राजा अजात शत्रु तथा दम्भी बालकी का संवाद
Brihadaranyaka Upanishad, 2.1-3
एक समय भारतवर्ष में एक विद्वान ब्राह्मण रहता था। उसका नाम बालकी था। गर्ग कुल में जन्म लेने के कारण उसे गार्ग्य बालकी अथवा केवल गार्ग्य के नाम से लोग जानते थे। वह ब्रह्म के ज्ञान-विज्ञान में दक्ष था और उसे अपनी विद्वत्ता पर बहुत अहंकार था।
वह, काशी नरेश अजातशत्रु जिनका कोई शत्रु अभी तक जनित नहीं हुआ था, उनके समक्ष अपने ज्ञान का प्रदर्शन करना चाहता था। एक दिन बालकी उनके पास गया और बोला, “मैं आप को ब्रह्म के विषय में शिक्षा दूंगा।”
राजा बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें एक विद्वान ब्राह्मण से ब्रह्म के विषय में कुछ अधिक जानने का एक अवसर मिला। और इसलिए भी कि यह राजा जनक से अधिक बडा बनने का अवसर था। उन्होंने बालकी का सादर स्वागत किया और कहा, “आप की बडी कृपा है कि आप मुझे यह ज्ञान देने आये हैं। लोग सर्वदा ‘जनक, जनक’ की बात करते रहते हैं। मैं आप को जनक के समान एक सहस्र गौएं दान में दूंगा।” इस प्रकार अजातशत्रु ने बालकी से कुछ सीखकर और उसे उपहार देकर राजा जनक के समान बनने का एक विनम्र सुअवसर समझा।
राजा अजातशत्रु तथा विद्वान बालकी ने एक साथ बैठकर संवाद आरम्भ किया।
बालकी ने कहा, “मैं सूर्य में स्थित पुरुष पर ब्रह्म के रूप में ध्यान करता हूँ। आप भी वैसा ही ध्यान करें।” राजा अजातशत्रु के लिए यह कोई नयी वस्तु नहीं थी। इसलिए उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा, “मैं भी सूर्य पर ध्यान करता हूँ लेकिन वैसे नहीं जैसे आप करते हैं। कारण यह है कि सूर्य केवल एक सापेक्ष रूप है और आप इस सापेक्ष रूप को निरपेक्ष मान रहे हैं। इस प्रकार ध्यान नहीं किया जाना चाहिये। सूर्य के पीछे एक सत्य है जो परम है, सभी सत्ताओं का शीर्ष है, देदीप्यमान है। मैं उसी पर ध्यान करता हूँ। यह सत्य सूर्य से भिन्न अन्य अनेक रूप ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार रूप के पीछे उस सत्य का आश्रय लेने से स्वभावतः प्रत्येक दूसरे रूप की अनुभूति हो जायेगी। मैं उसी पर जो सभी सत्ताओं का शासक है, ध्यान करता हूँ। जो इस प्रकार सूर्य के पीछे सत्य पर ध्यान करता है वह सभी लोकों में परमश्रेष्ठ बन जाता है। जहाँ-जहाँ वह जाता है वहाँ के समुदाय में नेता बन जाता है। इस प्रकार ध्यान करने से यह परिणाम होता है।”
दोनों के बीच संवाद चलता रहा। बालकी ने तब चन्द्रमा में स्थित पुरुष पर ब्रह्म के रूप में ध्यान केन्द्रित करने के लिए कहा।
यह सुनकर राजा ने उत्तर दिया, “मैं चन्द्रमा पर ध्यान केन्द्रित करता हूँ परन्तु वैसे नहीं जैसे आप करते हैं। मैं उस पर विराट, श्वेत वस्त्रधारी, देदीप्यमान सोम के रूप में ध्यान करता हूँ जो समस्त सृष्टि को अपने जीवनदायक आनन्द के अपरिमित आवरण से आच्छादित किये रहता है। और यह अपनी दीप्ति में अपने रूपों की श्वेत शुद्धता का अतिक्रमण कर जाता है। जो भी इस पर समस्त जीवन के अनुभव के सारतत्त्व की प्रचुर प्राप्ति, सोम, के रूप में इस प्रकार ध्यान करता है, वह निरन्तर बना रहता है, उसका सम्पोषण कभी नष्ट नहीं होता।”
बालकी ने आगे विद्युत की चमक में स्थित पुरुष को ही ब्रह्म का स्वरूप समझकर इस पर ध्यान करने का संकेत किया। वह भी राजा अजातशत्रु के लिए नया नहीं था। उन्होंने बालकी से कहा, “मैं विद्युत की चमक पर वैसा ध्यान नहीं करता जैसा आपने बताया है। मैं केवल दीप्ति पर ध्यान करता हूँ। उसकी कौंध उसमें निहित दीप्ति का एक रूप है। उसकी चमक के अन्य अनेक रूप हो सकते हैं। यह कौंध की चमक हो सकती है, सूरज की या चाँद की चमक हो सकती है, अग्नि की हो सकती है, यह अपने ही बोध की हो सकती है। परन्तु मैं इसकी दीप्ति या चमक पर ही ध्यान करता हूँ। और मैं जानता हूँ कि जो भी इस प्रकार ध्यान करता है, वह देदीप्यमान बन जाता है। उसकी सन्तति भी देदीप्यमान बन जाती है।”
इस प्रकार बालकी तथा अजातशत्रु का संवाद होता रहा। बालकी ने कहा कि वह आकाश, वायु, अग्नि, जल, दर्पण, ध्वनि, दिशाओं में, छाया में तथा शरीर में स्थित पुरुष पर ध्यान करता है। परन्तु हर बार राजा अजातशत्रु ने एक नई व्याख्या प्रस्तुत की जिसका ज्ञान बालकी को नहीं था। उसने अनुभव किया कि स्पष्ट ब्रह्म कुछ और अधिक है जो इतने स्वाभिमान के साथ बताई गई उसकी व्याख्या के अन्तर्गत नहीं आया। अतः संवाद के क्रम में एक ऐसा क्षण आया कि बालकी पूर्णतः मौन हो गया क्योंकि उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं रहा।
अजातशत्रु ने बालकी को स्पष्ट किया कि केवल उतना ही जान लेने से ब्रह्म को पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। उसके विषय में बहुत कुछ और जानने की आवश्यकता है। बालकी ने अपने सीमित ज्ञान का अनुभव किया। उसका दर्प जल में हिम के टुकडे के समान घुल गया। उसमें और अधिक ज्ञान प्राप्त करने की अभीप्सा जगी। इसलिए उसने एक शिष्य बनकर अजातशत्रु से ब्रह्म का सही ज्ञान बताने का अनुरोध किया।
अजातशत्रु एक राजा और क्षत्रिय थे। बालकी ब्राह्मण था। एक ब्राह्मण का क्षत्रिय के पास शिष्य बनकर जाने का उस समय प्रचलन नहीं था। अजातशत्रु अपनी सीमा को जानते थे। इसलिए उन्होंने ब्राह्मण बालकी का गुरु बनने से संकोच किया। किन्तु वे बालकी को उस ज्ञान से वंचित नहीं रखना चाहते थे जिसे वह इतनी उत्कटता से जानना चाहता था। इसलिए उसने एक मित्र के समान बालकी का हाथ पकड कर उसे प्रबुद्ध करना आरम्भ किया। बृहदारण्यक उपनिषद के प्रथम भाग का दूसरा अध्याय अजातशत्रु द्वारा बालकी को दिये गये व्यापक ब्रह्म ज्ञान से भरा पडा है।
श्रीअरविन्द इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं,-“अजातशत्रु बालकी के अनुभव तथा ज्ञान को अस्वीकार नहीं करते, वे उन्हें स्वीकार करते हैं। वे केवल अन्तिम सत्य जानने के उनके दावे को अस्वीकार करते हैं । वे उन्हें अपने सही स्थान पर रख देते हैं तथा इस शोधक प्रक्रिया द्वारा अपने गहनतर ज्ञान की ओर मार्गदर्शित करते हैं।”
(बृहदारण्यक उपनिषद 2.1-3)
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