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यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र (76-95)

 ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः


रेतो॒ मूत्रं॒ विज॑हाति॒ योनिं॑ प्रवि॒शदि॑न्द्रि॒यम्। गर्भो ज॒रायु॒णावृ॑त॒ऽउल्बं॑ जहाति॒ जन्म॑ना। 

ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७६॥


 पद पाठ


रेतः॑। मूत्र॑म्। वि। ज॒हा॒ति॒। योनि॑म्। प्र॒वि॒शदिति॑ प्रऽवि॒शत्। इ॒न्द्रि॒यम्। गर्भः॑। ज॒रायु॑णा। आवृ॑त॒ इत्यावृ॑तः। उल्व॑म्। ज॒हा॒ति॒। जन्म॑ना। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७६ ॥


विषय - शरीर से वीर्य्य कैसे उत्पन्न होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(इन्द्रियम्) पुरुष का लिङ्ग इन्द्रिय (योनिम्) स्त्री की योनि में (प्रविशत्) प्रवेश करता हुआ (रेतः) वीर्य को (वि, जहाति) विशेष कर छोड़ता है, इससे अलग (मूत्रम्) प्रस्राव को छोड़ता है, वह वीर्य (जरायुणा) जरायु से (आवृतः) ढका हुआ (गर्भः) गर्भरूप होकर जन्मता है, (जन्मना) जन्म से (उल्वम्) आवरण को (जहाति) छोड़ता है, वह (ऋतेन) बाहर के वायु से (अन्धसः) आवरण को निवृत्त करनेहारे (विपानम्) विविध पान के साधन (शुक्रम्) पवित्र (सत्यम्) वर्त्तमान में उत्तम (इन्द्रस्य) जीव के सम्बन्धी (इन्द्रियम्) धन को और (इदम्) इस (पयः) रस के तुल्य (अमृतम्) नाशरहित (मधु) प्रत्यक्षादि ज्ञान के साधन (इन्द्रियम्) चक्षुरादि इन्द्रिय को प्राप्त होता है॥७६॥


भावार्थ - प्राणी जो कुछ खाता-पीता है, परम्परा से वीर्य होकर शरीर का कारण होता है। पुरुष का लिङ्ग इन्द्रिय स्त्री के संयोग से वीर्य छोड़ता और इससे अलग मूत्र को छोड़ता है, इससे जाना जाता है कि शरीर में मूत्र के स्थान से पृथक् स्थान में वीर्य रहता है, वह वीर्य्य जिस कारण सब अङ्गों की आकृति उसमें रहती है, इसी से जिसके शरीर से वीर्य उत्पन्न होता है, उसी की आकृति वाला सन्तान होता है॥७६॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः


दृ॒ष्ट्वा रू॒पे व्याक॑रोत् सत्यानृ॒ते प्र॒जाप॑तिः। 

अश्र॑द्धा॒मनृ॒तेऽद॑धाच्छ्र॒द्धा स॒त्ये प्र॒जाप॑तिः। 

ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृ॒तं मधु॑॥७७॥


 पद पाठ


दृ॒ष्ट्वा। रू॒पेऽइति॑ रू॒पे। वि। आ। अ॒क॒रो॒त्। स॒त्या॒नृ॒ते इति॑ सत्यऽअनृ॒ते। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। अश्र॑द्धाम्। अनृ॑ते। अद॑धात्। श्र॒द्धाम्। स॒त्ये। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७७ ॥


विषय - अब धर्म-अधर्म कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥


पदार्थ -

जो (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक परमेश्वर (ऋतेन) यथार्थ अपने सत्य विज्ञान से (सत्यानृते) सत्य और झूठ जो (रूपे) निरूपण किये हुए हैं, उनको (दृष्ट्वा) ज्ञानदृष्टि से देखकर (व्याकरोत्) विविध प्रकार से उपदेश करता है। जो (अनृते) मिथ्याभाषणादि में (अश्रद्धाम्) अप्रीति को (अदधात्) धारण करता और (सत्ये) सत्य में (श्रद्धाम्) प्रीति को धारण कराता और जो (अन्धसः) अधर्माचरण के निवर्त्तक (शुक्रम्) शुद्धि करनेहारे (विपानम्) विविध रक्षा के साधन (सत्यम्) सत्यस्वरूप (इन्द्रियम्) चित्त को और जो (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्त धर्म के प्रापक (इदम्) इस (पयः) अमृतरूप सुखदाता (अमृतम्) मृत्युरोगनिवारक (मधु) मानने योग्य (इन्द्रियम्) विज्ञान के साधन को धारण करे, वह (प्रजापतिः) परमेश्वर सब का उपासनीय देव है॥७७॥


भावार्थ - जो मनुष्य ईश्वर के आज्ञा किये धर्म का आचरण करते और निषेध किये हुए अधर्म का सेवन नहीं करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं। जो ईश्वर धर्म-अधर्म को न जनावे तो धर्माऽधर्म्म के स्वरूप का ज्ञान किसी को भी नहीं हो। जो आत्मा के अनुकूल आचरण करते और प्रतिकूलाचरण को छोड़ देते हैं, वे धर्माधर्म के बोध से युक्त होते हैं, इतर जन नहीं॥७७॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


वेदे॑न रू॒पे व्य॑पिबत् सुतासु॒तौ प्र॒जाप॑तिः। 

ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७८॥


 पद पाठ


वेदे॑न। रू॒पेऽइति॑ रू॒पे। वि। अ॒पि॒ब॒त्। सु॒ता॒सु॒तौ। प्र॒जाप॑ति॒रिति॒ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७८ ॥


विषय - अब वेद के जानने वाले कैसे होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो (प्रजापतिः) प्रजा का पालन करने वाला जीव (ऋतेन) सत्य विज्ञानयुक्त (वेदेन) ईश्वरप्रकाशित चारों वेदों से (सुतासुतौ) प्रेरित अप्रेरित धर्माधर्म्म (रूपे) स्वरूपों को (व्यपिबत्) ग्रहण करे सो (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्ययुक्त जीव के (अन्धसः) अन्नादि के (विपानम्) विविध पान के निमित्त (शुक्रम्) पराक्रम देनेहारे (सत्यम्) सत्यधर्माचरण में उत्तम (इन्द्रियम्) धन और (इदम्) जलादि (पयः) दुग्धादि (अमृतम्) मृत्युधर्मरहित विज्ञान (मधु) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ और (इन्द्रियम्) ईश्वर के दिये हुए ज्ञान को प्राप्त होवे॥७८॥


भावार्थ - वेदों को जानने वाले ही धर्माधर्म्म के जानने तथा धर्म के आचरण और अधर्म के त्याग से सुखी होने को समर्थ होते हैं॥७८॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः


दृष्ट्वा प॑रि॒स्रुतो॒ रस॑ꣳ शु॒क्रेण॑ शु॒क्रं व्य॑पिब॒त् पयः॒ सोमं॑ प्र॒जाप॑तिः। 

ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७९॥


 पद पाठ


दृ॒ष्ट्वा। प॒रि॒स्रुत॒ इति॑ परि॒स्रुतः॑। रस॑म्। शु॒क्रेण॑। शु॒क्रम्। वि। अ॒पि॒ब॒त्। पयः॑। सोम॑म्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७९ ॥


विषय - कैसा जन बल बढ़ा सकता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो (परिस्रुतः) सब ओर से प्राप्त (प्रजापतिः) प्रजा का स्वामी राजा आदि जन (ऋतेन) यथार्थ व्यवहार से (सत्यम्) वर्त्तमान उत्तम ओषधियों में उत्पन्न हुए रस को (दृष्ट्वा) विचारपूर्वक देख के (शुक्रेण) शुद्ध भाव से (शुक्रम्) शीघ्र सुख करने वाले (पयः) पान करने योग्य (सोमम्) महौषधि के रस को तथा (रसम्) विद्या के आनन्दरूप रस को (व्यपिबत्) विशेष करके पीता वा ग्रहण करता है, वह (अन्धसः) शुद्ध अन्नादि के प्रापक (विपानम्) विशेष पान से युक्त (शुक्रम्) वीर्य वाले (इन्द्रियम्) विद्वान् ने सेवे हुए इन्द्रिय को और (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुष के (इदम्) इस (पयः) अच्छे रस वाले (अमृतम्) मृत्युकारक रोग के निवारक (मधु) मधुरादि गुणयुक्त और (इन्द्रियम्) ईश्वर के बनाये हुए धन को प्राप्त होवे॥७९॥


भावार्थ - जो वैद्यक शास्त्र की रीति से उत्तम ओषधियों के रसों को बना, उचित समय जितना चाहिये उतना पीवे, वह रोगों से पृथक् होके शरीर और आत्मा के बल के बढ़ाने को समर्थ होता है॥७९॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


सीसे॑न॒ तन्त्रं॒ मन॑सा मनी॒षिण॑ऽऊर्णासू॒त्रेण॑ क॒वयो॑ वयन्ति। 

अ॒श्विना॑ य॒ज्ञꣳ स॑वि॒ता सर॑स्व॒तीन्द्र॑स्य रू॒पं वरु॑णो भिष॒ज्यन्॥८०॥


 पद पाठ


सीसे॑न। तन्त्र॑म्। मन॑सा। म॒नी॒षिणः॑। ऊ॒र्णा॒सू॒त्रेणेत्यू॑र्णाऽसू॒त्रेण॑। क॒वयः॑। व॒य॒न्ति॒। अ॒श्विना॑। य॒ज्ञम्। स॒वि॒ता। सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। वरु॑णः। भि॒ष॒ज्यन् ॥८० ॥


विषय - विद्वानों के तुल्य अन्यों को भी आचरण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (कवयः) विद्वान् (मनीषिणः) बुद्धिमान् लोग (सीसेन) सीसे के पात्र के समान कोमल (ऊर्णासूत्रेण) ऊन के सूत्र से कम्बल के तुल्य प्रयोजनसाधक (मनसा) अन्तःकरण से (तन्त्रम्) कुटुम्ब के धारण के समान यन्त्रकलाओं को (वयन्ति) रचते हैं, जैसे (सविता) अनेक विद्या-व्यवहारों में प्रेरणा करनेहारा पुरुष और (सरस्वती) उत्तम विद्यायुक्त स्त्री तथा (अश्विना) विद्याओं में व्याप्त पढ़ाने और उपदेश करनेहारे दो पुरुष (यज्ञम्) संगति=मेल करने योग्य व्यवहार को करते हैं, जैसे (भिषज्यन्) चिकित्सा की इच्छा करता हुआ (वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य के (रूपम्) स्वरूप का विधान करता है, वैसे तुम भी किया करो॥८०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग अनेक धातु और साधन विशेषों से वस्त्रादि को बना के अपने कुटुम्ब का पालन करते हैं तथा पदार्थों के मेलरूप यज्ञ को कर पथ्य ओषधिरूप पदार्थों को देके रोगों से छुड़ाते और शिल्प-क्रियाओं से प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं, वैसे अन्य लोग भी किया करें॥८०॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


तद॑स्य रू॒पम॒मृत॒ꣳ शची॑भिस्ति॒स्रो द॑धु॒र्दे॒वताः॑ सꣳररा॒णाः। 

लोमा॑नि॒ शष्पै॑र्बहु॒धा न तोक्म॑भि॒स्त्वग॑स्य मा॒सम॑भव॒न्न ला॒जाः॥८१॥


 पद पाठ


तत्। अ॒स्य॒। रू॒पम्। अ॒मृत॑म्। शची॑भिः। ति॒स्रः। द॒धुः॒। दे॒वताः॑। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽररा॒णाः। लोमा॑नि। शष्पैः॑। ब॒हु॒धा। न। तोक्म॑भि॒रिति॒ तोक्म॑ऽभिः। त्वक्। अ॒स्य॒। मा॒सम्। अ॒भ॒व॒त्। न। ला॒जाः ॥८१ ॥


विषय - कौन पुरुष यज्ञ करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (संरराणाः) अच्छे प्रकार देने (तिस्रः) पढ़ाने, पढ़ने और परीक्षा करनेहारे तीन (देवताः) विद्वान् लोग (शचीभिः) उत्तम प्रज्ञा और कर्मों के साथ (बहुधा) बहुत प्रकारों से जिस यज्ञ को और (शष्पैः) दीर्घ लोमों के साथ (लोमानि) लोमों को (दधुः) धारण करें और (तत्) उस (अस्य) इस यज्ञ के (अमृतम्) नाशरहित (रूपम्) रूप को तुम लोग जानो, यह (तोक्मभिः) बालकों से (न) नहीं अनुष्ठान करने योग्य और (अस्य) इस के मध्य (त्वक्) त्वचा (मांसम्) मांस और (लाजाः) भुंजा हुआ सूखा अन्न आदि होम करने योग्य (न, अभवत्) नहीं होता, इस को भी तुम जानो॥८१॥


भावार्थ - जो बहुत काल पर्य्यन्त डाढ़ी-मूंछ धारणपूर्वक ब्रह्मचारी अथवा पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय भद्रजन हैं, वे ही यज धातु के अर्थ को जानने योग्य अर्थात् यज्ञ करने योग्य होते हैं, अन्य बालबुद्धि अविद्वान् नहीं हो सकते। वह हवनरूप ऐसा है कि जिसमें मांस, क्षार, खट्टे से भिन्न पदार्थ वा तीखा आदि गुणरहित; सुगन्धित पुष्ट, मिष्ट तथा रोगनाशकादि गुणों के सहित हों, वही हवन करने योग्य होवे॥८१॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


तद॒श्विना॑ भि॒षजा॑ रु॒द्रव॑र्तनी॒ सर॑स्वती वयति॒ पेशो॒ऽअन्त॑रम्। 

अस्थि॑ म॒ज्जानं॒ मास॑रैः कारोत॒रेण॒ दध॑तो॒ गवां॑ त्व॒चि॥८२॥


 पद पाठ


तत्। अ॒श्विना॑। भि॒षजा॑। रु॒द्रव॑र्त्तनी॒ इति॑ रु॒द्रऽव॑र्त्तनी। सर॑स्वती। व॒य॒ति॒। पेशः॑। अन्त॑रम्। अस्थि॑। म॒ज्जान॑म्। मास॑रैः। का॒रो॒त॒रेण॑। दध॑तः। गवा॑म्। त्व॒चि ॥८२ ॥


विषय - विदुषी स्त्रियों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जिसको (सरस्वती) श्रेष्ठ ज्ञानयुक्त पत्नी (वयति) उत्पन्न करती है, (तत्) उस (पेशः) सुन्दर स्वरूप (अस्थि) हाड़ (मज्जानम्) मज्जा (अन्तरम्) अन्तःस्थ को (मासरैः) परिपक्व ओषधि के सारों से (कारोतरेण) जैसे कूप से सब कामों को वैसे (गवाम्) पृथिव्यादि की (त्वचि) त्वचारूप उपरि भाग में (रुद्रवर्तनी) प्राण के मार्ग के समान मार्ग से युक्त (भिषजा) वैद्यक विद्या के जाननेहारे (अश्विना) विद्याओं में पूर्ण दो पुरुष (दधतः) धारण करें॥८२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वैद्यक शास्त्र के जाननेहारे पति लोग शरीर को आरोग्य करके स्त्रियों को निरन्तर सुखी करें, वैसे ही विदुषी स्त्री लोग भी अपने पतियों को रोगरहित किया करें॥८२॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


सर॑स्वती॒ मन॑सा पेश॒लं वसु॒ नास॑त्याभ्यां वयति दर्श॒तं वपुः॑। 

रसं॑ परि॒स्रुता॒ न रोहि॑तं न॒ग्नहु॒र्धीर॒स्तस॑रं॒ न वेम॑॥८३॥


 पद पाठ


सर॑स्वती। मन॑सा। पे॒श॒लम्। वसु॑। नास॑त्याभ्याम्। व॒य॒ति॒। द॒र्श॒तम्। वपुः॑। रस॑म्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। न। रोहि॑तम्। न॒ग्नहुः॑। धीरः॑। तस॑रम्। न। वेम॑ ॥८३ ॥


विषय - विद्वानों के समान अन्यों को आचरण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

(सरस्वती) उत्तम विज्ञानयुक्त स्त्री (मनसा) विज्ञान से (वेम) उत्पत्ति के (न) समान जिस (पेशलम्) उत्तम अङ्गों से युक्त (दर्शतम्) देखने योग्य (वपुः) शरीर वा जल को तथा (तसरम्) दुःखों के क्षय करनेहारे (रोहितम्) प्रकट हुए (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त (रसम्) आनन्द को देनेहारे रस के (न) समान (वसु) द्रव्य को (वयति) बनाती है, जिन (नासत्याभ्याम्) असत्य व्यवहार से रहित माता-पिता दोनों से (नग्नहुः) शुद्ध को ग्रहण करनेहारा (धीरः) ध्यानवान् तेरा पति है, उन दोनों को हम लोग प्राप्त होवें॥८३॥


भावार्थ - जैसे विद्वान् अध्यापक और उपदेशक सार-सार वस्तुओं का ग्रहण करते हैं, वैसे ही सब स्त्री-पुरुषों को ग्रहण करना योग्य है॥८३॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


पय॑सा शु॒क्रम॒मृतं॑ ज॒नित्र॒ꣳ सुर॑या॒ मूत्रा॑ज्जनयन्त॒ रेतः॑। 

अपाम॑तिं दुर्म॒तिं बाध॑माना॒ऽऊव॑ध्यं॒ वात॑ꣳ स॒ब्वं तदा॒रात्॥८४॥


 पद पाठ


पय॑सा। शु॒क्रम्। अ॒मृत॑म्। ज॒नित्र॑म्। सुर॑या। मूत्रा॑त्। ज॒न॒य॒न्त॒। रेतः॑। अप॑। अम॑तिम्। दु॒र्म॒तिमिति॑ दुःऽम॒तिम्। बाध॑मानाः। ऊव॑ध्यम्। वात॑म्। स॒ब्व᳕म्। तत्। आ॒रात् ॥८४ ॥


विषय - अपने कुल को श्रेष्ठ करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो विद्वान् लोग (अमतिम्) नष्टबुद्धि (दुर्मतिम्) वा दुष्टबुद्धि को (अप, बाधमानाः) हटाते हुए जो (ऊवध्यम्) ऐसा है कि जिससे परिआं अंगुल आदि काटे जायें अर्थात् बहुत नाश करने का साधन (वातम्) प्राप्त (सब्वम्) सब पदार्थों में सम्बन्ध वाला (पयसा) जल दुग्ध वा (सुरया) सोमलता आदि ओषधी के रस से उत्पन्न हुए (मूत्रात्) मूत्राधार इन्द्रिय से (जनित्रम्) सन्तानोत्पत्ति का निमित्त (अमृतम्) अल्पमृत्युरोगनिवारक (शुक्रम्) शुद्ध (रेतः) वीर्य है, (तत्) उस को (आरात्) समीप से (जनयन्त) उत्पन्न करते हैं, वे ही प्रजा वाले होते हैं॥८४॥


भावार्थ - जो मनुष्य दुर्गुण और दुष्ट सङ्गों को छोड़ कर व्यभिचार से दूर रहते हुए वीर्य को बढ़ा के सन्तानों को उत्पन्न करते हैं, वे अपने कुल को प्रशंसित करते हैं॥८४॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


इन्द्रः॑ सु॒त्रामा॒ हृद॑येन स॒त्यं पु॑रो॒डशे॑न सवि॒ता ज॑जान। 

यकृ॑त् क्लो॒मानं॒ वरु॑णो भिष॒ज्यन् मत॑स्ने वाय॒व्यैर्न मि॑नाति पि॒त्तम्॥८५॥


 पद पाठ


इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। हृद॑येन। स॒त्यम्। पु॒रो॒डाशे॑न। स॒वि॒ता। ज॒जा॒न॒। यकृ॑त्। क्लो॒मान॑म्। वरु॑णः। भि॒ष॒ज्यन्। मत॑स्ने॒ इति॒ मत॑ऽस्ने। वा॒य॒व्यैः᳖। न। मि॒ना॒ति॒। पि॒त्तम् ॥८५ ॥


विषय - मनुष्यों को रोग से पृथक् होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रोग से शरीर की रक्षा करनेहारा (सविता) प्रेरक (इन्द्रः) रोगनाशक (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (भिषज्यन्) चिकित्सा करता हुआ (हृदयेन) अपने आत्मा से (सत्यम्) यथार्थ भाव को (जजान) प्रसिद्ध करता और (पुरोडाशेन) अच्छे प्रकार संस्कार किये हुए अन्न और (वायव्यैः) पवनों में उत्तम अर्थात् सुख देने वाले मार्गों से (यकृत्) जो हृदय से दाहिनी ओर में स्थित मांसपिंड (क्लोमानम्) कण्ठनाड़ी (मतस्ने) हृदय के दोनों ओर के हाड़ों और (पित्तम्) पित्त को (न, मिनाति) नष्ट नहीं करता, वैसे इन सबों की हिंसा तुम भी मत करो॥८५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सद्वैद्य लोग स्वयं रोगरहित होकर अन्यों के शरीर में हुए रोग को जानकर रोगरहित निरन्तर किया करें॥८५॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


आ॒न्त्राणि॑ स्था॒लीर्मधु॒ पिन्व॑माना॒ गुदाः॒ पात्रा॑णि सु॒दुघा॒ न धे॒नुः।

 श्ये॒नस्य॒ पत्रं॒ न प्ली॒हा शची॑भिरास॒न्दी नाभि॑रु॒दरं॒ न मा॒ता॥८६॥


 पद पाठ


आ॒न्त्राणि॑। स्था॒लीः। मधु॑। पिन्व॑मानाः। गुदाः॑। पात्रा॑णि। सु॒दुघेति॑ सु॒ऽदुघा॑। न। धे॒नुः। श्ये॒नस्य॑। पत्र॑म्। न। प्ली॒हा। शची॑भिः। आ॒स॒न्दीत्या॑ऽस॒न्दी। नाभिः॑। उ॒दर॑म्। न। मा॒ता ॥८६ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

युक्ति वाले पुरुष को योग्य है कि (शचीभिः) उत्तम बुद्धि और कर्मों से (स्थालीः) दाल आदि पकाने के बर्त्तनों को अग्नि के ऊपर धर ओषधियों का पाक बना (मधु) उसमें सहत डाल भोजन करके (आन्त्राणि) उदरस्थ अन्न पकाने वाली नाडि़यों को (पिन्वमानाः) सेवन करते हुए प्रीति के हेतु (गुदाः) गुदेन्द्रियादि तथा (पात्राणि) जिनसे खाया-पिया जाय, उन पात्रों को (सुदुघा) दुग्धादि से कामना सिद्ध करने वाली (धेनुः) गाय के (न) समान (प्लीहा) रक्तशोधक लोहू का पिण्ड (श्येनस्य) श्येन पक्षी के तथा (पत्रम्) पांख के (न) समान (माता) और माता के (न) तुल्य (आसन्दी) सब ओर से रस प्राप्त करानेहारी (नाभिः) नाभि नाड़ी (उदरम्) उदर को पुष्ट करती है॥८६॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य लोग उत्तम संस्कार किये हुए उत्तम अन्न और रसों से शरीर को रोगरहित करके प्रयत्न करते हैं, वे अभीष्ट सुख को प्राप्त होते हैं॥८६॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


कु॒म्भो व॑नि॒ष्ठुर्ज॑नि॒ता शची॑भि॒र्यस्मि॒न्नग्रे॒ योन्यां॒ गर्भो॑ऽअ॒न्तः। प्ला॒शिर्व्य॑क्तः श॒तधा॑र॒ऽउत्सो॑ दु॒हे न कु॒म्भी स्व॒धां पि॒तृभ्यः॥८७॥


 पद पाठ


कु॒म्भः। व॒नि॒ष्ठुः। ज॒नि॒ता। शची॑भिः। यस्मि॑न्। अग्रे॑। योन्या॑म्। गर्भः॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। प्ला॒शिः। व्य॑क्त॒ इति॒ विऽअ॑क्तः। श॒तधा॑र॒ इति॑ श॒तऽधा॑रः। उत्सः॑। दु॒हे। न। कु॒म्भी। स्व॒धाम्। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑ ॥८७ ॥


विषय - स्त्री-पुरुष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जो (कुम्भः) कलश के समान वीर्यादि धातुओं से पूर्ण (वनिष्ठुः) सम विभाग हरनेहारा (जनिता) सन्तानों का उत्पादक (प्लाशिः) अच्छे प्रकार भोजन का करने वाला (व्यक्तः) विविध पुष्टियों से प्रसिद्ध (शचीभिः) उत्तम कर्मों करके (शतधारः) सैकड़ों वाणियों से युक्त (उत्सः) जिससे गीला किया जाता है, उस कूप के समान (दुहे) पूर्त्ति करनेहारे व्यवहार में स्थित के (न) समान पुरुष और जो (कुम्भी) कुम्भी के सदृश स्त्री है, इन दोनों को योग्य है कि (पितृभ्यः) पितरों को (स्वधाम्) अन्न देवें और (यस्मिन्) जिस (अग्रे) नवीन (योन्याम्) गर्भाशय के (अन्तः) बीच (गर्भः) गर्भ धारण किया जाता, उसकी निरन्तर रक्षा करें॥८७॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। स्त्री और पुरुष वीर्य वाले पुरुषार्थी होकर अन्नादि से विद्वान् को प्रसन्न कर, धर्म से सन्तानों की उत्पत्ति करें॥८७॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


मुख॒ꣳ सद॑स्य॒ शिर॒ऽइत् सते॑न जि॒ह्वा प॒वित्र॑म॒श्विना॒सन्त्सर॑स्वती। 

चप्यं॒ न पा॒युर्भि॒षग॑स्य॒ वालो॑ व॒स्तिर्न शेपो॒ हर॑सा तर॒स्वी॥८८॥


 पद पाठ


मुख॑म्। सत्। अ॒स्य॒। शिरः॑। इत्। सते॑न। जि॒ह्वा। प॒वित्र॑म्। अ॒श्विना॑। आ॒सन्। सर॑स्वती। चप्य॑म्। न। पा॒युः। भि॒षक्। अ॒स्य॒। वालः॑। व॒स्तिः। न। शेपः॑। हर॑सा। त॒र॒स्वी ॥८८ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जैसे (जिह्वा) जिससे रस ग्रहण किया जाता है, वह (सरस्वती) वाणी के समान स्त्री (अस्य) इस पति के (सतेन) सुन्दर अवयवों से विभक्त शिर के साथ (शिरः) शिर करे तथा (आसन्) मुख के समीप (पवित्रम्) पवित्र (मुखम्) मुख करे। इसी प्रकार (अश्विना) गृहाश्रम के व्यवहार में व्याप्त स्त्री-पुरुष दोनों (इत्) ही वर्त्तें तथा जो (अस्य) इस रोग से (पायुः) रक्षक (भिषक्) वैद्य और (वालः) बालक के (न) समान (वस्तिः) वास करने का हेतु पुरुष (शेपः) उपस्थेन्द्रिय को (हरसा) बल से (तरस्वी) करनेहारा होता है, वह (चप्यम्) शान्ति करने के (न) समान (सत्) वर्त्तमान में सन्तानोत्पत्ति का हेतु होवे, उस सब को यथावत् करे॥८८॥


भावार्थ - स्त्री-पुरुष गर्भाधान के समय में परस्पर मिल कर प्रेम से पूरित होकर मुख के साथ मुख, आंख के साथ आंख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गर्भ को धारण करें, जिससे कुरूप वा वक्राङ्ग सन्तान न होवे॥८८॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


अ॒श्विभ्यां॒ चक्षु॑र॒मृतं॒ ग्रहा॑भ्यां॒ छागे॑न॒ तेजो॑ ह॒विषा॑ शृ॒तेन॑। 

पक्ष्मा॑णि गो॒धूमैः॒ कुव॑लैरु॒तानि॒ पेशो॒ न शु॒क्रमसि॑तं वसाते॥८९॥


 पद पाठ


अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। चक्षुः॑। अ॒मृत॑म्। ग्रहा॑भ्याम्। छागे॑न। तेजः॑। ह॒विषा॑। शृ॒तेन॑। पक्ष्मा॑णि। गो॒धूमैः॑। कुव॑लैः। उ॒तानि॑। पेशः॑। न। शु॒क्रम्। असि॑तम्। व॒सा॒ते॒ऽइति॑ वसाते ॥८९ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (ग्रहाभ्याम्) ग्रहण करनेहारे (अश्विभ्याम्) बहुभोजी स्त्री-पुरुषों के साथ कोई भी विदुषी स्त्री और विद्वान् पुरुष (उतानि) विने हुए विस्तृत वस्त्र और (पक्ष्माणि) ग्रहण किये हुए अन्य रेशम और द्विशाले आदि को (वसाते) ओढ़ें, पहनें वा जैसे आप भी (छागेन) अजा आदि के दूध के साथ और (शृतेन) पकाये हुए (हविषा) ग्रहण करने योग्य होम के पदार्थ के साथ (तेजः) प्रकाशयुक्त (अमृतम्) अमृतस्वरूप (चक्षुः) नेत्र को (कुवलैः) अच्छे शब्दों और (गोधूमैः) गेहूं के साथ (शुक्रम्) शुद्ध (असितम्) काले (पेशः) रूप के (न) समान स्वीकार करें, वैसे अन्य गृहस्थ भी करें॥८९॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे क्रिया किये हुए स्त्री-पुरुष प्रियदर्शन, प्रियभोजनशील, पूर्णसामग्री को ग्रहण करनेहारे होते हैं, वैसे अन्य गृहस्थ भी होवें॥८९॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


अवि॒र्न मे॒षो न॒सि वी॒र्याय प्रा॒णस्य॒ पन्था॑ऽअ॒मृतो॒ ग्रहा॑भ्याम्। 

सर॑स्वत्युप॒वाकै॑र्व्या॒नं नस्या॑नि ब॒र्हिर्बद॑रैर्जजान॥९०॥


 पद पाठ


अविः॑। न। मे॒षः। न॒सि। वी॒र्या᳖य। प्रा॒णस्य॑। पन्थाः॑। अ॒मृतः॑। ग्रहा॑भ्याम्। सर॑स्वती। उ॒प॒वाकै॒रित्यु॑प॒ऽवाकैः॑। व्या॒नमिति॑ विऽआ॒नम्। नस्या॑नि। ब॒र्हिः। बद॑रैः। ज॒जा॒न॒ ॥९० ॥


विषय - अब योगी का कर्त्तव्य अगले मन्त्र में कहते हैं॥


पदार्थ -

जैसे (ग्रहाभ्याम्) ग्रहण करनेहारों के साथ (सरस्वती) प्रशस्त विज्ञानयुक्त स्त्री (बदरैः) बेरों के समान (उपवाकैः) सामीप्यभाव किया जाय, जिनसे उन कर्मों से (जजान) उत्पत्ति करती है, वैसे जो (वीर्याय) वीर्य के लिये (नसि) नासिका में (प्राणस्य) प्राण का (अमृतः) नित्य (पन्थाः) मार्ग वा (मेषः) दूसरे से स्पर्द्धा करने वाला और (अविः) जो रक्षा करता है, उसके (न) समान (व्यानम्) शरीर में व्याप्त वायु (नस्यानि) नासिका के हितकारक धातु और (बर्हिः) बढ़ानेहारा उपयुक्त किया जाता है॥९०॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे धार्मिक न्यायाधीश प्रजा की रक्षा करता है, वैसे ही प्राणायामादि से अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए प्राण योगी की सब दुःखों से रक्षा करते हैं। जैसे विदुषी माता विद्या और अच्छी शिक्षा से अपने सन्तानों बढ़ाती है, वैसे अनुष्ठान किये हुए योग के अङ्ग योगियों को बढ़ाते हैं॥९०॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


इन्द्र॑स्य रू॒पमृ॑ष॒भो बला॑य॒ कर्णा॑भ्या॒ श्रोत्र॑म॒मृतं॒ ग्रहा॑भ्याम्। 

यवा॒ न ब॒र्हिर्भ्रु॒वि केस॑राणि क॒र्कन्धु॑ जज्ञे॒ मधु॑ सार॒घं मुखा॑त्॥९१॥


 पद पाठ


इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। ऋ॒ष॒भः। बला॑य। कर्णा॑भ्याम्। श्रोत्र॑म्। अ॒मृत॑म्। ग्रहा॑भ्याम्। यवाः॑। न। ब॒र्हिः। भ्रु॒वि। केस॑राणि। क॒र्कन्धु॑। ज॒ज्ञे॒। मधु॑। सा॒र॒घम्। मुखा॑त् ॥९१ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

जैसे (ग्रहाभ्याम्) जिनसे ग्रहण करते हैं, उन व्यवहारों के साथ (ऋषभः) ज्ञानी पुरुष (बलाय) योग-सामर्थ्य के लिये (यवाः) यवों के (न) समान (कर्णाभ्याम्) कानों से (श्रोत्रम्) शब्दविषय को (अमृतम्) नीरोग जल को और (कर्कन्धु) जिससे कर्म को धारण करें, उसको (सारघम्) एक प्रकार के स्वाद से युक्त (मधु) सहत (बर्हिः) वृद्धिकारक व्यवहार और (भ्रुवि) नेत्र और ललाट के बीच में (केसराणि) विज्ञानों अर्थात् सुषुम्ना में प्राण वायु का निरोध कर ईश्वरविषयक विशेष ज्ञानों को (मुखात्) मुख से उत्पन्न करता है, वैसे वह सब (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्य का (रूपम्) स्वरूप (जज्ञे) उत्पन्न होता है॥९१॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे निवृत्ति मार्ग में परम योगी योगबल से सब सिद्धियों को प्राप्त होता है, वैसे ही अन्य गृहस्थ लोगों को भी प्रवृत्ति मार्ग में सब ऐश्वर्य्य को प्राप्त होना चाहिये॥९१॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


आ॒त्मन्नु॒पस्थे॒ न वृक॑स्य॒ लोम॒ मुखे॒ श्मश्रू॑णि॒ न व्या॑घ्रलो॒म। केशा॒ न शी॒र्षन् यश॑से श्रि॒यै शिखा॑ सि॒ꣳहस्य॒ लोम॒ त्विषि॑रिन्द्रि॒याणि॑॥९२॥


 पद पाठ


आ॒त्मन्। उ॒पस्थ॒ऽइत्यु॒पस्थे॑। न। वृक॑स्य। लोम॑। मुखे॑। श्मश्रू॑णि। न। व्या॒घ्र॒लो॒मेति॑ व्याघ्रऽलो॒म। केशाः॑। न। शी॒र्षन्। यश॑से। श्रि॒यै। शिखा॑। सि॒ꣳहस्य॑। लोम॑। त्विषिः॑। इ॒न्द्रि॒याणि॑ ॥९२ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जिसके (आत्मन्) आत्मा में (उपस्थे) समीप स्थिति होने में (वृकस्य) भेडि़या के (लोम) बालों के (न) समान वा (व्याघ्रलोम) बाघ के बालों के (न) समान (मुखे) मुख पर (श्मश्रूणि) दाढ़ी और मूंछ (शीर्षन्) शिर में (केशाः) बालों के (न) समान (शिखा) शिखा (सिंहस्य) सिंह के (लोम) बालों के समान (त्विषिः) कान्ति तथा (इन्द्रियाणि) श्रोत्रादि शुद्ध इन्द्रियां हैं, वह (यशसे) कीर्ति और (श्रियै) लक्ष्मी के लिये प्राप्त होने को समर्थ होता है॥९२॥


भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो परमात्मा का उपस्थान करते हैं, वे यशस्वी कीर्तिमान् होते हैं। जो योगाभ्यास करते हैं, वे भेडि़या, व्याघ्र और सिंह के समान एकान्त देश सेवन करके पराक्रम वाले होते हैं। जो पूर्ण ब्रह्मचर्य करते हैं, वे क्षत्रिय भेडि़या, व्याघ्र और सिंह के समान पराक्रम वाले होते हैं॥९२॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः


अङ्गा॑न्या॒त्मन् भि॒षजा॒ तद॒श्विना॒त्मान॒मङ्गैः॒ सम॑धा॒त् सर॑स्वती।

 इन्द्र॑स्य रू॒पꣳ श॒तमा॑न॒मायु॑श्च॒न्द्रेण॒ ज्योति॑र॒मृतं॒ दधा॑नाः॥९३॥


 पद पाठ


अङ्गा॑नि। आ॒त्मन्। भि॒षजा॑। तत्। अ॒श्विना॑। आ॒त्मान॑म्। अङ्गैः॑। सम्। अ॒धा॒त्। सर॑स्वती। इन्द्र॑स्य। रू॒पम्। श॒तमा॑न॒मिति॑ श॒तऽमा॑नम्। आयुः॑। च॒न्द्रे॑ण। ज्योतिः॑। अ॒मृत॑म्। दधा॑नाः ॥९३ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! (भिषजा) उत्तम वैद्य के समान रोगरहित (अश्विना) सिद्ध साधक दो विद्वान् जैसे (सरस्वती) योगयुक्त स्त्री (आत्मन्) अपने आत्मा में स्थित हुई (अङ्गानि) योग अङ्गों का अनुष्ठान करके (आत्मानम्) अपने आत्मा को (समधात्) समाधान करती है, वैसे ही (अङ्गैः) योगाङ्गों से जो (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्य का (रूपम्) रूप है, (तत्) उस का समाधान करें। जैसे योग को (दधानाः) धारण करते हुए जन (शतमानम्) सौ वर्ष पर्यन्त (आयुः) जीवन को धारण करते हैं, वैसे (चन्द्रेण) आनन्द से (अमृतम्) अविनाशी (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा का धारण करो॥९३॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रोगी लोग उत्तम वैद्य को प्राप्त हो, औषध और पथ्य का सेवन करके, रोगरहित होकर आनन्दित होते हैं, वैसे योग को जानने की इच्छा करने वाले योगी लोग इस को प्राप्त हो, योग के अङ्गों का अनुष्ठान कर और अविद्यादि क्लेशों से दूर होके निरन्तर सुखी होते हैं॥९३॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः


सर॑स्वती॒ योन्यां॒ गर्भ॑म॒न्तर॒श्विभ्यां॒ पत्नी॒ सुकृ॑तं बिभर्ति। 

अ॒पा रसे॑न॒ वरु॑णो॒ न साम्नेन्द्र॑ श्रि॒यै ज॒नय॑न्न॒प्सु राजा॑॥९४॥


 पद पाठ


सर॑स्वती। योन्या॑म्। गर्भ॑म्। अ॒न्तः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। पत्नी॑। सुकृ॑त॒मिति॒ सुऽकृ॑तम्। बि॒भ॒र्ति॒। अ॒पाम्। रसे॑न। वरु॑णः। न। साम्ना॑। इन्द्र॑म्। श्रि॒यै। ज॒नय॑न्। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। राजा॑ ॥९४ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे योग करनेहारे पुरुष! जैसे (सरस्वती) विदुषी (पत्नी) स्त्री अपने पति से (योन्याम्) योनि के (अन्तः) भीतर (सुकृतम्) पुण्यरूप (गर्भम्) गर्भ को (बिभर्त्ति) धारण करती है वा जैसे (वरुणः) उत्तम (राजा) राजा (अश्विभ्याम्) अध्यापक और उपदेशक के साथ (अपाम्) जलों के (रसेन) रस से (अप्सु) प्राणों में (साम्ना) मेल के (न) समान सुख से (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (श्रियै) लक्ष्मी के लिये (जनयन्) प्रकट करता हुआ विराजमान होता है, वैसे तू हो॥९४॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे धर्मपत्नी पति की सेवा करती है और जैसे राजा साम-दाम आदि से राज्य के ऐश्वर्य्य को बढ़ाता है, वैसे ही विद्वान् योग के उपदेशक की सेवा कर योग के अङ्गों की सिद्धियों को बढ़ाया करे॥९४॥


ऋषि: - शङ्ख ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः


तेजः॑ पशू॒ना ह॒विरि॑न्द्रि॒याव॑त् परि॒स्रुता॒ पय॑सा सार॒घं मधु॑। 

अ॒श्विभ्यां॑ दु॒ग्धं भि॒षजा॒ सर॑स्वत्या सुतासु॒ताभ्या॑म॒मृतः॒ सोम॒ऽइन्दुः॑॥९५॥


 पद पाठ


तेजः॑। प॒शू॒नाम्। ह॒विः। इ॒न्द्रि॒याव॑त्। इ॒न्द्रि॒यव॒दिती॑न्द्रि॒यऽव॑त्। प॒रि॒स्रुतेति॑ प॒रि॒ऽस्रुता॑। पय॑सा। सा॒र॒घम्। मधु॑। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। दु॒ग्धम्। भि॒षजा॑। सर॑स्वत्या। सु॒ता॒सु॒ताभ्या॒मिति॑ सुतासु॒ताभ्या॑म्। अ॒मृतः॑। सोमः॑। इन्दुः॑ ॥९५ ॥


विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥


पदार्थ -

हे मनुष्यो! जिन (सुतासुताभ्याम्) सिद्ध असिद्ध किये हुए (भिषजा) वैद्यक विद्या के जाननेहारे (अश्विभ्याम्) विद्या में व्याप्त दो विद्वान् (पशूनाम्) गवादि पशुओं के सम्बन्ध से (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त होने वाले (पयसा) दूध से (तेजः) प्रकाशरूप (इन्द्रियावत्) कि जिसमें उत्तम इन्द्रिय होते हैं, उस (सारघम्) उत्तम स्वादयुक्त (मधु) मधुर (हविः) खाने-पीने योग्य (दुग्धम्) दुग्धादि पदार्थ और (सरस्वत्या) विदुषी स्त्री से (अमृतः) मृत्युधर्मरहित नित्य रहने वाला (सोमः) ऐश्वर्य्य और (इन्दुः) उत्तम स्नेहयुक्त पदार्थ उत्पन्न किया जाता है, वे योगसिद्ध को प्राप्त होते हैं॥९५॥


भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गौ के चराने वाले गोपाल लोग गौ आदि पशुओं की रक्षा करके दूध आदि से सन्तुष्ट होते हैं, वैसे ही मन आदि इन्द्रियों को दुष्टाचार से पृथक् संरक्षण करके योगी लोगों को आनन्दित होना चाहिये॥९५॥

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