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श्वेतकेतु

 

श्वेतकेतु

From Chandogya Upanishad, Chapter 6

श्वेतकेतु उद्दालक ऋषि के एक मात्र पुत्र थे। जब वे १२ वर्ष के हो गये तब पिता ने उन्हें गुरुकुल में जाकर विद्या ग्रहण करने के लिए कहा। जब श्वेतकेतु १२ वर्षों के पश्चात सब प्रकार की विद्या सीख कर वापस लौटे तब उनके पिता उद्दालक ने उनकी बातचीत की शैली में उद्दण्डता का भाव देखा।

तब एक दिन उद्दालक ने उसे अपने पास बुलाकर पूछा, “श्वेतकेतु, मेरे बच्चे, क्या तुमने उस ज्ञान को प्राप्त कर लिया जिसके द्वारा अश्रुत वाणी को सुना जा सकता है, अदृश्य वस्तु को देखा जा सकता है तथा अज्ञेय को जाना जा सकता है?” श्वेतकेतु आश्चर्य में पड गये। उन्हें उस ज्ञान की जानकारी नहीं थी जिसके बारे में उनके पिता ने पूछा था। अतः उन्होंने अपने पिता से उसे वह ज्ञान देने के लिए अनुरोध किया।

उद्दालक ने श्वेतकेतु से कहा, “पुत्र, मिट्टी के एक ढेले को जान लेने के पश्चात तुम मिट्टी से बनी हर वस्तु के बारे में जान सकते हो। उनमें केवल एक ही अन्तर होता है – नाम का, जो उक्ति का परिणाम है। परन्तु यह सत्य है कि ऐसी सभी वस्तुएँ एक ही तत्त्व से बनीं हैं। उसी प्रकार, सोने के एक अंश को जानकर तुम सोने से निर्मित हर वस्तु के बारे में जान सकते हो। इनमें केवल नाम का अन्तर होगा जो कथन का परिणाम है। परन्तु यह सत्य है कि ऐसी सभी वस्तुएँ एक ही तत्त्व से बनी हैं। और यही बात लोहे से बनी छोटे से छोटे यन्त्र के लिए भी सच है। इसी ज्ञान के बारे में मैं तुम्हें बता रहा हूँ।”

उद्दालक कहते गये, “मेरे बच्चे, आरम्भ में एक विशुद्ध सत्ता थी - एकमेव द्वितीयो नास्ति। इसने अनेक बनने का संकल्प लिया। तब इसने अपने आप को अग्नि के रूप में अभिव्यक्त किया, और अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई। जल से अन्न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उन वस्तुओं के क्रम परिवर्तन तथा मिश्रण के द्वारा अन्य अनेक वस्तुएं निर्मित हुईं तब प्राण प्रकट हुआ और प्राणीय सत्ताओं के बीच अपनी विभिन्न शक्तियों तथा कार्यों के साथ मनुष्य प्रकट हुआ।”

श्वेतकेतु ने बीच में अपने पिता को रोक कर पूछा, “मनुष्य निद्रावस्था में कहाँ जाता है?”

“मनुष्य आत्मा के साथ, शाश्वत सत्ता के साथ तदात्म हो जाता है। मनुष्य का मन एक लम्बी रस्सी के साथ एक खूंटे के साथ बँधा रहता है। यह गोल गोल घूमता रहता है और कहीं भाग नहीं सकता। जब मनुष्य मर जाता है तब उसकी वाक् शक्ति उसके मन में विलीन हो जाती है, उसका मन प्राण में तल्लीन हो जाता है, प्राण ज्योति में मिल जाता है और ज्योति परा शक्ति में विलीन हो जाती है। वह शक्ति सूक्ष्म है तथा विश्व में व्याप्त हो जाती है। यही सत्य है। यही आत्मा है। तुम वही हो, हे श्वेतकेतु।” उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझाया।

श्वेतकेतु इस उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुए और उन्होंने उस सर्वव्यापी शक्ति के बारे में कुछ अधिक जानना चाहा। उद्दालक ने एक तथा अनेक के विषय में उदाहरण देते हुए बहुत अच्छे ढंग से समझाया। उन्होंने कहा, “मेरे बच्चे, मधुमक्खियाँ मधु की बून्दें भिन्न-भिन्न फूलों से लाकर छत्ते में जमा करती हैं। छत्ते में आ जाने पर क्या बून्दें यह जान सकती हैं कि वे किस फूल से आईं? क्या उन्हें यह जानने की आवश्यकता है? उसी प्रकार ये सभी सत्ताएं जब उस एक मात्र सत्ता में विलीन हो जातीं हैं, तब उन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि वे कहां से आई हैं। जब वे एक सत्ता की चेतना के समुद्र में विलीन हो जातीं हैं तब वे एक हो जातीं हैं। वह सूक्ष्म होतीं हैं। वह हर वस्तु में व्याप्त रहती है। वही आत्मा है। वही तुम हो, हे श्वेतकेतु।”

उद्दालक सभी नदियों का दृष्टान्त देते हैं जो समुद्र में मिलकर अपनी व्यक्तिगत पहचान खो देतीं हैं। उसके पश्चात वे एक अन्य उदाहरण देते हुए कहते हैं कि “वृक्ष के एक भाग को काटने से पूरा वृक्ष नहीं मर जाता। केवल वही भाग मर जाता है जिसे काटा जाता है। इस प्रकार जो भाग इसके जीवन से वंचित किया जाता है वही निष्प्राण हो जाता है किन्तु जीवन स्वयं नहीं मर जाता। जिस शक्ति के द्वारा जीवन शाश्वत रूप से बना रहता है वही आत्मा है। तुम वही हो हे श्वेतकेतु!”

श्वेतकेतु ने पिता की बातें ध्यानपूर्वक सुनीं और कहा, “मेरे आदरणीय गुरुओं को निश्चय ही यह सत्य ज्ञात नहीं होगा, यदि ज्ञात होता तब अवश्य ही मुझे बता देते। पिता, मुझे और अधिक यह ज्ञान दीजिये।” उद्दालक ने उसका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। और उद्दालक तथा श्वेतकेतु के बीच संवाद निम्न प्रकार से हुआ-

उद्दालकः वट वृक्ष का एक फल ले आओ।

श्वेतकेतु – यह लीजिये, पिताजी।

उद्दालक – इसे तोड दो।

श्वेतकेतु – तोड दिया, पिताजी।

उद्दालक – वहाँ तुम क्या देखते हो?

श्वेतकेतु – ये छोटे-छोटे बीज।

उद्दालक – अब एक बीज को तोडो।

श्वेतकेतु – तोड दिया, पिताजी।

उद्दालक – वहाँ तुम क्या देखते हो?

श्वेतकेतु – कुछ नहीं, पिताजी।उद्दालक – “पुत्र, तुम जानते हो कि वहाँ एक सूक्ष्म तत्त्व है जिसे तुम नहीं देखते परन्तु उसी तत्त्व में विशाल वट वृक्ष का अस्तित्व है। पुत्र, विश्वास रखो जो कुछ अस्तित्व में है उसका स्वत्व या आत्मा उसके सूक्ष्म तत्त्व में होता है, यह सत्य है। यह आत्मा है और तुम श्वेतकेतु, वही हो। तत्त्वमसि।”

श्वेतकेतु ने अपने पिता से उसे और अधिक ज्ञान देने का अनुरोध किया। उद्दालक निरन्तर कहते गयेः

उद्दालक – पुत्र, एक चुटकी नमक ले आना।

श्वेतकेतु – पिताजी, मैं नमक ले आया।

उद्दालक – इसे जल में रख दो और कल प्रातःकाल मेरे पास आना।

श्वेतकेतु ने वैसा ही किया।

उद्दालक (दूसरे दिन प्रातःकाल) – पिछली रात जो नमक जल में रखा था, उसे ले आओ।

श्वेतकेतु – (जल में देखते हुए) पिताजी, अब यह दिखाई नहीं देता।

उद्दालक – निस्सन्देह अब यह नहीं होगा। यह जल में घुल गया है। अब ऊपर के जल को चखो। कैसा स्वाद है?

श्वेतकेतु – यह नमकीन है।

उद्दालक – कटोरे के मध्य का जल चखो। कैसा स्वाद है?

श्वेतकेतु – नमकीन है।

उद्दालक – अब तल का जल चखो। कैसा स्वाद है?

श्वेतकेतु – यह नमकीन है।

उद्दालक – जाओ, इसे फेंक कर आओ।

श्वेतकेतु ने ऐसा ही किया और वह वापस आया।

श्वेतकेतु – किन्तु पिता, यद्यपि मैंने इसे फेंक दिया है फिर भी नमक रह गया।

उद्दालक – “उसी प्रकार, यद्यपि तुम सूक्ष्म तत्त्व को न सुन सकते हो, न देख सकते हो, न जान सकते हो, फिर भी वह यहाँ है। प्रत्येक वस्तु जिसका अस्तित्व है उसका आत्मा उस सूक्ष्म तत्त्व में विद्यमान रहता है। वह सत्य है। वह आत्मा है। और तुम, श्वेतकेतु, वही हो (तत्त्वमसि)।”

जो कुछ यहाँ प्रस्तुत किया गया है वह ऋषि उद्दालक द्वारा श्वेतकेतु को प्रदान की गई सम्पूर्ण शिक्षा थी — जिसमें वे ब्रह्म के बारे में बहुत व्यापक विचार रखते हैं तथा उस तत् की सिद्धि की विधि बताते हैं – यह एक झलक मात्र है।

(छान्दोग्य उपनिषद, भाग-6 से)

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