Ad Code

गार्गी तथा याज्ञवल्क्य के बीच संवाद Brihadaranyaka Upanishad 3:8

गार्गी तथा याज्ञवल्क्य के बीच संवाद

Brihadaranyaka Upanishad 3:8

राजा जनक का राजसभा लगा था। सभी ऋषि-मुनि याज्ञवल्क्य से प्रश्न कर रहे थे और याज्ञवल्क्य उत्तर दे रहे थे। प्रश्न करने वालों में एक ऋषिका थी गार्गी, वचक्नु की पुत्री। उन्होंने राज सभा को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘‘श्रद्धेय ब्राह्मणो! मैं याज्ञवल्क्य से दो प्रश्न करूंगी। यदि उन्होंने उचित उत्तर दे दिया तब आप लोगो में से कोई भी उन्हें कभी परास्त नहीं कर पायेंगे। वे ब्रह्म के सत्य के एक महान व्याख्याता बन जायेंगे।

याज्ञवल्क्य बोले, ‘‘क्या है प्रश्न तुम्हारा, पूछो।’’ गार्गी ने कहा, ‘‘याज्ञवल्क्य, आप यह बतायें कि वह क्या है जो स्वर्ग से ऊपर है तथा पृथ्वी से नीचे है, जो स्वर्ग तथा पृथ्वी के बीच भी है और जो पहले था, अभी है और भविष्य में भी रहेगा तथा किससे ओत-प्रोत है?”

याज्ञवल्क्य ने कहा, “जिसके बारे में कहा जाता है कि जो स्वर्ग से ऊपर और पृथ्वी से नीचे भी रहता है तथा स्वर्ग व पृथ्वी के बीच भी रहता है और जो पहले था, वर्तमान में है व भविष्य में भी रहेगा और वे जिससे ओत-प्रोत हैं वह आकाश (अन्तरिक्ष) है। आकाश सूक्ष्मतम तत्त्व है, इतना सूक्ष्म कि यह प्रायः चेतना के समकक्ष माना जाता है। इसके बिना कुछ भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। फिर भी वह कुछ और है।

गार्गी ने कहा, ‘‘आपने मेरे पहले प्रश्न का ठीक उत्तर दिया है। मैं आप के समक्ष नमस्तक हूँ। अब मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर दीजिये। प्रश्न है कि वह आकाश किससे ओत-प्रोत है?’’

याज्ञवल्क्य ने कहा, “ऋषि उसे अक्षर कहते हैं जो अविकारी और अविनाशी सद्वस्तु है। वह न तो स्थूल है, न सूक्ष्म, न लघु न दीर्घ, न उष्ण न शीतल, न प्रकाश न अन्धकार, न वायु प्रकृति का न इथर-प्रकृति का। वह निरपेक्ष है, स्वाद व गन्धरहित है, उसमें न नेत्र हैं, न कर्ण, न वाक्, न मन, न ऊर्जा, न प्राण, न मुख। वह अपरिमेय है, न अन्तरंग, न बहिरंग। वह निरानन्द है।

‘‘उस सद्वस्तु के ही आदेश पर सूर्य और चन्द्र अपने-अपने निर्धारित क्रम की परिक्रमा करते हैं, स्वर्ग और पृथ्वी अपने-अपने स्थान पर स्थित हैं। क्षण, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतुएं और वर्ष अपने पथ का अनुगमन करते हैं। नदियाँ हिमगिरियों से उद्भूत हो सभी दिशाओं में प्रवाहित होती रहतीं हैं।

‘‘हे गार्गी, जो व्यक्ति इस संसार में इस सद्वस्तु के ज्ञान से रहित होकर सहस्र वर्षों तक भी यज्ञ तपस्या करता रहे तब भी उसे कुछ प्राप्त नहीं होगा। उसके अर्पण-तर्पण तथा साधना व्यर्थ हैं। जो व्यक्ति इस अक्षर को जाने बिना इस संसार से चला जाता है, उसकी दशा दयनीय होती है। किन्तु इसे जान लेने के पश्चात जो यहाँ से, इस संसार से विदा लेता है वह ज्ञानी होता है।‘‘हे गार्गी, यह सद्वस्तु अद्दश्य है परन्तु द्रष्टा है, अश्रुत है पर श्रोता है, अचिन्त्य है किन्तु चिन्तनशील है, अज्ञात है पर ज्ञाता है। कोई अन्य नहीं यही एक मात्र द्रष्टा है, कोई अन्य नहीं केवल यही श्रोता है कोई अन्य चिन्तनशील नहीं, केवल यही चिन्तनशील है, कोई अन्य ज्ञाता नहीं, केवल यही ज्ञाता है। हे गार्गी, वस्तुतः, इसी अक्षर से आकाश ओत-प्रोत है।’’

याज्ञवल्क्य का यह उत्तर सुनकर गार्गी ने राजसभा में एकत्रित ब्राह्मणों को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘‘श्रद्धेय ब्राह्मणों, जाने से पूर्व इनके समक्ष नतमस्तक होकर आप धन्य हो जाइये। ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य को कोई परास्त नहीं कर सकता।

––(बृहदारण्यक उपनिषद 3:8 से)

Post a Comment

0 Comments

Ad Code