ज्ञान
निर्जीव नहीं है
ज्ञान निर्जीव नहीं है,
ज्ञान वह है जो धड़कता है जो सांसें लेता है। आज के समय में जिसे हम
ज्ञान कहते हैं वह सब निर्जीव है उसमें जीवन नहीं है वह मुर्दा है, और इस प्रकार
के ज्ञान से मुर्दा पना का ही विस्तार हो रहा है। हमारे समाज में जिसके कारण जीवन
का वास्तविक स्वरूप ही खत्म हो चुका है, जीवन का सम्बंध जड़
वस्तुओं से हो चुका है और जीवन को भी जड़ समझा जा रहा है। आज के आधुनिक जीवन में
हम सब किसी विषय की जानकारी को ही ज्ञान समझते है। ज्ञान का मतलब पराक्रम, संग्राम, क्रान्ती, आन्दोलन
करने वाला मुख्य श्रेष्ठ चेतन तत्व जो इस ब्रह्माण्ड का मुख्य श्रोत है।
जिस प्रकार से सूर्य का मुख्य श्रोत ऊर्जा है, पृथ्वी
का मुख्य श्रोत सूर्य है क्योंकि पृथ्वी सूर्य ही निकली है। पृथ्वी से चन्द्रमा
निकला है। सूर्य का श्रोत क्या है कहाँ से यह विशालतं ऊर्जा निकल रहीं है जिससे यह
सब अनन्त सूर्य उत्पन्न हो रहे है। इसका मुख्य श्रोत ज्ञान है। अर्थात जीवन की
मुख्य इकाई है। जीवन स्वयं ज्ञान है और हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य जो हमारे
श्रेष्ठ महा पुरुषों ने हमें बताया है कि हम इस जीवन का अर्थात स्वयं का
साक्षात्कार करें ज्ञान को उपलब्ध करें। जीवन का लक्ष्य कुछ भी नहीं है यह जीवन ही
अपने आप में एक बहुत बड़ा लक्ष्य है। इसका लक्ष्य कोई विषय नहीं है। यद्यपि जब हम
अपने भारतीय वैदिक दर्शनों का अध्ययन करते है तो उसमें हमें यही शिक्षा दी जाती है,
जिस वस्तु से मुक्त होना चाहते है तो पहले उस विषय का साक्षात्कार
करो जब उस विषय का साक्षात्कार पूर्ण रूप से हो जाता है। तो हम उस विषय से मुक्त
हो जाते है। यहाँ साक्षात्कार विषय का करने का हो रहा है और विषय एक वस्तु है तो
सबसे पहले हमारे दर्शन कार अपनी शरीर को एक विषय की तरह मानते है और स्वयं को शरीर
से अलग मानते है। यह सत्य है कि वह इस शरीर में ही रहते है। लेकिन वह स्वयं को
शरीर नहीं समझते है शरीर और स्वयं में भेद है। जैसे विद्युत एक अलग वस्तु है और
विद्युत को धारण करने वाला उसका परिपथ उससे अलग है। यहाँ हमने विद्युत का उदाहरण
दिया जो चेतन नहीं है। क्योंकि उसके पास ना ही मन है और ना ही बुद्धि ही है ना ही
चित्त है ना ही अहंकार यह सब एक प्रकार के सूक्ष्म यंत्र है जो साधक के साधन है यह
साधक ही यहाँ पर ज्ञान रूप है। वह साधक स्वयं विद्युत के समान है। वह जब अपने मन
से जुटता है। तो मन्त्र विचार कि उत्पत्ति होती है और यह विचार दो प्रकार के होते
है एक श्रेष्ठ और दूसरे निकृष्ट हो तो इन विचारों का अनुसरण करने वाला हमारा चित्त
जो चिन्तन करता है और इन विचारों से स्वयं का तादात्म्य स्थापित करके स्वयं अच्छा
और बुरा समझता है। जिससे स्वयं का भान होता है कि मैं सुन्दर हूँ या कुरूप हूं,
गरीब हूं, अमीर हूँ स्त्री हूं पुरुष हूँ
हिन्दू हूं, मुस्लिम हूँ सिख हूँ या ईसाई हूं। यह सब मिल कर
ही अहंकार का जन्म देते है। यह अहंकार, चित्त, या मन ज्ञान नहीं है। यह सूक्ष्म यंत्र रूप से है यह कार्य करते किस
प्रकार का कार्य इन्हें इसका कोई अनुभव नहीं होता है। इन सब का अनुभव करने वाला
चौथा रूप बुद्धि है। जो इनके द्वारा किये हुये अच्छे बुरे कर्मों के परिणाम जब
मिलता है तो उसको अनुभव करती है और कहती की यह कार्य तुमने ग़लत तरीके से किया
जिसका परिणाम ठीक नहीं आया जिसकी तुमने आशा की थी उसके विपरीत परिणाम आया। उदाहरण
के लिये एक आदमी ने बहुत सारी किताबी जानकारी प्राप्त की किस प्रकार से समन्दर में
तैरते है। उसने बहुत सारे लोगों के अनुभवों का अध्ययन किया और उसे अपना बना लिया।
जब वह समन्दर में गोते लगा कर उसकी गहराई में उतरता है, तो
उसे वास्तविक अनुभव होता है कि कितना जोखिम है उसके जीवन पर खतरा आ जाता है वह
मृत्यु को अपने चारों तरफ देखता है उसका सारा अनुभव किताबी जानकारी होती है। जिसे
वह भूल से ज्ञान समझ बैठा था। वास्तविक ज्ञान का उदय तभी होता है जब जीवन पर बहुत
खतरनाक संकट के बादल मँडराने लगते है। उसी बीच अचानक ऐसा होता है कि हमारे अन्दर
से कोई खड़ा हो जाता है। जो अपनी बुद्धि का सही उपयोग करता है मन को आदेश देता है
मन इन्द्रियों को आदेश देता है और इन्द्रीयाँ शरीर को संचालित करती है जो शरीर कभी
पैरों पर चलता था वह पानी में मछली की तरह तैरने लगता है और स्वयं को मृत्यु के
खतरे से बाहर निकाल लेता है। किताबों में इस ज्ञान के बारे में कभी नहीं पढ़ा था बुद्धि
ने जिसका उसने अभी सागर की गहराई में अनुभव किया। यह बुद्धि मन का ही परिष्कृत रूप
है, यह बुद्धि भी तीन प्ररकार की बताई गई प्रथम वह जो साधारण
जनों के पास होती है दूसरी वह जो किसी विषय के विशेषज्ञ के पास होती है तीसरी बुद्धि
सिर्फ उनके पास होती है जो परम तत्व ज्ञान अर्थात स्वयं को जानते है। स्वयं को
जानने के लिये ही वेद, उपनिषद, दर्शन
आदी को रचा गया। इसका मतलब यह नहीं है कि यही ज्ञान है जैसा की लोग समझते और
समझाये जाते है। यह अवश्य है कि यह उस शिखर की बातें करते है जिस प्रकार से कोई लेखक
जिसने अपने जीवन में कभी हिमालय के शिखर की यात्रा की है और उसको उसने अपने स्मरण
को बनाये रखने के लिये लेख बद्ध करके किताब रूप दे दिया है। वास्तविक सत्य को जो
जानना चाहते है उन्हें तो हिमालय की यात्रा करनी होगी और उस रास्ते में आने वाले
सभी जोखिम का हौसला और साहस, हिम्मत के साथ सामना करने होगा।
यह अवश्य है कि वह किताब यह सिद्ध करती है। जिस प्रकार से मिल के पत्थर हमें हमारे
मंजिल के बारे बता कर हमारे विश्वास को दृढ़ करते है। कि हमारी मंजिल है, जिसकी हमें यात्रा करनी है, जिसके लिये हमें सतत प्रयास
और दुःखों सुखों को जो भी रास्ते में मिले उनको सह कर अपनी सहनशीलता धैर्य का परिचय
दे कर मंजिल को उपलब्ध करना होगा। यह मात्र एक आमंत्रण है। इसी प्रकार से ज्ञान को
उपलब्ध करने के केवल किताबें या हमारे या किसी और के अनुभव को जान लेने से ज्ञान
नहीं होता है। यद्यपि इन सब साधनों सें हमारा पूर्णतः सर्वनाश होता है। हमें ज्ञान
तभी होता है, जब प्रयोग हम करते है।
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