ऐसा यज्ञ करो
महाभारत की समाप्ति के उपरान्त
पांडवों ने एक महान यज्ञ किया। कहते हैं कि वैसा यज्ञ उस जमाने में और किसी ने
नहीं किया था। गरीब लोगों को उदारतापूर्वक इतना दान उस यज्ञ में दिया गया था कि
उनके घर सोने से भर गये। वैसी दानवीरता को देख कर सबने दांतों तले उंगली दबाई।
इस यज्ञ की चर्चा देश-देशान्तरों
में फैली हुई थी। यहां तक कि पशु-पक्षी भी उसे सुने बिना न रहे। एक नेवले ने जब इस
प्रकार के यज्ञ का समाचार सुना तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। क्योंकि एक छोटे से यज्ञ
के उच्छिष्ट अन्न से छू जाने के कारण उसका आधा शरीर सोने का हो गया था। इस छोटे
यज्ञ में जूठन के जरा से कण ही मिले थे जिनसे वह आधा ही शरीर स्पर्श कर सका था। तब
से उसकी बड़ी अभिलाषा थी कि किसी प्रकार उसका शेष आधा शरीर भी सोने का हो जावे। वह
जहां यज्ञ की खबर सुनता वहीं दौड़ा जाता और यज्ञ की जो वस्तुएं इधर-उधर पड़ी मिलतीं
उनमें लोटता, किन्तु उसका कुछ भी प्रभाव न होता। इस बार इतने बड़े
यज्ञ की चर्चा सुनकर नेवले को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह अविलम्ब उसकी जूठन में
लोटने के लिये उत्साहपूर्वक चल दिया।
कई दिन की कठिन यात्रा तय करके
नेवला यज्ञस्थल पर पहुंचा और वहां की कीच, जूठन, यज्ञस्थली आदि में बड़ी व्याकुलता के साथ लोटता फिरा। एक बार नहीं कई-कई
बार वह उन स्थानों पर लोटा और बार-बार आंखें फाड़ कर शरीर की परीक्षा की कि देखें
मैं सोने का हुआ या नहीं। परन्तु बहुत करने पर भी कुछ फल न हुआ। तब वह एक स्थान पर
बैठ कर सिर धुनधुन कर पछताने लगा।
नेवले के इस आचरण को देखकर लोग उसके
पास इकट्ठे हो गये और इसका कारण पूछने लगे। उसने बड़े दुःख के साथ उत्तर दिया कि
इस यज्ञ की प्रशंसा सुनकर मैं दूर देश से बड़ा कष्ट उठा कर यहां तक आया था, पर
मालूम होता है कि यहां यज्ञ हुआ ही नहीं। यदि यज्ञ हुआ होता तो मेरा आधा अंग भी
सोने का क्यों न हो जाता? लोगों की उत्सुकता बढ़ी, उन्होंने नेवले से कहा आपका शरीर सोने का होने और यज्ञ से उसका संबंध होने
का क्या रहस्य है कृपया विस्तारपूर्वक बताइये।
नेवले ने कहा—सुनिए! एक छोटे से
ग्राम में एक गरीब ब्राह्मण अपने परिवार सहित रहता था। परिवार में कुल चार व्यक्ति
थे। (1) ब्राह्मण (2) उसकी स्त्री (3) बेटा (4) बेटे की स्त्री। ब्राह्मण अध्यापन
कार्य करता था। बालकों को पढ़ाने से उसे जो कुछ थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती थी, उसी
से परिवार का पेट पालन करता था। एक बार लगातार तीन वर्ष तक मेह न बरसा जिससे बड़ा
भारी अकाल पड़ गया। लोग भूख के मारे प्राण त्यागने लगे। ऐसी दशा में वह ब्राह्मण
परिवार भी बड़ा कष्ट सहन करने लगा। कई दिन बाद आधे पेट भोजन की व्यवस्था बड़ी
कठिनाई से हो पाती। वे बेचारे सब के सब सूखकर कांटा होने लगे। एक बार कई दिन उपवास
करने के बाद कहीं से थोड़ा-सा जौ का आटा मिला। उसकी चार रोटी बनीं। चारों प्राणी
एक-एक रोटी बांट कर अपनी थालियों में रख कर खाने को बैठने ही जाते थे कि इतने में
दरवाजे पर एक अतिथि आकर खड़ा हो गया।
गृहस्थ का धर्म हैं कि अतिथि का
उचित सत्कार करे। ब्राह्मण ने अतिथि से कहा—पधारिए भगवन्! भोजन कीजिये। ऐसा कहते
हुए उसने अपनी थाली अतिथि के आगे रख दी। अतिथि ने उसे दो-चार ग्रास में खा लिया और
कहा—भले आदमी, मैं दस दिन का भूखा हूं, इस एक
रोटी से तो कुछ नहीं हुआ उलटी भूख और अधिक बढ़ गई। अतिथि के वचन सुनकर ब्राह्मण
पत्नी ने अपनी थाली उसके आगे रखदी और भोजन करने का निवेदन किया। अतिथि ने वह भोजन
भी खा लिया, पर उसकी भूख न बुझी। तब ब्राह्मण पुत्र ने अपना
भाग उसे दिया। इस पर भी उसे संतोष न हुआ तो पुत्र वधू ने अपनी रोटी उसे दे दी।
चारों की रोटी खाकर अतिथि की भूख बुझी और वह प्रसन्न होता हुआ चलता बना।
उसी रात को भूख की पीड़ा से व्यथित
होकर वह परिवार मर गया। मैं उसी परिवार की झोंपड़ी के निकट रहता था। नित्य की
भांति बिल से बाहर निकला तो उस अतिथि सत्कार से बची हुई कुछ जूठन के कण उधर पड़े
हुए थे। वे मेरे जितने शरीर से छुए उतना ही सोने का हो गया। मेरी माता ने बताया कि
किसी महान् यज्ञ के कण लग जाने से शरीर सोने का हो जाता है। इसी आशा से मैं यहां
आया था कि पाण्डवों का यह यज्ञ उस ब्राह्मण के यज्ञ के समान तो हुआ होगा, पर
यहां के यज्ञ का वैसा प्रभाव देखा तो अपने परिश्रम के व्यर्थ जाने का मुझे दुख हो रहा
है।
कथा बतलाती है कि दान, धर्म
या यज्ञ का महत्व उसके बड़े परिमाण पर नहीं, वरन् करने वाले
की भावना पर निर्भर है। एक धनी का अहंकारपूर्वक लाखों रुपया दान करना एक गरीब के
त्यागपूर्वक एक मुट्ठी भर अन्न देने की समता नहीं कर सकता। प्रभु के दरबार में
चांदी सोने के टुकड़ों का नहीं, वरन् पवित्र भावनाओं का
मूल्य है।
✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 धर्मपुराणों की सत्कथाएं
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