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यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र (1-30)

 ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृतच्छक्वरी स्वरः - धैवतः


स्वा॒द्वीं त्वा॑ स्वा॒दुना॑ ती॒व्रां ती॒व्रेणा॒मृता॑म॒मृते॑न। मधु॑मतीं॒ मधु॑मता सृ॒जामि॒ सꣳसोमे॑न॒। 

सोमो॑ऽस्य॒श्विभ्यां॑ पच्यस्व॒ सर॑स्वत्यै पच्य॒स्वेन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ पच्यस्व॥१॥


पद पाठ

स्वा॒द्वीम्। त्वा॒। स्वा॒दुना॑। ती॒व्राम्। ती॒व्रेण॑। अ॒मृता॑म्। अ॒मृते॑न। मधु॑मती॒मिति॒ मधु॑ऽमतीम्। मधु॑म॒तेति॒ मधु॑ऽमता। सृ॒जा॒मि॒। सम्। सोमे॑न। सोमः॑। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। प॒च्य॒स्व॒। सर॑स्वत्यै। प॒च्य॒स्व॒। इन्द्रा॑य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। प॒च्य॒स्व॒ ॥१ ॥


विषय - अब उन्नीसवें अध्याय का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है॥


पदार्थ -

हे वैद्यराज! जो तू (सोमः) सोम के सदृश ऐश्वर्ययुक्त (असि) है, उस (त्वा) तुझ को ओषधियों की विद्या में (सम्, सृजामि) अच्छे प्रकार उत्तम शिक्षायुक्त करता हूँ, जैसे मैं जिस (स्वादुना) मधुर रसादि के साथ (स्वाद्वीम्) सुस्वादयुक्त (तीव्रेण) शीघ्रकारी तीक्ष्ण स्वभाव सहित (तीव्राम्) तीक्ष्ण स्वभावयुक्त को (अमृतेन) सर्वरोगापहारी गुण के साथ (अमृताम्) नाशरहित (मधुमता) स्वादिष्ट गुणयुक्त (सोमेन) सोमलता आदि से (मधुमतीम्) प्रशस्त मीठे गुणों से युक्त ओषधि को सम्यक् सिद्ध करता हूं, वैसे तू इस को (अश्विभ्याम्) विद्यायुक्त स्त्री-पुरुषों सहित (पच्यस्व) पका (सरस्वत्यै) उत्तम शिक्षित वाणी से युक्त स्त्री के अर्थ (पच्यस्व) पका (सुत्राम्णे) सब को दुःख से अच्छे प्रकार बचाने वाले (इन्द्राय) ऐश्वर्ययुक्त पुरुष के लिये (पच्यस्व) पका॥१॥


भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि वैद्यकशास्त्र की रीति से अनेक मधुरादि प्रशंसित स्वादयुक्त अत्युत्तम औषधों को सिद्ध कर उनके सेवन से आरोग्य को प्राप्त होकर धर्मार्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि के लिये निरन्तर प्रयत्न किया करें॥१॥


ऋषि: - भारद्वाज ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


परी॒तो षि॑ञ्चता सु॒तꣳ सोमो॒ यऽउ॑त्त॒मꣳ ह॒विः। 

द॒ध॒न्वा यो नर्यो॑ऽअ॒प्स्वन्तरा सु॒षाव॒ सोम॒मद्रि॑भिः॥२॥


 पद पाठ

परि॑। इ॒तः। सि॒ञ्च॒त॒। सु॒तम्। सोमः॑। यः। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। ह॒विः। द॒ध॒न्वान्। यः। नर्य्यः॑। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒न्तः। आ। सु॒षाव॑। सु॒षावेति॑ सु॒ऽसाव॑। सोम॑म्। अद्रि॑भि॒रित्यद्रि॑ऽभिः ॥२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्य लोगो! (यः) जो (उत्तमम्) उत्तम श्रेष्ठ (हविः) खाने योग्य अन्न (सोमः) प्रेरणा करनेहारा विद्वान् (इतः) प्राप्त होवे (यः) जो (नर्यः) मनुष्यों में उत्तम (दधन्वान्) धारण करता हुआ (अप्सु) जलों के (अन्तः) मध्य में (आसुषाव) सिद्ध करे, उस (अद्रिभिः) मेघों में (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) ओषधिगण की तुम लोग (परिसिञ्चत) सब ओर से सींच के बढ़ाओ॥२॥


भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि उत्तम ओषधियों को जल में डाल, मन्थन कर, सार रस को निकाल, इससे यथायोग्य जाठराग्नि को सेवन करके बल और आरोग्यता को बढ़ाया करें॥२॥


ऋषि: - आभूतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ् सोमो॒ऽअति॑द्रुतः। 

इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑। वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्राङ् सोमो॒ऽअति॑द्रुतः। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥३॥


पद पाठ

वा॒योः। पू॒तः। प॒वित्रे॑ण। प्र॒त्यङ्। सोमः॑। अतिद्रु॑त॒ इत्यति॑ऽद्रुतः। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑। वा॒योः। पू॒तः। प॒वित्रेण॑। प्राङ्। सोमः॑। अति॑द्रुत॒ इत्यति॑ऽद्रुतः। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥३ ॥


विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्य लोगो! जो (सोमः) सोमलतादि ओषधियों का गुण (प्राङ्) जो प्रकृष्टता से (अतिद्रुतः) शीघ्रगामी (वायोः) वायु से (पवित्रेण) शुद्ध करने वाले कर्म से (पूतः) पवित्र (इन्द्रस्य) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव का (युज्यः) योग्य (सखा) मित्र के समान रहता है और जो (सोमः) सिद्ध किया हुआ ओषधियों का रस (प्रत्यङ्) प्रत्यक्ष शरीरों से युक्त होके (अतिद्रुतः) अत्यन्त वेग वाला (वायोः) वायु से (पवित्रेण) पवित्रता कर के (पूतः) शुद्ध और (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्त राजा का (युज्यः) अतियोग्य (सखा) मित्र के समान है, उसका तुम निरन्तर सेवन किया करो॥३॥


भावार्थ - जो ओषधि शुद्ध स्थल, जल और वायु में उत्पन्न होती और पूर्व और पश्चात् होने वाले रोगों का शीघ्र निवारण करती है, उनका मनुष्य लोग मित्र के समान सदा सेवन करें॥३॥


ऋषि: - आभूतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः


पु॒नाति॑ ते परि॒स्रुत॒ꣳ सोम॒ꣳ सूर्य॑स्य दुहि॒ता। 

वारे॑ण॒ शश्व॑ता॒ तना॑॥४॥


पद पाठ

पु॒नाति॑। ते॒। प॒रिस्रुत॒मिति॑ परि॒ऽस्रुत॑म्। सोम॑म्। सूर्य्य॑स्य। दु॒हि॒ता। वारे॑ण। शश्व॑ता तना॑ ॥४ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्य! जो (तना) विस्तीर्ण प्रकाश से (सूर्यस्य) सूर्य की (दुहिता) कन्या के समान उषा (शश्वता) अनादिरूप (वारेण) ग्रहण करने योग्य स्वरूप से (ते) तेरे (परिस्रुतम्) सब ओर से प्राप्त (सोमम्) ओषधियों के रस को (पुनाति) पवित्र करती है, उसमें तू ओषधियों के रस का सेवन कर॥४॥


भावार्थ - जो मनुष्य सूर्योदय से पूर्व शौचकर्म करके यथानुकूल ओषधि का सेवन करते हैं, वे रोगरहित होकर सुखी होते हैं॥४॥


ऋषि: - आभूतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः


ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं प॑वते॒ तेज॑ऽइन्द्रि॒यꣳ सुर॑या॒ सोमः॑ सु॒तऽआसु॑तो॒ मदा॑य। 

शु॒क्रेण॑ देव दे॒वताः॑ पिपृग्धि॒ रसे॒नान्नं॒ यज॑मानाय धेहि॥५॥


 पद पाठ

ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। प॒व॒ते॒। तेजः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। सुर॑या। सोमः॑। सु॒तः। आसु॑त॒ इत्याऽसु॑तः। मदा॑य। शु॒क्रेण। दे॒व॒। दे॒वताः॑। पि॒पृ॒ग्धि॒। रसे॑न। अन्न॑म्। यज॑मानाय। धे॒हि॒ ॥५ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (देव) सुखदाता विद्वान्! जो (शुक्रेण) शीघ्र शुद्ध करनेहारे व्यवहार से (मदाय) आनन्द के लिये (सुरया) उत्पन्न होती हुई क्रिया से (सुतः) उत्पादित (आसुतः) अच्छे प्रकार रोगनिवारण के निमित्त सेवित (सोमः) ओषधियों का रस (तेजः) प्रग्ल्भता (इन्द्रियम्) मन आदि इन्द्रियगण (ब्रह्म) ब्रह्मवित् कुल और (क्षत्रम्) न्यायकारी क्षत्रिय-कुल को (पवते) पवित्र करता है, उस (रसेन) रस से युक्त (अन्नम्) अन्न को (यजमानाय) धर्मात्मा जन के लिये (धेहि) धारण कर (देवताः) विद्वानों को (पिपृग्धि) प्रसन्न कर॥५॥


भावार्थ - इस जगत् में किसी मनुष्य को योग्य नहीं है कि जो श्रेष्ठ रस के विना अन्न खावे, सदा विद्या शूरवीरता, बल और बुद्धि की वृद्धि के लिये महौषधियों के सारों को सेवन करना चाहिये॥५॥


ऋषि: - आभूतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - विराट् प्रकृतिः स्वरः - धैवतः


कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ऽ उक्तिं॒ यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्ण॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒स्तेज॑से त्वा वी॒र्याय त्वा॒ बला॑य त्वा॥६॥


 पद पाठ

कु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त॒ इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपू॒र्वम्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॒ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भोज॑नानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। तेज॑से। त्वा॒। वी॒र्या᳖य। त्वा॒। बला॑य। त्वा॒ ॥६ ॥


विषय - राजपुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अङ्ग) मित्र! (ये) जो (बर्हिषः) अन्नादि की प्राप्ति कराने वाले (यवमन्तः) यवादि धान्ययुक्त किसान लोग (नमउक्तिम्) अन्नादि की वृद्धि के लिये उपदेश (यजन्ति) देते हैं, (एषाम्) उनके पदार्थों का (इहेह) इस संसार और इस व्यवहार में तू (भोजनानि) पालन वा भोजन आदि (कृणुहि) किया कर, (यथा) जैसे ये किसान लोग (यवम्) यव को (चित्) भी (वियूय) वुषादि से पृथक् कर (अनुपूर्वम्) पूर्वापर की योग्यता से (दान्ति) काटते हैं, वैसे तू इनके विभाग से (कुवित्) बड़ा बल प्राप्त कर, जिस (ते) तेरी उन्नति का (एषः) यह (योनिः) कारण है, उस (त्वा) तुझको (अश्विभ्याम्) प्रकाश-भूमि की विद्या के लिये (त्वा) तुझको (सरस्वत्यै) कृषिकर्म प्रचार करनेहारी उत्तम वाणी के लिये (त्वा) तुझको (इन्द्राय) शत्रुओं के नाश करने वाले (सुत्राम्णे) अच्छे रक्षक के लिये (त्वा) तुझ को (तेजसे) प्रगल्भता के लिये (त्वा) तुझ को (वीर्याय) पराक्रम के लिये (त्वा) तुझ को (बलाय) बल के लिये जो प्रसन्न करते हैं वा जिससे तू (उपयामगृहीतः) श्रेष्ठ व्यवहारों से स्वीकार किया हुआ (असि) है, उनके साथ तू विहार कर॥६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजपुरुष कृषि आदि कर्म करने, राज्य में कर देने और परिश्रम करने वाले मनुष्यों को प्रीति से रखते और सत्य उपदेश करते हैं, वे इस संसार में सौभाग्य वाले होते हैं॥६॥


ऋषि: - आभूतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


नाना॒ हि वां॑ दे॒वहि॑त॒ꣳ सद॑स्कृ॒तं मा सꣳसृ॑क्षाथां पर॒मे व्यो॑मन्। 

सुरा॒ त्वमसि॑ शु॒ष्मिणी॒ सोम॑ऽए॒ष मा मा॑ हिꣳसीः॒ स्वां योनि॑मावि॒शन्ती॑॥७॥


 पद पाठ

नाना॑। हि। वा॒म्। दे॒वहि॑त॒मिति॑ दे॒वऽहि॑तम्। सदः॑। कृ॒तम्। मा। सम्। सृ॒क्षा॒था॒म्। प॒र॒मे॒। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन्। सुरा॑। त्वम्। असि॑। शु॒ष्मिणी॑। सोमः॑। ए॒षः। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒। स्वाम्। योनि॑म्। आ॒वि॒शन्तीत्या॑ऽवि॒शन्ती॑ ॥७ ॥


विषय - राजा और प्रजा कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे राजा और प्रजा के जनो! (नाना) अनेक प्रकार (सदः, कृतम्) स्थान किया हुआ (देवहितम्) विद्वानों को प्रियाचरण (वाम्) तुम दोनों को प्राप्त होवे जो (हि) निश्चय से (स्वाम्) अपने (योनिम्) कारण को (आविशन्ती) अच्छा प्रवेश करती हुई (शुष्मिणी) बहुत बल करने वाली (सुरा) सोमवल्ली आदि की लता हैं, (त्वम्) वह (परमे) उत्कृष्ट (व्योमन्) बुद्धिरूप अवकाश में वर्तमान (असि) है, उसको तुम दोनों प्राप्त होओ और प्रमादकारी पदार्थों का (मा) मत (संसृक्षाथाम्) संग किया करो। हे विद्वत्पुरुष! जो (एषः) यह (सोमः) सोमादि ओषधिगण है, उसको तथा (मा) मुझ को तू (मा) मत (हिंसीः) नष्ट कर॥७॥


भावार्थ - जो राजा-प्रजा के सम्बन्धी मनुष्य बुद्धि, बल, आरोग्य और आयु बढ़ानेहारे ओषधियों के रसों को सदा सेवन करते और प्रमादकारी पदार्थों का सेवन नहीं करते, वे इस जन्म और परजन्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करने वाले होते हैं॥७॥


ऋषि: - आभूतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृत पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्याश्वि॒नं तेजः॑ सारस्व॒तं वी॒र्यमै॒न्द्रं बल॑म्। 

ए॒ष ते॒ योनि॒र्मोदा॑य त्वान॒न्दाय॑ त्वा॒ मह॑से त्वा॥८॥


 पद पाठ

उ॒प॒या॒मगृ॑हीतः। अ॒सि॒। आ॒श्वि॒नम्। तेजः॑। सा॒र॒स्व॒तम्। वी॒र्य᳖म्। ऐ॒न्द्रम्। बल॑म्। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। मोदा॑य। त्वा॒। आ॒न॒न्दायेत्या॑ऽऽन॒न्दाय॑। त्वा॒। मह॑से। त्वा॒ ॥८ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे राजप्रजाजन! जो तू (उपयामगृहीतः) प्राप्त धर्मयुक्त यमसम्बन्धी नियमों से संयुक्त (असि) है, जिस (ते) तेरा (एषः) यह (योनिः) घर है, उस तेरा जो (आश्विनम्) सूर्य और चन्द्रमा के रूप के समान (तेजः) तीक्ष्ण कोमल तेज (सारस्वतम्) विज्ञानयुक्त वाणी का (वीर्यम्) तेज (ऐन्द्रम्) बिजुली के समान (बलम्) बल हो, उस (त्वा) तुझ को (मोदाय) हर्ष के लिये (त्वा) तुझ को (आनन्दाय) परम सुख के अर्थ (त्वा) तुझे (महसे) महापराक्रम के लिये सब मनुष्य स्वीकार करें॥८॥


भावार्थ - जो मनुष्य सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजस्वी, विद्या पराक्रम वाले, बिजुली के तुल्य अति बलवान् होके आप आनन्दित हों और अन्य सब को आनन्द दिया करते हैं, वे यहां परमानन्द को भोगते हैं॥८॥


ऋषि: - आभूतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृच्छक्वरी स्वरः - धैवतः


तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धेहि वी॒र्यमसि वी॒र्यं मयि॑ धेहि॒ बल॑मसि॒ बलं॒ मयि॑ धे॒ह्योजो॒ऽस्योजो॒ मयि॑ धेहि म॒न्युर॑सि म॒न्युं मयि॑ धेहि॒ सहो॑ऽसि॒ सहो॒ मयि॑ धेहि॥९॥


 पद पाठ

तेजः॑। अ॒सि॒। तेजः॑। मयि॑। धे॒हि॒। वी॒र्य᳖म्। अ॒सि॒। वी॒र्य᳖म्। मयि॑। धे॒हि॒। बल॑म्। अ॒सि॒। बल॑म्। मयि॑। धे॒हि॒। ओजः॑। अ॒सि॒। ओजः॑। मयि॑। धे॒हि॒। म॒न्युः। अ॒सि॒। म॒न्युम्। मयि॑। धे॒हि॒। सहः॑। अ॒सि॒। सहः॑। मयि॑। धे॒हि॒ ॥९ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे सकल शुभगुणकर राजन्! जो तेरे में (तेजः) तेज (असि) हैं, उस (तेजः) तेज को (मयि) मेरे में (धेहि) धारण कीजिये। जो तेरे में (वीर्यम्) पराक्रम (असि) है, उस (वीर्यम्) पराक्रम को (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये। जो तेरे में (बलम्) बल (असि) है, उस (बलम्) बल को (मयि) मुझ में भी (धेहि) धरिये। जो तेरे में (ओजः) प्राण का सामर्थ्य (असि) है, उस (ओजः) सामर्थ्य को (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये। जो तुझ में (मन्युः) दुष्टों पर क्रोध (असि) है, उस (मन्युम्) क्रोध को (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये। जो तुझ में (सहः) सहनशीलता (असि) है, उस (सहः) सहनशीलता को (मयि) मुझ में भी (धेहि) धारण कीजिये॥९॥


भावार्थ - सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर की यह आज्ञा है कि जिन शुभ गुण-कर्म-स्वभावों को विद्वान् लोग धारण करें, उनको औरों में भी धारण करावें और जैसे दुष्टाचारी मनुष्यों पर क्रोध करें, वैसे धार्मिक मनुष्यों में प्रीति भी निरन्तर किया करें॥९॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः


या व्या॒घ्रं विषू॑चिकोभौ वृकं॑ च॒ रक्ष॑ति। श्ये॒नं प॑त॒त्रिण॑ꣳ सि॒ꣳहꣳ सेमं पा॒त्वꣳह॑सः॥१०॥


 पद पाठ

या। व्या॒घ्रम्। विषू॑चिका। उ॒भौ। वृक॑म्। च॒। रक्ष॑ति। श्ये॒नम्। प॒त॒त्रिण॑म्। सि॒ꣳहम्। सा। इ॒मम्। पा॒तु॒। अꣳह॑सः ॥१० ॥


विषय - फिर स्त्री-पुरुष कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

(या) जो (विषूचिका) विविध अर्थों की सूचना करनेहारी राजा की राणी (व्याघ्रम्) जो कूद के मारता है उस बाघ और (वृकम्) बकरे आदि को मारनेहारा भेडि़या (उभौ) इन दिनों को (पतत्रिणम्) शीघ्र चलने के लिये बहुवेग वाले और (श्येनम्) शीघ्र धावन करके अन्य पक्षियों को मारनेहारे पक्षी (च) और (सिंहम्) हस्ति आदि को भी मारने वाले दुष्ट पशु को मार के प्रजा को (रक्षति) रक्षा करती है (सा) सो राणी (इमम्) इस राजा को (अंहसः) अपराध से (पातु) रक्षा करे॥१०॥


भावार्थ - जैसे शूरवीर राजा स्वयं व्याघ्रादि को मारने, न्याय से प्रजा की रक्षा करने और अपनी स्त्री को प्रसन्न करने को समर्थ होता है, वैसे ही राजा की राणी भी होवे। जैसे अच्छे प्रिय आचरण से राणी अपने पति राजा को प्रमाद से पृथक् करके प्रसन्न करती है, वैसे राजा भी अपनी स्त्री को सदा प्रसन्न करे॥१०॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः


यदा॑पि॒पेष॑ मा॒तरं॑ पु॒त्रः प्रमु॑दितो॒ धय॑न्। ए॒तत्तद॑ग्नेऽअनृ॒णो भ॑वा॒म्यह॑तौ पि॒तरौ॒ मया॑। 

स॒म्पृच॑ स्थ॒ सं मा॑ भ॒द्रेण॑ पृङ्क्त वि॒पृच॑ स्थ॒ वि मा॑ पा॒प्मना॑ पृङ्क्त॥११॥


 पद पाठ

यत्। आ॒पि॒पेषेत्या॑ऽपि॒पेष॑। मा॒तर॑म्। पु॒त्रः। प्रमु॑दित॒ इति॒ प्रऽमु॑दितः। धय॑न्। ए॒तत्। तत्। अ॒ग्ने॒। अ॒नृ॒णः। भ॒वा॒मि॒। अह॑तौ। पि॒तरौ॑। मया॑। स॒म्पृच॒ इति॒ स॒म्ऽपृचः॑। स्थ॒। सम्। मा॒। भ॒द्रेण॑। पृ॒ङ्क्त॒। वि॒पृच॒ इति॑ वि॒ऽपृचः॑। स्थ॒। वि। मा॒। पा॒प्मना॑। पृ॒ङ्क्त॒ ॥११ ॥


विषय - सन्तानों को अपने माता-पिता के साथ कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्वन्! (यत्) जो (प्रमुदितः) अत्यन्त आनन्दयुक्त (पुत्रः) पुत्र दुग्ध को (धयन्) पीता हुआ (मातरम्) माता को (आपिपेष) सब ओर से पीडि़त करता है, उस पुत्र से मैं (अनृणः) ऋणरहित (भवामि) होता हूं, जिससे मेरे (पितरौ) माता-पिता (अहतौ) हननरहित और (मया) मुझ से (भद्रेण) कल्याण के साथ वर्त्तमान हों। हे मनुष्यो! तुम (सम्पृचः) सत्यसम्बन्धी (स्थ) हो, (मा) मुझ को कल्याण के साथ (सम्, पृङ्क्त) संयुक्त करो और (पाप्मना) पाप से (विपृचः) पृथक् रहनेहारे (स्थ) हों, इसलिये (मा) मुझे भी इस पाप से (विपृङ्क्त) पृथक् कीजिये और (तदेतत्) परजन्म तथा इस जन्म के सुख को प्राप्त कीजिये॥११॥


भावार्थ - जैसे माता-पिता पुत्र का पालन करते हैं, वैसे पुत्र को माता-पिता की सेवा करनी चाहिये। सब मनुष्यों को इस जगत् में यह ध्यान देना चाहिये कि हम माता-पिता का यथावत् सेवन करके पितृऋण से मुक्त होवें। जैसे विद्वान् धार्मिक माता-पिता अपने सन्तानों को पापरूप आचरण से पृथक् करके धर्माचरण में प्रवृत्त करें, वैसे सन्तान भी अपने माता-पिता को वर्त्ताव करावें॥११॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


दे॒वा य॒ज्ञम॑तन्वत भेष॒जं भि॒षजा॒श्विना॑। 

वा॒चा सर॑स्वती भि॒षगिन्द्रा॑येन्द्रि॒याणि॒ दध॑तः॥१२॥


 पद पाठ

दे॒वाः। य॒ज्ञम्। अ॒त॒न्व॒त॒। भे॒ष॒जम्। भि॒षजा॑। अ॒श्विना॑। वा॒चा। सर॑स्वती। भि॒षक्। इन्द्रा॑य। इ॒न्द्रि॒याणि॑। दध॑तः ॥१२ ॥


विषय - माता-पिता और सन्तान परस्पर कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (इन्द्रियाणि) उत्तम प्रकार विषयग्राहक नेत्र आदि इन्दियों वा धनों को (दधतः) धारण करते हुए (भिषक्) चिकित्सा आदि वैद्यकशास्त्र के अङ्गों को जाननेहारी (सरस्वती) प्रशस्त वैद्यकशास्त्र के ज्ञान से युक्त विदुषी स्त्री और (भिषजा) आयुर्वेद के जाननेहारी (अश्विना) ओषधिविद्या में व्याप्तबुद्धि वाले दो उत्तम विद्वान् वैद्य ये तीनों और (देवाः) उत्तम ज्ञानीजन (वाचा) वाणी से (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (भेषजम्) रोगविनाशक औषधरूप (यज्ञम्) सुख देने वाले यज्ञ को (अतन्वत) विस्तृत करें, वैसे ही तुम लोग भी करो॥१२॥


भावार्थ - जब तक मनुष्य लोग पथ्य ओषधि और ब्रह्मचर्य के सेवन से शरीर के आरोग्य, बल और बुद्धि को नहीं बढ़ाते, तब तक सब सुखों के प्राप्त होने को समर्थ नहीं होते॥१२॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


दी॒क्षायै॑ रू॒पꣳ शष्पा॑णि प्राय॒णीय॑स्य॒ तोक्मा॑नि। 

क्र॒यस्य॑ रू॒पꣳ सोम॑स्य ला॒जाः सो॑मा॒शवो॒ मधु॑॥१३॥


स्वर सहित पद पाठ

दी॒क्षायै॑ रू॒पम्। शष्पा॑णि। प्रा॒य॒णीय॑स्य। प्रा॒य॒नीय॒स्येति॑ प्रऽअय॒नीय॑स्य। तोक्मा॑नि। क्र॒यस्य॑। रू॒पम्। सोम॑स्य। ला॒जाः। सो॒मा॒शव॒ इति॑ सोमऽअ॒ꣳशवः॑। मधु॑ ॥१३ ॥


विषय - कैसे मनुष्य सुखी होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (प्रायणीयस्य) जिस व्यवहार से उत्तम सुख को प्राप्त होते हैं, उसमें होने वाले को (दीक्षायै) यज्ञ के नियम-रक्षा के लिये (रूपम्) सुन्दर रूप और (तोक्मानि) अपत्य (क्रयस्य) द्रव्यों के बेचने का (रूपम्) रूप (शष्पाणि) छांट-फटक शुद्ध कर ग्रहण करने योग्य धान्य (सोमस्य) सोमलतादि के रस के सम्बन्धी (लाजाः) परिपक्व फूले हुए अन्न (सोमांशवः) सोम के विभाग और (मधु) सहत हैं, उनको तुम लोग विस्तृत करो॥१३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से ‘अतन्वत’ इस क्रियापद की अनुवृत्ति आती है, जो मनुष्य यज्ञ के योग्य सन्तान और पदार्थों को सिद्ध करते हैं, वे इस संसार में सुख को प्राप्त होते हैं॥१३॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - आतिथ्यादयो लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


आ॒ति॒थ्य॒रू॒पं मास॑रं महावी॒रस्य॑ न॒ग्नहुः॑। 

रू॒पमु॑प॒सदा॑मे॒तत्ति॒स्रो रात्रीः॒ सुरासु॑ता॥१४॥


 पद पाठ

आ॒ति॒थ्य॒रू॒पमित्या॑तिथ्यऽरू॒पम्। मास॑रम्। म॒हा॒वी॒रस्येति॑ महाऽवी॒रस्य॑। न॒ग्नहुः॑। रू॒पम्। उ॒प॒सदा॒मित्यु॑प॒ऽसदा॑म्। ए॒तत्। ति॒स्रः। रात्रीः॑। सुरा॑। आसु॒तेत्याऽसु॑ता ॥१४ ॥


विषय - कैसे जन कीर्ति वाले होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (मासरम्) जिससे अतिथिजन महीनों में रमण करते हैं, ऐसे (आतिथ्यरूपम्) अतिथियों का होना वा उनका सत्काररूप कर्म वा (महावीरस्य) बड़े वीर पुरुष का (नग्नहुः) जो नग्न अकिञ्चनों का धारण करता है, वह (रूपम्) रूप वा (उपसदाम्) गृहस्थादि के समीप में भोजनादि के अर्थ ठहरनेहारे अतिथियों का (तिस्रः) तीन (रात्रीः) रात्रियों में निवास कराना (एतत्) यह रूप वा (सुरा) सोमरस (आसुता) सब ओर से सिद्ध की हुई क्रिया है, उन सब का तुम लोग ग्रहण करो॥१४॥


भावार्थ - जो मनुष्य धार्मिक, विद्वान् अतिथियों का सत्कार, सङ्ग और उपदेशों को और वीरों को मान्य तथा द्ररिद्रों को वस्त्रादि दान, अपने भृत्यों को निवास देना और सोमरस की सिद्धि को सदा करते हैं, वे कीर्तिमान् होते हैं॥१४॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


सोम॑स्य रू॒पं क्री॒तस्य॑ परि॒स्रुत्परि॑षिच्यते। 

अ॒श्विभ्यां॑ दु॒ग्धं भे॑ष॒जमिन्द्रा॑यै॒न्द्रꣳ सर॑स्वत्या॥१५॥


 पद पाठ


सोम॑स्य। रू॒पम्। क्री॒तस्य॑। प॒रि॒स्रुदिति॑ परि॒ऽस्रुत्। परि॑। सि॒च्य॒ते॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। दु॒ग्धम्। भे॒ष॒जम्। इन्द्रा॑य। ऐ॒न्द्रम्। सर॑स्वत्या ॥१५ ॥


विषय - कुमारी कन्याओं को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे स्त्री लोगो! जैसे (सरस्वत्या) विदुषी स्त्री से (क्रीतस्य) ग्रहण किए हुए (सोमस्य) सोमादि ओषधिगण का (परिस्रुत्) सब ओर से प्राप्त होने वाला रस (रूपम्) सुस्वरूप और (अश्विभ्याम्) वैदिक विद्या में पूर्ण दो विद्वानों के लिये (दुग्धम्) दुहा हुआ (भेषजम्) औषधरूप दूध तथा (इन्द्राय) ऐश्वर्य चाहने वाले के लिये (ऐन्द्रम्) विद्युत्सम्बन्धी विशेष ज्ञान (परिषिच्यते) सब ओर से सिद्ध किया जाता है, वैसे तुम भी आचरण करो॥१५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब कुमारियों को योग्य है कि ब्रह्मचर्य से व्याकरण, धर्म्म, विद्या और आयुर्वेदादि को पढ़, स्वयंवर विवाह कर, ओषधियों को और औषधवत् अन्न और दाल कढ़ी आदि को अच्छा पका, उत्तम रसों से युक्त कर, पति आदि को भोजन करा तथा स्वयं भोजन करके बल, आरोग्य की सदा उन्नति किया करें॥१५॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


आ॒स॒न्दी रू॒पꣳ रा॑जास॒न्द्यै वेद्यै॑ कु॒म्भी सु॑रा॒धानी॑। 

अन्त॑रऽउत्तरवे॒द्या रू॒पं का॑रोत॒रो भि॒षक्॥१६॥


 पद पाठ

आ॒स॒न्दीत्या॑ऽस॒न्दी। रू॒पम्। रा॒जा॒स॒न्द्या इति॑ राजऽआस॒न्द्यै। वेद्यै॑। कु॒म्भी। सु॒रा॒धानीति॑ सुरा॒ऽधानी॑। अन्त॑रः। उ॒त्त॒र॒वे॒द्या इत्यु॑त्तरऽवे॒द्याः। रू॒पम्। का॒रो॒त॒रः। भि॒षक् ॥१६ ॥


विषय - मनुष्य को कैसे कार्य्य साधना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोगों को योग्य है कि यज्ञ के लिये (आसन्दी) जो सब ओर से सेवन की जाती है, वह (रूपम्) सुन्दर क्रिया (राजासन्द्यै) राजा लोग जिस में बैठते हैं, उस (वेद्यै) सुख-प्राप्ति कराने वाली वेदि के अर्थ (कुम्भी) धान्यादि पदार्थों का आधार (सुराधानी) जिसमें सोमरस धरा जाता है, वह गगरी (अन्तरः) जिससे जीवन होता है, यह अन्नादि पदार्थ (उत्तरवेद्याः) उत्तर की वेदी के (रूपम्) रूप को (कारोतरः) कर्मकारी और (भिषक्) वैद्य इन सब का संग्रह करो॥१६॥


भावार्थ - मनुष्य जिस-जिस कार्य के करने की इच्छा करे, उस-उस के समस्त साधनों का सञ्चय करे॥१६॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


वेद्या॒ वेदिः॒ समा॑प्यते ब॒र्हिषा॑ ब॒र्हिरि॑न्द्रि॒यम्। 

यूपे॑न॒ यूप॑ऽआप्यते॒ प्रणी॑तोऽअ॒ग्निर॒ग्निना॑॥१७॥


पद पाठ

वेद्या॑। वेदिः॑। सम्। आ॒प्य॒ते॒। ब॒र्हिषा॑। ब॒र्हिः। इ॒न्द्रि॒यम्। यूपे॑न। यूपः॑। आ॒प्य॒ते॒। प्रणी॑तः। प्रनी॑त इति॒ प्रऽनी॑तः। अ॒ग्निः। अ॒ग्निना॑ ॥१७ ॥


विषय - किन जनों के कार्य्य सिद्ध होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे विद्वान् लोग (वेद्या) यज्ञ की सामग्री से (वेदिः) वेदि और (बर्हिषा) महान् पुरुषार्थ से (बर्हिः) बड़ा (इन्द्रियम्) धन (समाप्यते) अच्छे प्रकार प्राप्त किया जाता है, (यूपेन) मिले हुए वा पृथक्-पृथक् व्यवहार से (यूपः) मिला हुआ व्यवहार के यत्न का प्रकाश और (अग्निना) बिजुली आदि अग्नि से (प्रणीतः) अच्छे प्रकार सम्मिलित (अग्निः) अग्नि (आप्यते) प्राप्त कराया जाता है, वैसे ही तुम लोग भी साधनों से साधन मिला कर सब सुखों को प्राप्त होओ॥१७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य उत्तम साधन से साध्य कार्य्य को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, वे ही साध्य की सिद्धि करने वाले होते हैं॥१७॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - गृहपतिर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


ह॒वि॒र्धानं॒ यद॒श्विनाग्नी॑ध्रं॒ यत्सर॑स्वती। 

इन्द्रा॑यै॒न्द्रꣳसद॑स्कृ॒तं प॑त्नी॒शालं॒ गार्ह॑पत्यः॥१८॥


 पद पाठ

ह॒वि॒र्धान॒मिति॑ हविः॒ऽधान॑म्। यत्। अ॒श्विना॑। आग्नी॑ध्रम्। यत्। सर॑स्वती। इन्द्रा॑य। ऐ॒न्द्रम्। सदः॑। कृ॒तम्। प॒त्नी॒शाल॒मिति॑ पत्नी॒ऽशाल॑म्। गार्ह॑पत्य॒ इति॒ गार्ह॑ऽपत्यः ॥१८ ॥


विषय - स्त्री-पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे गृहस्थ पुरुषो! जैसे विद्वान् (अश्विना) स्त्री और पुरुष (यत्) जो (हविर्धानम्) देने वा लेने योग्य पदार्थों का धारण जिसमें किया जाता वह और (यत्) जो (सरस्वती) विदुषी स्त्री (आग्नीध्रम्) ऋत्विज का शरण करती हुई तथा विद्वानों ने (इन्द्राय) ऐश्वर्य से सुख देनेहारे पति के लिये (ऐन्द्रम्) ऐश्वर्य के सम्बन्धी (सदः) जिसमें स्थित होते हैं, उस सभा और (पत्नीशालम्) पत्नी की शाला घर को (कृतम्) किया है, सो यह सब (गार्हपत्यः) गृहस्थ का संयोगी धर्म ही है, वैसे उस सब कर्त्तव्य को तुम भी करो॥१८॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे ऋत्विज् लोग सामग्री का सञ्चय करके यज्ञ को शोभित करते हैं, वैसे प्रीतियुक्त स्त्री-पुरुष घर के कार्यों को नित्य सिद्ध किया करें॥१८॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


प्रै॒षेभिः॑ प्रै॒षाना॑प्नोत्या॒प्रीभि॑रा॒प्रीर्य॒ज्ञस्य॑। 

प्र॒या॒जेभि॑रनुया॒जान् व॑षट्का॒रेभि॒राहु॑तीः॥१९॥


 पद पाठ

प्रै॒षेभि॒रिति॑ प्रऽए॒षेभिः॑। प्रै॒षानिति॑ प्रऽए॒षान्। आ॒प्नो॒ति॒। आ॒प्रीभि॒रित्या॒ऽप्रीभिः॑। आ॒प्रीरित्या॒ऽप्रीः। य॒ज्ञस्य॑। प्र॒या॒जेभि॒रिति॑ प्रया॒जेभिः॑। अ॒नु॒या॒जानित्य॑नुऽया॒जान्। व॒ष॒ट्का॒रेभि॒रिति॑ वषट्ऽका॒रेभिः॑। आहु॑ती॒रित्याहु॑तीः ॥१९ ॥


विषय - कैसा विद्वान् सुख को प्राप्त होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो विद्वान् (प्रैषेभिः) भेजने रूप कर्मों से (प्रैषान्) भेजने योग्य भृत्यों को (आप्रीभिः) सब ओर से प्रसन्नता करनेहारी क्रियाओं से (आप्रीः) सर्वथा प्रीति उत्पन्न करनेहारी परिचारिका स्त्रियों को (प्रयाजेभिः) उत्तम यज्ञ के कर्मों से (अनुयाजान्) अनुकूल यज्ञ-पदार्थों को और (यज्ञस्य) यज्ञ की (वषट्कारेभिः) क्रियाओं से (आहुतीः) अग्नि में छोड़ने योग्य आहुतियों को (आप्नोति) प्राप्त होता है, वह सुखी रहता है॥१९॥


भावार्थ - जो सुशिक्षित सेवकों तथा सेविकाओं वाला साधनों और उपसाधनों से युक्त श्रेष्ठ कार्यों को करता है, वह सब को सुखी करने में समर्थ होता है॥१९॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यजमानो देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः


प॒शुभिः॑ प॒शूना॑प्नोति पुरो॒डाशै॑र्ह॒वीष्या। 

छन्दो॑भिः सामिधे॒नीर्या॒ज्याभिर्वषट्का॒रान्॥२०॥


 पद पाठ

प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुभिः॑। प॒शून्। आ॒प्नो॒ति॒। पु॒रो॒डाशैः॑। ह॒वीषि॑। आ। छन्दो॑भि॒रिति॒ छन्दः॑ऽभिः। सा॒मि॒धे॒नीरिति॑ साम्ऽइधे॒नीः। या॒ज्या᳖भिः। व॒ष॒ट्का॒रानिति॑ वषट्ऽका॒रान् ॥२० ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे सद्गृहस्थ (पशुभिः) गवादि पशुओं से (पशून्) गवादि पशुओं को (पुरोडाशैः) पचन क्रियाओं से पके हुए उत्तम पदार्थों से (हवींषि) हवन करते योग्य उत्तम पदार्थों को (छन्दोभिः) गायत्री आदि छन्दों की विद्या से (सामिधेनीः) जिससे अग्नि प्रदीप्त हो, उस सुन्दर समिधाओं को (याज्याभिः) यज्ञ की क्रियाओं से (वषट्कारान्) जो धर्मयुक्त क्रिया को करते हैं, उनको (आ, आप्नोति) प्राप्त होता है, वैसे इनको तुम भी प्राप्त होओ॥२०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो संसार में बहुत पशु वाला होम करके, हुतशेष का भोक्ता, वेदवित् और सत्यक्रिया का कर्त्ता मनुष्य होवे, सो प्रशंसा को प्राप्त होता है॥२०॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


धा॒नाः क॑र॒म्भः सक्त॑वः परीवा॒पः पयो॒ दधि॑। 

सोम॑स्य रू॒पꣳ ह॒विष॑ऽआ॒मिक्षा॒ वजि॑नं॒ मधु॑॥२१॥


 पद पाठ

धा॒नाः। क॒र॒म्भः। सक्त॑वः। प॒री॒वा॒प इति॑ परि॑ऽवा॒पः। पयः॑। दधि॑। सोम॑स्य। रू॒पम्। ह॒विषः॑। आ॒मिक्षा॑। वाजि॑नम्। मधु॑ ॥२१ ॥


विषय - कौन पदार्थ होम के योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग (हविषः) होम करने योग्य (सोमस्य) यन्त्र द्वारा खींचने योग्य ओषधिरूप रस के (रूपम्) रूप को (धानाः) भुने हुए अन्न (करम्भः) मथन का साधन (सक्तवः) सत्तू (परीवापः) सब ओर से बीज का बोना (पयः) दूध (दधि) दही (आमिक्षा) दही, दूध, मीठे का मिलाया हुआ (वाजिनम्) प्रशस्त अन्नों को सम्बन्धी सार वस्तु और (मधु) सहत के गुण को जानो॥२१॥


भावार्थ - जो पदार्थ पुष्टिकारक, सुगन्धयुक्त, मधुर और रोगनाशक गुणयुक्त हैं, वे होम करने के योग्य हविः संज्ञक हैं॥२१॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


धा॒नाना॑ रू॒पं कुव॑लं परीवा॒पस्य॑ गो॒धूमाः॑। 

सक्तू॑ना रू॒पं बदर॑मुप॒वाकाः॑। कर॒म्भस्य॑॥२२॥


 पद पाठ

धा॒नाना॑म्। रू॒पम्। कुव॑लम्। प॒री॒वा॒पस्य॑। प॒री॒वा॒पस्येति॑ परिऽवा॒पस्य॑। गो॒धूमाः॑। सक्तू॑नाम्। रू॒पम्। बद॑रम्। उ॒प॒वाका॒ इत्यु॑प॒ऽवाकाः॑। क॒र॒म्भस्य॑ ॥२२ ॥


विषय - कैसे मनुष्य नीरोग होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग (धानानाम्) भुंजे हुए जौ आदि अन्नों का (कुवलम्) कोमल बेर सा रूप (परीवापस्य) पिसान आदि का (गोधूमाः) गेहूं (रूपम्) रूप (सक्तूनाम्) सत्तुओं का (बदरम्) बेरफल के समान रूप (करम्भस्य) दही मिले सत्तू का (उपवाकाः) समीप प्राप्त जौ (रूपम्) रूप है, ऐसा जाना करो॥२२॥


भावार्थ - जो मनुष्य सब अन्नों का सुन्दर रूप करके भोजन करते और कराते हैं, वे आरोग्य को प्राप्त होते हैं॥२२॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


पय॑सो रू॒पं यद्यवा॑ द॒ध्नो रू॒पं क॒र्कन्धू॑नि। 

सोम॑स्य रू॒पं वाजि॑नꣳ सौ॒म्यस्य॑ रू॒पमा॒मिक्षा॑॥२३॥


 पद पाठ

पय॑सः। रू॒पम्। यत्। यवाः॑। द॒ध्नः। रू॒पम्। क॒र्कन्धू॑नि। सोम॑स्य। रू॒पम्। वाजि॑नम्। सौ॒म्यस्य॑। रू॒पम्। आ॒मिक्षा॑ ॥२३ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोग (यत्) जो (यवाः) यव हैं, उनको (पयसः) पानी वा दुग्ध के (रूपम्) रूप (कर्कन्धूनि) मोटे पके हुए बेरी के फलों के समान (दध्नः) दही के (रूपम्) स्वरूप (वाजिनम्) बहुत अन्न के सार के समान (सोमस्य) सोम ओषधि के (रूपम्) स्वरूप और (आमिक्षा) दूध, दही के संयोग से बने पदार्थ के समान (सौम्यस्य) सोमादि ओषधियों के सार होने के (रूपम्) स्वरूप को सिद्ध किया करो॥२३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिस-जिस अन्न का सुन्दररूप जिस प्रकार हो, उस-उस के रूप को उसी प्रकार सदा सिद्ध करें॥२३॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


आ श्रा॑व॒येति॑ स्तो॒त्रियाः॑ प्रत्याश्रा॒वोऽअनु॑रूपः। 

यजेति॑ धाय्यारू॒पं प्र॑गा॒था ये॑यजाम॒हाः॥२४॥


 पद पाठ

आ। श्रा॒व॒य॒ इति॑। स्तो॒त्रियाः॑। प्र॒त्या॒श्रा॒व इति॑ प्रतिऽआश्रा॒वः। अनु॑रूप॒ इत्यनु॑ऽरूपः। यजा॒इति॑। धा॒य्या॒रू॒पमिति॑ धाय्याऽरू॒पम्। प्र॒गा॒था इति॑ प्रऽगा॒थाः। ये॒य॒जा॒म॒हा इति॑ येऽयजाम॒हाः ॥२४ ॥


विषय - कैसे विद्वान् होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! तू विद्यार्थियों को विद्या (आ, श्रावय) सब प्रकार से सुना, जो (स्तोत्रियाः) स्तुति करने योग्य हैं, उनको (प्रत्याश्रावः) पीछे सुनाया जाता है और (अनुरूपः) अनुकूल जैसा यज्ञ है, वैसे (येयजामहाः) जो यज्ञ करते हैं (इति) इस प्रकार अर्थात् उन के समान (प्रगाथाः) जो अच्छे प्रकार गान किये जाते हैं, उनको (यजेति) सङ्गत कर, इस प्रकार (धाय्यारूपम्) धारण करने योग्य रूप को यथावत् जानें॥२४॥


भावार्थ - जो परस्पर प्रीति से विद्या के विषयों को सुनते और सुनाते हैं, वे विद्वान् होते हैं॥२४॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


अ॒र्ध॒ऽऋ॒चैरु॒क्थाना॑ रू॒पं प॒दैरा॑प्नोति नि॒विदः॑। 

प्र॒ण॒वैः श॒स्त्राणा॑ रू॒पं पय॑सा॒ सोम॑ऽआप्यते॥२५॥


 पद पाठ

अ॒र्द्ध॒ऽऋ॒चैरित्य॑र्द्धऽऋ॒चैः। उ॒क्थाना॑म्। रू॒पम्। प॒दैः। आ॒प्नो॒ति॒। नि॒विद॒ इति॑ नि॒ऽविदः॑। प्र॒ण॒वैः। प्र॒न॒वैरिति॑ प्रऽन॒वैः। श॒स्त्राणा॑म्। रू॒पम्। पय॑सा। सोमः॑। आ॒प्य॒ते॒ ॥२५ ॥


विषय - अध्यापको को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

जो विद्वान् (अर्द्धऽऋचैः) ऋचाओं के अर्ध भागों से (उक्थानाम्) कथन करने योग्य वैदिक स्तोत्रों का (रूपम्) स्वरूप (पदैः) सुबन्त-तिडन्त पदों और (प्रणवैः) ओंकारों से (शस्त्राणाम्) शस्त्रों का (रूपम्) स्वरूप और (निविदः) जो निश्चय से प्राप्त होते हैं, उनको (आप्नोति) प्राप्त होता है वा जिस विद्वान् से (पयसा) जल के साथ (सोमः) सोम ओषधि का रस (आप्यते) प्राप्त होता है, सो वेद का जानने वाला कहाता है॥२५॥


भावार्थ - जो विद्वान् के समीप वस के, पढ़ के, वेदस्थ पद-वाक्य-मन्त्र-विभागों के शब्द-अर्थ और सम्बन्धों का यथावद्विज्ञान करते हैं, वे इस संसार में अध्यापक होते हैं॥२५॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


अ॒श्विभ्यां॑ प्रातः सव॒नमिन्द्रे॑णै॒न्द्रं माध्य॑न्दिनम्। 

वै॒श्व॒दे॒वꣳ सर॑स्वत्या तृ॒तीय॑मा॒प्तꣳ सव॑नम्॥२६॥


 पद पाठ

अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। प्रा॒तः॒स॒व॒नमिति॑ प्रातःऽसव॒नम्। इन्द्रे॑ण। ऐ॒न्द्रम्। माध्य॑न्दिनम्। वै॒श्व॒दे॒वमिति॑ वैश्वऽदे॒वम्। सर॑स्वत्या। तृ॒तीय॑म्। आ॒प्तम्। सव॑नम् ॥२६ ॥


विषय - सत्पुरुषों को कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जिन मनुष्यों ने (अश्विभ्याम्) सूर्य्य-चन्द्रमा से प्रथम (प्रातःसवनम्) प्रातःकाल यज्ञक्रिया की प्रेरणा (इन्द्रेण) बिजुली से (ऐन्द्रम्) ऐश्वर्यकारक दूसरा (माध्यन्दिनम्) मध्याह्न में होने और (सवनम्) आरोग्यता करने वाला होमादि कर्म और (सरस्वत्या) सत्यवाणी से (वैश्वदेवम्) सम्पूर्ण विद्वानों के सत्काररूप (तृतीयम्) तीसरा सवन अर्थात् सायङ्काल की क्रिया को यथावत् (आप्तम्) प्राप्त किया है, वे जगत् के उपकारक हैं॥२६॥


भावार्थ - जो भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान इन तीनों कालों में सब मनुष्यादि प्राणियों का हित करते हैं, वे जगत् में सत्पुरुष होते हैं॥२६॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


वा॒य॒व्यैर्वाय॒व्यान्याप्नोति॒ सते॑न द्रोणकल॒शम्। 

कु॒म्भीभ्या॑मम्भृ॒णौ सु॒ते स्था॒लीभि॑ स्था॒लीरा॑प्नोति॥२७॥


 पद पाठ

वा॒य॒व्यैः᳖ वा॒य॒व्या᳖नि। आ॒प्नो॒ति॒। सते॑न। द्रो॒ण॒क॒ल॒शमिति॑ द्रोणऽकल॒शम्। कु॒म्भीभ्या॑म्। अ॒म्भृ॒णौ। सु॒ते। स्था॒लीभिः॑। स्था॒लीः। आ॒प्नो॒ति॒ ॥२७ ॥


विषय - विद्वान् को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो विद्वान् (वायव्यैः) वायु में होने वाले गुणों वा वायु जिनका देवता दिव्यगुणोत्पादक है, उन पदार्थों से (वायव्यानि) वायु में होने वा वायु देवता वाले कर्मों को (सतेन) विभागयुक्त कर्म से (द्रोणकलशम्) द्रोणपरिमाण और कलश को (आप्नोति) प्राप्त होता है। (कुम्भीभ्याम्) धान्य और जल के पात्रों से (अम्भृणौ) जिनसे जल धारण किया जाता है, उन (सुते) सिद्ध किये हुए दो प्रकार के रसों को (स्थालीभिः) जिनमें पदार्थ धरते वा पकाते हैं, उन स्थालियों से (स्थालीः) स्थालियों को (आप्नोति) प्राप्त होता है, वही धनाढ्य होता है॥२७॥


भावार्थ - कोई भी मनुष्य वायु के कर्मों को न जान कर इस के कारण के विना परिमाणविद्या को, इस विद्या के विना पाकविद्या को और इस के विना के अन्न के संस्कार की क्रिया को प्राप्त नहीं हो सकता॥२७॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


यजु॑र्भिराप्यन्ते॒ ग्रहा॒ ग्रहै॒ स्तोमा॑श्च॒ विष्टु॑तीः। 

छन्दो॑भिरुक्थाश॒स्त्राणि॒ साम्ना॑वभृ॒थऽआ॑प्यते॥२८॥


 पद पाठ

यजु॑र्भिरिति॒ यजुः॑ऽभिः। आ॒प्य॒न्ते॒। ग्रहाः॑। ग्रहैः॑। स्तोमाः॑। च॒। विष्टु॑तीः। विस्तु॑तीरिति॒ विऽस्तु॑तीः। छन्दो॑भि॒रिति॒ छन्दः॑ऽभिः। उ॒क्था॒श॒स्त्राणि॑। उ॒क्थ॒श॒स्त्राणीत्यु॑क्थऽश॒स्त्राणि॑। साम्ना॑। अ॒व॒भृ॒थ इत्य॑वऽभृ॒थः। आ॒प्य॒ते॒ ॥२८ ॥


विषय - सब लोग वेद का अभ्यास करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! तुम लोगों को जिन (यजुर्भिः) यजुर्वेदोक्त विद्या के अवयवों से (ग्रहाः) जिससे समस्त क्रियाकाण्ड का ग्रहण किया जाता है, वे व्यवहार (ग्रहैः) ग्रहों से (स्तोमाः) पदार्थों के गुणों की प्रशंसा (च) और (विष्टुतीः) विविध स्तुतियां (छन्दोभिः) गायत्र्यादि छन्द वा विद्वान् और गुणों की स्तुति करने वालों से (उक्थाशस्त्राणि) कथन करने योग्य वेद के स्तोत्र और शस्त्र (आप्यन्ते) प्राप्त होते हैं तथा (साम्ना) सामवेद से (अवभृथः) शोधन (आप्यते) प्राप्त होता है, उनका उपयोग यथावत् करना चाहिये॥२८॥


भावार्थ - कोई भी मनुष्य वेदाभ्यास के विना सम्पूर्ण साङ्गोपाङ्ग वेदविद्याओं को प्राप्त होने योग्य नहीं होता॥२८॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - इडा देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


इडा॑भिर्भ॒क्षाना॑प्नोति सूक्तवा॒केना॒शिषः॑। 

शं॒युना॑ पत्नीसंया॒जान्त्स॑मिष्टय॒जुषा॑ स॒ꣳस्थाम्॥२९॥


 पद पाठ

इडा॑भिः। भ॒क्षान्। आ॒प्नो॒ति॒। सू॒क्त॒वा॒केनेति॑ सूक्तऽवा॒केन॑। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽशिषः॑। शं॒युनेति॑ श॒म्ऽयुना॑। प॒त्नी॒सं॒या॒जानिति॑ पत्नीऽसंया॒जान्। स॒मि॒ष्ट॒य॒जुषेति॑ समिष्टऽय॒जुषा॑। स॒ꣳस्थामिति॑ स॒म्ऽस्थाम् ॥२९ ॥


विषय - गृहस्थ पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो विद्वान् (इडाभिः) पृथिवियों से (भक्षान्) भक्षण करने योग्य अन्नादि पदार्थों को (सूक्तवाकेन) जो सुन्दरता से कहा जाय उस के कहने से (आशिषः) इच्छा-सिद्धियों को (शंयुना) जिस से सुख प्राप्त होता है, उससे (पत्नीसंयाजान्) जो पत्नी के साथ मिलते हैं, उनको (समिष्टयजुषा) अच्छे इष्टसिद्धि करने वाले यजुर्वेद के कर्म से (संस्थाम्) अच्छे प्रकार रहने के स्थान को (आप्नोति) प्राप्त होता है, वह सुखी क्यों न होवे॥२९॥


भावार्थ - गृहस्थ लोग वेदविज्ञान ही से पृथिवी के राज्य-भोग की इच्छा और उसकी सिद्धि को प्राप्त होवें॥२९॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


व्र॒तेन॑ दी॒क्षामा॑प्नोति दी॒क्षया॑प्नोति॒ दक्षि॑णाम्। 

दक्षि॑णा श्र॒द्धामा॑प्नोति श्र॒द्धया॑ स॒त्यमा॑प्यते॥३०॥


 पद पाठ

व्र॒तेन॑। दी॒क्षाम्। आ॒प्नो॒ति॒। दी॒क्षया॑। आ॒प्नो॒ति॒। दक्षि॑णाम्। दक्षि॑णा। श्र॒द्धाम्। आ॒प्नो॒ति॒। श्र॒द्धया॑। स॒त्यम्। आ॒प्य॒ते॒ ॥३० ॥


विषय - मनुष्यों को सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो बालक कन्या वा पुरुष (व्रतेन) ब्रह्मचर्यादि नियमों से (दीक्षाम्) ब्रह्मचर्यादि सत्कर्मों के आरम्भरूप दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है, (दीक्षया) उस दीक्षा से (दक्षिणाम्) प्रतिष्ठा और धन को (आप्नोति) प्राप्त होता है, (दक्षिणा) उस प्रतिष्ठा वा धनरूप से (श्रद्धाम्) सत्य के धारण में प्रीतिरूप श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है वा उस (श्रद्धया) श्रद्धा से जिसने (सत्यम्) नित्य पदार्थ वा व्यवहारों में उत्तम परमेश्वर वा धर्म की (आप्यते) प्राप्ति की है, वह सुखी होता है॥३०॥


भावार्थ - कोई भी मनुष्य विद्या, अच्छी शिक्षा और श्रद्धा के विना सत्य व्यवहारों को प्राप्त होने और दुष्ट व्यवहारों के छोड़ने को समर्थ नहीं होता॥३०॥


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