सत्यकाम द्वारा गोश्रुति को रहस्योद्धाटन
From Chandogya Upanishad, 5.2
गोश्रुति व्याघ्रपाद का पुत्र था। वह गुह्य विद्या का छात्र था। उन दिनों के प्रचलन के अनुसार वह ब्रह्म ज्ञान के शिक्षण तथा व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए आवश्यक अवधि तक उपने गुरु गृह में निवास कर रहा था। उसका गुरु सत्यकाम को स्वयं अपने गुरु हरिद्रुमत गौतम के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए एक दीर्घ तपस्या करनी पडी थी। तथा अपने ब्रह्मचर्य की शक्ति तथा गुरु भक्ति से सत्यकाम देवताओं के द्वारा ब्रह्म के अनेक पक्षों का इतना गहरा ज्ञान प्राप्त कर चुका था कि ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से उसका मुख मण्डल दमकने लगा। कालक्रम में वह ब्रह्मज्ञान की अनेक विधियों में दक्ष हो गया। उसने ही कमला के पुत्र उपकोसल को अक्षि पुरुष विद्या की दीक्षा दी जिसके द्वारा आँखों में दिखाई देने वाले पुरुष में ब्रह्म दिखाई देता है।
गोश्रुति सत्यकाम के उन शिष्यों में से एक था जिस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता थी। जब सत्यकाम ने देखा कि गोश्रुति उच्चतम विद्या में दीक्षा के योग्य हो गया है तब उसने उसे प्राण विद्या में दीक्षित किया। इस विद्या के द्वारा व्यक्ति प्राण की रचनात्मक शक्तियों तथा आत्मा की अभिव्यक्ति को बहुत सीमा तक निश्चित रूप से विकसित कर सकता है। गोश्रुति ने इस विद्या को इसके सूक्ष्म प्रयोगों तथा यज्ञ की विधियों के साथ ग्रहण कर लिया। इस विद्या को ग्रहण करने से स्वयं प्राण आत्मा की सिद्धि हो जाती है जो हर वस्तु का सृजन कर सकती है और उसे प्रस्फुटित करती रहती है। यह विद्या स्वयं ब्रह्म विद्या ही है। क्योंकि यहाँ वर्णित प्राण मुख्य प्राण है जो स्वयं ब्रह्म है, अपान, व्यान, समान, तथा उदान नहीं, जो क्रियान्वयन या प्रयोग के लघु क्षेत्र हैं। प्राण विद्या की पराकाष्ठा उस सत्य की सिद्धि है जिसे ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ या ‘अहं ब्रह्मास्मि’ जैसी उक्तियों में व्यक्त किया गया है।
इस प्राण विद्या की तुलना प्राणायाम से नहीं की जानी चाहिये जो केवल श्वास के नियमन या नियन्त्रण से सम्बन्ध रखता है। अपितु प्राण विद्या स्वयं ब्रह्म विद्या है जो वैश्व, प्रारंभिक प्राणिक ऊर्जा, बिना श्वास के श्वास ग्रहण की स्थिति की ओर संकेत करती है। इस सृष्टि की पूर्व स्थिति को सिद्ध करने के लिए उपनिषद दो चरणों की ओर संकेत करती है। प्रथम चरण में आकाश के साथ तदात्म होना पडता है, दूसरा प्राण के साथ। यहाँ आकाश का तात्पर्य स्थूल या अन्तरिक्ष के तात्त्विक पक्ष से तथा प्राण का तात्पर्य मात्र श्वास से नहीं है। दोनों का अर्थ अनन्त ब्रह्म के रूप में समझना चाहिए। उपनिषदों में आकाश का तात्पर्य असीम चिदाकाश से है, वैश्व चेतना या दहराकाश, अन्तर्वासी चेतना यानी स्वयं ब्रह्म से है। यही है अनन्त स्वयंभू चेतना (ब्रह्म) जो आन्तरिक और बाह्य सभी सत्ताओं को तथा सत्ता के रूप में उनके उद्धाटन को सम्भव बनाती है।
उसी प्रकार यहाँ वर्णित प्राण भी वही तत्त्व है जो सभी प्रणियों के जीवन को सम्भव बनाता है। यही है आद्य स्पन्दन, सृजनात्मक गतिशीलता जो सूक्ष्म और स्थूल दोनों के पीछे कार्य करती है। यह प्राण परम ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। केनोपनिषद इसे स्पष्ट करती हुई कहती है कि यह श्वास निर्भर नहीं है अपितु जिसके कारण श्वास हर वस्तु को अनुप्राणित कर देता है – “यत् प्राणेन न प्रनीति येन प्राणः प्राणियते”, वह है। वैयक्तिक आत्मा जब इस आदि प्राणीय ऊर्जा के साथ तदात्म हो जाती है तब वह अतिप्राणीय अथवा परम प्राणीय तत्त्व, सर्वव्यापी अनन्त ब्रह्म बन जाती है। इस प्रकार सत्यकाम के द्वारा गोश्रुति को दीक्षित की गई प्राण विद्या स्वयं तत्, ब्रह्म की स्थिति के लिए स्वाभाविक सृजनात्मकता की सिद्धि की ओर ले जाती है।
–(छान्दोग्य उपनिषद 5.2 से)
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