वेद में दान की बहुत महिमा कही गई है -
उतो रति: पृणतो नोप दस्यत्युता पृणन्मर्डितारं न विन्दते ।
(ऋ० १०/११७/१)
देने वाले का धन नहीं नष्ट होता है और न देने वाला सुख देने वाले को नहीं प्राप्त करता है।
अरमस्मै भवति यामहुता उतापरीषु कृणतेसखायम् ।
(ऋ०.१/११७/३)
उसके लिए इस दान क्रिया रूप यज्ञ में पर्याप्त फल होता है अथवा लोगों की सभा में पर्याप्त सम्मान मिलता है और अन्य विरोधी वर्गों में भी मित्र बना लेता है।
अपास्मात्प्रेयान्न तदोको अस्ति।
(ऋ.१/११७/४)
इस अदाता के पास से आर्थी मित्र बिना कुछ पाये वापस जाता है तो फिर वह घर घर नहीं रहता है।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादि ।
(ऋ.१/११७/६)
जो ना तो वह सत्यवादी विद्वान का पोषण करता है और ना आपत्ति ग्रस्त मित्र का पोषण करता है , अकेला खाने वाला केवल पाप खाने वाला होता है।
पृणन्नापिर पृणान्तमभिष्यात् ।
(ऋ०.१०/११७/७)
दाता बंधु अंदाता को अतिक्रांत कर जाता है।
शतहस्त समाहार, सहस्रहस्त संकिर । (अथर्व ०.३/२४/५)
हजारों हाथों से बाँट, दान कर ।
पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान द्रिघीयांसमनुपश्येत पन्थाम् ।
ओहिवर्तन्ते रथ्येव चक्रा, अन्यमन्यमुपतिष्ठन्तु राय: ।। (ऋ०.१०/११७/५)
धन से बड़े हुए मनुष्य को चाहिए कि मांगने वाले सत पात्र को दान दे, सुकृत मार्ग को दीर्घतम देखें। इस लंबे मार्ग में धन संपत्तियां निश्चय से रथ चक्र की तरह ऊपर नीचे घूमती हैं, बदलती रहती हैं और एक को छोड़कर दूसरे के पास जाती रहती हैं।
इस मंत्र में सत पात्र को देने और धन के चंचल होने की बात कही गई है।
वेद कहता है बांट कर खाओ -
केवलाघो भवति केवलादी। (ऋ०.१०/११७/६)
अकेला खाने वाला सचमुच पापी होता है।
गीता में कहा गया है -
यज्ञशिष्टशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषै: ।
भुंक्ते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
(गीता- ५/३/१३)
यज्ञ से बचे हुए को खाने वाले सब पापों से छूट जाते हैं। बे पापी तो पाप खाते हैं जो अपने लिए ही पकाते हैं। (अर्थात जो बांट के खाता है वह महान व्यक्ति कहलाता है।
संस्कृत के किसी कवि ने ठीक ही कहा है -
दानेन भूतानि वशी भवंति दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् ।
परोऽपि बन्धुत्वमुपैति दानैर्दानं हि सर्वव्यसनानि हन्ति। ।।
दान से सभी प्राणी बस में हो जाते हैं, दान से शत्रुता का भी नाश हो जाता है। दान से पराया भी अपना हो जाता है, दान सभी बुराइयों का नाश कर देता है।
हिंदी भाषा के कवियों ने भी दान की बहुत महिमा वर्णन किया है ।
जो जल बाढ़े नाव में घर में बाढ़े दाम ।
दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।
यदि नाव में पानी और घर में धन बढ़ जाए तो दोनों हाथ भर कर उन्हें बाहर फेंकना चाहिए। कवि ने यहां यह कहने का प्रयास किया है ही जब हमारे पास पर्याप्त से भी अधिक धन है तो थोड़ा थोड़ा दान भी करना चाहिए।
देह धरे का फल यही, देह देह कछु देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ।।
शरीर धारण करने की सार्थकता इसी में है कि कुछ दान किया जाए। यह सारी राख हो जाएगा। फिर इसे कौन शरीर कहेगा ?
* महाभारत में दानवीर कर्ण का उल्लेख है कि उनके पास से कोई खाली हाथ नहीं जाता था। लोग कुछ भी मांग लेते थे और वे दे ही देते थे । 1 दिन की बात है, एक व्यक्ति उनके पास मांगने गया। करण ने अपने दाएं हाथ में कोई वस्तु पकड़ी हुई थी। उन्होंने बाएं हाथ से अपने गले में पहनी सोने की माला निकाल कर उसे व्यक्ति को दे दी। उनके बगल में खड़े सहयोगी ने टोका, बाएं हाथ से दान नहीं दिया जाता। दाम तो सदा दाएं हाथ से देते हैं। इस पर करण ने समझाया, "बात तो ठीक है, लेकिन बाएं हाथ से माला दाएं हाथ में पकड़ते समय कहीं मेरा मन बदल जाता तो? इसलिए मैंने तुरंत बाएं हाथ से ही दान दे दिया ।
* जिस दिन कर्ण युद्ध भूमि में गिरे, सायन का शिविर में लौटने पर श्री कृष्ण बोले आज दान सिलता का सूर्य अस्त हो रहा है। अर्जुन ने पूछा अच्युत! आप इतने उदास क्यों हैं? करण में ऐसी क्या महानता थी? कृष्णा उठे और बोले, चलो उस महाप्राण के अंतिम दर्शन कर आयें। तुम दूर से ही देखते रहना। कृष्ण ने एक वृद्ध का रूप बनाया और शवों से पटी युद्ध भूमि में पहुंच गए। वृद्ध ने पुकारा, महादानी कर्ण! तुम्हारा सुयश सुनकर कुछ दान प्राप्त करने की आशा से आया हूं । घायल करण ने कहा, इस युद्ध भूमि में तो मेरे पास कुछ नहीं है। हां मेरा एक दांत सोने का है। आप कृपया उसे पत्थर मारकर उखाड़ ले।
मुझसे यह क्रूर कार्य नहीं होगा वृद्ध बोला ।
यह सुनकर करण घसीटते हुए एक पत्थर के पास गए और उससे अपना सोने का दांत तोड़ कर विद को दे दिया। वृद्ध बने कृष्ण अचानक प्रकट हो गए और अर्जुन को पास बुलाकर कहा, देखिए तुमने कर्ण की दान शीलता ! कर्ण इसलिए महान है ।
खाये खर्चे सूम धन, चोर चुरा ले जाए।
पीछे ज्यों मधुमक्षिका, हाथ मले पछताए ।।
कंजूस व्यक्ति ना तो खर्चता है और ना खाता है। उसके धन को चोर चुरा कर ले जाते हैं। वह हाथ मलकर पछताता रहता है । उसका हाल मधुमक्खियों के छत्ते की भांति होता है।
* एक मुनि भीक्षार्थ गांव के सभी घरों में घूमते हुए एक स्त्री के घर पहुंचा। स्त्री मुनि को क्रोधित स्वरों में गाली देती हुई बोली -
" क्या कमाने की शक्ति नहीं है , जो भिक्षा मांग रहे हो?
मोनी मौनी बने चले गए।
कुछ दिनों बाद पुनः उसी स्त्री के घर आए, भिक्षा मांगी। स्त्री दोनों हाथों में राख भर कर लाई और मुनि के मुंह पर डालकर घर में चली गई ।
मुनि के मौन रहने पर राह में चलती एक महिला ने मुनि से पूछा - आपने उस स्त्री को कुछ भी क्यों नहीं कहा ?
मुनि ने कहा, वह देना सीख रही है। पहले दिन गाली दी, दूसरे दिन राख दी । अब देती - देती कभी भिक्षा भी देगी ।
* एक भिखारी सड़क के किनारे बैठा भीख मांग रहा था, एक दिन एक आदमी उधर आया। उसके हाव-भाव, कपड़े लगते और चाल ढाल से लगता था कि वह कोई पैसे वाला है। भिखारी ने अपना कटोरा उसकी ओर बढ़ा लिया ।
आदमी ने मुंह बनाकर भिखारी की ओर ऐसे देखा, जैसे कोई कड़वी चीज उसके मुंह में आ गई हो।उसने जेब से 10 पैसे का एक सिक्का निकाला और उसे कटोरे में ना डालकर भिखारी के सामने पटक दिया।
आदमी की इस हरकत को देखकर भिखारी ने आव देखा ना ताव, उस सिक्के को उठाकर उसकी ओर फेंकते हुए कहा, मुझे नहीं चाहिए, गरीब की दौलत। ले जाओ इसे।
आदमी के पैर ठिठक गए। तभी उसे सुनाई दिया,"दान दाता दान के साथ अपने को नहीं देता तो वह दान व्यर्थ है और जिसके पास दिल नहीं, उसके पास लाखों की संपत्ति होते हुए भी वह गरीब है ।
* शहंशाह अकबर के अजय सेनापति अब्दुल रहीम खानखाना एक महान कवि एवं दानवीर थे। उनके द्वार पर किसी की कामना कभी निष्फल नहीं होती थी। दान देते समय में रहीम की आंखें नीचे झुकी रहती थी। अहंकार उन्हें छू भी नहीं सकता था।
उनकी अनोखी दान सिलता को देखकर अकबर के दरबारी कवि गंग ने कवि सुलभ वाणी में उनसे पूछा -
सीखी कहां नवाब जू , ऐसी दैनी दैन,
ज्यों - ज्यों कर ऊंचौ कियो, त्यों त्यों नीचे नैन ?
रहीम आकाश की ओर दोनों हाथ उठाकर बोले -
देने हरा कोई और है, भजत है दिन - रैन ।
लोग भरम मुझ पर करें, तातें नीचे नैन ।
रहीम जहांगीर के समय में दरिद्र हो गए थे। लड़ाई में धोखा देने की अपराध - आरोप में इनकी सारी जागीर संपत्ति जब्त कर ली गई। इन्हें जेल में डाल दिया। जेल से छूटे तो याचक इनके पास पहुंचने लगे। पर उन पर तो दरिद्रता का साया था।
1 दिन 1 दिन ही नयाचक रहीम के पास पहुंचा और आर्थिक सहायता के लिए गुहार लगाने लगा। रहीम ने उसे एक दोहा लिखकर दिया और कहा इससे रीवां - नरेश को जाकर दे दो ।
दोहा यूं था -
चित्रकूट में रमी रहे, रहिमन अवध नरेश।
जापर विपदा परत है, सो आवत यहि देस ।।
और रहीम की इस (संस्तुति) सिफारिश पर रीवा नरेश ने उस याचक को ₹100000 दान देकर ससम्मान विदा किया ।
(यह दृष्टांत इसीलिए लिखा की व्यक्ति कितना भी बुरा क्यों ना हो उसके अच्छे गुण की प्रशंसा होनी चाहिए)
दान पर यह छोटा सा लेख आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत है आशा करते हैं कि आप सबको पसंद आएगा।
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