Ad Code

यजुर्वेद अध्याय 18 मंत्र (41 - 77)

 ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - वातो देवता छन्दः - ब्राह्म्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः


इ॒षि॒रो वि॒श्वव्य॑चा॒ वातो॑ गन्ध॒र्वस्तस्यापो॑ऽअप्स॒रस॒ऽऊर्जो॒ नाम॑। 

स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४१॥


 पद पाठ


इ॒षि॒रः। वि॒श्वव्य॑चाः। वातः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। आपः॑। अ॒प्स॒रसः॑। ऊर्जः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४१ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को पवन आदि से उपकार लेने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (इषिरः) जिससे इच्छा करते वा (विश्वव्यचाः) जिसकी सब संसार में व्याप्ति है, वह (गन्धर्वः) पृथिवी और किरणों को धारण करता (वातः) सब जगह भ्रमण करने वाला पवन है (तस्य) उसके जो (आपः) जल और प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान आदि भाग हैं, वे (अप्सरसः) अन्तरिक्ष जल में जाने-आने और (ऊर्जः) बल-पराक्रम के देने वाले (नाम) प्रसिद्ध हैं, जैसे (सः) वह (नः) हम लोगों के लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) सत्य के उपदेश से सब की वृद्धि करने वाले ब्राह्मणकुल तथा (क्षत्रम्) विद्या के बढ़ाने वाले राजकुल की (पातु) रक्षा करे, वैसे तुम लोग भी आचरण करो और (तस्मै) उक्त पवन के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की (वाट्) प्राप्ति तथा (ताभ्यः) उन जल आदि के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा उत्तम वाणी को युक्त करो॥४१॥


भावार्थ - शरीर में जितनी चेष्टा और बल-पराक्रम उत्पन्न होते हैं, वे सब पवन से होते हैं और पवन ही प्राणरूप और जल गन्धर्व अर्थात् सबको धारण करने वाले हैं, यह मनुष्यों को जानना चाहिये॥४१॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


भु॒ज्युः सु॑प॒र्णो य॒ज्ञो ग॑न्ध॒र्वस्तस्य॒ दक्षि॑णाऽअप्स॒रस॑ स्ता॒वा नाम॑। 

स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४२॥


 पद पाठ

भु॒ज्युः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽपर्णः॒। य॒ज्ञः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। दक्षि॑णाः। अ॒प्स॒रसः॑। स्ता॒वाः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४२ ॥


विषय - मनुष्य लोग यज्ञ का अनुष्ठान करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (भुज्युः) सुखों के भोगने और (सुपर्णः) उत्तम-उत्तम पालना का हेतु (गन्धर्वः) वाणी को धारण करने वाला (यज्ञः) सङ्गति करने योग्य यज्ञकर्म है (तस्य) उसकी (दक्षिणाः) जो सुपात्र अच्छे-अच्छे धर्मात्मा विद्वानों को दक्षिणा दी जाती हैं, वे (अप्सरसः) प्राणों में पहुँचने वाली (स्तावाः) जिनकी प्रशंसा की जाती है, ऐसी (नाम) प्रसिद्ध हैं, (सः) वह जैसे (नः) हमारे लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) विद्वान्, ब्राह्मण और (क्षत्रम्) चक्रवर्ती राजा की (पातु) रक्षा करे, वैसा तुम लोग भी अनुष्ठान करो। (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की (वाट्) प्राप्ति (ताभ्यः) उक्त दक्षिणाओं के लिये (स्वाहा) उत्तम रीति से उत्तम क्रिया को संयुक्त करो॥४२॥


भावार्थ - जो मनुष्य अग्निहोत्र आदि यज्ञों को प्रतिदिन करते हैं, वे समस्त संसार के सुखों को बढ़ाते हैं, यह जानना चाहिये॥४२॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - विराडार्षी जगती स्वरः - निषादः


प्र॒जाप॑तिर्वि॒श्वक॑र्मा॒ मनो॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॑ऽऋ॒क्सा॒मान्य॑प्स॒रस॒ऽएष्ट॑यो॒ नाम॑। 

स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥४३॥


पद पाठ

प्र॒जाप॑ति॒रिति॒ प्र॒जाऽप॑तिः। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। मनः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। ऋ॒क्सा॒मानीत्यृ॑क्ऽसा॒मानि॑। अ॒प्स॒रसः॑। एष्ट॑य॒ इत्याऽइ॑ष्टयः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४३ ॥


विषय - फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम जो (विश्वकर्मा) समस्त कामों का हेतु और (प्रजापतिः) जो प्रजा का पालने वाला स्वामी मनुष्य है, (तस्य) उसके (गन्धर्वः) जिससे वाणी आदि को धारण करता है (मनः) ज्ञान की सिद्धि करनेहारा मन (ऋक्सामानि) ऋग्वेद और सामवेद के मन्त्र (अप्सरसः) हृदयाकाश में व्याप्त प्राण आदि पदार्थों में जाती हुई क्रिया (एष्टयः) जिनसे विद्वानों का सत्कार, सत्य का सङ्ग और विद्या का दान होता है, ये सब (नाम) प्रसिद्ध हैं, जैसे (सः) वह (नः) हम लोगों के लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) वेद और (क्षत्रम्) धनुर्वेद की (पातु) रक्षा करे, वैसे (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) धर्म की प्राप्ति और (ताभ्यः) उन उक्त पदार्थों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया से उपकार को करो॥४३॥


भावार्थ - जो मनुष्य पुरुषार्थी, विचारशील, वेदविद्या के जानने वाले होते हैं, वे ही संसार के भूषण होते हैं॥४३॥


ऋषि: - देवा ऋषयः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


स नो॑ भुवनस्य पते प्रजापते॒ यस्य॑ तऽउ॒परि॑ गृ॒हा यस्य॑ वे॒ह। 

अ॒स्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राय॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ॒ स्वाहा॑॥४४॥


पद पाठ

सः। नः॒। भु॒व॒न॒स्य॒। प॒ते॒। प्र॒जा॒प॒त॒ इति॑ प्रजाऽपते। यस्य॑। ते॒। उ॒परि॑। गृ॒हा। यस्य॑। वा॒। इ॒ह। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। महि॑। शर्म॑। य॒च्छ॒। स्वाहा॑ ॥४४ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (भुवनस्य) घर के (पते) स्वामी (प्रजापते) प्रजा की रक्षा करने वाले पुरुष! (इह) इस संसार में (यस्य) जिस (ते) तेरे (उपरि) अति उच्चता को देनेहारे उत्तम व्यवहार में (गृहाः) पदार्थों के ग्रहण करनेहारे गृहस्थ मनुष्य आदि (वा) वा (यस्य) जिसकी सब उत्तम क्रिया हैं (सः) सो तू (नः) हमारे (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) वेद और ईश्वर के जाननेहारे मनुष्य तथा (अस्मै) इस (क्षत्राय) राजधर्म में निरन्तर स्थित क्षत्रिय के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया से (महि) बहुत (शर्म) घर और सुख को (यच्छ) दे॥४४॥


भावार्थ - जो मनुष्य विद्वानों और क्षत्रियों के कुल को नित्य बढ़ाते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं॥४४॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः


स॒मु॒द्रोऽसि॒ नभ॑स्वाना॒र्द्रदा॑नुः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ मा॒रु॒तोऽसि म॒रुतां॑ ग॒णः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ऽव॒स्यूर॑सि॒ दुव॑स्वाञ्छ॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑॥४५॥


पद पाठ

स॒मु॒द्रः। अ॒सि॒। नभ॑स्वान्। आ॒र्द्रदानु॒रित्या॒र्द्रऽदा॑नुः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। मयो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। मा॒रु॒तः। अ॒सि॒। म॒रुता॑म्। ग॒णः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। अ॒व॒स्यूः। अ॒सि॒। दुव॑स्वान्। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑ ॥४५ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! जो तू (नभस्वान्) जिसके समीप जल और (आर्द्रदानुः) शीतल गुणों का देने वाला और (समुद्रः) जिसमें उलट-पलट जल गिरते उस समुद्र के समान (असि) है, वह (स्वाहा) सत्य क्रिया से (शम्भूः) उत्तम सुख और (मयोभूः) सामान्य सुख उत्पन्न कराने वाला होता हुआ (मा) मुझको (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो तू (मारुतः) पवनों का सम्बन्धी जाननेहारा (मरुताम्) विद्वानों के (गणः) समूह के समान (असि) है, वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (शम्भूः) विशेष परजन्म के सुख और (मयोभूः) इस जन्म में सामान्य सुख का उत्पन्न करने वाला होता हुआ (मा) मुझ को (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो, जो तू (दुवस्वान्) प्रशंसित सत्कार से युक्त (अवस्यूः) अपनी रक्षा चाहने वाले के समान (असि) है, वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (शम्भूः) विशेष सुख और (मयोभूः) सामान्य अपने सुख का उत्पन्न करनेहारा होता हुआ (मा) मुझ को (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो॥४५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य समुद्र के समान गम्भीर और रत्नों से युक्त, कोमल पवन के तुल्य बलवान्, विद्वानों के तुल्य परोपकारी और अपने आत्मा के तुल्य सब की रक्षा करते हैं, वे ही सब के कल्याण और सुखों को कर सकते हैं॥४५॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः


यास्ते॑ अग्ने॒ सूर्ये॒ रुचो॒ दिव॑मात॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभिः॑। 

ताभि॑र्नोऽअ॒द्य सर्वा॑भी रु॒चे जना॑य नस्कृधि॥४६॥


पद पाठ

याः। ते॒। अ॒ग्ने॒। सूर्ये॑। रुचः॑। दिव॑म्। आ॒त॒न्वन्तीत्या॑ऽत॒न्वन्ति॑। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। ताभिः॑। नः॒। अ॒द्य। सर्वा॑भिः। रु॒चे। जना॑य। नः॒। कृ॒धि॒ ॥४६ ॥


विषय - फिर विद्वान् को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) परमेश्वर वा विद्वन्! (याः) जो (सूर्ये) सूर्य वा प्राण में (रुचः) दीप्ति वा प्रीति हैं और जो (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (दिवम्) प्रकाश को (आतन्वन्ति) सब ओर से फैलाती हैं, (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब (ते) अपनी दीप्ति वा प्रीतियों से (अद्य) आज (नः) हम लोगों को संयुक्त करो और (रुचे) प्रीति करनेहारे (जनाय) मनुष्य के अर्थ (नः) हम लोगों को (कृधि) नियत करो॥४६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर सूर्य आदि प्रकाश करनेहारे लोकों का भी प्रकाश करनेहारा है, वैसे सब शास्त्र को यथावत् कहने वाला विद्वान् विद्वानों को भी विद्या देनेहारा होता है। जैसे ईश्वर इस संसार में सब प्राणियों की सत्य में रुचि और असत्य में अरुचि को उत्पन्न करता है, वैसा विद्वान् भी आचरण करे॥४६॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


या वो॑ दे॒वाः सूर्ये॒ रुचो॒ गोष्वश्वे॑षु॒ या रुचः॑। 

इन्द्रा॑ग्नी॒ ताभिः॒ सर्वा॑भी॒ रुचं॑ नो धत्त बृहस्पते॥४७॥


पद पाठ

याः। वः॒। दे॒वाः। सूर्य्ये॑। रुचः॑। गोषु॑। अश्वे॑षु। याः। रुचः॑। इन्द्रा॑ग्नी। ताभिः॑। सर्वा॑भिः। रुच॑म्। नः॒। ध॒त्त॒। बृ॒ह॒स्प॒ते॒ ॥४७ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (बृहस्पते) बड़े-बड़े पदार्थों की पालना करनेहारे ईश्वर और (देवाः) विद्वान् मनुष्यो! (याः) जो (वः) तुम सबों की (सूर्य्ये) चराचर में व्याप्त परमेश्वर में अर्थात् ईश्वर की अपने में और तुम विद्वानों की ईश्वर में (रुचः) प्रीति हैं वा (याः) जो इन (गोषु) किरण, इन्द्रिय और दुग्ध देने वाली गौ और (अश्वेषु) अग्नि तथा घोड़ा आदि में (रुचः) प्रीति हैं वा जो इन में (इन्द्राग्नी) प्रसिद्ध बिजुली और आग वर्त्तमान हैं, वे भी (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब प्रीतियों से (नः) हम लोगों में (रुचम्) प्रीति को (धत्त) स्थापन करो॥४७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर गौ आदि की रक्षा और पदार्थविद्या में सब मनुष्यों को प्रेरणा देता है, वैसे ही विद्वान् लोग भी आचरण किया करें॥४७॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


रुचं॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ꣳ राज॑सु नस्कृधि। 

रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म्॥४८॥


 पद पाठ

रुच॑म्। नः॒। धे॒हि॒। ब्रा॒ह्म॒णेषु॑। रुच॑म्। राज॒स्विति॒ राज॑ऽसु। नः॒। 

कृ॒धि॒। रुच॑म्। विश्ये॑षु। शू॒द्रेषु॑। मयि॑। धे॒हि॒। रु॒चा। रुच॑म् ॥४८ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे जगदीश्वर वा विद्वन्! आप (नः) हम लोगों के (ब्राह्मणेषु) ब्रह्मवेत्ता विद्वानों में (रुचा) प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (धेहि) धरो, स्थापन करो (नः) हम लोगों के (राजसु) राजपूत क्षत्रियों में प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (कृधि) करो (विश्येषु) प्रजाजनों में हुए वैश्यों में तथा (शूद्रेषु) शूद्रों में प्रीति से (रुचम्) प्रीति को और (मयि) मुझ में भी प्रीति से (रुचम्) प्रीति को (धेहि) स्थापन करो॥४८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर पक्षपात को छोड़ ब्राह्मणादि वर्णों में समान प्रीति करता है, वैसे ही विद्वान् लोग भी समान प्रीति करें। जो ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से विरुद्ध वर्त्तमान हैं, वे सब नीच और तिरस्कार करने योग्य होते हैं॥४८॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - निचृच्छक्वरी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदा शा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। 

अहे॑डमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शꣳस॒ मा न॒ऽआयुः॒ प्रमो॑षीः॥४९॥


 पद पाठ

तत्। त्वा॒। या॒मि। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विर्भि॒रिति ह॒विःऽभिः॑। अहे॑डमानः। व॒रु॒ण॒। इ॒ह। बो॒धि॒। उरु॑श॒ꣳसेत्युरु॑ऽशꣳस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒ ॥४९ ॥


विषय - मनुष्यों को विद्वानों के तुल्य आचरण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (उरुशंस) बहुतों की प्रशंसा करनेहारे (वरुण) श्रेष्ठ विद्वन्! (ब्रह्मणा) वेद से (वन्दमानः) स्तुति करता हुआ (यजमानः) यज्ञ करने वाला (अहेडमानः) सत्कार को प्राप्त हुआ पुरुष (हविर्भिः) होम करने के योग्य अच्छे बनाये हुए पदार्थों से जो (आ, शास्ते) आशा करते है, (तत्) उसको मैं (यामि) प्राप्त होऊं तथा जिस उत्तम (आयुः) सौ वर्ष की आयुर्दा को (त्वा) तेरा आश्रय करके मैं प्राप्त होऊं (तत्) उस को तू भी प्राप्त हो, तू (इह) इस संसार में उक्त आयुर्दा को (बोधि) जान और तू (नः) हमारी उस आयुर्दा को (मा, प्र, मोषीः) मत चोर॥४९॥


भावार्थ - सत्यवादी, शास्त्रवेत्ता, सज्जन, विद्वान् जो चाहे वही चाहना मनुष्यों को भी करनी चाहिये। किसी को किन्हीं विद्वानों का अनादर न करना चाहिये तथा स्त्री पुरुषों को ब्रह्मचर्यत्याग, अयोग्य आहार-विहार, व्यभिचार, अत्यन्त विषयासक्ति आदि खोटे कामों से आयुर्दा का नाश कभी न करना चाहिये॥४९॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - गान्धारः


स्व॒र्ण घ॒र्मः स्वाहा॑ स्वर्णार्कः स्वाहा॑ स्वर्ण शु॒क्रः स्वाहा॒ स्वर्ण ज्योतिः॒ स्वाहा॒ स्वर्ण सूर्यः॒ स्वाहा॑॥५०॥


स्वर सहित पद पाठ


स्वः॑। न। घ॒र्मः। स्वाहा॑। स्वः॑। न। अ॒र्कः। स्वाहा॑। स्वः॑। न। शु॒क्रः। स्वाहा॑। स्वः॑। न। ज्योतिः॑। स्वाहा॑। स्वः॒। न। सूर्यः॑। स्वाहा॑ ॥५० ॥


विषय - कैसे जन पदार्थों को शुद्ध करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (स्वाहा) सत्य क्रिया से (स्वः) सुख के (न) समान (घर्मः) प्रताप (स्वाहा) सत्य क्रिया से (स्वः) सुख के (न) तुल्य (अर्कः) अग्नि (स्वाहा) सत्य क्रिया से (स्वः) सुख के (न) सदृश (शुक्रः) वायु (स्वाहा) सत्य क्रिया से (स्वः) सुख के (न) समान (ज्योतिः) बिजुली की चमक (स्वाहा) सत्य क्रिया से (स्वः) सुख के (न) समान (सूर्यः) सूर्य हो, वैसे तुम भी आचरण करो॥५०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। यज्ञ के करने वाले मनुष्य सुगन्धियुक्त आदि पदार्थों के होम से समस्त वायु आदि पदार्थों को शुद्ध कर सकते हैं, जिससे रोगक्षय होकर सब की बहुत आयुर्दा हो॥५०॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


अ॒ग्निं यु॑नज्मि॒ शव॑सा घृ॒तेन॑ दि॒व्यꣳ सु॑प॒र्णं वय॑सा बृ॒हन्त॑म्। 

तेन॑ व॒यं ग॑मेम ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टप॒ꣳ स्वो रुहा॑णा॒ऽअधि॒ नाक॑मुत्त॒मम्॥५१॥

 पद पाठ

अ॒ग्निम्। यु॒न॒ज्मि॒। शव॑सा। घृ॒तेन॑। दि॒व्यम्। सु॒प॒र्णमिति॑ सुऽप॒र्णम्। वय॑सा। बृ॒हन्त॑म्। तेन॑। व॒यम्। ग॒मे॒म॒। ब्र॒ध्नस्य॑। वि॒ष्टप॑म्। स्वः॑। रुहा॑णाः। अधि॑। नाक॑म्। उ॒त्त॒मम् ॥५१ ॥


विषय - कैसे नर सुखी होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

मैं (वयसा) वायु की व्याप्ति से (बृहन्तम्) बड़े हुए (दिव्यम्) शुद्ध गुणों में प्रसिद्ध होने वाले (सुपर्णम्) अच्छे प्रकार रक्षा करने में परिपूर्ण (अग्निम्) अग्नि को (शवसा) बलदायक (घृतेन) घी आदि सुगन्धित पदार्थों से (युनज्मि) युक्त करता हूं (तेन) उससे (स्वः) सुख को (रुहाणाः) आरूढ़ हुए (वयम्) हम लोग (ब्रध्नस्य) बड़े से बड़े के (विष्टपम्) उस व्यवहार को कि जिससे सामान्य और विशेष भाव से प्रवेश हुए जीवों की पालना की जाती है और (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) दुःखरहित सुखस्वरूप स्थान है, उसको (अधि, गमेम) प्राप्त होते हैं॥५१॥


भावार्थ - जो मनुष्य अच्छे बनाए हुए सुगन्धि आदि से युक्त पदार्थों को आग में छोड़ कर पवन आदि की शुद्धि से सब प्राणियों को सुख देते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं॥५१॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी जगती स्वरः - निषादः


इ॒मौ ते॑ प॒क्षाव॒जरौ॑ पत॒त्त्रिणौ॒ याभ्या॒ रक्षा॑स्यप॒हस्य॑ग्ने। 

ताभ्यां॑ पतेम सु॒कृता॑मु लो॒कं यत्र॒ऽऋष॑यो ज॒ग्मुः प्र॑थम॒जाः पु॑रा॒णाः॥५२॥


पद पाठ

इ॒मौ। ते॒। प॒क्षौ। अ॒जरौ॑। प॒त॒त्रिणौ॑। याभ्या॑म्। रक्षा॑सि। अ॒प॒हꣳसीत्य॑प॒ऽहꣳसि॑। अ॒ग्ने॒। ताभ्या॑म्। प॒ते॒म॒। सु॒कृता॒मिति॑ सु॒ऽकृता॑म्। ऊ॒ऽइत्यँू॑। लो॒कम्। यत्र॑। ऋष॑यः। ज॒ग्मुः। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। पु॒रा॒णाः ॥५२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रताप वाले विद्वन्! (ते) आपके जो (इमौ) ये (पतत्रिणौ) उच्च श्रेणी को प्राप्त हुए (अजरौ) कभी नष्ट नही होते अजर-अमर (पक्षौ) कार्य्यकारण रूप समीप के पदार्थ हैं (याभ्याम्) जिनसे आप (रक्षांसि) दुष्ट प्राणियों वा दोषों को (अपहंसि) दूर बहा देते हैं, (ताभ्याम्) उनसे (उ) ही उस (सुकृताम्) सुकृती सज्जनों के (लोकम्) देखने योग्य आनन्द को हम लोग (पतेम) पहुँचें (यत्र) जिस आनन्द में (प्रथमजाः) सर्वव्याप्त परमेश्वर में प्रसिद्ध वा अतिविस्तारयुक्त वेद में प्रसिद्ध अर्थात् उसके जानने से कीर्ति पाये हुए (पुराणाः) पहिले पढ़ने के समय नवीन (ऋषयः) वेदार्थ जानने वाले विद्वान् ऋषिजन (जग्मुः) पहुँचे॥५२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शास्त्रवेत्ता विद्वान् जन दोषों को खोके, धर्म आदि अच्छे गुणों का ग्रहण कर, ब्रह्म को प्राप्त होके, आनन्दयुक्त होते हैं, वैसे उनको पाकर मनुष्यों को भी सुखी होना चाहिये॥५२॥


ऋषि: - शुनःशेप ऋषिः देवता - इन्दु र्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


इन्दु॒र्दुक्षः॑ श्ये॒नऽऋ॒तावा॒ हिर॑ण्यपक्षः शकु॒नो भु॑र॒ण्युः। 

म॒हान्त्स॒धस्थे॑ ध्रु॒वऽआ निष॑त्तो॒ नम॑स्तेऽअस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसीः॥५३॥


पद पाठ

इन्दुः॑। दक्षः॑। श्ये॒नः। ऋ॒तावे॑त्यृ॒तऽवा॑। हिर॑ण्यपक्ष॒ इति॒ हिर॑ण्यऽपक्षः। श॒कु॒नः। भु॒र॒ण्युः। म॒हान्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। ध्रु॒वः। आ। निष॑त्तः। निऽस॑त्त इति॒ निऽस॑त्तः। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒ ॥५३ ॥


विषय - विद्वानों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! सभापति जो आप (इन्दुः) चन्द्रमा के समान शीतल स्वभाव सहित (दक्षः) बल चतुराई युक्त (श्येनः) बाज के समान पराक्रमी (ऋतावा) जिनका सत्य का सम्बन्ध विद्यमान है और (हिरण्यपक्षः) सुवर्ण के लाभ वाले (शकुनः) शक्तिमान् (भुरण्युः) सब के पालनेहारे (महान्) सब से बड़े (सधस्थे) दूसरे के साथ स्थान में (आ, निषत्तः) निरन्तर स्थित (ध्रुवः) निश्चल हुए (मा) मुझे (मा) मत (हिंसीः) मारो, उन (ते) आपके लिये हमारा (नमः) सत्कार (अस्तु) प्राप्त हो॥५३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस संसार में विद्वान् जन स्थिर होकर सब विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा से युक्त करें, जिससे वे हिंसा करनेहारे न होवें॥५३॥


ऋषि: - गालव ऋषिः देवता - इन्दु र्देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः


दि॒वो मू॒र्द्धासि॑ पृथि॒व्या नाभि॒रूर्ग॒पामोष॑धीनाम्। 

वि॒श्वायुः॒ शर्म॑ स॒प्रथा॒ नम॑स्प॒थे॥५४॥


 पद पाठ

दि॒वः। मू॒र्द्धा। अ॒सि॒। पृ॒थि॒व्याः। नाभिः॑। ऊर्क्। अ॒पाम्। ओष॑धीनाम्। वि॒श्वायु॒रिति॑ वि॒श्वऽआ॑युः। शर्म॑। स॒प्रथा॒ इति॑ स॒ऽप्रथाः॑। नमः॑। प॒थे ॥५४ ॥


विषय - कैसा मनुष्य दीर्घजीवी होता है? इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! जो आप (दिवः) प्रकाश अर्थात् प्रताप के (मूर्द्धा) शिर के समान (पृथिव्याः) पृथिवी के (नाभिः) बन्धन के समान (अपाम्) जलों और (ओषधीनाम्) ओषधियों के (ऊर्क्) रस के समान (विश्वायुः) पूर्ण सौ वर्ष जीने वाले और (सप्रथाः) कीर्तियुक्त (असि) हैं, सो आप (पथे) सन्मार्ग के लिये (नमः) अन्न (शर्म) शरण और सुख को प्राप्त होओ॥५४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य न्यायवान्, सहनशील, औषध का सेवन करने और आहार-विहार से यथायोग्य रहने वाला, इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सौ वर्ष की अवस्था वाला होता है॥५४॥


ऋषि: - गालव ऋषिः देवता - इन्दु र्देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः


विश्व॑स्य मू॒र्द्धन्नधि॑ तिष्ठसि श्रि॒तः स॑मु॒द्रे ते॒ हृद॑यम॒प्स्वायुर॒॑पो द॑त्तोद॒धिं भि॑न्त। दि॒वस्प॒र्जन्या॑द॒न्तरि॑क्षात् पृथि॒व्यास्ततो॑ नो॒ वृष्ट्या॑व॥५५॥


पद पाठ


विश्व॑स्य। मू॒र्द्धन्। अधि॑। ति॒ष्ठ॒सि॒। श्रि॒तः। स॒मु॒द्रे। ते॒। हृद॑यम्। अ॒प्सु। आयुः॑ अ॒पः। द॒त्त॒। उ॒द॒धिमित्यु॑द॒ऽधिम्। भि॒न्त॒। दि॒वः। प॒र्जन्या॑त्। अ॒न्तरि॑क्षात्। पृ॒थि॒व्याः। ततः॑। नः॒। वृष्ट्या॑। अ॒व॒ ॥५५ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! जो आप (विश्वस्य) सब संसार के (मूर्द्धन्) शिर पर (श्रितः) विराजमान सूर्य के समान (अधि, तिष्ठसि) अधिकार पाये हुए हैं, जिन (ते) आपका (समुद्रे) अन्तरिक्ष के तुल्य व्यापक परमेश्वर में (हृदयम्) मन (अप्सु) प्राणों में (आयुः) जीवन है, उन (अपः) प्राणों को (दत्त) देते हो, (उदधिम्) समुद्र का (भिन्त) भेदन करते हो, जिससे सूर्य (दिवः) प्रकाश (अन्तरिक्षात्) आकाश (पर्जन्यात्) मेघ और (पृथिव्याः) भूमि से (वृष्ट्या) वर्षा के योग से सब चराचर प्राणियों की रक्षा करता है, (ततः) इससे अर्थात् सूर्य के तुल्य (नः) हम लोगों की (अव) रक्षा करो॥५५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान सुख वर्षाने और उत्तम आचरणों के करनेहारे हैं, वे सबको सुखी कर सकते हैं॥५५॥


ऋषि: - गालव ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः


इ॒ष्टो य॒ज्ञो भृगु॑भिराशी॒र्दा वसु॑भिः। 

तस्य॑ न इ॒ष्टस्य॑ प्री॒तस्य॒ द्रवि॑णे॒हा ग॑मेः॥५६॥


पद पाठ

इ॒ष्टः। य॒ज्ञः। भृगु॑भि॒रिति॒ भृगु॑ऽभिः। आ॒शी॒र्दा इत्या॑शीः॒ऽदा। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। तस्य॑। नः। इ॒ष्टस्य॑। प्री॒तस्य॑। द्रवि॑ण। इ॒ह। आ। ग॒मेः ॥५६ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! जो (भृगुभिः) परिपूर्ण विज्ञान वाले (वसुभिः) प्रथम कक्षा के विद्वानों के (आशीर्दाः) इच्छासिद्धि को देने वाला (यज्ञः) यज्ञ (इष्टः) किया है, (तस्य) उस (इष्टस्य) किये हुए (प्रीतस्य) मनोहर यज्ञ के सकाश से (इह) इस संसार में आप (नः) हम लोगों के (द्रविण) धन को (आ, गमेः) प्राप्त हूजिये॥५६॥


भावार्थ - जो विद्वानों के तुल्य अच्छा यत्न करते हैं, वे इस संसार में बहुत धन को प्राप्त होते हैं॥५६॥


ऋषि: - गालव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


इ॒ष्टोऽअ॒ग्निराहु॑तः पिपर्त्तु नऽइ॒ष्टꣳ ह॒विः। 

स्व॒गेदं दे॒वेभ्यो॒ नमः॑॥५७॥


 पद पाठ


इ॒ष्टः। अ॒ग्निः। आहु॑त॒ इत्याहु॑तः। पि॒प॒र्त्तु॒। नः॒। इ॒ष्टम्। ह॒विः। स्व॒गेति॑ स्व॒ऽगा। इ॒दम्। दे॒वेभ्यः॑। नमः॑ ॥५७ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(हविः) संस्कार किये पदार्थों से (आहुतः) अच्छे प्रकार तृप्त वा हवन किया (इष्टः) सत्कार किया वा आहुतियों से बढ़ाया हुआ (अग्निः) यह सभा आदि का अध्यक्ष विद्वान् वा अग्नि (नः) हमारे (इष्टम्) सुख वा सुख के साधनों को (पिपर्त्तु) पूरा करे वा हमारी रक्षा करे (इदम्) यह (स्वगा) अपने को प्राप्त होने वाला (नमः) अन्न वा सत्कार (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये हो॥५७॥


भावार्थ - मनुष्य अग्नि में अच्छे संस्कार से बनाये हुए जिस पदार्थ का होम करते हैं, सो इस संसार में बहुत अन्न का उत्पन्न करने वाला होता है, इस कारण उससे विद्वान् आदि सत्पुरुषों का सत्कार करना चाहिये॥५७॥


ऋषि: - विश्वकर्मा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः


यदाकू॑तात् स॒मसु॑स्रोद्धृ॒दो वा॒ मन॑सो वा॒ सम्भृ॑तं॒ चक्षु॑षो वा। तद॑नु॒ प्रेत॑ सु॒कृता॑मु लो॒कं यत्र॒ऽऋष॑यो ज॒ग्मुः प्र॑थम॒जाः पु॑रा॒णाः॥५८॥


पद पाठ

यत्। आकू॑ता॒दित्याऽकू॑तात्। स॒मसु॑स्रो॒दिति॑ स॒म्ऽअसु॑स्रोत्। हृ॒दः। वा॒। मन॑सः। वा॒। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। चक्षु॑षः। वा॒। तत्। अ॒नु॒प्रेतेत्य॑नु॒ऽप्रेत॑। सु॒कृता॒मिति॑ सु॒कृता॑म्। ऊ॒ऽइत्यूँ॑। लो॒कम्। यत्र॑। ऋष॑यः। ज॒ग्मुः। प्र॒थ॒म॒जाः। पु॒रा॒णाः ॥५८ ॥


विषय - अब विद्वानों के विषय में सत्य का निर्णय, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे सत्य-असत्य का ज्ञान चाहते हुए मनुष्यो! तुम लोग (यत्) जो (आकूतात्) उत्साह (हृदः) आत्मा (वा) वा प्राण (मनसः) मन (वा) वा बुद्धि आदि तथा (चक्षुषः) नेत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए प्रत्यक्षादि प्रमाणों से (वा) वा कान आदि इन्द्रियों से (सम्भृतम्) अच्छे प्रकार धारण किया अर्थात् निश्चय से ठीक जाना, सुना, देखा और अनुमान किया है, (तत्) वह (समसुस्रोत्) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, इस कारण (प्रथमजाः) हम लोगों से पहिले उत्पन्न हुए (पुराणाः) हम से प्राचीन (ऋषयः) वेदविद्या के जानने वाले परमयोगी ऋषिजन (यत्र) जहां (जग्मुः) पहुँचे, उस (सुकृताम्) सुकृति मोक्ष चाहते हुए सज्जनों के (उ) ही (लोकम्) प्रत्यक्ष सुख समूह वा मोक्षपद को (अनुप्रेत) अनुकूलता से पहुँचो॥५८॥


भावार्थ - जब मनुष्य सत्य-असत्य के निर्णय के जानने की चाहना करें, तब जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से तथा सृष्टिक्रम, प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाणों से, अच्छे-अच्छे सज्जनों के आचार से, आत्मा और मन के अनुकूल हो, वह सत्य और उससे भिन्न झूठ है, यह निश्चय करें। जो ऐसे परीक्षा करके धर्म का आचरण करते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं॥५८॥


ऋषि: - विश्वकर्मा ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


ए॒तꣳ स॑धस्थ॒ परि॑ ते ददामि॒ यमा॒वहा॑च्छेव॒धिं जा॒तवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्ता य॒ज्ञप॑तिर्वो॒ऽअत्र॒ तꣳ स्म॑ जानीत पर॒मे व्यो॑मन्॥५९॥


 पद पाठ

ए॒तम्। स॒ध॒स्थेति॑ सधऽस्थ। परि॑। ते॒। द॒दा॒मि॒। यम्। आ॒वहादित्या॒ऽवहा॑त्। शे॒व॒धिमिति॑ शेव॒ऽधिम्। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अ॒न्वा॒ग॒न्तेत्य॑नुऽआऽग॒न्ता। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। वः॒। अत्र॑। तम्। स्म॒। जा॒नी॒त॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन् ॥५९ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे ईश्वर के ज्ञान चाहने वाले मनुष्यो! और हे (सधस्थ) समान स्थान वाले सज्जन! (जातवेदाः) जिसको ज्ञान प्राप्त है, वह वेदार्थ को जानने वाला (यज्ञपतिः) यज्ञ की पालना करने वाले के समान वर्त्तमान पुरुष (यम्) जिस (शेवधिम्) सुखनिधि परमेश्वर को (आवहात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, (एतम्) इसको (अत्र) इस (परमे) परम उत्तम (व्योमन्) आकाश में व्याप्त परमात्मा को मैं (ते) तेरे लिये जैसे (परि, ददामि) सब प्रकार से देता हूं, उपदेश करता हूं, (अन्वागन्ता) धर्म्म के अनुकूल चलनेहारा मैं (वः) तुम सबों के लिये जिस परमेश्वर का (स्म) उपदेश करूं, (तम्) उसको तुम (जानीत) जानो॥५९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों के अनुकूल आचरण करते हैं, वे सर्वव्यापी अन्तर्यामी परमेश्वर के पाने को योग्य होते हैं॥५९॥


ऋषि: - विश्वकर्मर्षिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


ए॒तं जा॑नाथ पर॒मे व्यो॑म॒न् देवाः॑ सधस्था वि॒द रू॒पम॑स्य। यदा॑गच्छा॑त् प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑रिष्टापू॒र्त्ते कृ॑णवाथा॒विर॑स्मै॥६०॥

 

पद पाठ

ए॒तम्। जा॒ना॒थ॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॑ विऽओ॑मन्। देवाः॑। स॒ध॒स्था॒ इति॑ सधऽस्थाः। वि॒द॒। रू॒पम्। अ॒स्य॒। यत्। आ॒गच्छा॒दित्या॒ऽगच्छा॑त्। प॒थिभि॒रिति॒ प॒थिभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒ऽयानैः॑। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्त इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। कृ॒ण॒वा॒थ॒। आ॒विः। अ॒स्मै॒ ॥६० ॥


विषय - फिर उसी विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥


पदार्थ -

हे (सधस्थाः) एक साथ स्थान वाले (देवाः) विद्वानो! तुम (परमे) परम उत्तम (व्योमन्) आकाश में व्याप्त (एतम्) इस परमात्मा को (जानाथ) जानो और (अस्य) इसके व्यापक (रूपम्) सत्य चैतन्यमात्र आनन्दमय स्वरूप को (विद) जानो, (यत्) जिस सच्चिदानन्द-लक्षण परमेश्वर को (देवयानैः) धार्मिक विद्वानों के (पथिभिः) मार्गों से पुरुष (आगच्छात्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे, (अस्मै) इस परमेश्वर के लिये (इष्टापूर्त्ते) वेदोक्त यज्ञादि कर्म और उसके साधक स्मार्त्त कर्म को (आविः) प्रकाशित (कृणवाथ) किया करो॥६०॥


भावार्थ - सब मनुष्य विद्वानों के सङ्ग, योगाभ्यास और धर्म के आचरण से परमेश्वर को अवश्य जानें। ऐसा न करें तो यज्ञ आदि श्रौत स्मार्त्त कर्मों को नहीं सिद्ध करा सकें और न मुक्ति पा सकें॥६०॥


ऋषि: - गालव ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्ते सꣳसृजेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत॥६१॥


 पद पाठ

उत्। बु॒ध्य॒स्व॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑। जा॒गृहि॒। त्वम्। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्ते इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। सम्। सृ॒जे॒था॒म्। अ॒यम्। च॒। अ॒स्मिन्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अधि॑। उत्त॑रस्मि॒न्नित्युत्ऽत॑रस्मिन्। विश्वे॑। दे॒वाः॒। यज॑मानः। च॒। सी॒द॒त॒ ॥६१ ॥


विषय - फिर वही विषय कहा जाता है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान ऋत्विक् पुरुष! (त्वम्) तू (उद्, बुध्यस्व) उठ, प्रबोध को प्राप्त हो (प्रति, जागृहि) यजमान को अविद्यारूप निद्रा से छुड़ा के विद्या में चेतन कर, तू (च) और (अयम्) यह ब्रह्मविद्या का उपदेश करनेहारा यजमान दोनों (इष्टापूर्त्ते) यज्ञसिद्धि कर्म और उसकी सामग्री को (संसृजेथाम्) उत्पन्न करो। हे (विश्वे) समग्र (देवाः) विद्वानो! (च) और (यजमानः) विद्या देने तथा यज्ञ करनेहारे यजमान! तुम सब (अस्मिन्) इस (सधस्थे) एक साथ के स्थान में (उत्तरस्मिन्) उत्तम आसन पर (अधि, सीदत) बैठो॥६१॥


भावार्थ - जौ चैतन्य और बुद्धिमान् विद्यार्थी हों, वे पढ़ाने वालों को अच्छे प्रकार पढ़ाने चाहियें। जो विद्या की इच्छा से पढ़ानेहारों के अनुकूल आचरण करने वाले हों और जो उनके अनुकूल पढ़ानेहारे हों, वे परस्पर प्रीति से निरन्तर विद्याओं की बढ़ती करें और जो इन पढ़ने-पढ़ाने हारों से पृथक् उत्तम विद्वान् हों, वे इन विद्यार्थियों की सदा परीक्षा किया करें, जिससे ये अध्यापक और विद्यार्थी लोग विद्याओं की बढ़ती करने में निरन्तर प्रयत्न किया करें, वैसे ऋत्विज्, यजमान और सभ्य परीक्षक विद्वान् लोग यज्ञ की उन्नति किया करें॥६१॥


ऋषि: - देवश्रवदेववातावृषी देवता - विश्वकर्माग्निर्वा देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः


येन॒ वह॑सि स॒हस्रं॒ येना॑ग्ने सर्ववेद॒सम्। 

तेने॒मं य॒ज्ञं नो॑ नय॒ स्वर्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे॥६२॥


 पद पाठ


येन॑। वह॑सि। स॒हस्र॑म्। येन॑। अ॒ग्ने॒। स॒र्व॒वे॒द॒समिति॑ सर्वऽवेद॒सम्। तेन॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। नः॒। न॒य॒। स्वः᳖। दे॒वेषु॑। गन्त॑वे ॥६२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) पढ़ने वा पढ़ाने वाले पुरुष! तू (येन) जिस पढ़ाने से (सहस्रम्) हजारों प्रकार के अतुल बोध को (सर्ववेदसम्) कि जिसमें सब वेद जाने जाते हैं, उसको (वहसि) प्राप्त होता और (येन) जिस पढ़ने से दूसरों को प्राप्त कराता है, (तेन) उससे (इमम्) इस (यज्ञम्) पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ को (नः) हम लोगों को (देवेषु) दिव्य गुण वा विद्वानों में (स्वर्गन्तवे) सुख के प्राप्त होने के लिये (नय) पहुंचा॥६२॥


भावार्थ - जो धर्म के आचरण और निष्कपटता से विद्या देते और ग्रहण करते हैं, वे ही सुख के भागी होते हैं॥६२॥


ऋषि: - विश्वामित्र ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


प्र॒स्त॒रेण॑ परि॒धिना॑ स्रु॒चा वेद्या॑ च ब॒र्हिषा॑। 

ऋ॒चेमं य॒ज्ञं नो॑ नय॒ स्वर्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे॥६३॥


 पद पाठ

प्र॒स्त॒रेणेति॑ प्रऽस्त॒रेण॑। प॒रि॒धिनेति॑ परि॒ऽधिना॑। स्रु॒चा। वेद्या॑। च॒। ब॒र्हिषा॑। ऋ॒चा। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। नः॒। न॒य॒। स्वः᳖। दे॒वेषु॑। गन्त॑वे ॥६३ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को क्रियायज्ञ कैसे सिद्ध करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! आप (वेद्या) जिसमें होम किया जाता है, उस वेदी तथा (स्रुचा) होमने का साधन (बर्हिषा) उत्तम क्रिया (प्रस्तेरण) आसन (परिधिना) जो सब ओर धारण किया जाय, उस यजुर्वेद (च) तथा (ऋचा) स्तुति वा ऋग्वेद आदि से (इमम्) इस पदार्थमय अर्थात् जिसमें उत्तम भोजनों के योग्य पदार्थ होमे जाते हैं, उस (यज्ञम्) अग्निहोत्र आदि यज्ञ को (देवेषु) दिव्य पदार्थ वा विद्वानों में (गन्तवे) प्राप्त होने के लिये (स्वः) संसारसम्बन्धी सुख (नः) हम लोगों को (नय) पहुँचाओ॥६३॥


भावार्थ - जो मनुष्य धर्म से पाये हुए पदार्थों तथा वेद की रीति से साङ्गोपाङ्ग यज्ञ को सिद्ध करते हैं, वे सब प्राणियों के उपकारी होते हैं॥६३॥


ऋषि: - विश्वकर्मर्षिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


यद्द॒त्तं यत्प॑रा॒दानं॒ यत्पू॒र्त्तं याश्च॒ दक्षि॑णाः। 

तद॒ग्निर्वै॑श्वकर्म॒णः स्व॑र्दे॒वेषु॑ नो दधत्॥६४॥


 पद पाठ

यत्। द॒त्तम्। यत्। प॒रा॒दान॒मिति॑ परा॒ऽदान॑म्। यत्। पू॒र्त्तम्। याः। च॒। दक्षि॑णाः। तत्। अ॒ग्निः। वै॒श्व॒क॒र्म॒ण इति॑ वैश्वऽकर्म॒णः। स्वः॑। दे॒वेषु॑। नः॒। द॒ध॒त् ॥६४ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे गृहस्थ विद्वन्! आपने (यत्) जो (दत्तम्) अच्छे धर्मात्माओं को दिया वा (यत्) जो (परादानम्) और से लिया वा (यत्) जो (पूर्त्तम्) पूर्ण सामग्री (याश्च) और जो कर्म के अनुसार (दक्षिणाः) दक्षिणा दी जाती है, (तत्) उस सब (स्वः) इन्द्रियों के सुख को (वैश्वकर्मणः) जिसके समग्र कर्म विद्यमान हैं, उस (अग्निः) अग्नि के समान गृहस्थ विद्वान् आप (देवेषु) दिव्य धर्मसम्बन्धी व्यवहारों में (नः) हम लोगों को (दधत्) स्थापन करें॥६४॥


भावार्थ - जो पुरुष और जो स्त्री गृहाश्रम किया चाहें, वे विवाह से पूर्व प्रगल्भता अर्थात् अपने में बल, पराक्रम, परिपूर्णता आदि सामग्री कर ही के युवास्था में स्वयंवरविधि के अनुकूल विवाह कर धर्म से दान-आदान, मान-सन्मान आदि व्यवहारों को करें॥६४॥


ऋषि: - विश्वकर्मर्षिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


यत्र॒ धारा॒ऽअन॑पेता॒ मधो॑र्घृ॒तस्य॑ च॒ याः। 

तद॒ग्निर्वै॑श्वकर्म॒णः स्व॑र्दे॒वेषु॑ नो दधत्॥६५॥


 पद पाठ

यत्र॑। धाराः॑। अन॑पेता॒ इत्यन॑पऽइताः। मधोः॑। घृ॒तस्य॑। च॒। याः। तत्। अ॒ग्निः। वै॒श्व॒क॒र्म॒ण इति॑ वैश्वऽकर्म॒णः। स्वः॑। दे॒वेषु॑। नः॒। द॒ध॒त् ॥६५ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(यत्र) जिस यज्ञ में (मधोः) मधुरादि गुणयुक्त सुगन्धित द्रव्यों (च) और (घृतस्य) घृत के (याः) जिन (अनपेताः) संयुक्त (धाराः) प्रवाहों को विद्वान् लोग करते हैं, (तत्) उन धाराओं से (वैश्वकर्मणः) सब कर्म होने का निमित्त (अग्निः) अग्नि (नः) हमारे लिये (देवेषु) दिव्य व्यवहारों में (स्वः) सुख को (दधत्) धारण करता है॥६५॥


भावार्थ - जो मनुष्य वेदि आदि को बना के सुगन्ध और मिष्टादियुक्त बहुत घृत को अग्नि में हवन करते हैं, वे सब रोगों का निवारण करके अतुल सुख को उत्पन्न करते हैं॥६५॥


ऋषि: - देवश्रवदेववातावृषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


अ॒ग्निर॑स्मि॒ जन्म॑ना जा॒तवे॑दा घृ॒तं मे॒ चक्षु॑र॒मृतं॑ मऽआ॒सन्। 

अ॒र्कस्त्रि॒धातू॒ रज॑सो वि॒मानोऽज॑स्रो घ॒र्मो ह॒विर॑स्मि॒ नाम॑॥६६॥


 पद पाठ

अ॒ग्निः। अ॒स्मि॒। जन्म॑ना। जा॒तवे॑दा इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। घृ॒तम्। में॒। चक्षुः॑। अ॒मृत॑म्। मे॒। आ॒सन्। अ॒र्कः। त्रि॒धातु॒रिति॑ त्रि॒ऽधातुः॑। रज॑सः। वि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमानः॑। अज॑स्रः। घ॒र्मः। ह॒विः। अ॒स्मि॒। नाम॑ ॥६६ ॥


विषय - यज्ञ से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

मैं (जन्मना) जन्म से (जातवेदाः) उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान (अग्निः) अग्नि के समान (अस्मि) हूं, जैसे अग्नि का (घृतम्) घृतादि (चक्षुः) प्रकाशक है, वैसे (मे) मेरे लिये हो। जैसे अग्नि में अच्छे प्रकार संस्कार किया (हविः) हवन करने योग्य द्रव्य होमा हुआ (अमृतम्) सर्वरोगानाशक आनन्दप्रद होता है, वैसे (मे) मेरे (आसन्) मुख में प्राप्त हो। जैसे (त्रिधातुः) सत्त्व, रज और तमोगुण तत्त्व जिसमें हैं, उस (रजसः) लोक-लोकान्तर को (विमानः) विमान यान के समान धारण करता (अजस्रः) निरन्तर गमनशील (घर्मः) प्रकाश के समान यज्ञ, जिससे सुगन्ध का ग्रहण होता है, (अर्कः) जो सत्कार का साधन जिसका (नाम) प्रसिद्ध होना अच्छे प्रकार शोधा हुआ हवन करने योग्य पदार्थ है, वैसे मैं (अस्मि) हूं॥६६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अग्नि होम किये हुए पदार्थ को वायु में फैला कर दुर्गन्ध का निवारण, सुगन्ध की प्रकटता और रोगों को निर्मूल (नष्ट) करके सब प्राणियों को सुखी करता है, वैसे ही सब मनुष्यों को होना योग्य है॥६६॥


ऋषि: - देवश्रवदेववातावृषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः


ऋचो॒ नामा॑स्मि॒ यजू॑षि॒ नामा॑स्मि॒ सामा॑नि॒ नामा॑स्मि। येऽअ॒ग्नयः॒ पाञ्च॑जन्याऽअ॒स्यां पृ॑थि॒व्यामधि॑। तेषा॑मसि॒ त्वमु॑त्त॒मः प्र नो॑ जी॒वात॑वे सुव॥६७॥


पद पाठ

ऋचः॑। नाम॑। अ॒स्मि॒। यजू॑षि। नाम॑। अ॒स्मि॒। सामा॑नि। नाम॑। अ॒स्मि॒। ये॒। अ॒ग्नयः॑। पाञ्च॑जन्या॒ इति॒ पाञ्च॑जन्याः। अ॒स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। अधि॑। तेषा॑म्। अ॒सि॒। त्वम्। उ॒त्त॒म इत्यु॑त्ऽत॒मः। प्र। नः॒। जी॒वात॑वे। सु॒व॒ ॥६७ ॥


विषय - अब ऋग्वेद आदि को पढ़के क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! जो मैं (ऋचः) ऋचाओं की (नाम) प्रसिद्धिकर्त्ता (अस्मि) हूं (यजूंषि) यजुर्वेद की (नाम) प्रख्यातिकर्ता (अस्मि) हूं (सामानि) सामवेद के मन्त्रगान का (नाम) प्रकाशकर्त्ता (अस्मि) हूं, उस मुझ से वेदविद्या का ग्रहण कर (ये) जो (अस्याम्) इस (पृथिव्याम्) पृथिवी में (पाञ्चजन्याः) मनुष्यों के हितकारी (अग्नयः) अग्नि (अधि) सर्वोपरि हैं, (तेषाम्) उनके मध्य (त्वम्) तू (उत्तमः) अत्युत्तम (असि) है सो तू (नः) हमारे (जीवातवे) जीवन के लिये सत्कर्मों में (प्र, सुव) प्रेरणा कर॥६७॥


भावार्थ - जो मनुष्य ऋग्वेद को पढ़ते वे ऋग्वेदी, जो यजुर्वेद को पढ़ते वे यजुर्वेदी, जो सामवेद को पढ़ते वे सामवेदी और जो अथर्ववेद पढ़ते हैं वे अथर्ववेदी। जो दो वेदों को पढ़ते वे द्विवेदी, जो तीन वेदों को पढ़ते वे त्रिवेदी और जो चार वेदों को पढ़ते हैं वे चतुर्वेदी। जो किसी वेद को नहीं पढ़ते, वे किसी संज्ञा को प्राप्त नहीं होते। जो वेदवित् हों, वे अग्निहोत्रादि यज्ञों से सब मनुष्यों के हित को सिद्ध करें, जिससे उनकी उत्तम कीर्त्ति होवे और सब प्राणी दीर्घायु होवें॥६७॥


ऋषि: - इन्द्र ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः


वार्त्र॑हत्याय॒ शव॑से पृतना॒षाह्या॑य च। 

इन्द्र॒ त्वाव॑र्तयामसि॥६८॥


 पद पाठ

वार्त्र॑हत्या॒येति॒ वार्त्र॑ऽहत्याय। शव॑से। पृ॒त॒ना॒षाह्या॑य। पृ॒त॒ना॒सह्या॒येति॑ पृतना॒ऽसह्या॑य। च॒। इन्द्र॑। त्वा॒। आ। व॒र्त॒या॒म॒सि॒ ॥६८ ॥


विषय - सेनाध्यक्ष कैसे विजयी हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्युक्त सेनापते! जैसे हम लोग (वार्त्रहत्याय) विरुद्ध भाव से वर्त्तमान शत्रु के मारने में जो कुशल (शवसे) उत्तम बल (पृतनाषाह्याय) जिससे शत्रुसेना का बल सहन किया जाय उससे (च) और अन्य योग्य साधनों से युक्त (त्वा) तुझको (आ, वर्तयामासि) चारों ओर से यथायोग्य वर्त्ताया करें, वैसे तू यथायोग्य वर्त्ता कर॥६८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान्, जैसे सूर्य मेघ को वैसे, शत्रुओं के मारने को शूरवीरों की सेना का सत्कार करता है, वह सदा विजयी होता है॥६८॥


ऋषि: - इन्द्रविश्वामित्रावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


स॒हदा॑नुम्पुरुहूत क्षि॒यन्त॑मह॒स्तमि॑न्द्र॒ सम्पि॑ण॒क् कुणा॑रुम्। 

अ॒भि वृ॒त्रं वर्द्ध॑मानं॒ पिया॑रुम॒पाद॑मिन्द्र त॒वसा॑ जघन्थ॥६९॥


 पद पाठ

स॒हदा॑नु॒मिति॑ स॒हऽदा॑नुम्। पु॒रु॒हू॒तेति॑ पुरुऽहूत। क्षि॒यन्त॑म्। अ॒ह॒स्तम्। इ॒न्द्र॒। सम्। पि॒ण॒क्। कुणा॑रुम्। अ॒भि। वृ॒त्रम्। वर्द्ध॑मानम्। पिया॑रुम्। अ॒पाद॑म्। इ॒न्द्र॒। त॒वसा॑। ज॒घ॒न्थ॒ ॥६९ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (पुरुहूत) बहुत विद्वानों से सत्कार को प्राप्त (इन्द्र) शत्रुओं को नष्ट करनेहारे सेनापति! जैसे सूर्य (सहदानुम) साथ देनेहारे (क्षियन्तम्) आकाश में निवास करने (कुणारुम्) शब्द करने वाले (अहस्तम्) हस्त से रहित (पियारुम्) पान करनेहारे (अपादम्) पादेन्द्रियरहित (अभि) (वर्द्धमानम्) सब ओर से बढ़े हुए (वृत्रम्) मेघ को (सम्, पिणक्) अच्छे प्रकार चूर्णीभूत करता है, वैसे हे (इन्द्र) सभापति! आप शत्रुओं को (तवसा) बल से (जघन्थ) मारा करो॥६९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान प्रतापयुक्त होते हैं, वे शत्रुरहित होते हैं॥६९॥


ऋषि: - शास ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


वि न॑ऽइन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। 

योऽअ॒स्माँ२ऽअ॑भि॒दास॒त्यध॑रं गमया॒ तमः॑॥७०॥


 पद पाठ

वि। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। यः। अ॒स्मा॒न्। अ॒भिदास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति। अध॑रम्। ग॒म॒य॒। तमः॑ ॥७० ॥


विषय - अब सेनापति कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (इन्द्र) परम बलयुक्त सेना के पति! तू (मृधः) सङ्ग्रामों को (वि, जहि) विशेष करके जीत (पृतन्यतः) सेनायुक्त (नः) हमारे शत्रुओं को (नीचा) नीच गति को (यच्छ) प्राप्त करा (यः) जो (अस्मान्) हम को (अभिदासति) नष्ट करने की इच्छा करता है, उसको (अधरम्) अधोगतिरूप (तमः) अन्धकार को (गमय) प्राप्त करा॥७०॥


भावार्थ - सेनापति को योग्य है कि सङ्ग्रामों को जीते, उस विजयकारक सङ्ग्राम से नीचकर्म करनेहारे का निरोध करे, राजप्रजा में विरोध करनेहारे को अत्यन्त दण्ड देवे॥७०॥


ऋषि: - जय ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः प॑रा॒वत॒ऽआ ज॑गन्था॒ पर॑स्याः। 

सृ॒कꣳ स॒ꣳशाय॑ प॒विमि॑न्द्र ति॒ग्मं वि शत्रू॑न् ताढि॒ वि मृधो॑ नुदस्व॥७१॥


 पद पाठ

मृ॒गः। न। भी॒मः। कु॒च॒र इति॑ कुऽच॒रः। गि॒रि॒ष्ठाः। गि॒रि॒स्था इति॑ गिरि॒ऽस्थाः। प॒रा॒वतः॑। आ। ज॒ग॒न्थ॒। पर॑स्याः। सृ॒कम्। स॒शायेति॑ स॒म्ऽशाय॑। प॒विम्। इ॒न्द्र॒। ति॒ग्मम्। वि। शत्रू॑न्। ता॒ढि॒। वि॒। मृधः॑। नु॒द॒स्व॒ ॥७१ ॥


विषय - राजपुरुषों को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (इन्द्र) सेनाओं के पति! तू (कुचरः) कुटिल चाल चलता (गिरिष्ठाः) पर्वतों में रहता (भीमः) भयङ्कर (मृगः) सिंह के (न) समान (परावतः) दूरदेशस्थ शत्रुओं को (आ, जगन्थ) चारों ओर से घेरे (परस्याः) शत्रु की सेना पर (तिग्मम्) अति तीव्र (पविम्) दुष्टों को दण्ड से पवित्र करनेहारे (सृकम्) वज्र के तुल्य शस्त्र को (संशाय) सम्यक् तीव्र करके (शत्रून्) शत्रुओं को (वि, ताढि) ताडि़त कर और (मृघः) सङ्ग्रामों को (वि, नुदस्व) जीत कर अच्छे कर्मों में प्रेरित कर॥७१॥


भावार्थ - जो सेना के पुरुष सिंह के समान पराक्रम कर तीक्ष्ण शस्त्रों से शत्रुओं के सेनाङ्गों का छेदन कर सङ्ग्रामों को जीतते हैं, वे अतुल प्रशंसा को प्राप्त होते हैं, इतर क्षुद्राशय मनुष्य विजयसुख को प्राप्त कभी नहीं हो सकते॥७१॥


ऋषि: - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


वै॒श्वा॒न॒रो न॑ऽऊ॒तय॒ऽआ प्र या॑तु परा॒वतः॑। 

अ॒ग्निर्नः॑ सुष्टु॒तीरुप॑॥७२॥


 पद पाठ

वै॒श्वा॒न॒रः। नः॒। ऊ॒तये॑। आ। प्र। या॒तु॒। प॒रा॒वत॒ इति॑ परा॒ऽवतः॑। अ॒ग्निः। नः॒। सु॒ष्टु॒तीः। सु॒स्तु॒तीरिति॑ सुऽस्तु॒तीः। उप॑ ॥७२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे सेना सभा के पति! जैसे (वैश्वानरः) सम्पूर्ण नरों में विराजमान (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (परावतः) दूरदेशस्थ सब पदार्थों को प्राप्त होता है वैसे आप (ऊतये) रक्षादि के लिये (नः) हमारे समीप (आ, प्र, (यातु) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये, जैसे बिजुली सब में व्यापक होकर समीपस्थ रहती है, वैसे (नः) हमारी (सुष्टुतीः) उत्तम स्तुतियों को (उप) अच्छे प्रकार सुनिये॥७२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष सूर्य्य के समान दूरस्थ होकर भी न्याय से सब व्यवहारों को प्रकाशित कर देता है और जैसे दूरस्थ सत्यगुणों से युक्त सत्पुरुष प्रशंसित होता है, वैसे ही राजपुरुषों को होना चाहिये॥७२॥


ऋषि: - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


पृ॒ष्टो दिा॒व पृ॒ष्टोऽअ॒ग्निः पृ॑थि॒व्यां पृ॒ष्टो विश्वा॒ऽओष॑धी॒रावि॑वेश। 

वै॒श्वा॒न॒रः सह॑सा पृ॒ष्टोऽअ॒ग्निः स नो॒ दिवा॒ स रि॒षस्पा॑तु॒ नक्त॑म्॥७३॥


 पद पाठ

पृ॒ष्टः। दि॒वि। पृ॒ष्टः। अ॒ग्निः। पृ॒थि॒व्याम्। पृ॒ष्टः। विश्वाः॑। ओष॑धीः। आ। वि॒वे॒श॒। वै॒श्वा॒न॒रः। सह॑सा। पृ॒ष्टः। अ॒ग्निः। सः। नः॒। दिवा॑। सः। रि॒षः। पा॒तु॒। नक्त॑म् ॥७३ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

मनुष्यों से कि जो (दिवि) प्रकाशस्वरूप सूर्य (पृष्टः) जानने के योग्य (अग्निः) अग्नि (पृथिव्याम्) पृथिवी में (पृष्टः) जानने को इष्ट अग्नि तथा जल और वायु में (पृष्टः) जानने के योग्य पावक (सहसा) बलादि गुणों से युक्त (वैश्वानरः) विश्व में प्रकाशमान (पृष्टः) जानने के योग्य (अग्निः) बिजुली रूप अग्नि (विश्वाः) समग्र (ओषधीः) ओषधियों में (आ, विवेश) प्रविष्ट हो रहा है (सः) सो अग्नि (दिवा) दिन और (सः) वह अग्नि (नक्तम्) रात्रि में जैसे रक्षा करता, वैसे सेना के पति आप (नः) हमको (रिषः) हिंसक जन से निरन्तर (पातु) रक्षा करें॥७३॥


भावार्थ - जो मनुष्य आकाशस्थ सूर्य और पृथिवी में प्रकाशमान सब पदार्थों में व्यापक विद्युद्रूप अग्नि को विद्वानों से निश्चय कर कार्यों में संयुक्त करते हैं, वे शत्रुओं से निर्भय होते हैं॥७३॥


ऋषि: - भरद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


अ॒श्याम॒ तं काम॑मग्ने॒ तवो॒तीऽअ॒श्याम॑ र॒यिꣳ र॑यिवः सु॒वीर॑म्। 

अ॒श्याम॒ वाज॑म॒भि वा॒ज॑यन्तो॒ऽश्याम॑ द्यु॒म्नम॑जरा॒जरं॑ ते॥७४॥


पद पाठ

अ॒श्याम॑। तम्। काम॑म्। अ॒ग्ने॒। तव॑। ऊ॒ती। अ॒श्याम॑। र॒यिम्। र॒यि॒व॒ इति॑ रयिऽवः। सु॒वीर॒मिति॑ सु॒ऽवी॑रम्। अ॒श्याम॑। वाज॑म्। अ॒भि। वा॒जय॑न्तः। अ॒श्याम॑। द्यु॒म्न॑म्। अ॒ज॒र॒। अ॒जर॑म्। ते॒ ॥७४ ॥


विषय - अब प्रजा और राजपुरुषों को परस्पर क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) युद्धविद्या के जाननेहारे सेनापति! हम लोग (तव) तेरी (ऊती) रक्षा आदि की विद्या से (तम्) उस (कामम्) कामना को (अश्याम) प्राप्त हों। हे (रयिवः) प्रशस्त धनयुक्त! (सुवीरम्) अच्छे वीर प्राप्त होते हैं, जिससे उस (रयिम्) धन को (अश्याम) प्राप्त हों, (वाजयन्तः) सङ्ग्राम करते-कराते हुए हम लोग (वाजम्) सङ्ग्राम में विजय को (अभ्यश्याम) अच्छे प्रकार प्राप्त हों। हे (अजर) वृद्धपन से रहित सेनापते! हम लोग (ते) तेरे प्रताप से (अजरम्) अक्षय (द्युम्नम्) धन और कीर्ति को (अश्याम) प्राप्त हों॥७४॥


भावार्थ - प्रजा के मनुष्यों को योग्य है कि राजपुरुषों की रक्षा से और राजपुरुष प्रजाजन की रक्षा से परस्पर सब इष्ट कामों को प्राप्त हों॥७४॥


ऋषि: - उत्कील ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


व॒यं ते॑ऽअ॒द्य र॑रि॒मा हि काम॑मुत्ता॒नह॑स्ता॒ नम॑सोप॒सद्य॑। 

यजि॑ष्ठेन॒ मन॑सा यक्षि दे॒वानस्रे॑धता॒ मन्म॑ना॒ विप्रो॑ऽअग्ने॥७५॥


 पद पाठ

व॒यम्। ते॒। अ॒द्य। र॒रि॒म। हि। काम॑म्। उ॒त्ता॒नह॑स्ता॒ इत्यु॑त्ता॒नऽह॑स्ताः। नम॑सा। उ॒प॒सद्येत्यु॑प॒ऽसद्य॑। यजि॑ष्ठेन। मन॑सा। य॒क्षि॒। दे॒वान्। अस्रे॑धता। मन्म॑ना। विप्रः॑। अ॒ग्ने॒ ॥७५ ॥


विषय - पुरुषार्थ से क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्वन्! (उत्तानहस्ताः) उत्कृष्टता से अभय देनेहारे हस्तयुक्त (वयम्) हम लोग (ते) आपके (नमसा) सत्कार से (उपसद्य) समीप प्राप्त होके (अद्य) आज ही (कामम्) कामना को (हि) निश्चय (ररिम) देते हैं, जैसे (विप्रः) बुद्धिमान् (अस्रेधता) इधर-उधर गमन अर्थात् चञ्चलतारहित स्थिर (मन्मना) बल और (यजिष्ठेन) अतिशय करके संयमयुक्त (मनसा) चित्त से (देवान्) विद्वानों और शुभ गुणों को प्राप्त होता है और जैसे तू (यक्षि) शुभ कर्मों में युक्त हो, हम भी वैसे ही सङ्गत होवें॥७५॥


भावार्थ - जो मनुष्य पुरुषार्थ से पूर्ण कामना वाले हों, वे विद्वानों के सङ्ग से इस विषय को प्राप्त होने को समर्थ होवें॥७५॥


ऋषि: - उत्कील ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


धा॒म॒च्छद॒ग्निरिन्द्रो॑ ब्र॒ह्मा दे॒वो बृह॒स्पतिः॑। 

सचे॑तसो॒ विश्वे॑ दे॒वा य॒ज्ञं प्राव॑न्तु नः शु॒भे॥७६॥


 पद पाठ

धा॒म॒च्छदिति॑ धाम॒ऽछत्। अ॒ग्निः। इन्द्रः॑। ब्र॒ह्मा। दे॒वः। बृह॒स्पतिः॑। सचे॑तस॒ इति॑ सऽचे॑तसः। विश्वे॑। दे॒वाः। य॒ज्ञम्। प्र। अ॒व॒न्तु॒। नः॒। शु॒भे ॥७६ ॥


विषय - अब सब विद्वानों को जो करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (देवः) विद्वान् (धामच्छत्) जन्म, स्थान, नाम का विस्तार करनेहारे (अग्निः) पावक (इन्द्रः) विद्युत् के समान अमात्य और राजा (ब्रह्मा) चारों वेदों का जाननेहारा (बृहस्पतिः) वेदवाणी का पठन-पाठन से पालन करनेहारा (सचेतसः) विज्ञान वाले (विश्वे, देवाः) सब विद्वान् लोग (नः) हमारे (शुभे) कल्याण के लिये (यज्ञम्) विज्ञान योगरूपा क्रिया को (प्र, अवन्तु) अच्छे प्रकार कामना करें॥७६॥


भावार्थ - सब विद्वान् लोग सब मनुष्यादि प्राणियों के कल्याणर्थ निरन्तर सत्य उपदेश करें॥७६॥


ऋषि: - उशना ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः


त्वं य॑विष्ठ दा॒शुषो॒ नॄँः पा॑हि शृणु॒धी गिरः॑। रक्षा॑ तो॒कमु॒त त्मना॑॥७७॥


 पद पाठ

त्वम्। य॒वि॒ष्ठ॒। दा॒शुषः॑। नॄन्। पा॒हि॒। शृ॒णु॒धि। गिरः॑। रक्ष॑। तो॒कम्। उ॒त। त्मना॑ ॥७७ ॥

विषय - अब सभापति तथा सेनापति के कर्त्तव्य को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (यविष्ठ) पूर्ण युवास्था को प्राप्त राजन्! (त्वम्) तू (दाशुषः) विद्यादाता (नॄन्) मनुष्यों की (पाहि) रक्षा कर और इनकी (गिरः) विद्या शिक्षायुक्त वाणियों को (शृणुधि) सुन। जो वीर पुरुष युद्ध में मर जावे, उसके (तोकम्) छोटे सन्तानों की (उत) और स्त्री आदि की भी (त्मना) आत्मा से (रक्ष) रक्षा कर॥७७॥


भावार्थ - सभा और सेना के अधिष्ठाताओं को दो कर्म अवश्य कर्त्तव्य हैं, एक विद्वानों का पालन और उनके उपदेश का श्रवण, दूसरा युद्ध में मरे हुओं के सन्तान, स्त्री आदि का पालन। ऐसे आचरण करने वाले पुरुष के सदैव विजय, धन और सुख की वृद्धि होती है॥७७॥

Post a Comment

0 Comments

Ad Code