याज्ञवलक्य और मैत्रेयी
महर्षि याज्ञवल्क्य की विद्वता की चर्चा इस के पहले बतला चुके हैं। उनकी तेजस्विता के बारे में भी बतलाया जा चुका हैं कि किस प्रकार जनक की सभा मे उनके प्रश्नों का उत्तर न देने के कारण गर्वोन्मत विद्ग्घ का शिर घड़ से अलग हो गया था। याज्ञवलक्य की चर्चा रामायण आदि में भी आई है, उनकी बनाई हुई स्मृति का आदर आज भी मानव समाज में होता है। इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि वे अपने समय के बे-जोड़ पंडित और ब्रह्मज्ञानी थे । बड़े बड़े ऋषियों मुनियों से लेकर राजाओं के दरबारों तक में उनकी विद्वता की पूजा होती थी। मिथिला के राजा जनक के यहाँ तो उनका बहुत सम्मान होता था । परम ज्ञीनी राजा ने स्वयं याज्ञवलक्य से हो दीक्षा ग्रहण की थी ।
उन महर्पि याज्ञवलक्य की दो स्त्रियाँ थीं। एक का नाम था मैत्रेयी और दूसरी का कात्यायनी था। वे भी परम विदूषी और पति की सेवा में सदा तत्पर रहने चाली थी। महर्षि याज्ञवलक्य के सफल एव सुखी जीवन में उनकी इन दोनों अर्द्धांगिनियों का प्रमुख हाथ था । वे उनके आश्रम का सारा कार्य संभालती थी और शिष्यों को पढा़ने लिखाने में भी सहायता पहुँचाती थी। आश्रम में कहाँ क्या हो रहा है, कहाँ से कौन सामान आयेगा, आज किस निर्बल विद्यार्थी को किस सबल विद्यार्थी ने अकारण पीटा है, इन सब बातों का वे दोनों पूरा पता रखती थीं और आवश्यकता के अनुसार सब की उचित व्यवस्था भी रखती थी । इन्ही सब झंझटो से फुर्सत पाकर महर्षि याज्ञवलक्य अपने शास्त्र-चिन्तन में रात दिन लगे रहते थे । विद्यार्थियों को पढा़ने लिखाने से जो कुछ समय बचता था उसे वें ब्रह्म-चिन्तन अथवा आत्मानुशीलन में लगाते थे। इसी का यह परिणाम था कि उनके समान थोड़ी ही अवस्था में उनके जितना बड़ा विद्वान कोई दूसरा आचार्य नहीं हुआ । मैत्रेयी और कात्यायनी यद्यपि दोनों ही समान रूप से गुणशालिनी तथा सदाचारिणी थी और तन मन से पति की सेवा में लगी रहती थीं, पर कात्यायनी को अपने मनोहर रूप तथा यौवन की भी थोड़ी चिन्ता रहती थी । वह दिन रात के बीच से थोड़ा समय बचाकर अपने सुन्दर शरीर की भी सजावट आदि एक बार कर लेती थी और इस बात का सदा खयाल रखती थी कि कहीं वेश-भूषा या सजावट में कोई कमी तो नही है। महर्षि याजवलक्य का स्नेह दोनों पत्नियों पर समान था । वे कात्यायनी के श्रृंगार सौन्दर्य या यौवन के प्रति कभी आसक्त नही थे। मैत्रेयी भी सदा छोटी बहन के समान कात्यायनी से स्नेह रखती थी, उसके श्रृंगार सजाव को लेकर उनके मन में कभी कोई दुर्भाव पैदा नहीं हुआ । धीरे-धीरे जवानी के दिन बीत गये । महर्षि याज्ञवलक्य का शरीर शिथिल होने लगा । भ्रमर के समान काले बाल पककर सन हो गये और तेजस्वी मुख मण्डल में झुर्रियाँ पड़ गई। नेत्रों की ज्योति मन्द पड़ गई और हाथ-पाँव थोड़े ही श्रम से दुखने लगे । जहाँ रात दिन छात्रों को पढा़ने लिखाने और दूर दूर के यज्ञ हवनादि में सम्मिलित होने का उत्साह हृदय में छुलकता रहता था वहाँ संसार की असारता देखकर विराग के घने बादल छा गये। इन्द्रियों के साथ मन भी शिथिल हो गया । अब शास्त्रीय वाद-विवादों या शात्रार्थो में विजय प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा जाने कहाँ विलीन हो गई। मैत्रेयी और कात्यायनी के शरीर का भी यही हाल हुआ । याज्ञवलक्य के समान मैत्रेयी भी संसार के ऐहिक सुखों से विरक्त होने लगी । घर-गृहस्थी वा आश्रम की उतनी चिन्ता नहीं रह गई । शरीर की ओर थोड़ी बहुत चिन्ता जो जवानी में थी, वह और भी समाप्त हो गई । रात-दिन के बीच में ब्रह्म का ध्यान करने के अतिरिक्त जो कुछु समय बचता वह पति की सेवा और आश्रम के शिष्यों की देख रेख में वह लगाती थी।
चौबीस घण्टे में एक बार खाती और मुश्किल से चार घंटे सोती । पर कात्यायनी का कुछ दूसरा ही हाल था। शरीर के सब अंग यद्यपि शिथिल हो गये थे; पर सांसारिक विषय भोगों से उनका मन भरा नहीं था बल्कि कहना यह चाहिये कि वह उत्तरोत्तर सांसारिक विषयों को ओर अधिकाधिक खिंचती चली गई । मैत्रेयी की देखादेखी वह थोड़ी देर तक यदि आश्रम के कार्मों म लगी रहतीं या ईश्वर का ध्यान करती तो अधिक देर तक सोती और विश्राम करती। वृद्धावस्था को छिपाने के लिये उन्हे श्रृंगारों की शरण लेनी पड़ती । याज्ञवलक्य और मैत्रेयी की विरक्ति पर वह मन ही मन कुढ़ती कि पता नही इन दोनों का शिर क्यों इस तरह फिर गया है ।
एक दिन सांयकाल महर्षि याज्ञवलक्य जलाशय से संध्या आदि से निवृत्त होकर वापस लौट रहे थे कि बीच मार्ग में मैत्रेयी मिल गई' । याज्ञवलक्य का मन बहुत भारी था, आश्रम के झंझटों से वें बहुत खिन्न हो गये थे । मैत्रेयी को बुलाकर उन्होंने कहा--सहचरि । मेरा मन अब गृहत्थी से भर गया है । हृदय भे आश्रम संभालने का उत्साह अब नहीं हैं। मैं गृहस्थाश्रम छोड़ कर सन्यास ग्रहण करना चाहता हूँ । तुम्हारा इस विषय में क्या राय है ?
मैत्रेयी मुनि की मुख मुद्रा से परिचित हो गई थी । इधर उन्हें भी गृहस्थी के कार्यो से विरक्ति हो चली थी । इसी को निवेदन करने के लिये वह बीच मार्ग में पहले ही से खड़ी हुई थीं। अतः याज्ञवलक्य की बाते सुनकर उन्हें कोई विस्मय नहीं हुआ, पीछे पीछे चलती हुई विनम्र स्वर में वह बोली--“देव । गृहस्थाश्रम से सन्यास ग्रहण करने की बात तो सही है, पर आश्रम कौन चलाएगा? देश देश के सहस्त्रों ब्राह्मण कुमार आप के भरोसे घर द्वार छोड़कर जो यहाँ आए, हुए हैं, उनका पठन-पाठन एकदम बन्द हो जायेगा। आप के बाद आश्रम बन्द हो जाने से देश की बहुत बड़ी हानि होगी, क्या इस बात पर भी कभी आपने विचार किया है ?
याज्ञवलक्य ने पथ पर चलते हुए कहा- मैत्रेयी ! आश्रम की चिन्ता ने ही मुझे अब तक बाँध रखा हैं, तुम कैसे जानती हो कि मैंने इस पर कभी विचार नहीं किया है, मैत्रेयी बोली-- 'तो फिर आप के सन्यास ग्रहण कर लेने पर आश्रम कौन चलएगा । याज्ञवलक्य ने कहा--(हारीत की योग्यता अब ऐसी ही गई है कि मेरे न रहने पर वह आश्रम का सब काम काज संभाल लेगा ।
यह बाते कहते- कहते याज्ञवलक्य आश्रम के द्वार पर पहुँच गए, जहां बैठकर कात्यायनी भी नीवारों को पीटकर चावल निकाल रही थीं । याज्ञवलक्य कुशासन पर बैठ गए, मैत्रेयी आश्रम में चली गई, और कात्यायनी सूर्यास्त हों जाने के कारण दीवठ से दीपक उठाकर जलाने के लिए भीतर चली गई । थोड़ी देर तक आश्रम में नीरवता छाई रही फिर याज्ञवलक्य ने मैत्रेयी को अपने पास बुलाया और बैठने का इशारा कर थोड़ी देर तक मौन रहने के बाद कहा--'सहधर्मिणि ! सचमुच मेरा मन विरक्ति से भर गया है और अब मैंने ग्रहस्थाश्रम को छोड़कर सन्यास ग्रहण करने का निश्चय पक्का कर लिया है । इसलिए मैं चाहता हूँ कि घर की सारी सम्पत्ति तुम दोनों में अपने सामने ही आधी-आधी बांट दूँ जिससे तुम दोनों में आपस में कोई झागड़ा-झंझट न हो क्योंकि कात्यायनी का स्वभाव कुछ रूखा और स्वार्थी है। याज्ञवलक्य की बातें सुन कर भी मैत्रेयी चुप बनी रही। वह सोचने लगीं कि 'मनुष्य अपने पास की किसी भी वस्तु को छोड़ने के लिए तभी तैयार होता है जब उसको पहले की अपेक्षा कोई अधिक अच्छी वस्तु मिल जाती है । बिना अधिक पाने की आशा से कोई निकृष्ट वस्तु छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं होता । महर्षि घर-बार एवं इतनी सांसारिक वैभव-प्रतिष्ठा को छोड़कर जो सन्यास ले रहे हैं तो इन्हें इससे भी कोई अधिक मूल्यवान वस्तु मिलने की आशा होगी। उस अमूल्य वस्तु के सामने ये सांसारिक वैभव एवं घर बार को अति तुच्छ समझते होंगे, तभी तो सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हुए हैं। वह अमूल्य वस्तु ऐसी कौन-सी है, जो इनके समान विद्वान एवं पारदर्शी में भी लालच पैदा कर रही है । निश्चय ही वह संसार के दुःख-द्वन्दों से मुक्ति दिलानेवाली वस्तु होगी। क्योंकि ये रात दिन उसी चिन्ता में लगे रहते ये । मुझे लगता है कि बहुत दिनों के चिन्तन के बाद ये इसी निश्चय पर पहुँचे हैं कि उस परम तत्व के पाए विना वास्तविंक सुख शान्ति एव सन्तोष नहीं मिल सकता । वह परम तत्व अमरत्व ही है कुछ दूसरा नहीं क्योंकि बातचीत के प्रसंग में इन्होंने कई बार उस अमरत्व की बड़ी प्रशंसा की है। वह अमरत्व क्या है ? यही जो इन्द्रादि देवताओं को मिला है। नहीं, यह तो नहीं हैं, इन्द्रादि को भी कहाँ सच्ची सुख-शान्ति मिली है। रात-दिन असुरों के भय से जिसे ठीक नींद नहीं आती वह सच्चा अमर नहीं है। सच्ची अमरता तो उस परमात्मा के पाने में है जिसके लिए सारा संसार व्याकुल रहता है। निश्चय ही प्राणपति उसी परमात्मा को प्राप्त करानेवाली अमरता के लिए संसार के वैभवों को तिरस्कृत करने को तैयार हुए हैं । इस तरह मन ही मन बड़ी देर तक मैत्रेयी गुनती रहीं। याज्ञवलक्य को उनका न टूटनेवाला मौन खल गया। वे फिर बोले--गृहिणि । क्या तुम इसके लिए तैयार नहीं हो कि गृहस्थि का सब सामान आधा-आधा वाँट दिया जाये । यदि तुम समझती हो कि मेरे चले जाने के बाद कात्यायनी के साथ तुम्हारी ठीक पट जायेगी, और कभी कोई झंझट नहीं उठेगा। तो वाँटने की कोई जरूरत भी नहीं है। पर मुझे अन्देशा है कि कात्यायनी इस पर राजी न होगों ।
मैत्रेयी चुप नहीं रह सकी । हाथ जोड़कर विनीत स्वर में बोली--“महर्षि। क्या आप उसी अमरता को प्राप्त करने के लिए इस गृहस्थाश्रम को छोड़ रहे हैं जिसकी चर्चा पहले किया करते थे ।
याज्ञवलक्य मुसकराये । थोड़ी देर तक मैत्रेयी की ओर विस्मित नेत्रों से तांकने के बाद दाहिना हाथ उठाकर बोले---हाँ, तुम्हारा अनुमान ठीक है, मैं उसी अमरत्व की उपासना के लिए ही इस गृहस्थी को छोड़ रहा हूँ, क्योंकि इन सांसारिक झंझटों के बीच में रहकर कोई उसकी सच्ची उपासना नहीं कर सकता ।
मैत्रेयी अपनी सहज गम्भीरता को छोड़ नहीं सकीं। याज्ञवलक्य की उक्त बातों ने उनके निर्मल मानस में एक नई जिज्ञासा की भावना पैदा कर दी । हाथ जोड़कर वह पुनः बोलीं--'देव ! क्या मुझे उस अमरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती । मुझे यदि धन घान्य से परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी मिल जाये तो क्या उनके द्वारा में अमरत्व की प्राप्त कर सकती हूं ?
याज्ञवलक्य ने कहा--“नहीं, कदांपि नहीं। धन-धान्य समेत पृथ्वी की प्राप्ति से तुम धनिक बन सकती हो, सांसारिक भोग विलासों से भरा हुआ अतृप्त जीवन बिता सकती हो; पर उसके द्वारा अमरत्व की प्राप्ति तो कभी नहीं हो सकती ।
मैत्रेयी तुरन्त बोल उठीं--'महर्षे ! जिस धन धान्य से मुझे उस अमरत्व की प्राप्ति कदापि नहीं होगी, जिसके लिए आप को यह घर बार तृड़ जैसा तुच्छ मालूम हो रहा है, और बड़ी प्रसन्नता से आप सब का त्याग कर रहे हैं, तो भला उसी धन धान्य को बाँट कर आप मुझे क्यों देना चाहते हैं ? क्या आप मुझे; उस अमूल्य निधि से वंचित रखना चाहते हैं जिसके लिए स्वयं इतना बडा त्याग करने जा रहे हैं ।
याज्ञवलक्य गम्भीर बन गए; थोंड़ी देर तक चुप रहने के बाद बोले--'मैत्रेयी । तू मेरी सच्ची सहधर्मिणी है। मैं तुझे उस अमूल्य निधि से वंचित रखना नहीं चाहता । पर मैं यह भी नहीं चाहता कि जबर्दस्ती से अपना विचार या निश्चय तुझ पर लाद दू .. मैत्रयी ने कहा--'देव । यदि आप मुझे अपनी सच्ची सहधर्मिणी मानते हैं तो यह प्रश्न उठता ही नहीं, आप के विचार या निश्चय मुझे भार के सामान मालूस पड़े । मैं तो अपनी श्रद्धा और मूक्ति से आप के आदेशों का सदा पालन करती आई हूं । और फिर उस अमरत्व की प्राप्ति के लिए तो मैं स्वतः लालायित हूं, जिसके लिए आप जैसे विद्वान एवं पारदर्शी इतने उत्सुक हो रहे हैं। देव! मुझे धन सांसारिक वैभवों के भोग की स्वप्न में भी आकांक्षा नही है। मैं चाहती हूँ केवल आप के कमलचरणों की सुखद छाया और वहीं मेरे जीवन की परम साधना है। मुझे! विश्वास है कि मैं उसी में बैठकर उस परमतत्व अमरत्व की प्राप्ति भी कर सकूंगी मैत्रेयी के सुधावर्षि मुखचन्द्र की ओर महर्षि याज्ञवलक्य के दोनों नेत्र चकोर की भांति निर्निमेष बन गए । मृदंग के गम्भीर स्वर के समान मैत्रेयी के शब्द उनके कानों को परम सुख देते हुए शुभ्र हृदय पर अंकित हो गए। उनकी निर्मल अन्तरात्मा से वास्तविक आनन्द का अविरल श्रोत फूट पड़ा। रोमावलि खड़ी हो गई, पर कम्बुकंठ में स्निग्घता व्याप्त हो गई। मैत्रेयी की निस्वार्थ सेवा का चिर जीवन आज मूर्तमान होकर उन्हें पहली बार दिखाई पड़ा। आश्रम के बाहर चाँदनी की चादर बिंछ रही थी, याज्ञवलक्य ने समझा यह मैत्रेयी की सेवा का स्थल शुभ्र रूप ही है, जो अपनी महिमामयी धवलिमा में दिगन्त को डुबो रही है। थोड़ी देर तक वे इस परमानन्द मे डुबते-उतराते रहे फिर साहसपूर्वक गद्गद स्वर में बोले--'मैत्रेयी !
पहले भी तुझे मैं हृदय मे कात्यायनी से अधिक मानता था और इस अनीति में अपनी समदर्शिता के ढोंग को मन ही मन उतार देता था, पर आज तेरे इन अमृतोपम वाक्यों से मेरे मन मे तेरा वह प्रेम बहुत अधिक बढ़ गया है। तू वास्तव में देवी है । तू यहाँ मेरे समीप आ जा, मैं तुझे उस अमरत्व का उपदेश करूंगा। मेरी बातों को भली भाँति सुन कर उनका मनन कर ।
मैत्रेयी धन्य हो गई, और हाथ जोड़कर महर्षि याज्ञवलक्य के चरणों पर गिर पड़ी । उसकी आँखो से प्रेम के मोती निकल पड़े। वृद्ध याज्ञवलक्य ने अपनी सशक्त बाहुओ से उठाकर उसे गले लगा लिया, और सम्मान पूर्वक बैठाकर प्रियतम रूप से आत्मा का वर्णन आरम्भ करते हुए कहा--'मैत्रेयी । पति की कामनाओं से स्त्रियों को पति प्रियतम नहीं होता प्रत्युत आत्मा की कामनाओं या प्रयोजनों के लिए प्रियतम होता है । इसी तरह पुरुषों को स्त्रियों की कामनाओं से स्त्रि प्रियतमा नहीं होती वरन् आत्मा की कामनाओं से होती है । हे प्रिये ! यहाँ पर मैंने आत्मा की कामनाओं से प्रियतम या प्रियतमा होने की जो बात कही है, उसे जरा ध्यान देकर समझो, कुछ अटपटी बात है ।
मैत्रेयी बोली--“महर्षे । मेरी समझ में भी यह बात नहीं बैठ रही है । यहाँ आत्मा की कामनाओं से आप का तात्पर्य अपने शरीर की कामनाओं से तो नहीं है । किन्तु आत्मा तो शरीर है नहीं । वह तो एक निराली हो वस्तु है, जिसका कभी नाश नहीं होता शरीर तो क्षण भर में नष्ट होने वाली वस्तु है। मैं जानना चाहती हूँ कि वह आत्मा क्या है ?
याज्ञवलक्य ने दाहिना हाथ उठाकर कहा--मैत्रेयी ! बहुत से लोग आत्मा का मतलब शरीर से समझते हैं, वे मूर्ख यह मानते हैं कि यह शरीर ही आत्मा है और इसी निश्चय पर वे रात दिन पेट पूजा और भोग विलास में लगे रहते हैं। और कुछ कहते हैं कि जब तक शरीर के भीतर जीव है, तभी तक संसार है मरने के बाद कुछ नहीं है, इसलिए यहाँ इसे जितना भी आराम पहुँचाया जा सके, ठीक है । ऐसे लोग परलोक नहीं मानते अर्थात् मरने के बाद आत्मा समाप्त हो जाती है। वे यहीं कहते हैं, और उसी विनश्वर आत्मा के लिए वास्तविक आत्मा का मतलब निकालते हैं। पर बात बिल्कुल दूसरी है। यहाँ आत्मा से मतलब आत्मा के लिए है अर्थात् जिस वस्तु या जिस सम्बन्धी से अपनी आत्मा की उन्नति हो, जिससे आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सके वही सबसे अधिक संसार में प्रिय है । इसीलिए कहां भी गया है कि आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेत्? अर्थात् अपने उद्धार के लिए मनुष्य को यदि पृथ्वी भी छोड़नी पड़े तो छोड़ दे । हे मैत्रेयी ! इस विशाल संसार में जो कुछ भी वस्तुएं हैं वे सब आत्मा की कामनाओं या प्रयोजनों के लिए ही प्रिय हैं। यह अपनी आत्मा ही संसार की समस्त प्रिय वस्तुओं का आधार है, संसार का सारा प्रेम इसी के भीतर छिपा हुआ है, इस लिए वास्तव में यही सब से अधिक दर्शन करने योग्य, श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य और निरन्तर ध्यान करने योग्य है। प्रिये ! इसी के दर्शन, श्रवण, मनन, चिन्तन और साक्षात्कार से संसार में सब कुछ जाना जा सकता है । यही सब से श्रेष्ठ ज्ञान है।
मैत्रेयी आत्मा की इस महान् शक्ति की बाते सुनकर विस्मित हो रही थी । आज तक उसके ध्यान में ब्रह्म का दूसरा ही रूप विराज रहा था। आत्मा को छोड़कर ब्रह्म के पीछे ही उसकी सारी साधना लगी थी । याज्ञवलक्य की इस नवीन व्याख्या से उसकी चिन्तन शक्ति व्याकुल हो गई । बीच ही में हाथ जोड़कर बोल पड़ी--'देव ! आज तक मैंने ब्रह्म ही को संसार में सब का आधार माना था, और संसार की समस्त प्रिय वस्तुओं का आधार भी उसी ब्रह्म में मानती थी और सर्वत्र कण कण में उसी को देखती भी थी। तो क्या इतने दिनों की मेरी सारी साधना निष्फल रही ?
याजववक्य ने कहा--मैत्रेयी! नहीं, तुम्हारी साधना निष्फल नहीं रही । पर आत्मा को छोड़कर बाहरी संसार में जो ब्रह्म के ढूढ़ने का उपक्रम करता है, वह ब्रह्म से दूर हो जाता है। यह आत्मा स्वयं ब्रह्म है और ब्रह्म जगत्स्वरूप है अर्थात् जगत् की समस्त वस्तुएँ ब्रह्म मय हैं इसलिए इसी आत्मा में ही सब जगत् को ढूढ़ना चाहिए । आकाश, पाताल, पृथिवी, पहाड, नदी, नद, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चाण्डाल, वेद, शास्त्र, देव, असुर, अर्थात् सभी चराचर जीव आत्मा है ? अतः जो आत्मा को छोड़कर बाहर इनको ढूढ़ने का प्रयास करता है वह इन सब से दूर हो जाता है । सुनों, इसे उदाहरण देकर समभाते हैं। जैसे --जब ढोल या मृदंग बजाया जाता है तो हम कोई भी उसकी बाहरी आवाज को नहीं पकड़ सकते उसे तभी पकड़ सकते हैं जब कि ढोल या ढोल बजानेवाले को पकड़ लेवे उसी तरह इस आत्मा से ही ऊपर की सभी वस्तुओं का जन्म होता है, जब हम सब के जनक आत्मा को पकड़ेगे तभी सब को पकड सकते हैं। हे प्रिये । जैसे गीले इन्धन से अनेक धाराओं में धूएँ निकलते हैं उसी तरह इस महान् आत्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अन्यान्य विद्याएं, निकलती हैं । उसी को प्राप्त करने के बाद सब की प्राप्ति हो सकती है । मैत्रेयी ने कहा--“महर्षे' । क्या उस आत्मा में इन जीवादिकों की पृथक सता का कोई पता लग सकता है ?
याज्ञवलक्य बोले--'मैत्रेय । जैसे नमक का एक टुकडा पानी में पड़कर उसी में मिल जाता है और उसको पानी से अलग नहीं कर सकते, किन्तु जहाँ कहीं से भी जल को ले उसमें नमक होता ही है, उसी प्रकार इस महान् आत्मा में सब जीवादि मिल जाते हैं, उसके बाद उनका कोई पृथक नामनिशान नहीं रहता । यह आत्मा अनन्त अपार और विज्ञानमय है सभी जीवादि इसी में से निकलते और अन्त में समाविष्ट हो जाते है । मैत्रेयी बोली--'भगवन् ! आप जो यह कह रहे हैं कि सभी जीवादि इस आत्मा में मिलने के बाद अपनी पृथक सत्ता नहीं रखते । उनके नाम निशान सदा के लिए मिट जाते हैं, यह सुनकर में वहुत चकरा गई हूँ, कृपया मुझे ऐसी बातें बतला कर मोहित न करे ।
याज्ञवलक्य ने गम्भीरता से कहा--प्रिये । मैंने तुम्हें मोहित करने के लिए यह सब नहीं कहा है, यह सारी बातें तुम्हें जाननी चाहिएँ । देखो, जब तक मन में इस आत्मा के साथ एकता का भाव नहीं जाग जाता, तभी तक प्राणी अपने से भिन्न एक दूसरे को देखता है, एक दूसरे को समझता है, एक दूसरे को चखता है, एक दूसरे से बोलता है, एक दूसरे की सुनता है, एक दूसरे पर मनन करता है, एक दूसरे को छूता है ओर एक दूसरे को जानता है, पर जहाँ सब में आत्मा का ज्ञान हो जाता है, अर्थात् सब में सर्वोत्तमभाव जाग उठता है, अपने मे एकत्य की धारणा हो जाती है तव संसार की समस्त वस्तुएं आत्मा ही हैं, ऐसी प्रतीति होने लगती है और दूसरे को देखने, सूंघने, चखने बोलने, सुनने, मनन करने, छूने, और जानने का सवाल ही नहीं उठता। हे प्रिये । यह आत्मा सच समझो कि अवर्णनीय है, इसका वर्णन "नेति नेति? अर्थात् यह नहीं, ऐसा नही? कहकर किया जाता है । यह अग्राह्म है अर्थात् इसकों ठीक-ठीक से कोई पकड़ नहीं सकता, यह अशिर्य है, अर्थात् कभी शीर्ण (पुराना) नहीं होता, असंग है, अर्थात् कभी किसी में आसक्त नहीं होता, बन्धन रहित है, अर्थात् कभी दुःखी नहीं होता । यही समझो । आत्मा के सम्बन्ध से इस से बढ़कर ज्ञान प्राप्त करने की तुम्हें कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे लिए मेरा यही उपदेश है और यही सच्ची मुक्ति को प्राप्त करने का महान साधन है
मैत्रेयी महर्षि याज्ञवलक्य के इस उपदेशामृत का पान करके धन्य हो गई । वह अमर बन गई , संसार की व्याधियों का भय उनसे सदा के लिये दूर हो गया। कात्यावनी ख़डी-खड़ी याज्ञवलक्य और मैत्रेयी के इस अट्पटे संबाद को देर से सुन रही थीं; पर उनकी समझ में आतमा की महत्ता का वोध केवल इतना ही हुआ कि घंटों से होने वाली बकझक को बन्द करने के लिये बीच मे रूखे स्वर से बोल पड़ीं--“बहिन । आप को ध्यान नहीं है कि रात हो गई है, और अभी तक कल के लिये तण्डुल का प्रबन्ध नही हुआ ।
याज्ञवलक्य मुसकुराये । मैत्रेयी अनमनी खड़ी रहीं कात्यायिनी को इतनी समझ आ गई, कि भैत्रेयी को कोई उत्तर देता न देख दीवट की आाड से भीतर चली गई । बाहर आश्रम के मृग शावकों की , मण्डली आनन्ददायिनी निर्मेल चांदनी रात का आनन्द लूट रही थी। थोड़ी दूर पर छात्रों की शाला से वेद ध्वनि के सामूहिक अस्फूट स्वर गुंजन बन कर शीतल मंद सुगध पवन के साथ वातावरण को संगीतमय कर रहे थे। याज्ञवलक्य बोले--मैत्रेयी ! कल प्रातः काल ही हमारे आश्रम को सन्यस्त करने की शुभ घड़ी होगी । अब तुम क्या चाहती हो ? ”
मैत्रेयी को अब विकल्प कहाँ था? उसने विनत स्वर में कहा-- 'आराध्यचरण । मैं आप के मार्ग मे कंटक नहीं बनूंगी । मेरी चाह है कि मै पुष्प की एक कली बन कर आप के पावन चरणों की रजसे अपने को धन्य बना लूं। अब मुझे जगत् में कामनाओं की माला गुँथने की आकांक्षा नहीं है। मैं भी वहीं रहूंगी, जहाँ आप के सुखद साहचर्य का अमूल्य क्षण मिलेगा ।
वृहदारण्यक उपनिषद से
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