

प्रसादलक्ष्मीं दधतं समग्रां वपुःप्रकर्षेण जनातिगेन ।

प्रसह्य चेतःसु समासजन्तं असंस्तुतानां अपि भावं आर्द्रं ।। ३.२ ।।

 

अनुद्धताकारतया विविक्तां तन्वन्तं अन्तःकरणस्य वृत्तिं ।

माधुर्यविस्रम्भविशेषभाजा कृतोपसम्भाषं इवेक्षितेन ।। ३.३ ।।

 

 

धर्मात्मजो धर्मनिबन्धिनीनां प्रसूतिं एनःप्रणुदां श्रुतीनां ।

हेतुं तदभ्यागमने परीप्सुः सुखोपविष्टं मुनिं आबभाषे ।। ३.४ ।।

अर्थ: (मुनिवर वेदव्यास के आदेश से आसन पर बैठ जाने के) अनन्तर शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान आनन्ददायी, ऊपर फैलते हुए प्रभापुञ्ज से मानो उन्नत से, श्यामल शरीर पर पीले वर्ण की जटा धारण करने के कारण मानो बिजली से युक्त मेघ की भांति, प्रसन्नता की सम्पूर्ण शोभा से समलङ्कृत, लोकोत्तर शरीर-सौन्दर्य के कारण अपरिचित लोगों के चित्त में भी अपने सम्बन्ध में उच्च भाव पैदा करनेवाले, अपनी शान्त आकृति से अन्तःकरण की (स्वच्छ पवित्र) भावनाओं को प्रकट करते हुए, अपनी अति स्वाभाविक सौम्यता तथा विश्वासदायकता से युक्त अवलोकन के कारण मानो (पहले ही से) सम्भाषण किये हुए की तरह एवं अग्निहोत्र आदि धर्मूं के प्रतिपादक तथा पापों के विनाशकारी वेदों के व्याख्याता व्यास जी  से, जो सुखपूर्वक आसन पर विराजमान(हो चुके) थे, उनके आगमन का कारण जानने के लिए, धर्मराज युधिष्ठिर ने (यह) निवेदन किया ।

 

टिप्पणी: तीनों श्लोकों के सब विशेषण व्यासजी के लोकोत्तर व्यक्तित्व से सम्बन्धित हैं । अलौकिक सौन्दर्य के कारण लोगों में उच्च भाव पैदा होना स्वाभाविक है । प्रथम श्लोक में दो उत्प्रेक्षाएँ हैं । द्वितीय में काव्यलिङ्ग तथा तृतीया में भी उत्प्रेक्षा अलंकार है । चतुर्थ में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग है ।

 

अनाप्तपुण्योपचयैर्दुरापा फलस्य निर्धूतरजाः सवित्री ।

तुल्या भवद्दर्शनसम्पदेषा वृष्टेर्दिवो वीतबलाहकायाः ।। ३.५ ।।

अर्थ: पुन्यपुञ्ज सञ्चित न करनेवाले लोगों के लिए दुलभ, अभिलाषाओं को सफल करनेवाली, रजोगुणरहित यह आपके (मङ्गलदायी) दर्शन की सम्पत्ति बादलों से विहीन आकाश की वर्षा के समान (आनन्ददायिनी) है ।

 

टिप्पणी: बिना बादल की वृष्टि के समान यह आपका अप्रत्याशित शुभ दर्शन हमारे लिए सर्वथा किसी न किसी कल्याण का सूचक है ।

उपमा अलङ्कार

 

अद्य क्रियाः कामदुघाः क्रतूनां सत्याशिषः सम्प्रति भूमिदेवाः ।

आ संसृतेरस्मि जगत्सु जातस्त्वय्यागते यद्बहुमानपात्रं ।। ३.६ ।।

अर्थ: आज के दिन मेरे किये हुए यज्ञों के अनुष्ठान फल देने वाले बन गए । इस समय भूमि के देवता ब्राह्मणों के आशीर्वचन सत्य हुए । आपके इस आगमन से (आज मैं) जब से इस सृष्टि की रचना हुई है तब से आज तक संसार भर में सब से अधिक सम्मान का भाजन बन गया हूँ ।

 

टिप्पणी: सम्पूर्ण सत्कर्मों के पुण्य प्रभाव से ही आपका यह मंगलदायी दर्शन हुआ है । मुझसे बढ़कर इस सृष्टि में कोई दूसरा भाग्यशाली व्यक्ति आज तक नहीं हुआ ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

 

श्रियं विकर्षत्यपहन्त्यघानि श्रेयः परिस्नौति तनोति कीर्तिम् ।

संदर्शनं लोकगुरोरमोघं तवात्मयोनेरिव किं न धत्ते ।। ३.७ ।।

अर्थ: ब्रह्मा के समान जगत्पूज्य आप का यह अमोघ (कभी व्यर्थ न होने वाला) पुण्यदर्शन लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाला है, पापों का विनाशक है, कल्याण का जनक है तथा यश की विस्तारक है । वह क्या नहीं कर सकता है ।

 

टिप्पणी: अर्थात उससे संसार में मनुष्य के सभी मनोरथ पूरे होते हैं ।

पूर्वार्द्धमें समुच्चय अलङ्कार है तथा उत्तरार्द्ध में उपमा एवं अर्थापत्ति अलङ्कार

 

च्योतन्मयूखेऽपि हिमद्युतौ मे ननिर्वृतं निर्वृतिमेति चक्षुः ।

समुज्झितज्ञातिवियोगखेदं त्वत्संनिधावुच्छ्वसतीव चेतः ।। ३.८ ।।

अर्थ: अमृत परिस्रवण करनेवाली किरणों से युक्त हिमांशु चन्द्रमा में भी शान्ति न प्राप्त करनेवाले मेरे नेत्र आपके (इस) दर्शन से तृप्त हो रहे हैं तथा मेरा चित्त छूटे हुए बन्धु-बान्धवों के वियोग-जनित दुःख को भूल कर मानो पुनः जीवित सा हो रहा है ।

 

टिप्पणी: आपके इस पुण्यदर्शन से मेरे नेत्र सन्तुष्ट हो गए और मेरा मन नूतन उत्साह से भर गया ।

पूर्वार्द्ध में विशेषोक्ति और उत्तरार्द्ध में उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

निरास्पदं प्रश्नकुतूहलित्वं अस्मास्वधीनं किमु निःस्पृहाणाम् ।

तथापि कल्याणकरीं गिरं ते मां श्रोतुमिच्छा मुखरीकरोति ।। ३.९ ।।

अर्थ: (आप के आगमन के प्रयोजन का) प्रश्न पूछने का मेरा जो कौतुहल था वह शान्त हो गया, क्योंकि आप जैसे निस्पृह वीतराग महापुरुषों का हम लोगों के अधीन है ही क्या ? किन्तु फिर भी आपकी मंगलकारिणी वाणी को सुनने की इच्छा मुझे मुखर (बोलने को विवश) कर रही है ।

 

इत्युक्तवानुक्तिविशेषरम्यं मनः समाधाय जयोपपत्तौ ।

उदारचेता गिरं इत्युदारां द्वैपायनेनाभिदधे नरेन्द्रः ।। ३.१० ।।

 

अर्थ: उक्त प्रकार की सुन्दर विचित्र उक्तियों से मनोहर वाणी बोलने वाले उदारचेता महाराज युधिष्ठिर से, उनकी विजय की अभिलाषा में चित्त लगा कर महर्षि द्वैपायन इस प्रकार की उदार वाणी में बोले ।

 

 

चिचीषतां जन्मवतां अलघ्वीं यशोवतंसां उभयत्र भूतिं ।

अभ्यर्हिता बन्धुषु तुल्यरूपा वृत्तिर्विशेषेण तपोधनानां ।। ३.११ ।।

अर्थ: गम्भीर, कीर्ति को विभूषित करनेवाले, इस लोक तथा परलोक में सुखदायी कल्याण की इच्छा रखनेवाले शरीरधारी को (भी) अपने कुटुम्बियों के प्रति समान व्यवहार करना उचित है और तपस्वियों के लिए तो यह समान व्यवहार विशेष रूप से उचित है ।

 

टिप्पणी: संसार में समस्त शरीरधारी को अपने कुटुम्बी-जनों के लिए समान व्यवहार करना उचित है किन्तु तपस्वी को तो विशेष रूप से सम-व्यवहार करना ही चाहिए, उसे किसी के साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

 

 

तथाऽपि निघ्नं नृप तावकीनैः प्रह्वीकृतं मे हृदयं गुणौघैः ।

वीतस्पृहाणां अपि मुक्तिभाजां भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः ।। ३.१२ ।।

अर्थ: किन्तु ऐसा होते हुए भी हे राजन ! तुम्हारे उत्तम गुणों के समूहों से आकृष्ट मेरा ह्रदय तुम्हारे वश में हो गया है । (यदि यह कहो कि तपस्वी के ह्रदय में यह पक्षपात क्यों हो गया है तो) वीतराग मुमुक्षुओं के ह्रदय में भी सज्जनों के प्रति पक्षपात हो ही जाता है ।

 

टिप्पणी: सज्जनों के प्रति पक्षपात करने से मुमुक्षु तपस्वियों का तप खण्डित नहीं होता, यह तो स्वाभाविक धर्म है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

सुता न यूयं किं उ तस्य राज्ञः सुयोधनं वा न गुणैरतीताः ।

यस्त्यक्तवान्वः स वृथा बलाद्वा मोहं विधत्ते विषयाभिलाषः ।। ३.१३ ।।

अर्थ: आप लोग क्या उस राजा धृतराष्ट्र के पुत्र नहीं हैं? क्या अपने उत्तम गुणों से आप लोगों ने दुर्योधन को पीछे नहीं छोड़ दिया है ? जो उसने बिना किसी कारण के ही आप लोगों को छोड़ दिया है । अथवा (यह सच है कि) विषयों कि अभिलाषा (मनुष्य को) बलपूर्वक अविवेकी ही बना देती है ।

 

टिप्पणी: अर्थात धृतराष्ट्र कि विषयाभिलाषा ही उसके अविवेक का कारण है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

जहातु नैनं कथं अर्थसिद्धिः संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः ।

असाद्युयोगा हि जयान्तरायाः प्रमाथिनीनां विपदां पदानि ।। ३.१४ ।।

अर्थ: जो कर्ण प्रभृति दुष्ट मन्त्रियों पर सन्देहजनक कार्यों के निर्णयार्थ निर्भर रहता है, उस धृतराष्ट्र को प्रयोजनों की सिद्धियां क्यों न छोड़े । क्योंकि दुष्टों का सम्पर्क विजय का द्योतक (ही नहीं होता, प्रत्युत) ध्वंस करने वाली विपत्तियों का आधार (भी) होता है ।

टिप्पणी: दुष्टों की सङ्गति न केवल विजय में ही बाधा डालती है, प्रत्युत वह अनर्थकारिणी भी होती है । ऐसे दुष्टों के सम्पर्क से धृतराष्ट्र का अवश्य विनाश हो जाएगा ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

 

पथश्च्युतायां समितौ रिपूणां धर्म्यां दधानेन धुरं चिराय ।

त्वया विपत्स्वप्यविपत्ति रम्यं आविष्कृतं प्रेम परं गुणेषु ।। ३.१५ ।।

 

अर्थ: शत्रुओं के पथ से भ्रष्ट शत्रुओं की सभा में चिरकाल तक धर्म के साथ अपना कर्त्तव्य पूरा करके आपने विपत्तियों में भी अविपत्ति अर्थात सुख-शान्ति के समय शोभा देनेवाले सात्विक गुणों के साथ ऊँचा प्रेम प्रदर्शित किया है ।

 

टिप्पणी: असहनीय कष्टों को भी आपने सुख के साथ बिताकर अच्छा ही किया है ।

विरोधाभास अलङ्कार ।

 

विधाय विध्वंसनं आत्मनीनं शमैकवृत्तेर्भवतश्छलेन ।

प्रकाशितत्वन्मतिशीलसाराः कृतोपकारा इव विद्विषस्ते ।। ३.१६ ।।

अर्थ: शान्ति के प्रमुख उपासक आप के साथ छाल करके उन शत्रुओं ने अपना ही विनाश किया है और ऐसा करके उन्होंने आपकी सद्बुद्धि एवं शील सदाचरण का परिचय देते हुए मानो आपका उपकार ही किया है ।

 

टिप्पणी: ऐसा करके उन्होंने अपनी दुर्जनता तथा आपकी सज्जनता का अच्छा प्रचार किया है । चन्दन की भांति सज्जनों की विपत्ति भी उनके गुणों का प्रकाशन ही करती है ।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।

 

 

लभ्या धरित्री तव विक्रमेण ज्यायांश्च वीर्यास्त्रबलैर्विपक्षः ।

अतः प्रकर्षाय विधिर्विधेयः प्रकर्षतन्त्रा हि रणे जयश्रीः ।। ३.१७ ।।

अर्थ: तुम पराक्रम के द्वारा (ही) पृथ्वी को प्राप्त कर सकते हो । तुम्हारा शत्रु पराक्रम और अस्त्रबल में तुमसे बढ़ा-चढ़ा है । इसलिए तुम्हें भी अपने उत्कर्ष के लिए उपाय करना होगा, क्योंकि युद्ध में विजयश्री उत्कर्ष के ही अधीन रहती है ।

 

टिप्पणी: बलवान एवं पराक्रमी ही रण में विजयी होते हैं, बलहीन और आलसी नहीं ।

काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास की ससृष्टि ।

 

त्रिःसप्तकृत्वो जगतीपतीनां हन्ता गुरुर्यस्य स जामदग्न्यः ।

वीर्यावधूतः स्म तदा विवेद प्रकर्षं आधारवशं गुणानां ।। ३.१८ ।।

 

अर्थ: इक्कीस बार धरती के राजाओं का जो संहार करनेवाला है, वह धनुर्वेद का शिक्षक सुप्रसिद्ध जमदग्नि का पुत्र परशुराम जिस(भीष्म) के पराक्रम से पराजित हो गया और यह जान सका कि गुणों का उत्कर्ष पात्र के अनुसार ही होता है ।

 

टिप्पणी: जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने अपने पिता के वैर का बदला चुकाने के लिए समस्त भूमण्डल के क्षत्रिय राजाओं का इक्कीस बार विनाश कर दिया था, यह सुप्रसिद्ध पौराणिक कथा है । वही परशुराम भीष्म के धनुर्विद्या के आचार्य थे, किन्तु अम्बिका-स्वयंवर के समय उन्हें अपने ही शिष्य भीष्म से पराजित हो जाने पर यह स्वीकार करना पड़ा कि गुणों का विकास पात्र के अनुसार होता है । किसी साधारण पात्र में पड़कर वही गुण अविकसित अथवा अधविकसित होता है और किसी विशेष पात्र में पड़कर वह पूर्व की अपेक्षा अत्यधिक मात्रा में विकसित होता है ।

पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार

 

 

यस्मिन्ननैश्वर्यकृतव्यलीकः पराभवं प्राप्त इवान्तकोऽपि ।

धुन्वन्धनुः कस्य रणे न कुर्यान्मनो भयैकप्रवणं स भीष्मः ।। ३.१९ ।।

अर्थ: जिन महापराक्रमी(भीष्म) के सम्बन्ध में अपने ऐश्वर्य की विफलता के कारण दुःखी होकर मृत्यु का देवता यमराज भी मानो पराजित सा हो गया है, वही भीष्म रणभूमि में अपने धनुष को कँपाते हुए किस वीर के मन को नितान्त भयभीत नहीं बना देंगे ।

 

टिप्पणी: भीष्म स्वेच्छामृत्यु थे, यमराज का भी उन्हें भय नहीं था । तब फिर उनके धनुष को देखकर कौन ऐसा वीर था जो भयभीत न होता ?

पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार

 

सृजन्तं आजाविषुसंहतीर्वः सहेत कोपज्वलितं गुरुं कः ।

परिस्फुरल्लोलशिखाग्रजिह्वं जगज्जिघत्सन्तं इवान्तवह्निं ।। ३.२० ।।

अर्थ: अपने विकट बाणों के समूहों को बरसाते हुए, क्रोध से जाज्वल्यमान, जीभ की भांति भयङ्कर लपटें छोड़ते हुए मानो समूचे संसार को खा जाने के लिए उद्यत प्रलय काल की अग्नि की तरह रणभूमि में स्थित द्रोणाचार्य को, आप की ओर कौन ऐसा वीर है जो सहन कर सकेगा ?

 

टिप्पणी: अर्थात आप के पक्ष में ऐसा कोई वीर नहीं है, जो रणभूमि में क्रुद्ध द्रोणाचार्य का सामना कर सके।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

निरीक्ष्य संरम्भनिरस्तधैर्यं राधेयं आराधितजामदग्न्यं ।

असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु जायेत मृत्योरपि पक्षपातः ।। ३.२१ ।।

 

अर्थ: अपने क्रोध से दूसरों के धैर्य को दूर करने वाले परशुराम के शिष्य राधसुत कर्ण को देखकर मृत्यु को भी अपरिचित भय से हठात् परिचय हो जाता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि मृत्यु भी कर्ण से डरती है तो दूसरों की बात ही क्या ?

अतिशयोक्ति अलङ्कार

यया समासादितसाधनेन सुदुश्चरां आचरता तपस्यां ।

एते दुरापं समवाप्य वीर्यं उन्मीलितारः कपिकेतनेन ।। ३.२२ ।।

महत्त्वयोगाय महामहिम्नां आराधनीं तां नृप देवतानां ।

दातुं प्रदानोचित भूरिधाम्नीं उपागतः सिद्धिं इवास्मि विद्यां ।। ३.२३ ।।

 

अर्थ: जिस विद्या के द्वारा अत्यन्त कठोर तपस्या करके पाशुपत-अस्त्र रुपी साधन प्राप्त करने वाले अर्जुन दूसरों के लिए दुर्लभ तेज प्राप्त कर इन सब (भीष्म आदि) का विनाश करेंगे । हे उचित दान के पात्र राजन ! उसी महनीय महिमा से समन्वित, देवताओं के लिए भी आराध्य तथा परम शक्तिशालिनी विद्या को सिद्धि की भांति उत्कर्ष प्राप्ति के निमित्त मैं(अर्जुन को) देने के लिए यहाँ आया हूँ ।

टिप्पणी: इस विद्या से शिव की प्रसन्नता से प्राप्त पाशुपत अस्त्र के द्वारा अर्जुन उन भीष्म आदि का संहार करेंगे । पूर्व श्लोक में वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग तथा दुसरे में उपमा अलङ्कार

इत्युक्तवन्तं व्रज साधयेति प्रमाणयन्वाक्यं अजातशत्रोः ।

प्रसेदिवांसं तं उपाससाद वसन्निवान्ते विनयेन जिष्णुः ।। ३.२४ ।।

 

अर्थ: इस प्रकार के बातें करते हुए सुप्रसन्न वेदव्यास जी के समीप अर्जुन राजा युधिष्ठिर के इस वाक्य - "जाओ और (इस सिद्धि की) साधना करो।" को स्वीकार करते हुए छात्र की भांति सविनय उपस्थित हो गए ।

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार

 

निर्याय विद्या+थ दिनादिरम्याद्बिम्बादिवार्कस्य मुखान्महर्षेः ।

पार्थाननं वह्निकणावदाता दीप्तिः स्फुरत्पद्मं इवाभिपेदे ।। ३.२५ ।।

 

अर्थ: तदनन्तर चिंगारी की भांति उज्जवल वह विद्या, प्रातः काल के मनोहर सूर्य मण्डल के समान महर्षि वेदव्यास के मुख से निकलकर (सूर्य की) किरणों से विक्सित होनेवाले कमल के समान अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हो गयी ।

 

टिप्पणी: प्रातः काल में सूर्य-मण्डल से निकली हुई किरणें जैसे कमल में प्रवेश करती हैं वैसा ही वेदव्यास के मुख से निकली हुई वह विद्या अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हुई ।

उपमा अलङ्कार

 

 

योगं च तं योग्यतमाय तस्मै तपःप्रभावाद्विततार सद्यः ।

येनास्य तत्त्वेषु कृतेऽवभासे समुन्मिमीलेव चिराय चक्षुः ।। ३.२६ ।।

 

अर्थ: मुनिवर वेदव्यास ने परम योग्य अर्जुन को वह योग विद्या अपने तपबल के प्रभाव से शीघ्र ही प्रदान कर दी, जिसके द्वारा प्रकृति महदादि चौबीस पदार्थों का साक्षात्कार हो जाने का कारण अर्जुन के नेत्र चिरकाल के लिए माना खुले हुए से हो गए ।

 

टिप्पणी: अंधे को द्रष्टिलाभ के समान अर्जुन को कोई नूतन ज्ञान प्राप्त हो गया, जिससे उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानों आँखें खुल गयी हों ।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।

 

आकारं आशंसितभूरिलाभं दधानं अन्तःकरणानुरूपं ।

नियोजयिष्यन्विजयोदये तं तपःसमाधौ मुनिरित्युवाच ।। ३.२७ ।।

 

अर्थ: मुनिवर वेदव्यास महाभाग्य के सूचक एवं अन्तः करण के अनुरूप आकार(आकृति) धारण करनेवाले अर्जुन को विजय लाभ दिलानेवाली तपस्या के नियमों में नियुक्त करने की इच्छा से इस प्रकार बोले ।

टिप्पणी: पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार ।

 

 

अनेन योगेन विवृद्धतेजा निजां परस्मै पदवीं अयच्छन् ।

समाचराचारं उपात्तशस्त्रो जपोपवासाभिषवैर्मुनीनां ।। ३.२८ ।।

अर्थ: इस योगविद्या से तुम्हारा तेज बहुत बढ़ जायेगा और इस प्रकार अपनी साधना के पथ को दूसरों से छिपा कर, सदा शस्त्रास्त्र धारण कर, स्वाध्याय, उपवास, स्नानादि मुनियों के सदाचरणों का पालन करना।

 

टिप्पणी: अर्थात मुनियों की तरह तपस्या में रत रहना किन्तु हथियार तब भी धारण किये रहना, इससे तुम्हारी तेजस्विता बहुत बढ़ जायेगी ।

 

करिष्यसे यत्र सुदुश्चराणि प्रसत्तये गोत्रभिदस्तपांसि ।

शिलोच्चयं चारुशिलोच्चयं तं एष क्षणान्नेष्यति गुह्यकस्त्वां ।। ३.२९ ।।

अर्थ: जिस पर्वत पर इन्द्र की प्रसन्नता के लिए तुमको घोर तपस्या करनी है उस पर रमणीय शिखरों से युक्त पर्वत पर तुमको यह यक्ष क्षणभर में पहुंचा देगा ।

 

इति ब्रुवाणेन महेन्द्रसूनुं महर्षिणा तेन तिरोबभूवे ।

तं राजराजानुचरोऽस्य साक्षात्प्रदेशं आदेशं इवाधितस्थौ ।। ३.३० ।।

 

अर्थ: इस प्रकार की बातें इन्द्रपुत्र अर्जुन से कहकर वे महर्षि वेदव्यास (वहीं) अन्तर्हित हो गए । तदनन्तर कुबेर का सेवक वह यक्ष मानो मुनिवर के प्रत्यक्ष आदेश की भांति, उस अर्जुन के निवास-स्थल पर पहुँच गया ।

 

 

कृतानतिर्व्याहृतसान्त्ववादे जातस्पृहः पुण्यजनः स जिष्णौ ।

इयाय सख्याविव सम्प्रसादं विश्वासयत्याशु सतां हि योगः ।। ३.३१ ।।

 

अर्थ: उस यक्ष ने(आते ही) प्रणाम किया, तथा प्रिय वचन बोलनेवाले अर्जुन में अनुराग प्रकट करते हुए मित्र की भांति विश्वास प्राप्त किया ।

(क्यों न ऐसा होता) क्योंकि सज्जनों की सङ्गति शीघ्र ही विश्वास पैदा करती है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य है कि यक्ष के आने के साथ ही अर्जुन को प्रणाम किया तथा उनसे अपनी मैत्री मान ली ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

 

अथोष्णभासेव सुमेरुकुञ्जान्विहीयमानानुदयाय तेन ।

बृहद्द्युतीन्दुःखकृतात्मलाभं तमः शनैः पाण्डुसुतान्प्रपेदे ।। ३.३२ ।।

 

अर्थ: (यक्ष के आने तथा प्रणामादि के) अनन्तर भगवान् भास्कर द्वारा उदय के लिए छोड़े गए परम प्रकाशमान सुमेरु के कुञ्जों कि भांति अर्जुन द्वारा अपने अभ्युदय के लिए छोड़े गए परम तेजस्वी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर आदि को, दुःख के साथ अपना प्रसार प्राप्त करनेवाले अन्धकार ने धीरे धीरे व्याप्त कर लिया ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार सूर्य उदय के लिए जब सुमेरु के कुञ्जोंको छोड़ देता है तो उन्हें अन्धकार घेर लेता है उसी प्रकार अपने अभ्युदय के लिए जब अर्जुन ने पाण्डवों को छोड़ दिया तो उन्हें शोकान्धकार ने घेर लिया ।

श्लेषानुप्राणित उपमा अलङ्कार

 

 

असंशयालोचितकार्यनुन्नः प्रेम्णा समानीय विभज्यमानः ।

तुल्याद्विभागादिव तन्मनोभिर्दुःखातिभारोऽपि लघुः स मेने ।। ३.३३ ।।

 

अर्थ: बिना सन्देह के सम्यक विचार किये गए भविष्य के कार्यक्रमों के कारण दूर किये गए तथा पारस्परिक स्नेह से विभक्त दुःख का वह अत्यन्त भारी बोझा भी युधिष्ठिर आदि चारों भाइयों के चित्तों से मानो बराबर-बराबर बंटकर हल्का मान लिया गया ।

 

टिप्पणी: अर्थात चारों भाइयों ने पारस्परिक स्नेह से अर्जुन के वियोगजनित शोक के भार को काम करके भविष्य के कार्यक्रमों पर विचार किया ।

हेतूत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

 

धैर्येण विश्वास्यतया महर्षेस्तीव्रादरातिप्रभवाच्च मन्योः ।

वीर्यं च विद्वत्सु सुते मघोनः स तेषु न स्थानं अवाप शोकः ।। ३.३४ ।।

 

अर्थ: अपने स्वाभाविक धैर्य से, इस कार्य के प्रवर्त्तक महर्षि वेदव्यास कि बातों में अडिग विश्वास करने के कारण तथा दुर्योधन आदि शत्रुओं द्वारा उत्पन्न होने वाले तीव्र क्रोध के कारण इन्द्रपुत्र अर्जुन के पराक्रम को जाननेवाले उन युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को वह शोक आक्रान्त नहीं कर सका ।

 

टिप्पणी: अर्थात युधिष्ठिर आदि चरों पंडाओं को अर्जुन के वियोग का दुःख इन उपर्युक्त कारणों से अधिक नहीं सता सका ।

हेतु अलङ्कार

 

 

तान्भूरिधाम्नश्चतुरोऽपि दूरं विहाय यामानिव वासरस्य ।

एकौघभूतं तदशर्म कृष्णां विभावरीं ध्वान्तं इव प्रपेदे ।। ३.३५ ।।

 

अर्थ: उस अर्जुन वियोगजनित शोक ने उन चारों परम तेजस्वी युधिष्ठिर प्रभृति पाण्डवों को, परम प्रकाशमान दिन के चारों प्रहरों के तरह दूर से छोड़ कर, एकराशि होकर कृष्णपक्ष की रात्रि के अन्धकार की तरह द्रौपदी को घेर लिया ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार से अन्धकार दिन के चारों प्रहरों को छोड़कर कृष्णपक्ष की रात्रि को ही घेरता है उसी प्रकार से अर्जुन के वियोग का वह शोक चारों पाण्डवों को छोड़कर द्रौपदी पर छा गया ।

उपमा अलङ्कार

तुषारलेखाकुलितोत्पलाभे पर्यश्रुणी मङ्गलभङ्गभीरुः ।

अगूढभावापि विलोकने सा न लोचने मीलयितुं विषेहे ।। ३.३६ ।।

 

अर्थ: द्रौपदी यद्यपि अर्जुन को देखने के लिए स्पष्ट रूप में इच्छुक थी तथापि अमङ्गल के भय से वह हिमकण से युक्त कमल के समान, आंसुओं से भरे हुए अपने नेत्रों को मूंदने में समर्थ न हो सकी ।

 

टिप्पणी: अर्जुन के वियोग की गहरी व्यथा से द्रौपदी की आँखों में आंसू भरे हुए थे, जिससे वह ठीक तरह से अर्जुन को देख नहीं पाती थी । और चाहती थी ह्रदय भर कर देखना, किन्तु ऐसा तब तक नहीं हो सकता था जब तक नेत्र आंसुओं से स्वच्छ न हो । यदि वह आंसू गिराती तो अमङ्गल होता, क्योंकि यात्रा के समय स्त्री के आंसू अपशकुन के सूचक होते हैं, अतः वह जैसी की तैसी रही । उस समय उसके नेत्र हिमकण से युक्त कमल पात्र के समान सुशोभित हो रहे थे ।

उपमा और काव्यलिङ्ग अलङ्कार

 

 

अकृत्रिमप्रेमरसाभिरामं रामार्पितं दृष्टिविलोभि दृष्टं ।

मनःप्रसादाञ्जलिना निकामं जग्राह पाथेयं इवेन्द्रसूनुः ।। ३.३७ ।।

 

अर्थ: इन्द्रपुत्र ने सहज प्रेमरस से मनोहर, पत्नी द्वारा समर्पित, दृष्टी को लुभानेवाले उसके अवलोकन को अपने प्रसन्न मनरूपी अञ्जलि से यथेष्ट रूप से ग्रहण किया ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार से कोई पथिक सहज प्रेम से अपनी प्रियतमा द्वारा दिए गए मधुर पाथेय को अञ्जलि में ग्रहण करता है, उसी प्रकार से सहज स्नेह से मनोहर नेत्रानन्ददायी द्रौपदी के दर्शन को अर्जुन ने अञ्जलि के समान अपने प्रसन्न मन से ग्रहण किया ।

उपमा अलङ्कार

 

धैर्यावसादेन हृतप्रसादा वन्यद्विपेनेव निदाघसिन्धुः ।

निरुद्धबाष्पोदयसन्नकण्ठं उवाच कृच्छ्रादिति राजपुत्री ।। ३.३८ ।।

 

अर्थ: जङ्गली हाथी द्वारा गंदली की गयी ग्रीष्म की नदी की भांति, धैर्य के छूटने से उदास राजपुत्री, वाष्प के रुक जाने से गदगद कण्ठ द्वारा बड़ी कठिनाई से यह बोली ।

 

 

 

 

मग्नां द्विषच्छद्मनि पङ्कभूते सम्भवानां भूतिं इवोद्धरिष्यन् ।

आधिद्विषां आ तपसां प्रसिद्धेरस्मद्विना मा भृशं उन्मनीभूः ।। ३.३९ ।।

 

अर्थ: कीचड के समान शत्रुओं के कपट-व्यवहार में डूबी हम सब की सम्पत्ति के योग्यतम उद्धारकर्ता तुम ही हो, अतः मन की व्यथा को दूर करनेवाली साधना की सफलता-पर्यन्त तुम हम लोगों के बिना अत्यन्त व्यथित मत होना ।

 

टिप्पणी: शत्रु के कपट से नष्ट हम सब की योग्यता को तुम ही पहले जैसी बना सकते हो । अतः जब तक तपस्या का फल न मिल जाय तब तक तुम्हें अत्यन्त उदास या व्यथित नहीं होना चाहिए ।

उपमा अलङ्कार

 

 

यशोऽधिगन्तुं सुखलिप्सया वा मनुष्यसंख्यां अतिवर्तितुं वा ।

निरुत्सुकानां अभियोग्गभाजां समुत्सुकेवाङ्कं उपैति सिद्धिः ।। ३.४० ।।

 

अर्थ: उज्जवल कीर्ति पाने के लिए, सुख प्राप्ति के लिए अथवा साधारण मनुष्यों से ऊपर उठकर कोई असाधारण काम करने के लिए उद्यत होनेवाले एवं कभी अनुत्साहित न होनेवाले लोगों को अनुरक्ता स्त्री की भांति सफलता स्वयमेव प्राप्त होती है ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार प्रेमी में अनुरक्त रमणी उसके अंक में स्वयमेव आ बैठती है उसी प्रकार सफलता भी उस मनुष्य के समीप स्वयमेव आती है जो उपर्युक्त प्रकार से कठिन से कठिन कार्य करने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं ।

उपमा अलङ्कार

 

*नीचे के चारों श्लोकों में द्रौपदी शत्रुओं द्वारा किये गए अपमान का स्मरण दिलाते हुए तपस्या की आवश्यकता दिखाकर अर्जुन के क्रोध को भड़काती है । इन चारों श्लोकों का कर्ता और क्रियापद एक ही में है ।

लोकं विधात्रा विहितस्य गोप्तुं क्षत्त्रस्य मुष्णन्वसु जैत्रं ओजः ।

तेजस्विताया विजयैकवृत्तेर्निघ्नन्प्रियं प्राणं इवाभिमानं ।। ३.४१ ।।

 

व्रीडानतैराप्तजनोपनीतः संशय्य कृच्छ्रेण नृपैः प्रपन्नः ।

वितानभूतं विततं पृथिव्यां यशः समूहन्निव दिग्विकीर्णं ।। ३.४२ ।।

 

वीर्यावदानेषु कृतावमर्षस्तन्वन्नभूतां इव सम्प्रतीतिं ।

कुर्वन्प्रयामक्षयं आयतीनां अर्कत्विषां अह्न इवावशेषः ।। ३.४३ ।।

 

प्रसह्य योऽस्मासु परैः प्रयुक्तः स्मर्तुं न शक्यः किं उताधिकर्तुं ।

नवीकरिष्यत्युपशुष्यदार्द्रः स त्वद्विना मे हृदयं निकारः ।। ३.४४ ।।

 

अर्थ: ब्रह्मा द्वारा लोक-रक्षा के निमित्त बनाये गए क्षत्रियों के विजयशील तेजरूपी धन का अपहरण करता हुआ, एकमात्र विजय-प्राप्ति ही जिनकी वृत्ति है, ऐसे तेजस्वियों के प्रिय प्राणों की भांति अभिमान को खण्डित करता हुआ, परिचित लोगों द्वारा कहे जाने पर सन्देहयुक्त किन्तु लज्जा से नीचे मुख किये हुए राजाओं द्वारा बड़ी कठिनाई से कहे जाने पर किसी प्रकार विश्वास योग्य पृथ्वी पर सभी दिशाओं में फैले हुए हमारे यश को मानो संकुचित सा करता हुआ, पहले के पराक्रमपूर्ण कार्यों को करने के कारण प्राप्त प्रसिद्धि को मानो झूठा-सा सिद्ध करता हुआ, दिन के चौथे पहर द्वारा सूर्य की कान्ति के समान भविष्य की प्रतिष्ठा को नष्ट करता हुआ, शत्रुओं द्वारा हम पर हठपूर्वक किया गया, जो स्मरण करने योग्य भी नहीं हो, उसके अनुभव की बात क्या कही जाय, वही मेरा केशाकर्षण रूप अपमान तुम्हारे न रहने पर ताजा(गीला) होकर, तुम्हारी विरह-गाथा में सूखते हुए मेरे ह्रदय को फिर गीला कर देगा ।

 

टिप्पणी: चारों श्लोकों में दिए गए सभी विशेषण 'विकार' शब्द के लिए ही हैं । द्रौपदी अर्जुन के क्रोध को उद्दीप्त करने के लिए ही इस प्रकार की बातें कह रही है । प्रथम श्लोक का तात्पर्य यह है कि तेजस्वी पुरुष की मानहानि ही उनकी मृत्यु के समान है । इसमें उपमा अलङ्कार है । द्वितीय श्लोक का तात्पर्य है कि शत्रुओं से पराजित लोग कभी यश के भागी नहीं होते । इसमें काव्यलिङ्ग और उत्प्रेक्षा अलङ्कार है। तृतीय श्लोक का तात्पर्य यह है कि शत्रुओं द्वारा अपमानित व्यक्ति को चिरकाल तक कहीं प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त होती । इसमें उत्प्रेक्षा और उपमा की ससृष्टि है । चतुर्थ श्लोक का तात्पर्य है कि मेरा वह अपमान अब तुम्हारे यहाँ न रहने पर मुझे और भी सताएगा । इसमें समासोक्ति अलङ्कार है ।

 

प्राप्तोऽभिमानव्यसनादसह्यं दन्तीव दन्तव्यसनाद्विकारं ।

द्विषत्प्रतापान्तरितोरुतेजाः शरद्घनाकीर्ण इवादिरह्नः ।। ३.४५ ।।

 

अर्थ: अभिमान अर्थात अपनी मान-मर्यादा के नष्ट हो जाने से (इस समय) आप दांतों के टूट जाने से कुरूप हाथी कि भांति असह्य कुरूपता को प्राप्त हो गए हैं । शत्रुओं के प्रताप से आप का तेज मलिन हो गया है अतः आप शरद ऋतु के मेघों से छिपे हुए प्रभात कि भांति दिखाई पड़ रहे हैं ।

 

टिप्पणी: अर्थात शत्रुओं के प्रताप से आप का तेज बिलकुल नष्ट हो गया है । दन्तविहीन हाथी के समान मानमर्यादाविहीन आप का जीवन कृरूप हो गया है । उपमा अलङ्कार

 

 

सव्रीडमन्दैरिव निष्क्रियत्वान्नात्यर्थं अस्त्रैरवभासमानः ।

यशःक्षयक्षीणजलार्णवाभस्त्वं अन्यं आकारं इवाभिपन्नः ।। ३.४६ ।।

 

अर्थ: उपयोग में न आने के कारण मानो सञ्चित एवं कुटिल अस्त्रों से (इस समय आप) अत्यन्त शोभायमान नहीं हो रहे हैं, प्रत्युत यश के नष्ट होने से जलहीन समुद्र के समान आप मानो किसी भिन्न ही आकृति को प्राप्त हो गए हैं ।

 

टिप्पणी: उपमा एवं उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

दुःशासनामर्षरजोविकीर्णैरेभिर्विनार्थैरिव भाग्यनाथैः ।

केशैः कदर्थीकृतवीर्यसारः कच्चित्स एवासि धनंजयस्त्वं ।। ३.४७ ।।

 

अर्थ: दुःशासन के आकर्षण रूप धूलि से धूसरित, मानो असहायों के समान भाग्य के भरोसे रहने वाले इन मेरे केशों से, जिनके बल और पराक्रम का तिरस्कार हो चुका है, तुम क्या वही अर्जुन हो ?

 

टिप्पणी: अर्थात यदि तुम वही अर्जुन हो तो मुझे भरोसा है कि तुम अब हमारी वैसी उपेक्षा न करोगे और इन्हें फिर पूर्ववत ससम्माननीय कर दोगे ।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

 

स क्षत्त्रियस्त्राणसहः सतां यस्तत्कार्मुकं कर्मसु यस्य शक्तिः ।

वहन्द्वयीं यद्यफलेऽर्थजाते करोत्यसंस्कारहतां इवोक्तिं ।। ३.४८ ।।

 

अर्थ: जो सत्पुरुषों कि रक्षा करने में समर्थ है, वही क्षत्रिय है । जिसमें कर्म करने अर्थात रणक्षेत्र में शक्ति दिखने कि क्षमता है उसी को कार्मुक अर्थात धनुष कहते हैं । ऐसी स्थिति में इन दोनों शब्दों को (मण्डप और कुशल शब्दों के समान अवयवार्थ शून्य) केवल जातिमात्र में प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य इन्हें मानो अव्युत्पत्ति दूषित अर्थात व्याकरण विरुद्ध वाणी के समान (प्रयोग) करता है ।

 

टिप्पणी: व्याकरण प्रक्रिया कि रीति से प्रकृत्यर्थ और प्रत्ययार्थ मिलकर क्षत्रिय और कार्मुक शब्द से ऐसी ही अर्थ कि प्रतीति कराते हैं । यदि कोई क्षत्रिय सत्पुरुषों कि रक्षा करने में असमर्थ है तथा धनुष रणभूमि में पराक्रम दिखाने वाला नहीं है तो वे केवल जातिबोधक शब्द हैं जैसे 'मण्डप' और 'कुशल' शब्द हैं । तुम यदि यथार्थ में क्षत्रिय शब्द के अधिकारी हो और तुम्हारा धनुष शक्तिशाली है तो मेरे अपमान का बदला चुकाकर अपना कलङ्क दूर करो ।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

वीतौजसः सन्निधिमात्रशेषा भवत्कृतां भूतिं अपेक्षमाणाः ।

समानदुःखा इव नस्त्वदीयाः सरूपतां पार्थ गुणा भजन्ते ।। ३.४९ ।।

 

अर्थ: हे अर्जुन ! कान्तिविहीन, अस्तित्वमात्र शेष, आपके द्वारा संभव अभ्युदय की अपेक्षा रखने वाले आपके शौर्यादि गुण मानो समान दुःखभोगी के समान हमारी समानधर्मिता प्राप्त कर रहे हैं ।

 

टिप्पणी: जैसे हम लोग कान्तिविहीन हैं, प्राणमात्र धारण किये हैं और आपके अभ्युदयाकांक्षी हैं, वैसे ही आपके शौर्यादि गुण भी इस समय हो गए हैं ।

उत्प्रेक्षा से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार

 

आक्षिप्यमाणं रिपुभिः प्रमादान्नागैरिवालूनसटं मृगेन्द्रं ।

त्वां धूरियं योग्यतयाधिरूढा दीप्त्या दिनश्रीरिव तिग्मरश्मिं ।। ३.५० ।।

 

अर्थ: हाथियों द्वारा जिसके गर्दन के बाल नोच लिए गए हैं - ऐसे सिंह की भांति, अपनी असावधानी के कारण शत्रुओं द्वारा अपमानित आपके ऊपर, योग्य समझकर यह कार्यभार उसी प्रकार से आरूढ़ हो रहा है ।

 

करोति योऽशेषजनातिरिक्तां सम्भावनां अर्थवतीं क्रियाभिः ।

संसत्सु जाते पुरुषाधिकारे न पूरणी तं समुपैति संख्या ।। ३.५१ ।।

अर्थ: जो मनुष्य सर्व-साधारण से ऊपर उठकर अधिक योग्यता वाले कार्य को अपने प्रयत्नों से सफल करता है, उसी को सभा में सर्वश्रेष्ठ अथवा सर्वश्रेष्ठ पुरुष माना जाता है ।

 

प्रियेषु यैः पार्थ विनोपपत्तेर्विचिन्त्यमानैः क्लमं एति चेतः ।

तव प्रयातस्य जयाय तेषां क्रियादघानां मघवा विघातं ।। ३.५२ ।।

 

अर्थ: हे अर्जुन ! प्रियजनों के विषय में जो दुःख बिना किसी कारन के ही, चिन्तन किये जाने मात्र से तुम्हारे चित्त को खिन्न कर देने वाले हैं, विजयार्थ प्रस्थित तुम्हारे उन (सब) दुखों को देवराज इन्द्र नष्ट करें ।

 

टिप्पणी: द्रौपदी के कथन का तात्पर्य यह है कि हम लोगों के कल्याण के सम्बन्ध में आपके चित्त में जो आशंकाएं हों वह इन्द्र कि कृपा से दूर हो जाएँ, अर्थात आप वहां पहुंचकर हम सब कि चिन्ता न करें, अन्यथा आपकी विजयअभिलषा में बाधा पहुंचेगी ।

 

मा गाश्चिरायैकचरः प्रमादं वसन्नसम्बाधशिवेऽपि देशे ।

मात्सर्यरागोपहतात्मनां हि स्खलन्ति साधुष्वपि मानसानि ।। ३.५३ ।।

 

अर्थ: (उस) निर्जन और विघ्नबाधा से रहित स्थान में भी चिरकाल तक अकेले निवास करते हुए तुम कोई असावधानी मत करना, क्योंकि रागद्वेष से दूषित स्वभाव वाले व्यक्तियों के चित्त महापुरुषों के सम्बन्ध में भी विकृत हो जाते हैं ।

 

टिप्पणी: रागद्वेष से दूषित लोग महापुरुषों के सम्बन्ध में भी जब विकृत धारणाएं बना लेते हैं तो उस निर्जन देश में यद्यपि कोई विघ्नबाधा नहीं आएगी तथापि असहाय होने के कारण कोई असावधानी मत करना, क्योंकि अकेले में चित्त विक्षुब्ध होना स्वाभाविक है ।

 

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

तदाशु कुर्वन्वचनं महर्षेर्मनोरथान्नः सफलीकुरुष्व ।

प्रत्यागतं त्वास्मि कृतार्थं एव स्तनोपपीडं परिरब्धुकामा ।। ३.५४ ।।

 

अर्थ: इसलिए शीघ्र ही महर्षि वेदव्यास जी के आदेश का पालन करते हुए तुम हम लोगों के मनोरथ को सफल बनाओ । कार्य पूरा करके वापस लौट कर आने पर ही तुम्हें गाढ़ा आलिङ्गन करने की मैं अभिलाषी हूँ ।

 

टिप्पणी: कार्यसिद्धि के पूर्व इस समय तुम्हें मेरा आलिङ्गन करना भी उचित नहीं है ।

अर्थापत्ति अलङ्कार

 

उदीरितां तां इति याज्ञसेन्या नवीकृतोद्ग्राहितविप्रकारां ।

आसाद्य वाचं स भृशं दिदीपे काष्ठां उदीचीं इव तिग्मरश्मिः ।। ३.५५ ।।

 

अर्थ: राजा यज्ञसेन की कन्या द्रौपदी की इस प्रकार कही गयी उन बातों को सुनकर, जिसने शत्रुओं के अपकार को फिर से नूतन रूप देकर ह्रदय में जमा दिया, अर्जुन उत्तर दिशा में प्राप्त सूर्य की तरह अत्यन्त जल उठे ।

 

टिप्पणी: उत्तर दिशा (उत्तरायण) में पहुँच कर सूर्य जिस प्रकार से अत्यन्त दीप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार से द्रौपदी की बातें सुनकर अर्जुन अत्यन्त क्रोध से जल उठे ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग और उपमा अलङ्कार

 

अथाभिपश्यन्निव विद्विषः पुरः पुरोधसारोपितहेतिसंहतिः ।

बभार रम्योऽपि वपुः स भीषणं गतः क्रियां मन्त्र इवाभिचारिकीं ।। ३.५६ ।।

अर्थ: तदनन्तर शत्रुओं को सामने उपस्थित की तरह देखते हुए, पुरोहित (धौम्य) द्वारा मंत्रोच्चारण सहित उपस्थापित शस्त्रों से युक्त अर्जुन ने रम्याकृति होते हुए भी दूसरों के मारण अनुष्ठान में प्रयुक्त मन्त्र के समान, अति भयङ्कर स्वरुप धारण कर लिया ।

 

अविलङ्घ्यविकर्षणं परैः प्रथितज्यारवकर्म कार्मुकं ।

अगतावरिदृष्टिगोचरं शितनिस्त्रिंशयुजौ महेषुधी ।। ३.५७ ।।

 

यशसेव तिरोदधन्मुहुर्महसा गोत्रभिदायुधक्षतीः ।

कवचं च सरत्नं उद्वहञ्ज्वलितज्योतिरिवान्तरं दिवः ।। ३.५८ ।।

 

अकलाधिपभृत्यदर्शितं शिवं उर्वीधरवर्त्म सम्प्रयान् ।

हृदयानि समाविवेश स क्षणं उद्बाष्पदृशां तपोभृतां ।। ३.५९ ।।

 

अर्थ: शत्रुओं द्वारा जिसका खींचा जाना कभी व्यर्थ नहीं होता, जिसकी प्रत्यंचा को खींचने का कार्य प्रसिद्ध है । (ऐसे गाण्डीव धनुष तथा) जो शत्रु की दृष्टी में नहीं आते थे तथा तेज़ तलवार से युक्त थे (ऐसे दो तरकस धारण किये हुए) देवराज इन्द्र के वज्र-प्रहार के चिन्हों को मानो अपने तेज से मूर्तिमान यश की भांति बारम्बार आच्छादित करनेवाले तथा रक्तयुक्त होने के कारण मानो उज्जवल नक्षत्रों से युक्त आकाश के मध्य भाग की भांति सुशोभित कवच को धारण किये हुए, अर्जुन ने अल्कापति कुबेर के सेवक उस यक्ष द्वारा दिखाए गए निर्बाध हिमवान पर्वत के मार्ग पर जाते हुए क्षणभर के लिए, वियोग से दुखित होने के कारण अश्रु से भरे नेत्रों वाले उन (द्वैतवन निवासी) तपस्वियों के चित्त में प्रवेश कर लिया ।(अर्थात उनको अपने वियोग से खिन्न कर दिया)

 

टिप्पणी: अपने उत्कृष्ट गाण्डीव धनुष, तेज़ तलवार से युक्त दो तरकस तथा रत्नजड़ित देदीप्यमान कवच को धारण कर अर्जुन हिमालय की ओर यक्ष के साथ चल पड़े। उस समय उन्हें इस प्रकार जाते देखकर द्वैतवानवासी तपस्वियों का मन खिन्न हो गया।

द्वितीय श्लोक में उपमा और उत्प्रेक्षा अलङ्कार

तृतीय श्लोक में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

अनुजगुरथ दिव्यं दुन्दुभिध्वानं आशाः सुरकुसुमनिपातैर्व्य्ॐनि लक्ष्मीर्वितेने ।

प्रियं इव कथयिष्यन्नालिलिङ्ग स्फुरन्तीं भुवं अनिभृतवेलावीचिबाहुः पयोधिः ।। ३.६० ।।

अर्थ: तदनन्तर (तपस्या के लिए अर्जुन के चले जाने के पश्चात) दिशाएं आकाश में दिव्या दुदुम्भियों की आवाज़ करने लगीं, पारिजात आदि देव-कुसुमों की वृष्टि से आकाश-मण्डल में विचित्र शोभा हो गयी और तट पर पहुंचनेवाली चञ्चल- तरङ्गरुपी भुजाओं से समुद्र भी मानो हर्षातिरेक से भरी पृथ्वी को प्रिय सन्देश सुनाते हुए की भांति आलिङ्गन करने लगा ।

 

टिप्पणी: अर्थात सर्वत्र शुभ-शकुन होने लगे । दिशा, आकाश, समुद्र और पृथ्वी - सब आनन्द से भर गए । समुद्र पृथ्वी को वह शुभ सन्देश सुनाने लगा कि अब शीघ्र ही तुम्हारा असह्य भार उतरने वाला है क्योंकि अन्यायियों के विनाशार्थ ही अर्जुन तपस्या करने जा रहे हैं ।

उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति

 

 

।। इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये तृतीयः सर्गः ।।

==============================================

 

 

 

 

ततः स कूजत्कलहंसमेखलां सपाकसस्याहितपाण्डुतागुणां ।

 

उपाससादोपजनं जनप्रियः प्रियां इवासादितयौवनां भुवं ।। ४.१ ।।

 

 

अर्थ: तदनन्तर सर्वजनप्रिय अर्जुन मधुर ध्वनि करती हुई मेखला के समान राजहंसों को धारण करनेवाली तथा पके हुए अन्नों से पीले वर्णों वाली पृथ्वी के पास, (मधुर ध्वनि करने वाले राजहंसों के समान मेखला धारण करने वाली) युवावस्था प्राप्त अपनी प्रियतमा की भांति जन समीप में (सखियों के समक्ष) पहुँच गए ।

 

टिप्पणी: जिस प्रकार कोई नायक उसकी सखियों के समक्ष अपनी युवती प्रियतमा के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार लोकप्रिय अर्जुन उस भूमि में पहुँच गए, जहाँ कृषकों का निवास था ।

उपमा अलङ्कार

 

 

विनम्रशालिप्रसवौघशालिनीरपेतपङ्काः ससरोरुहाम्भसः ।

 

ननन्द पश्यन्नुपसीम स स्थलीरुपायनीभूतशरद्गुणश्रियः ।। ४.२ ।।

 

अर्थ: अर्जुन नीचे की ओर झुकी हुई धान की बालों से सुशोभित, कमलों से युक्त जलोंवाली ऐसी सहज मनोहर ग्राम-सीमा की भूमि को देखते हुए बहुत हर्षित हुए, जिसमें शरद ऋतु की सम्पूर्ण समृद्धियाँ उन्हें भेंट रूप में अर्पित कर दी गयी थी ।

 

 

 

टिप्पणी: परिणाम अलङ्कार

 

निरीक्ष्यमाणा इव विस्मयाकुलैः पयोभिरुन्मीलितपद्मलोचनैः ।

हृतप्रियादृष्टिविलासविभ्रमा मनोऽस्य जह्रुः शफरीविवृत्तयः ।। ४.३ ।।

 

अर्थ: आश्चर्य रास से भरे, खिले हुए कमल रुपी नेत्रों के द्वारा मानो जालों द्वारा देखि जाती हुई तथा प्रियतमा रमणियों के दृष्टी विलास की चञ्चलता को हरण करने वाली शफरी(सहरी) मछलियों की उछाल-कूद की चेष्टाओं ने अर्जुन के मन को हर लिया ।

 

टिप्पणी: मार्ग के सरोवरों में कमल खिले थे और सहरी मछलियां उछल-कूद कर रही थीं, जिन्हें देखकर अर्जुन का मन मुग्ध हो गया ।

रूपक अलङ्कार

 

 

तुतोष पश्यन्कलमस्य स अधिकं सवारिजे वारिणि रामणीयकं ।

 

सुदुर्लभे नार्हति कोऽभिनन्दितुं प्रकर्षलक्ष्मीं अनुरूपसंगमे ।। ४.४ ।।

 

 

अर्थ: अर्जुन कमलों से सुशोभित जल में जड़हन धान की मनोहर शोभा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । क्यों न होते ? अत्यन्त दुर्लभ और योग्य व्यक्तियों के समागम की उत्कृष्ट शोभा का अभिनन्दन कौन नहीं करना चाहता ?

 

टिप्पणी: अर्थात ऐसे सुन्दर समागम की शोभा का सभी अभिनन्दन करते हैं ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

नुनोद तस्य स्थलपद्मिनीगतं वितर्कं आविष्कृतफेनसंतति ।

 

अवाप्तकिञ्जल्कविभेदं उच्चकैर्विवृत्तपाठीनपराहतं पयः ।। ४.५ ।।

 

 

अर्थ: ऊंचाई तक उछलती हुई रोहू नामक मछलियों से ताड़ित होने के कारण फेन समूहों को प्रकट करनेवाले तथा सटे हुए पद्मों के केसर समूहों से सुशोभित जल ने अर्जुन के (कमलों में) गुलाब सम्बन्धी शंका को निवृत्त कर दिया ।

 

टिप्पणी: रोहू मछलियां जब ऊंचाई तक कूदती थी, तब जल के ऊपर तैरनेवाली पद्म-केसर दूर हट जाती थी तथा निर्मल जल में फेनों के समूह भी दिखाई पड़ते लगते थे, इससे कमलों के पुष्पों में अर्जुन को गुलाब के पुष्प होने की जो शंका हो रही थी, वह निवृत्त हो गयी।

निश्चयोत्तर सन्देह अलङ्कार

 

 

कृतोर्मिरेखं शिथिलत्वं आयता शनैः शनैः शान्तरयेण वारिणा ।

 

निरीक्ष्य रेमे स समुद्रयोषितां तरङ्गितक्ष्ॐअविपाण्डु सैकतं ।। ४.६ ।।

 

 

अर्थ: अर्जुन धीरे धीरे क्षीणोन्मुख एवं शान्त-वेग जल से निर्मित लहरों के रेखाओं से सुशोभित समुद्रपत्नी नदियों के भगियुक्त (चुन्नटदार) रेशमी साड़ी की भांति शुभ्र बालुकामय तटों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए ।

 

टिप्पणी: नदियों के जल ज्यों ज्यों काम होने लगते हैं, त्यों त्यों उनके बालुकामय तट पर शान्त लहरों के निशान साड़ियों की चुन्नटों की भांति सुशोभित होते जाते हैं । कवी उसी की उपमा स्त्री की उस साड़ी से कर रहा है जो चुनियाई गयी है ।

उपमा अलङ्कार

 

[नीचे के तीन श्लोकों में धान की रखवाली करनेवाली स्त्रियों का वर्णन है - ]

 

मनोरमं प्रापितं अन्तरं भ्रुवोरलंकृतं केसररेणुणाणुना ।

अलक्तताम्राधरपल्लवश्रिया समानयन्तीं इव बन्धुजीवकं ।। ४.७ ।।

 

 

नवातपालोहितं आहितं मुहुर्महानिवेशौ परितः पयोधरौ ।

 

चकासयन्तीं अरविन्दजं रजः परिश्रमाम्भःपुलकेन सर्पता ।। ४.८ ।।

 

 

 

कपोलसंश्लेषि विलोचनत्विषा विभूषयन्तीं अवतंसकोत्पलं ।

 

सुतेन पाण्डोः कलमस्य गोपिकां निरीक्ष्य मेने शरदः कृतार्थता ।। ४.९ ।।

 

अर्थ: महीन केसरों के पराग से अलङ्कृत होने के कारण मनोहर और दोनों भौहों के मध्य में स्थापित बन्धूक पुष्प की मानों जावक के रंग से रंगे हुए अधरपल्लवों की शोभा से तुलना करती हुयी सी, पीन(विशाल) स्तनों के चारों ओर फिर से लगाए गए प्रातः काल की धूप के समान लाल कमल-पराग को चूते हुए परिश्रमजनित पसीनों की बूंदों से अत्यन्त सुशोभित करती हुई तथा कपोलतट पर लगे हुए कान के आभूषण-कमल को अपने नेत्रों की कान्ति से विभूषित करती हुई, जड़हन धान को रखानेवाली रमणियों को देखकर, पाण्डुपुत्र अर्जुन ने शरद ऋतु की कृतार्थता को स्वीकार किया ।

 

टिप्पणी: शरद ऋतु के प्राकृतिक उपकरणों से अलङ्कृत रमणियों की सुन्दरता ही उस की सफलता थी ।

प्रथम छन्द में उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

 

उपारताः पश्चिमरात्रिगोचरादपारयन्तः पतितुं जवेन गां ।

 

तं उत्सुकाश्चक्रुरवेक्षणोत्सुकं गवां गणाः प्रस्नुतपीवरौधरसः ।। ४.१० ।।

 

अर्थ: पिछली रात्रि में चरने के स्थान से लौटी हुई, वेग से भूमि पर दौड़ने में असमर्थ, अत्यन्त मोटे स्तनों से क्षेत्र-क्षरण  करनेवाली एवं अपने-अपने बच्चो के लिए उत्कण्ठित गौओं ने अर्जुन को अपने देखने के लिए समुत्सुक कर दिया ।

 

टिप्पणी: स्वभावोक्ति अलङ्कार

 

 

परीतं उक्षावजये जयश्रिया नदन्तं उच्चैः क्षतसिन्धुरोधसं ।

 

ददर्श पुष्टिं दधतं स शारदीं सविग्रहं दर्पं इवाधिपं गवां ।। ४.११ ।।

 

 

अर्थ: दुसरे (अपने प्रतिद्विन्द्वी) बलवान सांड को जीतकर विजय शोभा समलंकृत, उच्च स्वर में गरजते हुए, नदी तट को (अपने सींगों से) क्षत-विक्षत करते हुए, एवं शरद ऋतु की पुष्टि को धारण करनेवाले (शरद ऋतु की पौष्टिक घासों को चर कर खूब हृष्टपुष्ट) एक सांड को अर्जुन ने मानो मूर्तिमान अभिमान की भांति देखा ।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

 

 

विमुच्यमानैरपि तस्य मन्थरं गवां हिमानीविशदैः कदम्बकैः ।

शरन्नदीनां पुलिनैः कुतूहलं गलद्दुकूलैर्जघनैरिवादधे ।। ४.१२ ।।

 

अर्थ: हिमराशि के समान श्वेत गौओं के समूहों द्वारा धीरे धीरे छोड़े जाते हुए भी शरद ऋतु की नदियों के तटों ने, रमणी के उस जघन प्रदेश के समान अर्जुन के कुतूहल का उत्पादन किया, जिस पर से साड़ी नीचे सरक गयी हो ।

 

टिप्पणी: शरद ऋतु के विशेषण का तात्पर्य यह है कि उसी ऋतु में नदियों के तट मनोहर दिखाई पड़ते हैं ।

उपमा अलङ्कार ।

 

गतान्पशूनां सहजन्मबन्धुतां गृहाश्रयं प्रेम वनेषु बिभ्रतः ।

ददर्श गोपानुपधेनु पाण्डवः कृतानुकारानिव गोभिरार्जवे ।। ४.१३ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने पशुओं के साथ सहोदर जैसी बन्धु भावना रखनेवाले, वनों में (भी) घर जैसा प्रेम रखनेवाले तथा सरलता में मानों गौओं का अनुकरण करते हुए गोपों को गौओं के समीप देखा ।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा से अनुप्राणित स्वभावोक्ति

 

[ नीचे के चार श्लोकों में गोपियों की तुलना नर्तकियों से की गयी है ]

 

परिभ्रमन्मूर्धजषट्पदाकुलैः स्मितोदयादर्शितदन्तकेसरैः ।

मुखैश्चलत्कुण्डलरश्मिरञ्जितैर्नवातपामृष्टसरोजचारुभिः ।। ४.१४ ।।

 

निबद्धनिःश्वासविकम्पिताधरा लता इव प्रस्फुरितैकपल्लवाः ।

व्यपोढपार्श्वैरपवर्तितत्रिका विकर्षणैः पाणिविहारहारिभिः ।। ४.१५ ।।

 

व्रजाजिरेष्वम्बुदनादशङ्किनीः शिखण्डिनां उन्मदयत्सु योषितः ।

मुहुः प्रणुन्नेषु मथां विवर्तनैर्नदत्सु कुम्भेषु मृदङ्गमन्थरं ।। ४.१६ ।।

 

स मन्थरावल्गितपीवरस्तनीः परिश्रमक्लान्तविलोचनोत्पलाः ।

निरीक्षितुं नोपरराम बल्लवीरभिप्रनृत्ता इव वारयोषितः ।। ४.१७ ।।

 

अर्थ: चञ्चल भ्रमरों के समान घुंघराले बालों से सुशोभित, किञ्चित मुस्कुराने से प्रकाशित केसर के समान दांतों से विभूषित, चञ्चल कुण्डलों की कान्तियों से रञ्जित होने के कारण प्रातः कालीन सूर्य की किरणों से स्पर्श किये गए कमल समान सुन्दर मुखों से युक्त, परिश्रम के कारण रुकी हुई श्वासा से कम्पित अधरों के कारण एक एक पल्लव जिनके हिल रहे हों - ऐसी लताओं के समान मनोज्ञ, बगलों के बारम्बार परिवर्तनों तथा (दधिमन्थन के कारण) हाथों के सञ्चालन से मनोहर तथा (मथानी की रस्सियों के खींचने से) चञ्चल नितम्बोवाली, गोष्ठ प्रांगणों में मंथनदण्डों के घुमाने से बारम्बार कम्पित होकर दधि अथवा दुग्ध के कलशों के मृदंगों के समान गंभीर ध्वनि करने के कारण बादलों के गर्जन का भ्रम पैदा करके मयूरियों को उन्मत्त करती हुई, धीरे धीरे चलने वाले पीन (विशाल) स्तनों से युक्त और परिश्रम से मलिन नेत्र-कमलों वाली गोपियों को, नृत्य-कार्य में लगी हुई वेश्याओं की भांति देखते हुए अर्जुन नहीं थके ।

 

टिप्पणी:  गोपियाँ गोष्ठों में दधि या दूध का मन्थन कर रहीं थी, उस समय उनकी जो शोभा थी वह नर्तकी वेश्याओं के समान ही थी । नृत्य के समय नर्तकियों के अङ्गों की जो जो क्रियाएं होती हैं, वही उस समय गोपियों की भी थी ।

चारों श्लोकों में उपमा और स्वाभावोक्ति अलङ्कार की ससृष्टि है । तृतीय श्लोक में भ्रांतिमान अलङ्कार ।

 

पपात पूर्वां जहतो विजिह्मतां वृषोपभुक्तान्तिकसस्यसम्पदः ।

रथाङ्गसीमन्तितसान्द्रकर्दमान्प्रसक्तसम्पातपृथक्कृतान्पथः ।। ४.१८ ।।

 

अर्थ: पूर्वकालिक अर्थात वर्षा काल के टेढ़पन को त्याग कर शरद ऋतु में सीधे बने हुए, बैलों द्वारा खाई गयी दोनों ओर के सस्यों(फसलों) की सम्पत्तियों वाले तथा रथों के चक्को के आने-जाने से जिनके गीले कीचड घनीभूत हो गए थे एवं बहुतेरे लोगों के निरन्तर आने-जाने से जो स्पष्ट दिखाई दे रहे थे, ऐसे पथों पर से होते हुए अर्जुन(आगे) चलने लगे ।

 

टिप्पणी: वर्षा ऋतु में जगह पानी होने के कारण मार्ग टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं, किन्तु वही शरद ऋतु में पानी के सूख जाने से सीधे बन जाते हैं । मार्गों के दोनों ओर के खेतों के अन्न अथवा घास प्राय पशुओं द्वारा चार ली जाती हैं । गाडी अथवा रथ के चक्कर के आने-जाने से गीले कीचड घनीभूत हो जाते हैं । लोगों के निरन्तर आने-जाने से शरद ऋतु में मार्ग स्पष्ट हो ही जाते हैं ।

स्वभावोक्ति अलङ्कार

 

 

जनैरुपग्रामं अनिन्द्यकर्मभिर्विविक्तभावेङ्गितभूषणैर्वृताः ।

भृशं ददर्शाश्रममण्डपोपमाः सपुष्पहासाः स निवेशवीरुधः ।। ४.१९ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने ग्रामों में अनिन्द्य अर्थात प्रशंसनीय कार्य करने वाले विशुद्ध अभिप्राय, चेष्टा तथा आभूषणों से अलङ्कृत ग्राम निवासियों द्वारा अधिष्ठित होने के कारण (द्वैत-वनवासी) मुनियों के आश्रमों के लता-मण्डपों के समान शोभा देने वाली एवं खिले हुए पुष्पों से मानो हास करनेवाली गृहलाताओं को आदरपूर्वक देखा ।

 

टिप्पणी: गाँवों में किसानों के घरों के सामने लताएं लगी थी और उनके गुल्मों की छाया में बैठकर वे आनन्दपूर्वक गोष्ठी-मुख का अनुभव करते थे । वे लताएं मुनियों के आश्रमों में बने हुए लता-मण्डपों के समान थी, क्योंकि उनके नीचे बैठनेवाले ग्राम्य-कृषक भी मुनियों के समान ही सीधे-सादे आचार-विचार वाले थे ।

उपमा अलङ्कार ।

 

ततः स सम्प्रेक्ष्य शरद्गुणश्रियं शरद्गुणालोकनलोलचक्षुषं ।

उवाच यक्षस्तं अचोदितोऽपि गां न हीङ्गितज्ञोऽवसरेऽवसीदति ।। ४.२० ।।

 

अर्थ: तदनन्तर उस यक्ष ने शरद ऋतु की मनोहारिणी शोभा देखकर, शरद की शोभा को देखने में उत्सुक नेत्रों वाले अर्जुन से बिना उसके कुछ पूछे ही ये बातें कहीं । गूढ़ संकेतों को समझने वाला बोलने का अवसर आने पर चूकता नहीं ।

 

टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

इयं शिवाया नियतेरिवायतिः कृतार्थयन्ती जगतः फलैः क्रियाः ।

जयश्रियं पार्थ पृथूकरोतु ते शरत्प्रसन्नाम्बुरनम्बुवारिदा ।। ४.२१ ।।

 

अर्थ: हे अर्जुन ! मङ्गलदायिनी भाग्य के फल देनेवाले शुभ अवसर के समान संसार की समस्त क्रियाओं को फलों द्वारा कृतार्थ करती हुई, निर्मल जालों तथा जलहीन बादलों से सुशोभित यह सरद ऋतु तुम्हारी विजयश्री का वर्द्धन करे ।

 

टिप्पणी: निर्मल जल तथा जलहीन बादल - ये दोनों विशेषण पृथ्वी और आकाश दोनों की प्रसन्नता के परिचयार्थ हैं ।

उपमा अलङ्कार

 

उपैति सस्यं परिणामरम्यता नदीरनौद्धत्यं अपङ्कता महीं ।

नवैर्गुणैः सम्प्रति संस्तवस्थिरं तिरोहितं प्रेम घनागमश्रियः ।। ४.२२ ।।

 

अर्थ: (इस शरद ऋतु में) अन्न पकने के कारण मनोहर हो जाते हैं, नदियां निर्मल जल एवं स्थिर धारा होने के कारण रमणीय हो जाती हैं, पृथ्वी कीचड रहित हो जाती है । इस प्रकार अब अपने नूतन गुणों से इस शरद ऋतु ने अत्यंत परिचय हो जाने के कारण वर्षाऋतु के सुदृढ़ प्रेम को निरर्थक बना दिया है ।

 

टिप्पणी: अर्थात कई महीनों से चलने वाली वर्षा ऋतु के मनोहर गुणों से यद्यपि लोगों का उसके प्रति सुदृढ़ प्रेम हो गया था किन्तु इस शरद ने थोड़े ही दिनों में अपने इन नूतन गुणों से उसे निरर्थक बना दिया । क्योंकि प्रेम उत्कृष्ट गुणों के अधीन होते हैं, परिचय के अधीन नहीं ।

 

पतन्ति नास्मिन्विशदाः पतत्त्रिणो धृतेन्द्रचापा न पयोदपङ्क्तयः ।

तथापि पुष्णाति नभः श्रियं परां न रम्यं आहार्यं अपेक्षते गुणं ।। ४.२३ ।।

 

अर्थ: इस शरद ऋतु में यद्यपि श्वेत पक्षीगण (बगुलों की पंक्तियाँ) नहीं उड़ते और न ही इंद्रधनुष से सुशोभित मेघों की पंक्तियाँ ही उड़ती हैं, तथापि आकाश की शोभा ही निराली रहती है । क्यों न हो, स्वभाव से सुन्दर वस्तु सुन्दर बनने के लिए बाहरी उपकरणों की अपेक्षा नहीं रखती ।

 

टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

विपाण्डुभिर्ग्लानतया पयोधरैश्च्युताचिराभागुणहेमदामभिः ।

इयं कदम्बानिलभर्तुरत्यये न दिग्वधूनां कृशता न राजते ।। ४.२४ ।।

 

अर्थ: वर्षाऋतु रुपी पति के विरह में विद्युत्-रुपी सुवर्ण हार से रहित तथा मलिनता (निर्जलता एवं दुर्बलता) के कारण पाण्डुवर्ण (पीले रंग) को धारण करने वाले पयोधरों (मेघों तथा स्तन-मण्डलों) से युक्त(इन ) इन दिशा रुपी सुंदरियों की यह दुर्बलता शोभा न दे रही हो - ऐसा नहीं है अपितु ये अत्यन्त शोभा दे रही हैं।

 

टिप्पणी: पति के वियोग से पत्नी का मलिन, कृश तथा अलङ्कार विहीन होना शास्त्रीय विधान है । उस समय उनकी शोभा इसी में है । वर्षा ऋतु रुपी पति के वियोग व्यथा में दिगङ्गनाओं की यह दशा प्रोषित्पतिका की भांति कवि ने चित्रित की है । वर्षा ऋतु पति है, दिशाएं स्त्रियां हैं, मेघ स्तन-मण्डल हैं, बिजली सुवर्ण-हार है ।

रूपक अलङ्कार

 

विहाय वाञ्छां उदिते मदात्ययादरक्तकण्ठस्य रुते शिखण्डिनः ।

श्रुतिः श्रयत्युन्मदहंसनिःस्वनं गुणाः प्रियत्वेऽधिकृता न संस्तवः ।। ४.२५ ।।

 

अर्थ: (इस शरद ऋतु में) मद के क्षय हो जाने से सुनने में अनाकर्षक अथवा कटु स्वर वाले मयूरों के उच्च स्वर के कूजन में अभिलाषा छोड़कर लोगों के कान अब मतवाले हंसों के कल-कूजन के इच्छुक हो गए हैं। क्यों न हों, प्रीति में गुण ही अधिकारी है, परिचय नहीं ।

 

टिप्पणी: अर्थात किसी चीज पर प्रेम होने का कारण उसके गुण हैं, चिरकाल का परिचय नहीं ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

अमी पृथुस्तम्बभृतः पिशङ्गतां गता विपाकेन फलस्य शालयः ।

विकासि वप्राम्भसि गन्धसूचितं नमन्ति निघ्रातुं इवासितोत्पलं ।। ४.२६ ।।

 

अर्थ: ये बालों के पक जाने से पीतिमा धारण करने वाले तथा मोटे-मोटे पुञ्जों वाले जड़हन धान के पौधे, जलयुक्त क्षेत्रों में विकसित होने वाले एवं मनोहर सुगंध से परिपूर्ण नीलकमलों को मानो सूंघने के लिए नीचे की ओर झुके हुए हैं ।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

मृणालिनीनां अनुरञ्जितं त्विषा विभिन्नं अम्भोजपलाशशोभया ।

पयः स्फुरच्छालिशिखापिशङ्गितं द्रुतं धनुष्खण्डं इवाहिविद्विषः ।। ४.२७ ।।

 

विपाण्डु संव्यानं इवानिलोद्धतं निरुन्धतीः सप्तपलाशजं रजः ।

अनाविलोन्मीलितबाणचक्षुषः सपुष्पहासा वनराजियोषितः ।। ४.२८ ।।

 

अदीपितं वैद्युतजातवेदसा सिताम्बुदच्छेदतिरोहितातपं ।

ततान्तरं सान्तरवारिशीकरैः शिवं नभोवर्त्म सरोजवायुभिः ।। ४.२९ ।।

 

सितच्छदानां अपदिश्य धावतां रुतैरमीषां ग्रथिताः पतत्रिणां ।

प्रकुर्वते वारिदरोधनिर्गताः परस्परालापं इवामला दिशः ।। ४.३० ।।

 

 

विहारभूमेरभिघोषं उत्सुकाः शरीरजेभ्यश्च्युतयूथपङ्क्तयः ।

असक्तं ऊधांसि पयः क्षरन्त्यमूरुपायनानीव नयन्ति धेनवः ।। ४.३१ ।।

 

अर्थ: अपनी विहार भूमि से निवास-स्थल की ओर उत्कण्ठित, समूह से बिछुड़ी हुई ये गौएं निरन्तर दुग्ध बहाती हुई अपने स्तनों को मानो अपने बछड़ों के लिए उपहार में लिए जा रही हैं ।

 

टिप्पणी: जैसे माताएं किसी मेले-ठेले से लौटते हुए अपने बच्चों के लिए उपहार लाती हैं, उसी प्रकार गौएं भी अपने विशाल स्तनों को मानो उपहार की गठरी के रूप में लिए जा रही हैं । उनके स्तन इतने बड़े हैं कि वे शरीर के अंग कि भांति नहीं प्रत्युत गठरी के समान मालूम पड़ते हैं ।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

जगत्प्रसूतिर्जगदेकपावनी व्रजोपकण्ठं तनयैरुपेयुषी ।

द्युतिं समग्रां समितिर्गवां असावुपैति मन्त्रैरिव संहिताहुतिः ।। ४.३२ ।।

 

अर्थ: अपने घृत आदि हवनीय सामग्रियों के द्वारा संसार की स्थिति के कारण तथा संसार को पवित्र करने में एक मुख्य हेतुभूत ये गौओं के समूह गोष्ठ्भूमि के समीप अपने बछड़ों से मिलकर, वेद-मन्त्रों से पवित्र आहुति के समान सम्पूर्ण शोभा धारण कर रहे हैं ।

 

टिप्पणी: यज्ञ की आहुतियां भी संसार की स्थिति का कारण तथा संसार को पवित्र करने का एक मुख्य साधन हैं । क्योंकि कहा गया है -

अग्नि प्रोस्ताहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।

आदित्याज्जायते वृष्टि वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ।।

 

अर्थात अग्नि में वेदमंत्रों से पवित्र आहुतियां आदित्य को प्राप्त होती हैं और आदित्य से वृष्टि, वृष्टि से अन्न तथा अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती है ।

उपमा अलङ्कार

 

 

कृतावधानं जितबर्हिणध्वनौ सुरक्तगोपीजनगीतनिःस्वने ।

इदं जिघत्सां अपहाय भूयसीं न सस्यं अभ्येति मृगीकदम्बकं ।। ४.३३ ।।

 

अर्थ: मयूरों की षड्ज ध्वनि को जीतने वाली मधुर-कण्ठ गोपियों के गीतों से दत्तचित्त यह हरिणियों का समूह खाने की प्रबल इच्छा को छोड़कर घासों की ओर नहीं जा रहा है ।

 

टिप्पणी: मधुर स्वर में गाने वाली गोपियों के गीतों के आकर्षण में इनकी भूख ही बन्द हो गई है ।

 

 

असावनास्थापरयावधीरितः सरोरुहिण्या शिरसा नमन्नपि ।

उपैति शुष्यन्कलमः सहाम्भसा मनोभुवा तप्त इवाभिपाण्डुतां ।। ४.३४ ।।

 

अर्थ: (नायक की भांति) सर झुकाकर प्रणत होने पर भी अनादर करनेवाली (नायिका की भांति) कमलिनी से तिरस्कृत होकर सहचारी जल के साथ सूखता हुआ यह जड़हन धान मानो कामदेव से सताए हुए की भांति पीले वर्ण का हो रहा है ।

 

टिप्पणी: जैसे कोई नायक, कुपिता नायिका द्वारा अपमानित होकर कामाग्नि से सूखकर काँटा हो जाता है, वैसे ही शरदऋतु में जड़हन धान भी पक कर पीले हो गए हैं । अतिशयोक्ति अलङ्कार से अनुप्राणित नमासोक्ति और उपमा का आगामी भाव से सङ्कर

 

 

अमी समुद्धूतसरोजरेणुना हृता हृतासारकणेन वायुना ।

उपागमे दुश्चरिता इवापदां गतिं न निश्चेतुं अलं शिलीमुखाः ।। ४.३५ ।।

 

अर्थ: उड़ते हुए कमल परागों से भरे हुए तथा वर्षा के जल-कणों से युक्त(शीतल, मन्द, सुगन्ध) वायु द्वारा आकृष्ट ये भ्रमरों के समूह राजा आदि का भय उपस्थित होने चोरों एवं लम्पटों की भांति अपने गन्तव्य का निश्चय नहीं कर पा रहे हैं ।

 

टिप्पणी: अर्थात शीतल मन्द सुगन्ध वायु बह रही है तथा भ्रमरावली उड़ती हुई गुञ्जार कर रही है । उपमा अलङ्कार

 

 

मुखैरसौ विद्रुमभङ्गलोहितैः शिखाः पिशङ्गीः कलमस्य बिभ्रती ।

शुकावलिर्व्यक्तशिरीषक्ॐअला धनुःश्रियं गोत्रभिदोऽनुगच्छति ।। ४.३६ ।।

 

अर्थ: मूंगे के टुकड़ों की भांति अपने लाल रंग के मुखों (चोंच) में पीले रंग की जड़हन धान की बालों को धारण किये हुए एवं विकसित शिरीष के पुष्प की भांति हरे रंगवाले इन शुकों की पत्तियां इन्द्रधनुष की शोभा का अनुकरण कर रही है ।

 

टिप्पणी: तीन रंगों (लाल, पीले और हरे) के संयोग से इन्द्रधनुष की उपमा दी गयी है । उपमा अलङ्कार

 

 

इति कथयति तत्र नातिदूरादथ ददृशे पिहितोष्णरश्मिबिम्बः ।

विगलितजलभारशुक्लभासां निचय इवाम्बुमुचां नगाधिराजः ।। ४.३७ ।।

 

अर्थ: इस प्रकार अर्जुन से बातें करते हुए उस यक्ष ने समीप से, भगवान् भास्कर के मंडल को छिपानेवाले पर्वतराज हिमालय को, जलभार से युक्त होने के कारण श्वेत कान्तिवाले मेघों के समूह की भांति देखा ।

 

टिप्पणी: अर्थात हिमालय समीप आ गया । पुष्पिताग्रा छन्द । उपमा अलङ्कार

 

तं अतनुवनराजिश्यामितोपत्यकान्तं नगं उपरि हिमानीगौरं आसद्य जिष्णुः ।

व्यपगतमदरागस्यानुसस्मार लक्ष्मीं असितं अधरवासो बिभ्रतः सीरपाणेः ।। ४.३८ ।।

 

अर्थ: विशाल वनों की पंक्तियों से नीले वर्ण वाली घाटियों से युक्त, बर्फ की चट्टानों से ढके हुए शुभ्र्वर्णों वाले हिमालय पर पहुंचकर अर्जुन ने, मदिरा के नशे से रहित कटि प्रदेश में नीलाम्बरधारी बलदेव जी की शोभा का स्मरण किया ।

 

टिप्पणी: यहाँ मदिरा के नशे से रहित होने का तात्पर्य है प्रकृतिस्थ होना। मालिनी छन्द । स्मरणालङ्कार ।

 

इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये चतुर्थः सर्गः ।

==============================================

 

[ अगले पन्द्रह श्लोकों द्वारा कवि हिमालय पर्वत का वर्णन कर रहा है । ]

 

अथ जयाय नु मेरुमहीभृतो रभसया नु दिगन्तदिदृक्षया ।

अभिययौ स हिमाचलं उच्छ्रितं समुदितं नु विलङ्घयितुं नभः ।। ५.१ ।।

 

अर्थ: तदनन्तर अर्जुन उस हिमालय पर्वत के सम्मुख पहुँच गए, जो या तो सुमेरु पर्वत को जीतने के लिए, अथवा अत्यन्त उत्कण्ठा से दिशाओं का अवसान देखने के लिए अथवा आकाश मण्डल का उल्लंघन करने के लिए मानो उछालकर अत्यन्त ऊंचा उठ खड़ा हुआ है ।

 

टिप्पणी: गम्योत्प्रेक्षा । द्रुतविलम्बित छन्द

तपनमण्डलदीतितं एकतः सततनैशतमोवृतं अन्यतः ।

हसितभिन्नतमिस्रचयं पुरः शिवं इवानुगतं गजचर्मणा ।। ५.२ ।।

 

अर्थ: एक ओर सूर्यमण्डल से सुप्रकाशित तथा दूसरी ओर रात्रि के घोर अन्धकार को दूर करनेवाले तथा पिछले भाग को गजधर्म से विभूषित करनेवाले भगवान् शङ्कर के समान है ।

 

टिप्पणी: हिमालय इतना ऊंचा है कि इसके एक ओर प्रकाश और दूसरी ओर अन्धकार रहता है । शिव जी भी ऐसे ही हैं । उनका मुखभाग तो उनके अट्टहास से प्रकाशमान रहता है और पृष्ठभाग गजचर्म से आवृत्त होने के कारण काले बर्फ का है । अतिश्योक्ति अलङ्कार ।

 

 

क्षितिनभःसुरलोकनिवासिभिः कृतनिकेतं अदृष्टपरस्परैः ।

प्रथयितुं विभुतां अभिनिर्मितं प्रतिनिधिं जगतां इव शम्भुना ।। ५.३ ।।

 

अर्थ: परस्पर एक दूसरे को न देखनेवाले पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्गलोक के निवासियों द्वारा निवासस्थान बनाये जाने के कारण यह (हिमालय) ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो शङ्कर भगवान् ने अपनी कीर्ति के प्रचार के लिए संसार के प्रतिनिधि के रूप में इस का निर्माण किया है ।

 

टिप्पणी: यह शङ्कर भगवान् के निर्माण-कौशल का ही नमूना है कि तीनों लोकों के निवासी यहाँ रहते हैं और कोई किसी को देख नहीं पाते । जो बात किसी दूसरे से नहीं हो सकती थी उसे ही तो शङ्कर भगवान् करते आ रहे हैं । उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

भुजगराजसितेन नभःश्रिया कनकराजिविराजितसानुना ।

समुदितं निचयेन तडित्वतीं लघयता शरदम्बुदसंहतिं ।। ५.४ ।।

 

 

अर्थ: शेषनाग के समान श्वेत-शुभ्र वर्ण कि गगनचुम्बी, सुवर्ण रेखाओं से सुशोभित चट्टानों से युक्त होने के कारण यह हिमालय विद्युत् रेखाओं से युक्त शरद ऋतु के बादलों कि पंक्तियों को तिरस्कृत करनेवाले शिखरों से अत्यन्त ऊंचा दिखाई पड़ रहा है ।

 

टिप्पणी: इस श्लोक में यद्यपि 'शिखर' शब्द नहीं आया है किन्तु प्रसंगानुरोध से 'निचय' शब्द का ही 'पाषाण निचय' अर्थात शिखर अर्थ ले लिया गया है । उपमा अलङ्कार

 

मणिमयूखचयांशुकभासुराः सुरवधूपरिभुक्तलतागृहाः ।

दधतं उच्चशिलान्तरगोपुराः पुर इवोदितपुष्पवना भुवः ।। ५.५ ।।

 

अर्थ: वस्त्रों के समान मणियों के किरण समूहों से चमकते हुए देवांगनाओं द्वारा सेवित गृहों के समान लताओं से युक्त, ऊंचे-ऊंचे पुर-द्वारों की भांति शिलाखण्डों के मध्य भागों से युक्त एवं पुष्पों से समृद्ध वनों से सुशोभित नगरों के समान भूमि भागों को यह हिमालय धारण किये हुए है ।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार

 

अविरतोज्झितवारिविपाण्डुभिर्विरहितैरचिरद्युतितेजसा ।

उदितपक्षं इवारतनिःस्वनैः पृथुनितम्बविलम्बिभिरम्बुदैः ।। ५.६ ।।

 

अर्थ: निरन्तर वृष्टि करने से जलशून्य होने के कारण श्वेत वर्णों वाले, बिजली की चमक से विहीन, गर्जनरहित एवं विस्तृत नितम्ब अर्थात मध्य भाग में फैले हुए बादलों से यह हिमालय ऐसा मालूम पड़ रहा है मानो इसके पक्ष फिर से उग आये हों ।

 

टिप्पणी: पौराणिक कथाओं के अनुसार पूर्वकाल में सभी पर्वत पक्षधारी होते थे और जब जहाँ चाहते थे उड़ा करते थे ।

 

उनके इस कार्य से लोगों को सदा बड़ा भय बना रहता था कि न जाने कब कहाँ गिर पड़ें । देवताओं की प्रार्थना पर देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से सभी पर्वतों के पक्षों को काट डाला था । उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

दधतं आकरिभिः करिभिः क्षतैः समवतारसमैरसमैस्तटैः ।

विविधकामहिता महिताम्भसः स्फुटसरोजवना जवना नदीः ।। ५.७ ।।

 

अर्थ: (यह हिमालय) आकर अर्थात खानों से उत्पन्न हाथियों द्वारा क्षत-विक्षत, स्नानादि योग्य स्थलों पर सम एवं अनुपम तटों से युक्त, प्रशस्त जलयुक्त होने के कारण विविध कामों के लिए हितकारी एवं विकसित कमलों के समूहों से सुशोभित वेगवती नदियों को धारण करने वाला है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि इस हिमालय के जिन भागों में रत्नों की खानें हैं उनमें हाथियों की भी अधिकता है । वे हाथी नदियों के तटों को तोडा-फोड़ा करते हैं । किन्तु फिर भी स्नान करने योग्य स्थलों पर वे तट बहुत सम हैं । नदियों में कमल खिले रहते हैं तथा उनकी धारा बहुत तीव्र है । शब्दालङ्कारों में यमक और वृत्यनुप्रास तथा अर्थालङ्कारों में अभ्युच्चय ।

 

नवविनिद्रजपाकुसुमत्विषां द्युतिमतां निकरेण महाश्मनां ।

विहितसांध्यमयूखं इव क्वचिन्निचितकाञ्चनभित्तिषु सानुषु ।। ५.८ ।।

 

अर्थ: नूतन विकसित जपाकुसुम की कान्ति के समान कान्तिवाली चमकती हुई पद्मराग मणियों के समूहों से कहीं-कहीं पर (यह हिमालय) सुवर्ण खचित भित्तियों वाली चोटियों पर मानो सायंकाल के सूर्य की किरणों से प्रतिभासित-सा (दिखाई पड़ता) है।

 

टिप्पणी: अर्थात इस हिमालय की सुवर्णयुक्त भित्तियों में पद्मराग मणि की कान्ति जब पड़ती है तो वह संध्या काल की सूर्य किरणों की भान्ति दिखाई पड़ता है । उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

 

पृथुकदम्बकदम्बकराजितं ग्रहितमालतमालवनाकुलं ।

लघुतुषारतुषारजलश्च्युतं धृतसदानसदाननदन्तिनं ।। ५.९ ।।

 

 

अर्थ: विशाल कदम्बों के पुष्प समूहों से सुभोभित, पंक्तियों में लगे यूए तमालों के वनों से संकुलित, छोटे-छोटे हिमकणों की वृष्टि करता हुआ एवं सर्वदा मद बरसाने वाले सुन्दरमुख गजराजों से युक्त (यह हिमालय) है।

 

 

रहितरत्नचयान्न शिलोच्चयानफलताभवना न दरीभुवः ।

विपुलिनाम्बुरुहा न सरिद्वधूरकुसुमान्दधतं न महीरुहः ।। ५.१० ।।

 

अर्थ: यह हिमालय रत्नराशिरहित कोई शिखर नहीं धारण करता, लता-गृहों से शून्य कोई गुफा नहीं धारण करता, मनोहर पुलिनों तथा कमलों से विहीन कोई सरिद्वधू (नव वधु की भांति नदियां) नहीं धारण करता तथा बिना पुष्पों का कोई वृक्ष नहीं धारण करता ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि हिमालय कि चोटियां रत्नों से व्याप्त हैं, गुफाएं लतागृहों से सुशोभित हैं, नदियां मनोहर तटों तथा कमलों से समचित हैं तथा वृक्ष पुष्पों से लदे हैं । नदियों की वधू के साथ उपमा देकर पुलिनों की उनके जघन स्थल तथा कमलों की उनके मुख से उपमा गम्य होती है ।

 

व्यथितसिन्धुं अनीरशनैः शनैरमरलोकवधूजघनैर्घनैः ।

फणभृतां अभितो विततं ततं दयितरम्यलताबकुलैः कुलैः ।। ५.११ ।।

 

अर्थ: (यह हिमालय) सुन्दर मेखलाओं से सुशोभित, देवांगना-समूहों के जघन-स्थलों से धीरे-धीरे क्षुब्ध-धारावाली नदियों एवं मनोहर लताओं एवं केसर के प्रेमी सर्पों से चारों ओर व्याप्त एवं विस्तृत है ।

 

टिप्पणी: यमक और वृत्यानुप्रास अलङ्कार

 

ससुरचापं अनेकमणिप्रभैरपपयोविशदं हिमपाण्डुभिः ।

अविचलं शिखरैरुपबिभ्रतं ध्वनितसूचितं अम्बुमुचां चयं ।। ५.१२ ।।

 

 

अर्थ: अनेक प्रकार की विचित्र मणियों की प्रभा से सुशोभित हिमशुभ्र शिखरों वाला (यह हिमालय) इन्द्रधनुष से युक्त, जलरहित होने के कारण श्वेत एवं निश्चल (अतएव शिखर की शंका कराने वाले किन्तु) गर्जन से अपनी सूचना देने वाले मेघ-समूहों को धारण करता है ।

 

टिप्पणी: जल न होने से मेघ श्वेत एवं निश्चल हो जाते हैं, हिमालय के शिखर भी ऐसे ही हैं । मेघों में इन्द्रधनुष की रंग-बिरंगी छटा होती है तो वह विचित्र मणियों की प्रभा के कारण हिमालय के शिखरों में भी है । केवल गर्जन ऐसा है, जो शिखरों में नहीं है और इसी से दोनों में अन्तर मालूम पड़ता है । सन्देह अलङ्कार

 

 

विकचवारिरुहं दधतं सरः सकलहंसगणं शुचि मानसं ।

शिवं अगात्मजया च कृतेर्ष्यया सकलहं सगणं शुचिमानसं ।। ५.१३ ।।

 

अर्थ: नित्य विकसित होने वाले कमलों से सुशोभित तथा राजहंसों से युक्त निर्मल मानस सरोवर को एवं किसी कारण से कदाचित कुपिता पार्वती के साथ कलह करने वाले अपने गणों समेत अविद्यादि दोषों से रहित भगवान् शंकर को (यह हिमालय) धारण किये हुए है।

 

टिप्पणी: संसार के अन्य पर्वतों से हिमालय की यही विषमता है । यमक अलङ्कार

 

 

ग्रहविमानगणानभितो दिवं ज्वलयतौषधिजेन कृशानुना ।

मुहुरनुस्मरयन्तं अनुक्षपं त्रिपुरदाहं उपापतिसेविनः ।। ५.१४ ।।

 

अर्थ: यह हिमालय आकाश स्थित चन्द्र सूर्यादि ग्रहों एवं देवयानों को सुप्रकाशित करते हुए अपनी औषधियों से उत्पन्न अग्नि द्वारा प्रत्येक रात्रि में भगवान् शङ्कर के सेवकों अर्थात गणों को त्रिपुरदाह का बारम्बार स्मरण दिलाता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि इसमें अनेक प्रकार कि दिव्य औषधियां हैं जिनसे ग्रहगण एवं देवयान ही नहीं प्रकाशित होते वरन रात्रियों में त्रिपुरदाह जैसा दृश्य भी दिखाई पड़ता है । स्मरण अलङ्कार

 

 

विततशीकरराशिभिरुच्छ्रितैरुपलरोधविवर्तिभिरम्बुभिः ।

दधतं उन्नतसानुसमुद्धतां धृतसितव्यजनां इव जाह्नवीं ।। ५.१५ ।।

 

अर्थ: यह हिमालय उन उन्नत शिखरों पर गङ्गा जी को धारण करता है, जो पत्थरों की विशाल चट्टानों से धारा के रुक जाने पर जब उनके ऊपर से बहाने लगती है तब ऊपर अनन्त जल-कणों के फव्वारे के तरह छूटने से ऐसा मालूम होता है मानो श्वेत चामर धारण किये हुए हैं ।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

 

अनुचरेण धनाधिपतेरथो नगविलोकनविस्मितमानसः ।

स जगदे वचनं प्रियं आदरान्मुखरतावसरे हि विराजते ।। ५.१६ ।।

 

अर्थ: तदनन्तर धनपति कुबेर के सेवक उस यक्ष ने हिमालय की अलौकिक छटा के अवलोकन से आश्चर्यचकित अर्जुन से आदरपूर्वक यह प्रिय वचन कहे । वाचालता (ऐसे ही) उचित अवसरों पर शोभा देती है ।

 

टिप्पणी: अर्थात मनुष्य उचित अवसर समझकर बिना पूछे भी कुछ कह देता है तो उसकी शोभा होती है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

अलं एष विलोकितः प्रजानां सहसा संहतिं अंहसां विहन्तुं ।

घनवर्त्म सहस्रधेव कुर्वन्हिमगौरैरचलाधिपः शिरोभिः ।। ५.१७ ।।

 

अर्थ: हिम के कारण शुभ्र शिखरों से मेघ-पथों को मानो सहस्त्रों भागों में विभक्त करता हुआ यह पर्वतराज हिमालय देखने मात्र से ही लोगों के पाप-समूहों को नष्ट करने में समर्थ है ।

 

टिप्पणी: अर्थात इसे देखने मात्र से ही पाप नष्ट हो जाते हैं, चित्त प्रसन्न हो जाता है । औपछन्दसिक वृत्त ।

 

इह दुरधिगमैः किंचिदेवागमैः सततं असुतरं वर्णयन्त्यन्तरं ।

अमुं अतिविपिनं वेद दिग्व्यापिनं पुरुषं इव परं पद्मयोनिः परं ।। ५.१८ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय पर्वत के दुस्तर अन्तर्वर्ती अर्थात मध्य भाग को कठिनाई द्वारा चढ़ने योग्य वृक्षों से (उन पर चढ़कर पक्षान्तर में पुण्यादि का अध्ययन कर) कुछ-कुछ बताया जा सकता है, किन्तु इस अत्यन्त गहन एवं दिगन्तव्यापी पर्वतराज को परमात्मा के समान सम्पूर्ण रीति से केवल पद्मयोनि अर्थात ब्रह्मा जी ही जानते हैं ।

 

टिप्पणी: अर्थात ब्रह्मा के सिवा कोई दूसरा इसके विशाल स्वरुप को नहीं जानते । उपमा और यमक अलङ्कारों के संसृष्टि ।

 

 

रुचिरपल्लवपुष्पलतागृहैरुपलसज्जलजैर्जलराशिभिः ।

नयति संततं उत्सुकतां अयं धृतिमतीरुपकान्तं अपि स्त्रियः ।। ५.१९ ।।

 

अर्थ: यह हिमालय अपने मनोहर पल्लवों एवं पुष्पों से सुशोभित लता मण्डपों तथा विकसित कमलों से समचित सरोवरों से अपने प्रियतम के समीप में स्थित धैर्यशालिनी मानिनी रमणियों को भी निरन्तर उत्सुक बना देता है ।

टिप्पणी: अर्थात जो मानिनी रमणियाँ पहले अपने समीपस्थ भी प्रियतमों का अपमान करती थी, वे भी उत्कण्ठित हो उठी हैं, उनकी मानग्रंथि इस हिमालय में आने से छूट जाती है । अतिश्योक्ति अलङ्कार । द्रुतविलम्बित छन्द ।

 

 

सुलभैः सदा नयवतायवता निधिगुह्यकाधिपरमैः परमैः ।

अमुना धनैः क्षितिभृतातिभृता समतीत्य भाति जगती जगती ।। ५.२० ।।

 

अर्थ: नीतिपरायण एवं भाग्यशाली पुरुषों के लिए सर्वदा सुलभ एवं महापद्म आदि नवनिधियां एवं वृक्षों के अधिपति कुबेर को भी प्रसन्न करनेवाले उत्कृष्ट वन-सम्पत्तियों के द्वारा इस पर्वतराज हिमालय से परिपूर्ण यह पृथ्वी स्वर्ग और पातळ - दोनों लोकों को जीतकर सुशोभित होती है ।

 

टिप्पणी: अर्थात जो सम्पत्तियाँ देवताओं एवं यक्षों को भी दुर्लभ हैं, वे यहाँ हैं । नव निधियां हैं -

पद्म, महापद्म, शङ्ख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व(मिश्र)

काव्यलिङ्ग और यमक की संसृष्टि ।

 

 

अखिलं इदं अमुष्य गैरीगुरोस्त्रिभुवनं अपि नैति मन्ये तुलां ।

अधिवसति सदा यदेनं जनैरविदितविभवो भवानीपतिः ।। ५.२१ ।।

 

अर्थ: मैं मानता हूँ कि यह सम्पूर्ण त्रैलोक्य भी इस पर्वतराज हिमालय की तुलना नहीं कर सकता क्योंकि जिनकी महिमा लोग नहीं जान पाते ऐसे भवानीपति भगवान शङ्कर सर्वदा इस पर्वत पर निवास करते हैं ।

 

टिप्पणी: अर्थात यह धर्मक्षेत्र है ।

 

वीतजन्मजरसं परं शुचि ब्रह्मणः पदं उपैतुं इच्छतां ।

आगमादिव तमोपहादितः सम्भवन्ति मतयो भवच्छिदः ।। ५.२२ ।।

 

अर्थ: जिसकी प्राप्ति से पुनर्जन्म और वृद्धता का भय बीत जाता है ऐसे परमोत्कृष्ट पद अर्थात मुक्ति को पाने के इच्छुक लोगों के लिए शास्त्रों की भान्ति अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले इस हिमालय से संसार के कष्टों को नष्ट करनेवाली बुद्धि अर्थात तत्वज्ञान की उत्पत्ति होती है ।

 

टिप्पणी: अर्थात वह केवल भोगभूमि नहीं है प्रत्युत मुक्ति प्राप्त करने का भी पुण्य-स्थल है । रथोद्धता छन्द ।

 

दिव्यस्त्रीणां सचरणलाक्षारागा रागायाते निपतितपुष्पापीडाः ।

पीडाभाजः कुसुमचिताः साशंसं शंसन्त्यस्मिन्सुरतविशेषं शय्याः ।। ५.२३ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय पर्वत में देवांगनाओं के लिए पुष्पों से रचित शैय्याएं उनके चरणों में लगाए हुए महावर के रङ्ग से चिन्हित गिरे हुए मुरझाये पुष्पों से युक्त एवं विमर्दित दशा में अत्यन्त कामोद्रेक की दशा में की गयी सतृष्ण सुरत क्रियाओं की सूचना देती हैं ।

 

टिप्पणी: धेनुकादि विपरीत बन्धों की सूचना मिलती है । जलधरमाला छन्द ।

 

गुणसम्पदा समधिगम्य परं महिमानं अत्र महिते जगतां ।

नयशालिनि श्रिय इवाधिपतौ विरमन्ति न ज्वलितुं औषधयः ।। ५.२४ ।।

 

अर्थ: इस संसारपूज्य हिमालय में औषधियां नीतिमान राजा में राजयलक्ष्मी की भान्ति क्षेत्रीयगुणों की सम्पत्ति से (राजा के पक्ष में संध्या, पूजन, तर्पणादि गुणों से) अत्यन्त शक्ति प्राप्त कर अहर्निश प्रज्वलित रहने से विश्राम नहीं लेती ।

 

टिप्पणी: अर्थात रात-दिन प्रज्वलित रहा करती है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार संध्या-पूजनादि गुणों से नीतिमान राजा के प्रताप की अभिवृद्धि होती है उसी प्रकार से हिमालय के क्षेत्रीय गुणों से उस पर उगी औषधियां सदा प्रज्वलित रहती हैं । उपमा अलङ्कार प्रमिताक्षरा छन्द ।

 

 

कुररीगणः कृतरवस्तरवः कुसुमानताः सकमलं कमलं ।

इह सिन्धवश्च वरणावरणाः करिणां मुदे सनलदानलदाः ।। ५.२५ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय में कुररी पक्षी बोल रहे हैं, वृक्ष पुष्पभार से नीचे को झुक गए हैं, जलाशय कमलों से सुशोभित हैं, वृक्षों के आवरण एवं उशीरों से युक्त सन्ताप दूर करनेवाली नदियां हाथियों का आनन्द बढ़ाने वाली हैं ।

 

टिप्पणी: वृक्षों के आवरण का तात्पर्य, तटवर्ती सघन वृक्ष पंक्तियों से आकीर्ण। यमक अलङ्कार

 

सादृश्यं गतं अपनिद्रचूतगन्धैरामोदं मदजलसेकजं दधानः ।

एतस्मिन्मदयति कोकिलानकाले लीनालिः सुरकरिणां कपोलकाषः ।। ५.२६ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय पर शोभायुक्त लता मण्डप रुपी भवन, प्रकाशमान औषधि रूप के दीपक, नूतन कल्पवृक्ष के पल्लव रुपी शैय्याएं तथा सुरत के श्रम को दूर करने वाली कमल वन की वायु - ये सभी सामग्रियां देवांगनाओं को स्वर्ग का स्मरण नहीं करने देती ।

 

टिप्पणी: अर्थात देवांगनाएँ यहाँ आकर स्वर्ग को भी भूल जाती हैं। उनके लिए यह स्वर्ग से बढ़कर सुखदायी है । बसन्ततिलका छन्द रूपक अलङ्कार ।

 

सनाकवनितं नितम्बरुचिरं चिरं सुनिनदैर्नदैर्वृतं अमुं ।

मता फलवतोऽवतो रसपरा परास्तवसुधा सुधाधिवसति ।। ५.२७ ।।

 

अर्थ: भगवान शङ्कर को प्राप्त करने के लिए चिरकाल तक जल में तप साधना में लगी हुई, क्षुद्र जल-जन्तुओं के कूदने से चकित नेत्रों वाली पार्वती जी के पाणि को शङ्कर जी ने चूते हुए पसीने की बूंदों से युक्त अँगुलियों वाले अपने हाथ से इसी पर्वत पर ग्रहण किया था ।

 

टिप्पणी: अर्थात इसी हिमालय पर पार्वती जी का पाणिग्रहण हुआ था । बसन्ततिलका छन्द ।

 

श्रीमल्लताभवनं ओषधयः प्रदीपाः शय्या नवानि हरिचन्दनपल्लवानि ।

अस्मिन्रतिश्रमनुदश्च सरोजवाताः स्मर्तुं दिशन्ति न दिवः सुरसुन्दरीभ्यः ।। ५.२८ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय पर्वत पर शोभायुक्त लता मण्डप रुपी भवन, प्रकाशमान औषधिरूप के दीपक, नूतन, कल्पवृक्ष के पल्लव रुपी शैय्याएं तथा सुरत के श्रम को दूर करनेवाला कमलवन का वायु - ये सभी सामग्रियां देवांगनाओं स्वर्ग का स्मरण नहीं करने देती ।

 

टिप्पणी: अर्थात देवांगनाएँ यहाँ आकर स्वर्ग को भूल जाती हैं । उनके लिए यह स्वर्ग से बढ़कर सुखदायी है । वसन्ततिलका छन्द । रूपक अलङ्कार ।

 

ईशार्थं अम्भसि चिराय तपश्चरन्त्या यादोविलङ्घनविलोलविलोचनायाः ।

आलम्बताग्रकरं अत्र भवो भवान्याः श्च्योतन्निदाघसलिलाङ्गुलिना करेण ।। ५.२९ ।।

 

अर्थ: भगवान शङ्कर को प्राप्त करने के लिए चिरकाल तक जल में तप साधना में लगी हुई, क्षुद्र जल-जन्तुओं के में कूदने से चकित नेत्रों वाली पार्वती जी के पाणि को शङ्कर जी ने चूते हुए पसीनों की बूंदों से युक्त अँगुलियों वाले अपने हाथ से इसी पर्वत पे ग्रहण किया था ।

 

टिप्पणी: अर्थात इसी हिमालय पर पार्वती जी का पाणिग्रहण हुआ था । वसन्ततिलका छन्द ।

 

येनापविद्धसलिलः स्फुटनागसद्मा देवासुरैरमृतं अम्बुनिधिर्ममन्थे ।

व्यावर्तनैरहिपतेरयं आहिताङ्कः खं व्यालिखन्निव विभाति स मन्दराद्रिः ।। ५.३० ।।

 

अर्थ: जिस (मन्दराचल) के द्वारा देवताओं और असुरों ने अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्र मन्थन किया था और जिससे समुद्र का जल अत्यन्त क्षुब्द हो गया था और पाताल लोक स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा था । मथानी की रस्सी भांति सर्पराज वासुकि के लपेटने से चिन्हित यह वही मन्दराचल है जो आकाश-मण्डल का मानो भेदन से करता हुआ सुशोभित हो रहा है ।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

नीतोच्छ्रायं मुहुरशिशिररश्मेरुस्रैरानीलाभैर्विरचितपरभागा रत्नैः ।

ज्योत्स्नाशङ्कां इव वितरति हंसश्येनी मध्येऽप्यह्नः स्फटिकरजतभित्तिच्छाया ।। ५.३१ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय पर सूर्य की कारणों द्वारा विस्तारित तथा इन्द्रनील मणि की समीपता के कारण अत्यधिक उत्कर्ष अर्थात स्वछता को प्राप्त हंस के समान श्वेतवर्ण की स्फटिक एवं चांदी की भित्तियां मध्याह्न काल में भी बारम्बार चान्दनी की शङ्का उत्पन्न करती हैं ।

 

टिप्पणी: भ्रांतिमान अलङ्कार ।

 

दधत इव विलासशालि नृत्यं मृदु पतता पवनेन कम्पितानि ।

इह ललितविलासिनीजनभ्रू- गतिकुटिलेषु पयःसु पङ्कजानि ।। ५.३२ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय पर मन्द-मन्द बहनेवाली वायु द्वारा कम्पित कमालवृन्द विलासिनी रमणियों की कुटिल भौहों के समान तरंगयुक्त जलराशि में मानो मनोहर नृत्य सा करते दिखाई पड़ते हैं ।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार । पुष्पिताग्रा छन्द ।

 

अस्मिन्नगृह्यत पिनाकभृता सलीलं आबद्धवेपथुरधीरविलोचनायाः ।

विन्यस्तमङ्गलमहौषधिरीश्वरायाः स्रस्तोरगप्रतिसरेण करेण पाणिः ।। ५.३३ ।।

 

अर्थ: इसी हिमालय पर्वत पर पिनाकपाणि भगवान् शङ्कर (सर्पदर्शन से भयभीत होने के कारण) चकितलोचना पार्वती  जी के यवाकुर आदि माङ्गलिक उपकरणों से अलङ्कृत कम्पित हाथ को लीलापूर्वक ग्रहण किया था और उस ामय उनके हाथ से सर्वरूप कौतुक-सूत्र नीचे की ओर खिसक पड़ा था ।

 

टिप्पणी: पार्वती जी के पाणिग्रहण के समय सर्प शङ्कर ji की कलाई  में कौतुक-सूत्र की भांति विराजमान था । जिस समय शङ्कर जी पार्वती जी का पाणिग्रहण करने लगे उस समय उनके हाथ का वह सर्प नीचे की ओर सरकने लगा । उस सर्प को देखकर पार्वती जी भयत्रस्त हो गयी और उनका हाथ कांपने लगा । वसन्ततिलका छन्द । भाविक अलङ्कार ।

 

क्रामद्भिर्घनपदवीं अनेकसंख्यैस्तेजोभिः शुचिमणिजन्मभिर्विभिन्नः ।

उस्राणां व्यभिचरतीव सप्तसप्तेः पर्यस्यन्निह निचयः सहस्रसंख्यां ।। ५.३४ ।।

 

अर्थ: इस हिमालय पर्वत पर आकाशमण्डल में व्याप्त बहुसंख्यक स्फटिक मणियों से उत्पन्न किरण-जालों से मिश्रित होने के कारण फैलता हुआ सूर्य की किरणों का समूह मानो अपनी नियत सहस्त्र की संख्या का अतिक्रमण सा करता है ।

 

टिप्पणी: हिमालय पर्वत पर स्फटिक की सहस्त्रों किरणे नीचे की ओर से आकाश में चमकती रहती हैं ऊपर से सूर्य की किरणे चमकती हैं । दोनों का अब मेल हो जाता है तो ऐसा मालूम होता है मानों सूर्य की किरणों की संख्या अपनी नियत सहस्त्र संख्या से ऊपर बढ़ गयी है । उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।

 

व्यधत्त यस्मिन्पुरं उच्चगोपुरं पुरां विजेतुर्धृतये धनाधिपः ।

स एष कैलास उपान्तसर्पिणः करोत्यकालास्तमयं विवस्वतः ।। ५.३५ ।।

 

अर्थ: जिस कैलास पर्वत पर कुबेर ने त्रिपुरविजयी भगवान् शङ्कर के संतोष के लिए उन्नत गोपुरों(फाटकों) से समलङ्कृत अलकापुरी का निर्माण किया था यह वही कैलास है जो अपनी सीमा के संचरण करनेवाले सूर्य नारायण को समय के पहले ही मानो अस्त सा बना देता है ।

 

टिप्पणी: अतिशयोक्ति से उत्थापित गम्योत्प्रेक्षा अलङ्कार । वंशस्थ वृत्त ।

 

नानारत्नज्योतिषां संनिपातैश्छन्नेष्वन्तःसानु वप्रान्तरेषु ।

बद्धां बद्धां भित्तिशङ्कां अमुष्मिन्नावानावान्मातरिश्वा निहन्ति ।। ५.३६ ।।

 

अर्थ: इस कैलास पर्वत के शिखरों पर विविध प्रकार के रत्नों के प्रभापुञ्जों से आच्छादित होने उनके वप्रान्तर अर्थात कगारों के बीच के स्थल भाग सुदृढ़ दीवाल की शङ्का उत्पन्न करते हैं ।

 

टिप्पणी: रत्नों के प्रभापुञ्जों से व्याप्त होने के कारण शिखरों के गहरे खड्ड भी सुदृढ़ दीवाल की शङ्का उत्पन्न करते हैं किन्तु जब हवा का झोंका बारम्बार चलता है और उनका अवरोध नहीं होता तो शङ्का दूर हो जाती है क्योंकि यदि दीवाल रहती तो हवा रुक जाती । निश्चयांत सन्देह अलङ्कार । शालिनी छन्द ।

 

 

रम्या नवद्युतिरपैति न शाद्वलेभ्यः श्यामीभवन्त्यनुदिनं नलिनीवनानि ।

अस्मिन्विचित्रकुसुमस्तबकाचितानां शाखाभृतां परिणमन्ति न पल्लवानि ।। ५.३७ ।।

 

अर्थ: इस कैलास पर्वत पर नूतन घासों से व्याप्त प्रदेशों की मनोहर नूतन शोभा कभी दूर नहीं होती, नील कमलों के वन प्रतिदिन नूतन श्यामलता धारण करते हैं और रंग बिरंगे गुच्छों से सुशोभित वृक्षों के पल्लव कभी पुराने नहीं होते ।

 

टिप्पणी: अर्थात यहाँ सभी वस्तुएं सदा नूतन बनी रहती हैं, किसी में पुरानापन नहीं आता । परययोक्ति अलङ्कार । वसन्ततिलका छन्द।

 

परिसरविषयेषु लीढमुक्ता हरिततृणोद्गमशङ्कया मृगीभिः ।

इह नवशुकक्ॐअला मणीनां रविकरसंवलिताः फलन्ति भासः ।। ५.३८ ।।

 

अर्थ: इस कैलास पर्वत के इर्द-गिर्द के प्रदेशों में हरिणियों द्वारा नीले तृणों के अङ्कुर की आशंका से पहले चाट कर पीछे छोड़ दी गयी, नूतन शुक के पंखों के समान हरे रङ्ग की मरकतमणियों की कान्तियाँ सूर्य-किरणों से मिश्रित होकर अधिकाधिक प्रकाशयुक्त हो जाती हैं ।

 

टिप्पणी: भ्रांतिमान अलङ्कार ।

 

 

उत्फुल्लस्थलनलिनीवनादमुष्मादुद्धूतः सरसिजसम्भवः परागः ।

वात्याभिर्वियति विवर्तितः समन्तादाधत्ते कनकमयातपत्रलक्ष्मीं ।। ५.३९ ।।

 

अर्थ: इस पर्वत के बवंडरों द्वारा उड़ाए जाने पर इस दिखाई पड़ने वाले विकसित स्थलकमलिनीवन से उड़ता हुआ चारों ओर आकाश में मण्डलाकार रूप में फैला हुआ कमलपराग सुवर्णमय छत्र की शोभा धारण कर रहा है ।

 

टिप्पणी: निदर्शना अलङ्कार ।

 

इह सनियमयोः सुरापगायां उषसि सयावकसव्यपादरेखा ।

कथयति शिवयोः शरीरयोगं विषमपदा पदवी विवर्तनेषु ।। ५.४० ।।

 

अर्थ: इस पर्वत में उषाकाल के समान सुरनदी गङ्गा के तट पर लाक्षा अथवा महावर के रङ्ग से रङ्गे हुए बांये चरण की रेखा से चिन्हित तथा छोटी बड़ी विषम पद-पंक्तियों से युक्त परिक्रमा मार्ग संध्यावन्दनादि नियमों में लगे हुए उमाशङ्कर के अर्धनारीश्वर रूप का परिचय देता है ।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि इस कैलास पर्वत पर अत्यन्त प्रातः काल में भगवान अर्धनारीश्वर उमाशङ्कर गङ्गा तट पर संध्यावदनादि करते हैं, जिससे उनके बाएं पैर तथा दाहिने पैर की छोटी बड़ी पद-पंक्तियाँ यहाँ सुशोभित होती हैं । अर्धनारीश्वर रूप में पार्वती का पैर बांया होता है, जिसमें महावर लगे रहते हैं और वह दाहिने पैर की अपेक्षा छोटा भी होता है । अर्थात यह शिव-पार्वती का विहारस्थल है । संध्यावदनादि के क्षणों में भी वे परस्पर विरह नहीं सहन कर सकते । काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

 

 

संमूर्छतां रजतभित्तिमयूखजालैरालोकपादपलतान्तरनिर्गतानां ।

घर्मद्युतेरिह मुहुः पटलानि धाम्नां आदर्शमण्डलनिभानि समुल्लसन्ति ।। ५.४१ ।।

 

अर्थ: इस पर्वत पर चाँदी की भित्तियों की किरण समूहों से बहुल प्राप्त एवं चञ्चल वृक्षों एवं लताओं के मध्यभागों से निकली हुई सूर्य की किरणों के दर्पण-बिम्ब के समान मण्डल बारम्बार प्रस्फुटित होते हैं।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्का।

 

शुक्लैर्मयूखनिचयैः परिवीतमूर्तिर्वप्राभिघातपरिमण्डलितोरुदेहः ।

शृङ्गाण्यमुष्य भजते गणभर्तुरुक्षा कुर्वन्वधूजनमनःसु शशाङ्कशङ्कां ।। ५.४२ ।।

 

अर्थ: श्वेत किरण-समूहों से व्याप्त शरीर, सींगों से मिटटी कुरेदने की क्रीड़ा में मस्त होने के कारण अपने विशाल शरीर को समेटे हुए, प्रमथाधिपति शङ्कर का वाहनभूत नन्दिकेश्वर युवतियों के मन में चन्द्रमा की भ्रान्ति उत्पन्न करते हुए उस पर्वत के शिखरों का आश्रय लेता है।

 

टिप्पणी: सन्देह, भ्रांतिमान तथा काव्यलिङ्ग अलङ्कार।

 

सम्प्रति लब्धजन्म शनकैः कथं अपि लघुनि क्षीणपयस्युपेयुषि भिदां जलधरपटले ।

खण्डितविग्रहं बलभिदो धनुरिह विविधाः पूरयितुं भवन्ति विभवः शिखरमणिरुचः ।। ५.४३ ।।

 

अर्थ: इस पर्वत में शिखरों की मणिकांतियाँ इस शरद ऋतु में क्षीण जलवाले एवं छोटे छोटे टुकड़ों में विभक्त मेघमण्डलों में किसी प्रकार से उत्पन्न होने के कारण छिन्न अथवा अस्पष्ट स्वरुप वाले इन्द्रधनुष की पूर्ति करने में समर्थ होती है।

 

टिप्पणी: अर्थात छोटे छोटे श्वेत बादलों में मणियों की प्रभायें चमक कर इन्द्रधनुष की पूर्ति कर देती हैं।  अतिशयोक्ति अलङ्कार।

 

स्नपितनवलतातरुप्रवालैरमृतलवस्रुतिशालिभिर्मयूखैः ।

सततं असितयामिनीषु शम्भो अमलयतीह वनान्तं इन्दुलेखा ।। ५.४४ ।।

 

अर्थ: इस पर्वत में भगवान् शङ्कर के भाल में स्थित चन्द्रमा की की कान्ति नूतन लताओं और वृक्षों के पल्लवों को सींचनेवाली एवं अमृत-बिन्दु बरसाने वाली अपनी किरणों से सर्वदा कृष्णपक्ष की रात्रियों में भी वन प्रदेशों को धवल बनती रहती है।

 

 

टिप्पणी: अन्य पर्वतों में यह नहीं है, यह तो इसकी ही विशेषता है।  व्यतिरेक अलङ्कार की व्यंजना।

 

क्षिपति योऽनुवनं विततां बृहद्बृहतिकां इव रौचनिकीं रुचं ।

अयं अनेकहिरण्मयकंदरस्तव पितुर्दयितो जगतीधरः ।। ५.४५ ।।

अर्थ: जो पर्वत विस्तृत चादर की भांति प्रत्येक वन में अपनी सुवर्ण कान्ति प्रसारित कर रहे हैं, अनेक सुवर्णमयी कन्दराओं से युक्त वही यह सामने दिखाई पड़ने वाला तुम्हारे पिता इन्द्र का सबसे प्रिय पर्वत है।

 

टिप्पणी: अर्थात तुम्हारी तपस्या की पुण्य-स्थल इन्द्रनील पर्वत अब वही यह सामने दिखाई पड़ रहा है जिसकी सुवर्णमयी छाया चारों ओर के वन्य प्रदेशों पर सुनहली चादर की भांति पड़ रही है।  उपमा अलङ्कार।

 

सक्तिं लवादपनयत्यनिले लतानां वैरोचनैर्द्विगुणिताः सहसा मयूखैः ।

रोधोभुवां मुहुरमुत्र हिरण्मयीनां भासस्तडिद्विलसितानि विडम्बयन्ति ।। ५.४६ ।।

अर्थ: इस इन्द्रनील पर्वत पर वायु द्वारा वेगपूर्वक लताओं के परस्पर संयोग को छुड़ा देने पर उसी क्षण सूर्य की किरणों से द्विगुणित कान्ति प्राप्त करने वाली सुवर्णमयी तटवर्ती भूमि की प्रभायें बारम्बार बिजली चमकने की शोभा का अनुकरण करने लगती हैं।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।

 

कषणकम्पनिरस्तमहाहिभिः क्षणविमत्तमतङ्गजवर्जितैः ।

इह मदस्नपितैरनुमीयते सुरगजस्य गतं हरिचन्दनैः ।। ५.४७ ।।

अर्थ: इस पर्वत पर ऐरावत के मद से सिञ्चित उन हरिचन्दनों के द्वारा ऐरावत का आना-जाना मालूम हो जाता है, जो ऐरावत के गण्डस्थल के खुजलाने के कारण होनेवाले कम्पन से बड़े-बड़े भीषण सर्पों से रहित हो जाते हैं, तथा क्षणभर के लिए बड़े-बड़े मतवाले गजराज भी जिन्हें छोड़कर भाग जाते हैं।

 

टिप्पणी: अर्थात इसी पर्वत पर हरिचन्दनों के वे वृक्ष हैं, जिनपर बड़े-बड़े सर्प लिपटे रहते हैं तथा जिनके बीच देवराज इन्द्र का वाहन क्रीड़ा करता है।  किन्तु जब कभी ऐरावत अपने गण्डस्थल को खुजलाने के लिए किसी हरिचन्दन वृक्ष पर धक्का लगता है तो वे भीषण सर्प भाग जाते हैं तथा ऐरावत के मद की विचित्र सुगन्ध से अन्यान्य मतवाले गजराज भी भाग जाते हैं।  काव्यलिङ्ग अलङ्कार।

 

जलदजालघनैरसिताश्मनां उपहतप्रचयेह मरीचिभिः ।

भवति दीप्तिरदीपितकंदरा तिमिरसंवलितेव विवस्वतः ।। ५.४८ ।।

अर्थ: इस पर्वत पर काले मेघसमूहों की भांति सघन इन्द्रनील मणियों की किरणों से सामना होनेपर सूर्य की किरणों का तेज-पुञ्ज मलिन हो जाता है और कन्दराएँ प्रकाश से विहीन हो जाती हैं, उस समय ऐसा मालूम पड़ता है मानो सूर्य की कान्ति अन्धकार से मिश्रित हो गयी है।

 

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

 

 

भव्यो भवन्नपि मुनेरिह शासनेन क्षात्रे स्थितः पथि तपस्य हतप्रमादः ।

प्रायेण सत्यपि हितार्थकरे विधौ हि श्रेयांसि लब्धुं असुखानि विनान्तरायैः ।। ५.४९ ।।

अर्थ: इस इन्द्रकील पर्वत पर शांतस्वभाव होते पर भी असावधानी से रहित और क्षत्रिय धर्म में स्थित अर्थात शास्त्र ग्रहण कर महर्षि वेद-व्यास के बताये हुए नियमों के अनुसार आप तपस्या करें।  क्योंकि प्रायः हितकारी उपायों के होते हुए भी बिना विघ्न-बाधा के कल्याण की प्राप्ति असंभव होती है।

 

टिप्पणी: अर्थात अकाट्य वैर रखने वाले सर्वत्र होते हैं।  अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

मा भूवन्नपथहृतस्तवेन्द्रियाश्वाः संतापे दिशतु शिवः शिवां प्रसक्तिं ।

रक्षन्तस्तपसि बलं च लोकपालाः कल्याणीं अधिकफलां क्रियां क्रियायुः ।। ५.५० ।।

अर्थ: तुम्हारे इन्द्रिय-रुपी अश्वगण तुम्हें कुमार्ग में न ले जाएँ, तपस्या में कोई क्लेश उपस्थित होने पर भगवान् शङ्कर आप को पर्याप्त उत्साह शक्ति प्रदान करें।  लोकपालगण तप साधना में तुम्हारे बल की रक्षा करते हुए इस कल्याणदायी अनुष्ठान को अधिकाधिक फल देनेवाला बनाएं।

 

टिप्पणी: प्रथम चरण में रूपक अलङ्कार।

 

इत्युक्त्वा सपदि हितं प्रियं प्रियार्हे धाम स्वं गतवति राजराजभृत्ये ।

सोत्कण्ठं किं अपि पृथासुतः प्रदध्यौ संधत्ते भृशं अरतिं हि सद्वियोगः ।। ५.५१ ।।

अर्थ: प्रेमपात्र कुबेर सेवक यक्ष के इस प्रकार कल्याणयुक्त एवं प्रिय वचन कहकर शीघ्र ही अपने निवास-स्थान को चले जाने के अनन्तर कुन्ती-पुत्र अर्जुन कुछ उत्कण्ठित से होकर सोचने लगे।  क्यों न हो, सज्जनों का वियोग अत्यन्त दुखदायी होता ही है।

 

टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

तं अनतिशयनीयं सर्वतः सारयोगादविरहितं अनेकेनाङ्कभाजा फलेन ।

अकृशं अकृशलक्ष्मीश्चेतसाशंसितं स स्वं इव पुरुषकारं शैलं अभ्याससाद ।। ५.५२ ।।

अर्थ: परिपूर्ण शोभा से समलङ्कृत उस अर्जुन ने सर्व प्रकार से बल प्रयोग करने पर भी अनतिक्रमणीय अर्थात दुर्जेय एवं शीघ्र पूर्ण होने वाले अनेक प्रकार के सत्फलों से युक्त, तथा चिरकाल से पाने के लिए मन में अभिलषित एवं विशाल उस इन्द्रकील पर्वत पर अपने पुरुषार्थ की भांति आश्रय प्राप्त किया।

 

टिप्पणी: जो जो विशेषण पर्वत के लिए हैं, वही सब अर्जुन के पुरुषार्थ के लिए भी हैं।  उपमा अलङ्कार।  मालिनी छन्द।

 

इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये पञ्चमः  सर्गः ।

==============================================

 

 

रुचिराकृतिः कनकसानुं अथो परमः पुमानिव पतिं पततां ।

धृतसत्पथस्त्रिपथगां अभितः स तं आरुरोह पुरुहूतसुतः ।। ६.१ ।।

 

अर्थ: इन्द्रकील पर्वत पर पहुँचने के अनन्तर मनोहर शरीरधारी तथा सन्मार्गगामी इन्द्रपुत्र अर्जुन ने सुवर्णमय शिखरों से युक्त उस इन्द्रकील पर्वत पर त्रिपथगा गङ्गा के सामने की ओर से होकर इस प्रकार आरोहण किया जिस प्रकार से भगवान् विष्णु अपने वाहन पक्षीराज गरुड़ पर आरूढ़ होते हैं।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।  प्रमिताक्षरा वृत्त।

 

तं अनिन्द्यबन्दिन इवेन्द्रसुतं विहितालिनिक्वणजयध्वनयः ।

पवनेरिताकुलविजिह्मशिखा जगतीरुहोऽवचकरुः कुसुमैः ।। ६.२ ।।

 

अर्थ: जय-जयकार की तरह भ्रमरों के गुञ्जन से युक्त, वायु द्वारा प्रकम्पित होने के कारण डालियों के टेढ़े-मेढ़े अग्रभागों वाले वृक्षों ने अच्छे स्तुतिपाठकों की भांति उस इन्द्रपुत्र अर्जुन के ऊपर पुष्पों की वर्षा की।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।

 

अवधूतपङ्कजपरागकणास्तनुजाह्नवीसलिलवीचिभिदः ।

परिरेभिरेऽभिमुखं एत्य सुखाः सुहृदः सखायं इव तं मरुतः ।। ६.३ ।।

 

अर्थ: कमलों के परागकणों को बिखेरते हुए, छोटी-छोटी गङ्गाजल की लहरियों का संपर्क करते हुए शीतल सुखदायी वायु ने अर्जुन को अपने सन्मित्र की भांति सम्मुख आकर परिरम्भण(अंक मिलन) किय।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।

 

उदितोपलस्खलनसंवलिताः स्फुटहंससारसविरावयुजः ।

मुदं अस्य माङ्गलिकतूर्यकृतां ध्वनयः प्रतेनुरनुवप्रं अपां ।। ६.४ ।।

अर्थ: ऊंचे-ऊंचे पत्थरों की शिलाओं से टकराकर चूर-चूर होने वाली, हंस और सारस के गुञ्जन से युक्त नीचे गिरती हुई जल की कल-कल ध्वनियों ने अर्जुन के लिए मङ्गलसूचक तुरुही आदि के शब्दों से होने वाली प्रसन्नता का विस्तार किया।

 

टिप्पणी: निदर्शना अलङ्कार।

 

 

अवरुग्णतुङ्गसुरदारुतरौ निचये पुरः सुरसरित्पयसां ।

स ददर्श वेतसवनाचरितां प्रणतिं बलीयसि समृद्धिकरीं ।। ६.५ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने ऊंचे ऊंचे देवदार के वृक्षों को उखाड़ फेंकने वाले प्रखर वेगयुक्त सुरनदी गङ्गा के जल प्रवाह में बेंत के वनों की कल्याणदायी विनम्रता को देखा।

 

टिप्पणी: अर्थात एक ओर तो ऊंचे ऊंचे देवदार के वृक्षों को गङ्गा की प्रखर धारा उखाड़ फेंकती थी किन्तु विनम्रतायुक्त बेंत के वन उसी में आनन्दपूर्वक झूम रहे थे।  जो लोग गर्वोन्मत्त होकर अपना शिर व्यर्थ ही ऊंचा उठाकर अकड़ते फिरते हैं उनका गर्व चूर्ण हुए बिना नहीं रहता है, किन्तु विनम्रता से व्यवहार करनेवाले सर्वत्र कल्याण प्राप्त करते हैं, आपत्तियां उन्हें नहीं सता सकतीं।  विनम्रता कितनी हितकारिणी है, यह बात बेतों के उदहारण से अर्जुन के ध्यान में आयी।

 

प्रबभूव नालं अवलोकयितुं परितः सरोजरजसारुणितं ।

सरिदुत्तरीयं इव संहतिमत्स तरङ्गरङ्गि कलहंसकुलं ।। ६.६ ।।

 

अर्थ: अर्जुन चारों ओर से कमल-पराग से लाल रङ्ग में रङ्गे हुए , बिलकुल एक दुसरे से सटे हुए, जलतरङ्गों के समान शोभायमान, गङ्गा के स्तनों को ढंकने वाली ओढ़नी की भांति दिखाई पड़ने वाले राजहंसों की पंक्तियों को बड़ी देर तक देखने में समर्थ नहीं हुए।

 

टिप्पणी: अर्थात उनका सौंदर्य अत्यधिक उत्तेजक था।  अर्जुन विचलित होने लगे।

 

दधति क्षतीः परिणतद्विरदे मुदितालियोषिति मदस्रुतिभिः ।

अधिकां स रोधसि बबन्ध धृतिं महते रुजन्नपि गुणाय महान् ।। ६.७ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने मतवाले हाथियों के तिरछे दन्त-प्रहारों की चोटों को धारण करने वाले, मद के चूने के कारण उसकी सुगन्ध से लुब्ध प्रमुदित एवं भ्रमरियों से युक्त गङ्गातट में अत्यधिक प्रीति प्रकट की।  क्यों न हो, महान लोग पीड़ा पहुंचा कर भी पीड़ित को उत्कर्ष की प्राप्ति करा ही देते हैं।

 

टिप्पणी: मतवाले हाथियों के दन्त-प्रहारों से गङ्गातट क्षत-विक्षत हो गया था, उसकी शोभा नष्ट हो गयी थी, किन्तु हाथियों के मद की धरा उनमें बही थी, अतः वहां मद-सुगन्ध लोभी भ्रमरियन गुञ्जार कर रही थीं, जिससे अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई।  क्यों न होती, महान लोगों का विरोध भी उत्कर्ष का कारण होता है।  अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

अनुहेमवप्रं अरुणैः समतां गतं ऊर्मिभिः सहचरं पृथुभिः ।

स रथाङ्गनामवनितां करुणैरनुबध्नतीं अभिननन्द रुतैः ।। ६.८ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने (इन्द्रकील गिरि के) सुवर्णमय शिखर के समीप, (शिखर के स्वर्णिम कान्ति से युक्त होने के कारण) लाल रङ्ग की विशाल तरङ्गों की समानता को प्राप्त अपने प्रिय सहचर को अपने करुण स्वरों में खोजती हुई चक्रवाकी का अभिनन्दन किया।

 

टिप्पणी: सुवर्णमय शिखर की समीपता के कारण गङ्गा की बड़ी-बड़ी लहरें लाल रङ्ग के चक्रवाकों के समान दिखाई पड़ रही थी।  उनमें से अपने प्यारे चक्रवाक को अपने करुण स्वर से कोई चक्रवाकी ढूंढना चाहती थी।  वह अर्जुन को बहुत पसन्द आयी, उन्होंने उसके इस अत्यधिक प्रेम की मन में प्रशन्सा की।  तद्गुण और भ्रान्ति अलङ्कार का  अङ्गागी भाव से सङ्कर।

 

सितवाजिने निजगदू रुचयश्चलवीचिरागरचनापटवः ।

मणिजालं अम्भसि निमग्नं अपि स्फुरितं मनोगतं इवाकृतयः ।। ६.९ ।।

 

अर्थ: चञ्चल तरङ्गों को अपने रङ्ग में रङ्ग देने की रचना में निपुण मणिकान्तियों ने जल की तह में डूबे हुए मणियों के समूहों के होने की सूचना भ्रूभङ्ग आदि बाह्य विकारों द्वारा मन के क्रोधादि विकारों की भान्ति अर्जुन को दे दी।

 

टिप्पणी: गङ्गा की निर्मल शुभ्र जल-धारा की तह में मणियाँ पड़ी थीं, उनकी कान्तियाँ ऊपर चञ्चल जल तरङ्गों में भी सक्रान्त हो रही थी और इस प्रकार अर्जुन को ऊपर की लहरों को देखकर ही उनकी सूचना मिल गयी थी। बाह्य आकृति से मनोगत विकारों की सूचना चतुर लोग पा ही जाते हैं ।  उपमा अलङ्कार

 

उपलाहतोद्धततरङ्गधृतं जविना विधूतविततं मरुता ।

स ददर्श केतकशिखाविशदं सरितः प्रहासं इव फेनं अपां ।। ६.१० ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने बड़े-बड़े पत्थरों के कारण चञ्चल तरङ्गो से युक्त, तीव्र वायु के झोंकों से प्रकम्पित एवं खण्ड-खण्ड में विशीर्ण केतकी के शिखाग्र की भान्ति श्वेत जल के फेनों को मानो गङ्गा के हास्य के समान देखा।

 

टिप्पणी: हास्य भी श्वेत ही वर्णित होता है।  उत्प्रेक्षा अलङ्कार।

 

बहु बर्हिचन्द्रिकनिभं विदधे धृतिं अस्य दानपयसां पटलं ।

अवगाढं ईक्षितुं इवैभपतिं विकसद्विलोचनशतं सरितः ।। ६.११ ।।

 

अर्थ: मयूरों की पुच्छों के चन्द्रक के समान दिखाई पड़नेवाले अनेक मदजल के बिन्दुओं ने जल के भीतर डूबे हुए गजराज को देखने के लिए मानो नदी के खुले हुए सैकड़ों नेत्रों के समान अर्जुन में प्रीति उत्पन्न की।

 

टिप्पणी: गजराज तो पानी में डूब कर आनन्द ले रहा था और उसके मदजल के बिन्दु धारा के ऊपर तेल की तरह तैर रहे थे, जो रङ्ग-बिरङ्गे होकर मयूरों के पुच्छों में रहने वाले चन्द्रकों की भान्ति दिखाई पड़ रहे थे। कवी उसी की उत्प्रेक्षा कर रहा है, मानो नदी अपने सैकड़ो नेत्रों को खोलकर उस गजराज को ढूंढना चाहती है कि वह क्या हो गया ? अर्जुन को यह दृश्य परम प्रीतिकर लगा। उत्प्रेक्षा अलङ्कार।

 

प्रतिबोधजृम्भणविभीनमुखी पुलिने सरोरुहदृशा ददृशे ।

पतदच्छमौक्तिकमणिप्रकरा गलदश्रुबिन्दुरिव शुक्तिवधूः ।। ६.१२ ।।

 

अर्थ: कमलनयन अर्जुन ने स्फुटित होने के कारण (नीन्द से जागने के कारण जम्भाई लेने से) खुले मुखवाली, अतएव स्वच्छमुक्ता की कान्तियों का प्रसार करती हुई, एवं मानो जलबिंदु गिरती हुई सीपी रूपिणी वधु को तटवर्ती प्रदेश पर देखा।

 

टिप्पणी: जैसे कोई नववधू निद्रा से जागकर अपनी शैय्या पर जम्भाई लेती हुई मुंह बाती है, अपने शुभ्र दांतों की किरणों का प्रसार करती है तथा आनन्दाश्रु बहाती है उसी प्रकार नदी के तटवर्ती प्रदेश पर वह सीपी पड़ी हुई थी।  उसका मुंह चटक गया था और उसमें से मोती की कान्ति बहार झलक रही थी तथा जलबिन्दु चू रहे थे।  उत्प्रेक्षा अलङ्कार।

 

शुचिरप्सु विद्रुमलताविटपस्तनुसान्द्रफेनलवसंवलितः ।

स्मरदायिनः स्मरयति स्म भृशं दयिताधरस्य दशनांशुभृतः ।। ६.१३ ।।

 

अर्थ: (नदी की) जलराशि में स्वच्छ, छोटे-छोटे एवं सघन फेन के टुकड़ों के साथ मिले हुए प्रवलता के पल्लव, कामोत्तेजना देनेवाले, स्वच्छ दांतों की किरणों से मनोहर प्रियतम के अधरों का अत्यधिक स्मरण करा रहे थे।

 

टिप्पणी: स्मरण अलङ्कार

 

उपलभ्य चञ्चलतरङ्गहृतं मदगन्धं उत्थितवतां पयसः ।

प्रतिदन्तिनां इव स सम्बुबुधे करियादसां अभिमुखान्करिणः ।। ६.१४ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने चञ्चल लहरों पर तैरते हुए मदगन्ध को सूंघकर जल की सतह से ऊपर निकले हुए गजाकृति जलजन्तुओं (जलहस्ती) को अपने प्रतिपक्षी हाथी समझ कर उन पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हाथियों को देखा।

 

स जगाम विस्मयं उद्वीक्ष्य पुरः सहसा समुत्पिपतिषोः फणिनः ।

प्रहितं दिवि प्रजविभिः श्वसितैः शरदभ्रविभ्रमं अपां पटलं ।। ६.१५ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने आगे की ओर अकस्मात् ऊपर आने के इच्छुक एक सर्प के अत्यन्त वेगयुक्त फुफकार से आकाश में फेंके हुए, शरद ऋतु के बादल की भांति दिखाई पड़नेवाले जल के मण्डलाकार समूह के देखकर बड़ा आश्चर्य माना।

 

टिप्पणी: उपमा से अनुप्राणित स्वभावोक्ति अलङ्कार।

 

स ततार सैकतवतीरभितः शफरीपरिस्फुरितचारुदृशः ।

ललिताः सखीरिव बृहज्जघनाः सुरनिम्नगां उपयतीः सरितः ।। ६.१६ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने बालुकामय तटवर्ती प्रदेशों से युक्त, चारों ओर मछलियों के फुदकने रुपी सुन्दर नेत्रों से सुशोभित सुरनदी गङ्गा में मिलनेवाली उसकी सहायक नदियों को मोटी जंघाओं वाली मनोहर सखियों की भांति पार किया।

 

टिप्पणी: रूपक और उपमा अलङ्कार।

 

 

 

अधिरुह्य पुष्पभरनम्रशिखैः परितः परिष्कृततलां तरुभिः ।

मनसः प्रसत्तिं इव मूर्ध्नि गिरेः शुचिं आससाद स वनान्तभुवं ।। ६.१७ ।।

 

अर्थ: अर्जुन ने इन्द्रकील पर्वत पर चढ़ कर उसके शिखर पर पुष्पों के भार से अवनत शिखा वाले वृक्षों के चारों ओर झाड़-बुहारकर परिष्कृत एवं पवित्र वन्यभूमि को मानो मन की मूर्तिमती प्रसन्नता की भांति प्राप्त किया।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

अनुसानु पुष्पितलताविततिः फलितोरुभूरुहविविक्तवनः ।

धृतिं आततान तनयस्य हरेस्तपसेऽधिवस्तुं अचलां अचलः ।। ६.१८ ।।

 

अर्थ: प्रत्येक शिखर पर फूली हुयी लताओं के वितानों से युक्त एवं फले हुए वृक्षों से सुशोभित पवित्र अथवा निर्जन वनों से विभूषित इन्द्रकील पर्वत ने इन्द्रपुत्र अर्जुन को तपश्चर्या के अनुष्ठान में अविचल उत्साह प्रदान किया।

 

टिप्पणी: काव्यलिङ्ग अलङ्कार।

 

प्रणिधाय तत्र विधिनाथ धियं दधतः पुरातनमुनेर्मुनितां ।

श्रमं आदधावसुकरं न तपः किं इवावसादकरं आत्मवतां ।। ६.१९ ।।

 

अर्थ: तदनन्तर उस इन्द्रकील पर्वत पर योग शास्त्र के अनुसार अपनी चित्तवृत्तियों का नियमन कर मुनियों जैसी वृत्ति धारण करनेवाले उस पुराने मुनि (नर के अवतार) अर्जुन को दुष्कर तपस्या के क्लेशों ने नहीं सताया।  मनस्वियों को क्लेश पहुँचाने वाली भला कौन सी वस्तु है ? (कोई नहीं)

 

टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

शमयन्धृतेन्द्रियशमैकसुखः शुचिभिर्गुणैरघमयं स तमः ।

प्रतिवासरं सुकृतिभिर्ववृधे विमलः कलाभिरिव शीतरुचिः ।। ६.२० ।।

 

अर्थ: इन्द्रियदमन को ही मुख्य-मुख्य सुख के रूप में स्वीकार कर पवित्र गुणों से अपने पापमय अन्धकार का शमन करते हुए पापरहित अर्जुन प्रतिदिन अपनी उस विधिविहित तपस्या से (दूसरों के सन्ताप को दूर करने को ही मुख्य कार्य समझनेवाले अपनी कान्ति से अन्धकार को दूर करने वाले एवं अपनी कमनीय कलाओं से शुक्लपक्ष में प्रतिदिन बढ़्नेवाले) चन्द्रमा की भांति बढ़ने लगे।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार।

 

अधरीचकार च विवेकगुणादगुणेषु तस्य धियं अस्तवतः ।

प्रतिघातिनीं विषयसङ्गरतिं निरुपप्लवः शमसुखानुभवः ।। ६.२१ ।।

 

अर्थ: और भी विवेक के उदय से तत्वों के विनिश्चय रूप-गुण के द्वारा काम-क्रोधादि विकारों में प्रवृत्तियों को रोकने वाले निष्कण्टक शान्ति एवं सुखोपभोग ने उस अर्जुन की तपश्चर्या में अनेक प्रकार का विघ्न पहुँचाने वाली विषय-वासनाओं की अभिरुचि को दबा दिया।

 

टिप्पणी: अर्थात अर्जुन विषय-वासनाओं से निर्मुक्त होकर तपश्चर्या में रत हो गया।

 

मनसा जपैः प्रणतिभिः प्रयतः समुपेयिवानधिपतिं स दिवः ।

सहजेतरे जयशमौ दधती बिभरांबभूव युगपन्महसी ।। ६.२२ ।।

 

अर्थ: अहिंसा आदि में निरत रहकर ध्यान, जप एवं नमस्कारादि के द्वारा स्वर्ग के अधिपति इन्द्र को प्राप्त करने की चेष्टा में लगे हुए अर्जुन ने अपने स्वाभाविक एवं अभ्यास से प्राप्त वीररस एवं शान्त रसों को पुष्ट करनेवाले तेजों को एक साथ धारण किया।

 

टिप्पणी: अर्थात वीरों के समान शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर भी वह जप, तप, अहिंसा आदि शान्त कर्मों के उपासक बन गए।  एक साथ ही इन दो परस्पर विरोधी तेजों को धारण करना अद्भुत महिमा का कार्य है।

 

शिरसा हरिन्मणिनिभः स वहन्कृतजन्मनोऽभिषवणेन जटाः ।

उपमां ययावरुणदीधितिभिः परिमृष्टमूर्धनि तमालतरौ ।। ६.२३ ।।

 

अर्थ: मरकत मणि के समान हरे वर्ण वाले एवं नियमानुष्ठित स्नान करने के कारण पिङ्गल वर्ण की जटाओं को धारण किये हुए अर्जुन बाल सूर्य की किरणों से सुशोभित शिखर वाले तमाल के वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार

 

धृतहेतिरप्यधृतजिह्ममतिश्चरितैर्मुनीनधरयञ्शुचिभिः ।

रजयांचकार विरजाः स मृगान्कं इवेशते रमयितुं न गुणाः ।। ६.२४ ।।

 

अर्थ: हथियार धारण करने पर भी सरल बुद्धि वाले एवं पवित्र आचरणों में मुनियों को नीचे दिखाने वाले रजोगुणविहीन अर्जुन ने वन्य पशुओं को प्रसन्न कर दिया।  भला गुण किसे नहीं वश में कर सकते।

 

टिप्पणी: चरित्र की शुद्धता ही विश्वास का कारण होती है, वेश अथवा परिचय नहीं।  अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

अनुकूलपातिनं अचण्डगतिं किरता सुगन्धिं अभितः पवनं ।

अवधीरितार्तवगुणं सुखतां नयता रुचां निचयं अंशुमतः ।। ६.२५ ।।

 

नवपल्लवाञ्जलिभृतः प्रचये बृहतस्तरून्गमयतावनतिं ।

स्तृणता तृणैः प्रतिनिशं मृदुभिः शयनीयतां उपयतीं वसुधां ।। ६.२६ ।।

 

पतितैरपेतजलदान्नभसः पृषतैरपां शमयता च रजः ।

स दयालुनेव परिगाढकृशः परिचर्ययानुजगृहे तपसा ।। ६.२७ ।।

 

अर्थ: अर्जुन की उस तपश्चर्या के अनुकूल मन्द मन्द सुगन्धित वायु को उसके (अर्जुन के) चारों और विकीर्ण कर दिया तथा सूर्य की किरणों की ग्रीष्मकालीन तेजस्विता को दबाकर उसे सुखस्पर्शी बना दिया।  पुष्प चुनने के अवसर पर नूतन पल्लव रुपी अञ्जलियों को धारण करने वाले विशाल वृक्षों को नम्र बना दिया तथा प्रत्येक रात्रि में शयन-स्थान अर्थात शैय्या बनने वाली पृथ्वी को कोमल तृणों से आच्छादित कर दिया ।  एवं जलरहित बादलों से बरसते हुए जल बिंदुओं द्वारा धरती की धुल को शान्त कर दिया।  इस प्रकार की उस दयालु तपश्चर्या की शुश्रूषा से मानो अन्यन्त क्षीणशरीर अर्जुन परम अनुग्रहीत हुए।

 

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि उस कठोर साधना में निरत अर्जुन को प्रकृति कि सारी सुविधाएं प्राप्त हुईं।  यद्यपि वह खुली धुप में रहते थे, पृथ्वी पर शयन करते थे, स्वयं वृक्षों से पुष्प चुनते थे और वह तपोभूमि धूल धक्कड़ से भरी थी किन्तु उनके तपोलीन होने पर वह सब असुविधाएं स्वतः दूर हो गयी।  तीनों श्लोकों में उत्प्रेक्षा ही प्रधान अलङ्कार है।  जैसे किसी दुर्बल दीन-हीन व्यक्ति को देखकर कोई दयालु व्यक्ति उसकी सेवा सुश्रूषा में लीन हो जाता है, उसी प्रकार उनकी तपस्या भी मानो उस पर दयालु हो गयी।

 

महते फलाय तदवेक्ष्य शिवं विकसन्निमित्तकुसुमं स पुरः ।

न जगाम विस्मयवशं वशिनां न निहन्ति धैर्यं अनुभावगुणः ।। ६.२८ ।।

 

अर्थ: महान सिद्धि रूप कल्याण(फल) की प्राप्ति के लिए विक्सित होने वाले उन कल्याणकारी शकुन रुपी पुष्पों को सामने देखकर विस्मित नहीं हुए।  जितेन्द्रिय लोग फल प्राप्ति के सूचक अनुभवों के होने पर भी अपना धैर्य नहीं छोड़ते।

 

टिप्पणी: क्योंकि यदि विस्मय करते तो तप सिद्धि क्षीण हो जाती, जैसा कि शास्त्रीय विधान है।  "तप क्षरति विस्मयात्। " अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

तदभूरिवासरकृतं सुकृतैरुपलभ्य वैभवं अनन्यभवं ।

उपतस्थुरास्थितविषादधियः शतयज्वनो वनचरा वसतिं ।। ६.२९ ।।

 

अर्थ: इस प्रकार की तपश्चर्या द्वारा थोड़े ही दिनों में अर्जुन के, दूसरों द्वारा असम्भव अर्थात अलौकिक प्रभाव को देखकर खेद से भरे हुए किरातवृन्द इन्द्र की पूरी अमरावती पहुँच गए।

 

टिप्पणी: किरातों को भ्रम हुआ कि कहीं अपनी कठोर तपस्या से यह इन्द्रपद प्राप्त तो नहीं करना चाहता।

 

विदिताः प्रविश्य विहितानतयः शिथिलीकृतेऽधिकृतकृत्यविधौ ।

अनपेतकालं अभिरामकथाः कथयांबभूवुरिति गोत्रभिदे ।। ६.३० ।।

 

अर्थ: उन वनचरों ने अनुमति लेकर इन्द्र के समीप प्रवेश किया और हाथ जोड़कर नमस्कार किया। पर्वत की रक्षा का गुरु कार्य छोड़कर वे आये थे अतः व्यर्थ में अधिक समय न लगाकर इन्द्र से इस प्रकार का श्रवणसुखद संवाद कह सुनाया।

 

शुचिवल्कवीततनुरन्यतमस्तिमिरच्छिदां इव गिरौ भवतः ।

महते जयाय मघवन्ननघः पुरुषस्तपस्यति तपज्जगतीं ।। ६.३१ ।।

 

अर्थ: हे महाराज इन्द्र ! पवित्र वल्कल से शरीर को आच्छादित कर अन्धकार को दूर करनेवाले सूर्य आदि तेजस्वियों में से मानो अन्यतम कोई एक निष्पाप पुरुष आपके इन्द्रकील नमक पर्वत पर, संसार को उत्तप्त करता हुआ, किसी महान विजय लाभ के लिए तपस्या कर रहा है।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

स बिभर्ति भीषणभुजंगभुजः पृथि विद्विषां भयविधायि धनुः ।

अमलेन तस्य धृतसच्चरिताश्चरितेन चातिशयिता मुनयः ।। ६.३२ ।।

 

अर्थ: भयङ्कर सर्पों के समान भुआजों वाला वह पुरुष शत्रुओं को भयभीत करनेवाला विशाल धनुष धारण किये हुए है। उसके निर्मल आचरणों ने सच्चरित ऋषि मुनियों को भी जीत लिया है।

 

टिप्पणी: उपमा अलङ्कार

 

मरुतः शिवा नवतृणा जगती विमलं नभो रजसि वृष्टिरपां ।

गुणसम्पदानुगुणतां गमितः कुरुतेऽस्य भक्तिं इव भूतगणः ।। ६.३३ ।।

 

 

अर्थ: उस तपस्वी पुरुष के सद्गुणों के प्रभाव से अनुकूलता को प्राप्त होने वाले पृथ्वी, जल आदि पाँचों महाभूत भी मानो उसके प्रति भक्ति करते हैं, क्योंकि हवाएं सुखदायिनी हो गयी हैं, धरती नूतन कोमल घासों से आच्छादित हो गयी है, आकाश निर्मल हो गया है, धुल उठने पर जल की वृष्टि होती है।

 

टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार

 

इतरेतरानभिभवेन मृगास्तं उपासते गुरुं इवान्तसदः ।

विनमन्ति चास्य तरवः प्रचये परवान्स तेन भवतेव नगः ।। ६.३४ ।।

 

 

अर्थ: वन्य पुरुष उस तपस्वी पुरुष की सेवा विद्यार्थियों द्वारा गुरु के समान परस्पर वैर-विरोध भूलकर करते हैं। पुष्प चुनने के समय वृक्ष उसके सामने स्वयं झुक जाते हैं। (इस प्रकार) वह इन्द्रकील आप की भांति ही अब उस तपस्वी के अधीन सा हो गया है।

 

उरु सत्त्वं आह विपरिश्रमता परमं वपु प्रथयतीव जयं ।

शमिनोऽपि तस्य नवसंगमने विभुतानुषङ्गि भयं एति जनः ।। ६.३५ ।।

 

अर्थ: कठिन परिश्रम करने पर भी उसका श्रान्त न होना उसके महान आन्तरिक बल की सूचना देता है, उसका सुन्दर एवं विशाल शरीर उसकी विजय की सूचना देता है, यद्यपि वह शांत रहता है तथापि जब कभी किसी से उसका प्रथम समागम होता है उस समय आगन्तुक व्यक्ति में उसकी विभुता से भय उत्पन्न हो जाता है।

 

ऋषिवंशजः स यदि दैत्यकुले यदि वान्वये महति भूमिभृतां ।

चरतस्तपस्तव वनेषु सदा न वयं निरूपयितुं अस्य गतिं ।। ६.३६ ।।

 

अर्थ: वह तपस्वी ऋषियों का वंशज है अथवा दैत्यों के वंश का है अथवा राजाओं के महान कुल में उत्पन्न हुआ है ? आपके वन में तपस्या करनेवाले उस पुरुष के भेद को जानने में हम असमर्थ हैं।

 

विगणय्य कारणं अनेकगुणं निजयाथवा कथितं अल्पतया ।

असदप्यदः सहितुं अर्हति नः क्व वनेचराः क्व निपुणा मतयः ।। ६.३७ ।।

 

अर्थ: (उसकी इस तपस्या का क्या प्रयोजन है, इसका) अनेक प्रकार से अनुमान करके अथवा अपनी स्वल्पबुद्धि से जो यह बात हमने आप से निवेदन की है, वह अनुचित भी हो तो आप उसे क्षमा करें। क्योंकि कहाँ हम जङ्गली लोग और कहाँ वह कुशलमति तपस्वी।

 

टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

 

अधिगम्य गुह्यकगणादिति तन्मनसः प्रियं प्रियसुतस्य तपः ।

निजुगोप हर्षं उदितं मघवा नयवर्त्मगाः प्रभवतां हि धियः ।। ६.३८ ।।

 

अर्थ: देवराज इन्द्र ने इस प्रकार यक्षों के मुख से मन को आनन्दित करने वाली अपने प्यारे पुत्र की तपस्या का वृत्तान्त सुनकर अपनी प्रकट होने वाली प्रसन्नता को छिपा लिया।  क्यों न हो, प्रभुओं अर्थात बड़े लोगों की बुद्धि नीतिमार्गानुसारिणी होती है।

 

टिप्पणी: बड़े लोग किसी इष्ट कार्य के सिद्ध होने से उत्पन्न अपने मन की प्रसन्नता छिपा कर रखते हैं क्योंकि उसके प्रकट होने से कार्यहानि की सम्भावना रहती है।  अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

प्रणिधाय चित्तं अथ भक्ततया विदितेऽप्यपूर्व इव तत्र हरिः ।

उपलब्धुं अस्य नियमस्थिरतां सुरसुन्दरीरिति वचोऽभिदधे ।। ६.३९ ।।

 

अर्थ: तदनन्तर इन्द्र ने समाधिस्थ होकर अर्जुन को अपना अनन्य भक्त जान लेने पर भी, अनजान की भांति उसकी नियम निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए देवांगनाओं से इस प्रकार की बातें की।

 

टिप्पणी: इन्द्र यद्यपि यह जान गए थे कि अर्जुन अनन्य भाव से तपस्या में लीन है तथापि लोक प्रतीति के लिए अप्सराओं द्वारा इसकी दृढ़ नियमानुवर्तिता की परीक्षा लेना उन्होंने उचित समझा।  क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था।  पुत्र के प्रति अनायास कृपा भाव का होना उनके पक्षपाती कहे जाने का कारण बनता।  अतः लोगों को दिखने के लिए उन्होंने यह नाटक रचा।

 

सुकुमारं एकं अणु मर्मभिदां अतिदूरगं युतं अमोघतया ।

अविपक्षं अस्त्रं अपरं कतमद्विजयाय यूयं इव चित्तभुवः ।। ६.४० ।।

 

अर्थ: मर्म पर आघात करनेवाले शस्त्रास्त्रों में भला दूसरा कौन सा ऐसा अस्त्र हमारे पास है जो तुम लोगों की तरह सुकुमार, एकमात्र, सूक्ष्म, अत्यन्त दूरगामी, कभी निष्फल न होनेवाला एवं प्रतिकार रहित है।  कामदेव के ऐसे अस्त्रों को छोड़कर (आप लोगों की) विजय प्राप्ति के लिए कोई दूसरा अस्त्र नहीं है।

 

टिप्पणी: अर्थात दूसरे अस्त्र तो कठोर होते हैं, बहुत से धारण करने पड़ते हैं क्योंकि एक से कभी काम चलने वाला नहीं होता, भारी और बड़े होते हैं, बहुत कम अथवा निर्दिष्ट दूरी तक जा सकते हैं, कभी कभी निष्फल हो जाते हैं और उनके प्रतिकार भी हैं, किन्तु तुम लोगों के सम्बन्ध में ऐसी कोई बात नहीं है।  उपमा और परिकर अलङ्कार।

 

भववीतये हतबृहत्तमसां अवबोधवारि रजसः शमनं ।

परिपीयमाणं इव वोऽसकलैरवसादं एति नयनाञ्जलिभिः ।। ६.४१ ।।

 

अर्थ: सांसारिक दुःखों से सदा के लिए छूट जाने की इच्छा से माया-मोह को दूर हटाने वाले महान योगियों के , रजोगुण को शान्त करनेवाले तत्वबोध रूप जल को, आप लोग अपने नेत्रों के कटाक्ष रुपी अंजलियों से मानो क्षण भर में पान करके उसे विनष्ट कर देती है।

 

टिप्पणी: जब मुमुक्षुओं की यह दशा केवल आपके कटाक्षों से हो जाती है तो साधारण व्यक्ति की बात ही क्या है। उत्प्रेक्षा और रूपक का सङ्कर।

 

बहुधा गतां जगति भूतसृजा कमनीयतां समभिहृत्य पुरा ।

उपपादिता विदधता भवतीः सुरसद्मयानसुमुखी जनता ।। ६.४२ ।।

 

अर्थ: प्राचीनकाल में अनेक स्थलों में बिखरी हुई सुन्दरता को एकत्र कर आप लोगों की रचना कर्णवाले विधाता ने साधारण जनता को स्वर्गलोक की यात्रा के लिए लालायित बना दिया है।

 

टिप्पणी: अर्थात चन्द्रमा आदि अनेक पदार्थों में जो भी सुन्दरता बिखरी हुई थी उसी को एकत्र कर विधाता ने तुम लोगों की रचना की है और लोग जो स्वर्ग की प्राप्ति के लिए लालायित रहते हैं, उसमें केवल तुम लोगों की प्राप्ति की लालसा ही मूल कारण है। अतिश्योक्ति अलङ्कार।

 

तदुपेत्य विघ्नयत तस्य तपः कृतिभिः कलासु सहिताः सचिवैः ।

हृतवीतरागमनसां ननु वः सुखसङ्गिनं प्रति सुखावजितिः ।। ६.४३ ।।

 

अर्थ: अतएव आप लोग गायन-वादनादि कलाओं में निपुण अपने सहचर गन्धर्वों के साथ जाकर उस तपस्वी पुरुष की तपस्या में विघ्न प्रस्तुत करें।  आप लोग जब वीतराग तपस्वियों के मन को भी अपनी ओर खींच लेतीं हैं तो सुखभिलाषी पुरुष तो सुगमता से वश में हो सकता है।

 

टिप्पणी: अर्थात वह तपस्वी तो बड़ी सुगमता से आप लोगों के वश में हो जाएगा।  उसे वश में करना कठिन नहीं है।  अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

अविमृष्यं एतदभिलष्यति स द्विषतां वधेन विषयाभिरतिं ।

भववीतये न हि तथा स विधिः क्व शरासनं क्व च विमुक्तिपथः ।। ६.४४ ।।

 

अर्थ: वह तपस्वी अपने शत्रुओं का संहार कर विषय-सुख भोगने का अभिलाषी है, यह बात तो असंदिग्ध ही है।  उसकी यह तपस्या संसार से मुक्ति पाने के लिए नहीं है।  क्योंकि कहाँ धनुष और कहाँ मुक्ति का मार्ग?

 

टिप्पणी: वह धनुष लेकर तपस्या कर रहा है, यही इस बात का प्रमाण है कि मुमुक्षु नहीं है, क्योंकि मुक्ति हिंसा द्वारा प्राप्त नहीं होती, दोनों विरोधी चीज़ें हैं अतः निश्चय ही वह विषयसुखाभिलाषी है।  अर्थान्तरन्यास अलङ्कार।

 

पृथुदाम्नि तत्र परिबोधि च मा भवतीभिरन्यमुनिवद्विकृतिः ।

स्वयशांसि विक्रमवतां अवतां न वधूष्वघानि विमृष्यन्ति धियः ।। ६.४५ ।।

 

अर्थ: महान तेजस्वी उस तपस्वी पुरुष के सम्बन्ध में दुसरे मुनियों की तरह क्रुद्ध होकर शाप देने की शङ्का तुम लोग मत करो। क्योंकि अपने यश की रक्षा करनेवाले पराक्रमी लोगों की बुद्धि नारी जाति के प्रति प्रतिहिंसा की भावना नहीं रखती।

 

टिप्पणी: पराक्रमी एवं वीर लोग अपने यश की हानि की चिन्ता से नारी जाति के प्रति प्रतिहिंसा की भावना नहीं रखते। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

आशंसितापचितिचारु पुरः सुराणां आदेशं इत्यभिमुखं समवाप्य भर्तुः ।

लेभे परां द्युतिं अमर्त्यवधूसमूहः सम्भावना ह्यधिकृतस्य तनोति तेजः ।। ६.४६ ।।

 

अर्थ: अप्सराओं का समूह देवताओं के समक्ष इस प्रकार की प्रशंसा से युक्त अपने स्वामी इन्द्र का उपर्युक्त आदेश प्राप्त कर और अधिक सुन्दर हो गया, वह खिल उठा।  क्यों नहीं स्वामी द्वारा प्राप्त समादर किसी कर्त्तव्य पर नियुक्त सेवक की तेजोवृद्धि तो करता ही है।

 

टिप्पणी: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

 

प्रणतिं अथ विधाय प्रस्थिताः सद्मनस्ताः स्तनभरनमिताङ्गीरङ्गनाः प्रीतिभाजः ।

अचलनलिनलक्ष्मीहारि नालं बभूव स्तिमितं अमरभर्तुर्द्रष्टुं अक्ष्णां सहस्रं ।। ६.४७ ।।

 

अर्थ: तदनन्तर इन्द्र को प्रणाम कर अमरावती से प्रस्थित, स्तनों के भार से अवनत अङ्गों वाली एवं स्वामी के समादर से संतुष्ट उन अप्सराओं को निश्चल कमल की शोभा को हरनेवाली अर्थात कमलों के समान मनोहर एवं विस्मय से निर्निमेष देवराज इन्द्र की सहस्त्र आँखें भी देखने में असमर्थ रह गयी।

 

टिप्पणी:अर्थात एक तो वे वैसे ही सुन्दरी थी, दुसरे इन्द्र ने देवताओं के समक्ष उनका जो अभिनन्दन किया, उससे वे और खिल उठी तथा उनका सौंदर्य सागर हिलोरे लेने लगा।  उपमा अलङ्कार।

 

इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये षष्ठः सर्गः

==============================================

 

 

 

श्रीमद्भिः सरथगजैः सुराङ्गनानां गुप्तानां अथ सचिवैस्त्रिलोकभर्तुः ।

संमूर्छन्नलघुविमानरन्ध्रभिन्नः प्रस्थानं समभिदधे मृदङ्गनादः ।। ७.१ ।।

 

अर्थ: तदनन्तर सुशोभित रथों और हाथियों के साथ त्रिलोकपति इन्द्र सहचर गन्धर्वों से सुरक्षित देवांगनाओं के प्रस्थान की सूचना विशाल विमानों झरोखों से प्रतिध्वनित होने के कारण अनेक रूपों में फैलते हुए मृदङ्गों की ध्वनियों ने ( पुरवासियों को ) दी।

 

टिप्पणी: अर्थात देव-विमानों पर गन्धर्वों के साथ अप्सराओं ने इन्द्रकूट के लिए प्रस्थान किया और उस समय मृदङ्ग आदि माङ्गलिक वाद्य बजने लगे।  इस सर्ग में प्रहर्षिणी छन्द है।

 

 

सोत्कण्ठैरमरगणैरनुप्रकीर्णान्निर्याय ज्वलितरुचः पुरान्मघोनः ।

रामाणां उपरि विवस्वतः स्थितानां नासेदे चरितगुणत्वं आतपत्रैः ।। ७.२ ।।

 

अर्थ: देखने के लिए उत्सुक देवगणों द्वारा भरी हुई एवं अपनी अनुपम छटा से जाज्वल्यमान इन्द्रपुरी अमरावती से निकलकर सूर्य के ऊपर अवस्थित उन अप्सराओं के आतपत्र अर्थात छतरियों ने सच्चे अर्थ में अपनी चरितार्थता नहीं प्रकट की।

 

टिप्पणी: देवांगनाएँ आकाश में सूर्या मण्डल से ऊपर थीं, अतः नीचे की ओर पड़नेवाली सूर्य की किरणे वहां नहीं पहुँच रही थीं, जिससे वह आतप अर्थात धुप का अभाव था।  जब आतप (धूप) थी ही नहीं तो आतपत्र(छतरियों) की चरितार्थता होती कैसे ?

 

धूतानां अभिमुखपातिभिः समीरैरायासादविशदलोचनोत्पलानां ।

आनिन्ये मदजनितां श्रियं वधूनां उष्णांशुद्युतिजनितः कपोलरागः ।। ७.३ ।।

 

अर्थ: प्रतिकूल बहने वाली वायु द्वारा थकी हुई एवं चलने-फिरने के परिश्रम से मलिन नेत्र-कमलों वाली उन देवगणों के सूर्य की प्रचण्ड धूप से उत्पन्न कपोलों की लालिमा ने मद से लालिमा की शोभा को प्राप्त किया।

 

टिप्पणी: अर्थात प्रचण्ड धूप, सामने की हवा तथा चलने-फिरने की थकावट से देवगणों के कपोल ऐसे लाल हो गए थे जैसे मद पान करने पर होते थे।  यहाँ प्रतिकूल हवा अपशकुन की सूचना भी दे रही थी।  निदर्शना अलङ्कार

 

तिष्ठद्भिः कथं अपि देवतानुभावादाकृष्टैः प्रजविभिरायतं तुरङ्गैः ।

नेमीनां असति विवर्तनई रथौघैरासेदे वियति विमानवत्प्रवृत्तिः ।। ७.४ ।।

 

अर्थ: किसी प्रकार देवताओं की कृपा से (आकाश मण्डल में) टिके हुए, अत्यन्त वेग से चलने वाले अश्वों द्वारा दूर से खींचे जाते हुए वे रथों के समूह, आकाश मण्डल में निराधार होने से चक्कों की गति न होने के कारण विमानों की स्थिति प्राप्त कर रहे थे।

 

टिप्पणी: अर्थात आकाश में देवांगनाओं के वे रथ विमाओं की शोभा धारण कर रहे थे।  विमानों में अश्व नहीं होते, उनका चक्का घूमता नहीं रहता तथा वे आकाश में चलते हैं।  देवांगनाओं के इन रथों की भी ऐसी ही स्थिति थी।  इनमें यद्यपि अश्व थे, किन्तु वे अत्यन्त वेगशाली थे अतः बहुत दूर से रथ को खींच रहे थे, निराधार होने से इनके भी चक्के घूमते नहीं थे और रथ देवताओं की कृपा से आकाश में टिके हुए थे।  उपमा अलङ्कार

Post a Comment

0 Comments

Ad Code