Ad Code

यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र (31-50)

 ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


ए॒ताव॑द् रू॒पं य॒ज्ञस्य॒ यद्दे॒वैर्ब्रह्म॑णा कृ॒तम्।

तदे॒तत्सर्व॑माप्नोति य॒ज्ञे सौ॑त्राम॒णी सु॒ते॥३१॥


पद पाठ

ए॒ताव॑त्। रू॒पम्। य॒ज्ञस्य॑। यत्। दे॒वैः। ब्रह्म॑णा। कृ॒तम्। तत्। ए॒तत्। सर्व॑म्। आ॒प्नो॒ति॒। य॒ज्ञे। सौ॒त्रा॒म॒णी। सु॒ते ॥३१ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो मनुष्य (यत्) जिस (देवैः) विद्वानों और (ब्रह्मणा) परमेश्वर वा चार वेदों ने (यज्ञस्य) यज्ञ के (एतावत्) इतने (रूपम्) स्वरूप को (कृतम्) सिद्ध किया वा प्रकाशित किया है, (तत्) उस (एतत्) इस (सर्वम्) समस्त को (सौत्रामणी) जिसमें यज्ञोपवीतादि ग्रन्थियुक्त सूत्र धारण किये जाते हैं, उस (सुते) सिद्ध किये हुए (यज्ञे) यज्ञ में (आप्नोति) प्राप्त होता है, वह द्विज होने का आरम्भ करता है॥३१॥


भावार्थ - विद्वान् मनुष्यों को योग्य है कि जितना यज्ञ के अनुष्ठान का अनुसन्धान किया जाता है, उतना ही अनुष्ठान करके बड़े उत्तम यज्ञ के फल को प्राप्त होवें॥३१॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


सुरा॑वन्तं बर्हि॒षद॑ꣳ सु॒वीरं॑ य॒ज्ञꣳ हि॑न्वन्ति महि॒षा नमो॑भिः। 

दधा॑नाः॒ सोमं॑ दि॒वि दे॒वता॑सु॒ मदे॒मेन्द्रं॒ यज॑मानाः स्व॒र्काः॥३२॥


 पद पाठ


सुरा॑वन्त॒मिति॒ सुरा॑ऽवन्तम्। ब॒र्हि॒षद॑म्। ब॒र्हि॒षद॒मिति॑ बर्हि॒ऽसद॑म्। सु॒वीर॒मिति॑ सु॒ऽवीर॑म्। य॒ज्ञम्। हि॒न्व॒न्ति॒। म॒हि॒षाः। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। दधा॑नाः। सोम॑म्। दि॒वि। दे॒वता॑सु। मदे॑म। इन्द्र॑म्। यज॑मानाः। स्व॒र्का इति॑ सुऽअ॒र्काः ॥३२ ॥


विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (महिषाः) महान् पूजनीय (स्वर्काः) उत्तम अन्न आदि पदार्थों से युक्त (यजमानाः) यज्ञ करने वाले विद्वान् लोग (नमोभिः) अन्नादि से (सुरावन्तम्) उत्तम सोमरस युक्त (बर्हिषदम्) जो प्रशस्त आकाश में स्थिर होता उस (सुवीरम्) उत्तम शरीर तथा आत्मा के बल से युक्त वीरों की प्राप्ति करनेहारे (यज्ञम्) यज्ञ को (हिन्वन्ति) बढ़ाते हैं, वे और (दिवि) शुद्ध व्यवहारों में तथा (देवतासु) विद्वानों में (सोमम्) ऐश्वर्य्य और (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्ययुक्त जन को (दधानाः) धारण करते हुए हम लोग (मदेम) आनन्दित हों॥३२॥


भावार्थ - जो मनुष्य अन्नादि ऐश्वर्य का सञ्चय कर उससे विद्वानों को प्रसन्न और सत्य विद्याओं में शिक्षा ग्रहण करके सब के हितैषी हों, वे इस संसार में पुत्र-स्त्री के आनन्द को प्राप्त हों॥३२॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


यस्ते॒ रसः॒ सम्भृ॑त॒ऽओष॑धीषु॒ सोम॑स्य शुष्मः॒ सुर॑या सु॒तस्य॑। 

तेन॑ जिन्व॒ यज॑मानं॒ मदे॑न॒ सर॑स्वतीम॒श्विना॒विन्द्र॑म॒ग्निम्॥३३॥


पद पाठ


यः। ते॒। रसः॑। सम्भृ॑त॒ इति॒ सम्ऽभृ॑तः। ओष॑धीषु। सोम॑स्य। शुष्मः॑। सुर॑या। सु॒तस्य॑। तेन॑। जि॒न्व॒। यज॑मानम्। मदे॑न। सर॑स्वतीम्। अ॒श्विनौ॑। इन्द्र॑म्। अ॒ग्निम् ॥३३ ॥


विषय - कैसे पुरुष धन्यवाद के योग्य हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे विद्वन्! (यः) जो (ते) आपका (ओषधीषु) सोमलतादि ओषधियों में वर्त्तमान (सुतस्य) सिद्ध किये हुए (सोमस्य) अंशुमान् आदि चौबीस प्रकार के भेद वाले सोम का (सुरया) उत्तम दानशील स्त्री ने (सम्भृतः) अच्छे प्रकार धारण किया हुआ (शुष्मः) बलकारी (रसः) रस है, (तेन) उस (मदेन) आनन्ददायक रस से (यजमानम्) सब को सुख देने वाले यजमान (सरस्वतीम्) उत्तम विद्यायुक्त स्त्री (अश्विनौ) विद्याव्याप्त अध्यापक और उपदेशक (इन्द्रम्) ऐश्वर्ययुक्त सभा और सेना के पति (अग्निम्) पावक के समान शत्रु को जलानेहारे योद्धा को (जिन्व) प्रसन्न कीजिये॥३३॥


भावार्थ - जो विद्वान् मनुष्य महौषधियों के सारों को आप सेवन कर अन्यों को सेवन कराके निरन्तर आनन्द बढ़ावें, वे धन्यवाद के योग्य हैं॥३३॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


यम॒श्विना॒ नमु॑चेरासु॒रादधि॒ सर॑स्व॒त्यसु॑नोदिन्द्रि॒याय॑। 

इ॒मं तꣳ शु॒क्रं मधु॑मन्त॒मिन्दु॒ꣳ सोम॒ꣳ राजा॑नमि॒ह भ॑क्षयामि॥३४॥


 पद पाठ


यम्। अ॒श्विना॑। नमु॑चेः। आ॒सु॒रात्। अधि॑। सर॑स्वती। असु॑नोत्। इ॒न्द्रि॒याय॑। इ॒मम्। तम्। शु॒क्रम्। मधु॑मन्तम्। इन्दु॑म्। सोम॑म्। राजा॑नम्। इ॒ह। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥३४ ॥


विषय - कैसे पुरुष सुखी होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (इह) इस संसार में (इन्द्रियाय) धन और इन्द्रियबल के लिये (यम्) जिस (नमुचेः) जल को जो नहीं छोड़ता (आसुरात्) उस मेघ-व्यवहार से (अधि) अधिक (शुक्रम्) शीघ्र बलकारी (मधुमन्तम्) उत्तम मधुरादिगुणयुक्त (इन्दुम्) परमैश्वर्य्य करनेहारे (राजानम्) प्रकाशमान (सोमम्) पुरुषार्थ में प्रेरक सोम ओषधि को (सरस्वती) विदुषी स्त्री (असुनोत्) सिद्ध करती तथा (अश्विना) सभा और सेना के पति सिद्ध करते हैं, (तम्, इमम्) उस इस को मैं (भक्षयामि) भोग करता और भोगवाता हूं॥३४॥


भावार्थ - जो मनुष्य उत्तम अन्न रस के भोजन करनेहारे होते हैं, वे बलयुक्त इन्द्रियों वाले होकर सदा आनन्द को भोगते हैं॥३४॥


ऋषि: - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


यदत्र॑ रि॒प्तꣳ र॒सिनः॑ सु॒तस्य॒ यदिन्द्रो॒ऽअपि॑ब॒च्छची॑भिः। 

अ॒हं तद॑स्य॒ मन॑सा शि॒वेन॒ सोम॒ꣳ राजा॑नमि॒ह भ॑क्षयामि॥३५॥


 पद पाठ

यत्। अत्र॑। रि॒प्तम्। र॒सिनः॑। सु॒तस्य॑। यत्। इन्द्रः॑। अपि॑बत्। शची॑भिः। अ॒हम्। तत्। अ॒स्य॒। मन॑सा। शि॒वेन॑। सोम॑म्। राजा॑नम्। इ॒ह। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥३५ ॥


विषय - मनुष्यों को चाहिये कि सब को आनन्द करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्य लोगो! जैसे (अहम्) मैं (इह) इस संसार में (अस्य) इस (सुतस्य) सिद्ध किये हुए (रसिनः) प्रशंसित रसयुक्त पदार्थ का (यत्) जो भाग (अत्र) इस संसार ही में (रिप्तम्) लिप्त=प्राप्त है वा (इन्द्रः) सूर्य्य (शचीभिः) आकर्षणादि कर्मों के साथ (यत्) जो (अपिबत्) पीता है, (तत्) उसको और (राजानम्) प्रकाशमान (सोमम्) ओषधियों के रस को (शिवेन) कल्याणकारक (मनसा) मन से (भक्षयामि) भक्षण करता और पीता हूं, वैसे तुम भी किया और पिया करो॥३५॥


भावार्थ - हे मनुष्यो! जैसे सूर्य अपनी किरणों से जलों का आकर्षण कर और वर्षा से सबको सुखी करता है, वैसे ही अनुकूल क्रियाओं से रसों का सेवन अच्छे प्रकार करके बल को बढ़ा कीर्ति से सब को तुम लोग आनन्दित करो॥३५॥


ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः


पि॒तृभ्यः॑ स्वधा॒यिभ्यः॑ स्व॒धा नमः॑ पिताम॒हेभ्यः॑ स्वधा॒यिभ्यः॑ स्व॒धा नमः॒ प्रपि॑तामहेभ्यः स्वधा॒यिभ्यः॑ स्व॒धा नमः॑। अक्ष॑न् पि॒तरोऽमी॑मदन्त पि॒तरोऽती॑तृपन्त पि॒तरः॒ पित॑रः॒ शुन्ध॑ध्वम्॥३६॥


 पद पाठ

पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। स्व॒धा॒यिभ्य॒ इति॑ स्वधा॒यिऽभ्यः॑। स्व॒धा। नमः॑। पि॒ता॒म॒हेभ्यः॑। स्व॒धा॒यिभ्य॒ इति॑ स्वधा॒यिऽभ्यः॑। स्व॒धा। नमः॑। प्रपि॑तामहेभ्य॒ इति॒ प्रऽपि॑तामहेभ्यः। स्व॒धा॒यिभ्य॒ इति॑ स्वधा॒यिऽभ्यः॑। स्व॒धा। नमः॑। अक्ष॑न्। पि॒तरः॑। अमी॑मदन्त। पि॒तरः॑। अती॑तृपन्त। पि॒तरः॑। पित॑रः। शुन्ध॑ध्वम् ॥३६ ॥


विषय - माता-पिता पुत्रादि को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

हम पुत्र शिष्यादि मनुष्य (स्वधायिभ्यः) जिस स्वधा अन्न और जल को प्राप्त होने के स्वभाव वाले (पितृभ्यः) ज्ञानियों को (स्वधा) अन्न देते और (नमः) सत्कार करते (स्वधायिभ्यः) बहुत अन्न को चाहने वाले (पितामहेभ्यः) पिता के पिताओं को (स्वधा) सुन्दर अन्न देते तथा (नमः) सत्कार करते और (स्वधायिभ्यः) उत्तम अन्न के चाहने वाले (प्रपितामहेभ्यः) पितामह के पिताओं को (स्वधा) अन्न देते और उनका (नमः) सत्कार करते हैं, वे हे (पितरः) पिता आदि ज्ञानियो! आप लोग हमने अच्छे प्रकार बनाये हुये अन्न आदि का (अक्षन्) भोजन कीजिये। हे (पितरः) अध्यापक लोगो! आप आनन्दित होके हम को (अमीमदन्त) आनन्दयुक्त कीजिये। हे (पितरः) उपदेशक लोगो! आप तृप्त होकर हमको (अतीतृपन्त) तृप्त कीजिये। हे (पितरः) विद्वानो! आप लोग शुद्ध होकर हमको (शुन्धध्वम्) शुद्ध कीजिये॥३६॥


भावार्थ - हे पुत्र, शिष्य और पुत्रवधू आदि लोगो! तुम उत्तम अन्नादि पदार्थों से पिता आदि वृद्धों का निरन्तर सत्कार किया करो तथा पितर लोग तुमको भी आनन्दित करें। जैसे माता-पितादि बाल्यावस्था में तुम्हारी सेवा करते हैं, वैसे ही तुम लोग वृद्धावस्था में उनकी सेवा यथावत् किया करो॥३६॥


ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः


पु॒नन्तु॑ मा पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑ पु॒नन्तु॑ मा पिताम॒हाः पु॒नन्तु॒ प्रपि॑तामहाः। 

प॒वित्रे॑ण श॒तायु॑षा। पु॒नन्तु॑ मा पिताम॒हाः पु॒नन्तु॒ प्रपि॑तामहाः। 

प॒वित्रे॑ण श॒तायु॑षा विश्व॒मायु॒र्व्यश्नवै॥३७॥


 पद पाठ

पु॒नन्तु॑। मा॒। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। पु॒नन्तु॑। मा॒। पि॒ता॒म॒हाः। पु॒नन्तु॑। प्रपि॑तामहा॒ इति॒ प्रऽपि॑तामहाः। प॒वित्रे॑ण। श॒तायु॒षेति॑ श॒तऽआ॑युषा। पु॒नन्तु॑। मा॒। पि॒ता॒म॒हाः। पु॒नन्तु॑। प्रपि॑तामहा॒ इति॒ प्रऽपि॑तामहाः। प॒वित्रे॑ण। श॒तायु॒षेति॑ श॒तऽआ॑युषा। विश्व॑म्। आयुः॑। वि। अ॒श्न॒वै॒ ॥३७ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(सोम्यासः) ऐश्वर्य से युक्त वा चन्द्रमा के तुल्य शान्त (पितरः) ज्ञान देने से पालक पितर लोग (पवित्रेण) शुद्ध (शतायुषा) सौ वर्ष की आयु से (मा) मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें, अति बुद्धिमान् चन्द्रमा के तुल्य आनन्दकर्त्ता (पितामहाः) पिताओं के पिता उस अतिशुद्ध सौ वर्षयुक्त आयु से (मा) मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें। ऐश्वर्यदाता चन्द्रमा के तुल्य शीतल स्वभाव वाले (प्रपितामहाः) पितामहों के पिता लोग शुद्ध सौ वर्ष पर्य्यन्त जीवन से (मा) मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें। विद्यादि ऐश्वर्ययुक्त वा शान्तस्वभाव (पितामहाः) पिताओं के पिता (पवित्रेण) अतीव शुद्धानन्दयुक्त (शतायुषा) शत वर्ष पर्य्यन्त आयु से मुझ को (पुनन्तु) पवित्राचरणयुक्त करें। सुन्दर ऐश्वर्य के दाता वा शन्तियुक्त (प्रपितामहाः) पितामहों के पिता पवित्र धर्माचरणयुक्त सौ वर्ष पर्यन्त आयु से मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें, जिससे मैं (विश्वम्) सम्पूर्ण (आयुः) जीवन को (व्यश्नवै) प्राप्त होऊं॥३७॥


भावार्थ - पिता, पितामह और प्रपितामहों को योग्य है कि अपने कन्या और पुत्रों को ब्रह्मचर्य, अच्छी शिक्षा और धर्मोपदेश से संयुक्त करके विद्या और उत्तम शील से युक्त करें। सन्तानों को योग्य है कि पितादि की सेवा और अनुकूल आचरण से पिता आदि सभों की नित्य सेवा करें, ऐसे परस्पर उपकार से गृहाश्रम में आनन्द के साथ वर्त्तना चाहिये॥३७॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः


अग्न॒ऽआयू॑षि पवस॒ऽआ सु॒वोर्ज॒मिषं॑ च नः। 

आ॒रे बा॑धस्व दु॒च्छुना॑म्॥३८॥


 पद पाठ

अग्ने॑। आयू॑षि। प॒व॒से॒। आ। सु॒व॒। ऊर्ज॑म्। इष॑म्। च॒। नः॒। आ॒रे। बा॒ध॒स्व॒। दु॒च्छुना॑म् ॥३८ ॥


विषय - फिर उसी विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) विद्वन् पिता, पितामह और प्रपितामह! जो आप (नः) हमारे (आयूंषि) आयुर्दाओं को (पवसे) पवित्र करें, सो आप (ऊर्जम्) पराक्रम (च) और (इषम्) इच्छासिद्धि को (आ, सुव) चारों ओर से सिद्ध करिये और (आरे) दूर और निकट वसनेहारे (दुच्छुनाम्) दुष्ट कुत्तों के समान मनुष्यों के सङ्ग को (बाधस्व) छुड़ा दीजिये॥३८॥


भावार्थ - पिता आदि लोग अपने सन्तानों में दीर्घ आयु, पराक्रम और शुभ इच्छा को धारण कराके अपने सन्तानों को दुष्टों के सङ्ग से रोक और श्रेष्ठों के सङ्ग में प्रवृत्त कराके धार्मिक चिरञ्जीवी करें, जिससे वे वृद्धावस्था में भी अप्रियाचरण कभी न करें॥३८॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


पु॒नन्तु॑ मा देवज॒नाः पु॒नन्तु॒ मन॑सा॒ धियः॑। 

पु॒नन्तु॒ विश्वा॑ भू॒तानि॒ जात॑वेदः पुनी॒हि मा॑॥३९॥


 पद पाठ

पुनन्तु॑। मा॒। दे॒व॒ज॒ना इति॑ देवऽज॒नाः। पु॒नन्तु॑। मन॑सा। धियः॑। पु॒नन्तु॑। विश्वा॑। भू॒तानि॑। जात॑वेद॒ इति॒ जात॑ऽवेदः। पु॒नी॒हि। मा॒ ॥३९ ॥


विषय - फिर उसी विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥


पदार्थ -

हे (जातवेदः) उत्पन्न हुए जनों में ज्ञानी विद्वन्! जैसे (देवजनाः) विद्वान् जन (मनसा) विज्ञान और प्रीति से (मा) मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें और हमारी (धियः) बुद्धियों को (पुनन्तु) पवित्र करें और (विश्वा) सम्पूर्ण (भूतानि) भूत=प्राणिमात्र मुझ को (पुनन्तु) पवित्र करें, वैसे आप (मा) मुझ को (पुनीहि) पवित्र कीजिये॥३९॥


भावार्थ - विद्वान् पुरुष और विदुषी स्त्रियों का मुख्य कर्त्तव्य यही है कि जो पुत्र और पुत्रियों को ब्रह्मचर्य और सुशिक्षा से विद्वान् और विदुषी, सुन्दर, शीलयुक्त निरन्तर किया करें॥३९॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः


प॒वित्रे॑ण पुनीहि मा॑ शु॒क्रेण॑ देव॒ दीद्य॑त्। 

अग्ने॒ क्रत्वा॒ क्रतूँ॒२ऽरनु॑॥४०॥


 पद पाठ

प॒वित्रे॑ण। पु॒नी॒हि॒। मा॒। शु॒क्रेण॑। दे॒व॒। दीद्य॑त्। अग्ने॑। क्रत्वा॑। क्रतू॑न्। अनु॑ ॥४० ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (दीद्यत्) प्रकाशमान (देव) विद्या के देनेहारे (अग्ने) विद्वन्! आप (पवित्रेण) शुद्ध (शुक्रेण) वीर्य=पराक्रम से स्वयं पवित्र होकर (मा) मुझ को इससे (अनु, पुनीहि) पीछे पवित्र कर अपनी (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म से अपनी प्रज्ञा और कर्म को पवित्र करके हमारी (क्रतून्) बुद्धियों वा कर्मों को पुनः पुनः पवित्र किया करो॥४०॥


भावार्थ - पिता, अध्यापक और उपदेशक लोग स्वयं धार्मिक और विद्वान् होकर अपने सन्तानों को भी ऐसे ही धार्मिक योग्य विद्वान् करें॥४०॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः


यत्ते॑ प॒वित्र॑म॒र्चिष्यग्ने॒ वित॑तमन्त॒रा।

 ब्रह्म॒ तेन॑ पुनातु मा॥४१॥


 पद पाठ

यत्। ते॒। प॒वित्र॑म्। अ॒र्चिषि॑। अग्ने॑। वित॑त॒मिति॒ विऽतत॑म्। अ॒न्त॒रा। ब्रह्म॑। तेन॑। पु॒ना॒तु॒। मा॒ ॥४१ ॥


विषय - मनुष्यों को कैसे शुद्ध होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर (ते) तेरे (अर्चिषि) सत्कार करने योग्य शुद्ध तेजःस्वरूप में (अन्तरा) सब से भिन्न (यत्) जो (विततम्) विस्तृत सब में व्याप्त (पवित्रम्) शुद्धस्वरूप (ब्रह्म) उत्तम वेद विद्या है, (तेन) उससे (मा) मुझ को आप (पुनातु) पवित्र कीजिये॥४१॥


भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोग जो देवों का देव, पवित्रों का पवित्र, व्याप्तों में व्याप्त अन्तर्यामी ईश्वर और उसकी विद्या वेद है, उसके अनुकूल आचरण से निरन्तर पवित्र हूजिये॥४१॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः 


पव॑मानः॒ सोऽअ॒द्य नः॑ प॒वित्रे॑ण॒ विच॑र्षणिः। 

यः पोता॒ स पु॑नातु मा॥४२॥


 पद पाठ

पव॑मानः। सः। अ॒द्य। नः॒। प॒वित्रे॑ण। विच॑र्षणि॒रिति॒ विऽच॑र्षणिः। यः। पोता॑। सः। पु॒ना॒तु॒। मा॒ ॥४२ ॥


विषय - फिर मनुष्यों को पुत्रादि कैसे पवित्र करने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(यः) जो जगदीश्वर (नः) हमारे मध्य में (पवित्रेण) शुद्ध आचरण से (पवमानः) पवित्र (विचर्षणिः) विविध विद्याओं का दाता है, (सः) सो (अद्य) आज हमको पवित्र करने वाला और हमारा उपदेशक है, (सः) सो (पोता) पवित्रस्वरूप परमात्मा (मा) मुझको (पुनातु) पवित्र करे॥४२॥


भावार्थ - मनुष्य लोग ईश्वर के समान धार्मिक होकर अपने सन्तानों को धर्मात्मा करें, ऐसे किये विना अन्य मनुष्यों को भी वे पवित्र नहीं कर सकते॥४२॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - निचृदगायत्री स्वरः - षड्जः


उ॒भाभ्यां॑ देव सवितः प॒वित्रे॑ण स॒वेन॑ च। 

मां पु॑नीहि वि॒श्वतः॑॥४३॥


 पद पाठ

उ॒भाभ्या॑म्। दे॒व॒। स॒वि॒त॒रिति॑ सवितः। प॒वित्रे॑ण। स॒वेन॑। च॒। माम्। पु॒नी॒हि॒। वि॒श्वतः॑ ॥४३ ॥


विषय - मनुष्यों को अधम से कैसे डरना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे (देव) सुख के देनेहारे (सवितः) सत्यकर्मों में प्रेरक जगदीश्वर आप (पवित्रेण) पवित्र वर्त्ताव (च) और (सवेन) सकलैश्वर्य्य तथा (उभाभ्याम्) विद्या और पुरुषार्थ से (विश्वतः) सब ओर से (माम्) मुझ को (पुनीहि) पवित्र कीजिये॥४३॥


भावार्थ - हे मनुष्यो! जो ईश्वर सब मनुष्यों को शुद्धि और धर्म को ग्रहण कराता है, उसी का आश्रय करके अधर्माचरण से सदा भय किया करो॥४३॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


वै॒श्व॒दे॒वी पु॑न॒ती दे॒व्यागा॒द् यस्या॑मि॒मा ब॒ह्व्यस्त॒न्वो वी॒तपृ॑ष्ठाः। 

तया॒ मद॑न्तः सध॒मादे॑षु व॒य स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम्॥४४॥


 पद पाठ

वै॒श्व॒दे॒वीति॑ वैश्वऽदे॒वी। पु॒न॒ती। दे॒वी। आ। अ॒गा॒त्। यस्या॑म्। इ॒माः। ब॒ह्व्यः᳖। त॒न्वः᳖। वी॒तपृ॑ष्ठा॒ इति॑ वी॒तऽपृ॑ष्ठाः। तया॑। मद॑न्तः। स॒ध॒मादे॒ष्विति॑ सध॒ऽमादे॑षु। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥४४ ॥


विषय - राजा को कैसे राज्य बढ़ाना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (वैश्वदेवी) सब विदुषी स्त्रियों में उत्तम (पुनती) सब की पवित्रता करती हुई (देवी) सकल विद्या और धर्म के आचरण से प्रकाशमान विद्याओं की पढ़ानेहारी ब्रह्मचारिणी कन्या हमको (आ, अगात्) प्राप्त होवे (यस्याम्) जिसके होने में (इमाः) ये (बह्व्यः) बहुत-सी (तन्वः) विस्तृत विद्यायुक्त (वीतपृष्ठाः) विविध प्रश्नों को जाननेहारी हों (तया) उससे अच्छी शिक्षा को प्राप्त भार्य्याओं को प्राप्त होकर (वयम्) हम लोग (सधमादेषु) समान स्थानों में (मदन्तः) आनन्दयुक्त हुए (रयीणाम्) धनादि ऐश्वर्यों के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें॥४४॥


भावार्थ - जैसे राजा सब कन्याओं को पढ़ाने के लिये पूर्ण विद्या वाली स्त्रियों को नियुक्त करके सब बालिकाओं को पूर्णविद्या और सुशिक्षायुक्त करे, वैसे ही बालकों को भी किया करे। जब ये सब पूर्ण युवावस्था वाले हों, तभी स्वयंवर विवाह करावे, ऐसे राज्य की वृद्धि को सदा किया करे॥४४॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


ये स॑मा॒नाः सम॑नसः पि॒तरो॑ यम॒राज्ये॑। 

तेषां॑ लो॒कः स्व॒धा नमो॑ य॒ज्ञो दे॒वेषु॑ कल्पताम्॥४५॥


 पद पाठ

ये। स॒मा॒नाः। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। पि॒तरः॑। य॒म॒राज्य॒ इति॑ यम॒ऽराज्ये॑। तेषा॑म्। लो॒कः। स्व॒धा। नमः॑। य॒ज्ञः। दे॒वेषु॑। क॒ल्प॒ता॒म् ॥४५ ॥


विषय - कहां मनुष्य सुखपूर्वक निवास करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(ये) जो (समानाः) सदृश (समनसः) तुल्य विज्ञानयुक्त (पितरः) प्रजा के रक्षक लोग (यमराज्ये) यथावत् न्यायकारी सभाधीश राजा के राज्य में हैं, (तेषाम्) उनका (लोकः) सभा का दर्शन (स्वधा) अन्न (नमः) सत्कार और (यज्ञः) प्राप्त होने योग्य न्याय (देवेषु) विद्वानों में (कल्पताम्) समर्थ होवे॥४५॥


भावार्थ - जहां बहुदर्शी अन्नादि ऐश्वर्य से संयुक्त सज्जनों से सत्कार को प्राप्त एक धर्म ही में जिनकी निष्ठा है, उन विद्वानों की सभा सत्यन्याय को करती है, उसी राज्य में सब मनुष्य ऐश्वर्य्य और सुख में निवास करते हैं॥४५॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - श्रीर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः


ये स॑मा॒नाः सम॑नसो जी॒वा जी॒वेषु॑ माम॒काः। 

तेषा॒ श्रीर्मायि॑ कल्पता॒मस्मिँल्लो॒के श॒तꣳ समाः॑॥४६॥


 पद पाठ

ये। स॒मा॒नाः। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। जी॒वाः। जी॒वेषु॑। मा॒म॒काः। तेषा॑म्। श्रीः। मयि॑। क॒ल्प॒ता॒म्। अ॒स्मिन्। लो॒के। श॒तम्। समाः॑ ॥४६ ॥


विषय - माता-पिता और सन्तान आपस में कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(ये) जो (अस्मिन्) इस (लोके) लोक में (जीवेषु) जीवते हुओं में (समानाः) समान गुण-कर्म-स्वभाव वाले (समनसः) समान धर्म में मन रखनेहारे (मामकाः) मेरे (जीवाः) जीते हुए पिता आदि हैं, (तेषाम्) उन की (श्रीः) लक्ष्मी (मयि) मेरे समीप (शतम्) सौ (समाः) वर्षपर्यन्त (कल्पताम्) समर्थ होवे॥४६॥


भावार्थ - सन्तान लोग जब तक पिता आदि जीवें, तब तक उनकी सेवा किया करें। पुत्र लोग जब तक पिता आदि की सेवा करें, तब तक वे सत्कार के योग्य होवें और जो पिता आदि का धनादि वस्तु हो, वह पुत्रों और जो पुत्रों का हो वह पिता आदि का रहे॥४६॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


द्वे सृ॒तीऽअ॑शृणवं पितॄ॒णाम॒हं दे॒वाना॑मु॒त मर्त्या॑नाम्। 

ताभ्या॑मि॒दं विश्व॒मेज॒त्समे॑ति॒ यद॑न्त॒रा पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च॥४७॥


 पद पाठ

द्वेऽइति॒ द्वे। सृ॒तीऽइति॑ सृ॒ती। अ॒शृ॒ण॒व॒म्। पि॒तॄ॒णाम्। अ॒हम्। दे॒वाना॑म्। उ॒त। मर्त्या॑नाम्। ताभ्या॑म्। इ॒दम्। विश्व॑म्। एज॑त्। सम्। ए॒ति॒। यत्। अ॒न्त॒रा। पि॒तर॑म्। मा॒तर॑म्। च॒ ॥४७ ॥


विषय - जीवों के दो मार्ग हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (अहम्) मैं जो (पितॄणाम्) पिता आदि (मर्त्यानाम्) मनुष्यों (च) और (देवानाम्) विद्वानों की (द्वे) दो गतियों (सृती) जिनमें आते-जाते अर्थात् जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं, उनको (अशृणवम्) सुनता हूँ (ताभ्याम्) उन दोनों गतियों से (इदम्) यह (विश्वम्) सब जगत् (एजत्) चलायमान हुआ (समेति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है (उत) और (यत्) जो (पितरम्) पिता और (मातरम्) माता से (अन्तरा) पृथक् होकर दूसरे शरीर से अन्य माता-पिता को प्राप्त होता है, सो यह तुम लोग जानो॥४७॥


भावार्थ - दो ही जीवों की गति हैं- एक माता-पिता से जन्म को प्राप्त होकर संसार में विषय-सुख के भोगरूप और दूसरी विद्वानों के सङ्ग आदि से मुक्ति-सुख के भोगरूप है। इन दोनों गतियों के साथ ही सब प्राणी विचरते हैं॥४७॥


ऋषि: - वैखानस ऋषिः

देवता - अग्निर्देवता

छन्दः - निचृदष्टिः

स्वरः - मध्यमः


इ॒दꣳ ह॒विः प्र॒जन॑नं मेऽअस्तु॒ दश॑वीर॒ꣳ सर्व॑गण स्व॒स्तये॑। 

आ॒त्म॒सनि॑ प्रजा॒सनि॑ पशु॒सनि॑ लोक॒सन्य॑भय॒सनि॑। 

अ॒ग्निः प्र॒जां ब॑हु॒लां मे॑ करो॒त्वन्नं॒ पयो॒ रेतो॑ऽअ॒स्मासु॑ धत्त॥४८॥


 पद पाठ

इ॒दम्। ह॒विः। प्र॒जन॑न॒मिति॒ प्र॒ऽजन॑नम्। मे॒। अ॒स्तु॒। दश॑वीर॒मिति॒ दश॑ऽवीरम्। सर्व॑ऽगणम्। स्व॒स्तये॑। आ॒त्म॒सनीत्या॑त्म॒ऽसनि॑। प्र॒जा॒सनीति॑ प्रजा॒ऽसनि॑। प॒शु॒सनीति॑ पशु॒ऽसनि॑। लो॒क॒सनीति॑ लोक॒ऽसनि॑। अ॒भ॒य॒सनीत्य॑भय॒ऽ सनि॑। अ॒ग्निः। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। ब॒हु॒लाम्। मे॒। क॒रो॒तु॒। अन्न॑म्। पयः॑। रेतः॑। अ॒स्मासु॑। ध॒त्त॒ ॥४८ ॥


विषय - सन्तानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(अग्निः) अग्नि के समान प्रकाशमान पति (मे) मेरे लिये (बहुलाम्) बहुत सुख देनेवाली (प्रजाम्) प्रजा को (करोतु) करे, (मे) मेरा जो (इदम्) यह (प्रजजनम्) उत्पत्ति करने का निमित्त (हविः) लेने-देने योग्य (दशवीरम्) दश सन्तानों का उत्पन्न करनेहारा (सर्वगणम्) सब समुदायों से सहित (आत्मसनि) जिससे आत्मा का सेवन (प्रजासनि) प्रजा का सेवन (पशुसनि) पशु का सेवन (लोकसनि) लोकों का अच्छे प्रकार सेवन और (अभयसनि) अभय का दानरूप कर्म होता है, उस सन्तान को करे। वह (स्वस्तये) सुख के लिये (अस्तु) होवे। हे माता-पिता आदि लोगो! आप (अस्मासु) हमारे बीच में प्रजा (अन्नम्) अन्न (पयः) दूध और (रेतः) वीर्य को (धत्त) धारण करो॥४८॥


भावार्थ - जो स्त्री-पुरुष पूर्ण ब्रह्मचर्य से सकल विद्या की शिक्षाओं का संग्रह कर, परस्पर प्रीति से स्वयंवर विवाह करके ऋतुगामी होकर विधिपूर्वक प्रजा की उत्पत्ति करते हैं, उनकी वह प्रजा शुभगुणयुक्त होकर माता-पिता आदि को निरन्तर सुखी करती है॥४८॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


उदी॑रता॒मव॑र॒ऽउत्परा॑स॒ऽउन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑। 

असुं॒ यऽई॒युर॑वृ॒काऽऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु॥४९॥


 पद पाठ

उत्। ई॒र॒ता॒म्। अव॑रे। उत्। परा॑सः। उत्। म॒ध्य॒माः। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। असु॑म्। ये। ई॒युः। अ॒वृ॒काः। ऋ॒त॒ज्ञा इत्यृ॑त॒ऽज्ञाः। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। पि॒तरः॑। हवे॑षु ॥४९ ॥


विषय - पिता आदि को कैसे होकर क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (ये) जो (अवृकाः) चौर्यादि दोषरहित (ऋतज्ञाः) सत्य के जाननेहारे (पितरः) पिता आदि बड़े लोग (हवेषु) संग्रामदि व्यवहारों में (असुम्) प्राण को (उदीयुः) उत्तमता से प्राप्त हों, (ते) वे (नः) हमारी (उत्, अवन्तु) उत्कृष्टता से रक्षा करें और जो (सोम्यासः) शान्त्यादिगुणसम्पन्न (अवरे) प्रथम अवस्था युक्त (परासः) उत्कृष्ट अवस्था वाले (मध्यमाः) बीच के विद्वान् (पितरः) पिता आदि लोग हैं, वे हमको संग्रामादि कामों में (उदीरताम्) अच्छे प्रकार प्रेरणा करें॥४९॥


भावार्थ - जो जीते हुए प्रथम-मध्यम और उत्तम, चोरी आदि दोषरहित, जानने के योग्य, विद्या को जाननेहारे, तत्त्वज्ञान को प्राप्त विद्वान् लोग हैं, वे विद्या के अभ्यास और उपदेश से सत्य धर्म के ग्रहण करानेहारे कर्म से बाल्यावस्था में विवाह का निषेध करके सब प्रजाओं को पालें॥४९॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


अङ्गि॑रसो नः पि॒तरो॒ नव॑ग्वा॒ऽअथ॑र्वाणो॒ भृग॑वः सो॒म्यासः॑। 

तेषां॑ व॒यꣳ सु॑म॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौमन॒से स्या॑म॥५०॥


 पद पाठ

अङ्गि॑रसः। नः॒। पि॒तरः॑। नव॑ग्वा॒ इति॒ नव॑ऽग्वाः। अथ॑र्वाणः। भृग॑वः। सो॒म्यासः॑। तेषा॑म्। व॒यम्। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। य॒ज्ञिया॑नाम्। अपि॑। भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से। स्या॒म॒ ॥५० ॥


विषय - माता-पिता और सन्तानों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जो (नः) हमारे (अङ्गिरसः) सब विद्याओं के सिद्धान्तों को जानने और (नवग्वाः) नवीन ज्ञान के उपदेशों को करानेहारे (अथर्वाणः) अहिंसक (भृगवः) परिपक्वविज्ञानयुक्त (सोम्यासः) ऐश्वर्य पाने योग्य (पितरः) पितादि ज्ञानी लोग हैं, (तेषाम्) उन (यज्ञियानाम्) उत्तम व्यवहार करनेहारों की (सुमतौ) सुन्दर प्रज्ञा और (भद्रे) कल्याणकारक (सौमनसे) प्राप्त हुए श्रेष्ठ बोध में (वयम्) हम लोग प्रवृत्त (स्याम) होवें, वैसे तुम (अपि) भी होओ॥५०॥


भावार्थ - सन्तानों को योग्य है कि जो-जो पिता आदि बड़ों का धर्मयुक्त कर्म होवे, उस-उस का सेवन करें और जो-जो अधर्मयुक्त हो, उस-उस को छोड़ देवें, ऐसे ही पिता आदि बड़े लोग भी सन्तानों के अच्छे-अच्छे गुणों का ग्रहण और बुरों का त्याग करें॥५०॥


Post a Comment

0 Comments

Ad Code