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मानव जीवन दो धाराओं में

 

मानव जीवन दो धाराओं में


 

मानव जीवन दो धाराओं में बहता चलता है या तो भोगवाद या योगवाद। मानव जाति भोगवाद में आकण्ठ डूब चुकी है। हजारों पतंगों की भाँति विषयाग्नि में जल रहे हैं ।


योगवाद की परिभाषा वेद के अनुसार यह नहीं कि धनादि न कमाएँ, सुख समृद्धि न बढ़ायें, परन्तु यह है कि त्याग भाव से सब भूतात्माओं के कल्याणार्थ भी उपयोग में लायें। प्रकृति की उपासना में वैज्ञानिक आकण्ठ डूबे हैं और सामान्य संसारी जन नाच-गान, खान-पान, तमाशे में डूब रहे हैं। जीवात्मा या तो ईश्वर की या विकृति की उपासना सतत करता ही रहता है। वेद कहता है सम्भूति का प्रयोग करता हुआ अमृत को प्राप्त कर। धन कमाओ तो धर्म से कमाओ। येन केन प्रकारेण धन मिल जाये यह भोगवाद है।


"रोटी-कपड़ा और मकान, मांग रहा है हिन्दुस्थान" क्या मानव केवल पशु ही होकर रह गया है ? "पहले पेट पूजा फिर काम दूजा" ही नारा बनकर रह गया। कभी इस देश में महाराजा अश्वपति गौरव से उद्घोष करते थे कि मेरे राज्य में कोई कंजूस नहीं, अग्निहोत्र न करने वाला कोई नहीं, कोई पुरुष व्यभिचारी नहीं तो स्त्री की तो बात ही क्या ? यह था योगवाद का जमाना। आज सर्वथा इससे उलटा हो गया। यह भौतिकवादियों ने सब अव्यवस्था बना डाली । कार्ल मार्क्स का रूस धराशायी हुआ, अमेरीका भी जो केवल भौतिकवाद पर डटा हुआ चलेगा तो अध्यात्मवाद के बिना मानव जाति के सर्वनाश का कारण सिद्ध होगा। योगवाद धर्म-अर्थ-काम से लेकर मोक्ष तक की प्राप्ति का मार्ग है। पर भौतिकवाद में भोग ही सब कुछ है। धन कमाने में कोई नियम नहीं।


सम्प्रदायवादी, ईश्वर को गलत मानने वाले परस्पर रोज झगड़ते हैं। केवल चेतनावाद या केवल जड़वाद दोनों निष्फल हैं। जड़ चेतन दोनों के बिना व्यवहार नहीं चलेगा।


ईश्वर को न मानना हानिकारक है तो गलत मानना भी हानिकारक है। कुछ ने जड़ प्रकृति व चेतन आत्मा को तो माना, पर ईश्वर को बाहर निकाल दिया जैसे जैन मतावलम्बी। कोई भी व्यक्ति सत्य वैदिक त्रैतवाद को माने बिना सफल नहीं होगा।


वर्तमान के दो विश्व युद्ध और प्राचीन महाभारत युद्ध भी भौतिकवाद का ही परिणाम था। मतभेद और स्वार्थ के रहते हम एक नहीं हो सकते। आज नीचे से ऊपर तक इक्का-दुक्का भी मुश्किल से मिलेगा जो देश को न चूस रहा हो, देश-भाषा-जाति भले नाश को प्राप्त हो जाये। ईश्वर की आज्ञा, नियम न मानने वाले भौतिकवादियों को चैन नहीं, वे महादुःखी हैं।


मानव निर्माण - योगविद्या से ही वास्तविक रूप में मानव निर्माण होता है। इसके बिना कोई भी व्यक्ति शुद्ध- पवित्र-न्यायकारी-पक्षपात रहित नहीं हो पाता। जितना भी भौतिक ज्ञान-विज्ञान व उपभोग साधन-सामग्री बढ़ी हो, फिर भी समाज में सुख शांति नहीं आई है। इसका कारण शिक्षा प्रणाली में दोष है। ज्ञान-कर्म-उपासना का शुद्ध


और अशुद्ध होना क्रमशः मानव निर्माण और विनाश का कारण होता है। आज के पढ़े-लिखे शिक्षित अपने को महान् समझते हैं और विद्वान् ऋषियों को कुछ नहीं जानते-मानते। विदेशियों के लिखे इतिहास-चरित्र पढ़ाये सिखाये जाते हैं, जो ऋषियों के आचरण को धराशायी कर रहे हैं। भौतिकवादी सब भेड़चाल से नष्ट-भ्रष्ट हो रहे हैं। यद्यपि विनाश आत्मा का नहीं हो रहा है किन्तु विनाश नाम है महाक्लेश का जिसमें मानव समाज डूबता जा रहा है। जहाँ धार्मिक विद्वान् चिकित्सक प्राणों का दाता होता है वहीं अधार्मिक चिकित्सक धन-प्राणों का हरने वाला बन जाता है। शरीर के साथ जिसकी आत्मा-मन व इन्द्रियाँ भी प्रसन्न हो वह स्वस्थ और जिसका मिथ्या आचरण हो, आत्मा व मन अशुद्ध हों वह अस्वस्थ है। आधुनिक विद्या के साथ-साथ आत्मा-ईश्वर- धर्म को जोड़ो तो सफलता मिलेगी अन्यथा नहीं ।


मानव जीवन के मुख्य प्रयोजन की सिद्धि योगवाद से है न कि भोगवाद से। वेदानुसार मानव जीवन का मुख्य प्रयोजन है दुःख व दुःख के कारण से छूटना और सुख व सुख के कारण (उपाय) उपलब्ध करना। इन चारों का नाम प्रयोजन है। जिस कार्य को सामने रख के उसमें प्रवृत्त होता है वह मानव जीवन का लक्ष्य-प्रयोजन होता है।


दु:ख व दु:ख के कारण और सुख व सुख के कारण लाखों वैज्ञानिक गवेषणा कर रहे हैं उससे लगता है कि विश्व की बहुत बडी उन्नति हो रही है, परन्तु वास्तविक रूप में विश्व का भयंकर पतन हो रहा है । आज मानव अत्यन्त भयभीत है, अशान्त है। निदर्दोष व्यक्तियों को लोग राख बना कर रख देते हैं। कोई पूछने वाला नहीं। जिस काम के करने से सुख नहीं मिल रहा और दु:ख नहीं हट रहा तो यह उन्नति नहीं पतन है। यह भोगवाद का परिणाम है।


भोगवादी सोचते हैं जितनी धन सम्पत्ति अधिक होगी उतना अधिक सुख होगा, परन्तु भोग मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है, क्योंकि भोग भोगने से सम्पूर्ण दुःखों की निवृत्ति नहीं होती। योग द्वारा ईश्वर प्राप्ति को जाने माने बिना व्यक्ति के दु:ख और दु:ख के कारणों की निवृत्ति नहीं हो सकती।


सुख गुण दो द्रव्यों का है। सुख गुण ईश्वर का है। प्रकृति का भी गुण सुख है पर दोनों सुखों में अन्तर है। प्रकृति का 'सुख-दुःख मिश्रित' है और क्षणिक होता है। प्रकृति के सुख में चार प्रकार का दुःख है - परिणाम, ताप, संस्कार और गुण-वृत्ति-विरोध दुःख। जबकि ईश्वर के आनन्द में ये चार दु:ख, उत्पत्ति-विनाश, हरास-वृद्धि कभी नहीं होते।

 

ऋषियों का संदेश


(१) विषयों को भोगकर, इन्द्रियों की तृष्णा को समाप्त करने वाला तुम्हारा विचार ऐसा ही है, जैसा कि आग को बुझाने के लिये उसमें घी डालना।


(२) यह मानना तुम्हारा सबसे बड़ा अज्ञान है कि "मैं कभी मरूँगा नहीं", "यह शरीर बहुत पवित्र है"। "विषय भोगों में पूर्ण और स्थायी सुख है"। तथा "यह देह ही आत्मा है"।


(३) तुम्हारे मन में अच्छे या बुरे विचार अपने आप नहीं आते। इन विचारों को तुम अपनी इच्छा से ही उत्पन्न करते हो, क्योंकि मन तो यन्त्र के समान जड़ वस्तु है, उसका चालक आत्मा है।


(४) किसी के अच्छे वा बुरे कर्म का फल त्काल प्राप्त होता न देखकर तुम यह मत विचारो कि इन कर्मों का फल आगे नहीं मिलेगा। कर्म-फल से कोई भी बच नहीं सकता, क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा न्यायकारी है।


(५) संसार (= प्रकृति), संसार को भोगने वाला (=जीव) तथा संसार को बनाने वाले (= ईश्वर) के वास्तविक स्वरूप को जानकर ही तुम्हारे समस्त दु:ख, भय, चिन्तायें समाप्त हो सकती हैं और कोई उपाय नहीं है ।


(६) 'मनुष्य जीवन ईश्वर प्राप्ति के लिये मिला है'। इस मुख्य लक्ष्य को छोड़कर अन्य किसी भी कार्य को प्राथमिकता मत दो, नहीं तो तुम्हारा जीवन चन्दन के वन को कोयला बनाकर नष्ट करने के समान ही है।


(७) तुम्हारे जीवन की सफलता तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकारादि अविद्या के कुसंस्कारों को नष्ट करने में ही है। यही समस्त दुःखों से छूटने का श्रेष्ठ उपाय है ।


(८) जब तक तुम संसार के सुखों के पीछे छिपे हुए दुःखों को समझ नहीं लोगे, तब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा। बिना वैराग्य के चञ्चल मन एकाग्र नहीं होगा, एकाग्रता के बिना समाधि नहीं लगेगी, समाधि के बिना ईश्वर का दर्शन नहीं होगा, बिना ईश्वर-दर्शन के अज्ञान का नाश नहीं होगा और अज्ञान का नाश हुए बिना दु:खों की समाप्ति और पूर्ण तथा स्थायी सुख (=मुक्ति) की प्राप्ति नहीं होगी।


(९) तुम इस सत्य को समझ लो कि 'अज्ञानी मनुष्य ही जड़ वस्तुओं (=भूमि, सोना, चाँदी आदि) तथा चेतन वस्तुओं (= पति, पत्नी, पुत्र, मित्र आदि) को अपनी आत्मा का एक भाग मानकर, इनकी वृद्धि होने पर प्रसन्न तथा हानि होने पर दुःखी होता है'


(१०) तुम्हारे लोहे रूपी मन को, विषय भोगरूपी चुम्बक सदा अपनी ओर खींचते रहते हैं। ज्ञानी मनुष्य विषय भोगों से होने वाली हानियों का अनुमान लगाकर इनमें आसक्त नहीं होते, किन्तु अज्ञानी मनुष्य इनमें फॅस कर नष्ट हो जाते हैं।


(११) महान् ज्ञान, बल, आनन्द आदि गुणों का भण्डार, ईश्वर एक चेतन वस्तु है, जो अनादि काल से तुम्हारे साथ है, न कभी वह अलग हुआ , न कभी अलग होगा। उसी संसार के बनाने वाले, पालन करने वाले, सबके रक्षक, निराकार की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना तुम सब मनुष्यों को सदा करनी चाहिए ।


प्रमाण से परीक्षण

 

योग का सम्बन्ध प्रमाणों के परीक्षण द्वारा स्थापित होता है। जो प्रमाण की कसौटी पर कसकर सत्य को नहीं जानते वे योग विद्या नहीं सीख सकते। अंध परम्परा में ध्यान-योग के नाम से, बिना सोचे समझे, बिना प्रमाणों के कुछ बातों का चलन हो गया। उसमें वेद, दर्शन, संवाद आदि द्वारा सत्यासत्य निर्णय किये बिना ही बातों को मान लेते हैं। पर वह सत्य परंपरा नहीं, बल्कि प्रमाणों से जो सत्य ठहरे उसे मानना चाहिए।


प्रमाण से ईश्वर-आत्मा की सिद्धि होती है, इसलिये वे हैं; न कि मैं मानता हूँ इसलिये हैं ? सामान्य व्यक्तित अपनी बुद्धि की प्रधानता मानकर चलते हैं। कई अड़ जाते हैं कि मेरा तो ऐसा प्रत्यक्ष है। मेरा अनुभव है ! मेरा अनुभव है ! कह-कह कर बात को टालते रहते हैं। अनुभव गलत भी हो सकता है। भ्रम हो सकता है। अत: जो प्रमाणों से सिद्ध हो वह सत्य, न कि मैं मानता हूँ इसलिये सत्य। वह बात सीधी या उलटी, गलत या ठीक भी हो सकती है। हाँ, कसौटी पर कसने पर यदि ठीक होगी तो वह ठीक मानी जायेगी।


प्रत्यक्ष प्रमाण


"इन्द्रियार्थसन्निकर्ष.."। (न्याय दर्शन।) इन्द्रियों का विषयों के साथ मेल होने से उत्पन्न ज्ञान। (जो पाँच प्रकार का होता है) एक तो अव्यपदेश्यम्=वाणी से कहा गया न हो, अर्थात् जो ज्ञान दूसरे के द्वारा शब्द के माध्यम से होता है वह प्रत्यक्ष की कोटि में नहीं आता। दूसरा अव्यभिचारी=सत्यज्ञान अर्थात् तीन काल में भी परीक्षा से झूठ न हो।


तीसरा व्यवसायात्मक=निश्चयात्मक हो, संशय रहित हो, तभी प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है।


प्रत्यक्ष तो केवल वर्तमान काल को ही बताता है। अनुमान प्रमाण-तीनों काल की वस्तु को बताता है। केवल प्रत्यक्ष मानने से कुछ भी नहीं बनता-बनाता ।

 

अनुमान प्रमाण का प्रयोग पञ्चावयव से

 

(१) प्रतिज्ञा - शरीर अनित्य है।

(२) हेतु - क्योंकि उत्पन्न होता है।


(३) उदाहरण - जो उत्पन्न होता है वह नाशवान् देखा जाता है, जैसे घड़ा व कपड़ा।


(४) उपनय - जैसे घड़ा और कपड़ा वैसे शरीर ज्यों का त्यों।


(५) निगमन - उत्पन्न होने के कारण शरीर अनित्य है।


नास्तिक गलत हेतु देकर ईश्वर को नहीं मानते। कहते हैं - मिलावट करने वाले, झूठ बोलने वाले मौज करते हैं, यदि ईश्वर है तो क्यों नहीं रोकता ? अत: है ही नहीं। इसका समाधान यह है कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। उसे ईश्वर की ओर से चेतावनी मिलती है पर ईश्वर साक्षात् कर्म करने से रोकता नहीं, उसे कमर्मों का फल देता है।

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