शब्द प्रमाण
वेद जो ईश्वरकृत्
माने जाते हैं और ऋषि ब्रह्मा, गौतम, कणाद,
कपिल से लेकर दयानन्द तक आप्त पुरुषों के जो वचन हुए वे
शब्द प्रमाण की कोटि में आते हैं। कोई भी विद्वान् कोई बात कहे तो उसे शब्द प्रमाण
से मिलाकर निर्णय करें। जैसे ब्रह्माकुमारी का ईश्वर को परमधाम में मानना शब्द
प्रमाण के विरुद्ध जाता है तो नहीं मानना चाहिए। ईश्वर है या नहीं जब सन्देह होता
हो तो शब्द प्रमाण लाकर निर्णय करें। यदि शंका हो कि अपने मन की बात मानें या शब्द
प्रमाण की ? सो अपनी बात को ठुकरा दें और शब्द प्रमाण
को अपना लें। अपनी बात का स्वयं विरोध करना पड़ता है।
एक व्यक्ति चार
आने की चोरी करता है, जब सात्त्विक ज्ञान उभरता है। वही
लाख रुपये पाने पर जमा करा देता है। ज्ञान का स्तर उतरता चढ़ता रहता है। अत: अपने
अनुभव-प्रमाण का आग्रह छोड़ शब्द (वेद) प्रमाण को ही स्वीकार करें। अज्ञानी
व्यक्ति भयभीत, कट्टर, हठी, दुराग्रही आक्रामक होता है। ज्ञानी व्यक्ति निर्भय, विवेकी, सहनशील सब को सुखकारक होता है।
ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता
ईश्वर के स्वरूप
को बताने के लिये वेद में आता है।
तदेजति तन्नैजति
तह्बूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य
सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:॥
(यजु. ४०/५)
परमात्मा सब जगत्
को यथायोग्य अपनी-अपनी चाल पर चला रहा है। सो अविद्वान् समझते हैं कि वह भी चलता
होगा, परन्तु वह सब जगहों में भरा है, अत: कभी चलायमान
नहीं होता। 'तन्नैजति' वह परमात्मा कभी नहीं चलता, सर्वत्र एक रस निश्चल
होके भरा है। 'तद्बूरे' दोषयुक्त मनुष्यों से वह ईश्वर बहुत दूर है। 'तद्वन्तिके' सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी विद्वान् विचारशील पुरुषों के
अत्यन्त निकट है। वह आत्मा का भी आत्मा है क्योंकि वह सब जगत् के भीतर और बाहर तथा
मध्य अखण्ड एकरस सब में व्यापक हो रहा है।
ईश्वर के स्वरूप को जताने का बार-बार वेद में वर्णन आता है, क्योंकि ईश्वर में इतना सामर्थ्य, शक्ति, ज्ञान है कि समस्त विश्व ईश्वर के सहारे से ही चलता है। बिना ईश्वर की शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान विज्ञान के कोई भी जड़-चेतन पदार्थ व्यवहार में अपने आपको स्वयं उपस्थित नहीं कर सकता। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, अच्छे-बुरे-कर्म करने के लिये। पर करने का सामर्थ्य जो कुछ बल-ज्ञान-साधन-सम्पत्ति आदि है वह सब ईश्वर का दिया हुआ है। जीवात्मा ईश्वर के दिये हुए सामर्थ्य के बिना कुछ भी नहीं कर सकता। जो ईश्वर के विषय में यथायोग्य नहीं जानता-मानता-करता वह कृतघ्न है। यदि जानता-मानता-करता है तो उसका आकर्षण, प्रीति, झुकाव ईश्वर की ओर होता है। उसका ईश्वर से सम्बन्ध जुड़ता है।
एजति = चलता है, नैजति = नहीं चलता है। गुणों सहित ईश्वर को बताना 'सगुण वर्णन', जो गुण ईश्वर में नहीं उन्हें बताना 'निर्गुणवर्णन' है। ईश्वर नहीं चलता-सब जगह भरा है, एक जगह से दूसरी जगह जा ही नहीं सकता। आना-जाना एक देशीय का होता है। ईश्वर खड़ा भी है और सब जगह है। जो व्यक्ति ऐसा समझ लेता है उसका मन कहाँ दौड़ेगा, कहाँ भागेगा? पर व्यक्ति ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ने से भागता है, डरता है; क्योंकि ऐसा करने पर उसकी आज्ञानुसार वैसा ही बनना पड़ेगा।
ईश्वर को
योगाभ्यासी ज्ञान से बुद्धि के माध्यम से देखते हैं। जो अधर्म से अपने को नहीं
हटाते उनसे ईश्वर दूर है, पास में रहते हुए भी नहीं दीखता।
ईश्वर से सम्बन्ध नहीं टूट सकता, चाहे कहीं भी दौड़ लगाओ
वह सर्वत्र पहले ही खड़ा मिलेगा।
ईश्वर से उत्पन्न
जगत्
"ईशावास्यमिदं
सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्"। ईश्वर से पूर्व कोई पदार्थ नहीं था। इस वाक्य
से भ्रान्ति हो सकती है। यह संसार ईश्वर के स्वरूप से उत्पन्न हुआ है, ऐसे स्थल पर भ्रान्ति हुआ करती है कि ईश्वर के सिवाय कुछ नहीं था तो जीव और
प्रकृति भी उससे उत्पन्न हुए। परन्तु यहाँ वक्ता का अभिप्राय व प्रकरण भी ध्यान
में रखना पड़ता है। इसका एक अर्थ है जो ये पदार्थ प्रकृति से बने हैं, वे ईश्वर से पहले नहीं थे। इसका दूसरा अर्थ-जीव व प्रकृति के होते हुए भी
ईश्वर से पहले इनका कुछ भी व्यापार (व्यवहार में) न था।
ईश्वर से जगद्
उत्पन्न हुआ अर्थात् ईश्वर ने बनाया तो बना, जैसे पाचक से
रोटी बनी। इसका मतलब पाचक ने रोटी आटे में से बनाई, न कि अपने शरीर में से ही रोटी बनाई। सो ईश्वर ने प्रकृति से जगत् बनाया न कि
अपने में से (= अपने स्वरूप से) जैसे मकड़ी अपने शरीर में से जाला बनाती है, न कि स्वयं अपनी आत्मा में से। 'समुद्र नदी का दृष्टान्त
' इसमें दो बातें हैं। क्या समुद्र में नदी जैसे योग-संयोग वाले परमाणु हैं।
दूसरा नदियाँ समुद्र में मिलती हैं तो नदी के जल कण अपना अस्तित्व नहीं खोते।
समुद्र के परमाणु भी रहते हैं और नदी के अपने परमाणु भी रहते हैं।
सर्वत्र बुद्धि
पूर्वक क्रियायें होती हैं। क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है। ईश्वर सर्वज्ञ है।
करोड़ों लोगों द्वारा ईश्वर को ठीक न मानने-जानने से चरित्र, विद्या, परोपकार आदि का नाश हो गया।
'न तस्य प्रतिमा अस्ति' ईश्वर को तोलने-मापने का साधन नहीं है। उस ईश्वर के सदृश भी अन्य पदार्थ नहीं
है। जनता ईश्वर को वेद के अनुरूप न समझने से, ईश्वर को सही
मानने वालों को पक्के नास्तिक और अशुद्ध मानने-जानने वालों को आस्तिक मान रही है।
इस से गलत रूप में पूजा पाठ बढ़ रहे हैं। गलत रूप में माना जायेगा तो उसकी आज्ञा, उपदेश की अवज्ञा होगी। पूरा जीवन पूजा-पाठ में बीत गया पर ईश्वर से सम्बन्ध
नहीं जुड़ा।
ईश्वर मित्र
यदङ्ग दाशुषे
त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि। तवेतत्सत्यमङ्गिरः॥
(ऋ. १/१/६)
हे (अङ्ग) मित्र
! जो आपको आत्मा आदि दान करता है, उसको (भद्रम्)
व्यावहारिक और पारमार्थिक सुख अवश्य देते हो, (अङ्गिरः) हे
प्राणप्रिय ! यह आपका सत्यव्रत है कि स्वभक्तों को परमानन्द देना, यही आपका स्वभाव हमको अत्यन्त सुखकारक है, आप मुझको ऐहिक और
पारमार्थिक इन दोनों सुखों का दान शीघ्र दीजिये, जिससे सब दुःख दूर हों, हम को सदा सुख ही रहे।
जो हमारा कल्याण
हित चाहता है वह ईश्वर हमारा मित्र है। लोक में भी कुछ मित्र होते हैं पर दोनों
में अंतर है। संसार में कोई एक काल में मित्र तो अन्य काल में अमित्र हो जाता है; परन्तु ईश्वर किसी भी काल में कभी भी मित्रता नहीं छोड़ता। ईश्वर की मित्रता
अनादि काल से है, अनन्त काल तक रहेगी। मनुष्य की
मित्रता बदलती रहती है।
हमें बिच्छु, सर्प आदि से अपनी रक्षा तो करनी है, परन्तु उन्हें भी
आत्मवत् देखना है। डरना व रक्षा करना अलग-अलग है। इनसे बचना भी पड़ेगा व मित्र भी
समझना पड़ेगा। जैसे बच्चा माँ के माथे पर लोटा मारे तो माँ उससे बचती है पर प्यार
तो फिर भी करती है। जो गुरु हित के लिये दण्ड देवे वह ठीक है। परन्तु आज उलटा-कि
जो दोष करने पर दण्ड देवे वह बुरा और न देवे वह अच्छा।
दाशुषे-जो-दान-सेवा
करता है उसको निश्चय से लौकिक सुख व मुक्ति सुख ईश्वर देता है।
ईश्वर होता
अग्निह्होता
कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरागमत्।
(ऋ. १/१/५)
हे सर्वदृक् ! सब
को देखने वाले (क्रतुः) सब जगत् के जनक (सत्यः) अविनाशी (चित्रश्रवस्तमः) आश्चर्य
श्रवणादि,
आश्चर्यगुण, आश्चर्य शक्ति, आश्चर्य रूपवान् और अत्यन्त उत्तम आप हो, आपके तुल्य वा आप
से बड़ा कोई नहीं है, हे जगदीश ! (देवेभिः) दिव्य गुणों के
सह वरत्तमान हमारे हृदय में आप प्रकट होवो सब जगत् में भी प्रकाशित हों, जिससे हम और हमारा राज्य दिव्यगुण युक्त हो, वह आपका ही है। हम तो आपके पुत्र तथा भृत्यवत् हैं।
अग्निहर्होता।
उसका नाम 'होता' है जो हमको
अच्छी-अच्छी चीजें देता है। ईश्वर हमको समस्त विश्व के पदार्थं को बना कर देता है।
दूसरे हमें ज्ञान-विज्ञान देता है, आनन्द-बल देता है
सो वह होता है। दूसरा अर्थ है लेने वाला। मुक्ति में जब अवधि पूरी होती है लौटा
देता है। आज धनपति है कालान्तर में नहीं रहता। यह समझे कि ईश्वर ने लौटा लिया सो
दुःखी नहीं होता। मौत का पता लग जाये तो करोड़पति दानी बन जाता है।
कवि = ईश्वर
सर्वज्ञ कहा गया, अरबों लोग जो कुछ भी क्षण-क्षण में
सोचते-करते हैं उसे ईश्वर प्रतिक्षण जानता है। ईश्वर की जानकारी के बाहर कुछ नहीं
होता। जब ईश्वर सब कुछ जान रहा है तो मनुष्य के जानने न जानने से क्या डरना। तो
अपने आप जानबूझ कर ईश्वर को अर्पण हो जाओ, वरना वह सब कुछ
जान तो रहा ही है।
जो मैं सोचूँगा, बोलूँगा, करूँगा उसके अच्छे-बुरे फल से मैं बच नहीं
सकता। यह अनुभव करना अत्यन्त कठिन है। यदि शत-प्रतिशत सोचता है। कि बुरे का फल
अवश्य मिलेगा, तो बुराई करने का विचार तक भी नहीं कर
सकता ।
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