ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
उ॒षासा॒नक्त॑मश्विना॒ दिवेन्द्र॑ꣳ सा॒यमि॑न्द्रि॒यैः।
सं॒जा॒ना॒ने सु॒पेश॑सा॒ सम॑ञ्जाते॒ सर॑स्वत्या॥६१॥
पद पाठ
उ॒षासा॑। उ॒षसेत्यु॒षसा॑। नक्त॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। दिवा॑। इन्द्र॑म्। सा॒यम्। इ॒न्द्रि॒यैः। स॒ञ्जा॒ना॒ने इति॑ सम्ऽजाना॒ने। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। सम्। अ॒ञ्जा॒ते॒ऽइत्य॑ञ्जाते। सर॑स्वत्या ॥६१ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वान् लोगो! जैसे (सुपेशसा) अच्छे रूप वाले (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (सरस्वत्या) अच्छी उत्तम शिक्षा पाई हुई वाणी से (उषासा) प्रभात (नक्तम्) रात्रि (सायम्) संध्याकाल और (दिवा) दिन में (इन्द्रियैः) जीव के लक्षणों से (इन्द्रम्) बिजुली को (संजानाने) अच्छे प्रकार प्रकट करते हुए (समञ्जाते) प्रसिद्ध हैं, वैसे तुम भी प्रसिद्ध होओ॥६१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातःसमय रात्रि को और संध्याकाल दिन को निवृत्त करता है, वैसे विद्वानों को चाहिये कि अविद्या और दुष्ट शिक्षा का निवारण करके सब लोगों को सब विद्याओं की शिक्षा में नियुक्त करें॥६१॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
पा॒तं नो॑ऽअश्विना॒ दिवा॑ पा॒हि नक्त॑ꣳ सरस्वति।
दैव्या॑ होतारा भिषजा पा॒तमिन्द्र॒ꣳ सचा॑ सु॒ते॥६२॥
पद पाठ
पा॒तम्। नः॒। अ॒श्वि॒ना॒। दिवा॑। पा॒हि। नक्त॑म्। स॒र॒स्व॒ति॒। दैव्या॑। हो॒ता॒रा॒। भि॒ष॒जा॒। पा॒तम्। इन्द्र॑म्। सचा॑। सु॒ते ॥६२ ॥
विषय - अब विद्वद्विषय में सामयिक रक्षा विषय और भैषज्यादि विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (दैव्या) दिव्य गुणयुक्त (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करने वालो! तुम लोग (दिवा) दिन में (नक्तम्) रात्रि में (नः) हमारी (पातम्) रक्षा करो। हे (सरस्वति) बहुत विद्याओं से युक्त माता! तू हमारी (पाहि) रक्षा कर। हे (होतारा) सब लोगों को सुख देने वाले (सचा) अच्छे मिले हुए (भिषजा) वैद्य लोगो! तुम (सुते) उत्पन्न हुए इस जगत् में (इन्द्रम्) ऐश्वर्य्य देने वाले सोमलता के रस की (पातम्) रक्षा करो॥६२॥
भावार्थ - जैसे अच्छे वैद्य रोग मिटाने वाली बहुत ओषधियों को जानते हैं, वैसे अध्यापक और उपदेशक और माता-पिता अविद्यारूप रोगों को दूर करने वाले उपायों को जानें॥६२॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
ति॒स्रस्त्रे॒धा सर॑स्वत्य॒श्विना॒ भार॒तीडा॑।
ती॒व्रं प॑रि॒स्रुता॒ सोम॒मिन्द्रा॑य सुषुवु॒र्मद॑म्॥६३॥
पद पाठ
ति॒स्रः। त्रे॒धा। सर॑स्वती। अ॒श्विना॑। भार॑ती। इडा॑। ती॒व्रम्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सोम॑म्। इन्द्रा॑य। सु॒षु॒वुः॒। सु॒सु॒वु॒रिति॑ सुसुवुः। मद॑म् ॥६३ ॥
विषय - फिर भैषज्यादि विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (सरस्वती) अच्छे प्रकार शिक्षा पाई हुई वाणी (भारती) धारण करनेहारी माता और (इडा) स्तुति के योग्य उपदेश करनेहारी ये (तिस्रः) तीन और (अश्विना) अच्छे दो वैद्य (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिये (परिस्रुता) सब ओर से झरने के साथ (तीव्रम्) तीव्रगुणस्वभाव वाले (मदम्) हर्षकर्त्ता (सोमम्) ओषधि के रस वा प्रेरणा नाम के व्यवहार को (त्रेधा) तीन प्रकार से (सुषुवुः) उत्पन्न करें, वैसे तुम भी इसकी सिद्धि अच्छे प्रकार करो॥६३॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि सोम आदि ओषधियों के रस को सिद्ध कर उसको पीके शरीर का आरोग्य करके उत्तम वाणी, शुद्ध बुद्धि और यथार्थ वक्तृत्व शक्ति की उन्नति करें॥६३॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
अ॒श्विना॑ भेष॒जं मधु॑ भेष॒जं नः॒ सर॑स्वती।
इन्द्रे॒ त्वष्टा॒ यशः श्रिय॑ꣳ रू॒पꣳरू॑पमधुः सु॒ते॥६४॥
पद पाठ
अ॒श्विना॑। भे॒ष॒जम्। मधु॑। भे॒ष॒जम्। नः॒। सर॑स्वती। इन्द्रेः॑। त्वष्टा॑। यशः॑। श्रिय॑म्। रू॒पꣳरूप॒मिति॑ रू॒पम्ऽरू॑पम्। अ॒धुः॒। सु॒ते ॥६४ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(नः) हमारे लिये (अश्विना) विद्या सिखाने वाले अध्यापकोपदेशक (सरस्वती) विदुषी शिक्षा पाई हुई माता और (त्वष्टा) सूक्ष्मता करने वाला ये विद्वान् लोग (सुते) उत्पन्न हुए (इन्द्रे) परमैश्वर्य्य में (भेषजम्) सामान्य और (मधु, भेषजम्) मधुरादि गुणयुक्त औषध (यशः) कीर्त्ति (श्रियम्) लक्ष्मी और (रूपं रूपम्) रूप रूप को (अधुः) धारण करने को समर्थ होवें॥६४॥
भावार्थ - जब मनुष्य लोग ऐश्वर्य को प्राप्त होवें, तब इन उत्तम ओषधियों, कीर्त्ति और उत्तम शोभा को सिद्ध करें॥६४॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
ऋ॒तु॒थेन्द्रो॒ वन॒स्पतिः॑ शशमा॒नः प॑रि॒स्रुता॑।
की॒लाल॑म॒श्विम्यां॒ मधु॑ दु॒हे धे॒नुः सर॑स्वती॥६५॥
पद पाठ
ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। इन्द्रः॑। वन॒स्पतिः॑। श॒श॒मा॒नः। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। की॒लाल॑म्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। मधु॑। दु॒हे। धे॒नुः। सर॑स्वती ॥६५ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
जैसे (धेनुः) दूध देने वाली गौ के समान (सरस्वती) अच्छी उत्तम शिक्षा से युक्त वाणी (परिस्रुता) सब ओर से भरने वाली जलादि पदार्थ के साथ (ऋतुथा) ऋतुओं के प्रकारों से और (शशमानः) बढ़ता हुआ (इन्द्रः) ऐश्वर्य करनेहारा (वनस्पतिः) वट आदि वृक्ष (मधु) मधुर आदि रस और (कीलालम्) अन्न को (अश्विभ्याम्) वैद्यों से कामनाओं को पूर्ण करता है, वैसे मैं (दुहे) पूर्ण करूं॥६५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छे वैद्यजन उत्तम-उत्तम वनस्पतियों से सारग्रहण के लिये प्रयत्न करते हैं, वैसे सब को प्रयत्न करना चाहिये॥६५॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
गोभि॒र्न सोम॑मश्विना॒ मास॑रेण परि॒स्रुता॑।
सम॑धात॒ꣳ सर॑स्वत्या॒ स्वाहेन्द्रे॑ सु॒तं मधु॑॥६६॥
पद पाठ
गोभिः॑। न। सोम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। मास॑रेण। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सम्। अ॒धा॒त॒म्। सर॑स्वत्या। स्वाहा॑। इन्द्रे॑। सु॒तम्। मधु॑ ॥६६ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अश्विना) अच्छी शिक्षा पाये हुए वैद्यो! (मासरेण) प्रमाण युक्त मांड (परिस्रुता) सब ओर से मधुर आदि रस से युक्त (सरस्वत्या) अच्छी शिक्षा और ज्ञान से युक्त वाणी से और (स्वाहा) सत्यक्रिया से तथा (इन्द्रे) परमैश्वर्य्य के होते (गोभिः) गौओं से दुग्ध आदि पदार्थों को जैसे (न) वैसे (मधु) मधुर आदि गुणों से युक्त (सुतम्) सिद्ध किये (सोमम्) ओषधियों के रस को तुम (समधातम्) अच्छे प्रकार धारण करो॥६६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वैद्य लोग उत्तम हस्तक्रिया से सब ओषधियों के रस को ग्रहण करें॥६६॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
अ॒श्विना॑ ह॒विरि॑न्द्रि॒यं नमु॑चेर्धि॒या सर॑स्वती।
आ शु॒क्रमा॑सु॒राद्वसु॑ म॒घमिन्द्रा॒॑य जभ्रिरे॥६७॥
पद पाठ
अ॒श्विना॑। ह॒विः। इ॒न्द्रि॒यम्। नमु॑चेः। धि॒या। सर॑स्वती। आ। शु॒क्रम्। आ॒सु॒रात्। वसु॑। म॒घम्। इन्द्रा॑य। ज॒भ्रि॒रे॒ ॥६७ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(अश्विना) अच्छे वैद्य और (सरस्वती) अच्छी शिक्षायुक्त स्त्री (धिया) बुद्धि से (नमुचेः) नाशरहित कारण से उत्पन्न हुए कार्य से (हविः) ग्रहण करने योग्य (इन्द्रियम्) मन को (आसुरात्) मेघ से (शुक्रम्) पराक्रम और (मघम्) पूज्य (वसु) धन को (इन्द्राय) ऐश्वर्य के लिये (आजभ्रिरे) धारण करें॥६७॥
भावार्थ - स्त्री और पुरुषों को चाहिये कि ऐश्वर्य से सुख की प्राप्ति के लिये ओषधियों का सेवन करें॥६७॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
यम॒श्विना॒ सर॑स्वती ह॒विषेन्द्र॒मव॑र्द्धयन्।स बि॑भेद व॒लं म॒घं नमु॑चावासु॒रे सचा॑॥६८॥
पद पाठ
यम्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। ह॒विषा॑। इन्द्र॑म्। अव॑र्द्धयन्। सः। बि॒भे॒द॒। ब॒लम्। म॒घम्। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑ ॥६८ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(सचा) संयोग किये हुए (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक तथा (सरस्वती) विदुषी स्त्री (नमुचौ) नाशरहित कारण से उत्पन्न (आसुरे) मेघ में होने के निमित्त घर में (हविषा) अच्छी बनाई हुई होम की सामग्री से (यम्) जिस (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (अवर्द्धयन्) बढ़ाते (सः) वह (मघम्) परमपूज्य (बलम्) बल का (बिभेद) भेदन करे॥६८॥
भावार्थ - जो ओषधियों के रस को कर्त्तव्यता के गुणों से उत्तम करे, वह रोग का नाश करनेहारा होवे॥६८॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
तमिन्द्रं॑ प॒शवः॒ सचा॒श्विनो॒भा सर॑स्वती।
दधा॑ना अ॒भ्यनूषत ह॒विषा॑ य॒ज्ञऽइ॑न्द्रि॒यैः॥६९॥
पद पाठ
तम्। इन्द्र॑म्। प॒श॑वः। सचा॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। सर॑स्वती। दधा॑नाः। अ॒भि। अ॒नू॒ष॒त॒। ह॒विषा॑। य॒ज्ञे। इ॒न्द्रि॒यैः ॥६९ ॥
विषय - अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्य लोगो! (सचा) विद्या से युक्त (अश्विना) वैद्यकविद्या में चतुर अध्यापक और उपदेशक (उभा) दोनों (इन्द्रियैः) धनों से जिस (इन्द्रम्) बल आदि गुणों के धारण करनेहारे सोम को धारण करें, (तम्) उसको (सरस्वती) सत्य विज्ञान से युक्त स्त्री धारण करे और जिसको (पशवः) गौ आदि पशु धारण करें, उसको (हविषा) सामग्री से (दधानाः) धारण करते हुए जन (यज्ञे) यज्ञ में (अभ्यनूषत) सब ओर से प्रशंसा करें॥६९॥
भावार्थ - जो लोग धर्म्म के आचरण से धन के साथ धन को बढ़ाते हैं, वे प्रशंसा को प्राप्त होते हैं॥६९॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - इन्द्रसवितृवरुणा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
यऽइन्द्र॑ऽइन्द्रि॒यं द॒धुः स॑वि॒ता वरु॑णो॒ भगः॑।स सु॒त्रामा॑ ह॒विष्प॑ति॒र्यज॑मानाय सश्चत॥७०॥
पद पाठ
ये। इन्द्रे॑। इ॒न्द्रि॒यम्। द॒धुः। स॒वि॒ता। वरु॑णः। भगः॑। सः। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। ह॒विष्प॑तिः। ह॒विःप॑ति॒रिति॑ ह॒विःऽप॑तिः। यज॑मानाय। स॒श्च॒त॒ ॥७० ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! (ये) जो लोग (इन्द्रे) ऐश्वर्य्य में (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें, वे सुखी होवें। इस कारण जो (भगः) सेवा करने के योग्य (वरुणः) श्रेष्ठ (सविता) ऐश्वर्य की इच्छा से युक्त (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रक्षक (हविष्पतिः) होम करने योग्य पदार्थों की रक्षा करेनहारा मनुष्य (यजमानाय) यज्ञ करनेहारे के लिये धन को (सश्चत) सेवे, (सः) वह प्रतिष्ठा को प्राप्त होवे॥७०॥
भावार्थ - जैसे पुरोहित यजमान के ऐश्वर्य को बढ़ाता है, वैसे यजमान भी पुरोहित के धन को बढ़ावे॥७०॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - इन्द्रसवितृवरुणा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
स॒वि॒ता वरु॑णो॒ दध॒द् यज॑मानाय दा॒शुषे॑।
आद॑त्त॒ नमु॑चे॒र्वसु॑ सु॒त्रामा॒ बल॑मिन्द्रि॒यम्॥७१॥
पद पाठ
स॒वि॒ता। वरु॑णः। दध॑त्। यज॑मानाय। दा॒शुषे। आ। अ॒द॒त्त॒। नमुचेः। वसु॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। बल॑म्। इ॒न्द्रि॒यम् ॥७१ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(वरुणः) उत्तम (सविता) प्रेरक और (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रक्षा करनेहारा जन (दाशुषे) देने वाले (यजमानाय) यजमान के लिये (वसु) द्रव्य को (दधत्) धारण करता हुआ (नमुचेः) धर्म को नहीं छोड़ने वाले के (बलम्) बल और (इन्द्रियम्) अच्छी शिक्षा से युक्त मन का (आ, अदत्त) अच्छे प्रकार ग्रहण करे॥७१॥
भावार्थ - देने वाले पुरुष की अच्छे प्रकार सेवा करके उससे अच्छे पदार्थों को प्राप्त होकर जो सब के बल को बढ़ाता है, वह बलवान् होता है॥७१॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - इन्द्रसवितृवरुणा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
व॑रुणः क्ष॒त्रमि॑न्द्रि॒यं भगे॑न सवि॒ता श्रिय॑म्।
सु॒त्रामा॒ यश॑सा॒ बलं॒ दधा॑ना य॒ज्ञमा॑शत॥७२॥
पद पाठ
वरु॑णः। क्ष॒त्रम्। इ॒न्द्रि॒यम्। भगे॑न। स॒वि॒ता। श्रिय॑म्। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। यश॑सा। बल॑म्। दधा॑नाः। य॒ज्ञम्। आ॒श॒त॒ ॥७२ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (वरुणः) उत्तम पुरुष (सविता) ऐश्वर्योत्पादक (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रक्षा करनेहारा सभा का अध्यक्ष (भगेन) ऐश्वर्य्य के साथ वर्त्तमान (क्षत्रम्) राज्य और (इन्द्रियम्) मन आदि (श्रियम्) राज्यलक्ष्मी और (यज्ञम्) यज्ञ को प्राप्त होता है, वैसे (यशसा) कीर्ति के साथ (बलम्) बल को (दधानाः) धारण करते हुए तुम (आशत) प्राप्त होओ॥७२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। ऐश्वर्य्य के विना राज्य, राज्य के विना राज्यलक्ष्मी और राज्यलक्ष्मी के विना भोग प्राप्त नहीं होते, इसलिये नित्य पुरुषार्थ करना चाहिये॥७२॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
अ॒श्विना॒ गोभि॑रिन्द्रि॒यमश्वे॑भिर्वी॒र्यं बल॑म्।ह॒विषेन्द्र॒ꣳ सर॑स्वती॒ यज॑मानमवर्द्धयन्॥७३॥
पद पाठ
अ॒श्विना॑। गोभिः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। अश्वे॑भिः। वी॒र्य्य᳕म्। बल॑म्। ह॒विषा॑। इन्द्र॑म्। सर॑स्वती। यज॑मानम्। अ॒व॒र्द्ध॒य॒न् ॥७३ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
(अश्विना) अध्यापक, उपदेशक और (सरस्वती) सुशिक्षायुक्त विदुषी स्त्री (गोभिः) अच्छे प्रकार शिक्षायुक्त वाणी वा पृथिवी और गौओं तथा (अश्वेभिः) अच्छे प्रकार शिक्षा पाये हुए घोड़ों और (हविषा) अङ्गीकार किये हुए पुरुषार्थ से (इन्द्रियम्) धन (वीर्यम्) पराक्रम (बलम्) बल और (इन्द्रम्) ऐश्वर्ययुक्त (यजमानम्) सत्य अनुष्ठानरूप यज्ञ करनेहारे को (अवर्द्धयन्) बढ़ावें॥७३॥
भावार्थ - जो लोग जिनके समीप रहें उनको योग्य है कि वे उनको सब अच्छे गुण कर्मों और ऐश्वर्य आदि से उन्नति को प्राप्त करें॥७३॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
ता नास॑त्या सु॒पेश॑सा॒ हिर॑ण्यवर्त्तनी॒ नरा॑।
सर॑स्वती ह॒विष्म॒तीन्द्र॒ कर्म॑सु नोऽवत॥७४॥
पद पाठ
ता। नास॑त्या। सु॒पेश॒सेति॑ सु॒ऽपेश॑सा। हिर॑ण्यवर्त्तनी॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्त्तनी। नरा॑। सर॑स्वती। ह॒विष्म॑ती। इन्द्र॑। कर्म॒स्विति॒ कर्म॑ऽसु। नः॒। अ॒व॒त॒ ॥७४ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य वाले विद्वन्! (ता) वे (नासत्या) असत्य आचरण से रहित (सुपेशसा) अच्छे रूप युक्त (हिरण्यवर्त्तनी) सुवर्ण का वर्त्ताव करनेहारी (नरा) सर्वगुणप्रापक पढ़ाने और उपदेश करने वाली (हविष्मती) उत्तम ग्रहण करने योग्य पदार्थ जिसके विद्यमान वह (सरस्वती) विदुषी स्त्री और आप (कर्मसु) कर्मों में (नः) हमारी (अवत) रक्षा करो॥७४॥
भावार्थ - जैसे विद्वान् पुरुष पढ़ाने और उपदेश से सब को दुष्ट कर्मों से दूर करके अच्छे कर्मों में प्रवृत्त कर रक्षा करते हैं, वैसे ही ये सब के रक्षा करने योग्य हैं॥७४॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
ता भि॒षजा॑ सु॒कर्म॑णा॒ सा सु॒दुघा॒ सर॑स्वती।
स वृ॑त्र॒हा श॒तक्र॑तु॒रिन्द्रा॑य दधुरिन्द्रि॒यम्॥७५॥
पद पाठ
ता। भि॒षजा॑। सु॒कर्म॒णेति॑ सु॒ऽकर्म॑णा। सा। सु॒दुघेति॑ सु॒ऽदुघा॑। सर॑स्वती। सः। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। श॒तक्र॑तुः। इन्द्रा॑य। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम् ॥७५ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्य लोगो! जैसे (ता) वे (भिषजा) शरीर और आत्मा के रोगों के निवारण करनेहारे (सुकर्मणा) अच्छी धर्मयुक्त क्रिया से युक्त दो वैद्य (सा) वह (सुदुघा) अच्छे प्रकार इच्छा को पूरण करनेहारी (सरस्वती) पूर्ण विद्या से युक्त स्त्री और (सः) वह (वृत्रहा) जो मेघ का नाश करता है, उस सूर्य के समान (शतक्रतुः) अत्यन्त बुद्धिमान् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (इन्द्रियम्) धन को (दधुः) धारण करें, वैसे तुम आचरण करो॥७५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जगत् में जैसे विद्वान् लोग उत्तम आचरण वाले पुरुष के समान प्रयत्न करके विद्या और धन को बढ़ाते हैं, वैसे सब मनुष्य करें॥७५॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
यु॒वꣳ सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑।
वि॒पि॒पा॒नाः सर॑स्व॒तीन्द्रं॒ कर्म॑स्वावत॥७६॥
पद पाठ
यु॒वम्। सु॒राम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑। वि॒पि॒पा॒ना इति॑ विऽपिपा॒नाः। स॒र॒स्व॒ति। इन्द्र॑म्। कर्म्म॒स्विति॒ कर्म॑ऽसु। आ॒व॒त॒ ॥७६ ॥
विषय - फिर प्रकारान्तर से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अश्विना) पालन आदि कर्म करनेहारे अध्यापक और उपदेशक! (सचा) मिले हुए (युवम्) तुम दोनों और हे (सरस्वति) अतिश्रेष्ठ विज्ञान वाली प्रजा तू जैसे (नमुचौ) प्रवाह से नित्यरूप (आसुरे) मेघ में और (कर्मसु) कर्मों में (सुरामम्) अतिसुन्दर (इन्द्रम्) परमैश्वर्य का (आवत) पालन करते हो, वैसे (विपिपानाः) नाना प्रकार से रक्षा करनेहारे होते हुए आचरण करो॥७६॥
भावार्थ - जो लोग पुरुषार्थ से बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त होकर धन की रक्षा करके आनन्द को भोगते हैं, वे सदा ही बढ़ते हैं॥७६॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्द॒ꣳसना॑भिः।
यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक्॥७७॥
पद पाठ
पु॒त्रमि॒वेति॑ पु॒त्रम्ऽइ॑व। पि॒तरौ॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। इन्द्र॑। आ॒वथुः॑। काव्यैः॑। द॒ꣳसना॑भिः। यत्। सु॒राम॑म्। वि। अपि॑बः। शची॑भिः। सर॑स्वती। त्वा॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥७७
विषय - फिर प्रकारान्तर से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (मघवन्) उत्तमधन (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्ययुक्त विद्वन्! तू (शचीभिः) बुद्धियों के साथ (यत्) जिससे (सुरामम्) अति रमणीय महौषधि के रस को (व्यपिबः) पीता है, इससे (सरस्वती) उत्तम शिक्षावती स्त्री (त्वा) तुझ को (अभिष्णक्) समीप सेवन करे, (उभा) दोनों (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक (काव्यैः) कवियों के किये हुए (दंसनाभिः) कर्मों से जैसे (पितरौ) माता-पिता (पुत्रमिव) पुत्र का पालन करते हैं, वैसे तेरी (आवथुः) रक्षा करें॥७७॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे माता-पिता अपने सन्तानों की रक्षा करके सदा बढ़ावें, वैसे अध्यापक और उपदेशक शिष्य की रक्षा करके विद्या से बढ़ावें॥७७॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - जगती स्वरः - निषादः
यस्मि॒न्नश्वा॑सऽऋष॒भास॑ऽउ॒क्षणो॑ व॒शा मे॒षाऽअ॑वसृ॒ष्टास॒ऽआहु॑ताः।
की॒ला॒ल॒पे सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑ हृ॒दा म॒तिं ज॑नय॒ चारु॑म॒ग्नये॑॥७८॥
पद पाठ
यस्मि॑न्। अश्वा॑सः। ऋ॒ष॒भासः॑। उ॒क्षणः॑। व॒शाः। मे॒षाः। अ॒व॒सृ॒ष्टास॒ इत्य॑वऽसृ॒ष्टासः॑। आहु॑ता॒ इत्याऽहु॑ताः। की॒ला॒ल॒प इति॑ कीलाल॒ऽपे। सोम॑पृष्ठा॒येति॒ सोम॑ऽपृष्ठाय। वे॒धसे॑। हृ॒दा। म॒तिम्। ज॒न॒य॒। चारु॑म्। अ॒ग्नये॑ ॥७८ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन् ! (अश्वासः) घोड़े और (ऋषभासः) उत्तम बैल तथा (उक्षणः) अतिबली वीर्य के सेचन करनेहारे बैल (वशाः) वन्ध्या गायें और (मेषाः) मेढ़ा (अवसृष्टासः) अच्छे प्रकार शिक्षा पाये और (आहुताः) सब ओर से ग्रहण किये हुए (यस्मिन्) जिस व्यवहार में काम करनेहारे हों। उसमें तू (हृदा) अन्तःकरण से (सोमपृष्ठाय) सोमविद्या को पूछने और (कीलालपे) उत्तम अन्न के रस को पीनेहारे (वेधसे) बुद्धिमान् (अग्नये) अग्नि के समान प्रकाशमान जन के लिये (चारुम्) अति उत्तम (मतिम्) बुद्धि को (जनय) प्रकट कर॥७८॥
भावार्थ - पशु भी सुशिक्षा पाये हुए उत्तम कार्य सिद्ध करते हैं, क्या फिर विद्या की शिक्षा से युक्त मनुष्य लोग सब उत्तम कार्य सिद्ध नहीं कर सकते?॥७८॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
अहा॑व्यग्ने ह॒विरा॒स्ये ते स्रु॒चीव घृ॒तं च॒म्वीव॒ सोमः॑।
वा॒ज॒सनि॑ꣳ र॒यिम॒स्मे सु॒वीरं॑ प्रश॒स्तं धे॑हि य॒शसं॑ बृ॒हन्त॑म्॥७९॥
पद पाठ
अहा॑वि। अ॒ग्ने॒। ह॒विः। आ॒स्ये᳖। ते॒। स्रु॒ची᳖वेति॑ स्रु॒चिऽइ॑व। घृ॒तम्। च॒म्वी᳖वेति॑ च॒म्वी᳖ऽइव। सोमः॑। वा॒ज॒सनि॒मिति॑ वाज॒ऽसनि॑म्। र॒यिम्। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। सु॒वीर॒मिति॑ सु॒ऽवीर॑म्। प्र॒श॒स्तमिति॑ प्रश॒स्तम्। धे॒हि॒। य॒शस॑म्। बृ॒हन्त॑म् ॥७९ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) उत्तम विद्यायुक्त पुरुष! जिस तूने (सोमः) ऐश्वर्ययुक्त (हविः) होम करने योग्य वस्तु (ते) तेरे (आस्ये) मुख में (घृतम्) (स्रुचीव) जैसे घृत स्रुच् के मुख में और (चम्वीव) जैसे यज्ञ के पात्र में होम के योग्य वस्तु वैसे (अहावि) होमा है, वह तू (अस्मे) हम लोगों में (प्रशस्तम्) बहुत उत्तम (सुवीरम्) अच्छे वीर पुरुषों के उपयोगी और (वाजसनिम्) अन्न, विज्ञान आदि गुणों का विभाग (यशसम्) कीर्त्ति करनेहारी (बृहन्तम्) बड़ी (रयिम्) राज्यलक्ष्मी को (धेहि) धारण कर॥७९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। गृहस्थ पुरुषों को चाहिये कि उन्हीं का भोजन आदि से सत्कार करें, जो लोग पढ़ाना, उपदेश और अच्छे कर्मों के अनुष्ठान से जगत् में बल, पराक्रम, यश, धन और विज्ञान को बढ़ावें॥७९॥
ऋषि: - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
अ॒श्विना॒ तेज॑सा॒ चक्षुः॑ प्रा॒णेन॒ सर॑स्वती वी॒र्यम्।
वा॒चेन्द्रो॒ बले॒नेन्द्रा॑य दधुरिन्द्रि॒यम्॥८०॥
पद पाठ
अ॒श्विना॑। तेज॑सा। चक्षुः॑। प्रा॒णेन॑। सर॑स्वती। वी॒र्य᳖म्। वा॒चा। इन्द्रः॑। बले॑न। इन्द्रा॑य। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम् ॥८० ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (सरस्वती) विद्यावती स्त्री (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक और (इन्द्रः) सभा का अधिष्ठाता (इन्द्राय) जीव के लिये (प्राणेन) जीवन के साथ (वीर्यम्) पराक्रम और (तेजसा) प्रकाश से (चक्षुः) प्रत्यक्ष नेत्र (वाचा) वाणी और (बलेन) बल से (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न को (दधुः) धारण करें, वैसे तुम भी धारण करो॥८०॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य लोग जैसे-जैसे विद्वानों के सङ्ग से विद्या को बढ़ावें, वैसे-वैसे विज्ञान में रुचि वाले होवें॥८०॥
ऋषि: - गृत्समद ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
गोम॑दू॒ षु णा॑स॒त्याश्वा॑वद्यातमश्विना।
व॒र्त्ती रु॑द्रा नृ॒पाय्य॑म्॥८१॥
पद पाठ
गोम॒दिति॒ गोऽम॑त्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सु। ना॒स॒त्या॒। अश्वा॑वत्। अश्व॑व॒दिति॒ अश्व॑ऽवत्। या॒त॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। व॒र्त्तिः। रु॒द्रा॒। नृ॒पाय्य॒मिति॑ नृ॒ऽपाय्य॑म् ॥८१ ॥
विषय - अब विद्वानों के विषय में पशु आदिकों से पालना विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (नासत्या) सत्य व्यवहार से युक्त (रुद्रा) दुष्टों को रोदन करानेहारे (अश्विना) विद्या से बढ़े हुए लोगो तुम जैसे (गोमत्) गौ जिसमें विद्यमान उस (वर्त्तिः) वर्त्तमान मार्ग (उ) और (अश्वावत्) उत्तम घोड़ों से युक्त (नृपाय्यम्) मनुष्यों के मान को (सुयातम्) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ, वैसे हम लोग भी प्राप्त होवें॥८१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। गाय, घोड़ा, हाथी आदि पालन किये पशुओं से अपनी और दूसरे की मनुष्यों को पालना करनी चाहिये॥८१॥
ऋषि: - गृत्समद ऋषिः देवता - अश्विनौ देवता छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः
न यत्परो॒ नान्त॑रऽआद॒धर्ष॑द् वृषण्वसू।
दुः॒शꣳसो॒ मर्त्यो॑ रि॒पुः॥८२॥
पद पाठ
न। यत्। परः॑। न। अन्त॑रः। आ॒द॒धर्ष॒दित्या॑ऽद॒धर्ष॑त्। वृ॒ष॒ण्व॒ऽसू॒इति॑ वृषण्ऽवसू। दुः॒शꣳस॒ इति॑ दुः॒ऽशꣳसः॑। मर्त्यः॑। रि॒पुः ॥८२ ॥
विषय - अब राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (वृषण्वसू) श्रेष्ठों को वास करानेहारे सभा और सेना के पति! तुम (यत्) जिससे (दुःशंसः) दुःख से स्तुति करने योग्य (परः) अन्य (मर्त्यः) मनुष्य (रिपुः) शत्रु (न) न हो और (न) न (अन्तरः) मध्यस्थ हो कि जो हम को (आदधर्षत्) सब ओर से धर्षण करे, उसको अच्छे यत्न से वश में करो॥८२॥
भावार्थ - राजपुरुषों को चाहिये कि जो अति बलवान्, अत्यन्त दुष्ट शत्रु होवे, उसको बड़े यत्न से जीतें॥८२॥
ऋषि: - गृत्समद ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
ता न॒ऽआ वो॑ढमश्विना र॒यिं पि॒शङ्ग॑सन्दृशम्।
धिष्ण्या॑ वरिवो॒विद॑म्॥८३॥
पद पाठ
ता। नः॒। आ। वो॒ढ॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। र॒यिम्। पि॒शङ्ग॑सन्दृश॒मिति॑ पि॒शङ्ग॑ऽसंदृशम्। धिष्ण्या॑। व॒रि॒वो॒विद॒मिति॑ वरिवः॒ऽविद॑म् ॥८३ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अश्विना) सभा और सेना के पालनेहारो! (धिष्ण्या) जो बुद्धि के साथ वर्त्तमान (ता) वे तुम (नः) हम को (वरिवोविदम्) जिससे सेवन को प्राप्त हों और (पिशङ्गसंदृशम्) जो सुवर्ण के समान देखने में आता है, उस (रयिम्) धन को (आ, वोढम्) सब ओर से प्राप्त करो॥८३॥
भावार्थ - सभापति और सेनापतियों को चाहिये कि राज्य के सुख के लिये सब ऐश्वर्य सिद्ध करें, जिससे सत्यधर्म का आचरण बढ़े॥८३॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
पा॒व॒का नः॒ सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती।
य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः॥८४॥
पद पाठ
पा॒व॒का। नः॒। सर॑स्वती। वाजे॑भिः। वा॒जिनी॑व॒तीति॑ वा॒जिनी॑ऽवती। य॒ज्ञम्। व॒ष्टु॒। धि॒याव॑सु॒रिति॑ धि॒याऽव॑सुः ॥८४ ॥
विषय - फिर अध्यापक और उपदेशक विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे पढ़ाने वाले और उपदेशक लोगो! जैस (वाजेभिः) विज्ञान आदि गुणों से (वाजिनीवती) अच्छी उत्तम विद्या से युक्त (पावका) पवित्र करनेहारी (धियावसुः) बुद्धि के साथ जिससे धन हो वह (सरस्वती) अच्छे संस्कार वाली वाणी (नः) हमारे (यज्ञम्) यज्ञ को (वष्टु) शोभित करे, वैसे तुम लोग हम लोगों को शिक्षा करो॥८४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्मा अध्यापक और उपदेशकों से विद्या और सुशिक्षा अच्छे प्रकार ग्रहण करके विज्ञान की वृद्धि सदा किया करें॥८४॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नां॒ चेत॑न्ती सुमती॒नाम्।
य॒ज्ञं द॑धे॒ सर॑स्वती॥८५॥
स्वर सहित पद पाठ
चो॒द॒यि॒त्री। सू॒नृता॑नाम्। चेत॑न्ती। सु॒म॒ती॒नामिति॑ सुऽमती॒नाम्। य॒ज्ञम्। द॒धे॒। सर॑स्वती ॥८५ ॥
विषय - अब स्त्रियों की शिक्षा के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्री लोगो! जैसे (सूनृतानाम्) सुशिक्षा पाई हुई वाणियों को (चोदयित्री) प्रेरणा करनेहारी (सुमतीनाम्) शुभ बुद्धियों को (चेतन्ती) अच्छे प्रकार ज्ञापन करती (सरस्वती) उत्तम विज्ञान से युक्त हुई मैं (यज्ञम्) यज्ञ को (दधे) धारण करती हूं, वैसे यह यज्ञ तुम को भी करना चाहिये॥८५॥
भावार्थ - जो स्त्रियों के बीच में विदुषी स्त्री हो, वह सब स्त्रियों को सदा सुशिक्षा करे, जिससे स्त्रियों में विद्या की वृद्धि हो॥८५॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
म॒होऽअर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑।
धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥८६॥
पद पाठ
म॒हः। अर्णः॑। सर॑स्वती। प्र। चे॒त॒य॒ति॒। के॒तुना॑। धियः॑। विश्वा॑। वि। रा॒ज॒ति॒ ॥८६ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे स्त्री लोगो ! जैसे (सरस्वती) वाणी (केतुना) उत्तम ज्ञान से (महः) बड़े (अर्णः) आकाश में स्थित शब्दरूप समुद्र को (प्रचत्ोयति) उत्तम प्रकार से जतलाती है और (विश्वाः) सब (धियः) बुद्धियों को (वि, राजति) नाना प्रकार से प्रकाशित करती है, वैसे विद्याओं में तुम प्रवृत्त होओ॥८६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। कन्याओं को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य से विद्या और सुशिक्षा को समग्र ग्रहण करके अपनी बुद्धियों को बढ़ावें॥८६॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
इन्द्राया॑हि चित्रभानो सु॒ताऽइ॒मे त्वा॒यवः॑।
अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तासः॑॥८७॥
पद पाठ
इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो। सु॒ताः। इ॒मे। त्वा॒यव॒ इति॑ त्वा॒ऽयवः॑। अण्वी॑भिः। तना॑। पू॒तासः॑ ॥८७ ॥
विषय - अब सामान्य उपदेश विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (चित्रभानो) चित्र-विचित्र विद्याप्रकाशों वाले (इन्द्र) सभापति! आप जो (इमे) ये (अण्वीभिः) अङ्गुलियों से (सुताः) सिद्ध किये (तना) विस्तारयुक्त गुण से (पूतासः) पवित्र (त्वायवः) जो तुमको मिलते हैं, उन पदार्थों को (आ, याहि) प्राप्त हूजिये॥८७॥
भावार्थ - मनुष्य लोग अच्छी क्रिया से पदार्थों को अच्छे प्रकार शुद्ध करके भोजनादि करें॥८७॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
इन्द्राया॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जूतः सु॒ताव॑तः।
उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑॥८८॥
पद पाठ
इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। धि॒या। इ॒षि॒तः। विप्र॑जूत॒ इति॒ विप्र॑ऽजूतः। सु॒ताव॑तः। सु॒तव॑त॒ इति॑ सु॒तऽव॑तः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। वा॒घतः॑ ॥८८ ॥
विषय - फिर विद्वद्विषय अगले मन्त्र में कहते हैं॥
पदार्थ -
हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य से युक्त (इषितः) प्रेरित और (विप्रजूतः) बुद्धिमानों से शिक्षा पाके वेगयुक्त (वाघतः) शिक्षा पाई हुई वाणी से जाननेहारा तू (धिया) सम्यक् बुद्धि से (सुतावतः) सिद्ध किये (ब्रह्माणि) अन्न और धनों को (उप, आ याहि) सब प्रकार से समीप प्राप्त हो॥८८॥
भावार्थ - विद्वान् लोग जिज्ञासा वाले पुरुषों से मिलके उन में विद्या के निधि को स्थापित करें॥८८॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
इन्द्राया॑हि॒ तूतु॑जान॒ऽउप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः।
सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑॥८९॥
पद पाठ
इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। तूतु॑जानः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। ह॒रि॒व॒ इति॑ हरिऽवः। सु॒ते। द॒धि॒ष्व॒। नः॒॑। चनः॑ ॥८९ ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (हरिवः) अच्छे उत्तम घोड़ों वाले (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य के बढ़ानेहारे विद्वन्! आप (उपायाहि) निकट आइये (तूतुजानः) शीघ्र कार्य्यकारी होके (नः) हमारे लिये (सुते) उत्पन्न हुए व्यवहार में (ब्रह्माणि) धर्मयुक्त कर्म से प्राप्त होने योग्य धन और (चनः) भोग के योग्य अन्न को (दधिष्व) धारण कीजिये॥८९॥
भावार्थ - विद्या और धर्म बढ़ाने के लिए किसी को आलस्य न करना चाहिये॥८९॥
ऋषि: - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
अ॒श्विना॑ पिबतां॒ मधु॒ सर॑स्वत्या स॒जोष॑सा।
इन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ वृत्र॒हा जु॒षन्ता॑ सो॒म्यं मधु॑॥९०॥
पद पाठ
अ॒श्विना॑। पि॒ब॒ता॒म्। मधु॑। सर॑स्वत्या। स॒जोष॒सेति स॒ऽजोष॑सा। इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। जु॒षन्ता॑म्। सो॒म्यम्। मधु॑ ॥९० ॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जैसे (सजोषसा) समान सेवन करनेहारे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक (सरस्वत्या) अच्छे प्रकार संस्कार पाई हुई वाणी से (मधु) मधुर आदि गुण युक्त विज्ञान को (पिबताम्) पान करें और जैसे (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रक्षा करनेहारा (वृत्रहा) सूर्य के समान वर्त्ताव वर्त्तने वाला (सोम्यम्) सोमलता आदि ओषधिगण में हुए (मधु) मधुरादि गुण युक्त अन्न का (जुषन्ताम्) सेवन करें, वैसे तुम लोगों को भी करना चाहिये॥९०॥
भावार्थ - अध्यापक और उपदेशक अपने जैसे सब लोगों के विद्या और सुख बढ़ाने की इच्छा करें, जिससे सब सुखी हों॥९०॥
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know