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जीवन का चक्रव्यूह

जीवन का चक्रव्यूह 


         यह संसार एक प्रकार कि रणभूमि है, और इस रणभूमि में इस संसार को बनाने वाले ने सभी जीवों को इसमें उलझाने के लिये शरीर रुपी चक्रव्यूह रचा है । और इससे निकलने का मार्ग बहुत जटिल बनाया है, हम सब को जीवन इस लिये मिला है कि हम सब इस शरीर के चक्रव्यूह को तोड़ने कि तैयारी करें, और अन्तोगत्वा इस चक्रव्यूह को तोड़ कर इस संसार से जहां हमारे जीवन में हर एक कदम पर एक नया चक्रव्यूह हमारे बनाने वाले ने हम सब के लिये तैयार कर के रखा है। जिसको तोड़ना ही इस जीवन में हम सब कि सफलता कि गारंटी है जो ऐसा करने में असफल रहते है। वास्तव में वह सब जिंदा ही नहीं वह एक प्रकार कि चलती फिरती लाश के अतिरिक्त एक मिट्टी के पुतले से अधिक नहीं है।

 

       जिस प्रकार से अर्जुन से उसका पुत्र इस संसार रूप चक्रव्यूह को तोड़ने कि शिक्षा जब वह अपने मां कि गर्भ में था तभी प्राप्त कर लिया था। इसका तात्पर्य सिर्फ इतना है कि हम सब इस संसार में अवतरित होने या जन्म लेने से पहले ही इस कला को अपने मां कि गर्भ में ही सिख लेते है। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि हम सब को इस जीवन का जो मुख्य आधार ज्ञान है वह हमारी शरीर में तभी प्रवेश कर जाता है जब हम सब अपनी मां के गर्भ में रहते है। इस ज्ञानमय जीवन का बुद्धि पूर्वक ही इसका विकास का कारण है। सही समय पर उपयोग ना करने से अपने अज्ञान और आलस्य के कारण इसका अभ्यास नहीं करते है, जिससे इसका हराश होता है, जिसके कारण वह पुरुष सिवाय चलती फिरती लाश से अधिक नहीं है, जो इस ज्ञान का बुद्धि पूर्वक अपने जीवन में हर एक कदम पर करते है वह इस संसार के किसी भी चक्रव्यूह रूपी क्रुरचक्र में नहीं फंसते है।

 

    यहीं हमें यह महाभारत कि घटना शिक्षा देता है , क्योंकि इस चक्रव्यूह को तोड़ने कि ना बहुत बड़े अनुभव कि ना ही बहुत बड़े ताकत कि जरूरत है ना ही इसमें किसी प्रकार के उम्र ही मायने रखती है। क्योंकि महाभारत के युद्ध में क्या अभिमन्यु और अर्जुन के अतिरिक्त कोई दूसरा चक्रव्यूह को तोड़ने वाला नहीं था? ऐसा नहीं था कि बहुत लोग थे पांडव की सेना में लेकिन लोगों में उतना अधिक आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प नहीं था या उसकी बहुत कमी थी। भीम तो बहुत ताकतवर थे फिर वह क्यों नहीं चक्रव्यूह को तोड़ पाये?, इसका मतलब है कि इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिये ताकत से अधिक ज्ञान कि जरूरत थी।

 

       यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्य ज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुःख-सागर को पार करने में समर्थ होगे । श्री कृष्ण के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति का सही-सही ज्ञान इतना उत्तम होता है कि अज्ञान-सागर में चलने वाले जीवन-संघर्ष से मनुष्य तुरन्त ही ऊपर उठ सकता है । यह भौतिक जगत कभी-कभी अज्ञान सागर मान लिया जाता है तो कभी जलता हुआ जंगल । सागर में कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, जीवन-संघर्ष अत्यन्त कठिन है । यदि कोई संघर्षरत तैरने वाले को आगे बढ़कर समुद्र से निकाल लेता है तो वह सबसे बड़ा रक्षक है । भगवान से प्राप्त पूर्ण ज्ञान मुक्ति का पथ है । जैसा कि कृष्ण स्वयं कहते कि इस दिव्य ज्ञान रूपी नाव से जो अत्यन्त सुगम है, किन्तु उसी के साथ-साथ अत्यन्त उदात्त भी । यह जो दिव्य ज्ञान है वह किसी प्रकार कि वैज्ञानीक जानकारी नहीं है वह इससे कुछ विशेष है जैसा कि ऋग्वेद का मंत्र बहुत पहले ऋत के नाम संबोधित कर चुका है और यह ऋत तप से आच्छादित है इसकी रक्षा स्वयं इसको बनाने वाला करता है। वह स्वयं दिव्य ज्ञान रूप ही है।

 

     महाभारत का युद्ध चल रहा था। कौरवों ने चक्रव्यूह की रचना कर दी थी। पांडवों को ललकारा जा रहा था। बात अब आन कि बन गयी थी। सभी पांडव चिंतामग्न थे। चुनौती मिली थी:- या तो चक्रव्यूह तोड़ो या फिर हार मान लो। क्या इसी दिन के लिए महाभारत का युद्ध आरंभ हुआ था? इस बात पर अभी विचार हो ही रहा था कि किसे भेजा आये चक्रव्यूह भेदने के लिए। तभी एक वीर योद्धा आया जिसकी किसी को उम्मीद भी नहीं थी और वो था :- अर्जुन पुत्र अभिमन्यु ।

 

         अभिमन्यु पांडव पुत्र अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र था। सुभद्रा कृष्णा और बलराम की बहन थीं। कहते हैं उस समय सभी देवताओं ने पृथ्वीलोक पर अपने पुत्रों को अवतार रूप में धरती पर भेजा था। चन्द्रदेव अपने पुत्र का वियोग सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने कहा कि उनके पुत्र के अवतार को मात्र 16 वर्ष की आयु दी जाए।

 

  

        अभिमन्यु नाम के अनुसार ही (अभी = निर्भय, मन्यु = क्रोधी) निडर और क्रोधी स्वाभाव के था। अभिमन्यु का बाल्यकाल अपने ननिहाल द्वारिका में ही बीता। उनका विवाह महाराज विराट की पुत्री उत्तर से हुआ। उनके मरणोपरांत एक पुत्र ने जन्म लिया। जिसका नाम परीक्षित था। पांडवों के बाद उनका वंश उन्हीं ने आगे बढाया था।

 

   

 

  ऐसा समय शायद कभी न आता यदि अर्जुन वहां होते। अर्जुन जिसने अकेले ही कौरवों की सेना में हाहाकार मचा रखा था। पितामह भीष्म धराशायी हो चुके थे और अब द्रोणाचार्य ने सेनापतित्व संभाला था। दुर्योधन को अर्जुन का प्रक्रम देख चिंता होने लगी। तब दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से विचार विमर्श कर अर्जुन को युद्धभूमि से दूर ले जाने की बात सोची। उसने संशप्तकों से कह कर कुरुक्षेत्र से दूर लड़ने की चुनौती दिलवाई और उसे वह से हटा दिया। इसलिए पांडवों की इज्ज़त की रक्षा के लिए वीर अभिमन्यु को आगे आना पडा।

 

    युधिष्ठिर ने अर्जुन पुत्र अभिमन्यु को समझाया,

 

      पुत्र तुम्हारे पिता के सिवा कोई भी चक्रव्यूह भेदने की क्रिया नहीं जानता फिर तुम ये कसी कर पाओगे।”

 

   लेकिन अभिमन्यु जिद कर क बैठा था और उसने कहा,

 

          आर्य! आप मुझे बालक न समझें। मुझमे चक्रव्यूह भेदने का पूर्ण साहस है। पिता जी ने मुझे चक्रव्यूह के अन्दर जाने की क्रिया तो बताई थी किन्तु बाहर आने की नहीं। किन्तु मैं अपने साहस और पराक्रम के बल पर चक्रव्यूह को भेद दूंगा। आप चुनौती स्वीकार करें।”

 

     युधिष्ठिर ने फिर भी अभिमन्यु को समझाने की बहुत कोशिश की परन्तु अभिमन्यु कुछ भी सुनने को तैयार न था। अतः यह निर्णय लिया गया कि अभिमन्यु को चक्रव्यूह तोड़ने के लिए भेजा जाएगा। अभिमन्यु कि सहायता के लिए भी, धृष्टद्युम्न और सात्यकि को भेया गया।

 

    अभिमन्यु ने पहले द्वार पर बाणों की वर्षा करते हुए उसे तोड़ दिया और व्यूह के अन्दर घुस गया। भीमसेन और सात्यकि अभिमन्यु के साथ अन्दर न जा सके। अभिमन्यु किसी प्रचंड अग्नि कि भांति सब को जलाता हुआ आगे बढ़ा चला जा रहा था। सभी महारथी अपने हर बल का प्रयोग कर चुके थे लेकिन कोई भी उसे रोकने में समर्थ न हो सका।

 

       अभिमन्यु हर द्वार को एक खिलौने की भांति तोड़ता हुआ बिना किसी समस्या के आगे बढ़ रहा था। जिससे दुर्योधन और कर्ण तक चिंतित हो गए। उन्होंने ने द्रोणाचार्य से कहा कि अभिमन्यु तो अपने पिता अर्जुन की भांति पराक्रमी है। यदि उसे जल्दी ही न रोका गया तो हमारी सारी योजना असफल हो जायेगी।

 

     अब तक अभिमन्यु बृहद्बल और दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण को यमलोक पहुंचा चुका था। कर्ण, दु:शासन को पराजित कर राक्षस अलंबुश को उसने युद्धक्षेत्र से खदेड़ दिया था। जब कौरवों ने देखा कि उनका कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो रहा तो उन्होंने चल करने की सोची। सभी महारथियों ने जिनमें अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण, बृहद्बल और दुर्योधन थे, उस पर आक्रमण कर दिया। इन सब के बीच घिरने के बाद भी अभिमन्यु अपना रण कौशल दिखता रहा।

 

        कर्ण ने अपने बाणों से उसका धनुष तोड़ डाला। भोज ने उसका रथ तोड़ दिया और कृपाचार्य ने उसके रक्षकों को मार गिराया। अब अभिमन्यु पूर्ण रूप से निहत्था था। कुछ ही क्षणों में उसके हाथ में एक गदा आ गयी। उसने गदा से ही कई योद्धाओं को मार गिराया। लेकिन अकेला अभिमन्यु इन सब से कब तक लड़ पाता। तभी अचानक दु:शासन के पुत्र ने पीछे से एक गदा अभिमन्यु के सर पर मारा। अभिमन्यु उसी क्षण नीचे गिरा और उस वीर ने वहीं प्राण त्याग दिए।

 

  

 

   इस प्रकार एक वीर अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के जीवन का अंत हुआ। अभिमन्यु ने जाते-जाते सिखा दिया कि परिस्थितियां कितनी भी बिगड़ जाएँ इन्सान को धैर्य के साथ उनका सामना करना चाहिए। इस संसार में सिर्फ कोई युद्ध जीतना ही श्रेष्ठता नहीं कहलाती, युद्ध में अपना जौहर दिखाने वाले को भी संसार में सम्मान की नजर से देखा जाता है। इसीलिए आप अपने जीवन को योद्धा की तरह जायें ताकि लक्ष्य हासिल हो या न हो। समाज में आपकी एक अलग पहचान जरूर बन जाए।

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