आ꣡ ते꣢ व꣣त्सो꣡ मनो꣢꣯ यमत्पर꣣मा꣡च्चि꣢त्स꣣ध꣡स्था꣢त् । अ꣢ग्ने꣣ त्वां꣢ का꣢मये गि꣣रा꣢ ॥८॥
हे (अग्ने) जगत्पिता परमात्मन् ! (ते) तेरा (वत्सः) प्रिय पुत्र (परमात् चित्) सुदूरस्थ भी (सधस्थात्) प्रदेश से (मनः) अपने मन को (आयमत्) लाकर तुझ में केन्द्रित कर रहा है। अर्थात् मैं तेरा प्रिय पुत्र तुझमें मन को केन्द्रित कर रहा हूँ। मैं (गिरा) स्तुति-वाणी से (त्वाम्) तुझ परमात्मा की (कामये) कामना कर रहा हूँ, अर्थात् तेरे प्रेम में आबद्ध हो रहा हूँ ॥८॥
जब मनुष्य सांसारिक विषयों की निःसारता को देख लेता है, तब दूर-से-दूर भू-प्रदेशों में भटकते हुए अपने मन को सभी प्रदेशों से लौटा कर परमात्मा में ही संलग्न कर लेता है और वाणी से परमात्मा के ही गुण-धर्मों का बारम्बार स्तवन करता है और उसके प्रेम से परिप्लुत हृदयवाला होकर सम्पूर्ण पृथिवी के भी राज्य को उसके समक्ष तुच्छ गिनता है ॥८॥
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