ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
ई॒दृङ् चा॑न्या॒दृङ् च॑ स॒दृङ् च॒ प्रति॑सदृङ् च।
मि॒तश्च॒ सम्मि॑तश्च॒ सभ॑राः॥८१॥
विषय - फिर विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो पुरुष (ईदृङ्) इसके तुल्य (च) भी (अन्यादृङ्) और के समान (च) भी (सदृङ्) समान देखने वाला (च) भी (प्रतिसदृङ्) उस उसके प्रति सदृश देखने वाला (च) भी (मितः) मान को प्राप्त (च) भी (सम्मितः) अच्छे प्रकार परिणाम किया गया (च) और जो (सभराः) समान धारणा को करने वाले वर्त्तमान हैं, वे व्यवहारसम्बन्धी कार्य्यसिद्धि कर सकते हैं॥८१॥
भावार्थ - जो मनुष्य ईश्वर के तुल्य उत्तम और ईश्वर के समान काम को करके सत्य को धारण करता और असत्य का त्याग करता है, वही योग्य है॥८१॥
ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
ऋ॒तश्च॑ स॒त्यश्च॑ ध्रु॒वश्च॑ ध॒रुण॑श्च।
ध॒र्त्ता च॑ विध॒र्त्ता च॑ विधार॒यः॥८२॥
विषय - फिर ईश्वर कैसा है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (ऋतः) सत्य का जानने वाला (च) भी (सत्यः) श्रेष्ठों में श्रेष्ठ (च) भी (ध्रुवः) निश्चययुक्त (च) भी (धरुणः) सब का आधार (च) भी (धर्त्ता) धारण करने वाला (च) भी (विधर्त्ता) विशेष करके धारण करने वाला अर्थात् धारकों का धारक (च) भी और (विधारयः) विशेष करके सब व्यवहार का धारण कराने वाला परमात्मा है, सब लोग उसी की उपासना करें॥८२॥
भावार्थ - जो मनुष्य विद्या, उत्साह, सज्जनों का सङ्ग और पुरुषार्थ से सत्य और विशेष ज्ञान को धारण कर, अच्छे स्वभाव को धारण करते हैं, वे ही आप सुखी हो सकते और दूसरों को कर भी सकते हैं॥८२॥
ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
ऋ॒त॒जिच्च॑ सत्य॒जिच्च॑ सेन॒जिच्च॑ सु॒षेण॑श्च।
अन्ति॑मित्रश्च दू॒रेऽअ॑मित्रश्च ग॒णः॥८३॥
विषय - अब विद्वान् लोग कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (ऋतजित्) विशेष ज्ञान को बढ़ानेहारा (च) और (सत्यजित्) कारण तथा धर्म को उन्नति देने वाला (च) और (सेनजित्) सेना को जीतनेहारा (च) और (सुषेणः) सुन्दर सेना वाला (च) और (अन्तिमित्रः) समीप में सहाय करनेहारे मित्र वाला (च) और (दूरे अमित्रः) शत्रु जिससे दूर भाग गये हों (च) और अन्य भी जो इस प्रकार का हो वह (गणः) गिनने योग्य होता है॥८३॥
भावार्थ - जो मनुष्य विद्या और सत्य आदि कामों की उन्नति करें तथा मित्रों की सेवा और शत्रुओं से वैर करें, वे ही लोक में प्रशंसा योग्य होते हैं॥८३॥
ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः
ई॒दृक्षा॑सऽएता॒दृक्षा॑सऽऊ॒ षु णः॑ स॒दृक्षा॑सः॒ प्रति॑सदृक्षास॒ऽएत॑न।
मि॒तास॑श्च॒ सम्मि॑तासो नोऽअ॒द्य सभ॑रसो मरुतो य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन्॥८४॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करने वाले विद्वानो! जो (ईदृक्षासः) इस लक्षण से युक्त (एतादृक्षासः) इस पहिले कहे हुओं के सदृश (सदृक्षासः) पक्षपात को छोड़ समान दृष्टि वाले (प्रतिसदृक्षासः) शास्त्रों को पढ़े हुए सत्य बोलने वाले धर्मात्माओं के सदृश हैं, वे आप (नः) हम लोगों को (सु, आ, इतन) अच्छे प्रकार प्राप्त हों (उ) वा (मितासः) परिमाणयुक्त जानने योग्य (सम्मितासः) तुला के समान सत्य झूठ को पृथक्-पृथक् करने (च) और (अस्मिन्) इस (यज्ञे) यज्ञ में (सभरसः) अपने समान प्राणियों की पुष्टि पालना करने वाले हों, वे (अद्य) आज (नः) हम लोगों की रक्षा करें और उनका हम लोग भी निरन्तर सत्कार करें॥८४॥
भावार्थ - जब धार्मिक विद्वान् जन कहीं मिलें, जिनके समीप जावें, पढ़ावें और शिक्षा देवें, तब वे उन सब लोगों को सत्कार करने योग्य हैं॥८४॥
ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - चातुर्मास्या मरुतो देवता छन्दः - स्वराडार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
स्वत॑वाँश्च प्रघा॒सी च॑ सान्तप॒नश्च॑ गृहमे॒धी च॑।
क्री॒डी च॑ शा॒की चो॑ज्जे॒षी॥८५॥
विषय - फिर वह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (स्वतवान्) अपनों की वृद्धि कराने वाला (च) और (प्रघासी) जिसके बहुत भोजन करने योग्य पदार्थ विद्यमान हैं, ऐसा (च) और (सान्तपनः) अच्छे प्रकार शत्रुजनों को तपाने (च) और (गृहमेधी) जिसका प्रशंसायुक्त घर में सङ्ग ऐसा (च) और (क्रीडी) अवश्य खेलने के स्वभाव वाला (च) और (शाकी) अवश्य शक्ति रखने का स्वभाव वाला (च) भी हो, वह (उज्जेषी) मन से अत्यन्त जीतने वाला हो॥८५॥
भावार्थ - जो बहुत बल और अन्न के सामर्थ्य से युक्त गृहस्थ होता है, वह सब जगह विजय को प्राप्त होता है॥८५॥
ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - निचृच्छक्वरी स्वरः - धैवतः
इन्द्रं॒ दैवी॒र्विशो॑ म॒रुतोऽनु॑वर्त्मानोऽभव॒न् यथेन्द्रं॒ दैवी॒र्विशो॑ म॒रुतोऽनु॑वर्त्मा॒नोऽभ॑वन्।
ए॒वमि॒मं यज॑मानं॒ दैवी॑श्च॒ विशो॑ मानु॒षीश्चानु॑वर्त्मानो भवन्तु॥८६॥
विषय - फिर राजा और प्रजा कैसे परस्पर वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे राजन्! आप वैसे अपना वर्त्ताव कीजिये (यथा) जैसे (दैवीः) विद्वान् जनों के ये (विशः) प्रजाजन (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ कराने वाले विद्वान् (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्ययुक्त राजा के (अनुवर्त्मानः) अनुकूल मार्ग से चलने वाले (अभवन्) होवें वा जैसे (मरुतः) प्राण के समान प्यारे (दैवीः) शास्त्र जानने वाले दिव्य (विशः) प्रजाजन (इन्द्रम्) समस्त ऐश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर के (अनुवर्त्मानः) अनुकूल आचरण करनेहारे (अभवन्) हों (एवम्) ऐसे (दैवीः) शास्त्र पढ़े हुए (च) और (मानुषीः) मूर्ख (च) ये दोनों (विशः) प्रजाजन (इमम्) इस (यजमानम्) विद्या और अच्छी शिक्षा से सुख देनेहारे सज्जन के (अनुवर्त्मानः) अनुकूल आचरण करने वाले (भवन्तु) हों॥८६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमलङ्कार हैं। जैसे प्रजाजन राजा आदि राजपुरुषों के अनुकूल वर्त्तें, वैसे ये लोग भी प्रजाजनों के अनुकूल वर्त्तें। जैसे अध्यापन और उपदेश करने वाले सब के सुख के लिये प्रयत्न करें, वैसे सब लोग इनके सुख के लिये प्रयत्न करें॥८६॥
ऋषि: - सप्तऋषय ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
इ॒मꣳ स्तन॒मूर्ज॑स्वन्तं धया॒पां प्रपी॑नमग्ने सरि॒रस्य॒ मध्ये॑।
उत्सं॑ जुषस्व॒ मधु॑मन्तमर्वन्त्समु॒द्रिय॒ꣳ सद॑न॒मावि॑शस्व॥८७॥
विषय - फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान पुरुष! तू (प्रपीनम्) अच्छे दूध से भरे हुए (स्तनम्) स्तन के समान (इमम्) इस (ऊर्जस्वन्तम्) प्रशंसित बल करते हुए (अपाम्) जलों के रस को (धय) पी (सरिरस्य) बहुतों के (मध्ये) बीच में (मधुमन्तम्) प्रशंसित मधुरतादि गुणयुक्त (उत्सम्) जिससे पदार्थ गीले होते हैं, उस कूप को (जुषस्व) सेवन कर वा हे (अर्वन्) घोड़ों के समान वर्त्ताव रखनेहारे जन! तू (समुद्रियम्) समुद्र में हुए स्थान कि (सदनम्) जिसमें जाते हैं, उस में (आ, विशस्व) अच्छे प्रकार प्रवेश कर॥८७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बालक और बछड़े स्तन के दूध को पी के बढ़ते हैं, वा जैसे घोड़ा शीघ्र दौड़ता है, वैसे मनुष्य यथायोग्य भोजन और शयनादि आराम से बढ़े हुए वेग से चलें, जैसे जलों से भरे हुए समुद्र के बीच नौका में स्थित होकर जाते हुए सुखपूर्वक पारावार अर्थात् इस पार से उस पार पहुँचते हैं, वैसे ही अच्छे साधनों से व्यवहार के पार और अवार को प्राप्त होवें॥८७॥
ऋषि: - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
घृ॒तं मि॑मिक्षे घृ॒तम॑स्य॒ योनि॑र्घृ॒ते श्रि॒तो घृ॒तम्व॑स्य॒ धाम॑।
अ॒नु॒ष्व॒धमाव॑ह मा॒दय॑स्व॒ स्वाहा॑कृतं वृषभ वक्षि ह॒व्यम्॥८८॥
विषय - फिर मनुष्यों को अग्नि कहां-कहां खोजना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया हैं॥
पदार्थ -
हे समुद्र में जाने वाले मनुष्य! आप (घृतम्) जल को (मिमिक्षे) सींचना चाहो (उ) वा (अस्य) इस आग का (घृतम्) घी (योनिः) घर है, जो (घृते) घी में (श्रितः) आश्रय को प्राप्त हो रहा है वा (घृतम्) जल (अस्य) इस आग का (धाम) धाम अर्थात् ठहरने का स्थान है, उस अग्नि को तू (अनुष्वधम्) अन्न की अनुकूलता को (आ, वह) पहुँचा। हे (वृषभ) वर्षाने वाले जन! तू जिस कारण (स्वाहाकृतम्) वेदवाणी से सिद्ध किये (हव्यम्) लेने योग्य पदार्थ को (वक्षि) चाहता वा प्राप्त होता है, इसलिये हम लोगों को (मादयस्व) आनन्दित कर॥८८॥
भावार्थ - जितना अग्नि जल में है, उतना जलाधिकरण अर्थात् जल में रहने वाला कहाता है, जैसे घी से अग्नि बढ़ता है, वैसे जल से सब पदार्थ बढ़ते हैं और अन्न अनुकूल घी आनन्द कराने वाला होता है, इससे उक्त व्यवहार की चाहना सब लोगों को करनी चाहिये॥८८॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
स॒मु॒द्रादू॒र्मिर्मधु॑माँ॒२ऽउदा॑र॒दुपा॒शुना॒ सम॑मृत॒त्वमा॑नट्।
घृ॒तस्य॒ नाम॒ गुह्यं॒ यदस्ति॑ जि॒ह्वा दे॒वाना॑म॒मृत॑स्य॒ नाभिः॑॥८९॥
विषय - फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्ताव रखना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! आप लोग जो (समुद्रात्) अन्तरिक्ष से (अंशुना) किरणसमूह के साथ (मधुमान्) मिठास लिये हुए (ऊर्मिः) जलतरङ्ग (उदारत्) ऊपर को पहुँचे वह (सममृतत्वम्) अच्छे प्रकार अमृतरूप स्वाद के (उपानट्) समीप में व्याप्त हो अर्थात् अतिस्वाद को प्राप्त होवे (यत्) जो (घृतस्य) जल का (गुह्यम्) गुप्त (नाम) नाम (अस्ति) है और जो (देवानाम्) विद्वानों की (जिह्वा) वाणी (अमृतस्य) मोक्ष का (नाभिः) प्रबन्ध करने वाली है, उस सब का सेवन करो॥८९॥
भावार्थ - हे मनुष्यो! जैसे अग्नि, मिले हुए जल और भूमि के विभाग से अर्थात् उनमें से जल पृथक् कर मेघमण्डल को प्राप्त करा उसको भी मीठा कर देता है तथा जो जलों का कारणरूप नाम है, वह गुप्त अर्थात् कारणरूप जल अत्यन्त छिपे हुए और जो मोक्ष है यह सब विद्वानों के उपदेश से ही मिलता है, ऐसा जानना चाहिये॥८९॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
व॒यं नाम॒ प्रं ब्र॑वामा घृ॒तस्या॒स्मिन् य॒ज्ञे धा॑रयामा॒ नमो॑भिः।
उप॑ ब्रह्मा॒ शृ॑णवच्छ॒स्यमा॑नं॒ चतुः॑शृङ्गोऽवमीद् गौ॒रऽए॒तत्॥९०॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जिसको (चतुःशृङ्गः) जिसके चारों वेद सींगों के समान उत्तम हैं, वह (गौरः) वेदवाणी में रमण करने वा वेदवाणी को देने और (ब्रह्मा) चारों वेदों को जानने वाला विद्वान् (अवमीत्) उपदेश करे वा (उप, शृणवत्) समीप में सुने, वह (घृतस्य) घी वा जल का (शस्यमानम्) प्रशंसित हुआ गुप्त (नाम) नाम है, (एतत्) इसको (वयम्) हम लोग औरों के प्रति (प्र, ब्रवाम) उपदेश करें और (अस्मिन्) इस (यज्ञे) गृहाश्रम व्यवहार में (नमोभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ (धारयाम) धारण करें॥९०॥
भावार्थ - मनुष्य लोग मनुष्य देह को पाकर सब पदार्थों के नाम और अर्थों को पढ़ाने वालों से सुनकर औरों के लिये कहें और इस सृष्टि में स्थित पदार्थों से समस्त कामों की सिद्धि करावें॥९०॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
च॒त्वारि॒ शृङ्गा॒ त्रयो॑ऽअस्य॒ पादा॒ द्वे शी॒र्षे स॒प्त हस्ता॑सोऽअस्य।
त्रिधा॑ ब॒द्धो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति म॒हो दे॒वो मर्त्याँ॒ २ऽआवि॑वेश॥९१॥
विषय - अब यज्ञ के गुणों वा शब्दशास्त्र के गुणों को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! तुम जिस (अस्य) इसके (त्रयः) प्रातःसवन, मध्यन्दिनसवन और सायंसवन ये तीन (पादाः) प्राप्ति के साधन (चत्वारि) चार वेद (शृङ्गा) सींग (द्वे) दो (शीर्षे) अस्तकाल और उदयकाल शिर वा जिस (अस्य) इसके (सप्त, हस्तासः) गायत्री आदि छन्द सात हाथ हैं वा जो (त्रिधा) मन्त्र, ब्राह्मण और कल्प इन तीन प्रकारों से (बद्धः) बंधा हुआ (महः) बड़ा (देवः) प्राप्त करने योग्य (वृषभः) सुखों को सब ओर से वर्षाने वाला यज्ञ (रोरवीति) प्रातः, मध्य और सायं सवन क्रम से शब्द करता हुआ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (आ, विवेश) अच्छे प्रकार प्रवेश करता है, उस का अनुष्ठान करके सुखी होओ॥१॥९१॥ द्वितायपक्षः—हे मनुष्यो! तुम जिस (अस्य) इसके (त्रयः) भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान तीन काल (पादाः) पग (चत्वारि) नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चार (शृङ्गा) सींग (द्वे) दो (शीर्षे) नित्य और कार्य शब्द शिर वा जिस (अस्य) इसके (सप्त, हस्तासः) प्रथमा आदि सात विभक्ति सात हाथ वा जो (त्रिधा, बद्धः) हृदय कण्ठ और शिर इन तीनों स्थानों में बंधा हुआ (महः) बड़ा (देवः) शुद्ध, अशुद्ध का प्रकाशक (वृषभः) सुखों का वर्षाने वाला शब्दशास्त्र (रोववीति) ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद से शब्द करता हुआ (मर्त्यान्) मनुष्यों को (आ, विवेश) प्रवेश करता है, उस का अभ्यास करके विद्वान् होओ॥२॥९१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उभयोक्ति अर्थात् उपमान के न्यूनाधिक धर्मों के कथन से रूपक और श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य यज्ञविद्या और शब्दविद्या को जानते हैं, वे महाशय विद्वान् होते हैं॥९१॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
त्रिधा॑ हि॒तं प॒णिभि॑र्गु॒ह्यमा॑नं॒ गवि॑ दे॒वासो॑ घृ॒तमन्व॑विन्दन्।
इन्द्र॒ऽएक॒ꣳ सूर्य॒ऽएक॑ञ्जजान वे॒नादेक॑ꣳस्व॒धया॒ निष्ट॑तक्षुः॥९२॥
विषय - अब मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (देवासः) विद्वान् जन (पणिभिः) व्यवहार के ज्ञाता स्तुति करने वालों ने (त्रिधा) तीन प्रकार से (हितम्) स्थित किये और (गवि) वाणी में (गुह्यमानम्) छिपे हुए (घृतम्) प्रकाशित ज्ञान को (अनु, अविन्दन्) खोजने के पीछे पाते हैं, (इन्द्रः) बिजुली जिस (एकम्) एक विज्ञान और (सूर्यः) सूर्य (एकम्) एक विज्ञान को (जजान) उत्पन्न करते तथा (वेनात्) अति सुन्दर मनोहर बुद्धिमान् से तथा (स्वधया) आप धारण की हुई क्रिया से (एकम्) अद्वितीय विज्ञान को (निः) निरन्तर (ततक्षुः) अतितीक्ष्ण सूक्ष्म करते हैं, वैसे तुम लोग भी आचरण करो॥९२॥
भावार्थ - तीन प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म और कारण के ज्ञान करानेहारे बिजुली तथा सूर्य के प्रकार के तुल्य प्रकाशित बोध को आप्त अर्थात् उत्तम शास्त्रज्ञ विद्वानों से जो मनुष्य प्राप्त हों, वे अपने ज्ञान को व्याप्त करें॥९२॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
ए॒ताऽअ॑र्षन्ति॒ हृद्या॑त् समु॒द्राच्छ॒तव्र॑जा रि॒पुणा॒ नाव॒चक्षे॑।
घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअ॒भि चा॑कशीमि हिर॒ण्ययो॑ वेत॒सो मध्य॑ऽआसाम्॥९३॥
विषय - फिर मनुष्यों को कैसी वाणी का प्रयोग करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जो (रिपुणा) शत्रु चोर से (न, अवचक्षे) न काटने योग्य (शतव्रजाः) सैकड़ों जिनके मार्ग हैं, (एताः) वे वाणी (हृद्यात्, समुद्रात्) हृदयाकाश से (अर्षन्ति) निकलती हैं, (आसाम्) इन वैदिक धर्मयुक्त वाणियों के (मध्ये) बीच जो अग्नि में (घृतस्य) घी की (धाराः) धाराओं के समान मनुष्यों में गिरी हुई प्रकाशित होती हैं, उनकी (हिरण्ययः) तेजस्वी (वेतसः) अतिसुन्दर मैं (अभि, चाकशीमि) सब ओर से शिक्षा करता हूं॥९३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उपदेशक विद्वान् लोग जो वाणी पवित्र, विज्ञानयुक्त, अनेक मार्गों वाली शत्रुओं से अखण्ड्य और घी का प्रवाह अग्नि को जैसे उत्तेजित करता है, वैसे श्रोताओं को प्रसन्न करने वाली हैं, उन वाणियों को प्राप्त होते हैं, वैसे सब मनुष्य अच्छे यत्न से इन को प्राप्त होवें॥९३॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
स॒म्यक् स्र॑वन्ति स॒रितो॒ न धेना॑ऽअ॒न्तर्हृ॒दा मन॑सा पू॒यमा॑नाः।
ए॒तेऽअ॑र्षन्त्यू॒र्मयो॑ घृ॒तस्य॑ मृ॒गाऽइ॑व क्षिप॒णोरीष॑माणाः॥९४॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (अन्तः, हृदा) शरीर के बीच में (मनसा) शुद्ध अन्तःकरण से (पूयमानाः) पवित्र हुई (धेनाः) वाणी (सरितः) नदियों के (न) समान (सम्यक्) अच्छे प्रकार (स्रवन्ति) प्रवृत्त होती हैं, उनको जो (एते) ये वाणी के द्वार (घृतस्य) प्रकाशित आन्तरिक ज्ञान की (ऊर्मयः) लहरें (क्षिपणोः) हिंसक जन के भय से (ईषमाणाः) भागते हुए (मृगा इव) हरिणों के तुल्य (अर्षन्ति) उठती तथा सबको प्राप्त होती हैं, उनको भी तुम लोग जानो॥९४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में दो उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे नदी समुद्रों को जाती हैं, वैसे ही आकाशस्थ शब्दसमुद्र से (आकाश का शब्द गुण है इससे) वाणी विचरती हैं, तथा जैसे समुद्र की तरङ्गें चलती हैं, वा जैसे बहेलियों से डरपे हुए मृग इधर-उधर भागते हैं, वैसे ही सब प्राणियों की शरीरस्थ विज्ञान से पवित्र हुई वाणी प्रचार को प्राप्त होती हैं। जो लोग शास्त्र के अभ्यास और सत्य-वचन आदि से वाणियों को पवित्र करते हैं, वे ही शुद्ध होते हैं॥९४॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
सिन्धो॑रिव प्राध्व॒ने शू॑घ॒नासो॒ वात॑प्रमियः पतयन्ति य॒ह्वाः।
घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअरु॒षो न वा॒जी काष्ठा॑ भि॒न्दन्नू॒र्मिभिः॒ पिन्व॑मानः॥९५॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! (प्राध्वने) जल चलने के उत्तम मार्ग में (सिन्धोरिव) नदी की जैसे (शूघनासः) शीघ्र चलनेहारी (वातप्रमियः) वायु से जानने योग्य लहरें गिरें और (न) जैसे (काष्ठाः) संग्राम के प्रदेशों को (भिन्दन्) विदीर्ण करता तथा (ऊर्मिभिः) शत्रुओं को मारने के श्रम से उठे पसीने रूप जल से पृथिवी को (पिन्वमानः) सींचता हुआ (अरुषः) चालाक (वाजी) वेगवान् घोड़ा गिरे वैसे जो (यह्वाः) बड़ी गम्भीर (घृतस्य) विज्ञान की (धाराः) वाणी (पतयन्ति) उपदेशक के मुख से निकल के श्रोताओं पर गिरती हैं, उनको तुम जानो॥९५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में भी दो उपमालङ्कार हैं। जो नदी के समान कार्यसिद्धि के लिये शीघ्र धावने वाले वा घोड़े के समान वेग वाले जन जिनकी सब दिशाओं में कीर्ति प्रवर्त्तमान हो रही है और परोपकार के लिये उपदेश से बड़े-बड़े दुःख सहते हैं, वे तथा उनके श्रोताजन संसार के स्वामी होते हैं और नहीं॥९५॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒भिप्र॑वन्त॒ सम॑नेव॒ योषाः॑ कल्या॒ण्यः स्मय॑मानासोऽअ॒ग्निम्।
घृ॒तस्य॒ धाराः॑ स॒मिधो॑ नसन्त॒ ता जु॑षा॒णो ह॑र्यति जा॒तवे॑दाः॥९६॥
विषय - फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(स्मयमानासः) किञ्चित् हंसने से प्रसन्नता करने (कल्याण्यः) कल्याण के लिये आचरण करने तथा (समनेव, योषा) एक से चित्त वाली स्त्रियां जैसे पतियों को प्राप्त हों, वैसे जो (समिधः) शब्द-अर्थ और सम्बन्धों से सम्यक् प्रकाशित (घृतस्य) शुद्ध ज्ञान की (धाराः) वाणी (अग्निम्) तेजस्वी विद्वान् को (अभि, प्रवन्त) सब ओर से पहुँचती और (नसन्त) प्राप्त होती हैं, (ताः) उन वाणियों का (जुषाणः) सेवन करता हुआ (जातवेदाः) ज्ञानी विद्वान् (हर्यति) कान्ति को प्राप्त होता है॥९६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे प्रसन्नचित्त आनन्द को प्राप्त सौभाग्यवती स्त्रियां अपने-अपने पतियों को प्राप्त होती हैं, वैसे ही विद्या तथा विज्ञानरूप आभूषण से शोभित वाणी विद्वान् पुरुष को प्राप्त होती है॥९६॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
क॒न्याऽइव वह॒तुमेत॒वा उ॑ऽअ॒ञ्ज्यञ्जा॒नाऽअ॒भि चा॑कशीमि।
यत्र॒ सोमः॑ सू॒यते॒ यत्र॑ य॒ज्ञो घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअ॒भि तत्प॑वन्ते॥९७॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(अञ्जि) चाहने योग्य रूप को (अञ्जानाः) प्रकट करती हुई (वहतुम्) प्राप्त होने वाले पति को (एतवै) प्राप्त होने के लिये (कन्या इव) जैसे कन्या शोभित होती हैं, वैसे (यत्र) जहां (सोमः) बहुत ऐश्वर्य्य (सूयते) उत्पन्न होता (उ) और (यत्र) जहां (यज्ञः) यज्ञ होता है, (तत्) वहां जो (घृतस्य) ज्ञान की (धाराः) वाणी (अभि, पवन्ते) सब ओर से पवित्र होती हैं, उनको मैं (अभि चाकशीमि) अच्छे प्रकार बार-बार प्राप्त होता हूं॥९७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कन्या स्वयंवर के विधान से अपनी इच्छा के अनुकूल पतियों को स्वीकार करके शोभित होती हैं, वैसे ऐश्वर्य्य उत्पन्न होने के अवसर और यज्ञसिद्धि में विद्वानों की वाणी पवित्र हुई शोभायमान होती हैं॥९७॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
अ॒भ्यर्षत सुष्टु॒तिं गव्य॑मा॒जिम॒स्मासु॑ भ॒द्रा द्रवि॑णानि धत्त।
इ॒मं य॒ज्ञं न॑यत दे॒वता॑ नो घृ॒तस्य॒ धारा॒ मधु॑मत्पवन्ते॥९८॥
विषय - विवाहित स्त्री-पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ -
हे विवाहित स्त्रीपुरुषो! तुम उत्तम वर्त्ताव से (सुष्टुतिमम्) अच्छी प्रशंसा तथा (आजिम्) जिस से उत्तम कामों को जानते हैं, उस संग्राम और (गव्यम्) वाणी में होने वाले बोध वा गौ में होने वाले दूध, दही, घी आदि को (अभ्यर्षत) सब ओर से प्राप्त होओ (देवता) विद्वान् जन (अस्मासु) हम लोगों में (भद्रा) अति आनन्द कराने वाले (द्रविणानि) धनों को (धत्त) स्थापित करो (नः) हम लोगों को (इमम्) इस (यज्ञम्) प्राप्त होने योग्य गृहाश्रम-व्यवहार को (नयत) प्राप्त करावो, जो (घृतस्य) प्रकाशित विज्ञान से युक्त (धाराः) अच्छी शिक्षायुक्त वाणी विद्वानों को (मधुमत्) मधुर आलाप जैसे हो वैसे (पवन्ते) प्राप्त होती हैं, उन वाणियों को हम को प्राप्त कराओ॥९८॥
भावार्थ - स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि परस्पर मित्र होकर संसार में विख्यात होवें, जैसे अपने लिये वैसे औरों के लिये भी अत्यन्त सुख करने वाले धनों को उन्नतियुक्त करें, परम पुरुषार्थ से गृहाश्रम की शोभा करें और वेदविद्या का निरन्तर प्रचार करें॥९८॥
ऋषि: - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
धाम॑न्ते॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मधि॑ श्रि॒तम॒न्तः स॑मु॒द्रे हृ॒द्यन्तरायु॑षि।
अ॒पामनी॑के समि॒थे यऽआभृ॑त॒स्तम॑श्याम॒ मधु॑मन्तं तऽऊ॒र्मिम्॥९९॥
विषय - अब ईश्वर और राजा का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे जगदीश्वर! जिस (ते) आपके (धामन्) जिसमें कि समस्त पदार्थों को आप धरते हैं (अन्तः, समुद्रे) उस आकाश के तुल्य सब के बीच व्याप्तस्वरूप में (विश्वम्) सब (भुवनम्) प्राणियों की उत्पत्ति का स्थान संसार (अधि, श्रितम्) आश्रित होके स्थित है, उसको हम लोग (अश्याम) प्राप्त होवें। हे सभापते! (ते) तेरे (अपाम्) प्राणों के (अन्तः) बीच (हृदि) हृदय में तथा (आयुषि) जीवन के हेतु प्राणधारियों के (अनीके) सेना और (समिथे) संग्राम में (यः) जो भार (आभृतः) भलीभांति धरा है, (तम्) उसको तथा (मधुमन्तम्) प्रशंसायुक्त मधुर गुणों से भरे हुए (ऊर्मिम्) बोध को हम लोग प्राप्त होवें॥९९॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि जगदीश्वर की सृष्टि में परम प्रयत्न से मित्रों की उन्नति करें और समस्त सामग्री को धारण करके यथायोग्य आहार और विहार अर्थात् परिश्रम से शरीर की आरोग्यता का विस्तार कर अपना और पराया उपकार करें॥९९॥
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