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ध्यान की साधना और मन की दौड़

 

👉 ध्यान की साधना और मन की दौड़

 

🔶 एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, “मेरी पत्नी धर्म-साधना-आराधना में बिलकुल ध्यान नहीं देती। यदि आप उसे थोड़ा बोध दें तो उसका मन भी धर्म-ध्यान में रत हो।”

 

🔷 साधु बोला, “ठीक है।””

 

🔶 अगले दिन प्रातः ही साधु उस व्यक्ति के घर गया। वह व्यक्ति वहाँ नजर नहीं आया तो साफ सफाई में व्यस्त उसकी पत्नी से साधु ने उसके बारे में पूछा। पत्नी ने कहा, “वे जूते वाले की दुकान पर गए हैं।”

 

🔷 पति अन्दर के पूजा घर में माला फेरते हुए ध्यान कर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। त्वरित बाहर आकर बोला, “तुम झूठ क्यों बोल रही हो, मैं पूजा घर में था और तुम्हें पता भी था।””

 

🔶 साधु हैरान हो गया। पत्नी ने कहा- “आप जूते वाले की दुकान पर ही थे, आपका शरीर पूजा घर में, माला हाथ में किन्तु मन से जूते वाले के साथ बहस कर रहे थे।”

 

🔷 पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच जूते वाले की दुकान पर ही चला गया था।  कल ही खरीदे जूते क्षति वाले थे, खराब खामी वाले जूते देने के लिए, जूते वाले को क्या - क्या सुनाना है वही सोच रहा था। और उसी बात पर मन ही मन जूते वाले से बहस कर रहा था।

 

🔶 पत्नी जानती थी उनका ध्यान कितना मग्न रहता है। वस्तुतः रात को ही वह नये जूतों में खामी की शिकायत कर रहा था, मन अशान्त व असन्तुष्ट था। प्रातः सबसे पहले जूते बदलवा देने की बेसब्री उनके व्यवहार से ही प्रकट हो रही थी, जो उसकी पत्नी की नजर से नहीं छुप सकी थी।

 

🔷 साधु समझ गया, पत्नी की साधना गजब की थी और ध्यान के महत्व को उसने आत्मसात कर लिया था। निरीक्षण में भी एकाग्र ध्यान की आवश्यकता होती है। पति की त्रुटि इंगित कर उसे एक सार्थक सीख देने का प्रयास किया था।

 

🔶 धर्म-ध्यान का मात्र दिखावा निरर्थक है, यथार्थ में तो मन को ध्यान में पिरोना होता है। असल में वही ध्यान साधना बनता है। यदि मन के घोड़े बेलगाम हो तब मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या औचित्य?

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