मैं ज्ञानियों का ब्रह्मज्ञान हूं।
यज्ञमानस्य पशुन पाहिं = काम क्रोधादि वाशनाओं पर नियंत्रण बना के रखों। जिस प्रकार से यह ईख नामक वनस्पत्ति स्वभाव से मधुर मीठी है, उसका लगाने वाला और उखाड़ने वाला भी मधुरता की भावना से ही उसको लगाता और उखाड़ता है। जिस प्रकार यह वनस्पत्ति परमात्मा से यह मिठास अपने साथ ले कर आती है। उसी प्रकार से हम सब भी अपने जीवन में परमात्मा से मिठास और मधुरता को प्राप्त कर के अपने जीवन को मीठा और मधुर बनाये। मेरी जीभ्भा के मुख्य भाग में मधुरता रहे, जीभ्भा के अग्र भाग में और जीभ्भा के मध्य भाग में भी मधुरता हमेंशा बनी रहे। मेरे कर्म में मधुरता रहे, मेरा चित्त मधुर विचारों का ही चिन्तन और मनन हमेशा करता रहे। मेरा चाल चलन हमेशा मधुर और मिठा हो, मेरा आना जाना मिठा हो, मेरे इसारे और भाव तथा मेरें शब्द भी मीठे दूसरे को सुख देने वाले हो। ऐसा होने से मैं अन्दर बाहर से मिठास की मुर्ती बनुगां। मैं शहद से भी मिठा बनता हू मैं मिठाई से भी मिठा बनता हूं, इस प्रकार जीस प्रकार से मधुर फल वाली शाखा को पक्षी प्रेम करते है तू भी मुझ से प्रेम कर। कोई किसी का द्वेष ना करें इस उद्देश्य से व्यापक मधुर विचारों की-की चार दिवारी चारों ओर बनाता हूँ जिससे इस चार दिवारी में सब ओर मधुरता ही बढ़े सब एक दूसरे से हमेंशा प्रेम करें और विद्वेष से कोई किसी से विमुख ना हो।
जो विद्युत के समान है जिस तरह से बल्ब फ्युज होता है। मगर विद्युत निश्चित रहती है। उसी प्रकार से हमारी शरीर बल्ब के समान फ्युज होती है मगर जो इसकी चेतना विद्युत के समान है वह हमेंशा उपस्थित रहती है। यह एक बात निश्चित जान ले कि मेरे आत्म मन जो भी तुम्हे मिलता है इसको तुमने बहुत परिश्रम से कमाया है, मुफ्त में तुम्हे यहाँ कुछ भी नहीं मिलता है। कांटों के समान पिड़ा देने वाले अथाह दुःख, ताप, संस्कार या फिर फुलों के समान हल्के सुख और आनन्द देने वाले परिणाम गुण संस्कार यहीं दो कोटि हैं। किसी भी मनुष्य को दोनो कभी साथ में नहीं मिलते यह प्रकाश और अंधकार की आते जाते रहते है। कोई फुलों के लालाइत है तो कोई काटों से भागना चाहता है।
कभी भी इनको देख कर भागना मत इनको भोगना जो भी हो सुख या दुःख तुम्हारे हिस्सें में जो भी आये यह एक कषौटी तुम्हारे धैर्य के असली परीक्षा की। जो दोनों को सहने के लिए तैयार है परमेश्वर का पुरुष्कार मान कर और अपने कर्मों का फल समझ कर, वहीं जीवन का सच्चा सुख पाता है। जिसने स्वयंको पत्थर के समान दृढ़ और मजबुत और फौलाद जैसा स्वयं को बना लिया है। यह जीवन उसी को प्रसन्न करता है जिसने एक-एक कदम मृत्यु को अपने सामर्थ से पिछे धकेल देता है।
ब्रह्म जो विद्युत से सुक्ष्म विद्युत के समान है। जो अपनी वाणी से ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती करता है और अपनी इसी वाणी से दुष्ट व़त्तियों वालों जीवों को संतप्त करता है। जिस प्रकार से आकाशिय विजली की मात्र भयंकर आवाज को सुन कर कितने प्राणियों का हृदय भय व्याप्त हो जाता और वह कापंने लगता है। उसी प्रकार वह परमेश्वर मानव मन में भय, लज्जा, शोक, मातम जैसी वेदनाओं आदि के भावों को उत्पन्न कर के उनको ग़लत कार्यों को करने से निरंतर रोकता है। जो सज्जनो के आदर सत्कार नमस्कार के योग्य है। जो हमारें लिये बभिन्न प्रकार के सुख और ऐश्वर्यों को प्रकट करता है। जिसको प्राप्त करने के लिये जो सज्जन विद्वान पुरुष है वह अपने जीवन में संयम को धारण करके उसको प्राप्त करने के लिये निरंतर उसकी उपासना प्रार्थना स्तुती करते है। उसको मैं बारम्बार नमस्कार करता हूं।
मेरे हृदय के मन मीत तुम किसी भी समय अपने आप को स्वयं से ताकत वर किसी को मत समझना ना ही तुम किसी को अपने से कमजोर ही समझने का भुल पालना। जो जीवन के इस भाव को जानता है और समझता है। जो नियमीत इसका अभ्यास करता है। जीवन एक निश्चित धुरी पर काम करता है। जिस प्रकार से दीपक का प्रकाश है उसके पिछे एक विज्ञान है जिस प्रकार विद्युत का एक सिद्धान्त है। विद्युत दिखाइ नहीं देती है यद्यपी उसके क्रिया शक्ति का सही उपयोग करके उसको सिद्ध किया जा सकता है। जिस दिन भी मानव को यह समझ में आ जायेगा कि यह ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान एक शाश्वत सत्य है उसी दीन यह मानव मृत्यु से मुक्त हो जायेगा, सम्पूर्ण मानवता और यह जीवन स्वर्ग की स्थापना यही भुमंडल पर ही कर देगा और सभी को अमृत तत्व उपलब्ध होगा। जैसा की मंत्र कहता है कि अमृत तत्व मनुष्यों के लिये ही है। वह मनुष्य कैसे है जो अमृत तत्व को उपलब्ध होते है? तीन प्रकार के मुख्य कष्ट, बन्धन या दुःख माना गया है। जिनसे मुक्त होने के लिये इस त्रयी विद्या वेद का ज्ञान होता है, अर्थात ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान का जिसको मुक्ती का साधन के रूप में विद्वान जन प्रकट करते है।
ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान एक परमाणु के तीन अणु के समान है। इसको समय के साथ सबने अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। इसका मुख्य श्रोत प्राचिन वेद है और इन्ही को समझाने के लिये परमेश्वर ने वेदों की रचना की है। जैसा कि ऋषियों की मान्यता है कि यह ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान अद्भुत सामर्थ वान है। इनके लिये ही शब्दों को ब्रह्म कहा गया है, वेदों में ज्ञान को तीन भागों में विभाजित किया गया है। पहला ज्ञान जो पशुओं को मिलता है किसी के प्रेरण से, जिसे इड़ा कहते है। दूसरा ज्ञान जो शाश्त्रों और विद्वानों से मिलता है, जिसको सरस्वती कहते है। तीसरा जो सबसे श्रेष्ट ज्ञान है उसे मही कहते है। इसलिये वेदों के गुरु मंत्र गायत्री में मही रुपी ज्ञान की कामना की गयी है। जिसको हम सिधा परमेश्वर के साक्षात्कार ही प्राप्त कर सकते है। वेदों में तीन प्रकार का ज्ञान है जीसको त्रयी विद्या कहते है। ज्ञान, कर्म, उफासना। यहीं तीन सत्ताये है सर्व प्रथम प्रकृती दूसरी जीव तीसरी सत्ता परमेश्वर की है। ईश्वर ज्ञान मय है जीव विज्ञान मय है और प्रकृती ब्रह्मज्ञान मय है। इसी प्रकार से तीन प्रकार की दूरी भी होती है पहली दूरी ज्ञान की दूरी है, दूसरी समय की दूरी, तीसरी धन की दूरी। ईश्वर को प्राप्त करने में सबसे बड़ी दूरी ज्ञान की दूरी बताई गई है। इसी तीन तत्व को भौतिक वैज्ञानिक इलेक्ट्रान, न्युट्रान, प्राट्रान के नाम से पुकारते है। इन तीन तत्वों के रहस्य और इनका कितने प्रकार का रूप है वह आज तक पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सका है। मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःख भी है। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक दुःख, यह तीन का आकड़ा अद्भुत है। इन तीन प्रकार के दुःखों से मुक्त होने के लिये केवल एक मार्ग है, जिसे पुरुषार्थ कहते है। जिस प्रकार से अन्न एक है लेकिन जब यह हमारे शरीर में जाता है तो इससे सात धातुयें बनती है। सबसे पहले रस बनता है, फिर रस से खुन बनता है, खुन से मान्स बनता है, मान्स से मज्जा बनता है, मज्जा से मेद बनता है, मेद से हड्डी बनती है और हड्डी से विर्य बनता है जिससे किसी मानव समेत किसी भी प्राणी का शरीर बनती है। शरीर का सम्बंध भौतीक ज्ञान से है यह एक यन्त्र की तरह है, मन का सम्बंध विज्ञान से है जिस पर नियंत्रित करने के लिये ही मंत्रों को इजात किया गया है। यह मंत्र जब मन के द्वारा बार-बार स्मरण किये जाते है तो उससे एक प्रकार का कंपन पैदा होता है। जिससे मन को निकृष्ट विषय से हटा कर श्रेष्ठ विषय परमेश्वर में तल्लिन किया जाता है। आत्मा का सम्बंध ब्रह्मज्ञान से है, जिसके लिये पंतजली अष्टांग योग का निर्धारण करते है। इस अष्टांग योग में दो अंग है एक बाहरी है जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार है और अष्टांग योग के तीन अंत रंग है जिसे धारणा, ध्यान, समाधि कहते है। यह जो धारणा, ध्यान, समाधि है इसी को मैं ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान कहता हू। यह अन्तर्यात्रा के प्रथम अलौकि सोपान है। मन, वचन, कर्म अर्थात शरीर को ज्ञान से समझ कर विवेक से धारण करना है, मन से मनन करना है सत्य का अर्थात मंत्रों का स्मरण करना है। जिससे आत्मा स्वयं की समस्यायों का समाधान करने के लिये समाधि को उपलब्ध कर सके.
ईश्वर अर्थात इसमें जो ऐश्वर्य है या फिर इसमें जो स्वर है, स्वर को भी तीन भागों में बिभक्त किया गया है ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत। जीव भी तीन प्रकार की वृत्तियों वाला है जिसके सात्विक, राजसिक, तामसिक कहा गया है। मनुष्य शरीर पांच तत्वो से बनी है (क्षीत जल पावक गगन समिरा पंच तत्व से बना शरीरा) छठा मन है सातवा आत्मा है। हर परमाणु में यह मुख्य तीन तत्व है जिसे हम ईश्वर, जीव, प्रकृती कहते है। एक परमाणु के पहले तीन अणु है यह अब यह एक-एक सात कणों के रूप में हो गये, पहले एक अणु का जिससे अन्न बनता है और अन्न से विर्य बनता है। दूसरे अणु के सात कणों से प्रकृती के पांच भुत बनते है छठां आत्मा सातवा परमात्मा बनता है। तीसरे अंतीम अणु के सात हिस्सों से सात ज्ञान के ऋषि बनते है। जो सात ज्ञानेन्द्रियों के रूप में है पांच ज्ञानेद्रिय क्रमशः आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, आत्मा और परमात्मा यह मुख्य एक्किस विभाग परमाणु के है।
इस एक परमाणु तत्व को अनेक नामों से जानते है। जैसा की वेद कहता है (एकं सद्विविप्रा वदन्ती) इन परमाणुओ के योग से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बन रहा है और इसमें विद्यमान हर वस्तु का अंतिम इकाई परमाणु ही है। जैसे वैदिक भाषा में इन्द्र अर्थात इन्द्रियों का स्वामी जो इस मानव शरीर में ही रहती है। पांच कर्म इन्द्रियाँ है पांच ज्ञान इन्द्रिया है ग्यारहवां मन है। यह आत्मा के वश में अर्थात इन्द्र का इनके उपर अधिकार है। यह सब इन्द्रिया आत्मा की सहगामी है मित्र तन्मात्रायें के साथ वरुण अर्थात जल इसके भी सात रूप है अग्नि भी अपने सांत रूपों में है और यह दिव्य सुवर्ण चमकने वाले पदार्थ के समान गरुत्मान जो अपना कार्य आत्मा और मन के साथ मिल कर अंधकार में करते है। यम अर्थातत जो मृत्यु का देवता यमराज है। चेतना जो कभी मरती नहीं जो मृत्युलोक पर ही अपना राज्य करता है। मात रिस्वा अर्थात सब का जन्म दाता, मात रिस्वा माता के समान जो सारे रसों की माता है। रस भी कई प्रकार के होते है जिसको हम सद् गुणो के नाम से भी जानते है। जो सारे खजाने का मुख्य श्रोत है उसे मनुष्य कहते है। जो इस ब्रह्माण्ड का स्वामी है, मनुष्यों में भी चार प्रकार के मनुष्य होते है। प्रथम कोटी के मनुष्यों को ब्राह्मण कहते है जिसके जिम्मे ब्रह्माण्ड की रक्षा का दाइत्व दिया गया है। जिसको ब्रह्मज्ञान हो गया है जो ब्रह्म को जानता है और जिसके लिये यह आवश्यक है कि वह ब्रह्म का उपदेश दे कर लोगों में दिव्य ज्ञान का प्रसार निरंतर करता रहें। वही इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्म का दान करके सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सहायता के साथ पालन पोषण संहार करता है। अर्थात यह ब्राह्मण जो इस ब्रह्माण्ड में मनुष्यों में सर्वोपरि उच्य कोटी का मनुष्य है। जिनके कर्मों पर ही इस ब्रह्माण्ड को सुरक्षित रखने की गम्भिर जीम्मेदारी है। वह यदि अपनी जीम्मे दारियों का उचित तरिके से वहन नहीं कर सके तो यह नष्ट भी हो सकता है और इसका दण्ड उन ब्रह्मणों को ही भोगना पड़ेगा। दूसरें कोटी के मनुष्य को क्षत्रीय कहते है अर्थात जो छात्र शक्ति है जो अमृत रूपी छाया के समान है जो क्षेत्रों अर्थात जो सारी जमीन का पृथिवी के रक्षक है। तीसरे कोटी का मनुष्य व्यापारी है जिसे वैश्य कहते जिसके जिम्मे सम्पूर्ण भुमंडल के प्राणियों का भोजन उफलब्ध कराने की जीम्मे दारी दी गइ है और एक दूसरे के विच व्यापार लेन देन काराय सम्पन्न करने के लिये जिम्मे दार है। चौथी कोटी का मनुष्य शुद्र कहा गया है जो सबसे अधिक सहनशिल है पृथिवी के समान है जो सबकी सेवा करता है सबके कार्य भार का वहन करता है। जो मुर्ख है जिसका प्रमुख गुण मुर्खता है इसी गुण को वह धारण करके वह स्वयं को इस शरीर रूपी संसार से मुक्त कर लेता है और परमेश्वर को उपलब्ध हो जाता है। वह सब पर अधिकार कर लेता है क्योकि वह सब का कार्य करता है। बहुत थोड़ा कर लेकर जिस प्रकार से यह पृथिवी सम्पूर्ण मानव जाती समेत सभी प्राणियों का बहुत प्रकार का उपकार करती है और बदले में वह उन सब से बहुत थोड़ा कर के रूप में उनके सद् गुणों को ग्रहण कर लेती है। यही कार्य ब्रह्माण्ड भी करता है अर्थात ब्राह्मण से उसके सद्गुण और तपस्या का फल ले लेता है। जो इसके जीने के लिये जीवन उर्जा खाद्य के समान है जिसको ही हम यहाँ पर ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान कहते है। इसको दार्शीनिक एक शब्द में संयम कहते है, जो सभी प्रकार की सिद्धियों का मुख्य श्रोत है। संयम को ही धारणा ध्यान समाधि कहा गया है इसी को अष्टांग योग का अंतरंग कहा गया है।
ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान एक परमाणु के समान है जिस प्रकार एक परमाणु में तिन अणु होते है। उसी प्रकार से एक अणु में सात कण होते है। इस प्रकार से कुल एक्सिस कण मिल कर ही इस श्रृष्टी की रचना करते है। इस श्रृष्टी में हम सब मानव है और हम सब मानव की शरीर है जो एक प्रकार परमाणुओं से मिल कर ही बनी है। परमाणुओं से ही इस जगत का सारी वस्तु बनी है। उसमे सुन्दर ताज महल भी है दिल्ली का लाल किला भी है अमेरिका ह्वाइट हाउस भी इन्ही परमाणुओं से मील कर बना है। कार, बाइक, प्लेन, ट्रेन, कम्प्युटर, ग्रह, उपग्रह, पृथिवी, सूर्य, ब्रह्माण्ड सब कुछ इसी परमाणुओं से मिल कर ही बना है। यह परमाणु विद्युत उर्जा से बना है और यह विद्युत उर्जा ध्वनी उर्जा शब्दों की शक्ति से बना है। इस प्रकार से यह विश्व ब्रह्माण्ड का मुख्य श्रोत यह शब्द ही है इसी लिये शब्द को ब्रह्म कहते है। इस परमाणु को जब तोण दिया जाता है तो यह परमाणु बमा बन जाता है। जो इस पृथिवी को लिये एक बहुत बड़ा अभिश्राप बन जाता है। परमाणु बम ठीक उसी प्रकार से काम करता है जिस पर्कार से एक आग का तीनका दूसरें तीनके को अपने में समेट कर स्वयं को और अधिक शक्ति शाली बना लेता है। जिस प्रकार से एक आग का कण हिमालय जैसे लकड़ी के ढेर को कुछ समय में ही उनको जला कर राख का ढेर बना देता है। ऐसे ही इस मानव शरीर में एक अग्नि का अणु है जो अपने सात कणों के रूप में सप्त ऋषि सात चक्रों पर पहरा देते है और वही पूरे शरीर से क्रिया कलापों को नियंत्रित करते है। जिनके देख रेख में शरीर के सात चक्रों की रीफाइनरी मसिन में अन्न को शुद्ध करके उससे विर्य बनाते है और इस विर्य से ही नयें मानव की शरीर का निर्माण होता है। यह भी शरीर की सात धातुओं में सबसे प्रमुख धातु है। यह जो विर्य का कण है जिसे अंडाणु और शुक्राणु के रीप में जानते है। इन दोनों का सिंचन माँ के गर्भ में होता है। जिसका एक अस्तर तक विकास होता है फिर उनका पतन होने लगता है।
इसी प्रकार से इस विर्य से तेज उत्पन्न होता है जिसे आत्मा धारण करती है। यह आत्मा भी एक अग्नि ही है जो परमात्मा के साथ शरीर में विद्यमान रहती है। यह अग्नि सुक्ष्म से सुक्ष्मतर होती जाती है। जो परमात्मा रुपी प्रमुख अग्नि है उसके पास ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने का सामर्थ विद्यमान है और इस ब्रह्माण्ड को नषट करने का सामार्थ भी उसी परमात्मा में ही है। जिस प्रकार से परमाणुओं के जोड़ योग से मानव शरीर समेत ब्रह्माण्ड की निवार्ण करता है। ठीक इसी प्रकार से परमाणुओं का वियोग करके वह ब्रह्माण्ड का नामों निशान मिटा देता है। यह गुण मनुष्यों में भी उसकी योग्यता के आधार पर हस्तान्तरित हो जाता है। एक समय ऐसा भी होता है जब इस ब्रह्माण्ड की रक्षा और संहार मानव के द्वारा परमेश्वर कराता है। इसमें दो बातें है परमेंश्वर की भावना हमेशा कल्याण की होती है। संहार में भी वह कल्याण ही करता है। मानव के साथ ऐसा नहीं है इर्श्या वश भी संहार करने के लिये लोभ में आकर भी दूसरें के अस्तित्व को समाप्त करने के लिये मानव उतावला हो जाता है। जिस प्रकार से मानव शरीर का एक निश्चित समय है। इसमें एक सर्त भी है जब वह स्वयं के मन और इन्द्रियों के संयम को धारण करने में सामर्थ होता है। अर्थात जब वह अत्यधिक विर्यवान होता है तो वह अपने जीवन को नियंत्रित करता है और लम्बा जीवन जीता है। ऐसा नहीं होने पर मानव का जीवन अल्प होता है और अल्प काल में हर प्रकार का ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान को धारण नहीं कर सकता है इसलिये उसे कइ जन्म लेना पड़ता है। इस तरह से वह एक तरफ जन्म लेता है दूसरी तरफ वह मृत्यु में समाने लगता है। उसमें इस जगत में स्थित रहने के लिए जो सामर्थ चाहिए नहीं होता है। जिस प्रकार से तपते तावें पर पानी की कुछ बुदें थोड़े ही पल में वास्प बन जाती है और जब पानी की मात्रा अधिक होगी भले ही वह जलते तावें पर ही क्यो ना हो उसे समय मिल ही जाता है पर्याप्त मात्रा में इस भुमंडल पर रहने के लिये। जिस प्रकार से रावण का नाम आता है कि वह इस पृथिवी पर चार हजार सलों तक जिन्दा रहा। उसने चार चौकणी राज्इय किया था अर्थात चार हजार साल तक इसके पिछे मुल कारण था कि वह बहुत बड़ा विर्यवान और ब्रह्मचारी पुरष था। वह स्वयं एक सिद्ध पुरुष विश्व श्रवा का पुत्र और ऋषि पुलूस्त का पोता था। राम ग्यारह सौ साल तक जीन्दा था क्योंकि राम ने ग्यारह अश्वमेध यज्ञ किया था अपने जीवन में, पहले समय में कोई अपने सौ साल के जीवन में कोई एक बार ही अश्वमेध यज्ञ कर सकता था। राम के जीवन का मुल उद्देश्य केवल एक था कि वह रावण को मारना चाहते थे। महाभारत कालिन भी विर योद्धा तीन सौ से अधिक सालों तक जीन्दा रहते थे। महाभारत के रचना कार और वेदों के विभाजन कर्ता ऋषि वेद व्यास भी तीन सौ से अधिक जीन्दा थे। वह वेदों के जानकार थे वेदों में भी तीन सौ से चार सौ साल तक जीने की बात कही जा रही है।
इस ज्ञान की सहायता से ही अर्थात ज्ञान विज्ञान ब्रह्माज्ञान से ही द्युलोक अन्तरिक्षलोक पृथिवीलोक के अन्तर्गत सम्पूर्ण पदार्थ जल अग्नि औषधियाँ सोम वायु सब दिशाओं में रहने वाले सब पदार्थ सूर्य आदि सब देव हित कारक सुखकारक सुख वर्धक होते है। आरोग्य बढ़ाकर व्याधियों से होने वाले कष्टों को दूर करते है।
ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही तुम्हे मैं वृद्धा वस्था की पूर्ण आयु तक ले जाता हूं। इसी ज्ञान से तेरे पास से सभी रोग दूर भाग जाते है। यह चिकित्सा का कार्य जो जानते है वही इसे प्रविणता से निभा सकता है। बारम्बार चिकित्सा करते रहने से जो प्रारम्भ में साधारण चिकित्सक रहता है आगे चल कर-कर वहीं कुशल विशेषज्ञ चिकित्सक बन जाता है। ऐसा श्रेष्ट चिकित्सक अन्य चिकित्सको की सम्मती से उत्तम प्रकार की दूर्लभ चिकित्सा करने में सफल होता है।
तृणादि मनुष्य पर्यन्त श्रृष्टी की माता यह पृथ्वी है और पिता पर्जन्य मित्र, वरूण, चन्द्र, सूर्य यह पांच है। अर्थात पंच तत्व की सहायता से ही विर्य बनता है। इसमें अनन्त बल है इसके बलों का उचित उपयोग करने से ही मानव महामानव बन जाता है और इसके कारण ही मानव शरीर में आरोग्यता स्थिर रहती है। मनुष्य का जीवन दीर्घ होता है और उसके शरीर से सब दोष बाहर आजाते है। यह प्राकृतिक इलाज है इस औषधी का नाम ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान है। जल उनके लिए माँ बहन के समान हित कारक होता है। जो इसका उत्तम उपयोग करना जानते है। जल की नदियाँ बह रहीं है मानो वह दुध में शहद मिला रही है। जो जल सूर्य की क्रणों से शुद्ध बनता है। अथवा जिसकी पवित्रता स्वयं सूर्य शुद्ध करता है। वह जल हमारा आरोग्य सिद्ध करें जलो में अमृत है। जल के शुभ गुण से मानव बलवान बनता है। जिस प्रकार माँ का दुध उसके पुत्र के लिये सबसे बड़ी औषधि के समान है उसी प्रकार जल से हम सब को उसके अन्दर विद्यमान सुख वर्धक रस हमें प्राप्त होता है। यह सूर्य आदि देवताओं को शान्ती प्रदान करने वाला है। प्रभु ईश्वर सब जगत में विराजता है सबका सर्वोपरी शाशक वहीं है। इसलिए उसकी इच्छा ही सर्वदा सत्य सिद्ध होती है। अर्थात उसकी आज्ञा के विपरीत कोई भी नहीं जा सकता जो जाने का प्रयश करता है उसके वह अपने दण्ड से नियन्त्रित करता है। तथा ज्ञान के जानने वाला मैं ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान की सहायता से तुम्हे उस परमेश्वर के क्रोध से छुड़ाता हूं। जिस प्रकार मन वेग से किसी विषय में गिरता है जिस प्रकार वायु और पक्षी वेग से आकाश में चलते है। उसी प्रकार अ नाम की चेतना का हृदय ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान से युक्त हो। वायु और बादलों को चिर कर के उसके आवरण से प्रथम बाहर निकला तेज्स्वी सूर्य वारिष और दहाड़ता हुआ मेघ गर्जना के साथ आ रहा है वह अपनी सिधी गती से दोषों और रोगों को दूर करता है। वह हमारी शरीर की निरोगता को बढ़ाता हैऔर हमे सुख को देता है। जिस प्रकार नदियाँ मिल कर बहती है, वायु मिल कर बहते है, पक्षी मिल कर उड़ते है। उसी प्रकार दिव्य जन भी मेरे ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान रूपी यज्ञ से मिल कर सम्लित हो क्योकि मैं संगटन के बढ़ाने वालों के अर्पण से ही यह संगठन का महा यज्ञ कर रहा हूं। सिधे मेरे इस ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान संघटन के महा यज्ञ में आवो और हे संगठन के साधक वक्ता लोगों। तुम अपने उत्तम संगठन बढ़ाने वाले व्यक्तृत्व से इस संगठन महा यज्ञ को फैला दो। जो हम सब में पशु भाव हो वह यहाँ इस-इस ज्ञान यज्ञ में आवे और हम सब में धन्यता का भाव चिर काल तक निवास करे। जो नदियों के अक्षय आश्रय श्रोत इस संगठन महा यज्ञ में बह रहे है। उन सब श्रोतो से हम अपना धन संगठन द्वारा बढ़ावे।
सिर पर अथवा शरीर पर जो कुलक्षण हो उनको दूर करना चाहिए तथा अन्त करण में कंजुसी आदि जो दूर्गुण है उनको भी दूर करना चाहिए और जो सुलक्षण है उनका अपने तथा संतानो के पास स्थित करना अथवा बढ़ाना चाहिये। तुम्हारी आत्मा, मन और शरीर के वस्त्रों दृष्टी में जो बुरे निकृष्ट भाव जो कुलक्षण हो जो कुछ दूर्गुण हो उनको हम वचन से हटाते है। परमेश्वर तुम्हे उत्तम और शुभ लक्षणों से हमेशा युक्त करें।
कोई भी हमारा मित्र या शत्रु हमारी जाती वाला या पर जाती वाला बडा या छोटा कोई भी क्यों नाहो? यदि वह हमे दाश बनाने का प्रयाश करता है, या हमारा नाश करने की चेष्टा करता है तो उसका नाश शस्त्रों से करना योग्य है। जो प्रकट या छुपा हुआ हमारा शत्रु है और वह हमरा नाश करने चाहता है, या हमें बुरे ओर कड़वे शब्द बोलता है। सब सज्जन उस दुष्ट वृत्ती के मनुष्य को समाज से दूर करें। मेरा आन्तरिक कवच मेरा सत्य ज्ञान ही है अर्थात ब्रह्मज्ञान ही है।
इन्द्राय भागम्= परमेश्वर के सान्निध्य में रहो। मेरे प्रिय आत्म मन मैं अपना अनुभव तुम सब के साथ बाट रहा हूं। मैंने अपने गहन अनुभव और शोध से यह जाना है कि इस संसार में रहना है और सफलता को हासिल करना है और अपने लिये अच्छा कुछ श्रेष्ठ करना चाहते हो, तो तुम्हें कुछ एक वस्तुओं का जीवन में अस्थान नहीं देना चाहिये। पहली सबसे खतरनाक वस्तु है शान्ती, दूसरी सरलता, तीसरी सज्जनता। यह केवल शब्द कोश में ही रहें तो बहुत अच्छा है। यदी इनका अस्थान जीवन में हो गया तो जीवन का रहना बहुत कठीन और दुस्कर होगा। जो लोग शान्ती, सरलता और सज्जनता निर्दोषता की बातें करते है। वह सारे धुर्त के हिंसक और बहुत खतरनाक किस्म के व्यक्ती है। इनसे तुम्हे सावधान रहना चाहिये। अब संसार बदल गया है आज के संसार में एक सरल शान्त और सज्जन निर्दोष आदमी का जीवन जीना एक आत्मा हत्या के समान है और कौन बुद्धिमान आदमी स्वयं की आत्म हत्या करना चाहता होगा? मेरे एक मित्र है जो बहुत शान्त और सज्जन किस्म के व्यक्ती है। वह हमेशा हर किसी के साथ बहुत सरलता से और प्रेम भाव से ही पेश आते है। जिसके कारण उनके जीवन में कोई भी व्यक्ती उनके साथ नहीं है हर आदमी उनको मुर्ख समझता है हलांकि वह बहुत इमानदार और बुद्धिमान व्यक्ती है। लेकिन उनकी वुद्धीमानी उनके लिये हमेशा एक नये संकट को ही खड़ी करती। उनके पिता भी उनसे खुश नहीं रहते क्योंकि वह अपनी शान्ती के कारण ही ज़रूरत से अधिक सहन शक्ति उनके पिता की दृष्टी में वह मुर्ख और बेकार समझे जाते है और हमेशां उनको तरह-तरह यातना बचपन से देते रहे। जिसके कारण वह अक्सर मानसिक रूप से विक्षिप्त जैसे रहने लगे वह कोई कार्य सही ढंग से नहीं किया। उनकी पढ़ाई लिखाई भी पुरी नहीं हो सकी। वह अपने पीता के दुर्व्यवहार को लेकर हमेशा चिंतित और परेशान रहे। दोनों के सम्बंध बहुत कटुता पूर्ण बने रहें जो कभी भी सामंजस्य आपसे में नहीं बना पाये। उन्होने अपने घर को छोड़ दिया बाहर परदेश में रहने लगे लेकिन अत्यधिक शान्त स्वभाव के कारण वह लोगों की नजर में कायर और निकम्मे मुर्ख ही समझ में आये वह कही स्वयं को व्यवस्थित नहीं कर सके. उन्होंने अपने जीवन की परेशानियों और तनावों से मुक्ती पाने के लिये वह कई प्रकार के नशे का सेवन करने लगे और धिरे-धिरे वह नशें के शिकार हो गये वह अपनी परेशानियों से उभर नहीं पाये, जीवन चलता रहा पहले से बढ़ कर जीवन ने उनके लिये नई-नई चुनौतियों को खड़ा किया इसी बीच उनकी शादी भी गई. एक गरीब परिवार की लड़की के साथ और वह अपने उसी घर में रहने लगे जिसमें उनका पिता ही उनका सबसे बड़ा शत्रु था। उसनें हमारे सज्जन शांत मित्र के लिये रोज नई एक परेशानियाँ खड़ी करने लगे। जिससे पूर्णतः मुक्त हो पाते की उनके यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ। जो एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी उनके लिये, लेकिन हमारें मित्र इसके लिये बिल्कुल तैयार नहीं थे। ना पत्नी की देख भाल करने में नाही उसकी आवश्यक्ता की पुर्ती करने में ही, इसमें एक नव जात का आना और उसकी देखभाल करना उनके लिये असंभव सिद्ध हुआ जिसके कारण बच्चा असमय बीमार हो कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। यही नहीं इसके कुछ समय बाद उनकी पत्नी भी उनसे अत्यधिक तंग आ कर उनका साथ छोड़ कर चली गई और दूसरी दूनिया बसा लिया अर्थात किसी और से शादी कर ली। इसके बाद वह पहले ऐसे ही नौकरिया करते और छोड़ते रहें। सैकड़ो नौकरियाँ किया लेकिन कहीं पर ज़्यादा समय तक टीक नहीं पाये। तो उन्होंने अपना स्वयं का एक छोटा व्यापार शुरु किया जो थोड़े समय तक ठीक रहा लेकिन उसने भी बहुत बुरी तरह से उनके परास्थ कर दिया। वह अपने धन्धे को आगें नहीं चला सके. वह फिर भी हिम्मत नहीं हारे उनके शाहस की मैं सराहना करता हूँ की उन्हें कदम-कदम पर हार का सामना करना पड़ा फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारा आगे एक नई योजना पर काम एक नये उत्साह के साथ शुरु कर दिया। उन्होंने एक विद्यालय चलाने का निर्णय किया कुछ दिन चलाया भी लेकिन उनके दुर्भाग्य ने उनका साथ नहीं छोड़ा और पहले से अधिक जोर से उनको पटका उनको एक-एक रुपये के लिये परेशान कर दिया। उनका सब कुछ डुब गया। यहाँ तक उनका जीवन भी बचाना उनके लिये संकट पूर्ण हो गया, उनके लिये खाने पीने रहने की मुसिबत आ कर खड़ी हो गई. वह सन्यासी बन गये और भीछाटन करने लगे उस पर भी उनका गुजारा नहीं हो सका। क्योकि उनको कोई भीछा देने के लिये राजी नहीं था जैसे पुरी कायनात ही उनका शत्रु बन गई हो। वह वेचारे ना जी पा रहे थे ना मर ही पारे थे। मुस्किले तो सब पर आती है लेकिन उनके उपर तो एक से बढ़ एक मुसिबतों के पहाड़ ही गिरने लगे। उनको एक बहुत भंयकर बिमारी ने पकड़ लिया जिसका इलाज करा पाना उनके लिये। आसान नहीं था फिर भी वह उस बिमारी से उभरने के लिये जी जान से जुटे रहे और किसी तरह से जो अपने कुछ परिचीत चाहने वाले कुछ अंतिम लोग थे पैसे का ऋण लेकर इलाज कराने के लिये। लेकिन उनको आशा जनक सफलता नहीं मिली। उनकी बिमारी बढ़ती ही गई जिसका उन्होंनें आपरेशन भी कराया मगर उसमें सफलता नहीं मीली। अर्थात वह बिमारी नहीं ठीक हुई. उसी हालत में उनको अपने लिये खाना बनाना और अपना सब काम अकेले ही देख भाल करना पड़ता, एकान्त जंगल की एक कुटी में रह कर करना पंड़ता था। जहाँ पर आयें दिन चोर बदमाश लुटेरें उनके पास आते और उनको परेशान करते थे। उनका वहाँ जीना मुस्किल लगने लगा। जब उनको निश्चित हो गया की यदी यहाँ रहे तो उनकी मृत्यु होना निश्चित होगा और वह मरना नहीं चाहते थे। जैसा की कोई भी नहीं चाहता है। वह करना तो बहुत कुछ चाहते है लेकिन उसके लिये उनके पास ना ही साधन है और ना ही लोग उनका साथ ही देना चाहते है उस स्थाना पर। इसलिये उन्होंने वह स्थान छोड़ने का निश्चय किया और वहाँ से अपनी जान बचाने के लिये एक शहर में चले गये जहाँ पर उन्होंने पहले अपनी सेवा दी थी। उस संस्थान के मालिक को उन पर दया आ गई और उसने उनको इस बिमारी की हालत में काम पर रख लिया। जहाँ पर वह काम कर करके आपना इलाज कराने लगे उनका सारा पैसा उनके इलाज में ही खर्च हो रहा है। लेकिन वह स्वस्थ नहीं हुए. इसलिये कहता हूँ की इस शान्ती से दूर ही रहने में समझदारी है।
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