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इन्द्रियों में परस्पर विवाद

 

इन्द्रियों में परस्पर विवाद

From the Chandogya Upanishad 5.1.6-15

एक समय सभी इन्द्रियों में आपस में विवाद छिड गया कि हम सब में कौन श्रेष्ठ है। प्रत्येक ने यह दावा किया कि “मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ”, “मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ।” जब वे सर्वसम्मति से एक निर्णय पर नहीं पहुंच सके तब उन सबने अपने पिता प्रजापति के पास जाने का निर्णय किया।

सभी इन्द्रियों ने प्रजापति से पूछा, “हम लोगों में सर्वश्रेष्ठ कौन है?”

प्रजापति ने कहा, “जिसके चले जाने से शरीर निकृष्ट दिखाई पडता है, वह तुम सबमें सर्वश्रेष्ठ है।”

यह सुनकर सबसे पहले वागिन्द्रिय चली गई और एक वर्ष के पश्चात आकर बोली, “मेरे बिना तुम सब किस प्रकार जीवित रहे?”

दूसरी इन्द्रियों ने उत्तर दिया, “हमलोग मूक बनकर जीवित रहे किन्तु प्राण से श्वास लेते रहे, नेत्र से देखते रहे, कान से सुनते रहे तथा मन से सोचते रहे।”तब वागिन्द्रिय शरीर में प्रवेश कर गई।

अब नेत्र के जाने की बारी थी। एक वर्ष तक शरीर से बाहर रहने के पश्चात पुनः लौटकर उसने पूछा, “मेरे बिना तुम सब कैसे रह पाये?”

अन्य इन्द्रियों ने कहा, “हम लोग बिना कुछ देखे अन्धे के समान रहे परन्तु प्राण से श्वास लेते रहे, जिह्वा से बोलते रहे, कान से सुनते रहे तथा मन से सोचते रहे।”

तब नेत्र ने शरीर में प्रवेश किया।

अब कर्ण शरीर छोडकर चला गया और एक वर्ष बाहर रहने के पश्चात आकर पूछा, “मेरे बिना तुम सब कैसे जीवित रहे?”

सबने कहा, “हम लोग बधिर व्यक्ति के समान बिना कुछ सुने जीवित रहे किन्तु प्राण से श्वास लेते रहे, जिह्वा से बोलते रहे, नेत्र से देखते रहे और मन से सोचते रहे।”तब कान शरीर में प्रवेश कर गया।

अब मन शरीर से बाहर चला गया और एक वर्ष के पश्चात लौटकर पूछा, “तुम सब किस प्रकार जीवित रहे?”

इन्द्रियों ने कहा, “हम लोग उस बालक के समान जीवित रहे जिसका मन अभी विकसित नहीं हुआ, मन से बिना कुछ सोचे-विचारे, किन्तु प्राण से श्वास लेते रहे, जिह्वा से बोलते रहे, नेत्र से देखते रहे और कान से सुनते रहे।”

तब मन शरीर में प्रवेश कर गया।

जब प्राण अथवा श्वास शरीर छोडकर जानेवाला था तब सब इन्द्रियाँ एक साथ बोलीं, “श्रद्धेय महोदय, आप हमारे प्रभु रहें। आप हम सब में श्रेष्ठ हैं। हमें छोडकर न जायें।” तब वाणी की इन्द्रिय ने श्वास से कहा, “महोदय सबसे श्रेष्ठ होने का गुण जो मुझमें है वह आप ही का है।” नेत्र, कर्ण, तथा मन ने भी यही कहा। इसलिए ये (वाणी, नेत्र, कर्ण, मन) इन्द्रियाँ ही नहीं, अपितु प्राण के चिह्न हैं, क्योंकि प्राण अकेला ही यह सब कुछ है।

-(छान्दोग्य उपनिषद- 5.1.6-15 से)

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