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ब्रह्मांडिय मानव

 ब्रह्मांडिय मानव 

 

       इस ब्रह्माण्ड के मध्य में यह पृथ्वी बहुत ही क्षुद्र है यदि किसी और जगह से किसी दूसरे ग्रह से हम अपनी पृथ्वी को देखेंगे तो पता चलेगा कि यह पृथ्वी केवल एक छोटे से दशमलव से अधिक नहीं है। और यह पृथ्वी जो दशमलव सी दिख रही हैं। जिस पर बहुत सारे जीवों के साथ मानव भी रहता है, अपने सभी प्रकार कि शुभ और अशुभ वृत्तियों के साथ। और यहीं मानव इस पृथ्वी पर अपने ज्ञान बल छल बल से या किसी और प्रकार से साम, दान, दण्ड, भेद कि नीति का उपयोग करके सभी जीवों को अपने अधीन कर लिया है। यहीं नहीं यह मानव प्रकृत पर भी अपना अधिकार जताने लगा है, और उसको अपने बस में करने के लिये प्रयास रत है। इस मानव ने बड़े – बड़े पहाड़ों पर विजय पा लिया है, बड़ी - बड़ी नदियों को अपने बस में कर लिया है। इसने समन्दर कि गहराई को नाप लिया है, और उसमें से भी कीमती तत्वों को बड़ी आसानी से अपनी मशीनों के द्वारा निकाल रहा है। इसने यही नहीं अन्तरिक्ष में भी अपने लिये बसेरा बना लिया है, अपने तीव्र यन्त्रों कि सहायता से चन्द्रमा पर अपने पैर जमाने में भी कामयाबी हासिल कर लिया है। इसके अतिरिक्त इससे भी सुदूर जो ग्रह है उन पर भी अपने उपग्रहों को भेज दिया है। और वहाँ के बारे में अच्छी जानकारियों को एकत्रित कर लिया है। इसे अतिरिक्त ब्रह्माण्ड के और भी कितने रहस्यों पर से पर्दा उठाता जा रहा है। जो अब तक अतीत में नहीं जाना गया था, वह अब जानने का दावा कर रहा है। इसके पीछे मानव कि अदम्य साहस और हौसला के साथ कठिन परिश्रम किया है, हम सब अच्छी तरह से जानते हैं कि यह मानव कभी गुफाओं में रहता और जंगलों में शिकार करता था जानवरों का, और स्वयं जानवर के समान था। लेकिन इसने अपने बुद्धि का विकास निरंतर किया जिसके कारण इसने अपने को और आराम पूर्वक जीवन जीने के लिये स्वयं को तैयार किया है। इसने कई प्रकार के नये रास्तों का आविष्कार किया सभ्यता संस्कृति और परम्परा के क्षेत्र में रुढ़ीवादी मान्यताओं को तोड़ कर नये वैज्ञानिक आधारभूत सिद्धान्तों को अपने  लिये मिल का पत्थर बना लिया है। जिस मार्ग पर चल कर ही आज का हमारा आधुनिक मानव बना है। जिसने अपने मुट्ठी में मोबाईल को अलादिन के चिराग जैसा पकड़ लिया है। जिसके द्वारा यही से एक कमरे में बैठ कर पुरी पृथ्वी पर क्या हो रहा है? इसके अतिरिक्त वह ब्रह्माण्ड में होने वाले परिवर्तनों पर नजर रखने में सफल हो चुका है। आज का युग विज्ञान का युग है बीना विज्ञान कि सहायता के हम सब जहां पर आज है शायद हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे, इसके लिये बहुत बड़ी - बड़ी मानव ने कीमत भी चुकाई है कितने लोगों ने अपने जीवन को दाव पर लगा दिया है। केवल इसलिये कि हमारी आने वाली पीढ़ी सुखी और समृद्ध हो, और जिन कष्टों को मैंने झेला है उन कष्टों को हमारी आने वाली पीढ़ी को नहीं झेलना पड़े, इसका मतलब यह नहीं है कि मानव का काम पूरा हो चुका है, यद्यपि अब और काम कठिन हो चुका है। जितना ही कार्य को सरल किया इसके साथ मानव मन भी कठिनाई से भागने लगता है, और निरंतर यह सरलता कि तरफ ही भागता रहा। कठिनाई चुनौतियाँ और संघर्ष हमें ताकतवर और शक्तिशाली बनाते है। इसके विपरीत सरलता और सहजता हम सब को कायर निकम्मा कामचोर और आलसी बनाते है। आज के पास मानव के पास सब कुछ हो सकता है लेकिन ज्ञान कि निरंतर कमी हो रही है, ज्ञान का मतलब जानकारी से नहीं है जैसा कि हम सब समझते है किसी प्रकार कि जानकारी ही ज्ञान है। ज्ञान का मतलब रहस्य से है।

 

     जैसा कि ऋग्वेद का मंत्र कहता हैः- ऋतेन च सत्यंचाभिध्यातरसोध्यजायते।। अर्थात ऋत से सत्य उत्पन्न होता है, और सत्य के धारण करने से तप कि सिद्धि होती और इस तप से यह सम्पूर्ण जगत आच्छादित है। अर्थात बिना तप के या संघर्ष के किसी भी प्रकार कि सफलता कि संभावना नहीं है। सत्य से पहले जो है उसे यहां पर ऋत को बताया जा रहा है जो सत्य का आधारभूत स्थान है या सत्य कि जो जमीन है जहां सत्य उत्पन्न होता है। आज का विज्ञान हमें सत्य के करीब ले जाने में समर्थ कर सकता है यदि हम इसका सही और उचित उपयोग करते है। यह सबसे बड़ी शर्त है कि हमें इसका सही उपयोग करना होगा। यह एक संभावना है जो अभी तक संभव नहीं हो सका है, यह एक तरफा सत्य है हम दृश्यमय जगत कि व्याख्या विज्ञान कि सहायता से करने में समर्थ हो सकते है। लेकिन जो इस दृश्यमय जगत का मुलाधार है जिसके लिये इस मंत्र में ऋत का उपयोग किया गया है वह पूर्णरूपेण से विज्ञान कि पकड़ से छूट जाता है जिसको हम रहस्य कहते है। रहस्य का मतलब किसी पहेली से नहीं है पहेली कितनी भी कठिन हो उसको सुलझाया जा सकता है, जिसको सुलझाया जा सकता है वह पहली है। लेकिन जिसको सुलझाया नहीं जा सकता जितना ही हम सब उसको सुलझाने का प्रयास करते है वह उतना ही अधिक उलझती जाती है, यहीं यहां संसार में मानव के साथ हो रहा है इस स्वयं के जीवन को जितना अधिक सुलझाने का प्रयास किया वह उतना ही अधिक और उलझ गया, इस जीवन को ले कर जो वस्तु पहले बहुत सरल थी आज उसको हमने बहुत कठिन बना दिया है। उदाहरण के लिये  पहले के समय में लोग सहजता से संयुक्त रूप से बड़े- बड़े परिवारों में सहजता से रहते थे जब यह सब वैज्ञानिक यंत्रों कि इतना अधिक हमारे जीवन में घुसपैठ नहीं था, लोग एक दूसरे के बहुत करीब थे और लोग एक दूसरे के दुःख दर्द को बहुत आसानी से समझते थे। लोगों के बीच में बहुत कम दूरियां थी लोगों का हृदय एक दूसरे के लिये धड़कता था। जबकि आज विज्ञान ने इतने उन्नत और विकसित यंत्रों को ईजाद कर लिया है जब जिसके लिये यह ब्रह्माण्ड भी कम लग रहा है जिसकी दूरी को पाटने में समर्थ कर दिया है। इसके साथ हर व्यक्ति के दिलों में दूरियां बढ़ रही है सारे संयुक्त परिवार टूट और बिखर चुके हैं।

 

       इस रहस्य रूपी ज्ञान को समझने के लिये दो धारायें इस विकसित कि गई है एक तो वैज्ञानिक और वैचारिक है जिसका सूत्र है जैसा कि यह मंत्र है दूसरा इसका पहलू है प्रयोग जो दर्शनों और उपनिषदों में मिलता है इनका मतलब सिर्फ इतना है कि यह स्वयं को ही एक रहस्य बना देते है जो इस रहस्य को खोजने के लिये जाता है वह रहस्य को नहीं पाता है वह स्वयं रहस्य हो जाता है। जिस प्रकार से बूंद सागर कि खोज करने गई बूंद को सागर नहीं मिलता है वह स्वयं को सागर कि तलाश में विलीन कर देती है वह स्वयं सागर हो जाती है।  

 

          जैसा कि स्वयं गिता में कृष्ण कहते हैः-   अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।। ३६ ।।

 

  आगे रहस्य रूप दिव्य ज्ञान को सरल करते हुये योगेश्वर कृष्ण कहते हैः-  

 

      ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति । ७ ।।

 

     इस बद्ध जगत में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।

 

         तात्पर्य : इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परमेश्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है । ऐसा नहीं है कि बद्ध जीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्वर से एकाकार हो जाता है । वह सनातन का अंश रूप है । यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है । वेद वचन के अनुसार परमेश्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार विष्णुतत्त्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में, विष्णु तत्त्व निजी विस्तार (स्वांश) हैं और विभिन्नांश अर्थात् जीव, सनातन सेवक होते हैं । भगवान् के स्वांश सदैव विद्यमान रहते हैं । इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशो के अपने स्वरूप होते हैं । परमेश्वर के विभिन्नांश होने के कारण जीवों में भी उनके आंशिक गुण पाये जाते हैं, जिनमें से स्वतन्त्रता एक है । प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में, अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है । इसी स्वातंत्र्य के दुरुपयोग से जीव बद्ध बनता है और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है । दोनों ही अवस्थाओं में वह भगवान के समान ही सनातन होता है । मुक्त अवस्था में वह इस भौतिक अवस्था से मुक्त रहता है और भगवान के दिव्य सेवा में निरत रहता है । बद्ध जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान् की दिव्य प्रेम भक्ति को भूल जाता है । फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है ।

 

       न केवल मनुष्य तथा कुत्ते-बिल्ली जैसे जीव, अपितु इस भौतिक जगत के बड़े-बड़े नियन्ता-यथा ब्रह्मा-शिव तथा विष्णु तक, परमेश्वर के अंश हैं । ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं । कर्षति (संघर्ष करना) शब्द अत्यन्त सार्थक है । बद्धजीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो । वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है । जब मन सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं । जब रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्नयोनियों में चला जाता है । लेकिन इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है । लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट होता है । माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है - स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमतिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति । यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान का साक्षात्कार कर सकता है । यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान हैं, उन्हें समझ सकता है । स्मृति से भी यह ज्ञात होता है-वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः- वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान जैसे शरीरों में रहते हैं । जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा विष्णु मूर्ति के विस्तार (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता । दूसरे शब्दों में, भगवान की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है ।

 

     ममैवांश शब्द भी अत्यन्त सार्थक है, जिसका अर्थ है भगवान के अंश । भगवान का अंश ऐसा नहीं होता, जैसे किसी पदार्थ का टूटा खंड़(अंश) । हम द्वितीय अध्याय में देख चुके हैं कि आत्मा के खंड नहीं किये जा सकते । इस खंड की भौतिक दृष्टि से अनुभूति नहीं हो पाती । यह पदार्थ की भाँति नहीं है, जिसे चाहो तो कितने ही खण्ड कर दो और उन्हें पुनः जोड़ दो । ऐसी विचारधारा यहाँ पर लागू नहीं होती, क्योंकि संस्कृत के सनातन शब्द का प्रयोग हुआ है । विभिन्नांश सनातन है । द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में भगवान् का अंश विद्यमान है (देहिनोस   इसको स्मिन्यथा देहे) । वह अंश जब शारीरिक बन्धन से मुक्त हो जाता है, तो आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठ लोक में अपना आदि आध्यात्मिक शरीर प्राप्त कर लेता है, जिससे वह भगवान् की संगति का लाभ उठाता है । किन्तु ऐसा समझा जाता है कि जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान् के ही समान है, जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण होते हैं ।

 

    इसको और स्पष्ट यजुर्वेद का यह मंत्र करता हैः-

 

ओ३म् वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णं तमसो परस्तात् ।

तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ यजु० ३१।१८

 

       परमेश्वर स्वयं कहते है कि हे मनुष्यों  वेदों में बताये गये महान पुरुषों अनुसरण करो यदि तुम इस संसार से और इसके चक्रव्यूह से निकलना चाहते तो, आगे वह कहते है कि वह पुरुष कैसा है?  इसकी पहचान बताते हुए वह कहते है कि वह पुरुष तेजस्वी और ज्ञानवान होगा प्रकाशवान होगा जैसा कि सूर्य अपने प्रकाश कि किरणों से सारे जगत के अन्धकार को नष्ट कर देता है ऐसे ही वह पुरुष जो ज्ञानवान होगा वह संसार के अज्ञान अन्धकार से आच्छादित चक्रव्यूह से निकलेगा। वैसे हि जैसे सूर्य अपनी किरणों के द्वार बादलों को छिन्न भिन्न करके अपनी प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचाता है। जिस प्रकार से सूर्य बादलों को परास्त करता है अपनी ज्वलनशील प्रकाश किरणों से मेघों को नष्ट करता है ऐसे ही तुम्हें भी अपने आत्मा के प्रकाश से अपने मनों मस्तिष्क से अज्ञान अंधकार और अपनी छुद्र मान्यताओं आडम्बरों को तोड़ कर इस शरीर से पार तक जो ले जाने वाला तुम्हारा अस्तित्व है उसके प्रकाश से आलोकित हो कर के इस संसार रूप शरीर के चक्रव्यूह से पार होने में समर्थ हो सकते हो। अगली पंक्ति मंत्र की कहती कि जब तब तुम उस को नहीं जान लेते जो सूर्य के समान प्रकाश को देने वाला है तुम्हारी आत्मा तब तुम इस मृत्यु मय संसार के चक्रव्यूह को तोड़ने में सफल हो जाते हो इसके सिवाय कोई दूसरा मार्ग नहीं है। 

 

     नान्य: पन्था का अर्थ है इसके भिन्न अन्य कोई मार्ग नहीं है।   

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