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स्वाध्यायशील बनो!



 स्वाध्यायशील बनो!

   वैदिक धर्म में स्वाध्याय की महिमा पर प्रभूत प्रकाश डाला गया है। हमारे वेद, उपनिषद्, स्मति, दर्शनशास्त्र और ब्राह्मणग्रन्थ स्वाध्याय की महिमा से भरे पड़े हैं । वेद में कहा गया है

यः पावमानोरध्येत्यृषिभिः सम्भृतं रसम् । 

सर्व स पूतमश्नाति स्वदितं मातरिश्वना ।।

(ऋ०६।६७ । ३१) 

   जो सबको पवित्र करनेवाली, ईश्वर-प्रदत्त और ऋषियों द्वारा संचित ऋचाओं का अध्ययन करता है, वह पवित्र आनन्दरस का पान करता है।

   प्राचीन ऋषियों और महर्षियों ने भी स्वाध्याय करने पर बड़ा बल दिया है। उन्होंने इसे बहुत बड़ा तप माना है । इस स्वाध्याय के लिए लोग अपने प्राणप्रिय पुत्र और पुत्रियों को नगर और ग्रामों से दूर जंगलों में बैठा दिया करते थे।

  मानव-जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया है। उसमें से तीन आश्रमों-ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास में तो केवल स्वाध्याय ही होता था। गृहस्थ के लिए भी स्वाध्याय आवश्यक कर्तव्य था। तभी तो आचार्य दीक्षान्त-भाषण देते हुए अपने स्नातकों से कहता था स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।

(तैत्तिरीयोपनिषद् ११ । १) 

  स्वाध्याय और वेदोपदेश में कभी प्रमाद न करना।

    स्वाध्याय जीवन के लिए है भी परमावश्यक । जिस प्रकार शारीरिक उन्नति के लिए भोजन आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार आत्मिक उन्नति के लिए स्वाध्याय भी आवश्यक और अनिवार्य है। स्वाध्याय से विचारों में पवित्रता आती है, ज्ञान की वृद्धि होती है। यदि किसी तालाब में पानी आना बन्द हो जाय तो उसमें कीड़े पड़ने लग जाते है । उसके ऊपर काई छा जाती है, पानी सड़ने लगता है और उसमें बदबू आने लगती है। ठीक इसी प्रकार स्वाध्याय के अभाव में हमारी मानसिक वृत्तियों कलुषित एवं दूषित हो जाती हैं। हमारा ज्ञान सीमित हो जाता है और हम कुप-मण्डुक बन जाते हैं। यदि प्रतिदिन एक घण्टा भी स्वाध्याय किया जाये और एक घण्टे में २० पृष्ठों का पाठ हो तो एक मास में ६०० पृष्ठों का एक ग्रन्थ पढ़ा जा सकता है। तनिक सोचिये, इस प्रकार स्वाध्याय करने से आपके ज्ञान में कितनी वृद्धि होगी !

    स्वाध्याय के बल पर एक साधारण व्यक्ति महान् बन सकता है। स्वाध्याय के बल पर अनेक व्यक्ति उच्च कोटि के विद्वान् बन गये। यदि हम इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे।

    बरमौण्ट (अमेरिका) में एक मोची था । नाम था चार्ल्स सी फास्ट । उसने अपने कार्य के व्यस्त क्षणों से प्रतिदिन एक घण्टा बचाकर दस वर्ष तक नियमपूर्वक गणित का अध्ययन किया । केवल एक घण्टा प्रतिदिन स्वाध्याय करने के आधार पर वह दस वर्ष में ही उच्च कोटि का गणितज्ञ बन गया।

    आर्य जगत के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० क्षेमकरण दास जी ने ५५ वर्ष की अवस्था में संस्कृत पढ़ना प्रारम्भ करके अथर्ववेद पर भाप्य किया जो आज भी सर्वोत्तम माना जाता है।

    मैं स्वयं भी किसी गुरुकुल आदि में शिक्षा ग्रहण नहीं कर सका। मैं जो-कुछ सीख पाया हूँ उसका श्रेय स्वाध्याय और श्रवण को ही है।

    कैसे ग्रन्थों का अध्ययन करें? हमें उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए। स्वामी शिवानन्द जी ने एक स्थान पर लिखा है___ "सद्ग्रन्थ इस लोक के चिन्तामणि हैं। उनके अध्ययन से सब चिन्ताएँ मिट जाती हैं। संशय-पिशाच भाग जाते हैं और मन में सद्भाव जागृत होकर परम शान्ति प्राप्त होती है।"

श्री लोकमान्य तिलक जी का कहना है

   "मैं नरक में भी अच्छी पुस्तकों का स्वागत करूँगा, क्योंकि इनमें वह शक्ति है कि जहाँ ये होंगी वहाँ स्वर्ण बन जायेगा।" __वेद संसार-साहित्य का मुकुटमणि है । संसार के पुस्तकालय में वेद सबसे प्राचीन पुस्तक है। न केवल भारतीय विद्वानों ने, अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने भी वेद की श्रेष्ठता के गीत गाये हैं। वेद-अध्ययन से मनुष्य बड़े-बड़े पापों से बच जाता है। यह बात यथार्थ है। इसे सिद्ध करने के लिए युक्ति और प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है। संसार के समस्त पापों की जड़ है मन की अपवित्रता । स्वाध्याय के द्वारा मन धुलकर शुद्ध और पवित्र हो जाता है, फिर मनुष्य पापों की ओर कैसे झुक सकता है ?

   अनार्ष, गन्दे तथा भद्दे उपन्यास और नाटक पढ़ने का नाम स्वाध्याय नहीं है। इनसे मनुष्य का कल्याण नहीं होता, अपितु पतन होता है। जीवन पवित्र करनेवाले, आत्मा का कल्याण करनेवाले ग्रन्थों को पढ़िये। संसार के महापुरुषों के जीवनों का अध्ययन कीजिये । उपनिषद्, मनुस्मृति, रामायण और महाभारत का स्वाध्याय कीजिये । सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार-विधि और व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों को पढ़िये । जहाँ तक बन सके, आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय कीजिये । महर्षि दयानन्द के शब्दों में "आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि जैसा एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना।"

   देश की विभूतियो ! यदि आप महान् बनना चाहते हैं, ज्ञान और विज्ञान ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, नाना विद्यानों में पारंगत होना चाहते हैं तो एक बात सदा स्मरण रक्खो, “स्वाध्यायान् माप्रमदः।" स्वाध्याय में कभी प्रमाद न करो। प्रतिदिन स्वाध्याय करने को अपने जीवन का अंग बना लो।

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