अष्टाविंशोऽध्यायः
गरुडका अमृतके लिये जाना और अपनी माताकी आज्ञाके अनुसार निषादोंका भक्षण करना
सौतिरुवाच
इत्युक्तो गरुडः सर्पस्ततो मातरमब्रवीत् ।
गच्छाम्यमृतमाहर्तुं भक्ष्यमिच्छामि वेदितुम् ॥१॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-सपोंकी यह बात सुनकर गरुड अपनी मातासे बोले-'माँ! मैं अमृत लानेके लिये जा रहा हूँ, किंतु मेरे लिये भोजन-सामग्री क्या होगी? यह मैं जानना चाहता हूँ ॥१॥
विनतोवाच
समुद्रकुक्षावेकान्ते निषादालयमुत्तमम् ।
निषादानां सहस्राणि तान् भुक्त्वामृतमानय ।।२॥
विनताने कहा-समुद्रके बीचमें एक टापू है, जिसके एकान्त प्रदेशमें निषादों (जीवहिंसकों)-का निवास है। वहाँ सहसों निषाद रहते हैं। उन्हींको मारकर खा लो और अमृत ले आओ ॥२॥
न च ते ब्राह्मणं हन्तुं कार्या बुद्धिः कथंचन।
अवध्यः सर्वभूतानां ब्राह्मणो ह्यनलोपमः ।। ३ ।।
किंतु तुम्हें किसी प्रकार ब्राह्मणको मारनेका विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि ब्राहाण समस्त प्राणियोंके लिये अवध्य है। वह अग्निके समान दाहक होता है ॥३॥
अग्निरों विषं शस्त्रं विप्रो भवति कोपितः ।
गुरुर्हि सर्वभूतानां ब्राह्मणः परिकीर्तितः ।।४।।
कुपित किया हुआ ब्राह्मण अग्नि, सूर्य, विष एवं शस्त्रके समान भयंकर होता है। ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंका गुरु कहा गया है ।।४।।
एवमादिस्वरूपेस्तु सतां वे ब्राह्मणो मतः ।
स ते तात न हन्तव्यः संकुद्रेनापि सर्वथा ॥५॥
इन्हीं रूपोंमें सत्पुरुषोंके लिये ब्राह्मण आदरणीय माना गया है। तात! तुम्हें क्रोध आ जाय तो भी ब्राह्मणकी हत्यासे सर्वथा दूर रहना चाहिये ।। ५ ॥
ब्राह्मणानामभिद्रोहो न कर्तव्यः कथंचन ।
नह्येवमग्निर्नादित्यो भस्म कुर्यात् तथानघ ।।६।।
यथा कुर्यादभिकुद्धो ब्राह्मणः संशितव्रतः ।
पुत्रके प्रति स्नेह होनेके कारण विनताने पुनः इस प्रकार कहा-वह पुत्रके अनुपम बलको जानती थी तो भी नागोंद्वारा ठगी जानेके कारण बड़े भारी दुःखसे आतुर हो गयी थी। अतः अपने पुत्रको प्रेमपूर्वक आशीर्वाद देने लगी ।। १३३ ।।
विनतोवाच
पक्षी ते मारुतः पातु चन्द्रसूर्यो च पृष्ठतः ।। १४ ॥
विनताने कहा-बेटा! वायु तुम्हारे दोनों पंखोंकी रक्षा करें, चन्द्रमा और सूर्य पृष्ठभागका संरक्षण करें ।। १४ ।।
शिरश्च पातु वहिस्ते वसवः सर्वतस्तनुम् ।
अहं च ते सदा पुत्र शान्तिस्वस्तिपरायणा ।।१५।।
इहासीना भविष्यामि स्वस्तिकारे रता सदा।
अरिष्टं व्रज पन्थानं पुत्र कार्यार्थसिद्धये ॥ १६ ॥
अग्निदेव तुम्हारे सिरकी और वसुगण तुम्हारे सम्पूर्ण शरीरकी सब ओरसे रक्षा करें। पुत्र! मैं भी तुम्हारे लिये शान्ति एवं कल्याणसाधक कर्ममें संलग्न हो यहाँ निरन्तर कुशल मनाती रहूंगी। वत्स! तुम्हारा मार्ग विघ्नरहित हो, तुम अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये यात्रा करो ।। १५-१६ ।।
सोतिरुवाच
ततः स मातुर्वचनं निशम्यवितत्य पक्षी नभ उत्पपात ।
ततो निषादान बलवानुपागतो बुभुक्षितः काल इवान्तकोऽपरः ॥ १७ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं-शौनकादि महर्षियो! माताकी बात सुनकर महाबली गरुड पंख पसारकर आकाशमें उड़ गये तथा क्षुधातुर काल या दूसरे यमराजकी भाँति उन निषादोंके पास जा पहुँचे ।। १० ॥
स तान् निषादानुपसंहरंस्तदारजः समुद्भूय नभःस्पृशं महत् ।
समुद्रकुक्षी च विशोषयन् पयःसमीपजान् भूधरजान् विचालयन् ।। १८ ॥
उन निषादोंका संहार करनेके लिये उन्होंने उस समय इतनी अधिक धूल उड़ायी, जो पृथ्वीसे आकाशतक छा गयी। वहाँ समुद्रकी कुक्षिमें जो जल था, उसका शोषण करके उन्होंने समीपवर्ती पर्वतीय वृक्षोंको भी विकम्पित कर दिया ।। १८ ।।
ततः स चक्रे महदाननं तदा निषादमार्ग प्रतिरुध्य पक्षिराट् ।
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