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सांख्यदर्शन कपिलमुनी कृत अध्याय 5 भाष्यकार स्वामी दर्शनानंद सरस्वती

 सूत्र :मङ्गलाचरणं शिष्टाचारात्फलदर्शनाच्छ्रुतितश्चेति II5/1

सूत्र संख्या :1


अर्थ : महर्षि कपिल जी ने अपने शास्त्र का सिद्धान्त मुक्ति के साधनों के सम्बन्ध में पहिले चार अध्यायों में विस्तारपूर्वक वर्णंन किया, अब इस अध्याय में वादी प्रतिवादी रूप से जो शास्त्र में सूक्ष्मतापूर्वक कही हुई बातें हैं, उनका प्रकाश करेंगे। कोईवादी शंका करता है, कि मंगलाचरण करना व्यर्थ है, इस विषय को हेतुगर्भित वाक्यों में प्रतिपादन करते हैं। ।।१।। अर्थ- मंगलाचरण करना अवश्य चाहिए क्योंकि शिष्टजनों का यही आचार है और प्रत्यक्ष में भी यह फल दीखता है। जो उत्तम आवरण करता हैं, यही सुख भोगता है। ‘अहरहः सन्ध्यामुपासीत, अहरहोऽग्निहोत्र जूहूयात्। रोज-रोज सन्धा करनी चाहिए, रोज-रोज अग्निहोत्र करना चाहिए, इत्यादि श्रुतियां भी अच्छे ही आचरणों को कहती हैं। बहुतेरे मनुष्य मंगलाचरण का यह अर्थ समझते हैं कि जब नये ग्रन्थ की रचना की जाय, तब उस मंगलाचरण का वैसा अर्थ नहीं हो सकता, दूसरे यदि ग्रन्थ के आदि में मंगल किया तो अन्यत्र अमंगल होगा, तीसरे कादम्बर्यादि ग्रन्थों में मंगल के होने पर भी उनकी निर्विघन समाप्ति नहीं हुई, इस वास्ते ऐसा बनना किस प्रकार श्रेष्ठ नहीं। इस विषय को संक्षेपतः लिखा है, इसका विस्तार बहुत है। अन्य ग्रन्थ में कर्म का फल आप होता है, इस पक्ष का खण्डन करते हैं।


सूत्र :नेश्वराधिष्ठिते फलनि-ष्पत्तिः कर्मणा तत्सिद्धेः II5/2

सूत्र संख्या :2


अर्थ : केवल ईश्वर का नाम लेने से अर्थात् मंगलाचरण से फल नहीं मिल सकता किन्तु उसका हेतु कर्म है, जिसके होने से ईश्वर फल देता है, यदि कहो बिना कर्म के ईश्वर फल देता है।


सूत्र :स्वोपकारादधिष्ठानं लोकवत् II5/3

सूत्र संख्या :3


अर्थ : जैसे कि संसार में दीखता हैं, पुरूष अपने उपकार के वास्ते कर्मों का फल देने वाला एक भिन्न नियुक्त करता है, इसी तरह ईश्वर भी सबके कर्म फल देने के वास्ते एक अधिष्ठान है।


सूत्र :लौकि-केश्वरवदितरथा II5/4

सूत्र संख्या :4


अर्थ : यदि ईश्वर को सब कर्मों का फल देने वाला न माना जाय तो लौकिक ईश्वर की तरह भिन्न-भिन्न कर्मों के फल देने वाले भिन्न भिन्न ईश्वर मानने पड़ेगे जैसे-संसार में जज, कलक्टर इत्यादिक भिन्न-भिन्न कर्मों के फल देने वाले भिन्न-भिन्न ईश्वर हैं लेकिन इन लौकिक ईश्वरों में भ्रम, प्रमाद इत्यादि दोष दीखते हैं। यही दोष उस ईश्वर में दीख पड़ेगे। इस वास्ते ऐसा मानना योग्य नहीं कि कर्म का फल ईश्वर नहीं देता।


सूत्र :पारिभाषिको वा II5/5

सूत्र संख्या :5


अर्थ : कर्म का फल अपने आप होता है, ऐसा मानने से एक द्वेष और भी प्राप्त होता है, वह दोष यह है कि ईश्वर केवल नाम मात्र ही रह जायेगा, क्योंकि कर्मों का फल तो आप ही हो जाता है, फिर ईश्वर की क्या आवश्यकता रही। और ईश्वर के नाममात्र ही रह जाने में यह भी दोष होगा कि वर्तमान संसार की सिद्धि भी न हो सकेगी।


सूत्र :न रागादृते तत्सिद्धिः प्रतिनि-यतकारणत्वात् II5/6

सूत्र संख्या :6


अर्थ : ईश्वर सृष्टि की सिद्धि में प्रतिनियत कारण है, उसके बिना केवल राग से अर्थात् प्रकृति महादादिकों से संसार की सिद्धि नहीं हो सकती। प्रश्न- ईश्वर, जीव रूपधारी प्रकृति का संगी है, और उसमें प्रकृति के संयोग होने से रागादिक भी हैं?


सूत्र :तद्योगेऽपि न नित्यमुक्तः II5/7

सूत्र संख्या :7


अर्थ : तुम्हारा यह कथन सत्य नहीं, क्योंकि ईश्वर नित्य मुक्त न रहेगा अर्थात् जैसे जीव प्रकृति के संगी होने से अनित्य मुक्त हैं, इसी तरह ईश्वर को भी मानना पड़ेगा। और जो लोग इस तरह ईश्वर को मानते हैं, उनका ईश्वर भी संसार के जीवों के साथ अनित्य मुक्त होगा। यदि ऐसा कहा जाये कि ईश्वर से संसार बना है अर्थात् ईश्वर उपादान कारण है, सो भी सत्य नहीं।


सूत्र :प्रधानशक्तियोगाच्चेत्सङ्गापत्तिः II5/8

सूत्र संख्या :8


अर्थ : यदि ईश्वर को प्रधान शक्ति का योग हो, तो पुरूष में संगापत्ति हो जाए अर्थात् जैसे प्रकृति सूक्ष्म से मिलकर कार्यरूप में संगत हुई हैं, वैसे ईश्वर भी स्थूल हो जाय, इस वास्ते ईश्वर जगत् उपादान कारण नहीं हो सकता, किन्तु निमित्त कारण है।


सूत्र :सत्तामात्राच्चेत्सर्वैश्वर्यम् II5/9

सूत्र संख्या :9


अर्थ : अगर चेतन से जगत् की उत्पत्ति है, तो जिस प्राकर परमेश्वर सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त है, इसी तरह सब संसार भी सम्पूर्ण ऐश्वर्यों सें युक्त होना चाहिए, लेकिन संसार में यह बात नहीं दीखती, इस हेतु से भी परमेश्वर जगत् का उपादान कारण सिद्ध नहीं होता किन्तु निमित्त कारण की सिद्ध होता है और भी इस विषय का पुष्टिकारक यह सूत्र है-


सूत्र :प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः II5/10

सूत्र संख्या :10


अर्थ : ईश्वर संसार का उपादान कारण है इसमें कोई प्रमाण नहीं है, इस वास्ते उसकी सिद्धि नहीं हो सकती।


सूत्र :सम्बन्धाभा-वान्नानुमानम् II5/11

सूत्र संख्या :11


अर्थ : जबकि ईश्वर का संसार से उपादान कारण रूप सम्बन्ध ही नहीं है, तब ऐसा अनुमान करना कि ईश्वर हो से जगत् उत्पन्न हुआ है व्यर्थ है।


सूत्र :श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य II5/12

सूत्र संख्या :12


अर्थ : जगत् का उपादान कारण प्रकृति ही है इस बात को श्रुतियां भी कहती हैं। ‘अजामेको लोहितशुक्लकृष्ण बहृीः प्रजा सृजमानां स्वरूपः’ यह श्वेताश्वेतर उपनिषद् का वाक्य है, इसका यह अर्थ है कि जो जन्म रहित, सत्व, रज, तमोगुण रूप प्रकृति है वही स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् परिणामिनी होने से अवस्थान्तर हो जाती है और ईश्वर अपरिणामी और असंगी है। कोई ऐसा मानते हैं कि ईश्वर को अवद्या को अविद्या संग होने में वन्धन में पड़ता है, और उसी के योग से यह संसार है, इस मत का खंडन करते हैं।


सूत्र :नाविद्याशक्तियोगो निः-सङ्गस्य II5/13

सूत्र संख्या :13


अर्थ : ईश्वर निःसंग है, इस वास्ते उस ईश्वर को अविद्याशक्ति का योग नहीं हो सकता।


सूत्र :तद्योगे तत्सिद्धावन्योन्याश्रयत्वम् II5/14

सूत्र संख्या :14


अर्थ : यदि अविद्या के योग से संसार की सिद्धि मानी जाय, तो अन्योन्याधयत्व दोष प्राप्त होता है क्योंकि बिना ईश्वर के अविद्या संसार को नहीं कर सकती और ईश्वर बिना अविद्या के संसार नहीं बना सकता, यही दोष हुआ। यदि अविद्या और ईश्वर इन दोनों को एक कालिक (एक समय में होने वाले) अनादि मानें, जैसे बीज और अंकुर को मानते हैं, तो भी सत्य नहीं, क्योंकिः-


सूत्र :न बीजान्नरवत्सादि-संसारश्रुतेः II5/15

सूत्र संख्या :15


अर्थ : बीज और अंकुर के समान अविद्या और ईश्वर को मानें तो यह दोष प्राप्त होता है। ‘‘सदेव सोम्येदमग्र आसीत् एकमेवा-द्वितीयं ब्रह्य।’’ हे सौम्य! पहले यह जगत् सत् ही था एक ही अद्वितीय ईश्वर है, इत्यादि श्रुतियां एक ही ईश्वर को प्रतिपादन करती हैं और जगत् को सादि और ईश्वर को अद्वितीय कहती हैं। अगर उसके साथ अविद्या का झगड़ा लगाया जावे तो उक्त श्रुतियों से विरोध हो जायगा। यदि ऐसा कहा जाय कि हमारी अविद्या योग शास्त्र की-सी नहीं है किन्तु जैसे आपके मत में प्रकृति है, वेसी ही हमारे मत में अविद्या है, तो यह मत भी सत्य नहीं है।


सूत्र :विद्यातोऽन्यत्वे ब्रह्मबाधप्रसङ्गः II5/16

सूत्र संख्या :16


अर्थ : यदि विद्या से अतिरिक्त पदार्थ का नाम अविद्या है, अर्थात् विद्या का नाश करने वाली अविद्या है, तो ब्रह्य का भी अवश्य नाश करेगी, क्योंकि वह भी विद्यामय है, और इस सूत्र का यह भी अर्थ है। यदि अविद्या विद्यारूप ब्रह्य से अतिरिक्त है और उसको विविध (अनेक प्रकार का परिच्छेद रहित ब्रह्य में माना जाता है, और ब्रह्य अविद्या से अन्य अर्थात् दूसरा अविद्या ब्रह्य से अन्य है तो ब्रह्य के परिच्छेद तत्त्व में बाधा पड़ेगी, इस वास्ते ऐसा मानना सत्य नहीं। उत्तर- अविद्या का किसी से बाध हो सकता है, या नहीं? इसका ही विचार करते हैः-


सूत्र :अबाधे नैष्फल्यम् II5/17

सूत्र संख्या :17


अर्थ : उस अविद्या का अगर किसी से बाध नहीं हो सकता तो मुक्ति आदि के लिये विद्या प्राप्ति का उपाय निष्फल है।


सूत्र :विद्याबाध्यत्वे जगतोऽप्येवम् II5/18

सूत्र संख्या :18


अर्थ : यदि विद्या से अविद्या का बाघ हो जाता है, तो अविद्या से उत्पन्न हुए जगत् का भी बाध होना चाहिए।


सूत्र :तद्रूपत्वे सादित्वम् II5/19

सूत्र संख्या :19


अर्थ : यदि अविद्या को जगत् रूप मानें अर्थात् जगत् ही अविद्या है, अविद्या में सादिपना आ जाता है, क्योंकि जगत् सादि है। इस वास्ते अविद्या कोई वस्तु नहीं है, उसी के बुद्धिवृत्ति का नाम अविद्या है, जो महर्षि पतंजलि ने कही है। और इस विषय में यह भी विचार होता, कि जब कपिलाचार्य के मत में सम्पूण कार्यों की विचित्रता का हेतु प्रकृति है, और वही प्रकृति सुख दुःखादिक का हेतु है, तो धर्माधर्म के मानने की क्या आवश्यकता है। अब इसी पर विचार करके धर्म की सिद्धि करते हैं।


सूत्र :न धर्मापलापः प्रकृतिकार्यवैचित्र्यात् II5/20

सूत्र संख्या :20


अर्थ : प्रकृति के कार्यों की विचित्रता से धर्म का अपलाप (दूर होना) नहीं हो सकता, क्योंकिः-


सूत्र :श्रुतिलिङ्गादिभिस्तत्सिद्धिः II5/21

सूत्र संख्या :21


अर्थ : उसकी सिद्धि श्रुति और योगिकों के प्रत्यक्ष से हो सकती है। ‘‘पुण्यों वै पुण्येन भवति पापः पापेन’’ पुण्य निश्चित करके पुण्य से होता है, और यह भी निश्चय है पाप, पाप से ही उत्पन्न होता है इत्यादि श्रुतियां भी धर्मं के फल को कहती हैं, इस वास्ते धर्मं पर अपलाप नहीं हो सकता। प्रश्न- धर्म में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, इस वास्ते उसकी सिद्धि नहीं हो सकती?।


सूत्र :न नियमः प्रमाणान्तरावकाशात् II5/22

सूत्र संख्या :22


अर्थ : धर्म की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही हो, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि अनेक प्रमाण हैं और प्रत्यक्ष प्रमाण के सिवाय और प्रमाणों से भी पदार्थ की सिद्धि होती है। प्रश्न- धर्म की तो सिद्धि इस तरह कर ली गई, लेकिन अधर्म की तो सिद्धि किसी प्रमाण से नही हो सकती?


सूत्र :उभयत्राप्येवम् II5/23

सूत्र संख्या :23


अर्थ : जैसे धर्म की सिद्धि में प्रमाण पाये जाते हैं इसी तरह अधर्म की सिद्धि में भी प्रमाण पाए जाते हैं।


सूत्र :अर्थात्सिद्धिश्चेत्समानमुभयोः II5/24

सूत्र संख्या :24


अर्थ : वेदानि सत् शास्त्रों में जिस बात की विधि पाई जाती है वही धर्म है, और इसके सिवाय अधर्म है। यदि इस प्रकार की अर्थापत्तिर निकाली जाय, तो भी ठीक नहीं क्योंकि श्रुति आदिकों में जिस प्रकार धर्म की विधियों का वर्णन है, उस ही प्रकार अधर्म का विरोधियों का वर्णन हैं, उस ही प्रकार अधर्म का निषेध भी है, जैसे-‘परदारान्न गच्छेत्’ पराई स्त्री के समीप गमन न करे, इस तरह के वाक्य धर्माधर्म दोनों के विषय में ही निषेध और विधिरूप से बराबर पाए जाते हैं। प्रश्न- यदि धर्मादि को आप मानते हैं, तो पुरूष को धर्म वाला मानकर पुरूष में परिणामित्व प्राप्त होता है?


सूत्र :अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् II5/25

सूत्र संख्या :25


अर्थ : धर्मादिक अन्तःकरण के धर्म हैं अर्थात् इस धर्मादिकों का सम्बन्ध अन्तःकरण से है, जीव से नहीं है, और इस सूत्र में जो आदि शब्द है, उसके कहने से वैशेषिक शास्त्र के आचार्यों ने जो आत्मा के विशेष गुण माने हैं, उनका ग्रहण माना गया है अर्थात् वही आत्मा के विशेष गुण जाने गए हैं। प्रलयावस्था में तो अन्तःकरण रहता ही नहीं, तब धर्मादिक कहां रहते हैं। ऐसा तर्क नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि आकाश के समान अन्तःकरण भी नाश रहित है, अर्थात् अन्त-करण का नाश सिवाय मुक्ति के कदापि नहीं होता और इस बात को पहले कह भी चुके हैं कि अन्तःकरण कार्यंकारणभाव दोनों रूप को धारण करता है। इससे अन्तःकरण रूप जो प्रकृति का विशेष अंश है, उसमें धर्मं अधर्मं दोनों के संस्कार रहते हैं। इस बात को ही किसी कवि ने भी कहा है, कि धर्म नित्य है और सुख दुःखादि सब अनित्य हैं। इस विषय में यह सन्देह भी उत्पन्न होता है कि प्रकृति के कार्यों की विचित्रता से जो धर्मं अधर्मं आदि की सिद्धि की गई है वह सत्य नहीं क्योंकि प्रकृति तो त्रिगुणात्मक अर्थात् रजोगुण, तमोगुण, सत्वगुण, इससे युक्त है, और इसके कार्यों का बोध इन श्रुतियों से प्रत्यक्ष मालूम पड़ता है। ‘‘वाचारम्भण विकासे नामधेयं मृत्तिकेत्वेव सत्यम्’’ घट-पट आदि सब कहने मात्र को ही हैं, केवल मृत्तिका (मिट्टी) ही सत्य है। इस वास्ते प्रकृति के गुण मानना सत्य नहीं, इस पक्ष के खण्डन में यह सूत्र हैः-


सूत्र :गुणादीनां च नात्यन्तबाधः II5/26

सूत्र संख्या :26


अर्थ : गुण जो सत्वादिक अर्थात् सत्व, रज, तम, उनके धर्मं जो सुखादिक और उनके कार्य जो महदादिक हैं, उनका स्वरूप से बाध नहीं है, अर्थात् स्वरूप से नाश नहीं होता, किन्तु संसर्गं से बाध होता है, जैसे- आग के संसर्गं से जल की स्वाभाविक शीतलता का बोध होता है, परन्तु उसके स्परूप का बोध नहीं होता, इसी तरह प्रकृति के गुणों का भी वाध्य नही होता।


सूत्र :पञ्चावयवयोगात्सुखसंवित्तिः II5/27

सूत्र संख्या :27


अर्थ : सुखादि पदार्थों की सिद्धि पंचावयव वाक्य से होती है, जिय तरह न्यायशास्त्र में मानी गई है। इस कारण जब सुख आदि की सिद्धि न्यायशास्त्र के अनुसार मान ली जाती है, तब उसका स्वरूप से नाश भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि तब पदार्थ सत् है, उसका नाश नहीं हो सकता और उस पंचावयव वाक्य से सुखादि की संवित्ति इस तरह होती है कि इस तरह कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इन पांचों को सुख में इस तरह लगाना चाहिए कि सुख सत् है, इसका नाम प्रतिज्ञा की क्रियाओं का कर्ता है, उसी तरह इसका नाम भी दृष्टांत हैं। पुलकन (रूंओं का खड़ा होना) आदि प्रयोजन की क्रिया सुख में है। इसका नाम उपनयन है, इस वास्ते वह सच्चा है, यह निगमन है। यहां केवल सुख का ग्रहण करना नाम मात्र ही है इसी तरह और गुणों का स्वरूप से नाश नही होता। इस जगह आचार्य ने न्याय का विषय इस वास्ते वर्णन किया है कि इन पाँच बातों के बिना किसी झूठे-सच्चे पदार्थ का निश्चय नहीं हो सकता और जो इस पंचावयव से सिद्ध नहीं हो सकता उसमें अनुमान करना भी सत्य नहीं और नास्तिक जो कि प्रत्यक्ष के सिवाय और प्रमाणें को नहीं मानना और आशय से अट्ठाईसवे सूत्र से दोष और अनुमान को असंगत बतलाता है।


सूत्र :न सकृद्ग्रहणात्सम्बन्धसिद्धिः II5/28

सूत्र संख्या :28


अर्थ : जहां धुंआ होगा, वहां अग्नि भी होगी। इस साहचर्य के स्वीकार से व्याप्तिरूपी सम्बन्ध की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि आग में धुंआ सदा नही रहता और जो रसोई का दृष्टांत दिया जाता हैं, वह भी सत्य नहीं है, क्योंकि किसी जगह अग्नि और घोड़ा इन दोनों का किसी आदमी ने देखा, अब दूसरी जगह उसको घोड़ा नजर पड़ा तब वह ऐसा अनुमान नहीं कर सकता कि यहां अग्नि भी होगी। क्योंकि घोड़ा दीखता है। ऐसे ही अग्नि और घोड़ा मैने वहां भी देखा था। बस इस पूर्वपक्ष से नैयायिक जैसा अनुमान करते हैं वह अयुक्त सिद्ध हुआ और प्रत्यक्ष को ही मानने वाले चाबकि नास्तिक के मन की पुष्टि हुई। इसका यह उत्तर हैः-


सूत्र :नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्तिः II5/29

सूत्र संख्या :29


अर्थ : जिन दो पदार्थों का व्याप्य-व्यापक भाव होता है, उन दोनों पदार्थों में से एक का अथवा दोनों का जो नियत धर्म है उसके साहित्य (साथ रहने के नियम) होने को व्याप्ति कहते हैं विशेष व्याख्या इस तरह है कि जैसे पहाड़ पर आग है क्योंकि धुंआ दीखता है। जहां-जहां धुंआ होता है, वहीं-वहीं आग भी अवश्य होती है। इसका नाम ही व्याप्ति है। इससे यह जानना चाहिए कि धुंआ बिना आग के नही रह सकता, परन्तु आग बिना धुंए के रह सकती है, इससे सिद्ध हुआ कि धुंए का आग के साथ रहना नियत धर्म-साहित्य है, परन्तु एक नियत धर्म साहित्य हुआ। चार्वाक ने जो अग्नि घोड़े का दृष्टांत देकर व्याप्ति का खण्डन किया था, वह भी सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि घोड़ो तो सैकड़ों जगह बिना अग्नि के दीखने में आता है और आग को बिना घोड़े के देखते हैं, इस वास्ते वह साहचर्यं नही रहा अतएव वह सब आयुक्त सिद्ध हो गया। अब रहा दोनों का नियत धर्म साहित्य वह गन्ध और पृथ्वी में मिलता है अर्थात् जहां पृथ्वी भीं अवश्य होगी। इन दोनों में से बिना एक नहीं रह सकता है।


सूत्र :न तत्त्वान्तरं वस्तुक-ल्पनाप्रसक्तेः II5/30

सूत्र संख्या :30


अर्थ : पहिले सूत्र में जो व्याप्ति का लक्षण किया गया है, उसके सिवाय किसी और पदार्थ का नाम व्याप्ति नहीं हो सकता क्योंकि इस प्रकार अनेक तरह की व्याप्ति मानने में एक नया पदार्थ कल्पना करना पड़ेगा। इस वास्ते व्याप्ति का वही लक्षण सत्य है जो पहिले सूत्र में किया गया है।


सूत्र :निजशक्त्युद्भवमित्याचार्याः II5/31

सूत्र संख्या :31


अर्थ : जो व्याप्ति की शक्ति से उत्पन्न किसी विशेष शक्ति का रूप हो, वही व्याप्ति आचार्यों के मत में मानने लालय है। इस सूत्र का आशय इस दृष्टांत से समझना चाहिए कि व्याप्त जो अग्नि है, उसकी ही शक्ति से धुंआ उत्पन्न होता है और वह धुँआ आग की किसी विशेष शक्ति का रूप है। इसी तरह के पदार्थ को व्याप्ति कहते हैं, और जिसमें यह बात नहीं है, वह व्याप्ति प्रकार नहीं हो सकती।


सूत्र :आधेयशक्तियोग इति पञ्चशिखः II5/32

सूत्र संख्या :32


अर्थ : आधार में जो आधेय शक्ति रहती है, उसकों ही पंचशिख नाम वाले आचार्य व्यप्ति मानते हैं। इसका आशय भी दृष्टान्त से समझ लेना चाहिए कि आधार जो आग है, उसमें आधेय जो धुआं, उसके रहने की जो शक्ति है, उसको व्याप्ति कहते है।


सूत्र :न स्वरूपशक्तिर्नियमः पुनर्वादप्रसक्तेः II5/33

सूत्र संख्या :33


अर्थ : व्याप्य की स्वरूप्शक्ति को नियम अर्थात् व्याप्ति नहीं मान सकते, क्योकि उसमें फिर झगड़ा पड़ने का भय है। अब उस झगड़े को लिखते हैं जिसका भय हैं-


सूत्र :विशेषणा-नर्थक्यप्रसक्तेः II5/34

सूत्र संख्या :34


अर्थ : विशषेण देना व्यर्थ हो जोयेगा, जैसे कहा गया है कि बहुत धुएं वाली आग है। इस वाक्य में शब्द विशेषण है और धुआँ विशेषण है, इसी तरह धुआं आधेय है और आग आधार है। यदि धुएं को अग्नि की स्वरूप शक्ति मान लें तो बहुत शब्द को क्या मानें, क्योंकि उस ‘बहुत’ शब्द को अग्नि की स्वरूप शक्ति नहीं मान सकते और वाक्य के साथ होने से वह वह शब्द अपना कुछ अर्थ भी अवश्य ही रखता है एवं उस अर्थ से स्वरूपशक्ति में न्यूनाधिकता भी अवश्य हो जाती है, तो उसको भी कुछ अवश्य मानना चाहिये। यदि न माना जायेगा, तो उसका उच्चारण करना व्यर्थ हुआ जाता है और महात्माओं के अक्षर व्यर्थ नहीं होते और भी दूसरा झगड़ा प्राप्त होता हैं किः-


सूत्र :पल्लवादिष्वनुपपत्तेश्च II5/35

सूत्र संख्या :35


अर्थ : जैसे कि पत्तों का आधार पेड़ है, और व्याप्ति का लक्षण स्वरूपशक्ति मानकर वृक्ष की शक्तिस्वरूप जो पत्ते हैं, वही व्याप्तिः के कहने से ग्रहण हो सकते हैं। इस प्रकार मानने में यह दोष रहेगा कि जैसे वृक्ष की स्वरूपशक्ति पत्तों को मान लिया और वही व्याप्ति भी हो गई तो पत्तों के टूटने पर व्याप्ति का भी नाश मानना पड़ेगा। यदि व्याप्ति का नाश माना जायेगा, तो बड़ा भारी झगड़ा उत्पन्न हो जायेगा, और प्रत्यक्ष्वादी चार्वाक नास्तिक का मत पुष्ट हो जायेगा इस वास्ते ऐसा न मानना चाहिए कि आधार की स्वरूपशक्ति का ही नाम व्याप्ति है। अब इस बात का निश्चय करते हैं कि आचार्य और पंचशिख नामक आचार्य के मत में भेद है या नहीं। क्योंकि पंचशिख नामवाला आचार्य तो आधार (आग) में आधंय (धुवें) की शक्ति होने को व्याप्ति मानना है। और आचार्य मुनि कपिल जी व्यात्त आग की शक्ति से उत्पन्न हुई किसी विशेष शक्ति को दूसरा पदार्थ मानकर उसको व्याप्ति मानते हैं। इन दोनों में से कौन सत्य है?


सूत्र :आधेयशक्तिसिद्धौ निज-शक्तियोगः समानन्यायात् II5/36

सूत्र संख्या :36


अर्थ : समान न्याय अर्थात् बराबर युक्ति होने से जैसे कि आधेय-शक्ति की सिद्धि होती है, वैसे ही निज शक्ति योग की, यह आचार्यों का मत भी सत्य है। दोनों में से कोई भी युक्तिहीन नहीं मानते हैं। यह व्याप्ति का झगड़ा केवल इसी वास्ते उत्पन्न किया गया था कि गुण आदि स्वरूप से नाशवान् नहीं हैं। इस पक्ष् की पुष्टि करने के वास्ते आचार्य को अनूमान प्रमाण की आवश्यकता हुई और वह अनुमान प्रमाण पंचावयव के बिना नहीं हो सकता था, इस वास्ते उसको लिखना पड़ा। इसी निश्चय में पंचावमव के अन्तर्गत एक साहचर्यं नियम जिसका दूसरा नाम व्याप्ति जान पड़ा उसका प्रकाश करने के वास्ते यह कहकर अपने पक्ष को पुष्ट कर लिया। अब इससे आगे पंचावयव रूप शब्द को ज्ञान की अत्पत्ति में हेतु सिद्ध करने के वास्ते शब्द की शक्तियों का प्रकाश करके उस शब्द-प्रमाण में बाधा डालने वालों के मत का खण्डन करते हैं।


सूत्र :वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः शब्दार्थयोः II5/37

सूत्र संख्या :37


अर्थ : शब्द के अर्थ में वाच्यता-शक्ति रहती है और शब्दमें वाचकता-शक्ति रहा करती है, इसको ही शब्द और अर्थ का वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध कहते हैं अर्थात् शब्द अर्थ को कहा करते हैं, और अर्थ शब्द से कहा जाता है। यही इन शब्दार्थों का सम्बन्ध हैं। उस वाच्य वाचकतारूप शक्ति को कहते हैं।


सूत्र :त्रिभिः सम्बन्धसिद्धिः II5/38

सूत्र संख्या :38


अर्थ : पहिले कहे हुए सम्बन्ध की सिद्धि तीन तरह से होती है- एक तो आप्त के उपदेश से दूसरे वृद्धों के व्यवहार से, तीसरे संसार में जो प्रसिद्ध बर्ताव में आने वाले पद हैं, उनके देखने से। इन ही तीन तरह के शब्द का वाच्य-वाचकभाव होता है। उसको इस तरह समझना चाहिये कि आप्तों के द्वारा ऐसे शब्दों का ज्ञान होता है, जैसे ईश्वर निराकार सत्-चित् आनन्दस्वरूप है। जब ईश्वर शब्द कहा जावेगा, तब पूर्वोंक्त विशेषण वाले पदार्थ का ज्ञान होगा और वृद्धों के व्यवहार से मालूम होता है कि जिसके सास्ना (गौ के कन्धों के नीचे जो लम्बी-सी खाल लटकती है) और लांगूल (पूँछ) होती है, उसको गौ कहते हैं। ऐसा ज्ञान हो जाने पर जब-जब गौ शब्द का उच्चारण होगा, तब-तब उसी अर्थ का ज्ञान हो जाएगा और प्रसिद्ध शब्दों का व्यावहार इस तरह है, कि जैसे कपित्थ एक वृक्ष का नाम है, वह क्यों कपित्य शब्द से प्रतिद्ध है? इस प्रकार का तर्क न करना चाहिए, क्योंकि लोक प्रसिद्ध होने के कारण कपत्थि शब्द कहने से कपित्थ (कैथ) का ही ग्रहण होता है।


सूत्र :न कार्ये नियम उभयथा दर्शनात् II5/39

सूत्र संख्या :39


अर्थ : यह कोई नियम नहीं है कि शब्द -शक्ति का वाच्य-वाचकभाव कार्य में ही हो, और जगह नहीं, क्योंकि दोनों तरह शब्द की शक्तियों का ग्रहण दीखता है। शास्त्रों में जैसे वृद्ध ने बालक से कहा ‘‘गौ को लाओं’’ इस वाक्य के कहने से गौ का लाना यह कार्य दीखता है और शब्द भी उस कार्य को ही दिखलाते हैं और तेरे पुत्र का उत्पन्न होना यह जो क्रिया है वह पहले ही हो चुकी और वाक्य उस बीती हुई क्रिया को कहता हैं, इस वास्ते यह नियम नहीं कि कार्य में ही शब्द और सम्बन्ध हो। प्रश्न- यह उपरोक्त प्रतीति लौकिक बातों में हो सकती है, क्योंकि संसार में बहुधा कार्यं शब्दों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु वेद में जो शब्द है, उनके अर्थ का ज्ञान कैसे होता है? क्योंकि शब्द कार्य नहीं है।


सूत्र :लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीतिः II5/40

सूत्र संख्या :40


अर्थ : जो मनुष्य सांसारिक कार्यों में चतुर होते हैं, वही वेद को यथार्थ रीति से जान सकते हैं, क्योंकि ऐसा कोई भी लोक का हितकारी कार्य नहीं है, जो वेद में न हो, इस वास्ते वेद में विज्ञता उत्पन्न करने के अर्थ साँसारिक जीवों को योग्यता प्राप्त करनी चाहिए और शब्दों की शक्ति लोक और वेद इन दोनों में बराबर है। इस विषय पर नास्तिक शंका करते हैं।


सूत्र :न त्रिभिरपौरुषेयत्वाद्वेदस्य तदर्थस्या-तीन्द्रियत्वात् II5/41

सूत्र संख्या :41


अर्थ : आपने जो तीन प्रमाण दिए उन प्रमाणें से वेद के अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती क्योंकि मनुष्य-मनुष्य की बात को समझ सकता है, परन्तु वेद अपौरूषेय है, इस वास्ते उसका अर्थ इन्द्रियों से ज्ञात नहीं हो सकता क्योंकि वह वेद अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों की शक्ति से बाहर है। इसका समाधान करने के वास्ते पहले इस बात को सिद्ध करते हैं कि वेदों का अर्थ प्रत्यक्ष देखने में आता है, अतीन्द्रिय नहीं है।


सूत्र :न यज्ञादेः स्वरूपतो धर्मत्वं वैशिष्ट्यात् II5/42

सूत्र संख्या :42


अर्थ : वेद के अर्थ को जो अतीन्द्रिय (इन्द्रियों से न जाना जाए) कहा सो सत्य नहीं। वेद से जो इत्यादि किये जाते हैं, और इन यज्ञादिकों में जो-जो काम किये जाते हैं, वे सब स्वरूप से ही कर्म है, क्योंकि उन यज्ञादि कों का फल प्रत्यक्ष में दीखता है, जैसे-‘‘यज्ञाद् भवति पर्जंन्यः पर्जंन्यादन्सम्भवः’’। यज्ञ से मेघ होता है, और मेघ होने से अन्य उत्पन्न होता है इत्यादि वाक्य गीता में मिलते हैं । प्रश्न- जबकि वेद अपौरूषमेय है तब उनका अर्थ कैसे ज्ञात होता है?


सूत्र :निजशक्ति-र्व्युत्पत्त्या व्यवच्छिद्यते II5/43

सूत्र संख्या :43


अर्थ : शब्द का अर्थ होना यह शब्द की स्वाभाविकी शक्ति है, और विद्वानों की परम्परा से वह शक्ति वेद के अर्थों में भी चली आती है, और उसी व्युत्पत्ति से वृद्ध लोग शिष्यों को उपदेश करते चले आये हैं कि इस शब्द का ऐसा अर्थ है और जो ऐसा कहते हैं कि वेदों का अर्थ प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु अतीन्द्रिय है, और उसका समाधान है।


सूत्र :योग्यायोग्येषु प्रतीतिजनकत्वात्तत्सिद्धिः II5/44

सूत्र संख्या :44


अर्थ : ब्रह्मर्चादि जिन-जिन कार्यों को वेद ने अच्छा कहा है और हिंसादि जिन-जिन कार्यों को बुरा कहा हैं, उनकी प्रतीति प्रत्यक्ष में दीखती है अर्थात् इन दोनों कार्यों का जैसा फल वेद में लिखा है वैसा ही दीखने में आता है। इससे बात की सिद्धि हो गई कि वेद का अर्थ अतीतिन्द्रय नहीं है।


सूत्र :न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुतेः II5/45

सूत्र संख्या :45


अर्थ : वेद नित्य नहीं हैं, क्योंकि श्रुतियों से मालूम होता है कि ‘‘तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे’’ उस यज्ञरूप परमात्मा से ऋग्वेद, सामवेद उत्पन्न हुए इत्यादि श्रुतियां पुकार-पुकार कह रही हैं कि वेद उत्पन्न हुए। जब ऐसा सिद्ध हो गया, तो यह बात निश्चय ही है कि जिसकी उत्पत्ति है, उनका नाश भी अवश्य है, इस वास्ते वेद कार्यरूप होने से नित्य नहीं हो सकते हैं।


सूत्र :न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् II5/46

सूत्र संख्या :46


अर्थ : वेद किसी पुरूष के बनाए हुए नहीं हैं क्योंकि उनका बनाने वाला दीखता नहीं। तब यह बात माननी पड़ेगी कि वेद अपौरूषेयत्व हैं, जबकि वेदों का अपौरूषेयत्व सिद्ध हो गया तो वह जिनके बनाये हुए वेद हैं, और नित्य के कार्य भी नित्य होते हैं, इस कारण वेदों का नित्यव सिद्ध हो गया। यदि ऐसा कहा जावे कि वेदों को भी किसी जीव ने बनाया होगा सो भी सत्य नहीं।


सूत्र :मुक्तामुक्तयोरयोग्यत्वात् II5/47

सूत्र संख्या :47


अर्थ : जीव भी दो प्रकार के होते हैं- एक तो मुक्त, दूसरे अमुक्त। यह दोनों प्रकार के जीव वेद के बनाने के अधिकारी नहीं हैं। कारण यह है कि मुक्तजीव में वेद शक्ति नहीं रहती, जिसमें वेद बना सके, और वद्ध जीव अज्ञानी, अल्पज्ञ आदि दोषों से युक्त होता है और वेद में इस प्रकार की बातें देखने में आती हैं, जो बिना सर्वज्ञ के नहीं हो सकती और जीव अल्पज्ञ हैं, प्रमाण से भी वेदों की नित्यता सिद्ध हो गई। इसी विषय को और भी दृढ़ करते हैं।


सूत्र :नापौरुषेयत्वान्नित्यत्वमन्नरादिवत् II5/48

सूत्र संख्या :48


अर्थ : वेद अपौरूषेय हैं, इस वास्तें नित्य हैं, ऐसा नहीं क्योंकि अंकुर किसी पुरूष का बनाया हुआ नहीं होता, परन्तु अनित्य होता है।


सूत्र :तेषामपि तद्योगे दृष्टबाधादिप्रसक्तिः II5/49

सूत्र संख्या :49


अर्थ : यदि वेदों को भी बनाया हुआ माना जायेगा, तो प्रत्यक्ष जो दीखता है, उसमें दोष प्राप्त होगा। दृष्टान्त-जैसे अंकुर का लगाने वाला दीखता है और उपादान कारण जो बीज है वह भी दीखता है। इस प्रकार वेदों का बनाने वाला और उत्पादन कारण नहीं दीखता है, इस कारण नित्य है। यदि नित्य न माना जाये, तो प्रत्यक्ष से विरोध हो जायगा। वेदों को जो अपौरूषेय कहा है, उसमें सन्देह होता है कि पौरूषेय किसको कहतें हैं और अपौरूषेय किसको कहते हैं? इस सन्देह को दूर करने के लिए पौरूष का लक्षण लिखते हैं।


सूत्र :यस्मिन्नदृष्टेऽपि कृतबुद्धिरुपजायते तत्पौरुषेयम् II5/50

सूत्र संख्या :50


अर्थ : जिस पदार्थ का कर्ता प्रत्यक्ष न हो अर्थात् बनाने वाला न दीखता हो, लेकिन-पदार्थ के देखने से यह ज्ञान हो। लेकिन वेदों देखने से यह बुद्धि उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि वेदों की उत्पत्ति ईश्वर से मानी गई है और उन वेदों को बनाने वाला कोई नहीं हैं। उत्पत्ति और बनाना, दोनों में इतना अन्तर है कि बीज से अंकुर उत्पन्न हुआ, कुम्हार ने घड़े को बनाया इस बात को बुद्धिमान अपने आप विचार लेवें, कि उत्पत्ति और बनाना इसमें भेद है या नहीं? बनाना कोई और बात हैं, उत्पत्ति कोई और बात है। इस तरह ही वेदों की उत्पत्ति मानी गई है, किन्तु घटादि पदार्थों के समान वेदों की उत्पत्ति नहीं हैं। इस कारण वेद अपौरूषेय हैं। प्रश्न- जबकि वेदों में उन्हीं बातों का वर्णन है, जो संसार में वर्तमान हैं, तो वेदों को प्रमाण माना जाय?


सूत्र :निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम् II5/51

सूत्र संख्या :51


अर्थ : जिस वेद के ज्ञान होने से अर्थात् जानने से आयुर्वेंद कला-कौशल आदि सब तरह की विद्याओं का प्रकाश होता है वह वेद स्वतः प्रमाण हैं। उसमें प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि जो आप ही दूसरों का प्रमाण है उसका प्रमाण किसको कह सकते हैं, जैसे-सेर, दुसरी आदि तोलने के बाट तोलने में आप हीं कह सकते हैं लेकिन सेर दुसेरी आदि बाट क्यों प्रमाण है, ऐसा प्रश्न नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो स्वतः प्रमाण हैं। इसी तरह वेदों को भी स्वतः प्रमाण समझना चाहिये। पहिले जो ४१ वें सूत्र में नास्तिक ने यह पूर्व पक्ष किया था कि वेदों का अर्थ नहीं हो सकता, उसका उत्तर-पक्ष वहां कह आये थे, और फिर भी उसको ही दृष्टान्त प्रत्यक्ष करते हैं।


सूत्र :नासतः ख्यानं नृशृङ्गवत् II5/52

सूत्र संख्या :52


अर्थ : जैसे कि पुरूष के सींग नहीं होते, इसी तरह जो पदार्थ है ही नहीं, उसका कहना भी व्यर्थ है, जैसे कि बन्ध्या स्त्री का पुत्र। जबकि बन्ध्या स्त्री के पुत्र होता ही नहीं तो ऐसा कहना भी व्यर्थ है। यदि इस तरह वेदों का भी कुछ अर्थ न होता तो वृद्ध लोग परम्परा से (एक को एक ने पढ़ाया) क्यों शिष्यों को पढ़ाकर प्रसिद्ध करते। इससे प्रत्यक्ष होता है कि वेदों का अर्थ है।


सूत्र :न सतो बाधदर्शनात् II5/53

सूत्र संख्या :53


अर्थ : जो पदार्थ सत् है उसका बाध किसी तरह नहीं हो सकता और वेद सत् माने गये है इस वास्ते ऐसा कहना नहीं बन सकता कि पदार्थ नहीं है। प्रश्न- वेदार्थ है या नहीं ऐसा झगड़ा क्यों किया जाय, यही न कह दिया जावे कि वेद का अर्थ है तो परन्तु अनिर्वचनीय है।


सूत्र :नानिर्वचनीयस्य तदभावात् II5/54

सूत्र संख्या :54


अर्थ : वेद के अर्थ अनिर्वचनीय (जो कहने में न आये) कहना ठीक नहीं, क्योंकि संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं दीखता जा अनिर्वचनीय हो, और उसी पदार्थ को कह सकते हैं, जो संसार में प्रत्यक्ष है, इसलिए अनिर्वचनीय कहना ठीक नहीं।


सूत्र :नान्यथाख्यातिः स्ववचोव्याघातात् II5/55

सूत्र संख्या :55


अर्थ : अन्यथा ख्याति भी नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा कहने पर अपने ही कथन में दोष प्राप्त होता है। इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि वेद का अर्थ दूसरा है, परन्तु संसार में दूसरी प्रचलित हो रहा है। इस तरह की अन्यथा ख्याति करने पर यह दोष होता है कि जो मनुष्य वेद का अर्थ ही न मानकर अनिर्वचनीय कहते है वह अन्यथा ख्याति को क्यों नहीं मान सकते हैं, ऐसा कहना उनके वचन से ही विरूद्ध होगा। प्रश्न- अन्यथा ख्याति किसको कहते हैं। उत्तर- पदार्थ तो दूसरा हो, और अर्थ दूसरी तरह किया जाय,जैसे-सीप में चांदी का आरोप करना अर्थात् चांदी सिद्ध करना।


सूत्र :सदसत्ख्यातिर्बाधाबाधात् II5/56

सूत्र संख्या :56


अर्थ : यदि ऐसा माना जाय कि वेदों का अर्थ हैं भी और नहीं भी है, क्योंकि जो संसार के कार्यों में चतुर नहीं हैं उनको वेदों के अर्थ का बोध होता हैं, और जो सांसारिक कार्यों में चतुर हैं, उनका अबाध होता है, इस तरह स्यादस्ति, स्यान्नास्ति है या नहीं इस तरह जैनों के मत अनुसार ही माना जाय, तो भी ठीक नहीं। इस सूत्र में पहिले सूत्र से नकार अनुवृत्ति आती है। ‘‘नासतः ख्यानृश्रृंगगवत्’’ इस सूत्र से लेकर ५६वें सूत्र तक जो अर्थ विज्ञानभिक्षु ने किया है और गुणादीनां नाल्यन्तबाधः’’ इस सूत्र के आशय से मिलाया है, वह ठीक नहीं, क्योंकि वैसा अर्थ करने से प्रसंग में विरोध आता है, दूसरे यह कि इस ५६वें सूत्र को, जो कपिल मुनि के सिद्धांत पक्ष में रखकर गुणों का बाध, अवाध दोनों ही माने हैं वह भी ठीक नहीं क्योंकि ‘‘न तादृक् प्रदार्थाप्रतीतेः’’, इन दोनों धर्मो वाला कोई पदार्थ संसार में नहीं दीखता, तो क्या आचार्य भी विज्ञानभिक्षु के समान ज्ञान-रहित थे, जो अपने पूर्वापर कथन को ध्यान में न रखकर गुणों को सत् और असत् दोनों रूपों में कहते। यहां तक वेदों की उत्पत्ति और नित्यता को सिद्ध कर चुके। अब शब्द के सम्बन्ध में विचार करते हैं।


सूत्र :प्रतीत्यप्रतीतिभ्यां न स्फोटात्मकः शब्दः II5/57

सूत्र संख्या :57


अर्थ : जो शब्द मुख से निकलता है, उस शब्द के अतिरिक्त जो उस शब्द में अर्थ के ज्ञान कराने वाली शक्ति है उसे स्फोट कहते हैं, जैसे कि-किसी ने कलश् शब्द को कहा, तो उस कलश शब्द के उच्चारण होने से कम्बग्रीवादी कपालों का जिस शक्ति से ज्ञान होता है, उसका ही नाम स्फोट है। इससे ऐसा न समझना चाहिए कि कलश इतना शब्द मुंह से निलते ही जिस शक्ति से उनका ज्ञान होता है, उसी का ही नाम कलश है, किन्तु जिस शक्ति से उनका ज्ञान होता है, उसी का नाम स्फोट कहलाता है, किन्तु स्फोटात्मक शब्द नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें दो तरह के तर्क उत्पन्न हो सकते हैं कि शब्द की प्रतीति होती है या नहीं। यदि प्रतीति होती है, तो जिस अर्थ वाले अक्षर समुदाय से पूर्वापर मिलाकर अर्थ प्रतीत और वाच्य वस्तु का बोध है, उसके सिवाय स्फोट को मानना व्यर्थ है, क्योंकि शब्द से ही ज्ञान हुआ स्फोट से नहीं। और यह कहो कि शब्द की प्रतीति नहीं होती तब अर्थ ही नहीं। फिर स्फोट में ऐसी शक्ति कहां से आई जो बिना अर्थ की प्रतीति करा सके। इस कारण स्फोट का मानना व्यर्थ है।


सूत्र :न शब्दनित्यत्वं कार्यताप्रतीतेः II5/58

सूत्र संख्या :58


अर्थ : शब्द नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि उच्चारण के बाद शब्द नष्ट हो जाता है, जैसे-ककार हुआ, उच्चारणावसान में फिर नष्ट हो गया, इत्यादि अनुभवों से सिद्ध होती है कि शब्द भी कार्य है।


सूत्र :पूर्वसिद्धसत्त्वस्याभिव्यक्तिर्दीपेनेव घटस्य II5/59

सूत्र संख्या :59


अर्थ : जिस शब्द का होना पहिले ही से सिद्ध है, उस शब्द का उच्चारण करने से प्रकाश होता है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती है। दृष्टांत जैसे कि अंधेरे स्थान में रक्खे हुए पात्र, को दीपक प्रकाश कर देता है। ऐसा नहीं कह सकते कि दीये ने पात्र को उत्पन्न कर दिया, क्योंकि पात्र तो पहिले से ही वहां विद्यमान था, अन्धकार के कारण उसका ज्ञान नही होता था। इसी तरह शब्द भी पहिले से सिद्ध है, उच्चारण करने से केवल उसका प्रकाश होता है, इसलिए शब्द नित्य है।


सूत्र :सत्कार्यसिद्धान्तश्चे-त्सिद्धसाधनम् II5/60

सूत्र संख्या :60


अर्थ : यदि ऐसा कहा जाए कि कार्य जिस अवस्था में दीखता है, उसी अवस्था में सत् है,  शेष और अवस्थाओं में असत् है। इसी तरह शब्द का भी कार्य है और अपनी अवस्था में सत् है, ऐसा मानेंगे, तो आचार्य कहते हैं कि ऐसा माने पर हम शब्द के सम्बन्ध में सिद्ध साधन मानेंगे अर्थात् जो शब्द पहिले हृदय में था, उसी का उच्चारण आदि क्रियाओं से स्पष्ट किया है किन्तु घटादि पदार्थों के समान बनाया नहीं है। यहां तक शब्दविचार समाप्त हुआ। अब इस विषय का विचार करें कि जीव एक है वा अनेक हैं।


सूत्र :नाद्वैतमात्मनो लिङ्गात्तद्भेदप्रतीतेः II5/61

सूत्र संख्या :61


अर्थ : जीव एक ही नहीं है किन्तु अनेक हैं, इस सूत्र का यह अर्थ है। जीव और ईश्वर इन दोनों का अभेद मानकर जो अद्वैत माना जाता है वह ठीक नहीं क्योंकि कि जीव के जो अल्पज्ञत्वादि चिन्ह हैं और ईश्वर के जो सर्वज्ञत्वादि चिन्ह हैं उनसे दोनों में भेद ज्ञात होता है।


सूत्र :नानात्मनापि प्रत्यक्षबाधात् II5/62

सूत्र संख्या :62


अर्थ : अनात्मा जो सुख दुःखादिकों के भोग हैं, उनसे भी यही बात सिद्ध होती है कि जीव एक नहीं हैं, क्योंकि एक मानने से प्रत्यक्ष में विरोध की प्राप्ति होती है और संसार में दीखता है कि सुख-दुख अनेक व्यक्ति एक समय में भोग करते हैं, दूसरे पक्ष में ऐसा अर्थ करना चाहिए, कि मनुष्य एक आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते, उनके सिद्धांत में पूर्वोक्त दोष के अतिरिक्त और एक दोष यह भी प्राप्त हो जाएगा कि घटादि कार्यों को भी आत्मा मानकर उनके नाश होते ही आत्मा का भी नाश होगा। यह प्रत्यक्ष से विरोध होगा, इसलिए ऐसा अद्वैत मानना सत्य नहीं है।


सूत्र :नोभाभ्यां तेनैव II5/63

सूत्र संख्या :63


अर्थ : आत्मा और अनात्मा इन दोनों की एकता है ऐसा कहना भी योग्य नहीं, क्योंकि उसी प्रत्यक्ष प्रमाण में बाधा प्राप्त हो जाएगी और संसार में यह बात प्रत्यक्ष दीख रही है कि आत्मा और अनात्मा दो पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं, इस वास्ते ऐसा कहना कि एक आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं, योग्य नहीं। प्रश्न- अगर तुम ऐसा मानते हो कि आत्मा और अनात्मा भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, तो श्रुतियां ऐसा क्यों कहती हैं कि ‘‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्य’’, ’’आत्मैवेदं सर्बम्’’ (एक ही ब्रह्य अद्वितीय है, यह सब आत्मा ही है) इत्यादि श्रुतियां एक आत्मा बताती हैं, तो बहुत से आत्मा, जीव वा ब्रह्म पृकक्-पृथक् क्यों मानें जाएं।


सूत्र :अन्यपरत्वमविवेकानां तत्र II5/64

सूत्र संख्या :64


अर्थ : इन श्रुतियों में अन्यपरत्व अर्थात् द्वैत है, ऐसा ज्ञान अज्ञों को होता है और जो विद्वान हैं वह इन श्रुतियों का ऐसा अर्थ नही करते हैं क्योंकि अद्वितीय शब्द से यह प्रयोजन है कि ईश्वर के समान दूसरा और कोई नहीं है और जो एक आत्मा मानते हैं, उनके मत से संसार का उपादान कारण सत्य नहीं हो सकता।


सूत्र :नात्माविद्या नोभयं जगदुपादानकारणं निःसङ्गत्वात् II5/65

सूत्र संख्या :65


अर्थ : इस कारण आत्मा जगत् का उपादान कारण नहीं हो सकता कि वह निर्विकार है। यदि अविद्या को उपादान कारण मानें तो अविद्या भी संसार का उपादान कारण नहीं हो सकती, क्योंकि सत् मानें तो द्वैतापत्ति प्राप्त होती है और असत् मानने पर बन्ध्या के पुत्र के सदृश अभाव वाली हो जाएगी, और आत्मा तथा अविद्या यह दों मिल कर संसार का उपादान कारण इस प्रकार नहीं हो सकते कि आत्मा संग रहित है, इस कारण ही जो एक आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते, उनके मत में संसार का उपादान कारण सिद्ध नहीं हो सकता है।


सूत्र :नैकस्या-नन्दचिद्रूपत्वे द्वयोर्भेदात् II5/66

सूत्र संख्या :66


अर्थ : वेदादि सत् शास्त्र ईश्वर को सच्चिदानन्द कह कर पुकार रहे हैं, और जीव में आनन्द रूप होता नहीं है, इस कारण ईश्वर और जीव इन दोनों में भेद है। प्रश्न- जीव में आनन्द तो माना ही नहीं गया है, तो मुक्ति का उपदेश क्यों कहा, क्योंकि मुक्ति अवस्था में दुःखो के दूर हो जाने पर आनन्द होता है।


सूत्र :दुःखनिवृत्तेर्गौणः II5/67

सूत्र संख्या :67


अर्थ : मुक्ति होने पर दुःख दूर हो जाते हैं, ऐसा कहना गौण है। यद्यपि मुक्ति होने पर दुःख दूर जाते हैं परन्तु अल्पज्ञता तो जीव में उस समय भी बनी रहती है, इसलिए फिर भी दुःख उत्पन्न होने का भय बना ही रहता है, इस कारण जीव सर्वदा आनन्द में नहीं रहता है अतः जीव को आनन्द स्वरूप नही कह सकते। आनन्दस्वरूप तो ईश्वर को ही कह सकते हैं। प्रश्न- जब कि आप की मुक्ति ऐसी है कि जिसके होने पर भी फिर कुछ दिनों के बाद दुःख उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है तो एकसी मुक्ति से बद्ध रहना ही अच्छा है।


सूत्र :विमुक्तिप्रशंसा मन्दानाम् II5/68

सूत्र संख्या :68


अर्थ : विमुक्ति को प्रशंसा मूर्ख लोग करते हैं, न कि विद्वान् लोग। कोई-कोई मन को नित्य मानते हैं, उनके मत का भी खण्डन करते है।


सूत्र :न व्यापकत्वं मनसः करणत्वादिन्द्रियत्वाद्वा II5/69

सूत्र संख्या :69


अर्थ : मन व्यापक नहीं , क्योंकि मन को इन्द्रिय और कारण माना है। प्रश्न- कारण किसको कहते हैं? उत्तर- जिसके द्वारा जो अपने कार्य करने में तैयार हो, जैसे कि मन के द्वारा जीवात्मा अपने कार्यों को करता है।


सूत्र :सक्रियत्वाद्गतिश्रुतेः II5/70

सूत्र संख्या :70


अर्थ : मन क्रिया वाला है इसलिए मन हर एक इन्द्रियों के व्यापार और प्रवृत्ति का हेतु है, गति वाला भी है। प्रश्न- यदि मन को नित्य नहीं मानते तो मत मानो, लेकिन निर्विभाग, कारण रहित तो मानना होगा।


सूत्र :न निर्भागत्वं तद्योगाद्घटवत् II5/71

सूत्र संख्या :71


अर्थ : जैसे घट आदि पदार्थ मृत्तिका (मिट्टी) के कार्य हैं इस ही तरह मन भी किसी का कार्य अवश्य है। जबकि कार्य निश्चय हो गया तो उसका कारण-योग भी अवश्य होगा। प्रश्न- मन नित्य है या अनित्य?


सूत्र :प्रकृतिपुरुषयोरन्यत्सर्वमनित्यम् II5/72

सूत्र संख्या :72


अर्थ : प्रकृति और पुरूष के अतिरिक्त जो अन्य पदार्थ हैं। वे सब अनित्य हैं, इस कारण से मन भी अनित्य है। प्रश्न- प्रकृति और पुरूष इन दो को ही नित्य क्यों माना हैं?


सूत्र :न भागलाभो भागिनः निर्भागत्वश्रुतेः II5/73

सूत्र संख्या :73


अर्थ : जो आप ही कारण रूप है उसका और कोई कारण नहीं हो सकता, उसको तो सब ही कारण रहित मानते चले आये हैं, इस कारण प्रकृति, पुरूष दोनों नित्य हैं?


सूत्र :नानन्दाभिव्यक्तिर्मुक्तिर्निर्धर्मत्वात् II5/74

सूत्र संख्या :74


अर्थ : प्रधान जो प्रकृति है उसको आनन्द की अभिव्यक्ति (ज्ञान) नहीं हो सकती, इस कारण उसकी मुक्ति भी नहीं कह सकते, क्योंकि आनन्द प्रधान का धर्म नहीं है किन्तु जीव का है।


सूत्र :न विशेषगुणोच्छित्तिस्तद्वत् II5/75

सूत्र संख्या :75


अर्थ : सत्व, रज, तम, इनके नाश होने को ही यदि मुक्ति माना जाय तो भी ठीक नहीं, क्योंकि उक्त सत्त्वादि तीन गुण प्रधान के स्वाभाविक धर्म हैं, उनका नाश होना प्रधान का धर्म नहीं है, इसलिए उसकी मुक्ति नहीं मानी जाती।


सूत्र :न विशेषगतिर्निष्क्रियस्य II5/76

सूत्र संख्या :76


अर्थ : यदि विशेष गति ऊपर नीचे का जाना आना अर्थात् ब्रह्यलोग की प्राप्ति इत्यादिक को ही मुक्ति मानें सो भी नहीं हो सकती, क्योंकि प्रधान तो त्रियाशून्य है जो कुछ उसमें त्रिया दीखती है सब पुरूष के संसर्ग से है, परन्तु आप ऐसी शक्ति को नहीं रखता।


सूत्र :नाकारोपरागोच्छित्तिः क्षणिकत्वादिदोषात् II5/77

सूत्र संख्या :77


अर्थ : यदि आकार के सम्बन्ध को छोड़ देना ही मुक्ति मानें तो भी ठीक नहीं, क्योंकि उसमें क्षणिकत्वादी दोष प्राप्त होते हैं। इस सूत्र का स्पष्टार्थं यह है-प्रकृति की आकार घड़ा है, उसका जो फूट जाना है उसको ही प्रकृति की मुक्ति मान लिया जाय सो यह कथन कुछ अच्छा नहीं हैं, क्योंकि क्षणिकत्वादि सैकड़ों दोष प्राप्त हो जायेंगे ऐसा मानने से जैये कि कोई घड़ा इस क्षण में टूट गया और फिर इसी क्षण में दूसरा बन गया, इत्यादि कारणों से प्रधान की मुक्ति कैसे हो सकती है?


सूत्र :न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वा-दिदोषात् II5/78

सूत्र संख्या :78


अर्थ : सबको छोड़ देना भी मोक्ष नहीं हो सकता। यदि प्रधान सम्पूर्ण सृष्टि आदि की रचना को छोड़ दे तो भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रधान के सब कार्य पुरूष के लिये हैं।


सूत्र :एवं शून्यमपि II5/79

सूत्र संख्या :79


अर्थ : यदि सबको छोड़ देना ही प्रधान की मुक्ति का लक्षण मान भ लिया जाय तो वह मुक्ति शून्य रहेगी, क्योंकि आनन्द न रहेगा तो व्यर्थ हैं, इसलिये ऐसा न माना जाये। प्रश्न- पुरूष के साथ रहने वाली प्रकृति किसी स्थान में पुरूष को छोड़ दे इसको ही मुक्ति क्या न माना जाय?


सूत्र :संयोगाश्च वियोगान्ता इति न देशादिला-भोऽपि II5/80

सूत्र संख्या :80


अर्थ : जिसका संयोग होता है उसका वियोग तो निश्चय ही होगा फिर किसी स्थान में जाकर छोड़ा तो क्या मुक्ति हो सकती है? किसी सूरत में नहीं। इसी तरह जब प्रकृति और पुरूष का संयोग है तो वियोग भी जरूर होगा, फिर उसमें देश की क्या जरूरत हैं, क्योंकि स्थान के प्राप्त होने से मुक्ति तो हो नहीं सकती।


सूत्र :न भागियोगो भागस्य II5/81

सूत्र संख्या :81


अर्थ : प्रधान के भा्र (अंश्) जो महात्तत्वादिक हैं उनका भागी (प्रधान) में मिल जाना ही मुक्ति है, सो भी नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो उसमें मिलते ही हैं।


सूत्र :नाणिमादियोगोऽप्यवश्यम्भा-वित्वात्तदुच्छित्तेरितरयोगवत् II5/82

सूत्र संख्या :82


अर्थ : पुरूष योग से अणिमादि ऐश्वय्र्यों का योग होना भी प्रधान की मुक्ति का लक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका योग है उसका वियोग तो अवश्य ही होगा, जैसा कि दूसरे पदार्थों में मालूम होता है।


सूत्र :नेन्द्रादिपदयोगोऽपि तद्वत् II5/83

सूत्र संख्या :83


अर्थ : पुरूष के संयोग से इन्द्रादि पद की प्राप्ति का होना प्रधान की मुक्ति का लक्षण हो सकता, क्योंकि वह सब नाशवान है। अब ‘‘अहंकरित्वश्रुतेर्नं भैतिकानि’’ इस सूत्र में जो बात सूक्ष्म रूप से कही है उसको कहते हैं।


सूत्र :न भूतप्रकृतित्वमिन्द्रियाणामाहङ्कारिकत्वश्रुतेः II5/84

सूत्र संख्या :84


अर्थ : जो बात पृथ्वी आदि भूतों में विद्यमान है वह बात इंद्रियों से नहीं दीखती, इस वास्ते इन्द्रियों को भौतिक नहीं कह सकते, क्योंकि अहंकार से पैदा हुई हैं। प्रश्न- सांख्य के मत के अनुसार प्रकृति और पुरूष का ज्ञान होना ही मुक्ति का हेतु है, किन्तु वैशेषिकादिकों ने जो छः पदार्थ माने हैं उनके ज्ञान् से मुक्ति क्यों नहीं हो सकती?


सूत्र :न षट्पदार्थनियमस्तद्बोधा-न्मुक्तिः II5/85

सूत्र संख्या :85


अर्थ : पदार्थ छः ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं, किन्तु पदार्थ असंख्य हैं। अभाव जानने के वास्ते असंख्य पदार्थ हैं तो छः पदार्थों के जानने से मुक्ति नहीं हो सकती।


सूत्र :षोडशादिष्वप्येवम् II5/86

सूत्र संख्या :86


अर्थ : गौतमादिकों ने तो सोलह पदार्थ माने हैं और जिन-जिन महार्षियों ने पच्चीस पदार्थं माने हैं उनके जान लेने से भी मुक्ति नही हो सकतीं, क्योंकि पदार्थ तो असंख्य हैं। प्रश्न- वैशेषिकादि कों का मत क्यों दूषित माना गया है क्योंकि वह वैशधिकादिक पृथ्वी आदि के अणुओं को नित्य मानते हैं।


सूत्र :नाणुनित्यता तत्कार्यत्वश्रुतेः II5/87

सूत्र संख्या :87


अर्थ : पृथ्वी आदि के अणुओं की नित्यता किसी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि श्रुतियां उनको कार्य रूप कहती है और एक युक्ति भी है। जब पृथ्वी आदि साकार हैं तो उनके अणु भी साकार हो सकते हैं। जब साकारता प्राप्त हो गई तो किसी के कार्य भी जरूर हुए, इस कारण पृथ्वी आदि के अणुओं को नित्य नहीं कह सकते। यहां अणु का अर्थ परमाणु नहीं, उससे स्थूल है। प्रश्न- आप अणुओं को नित्य नहीं मानते तो मत मानो, लेकिन उनका कोई कारण नहीं दीखता, इस वास्ते उनको कारण रहित मानना चाहिये?


सूत्र :न निर्भागत्वं कार्यत्वात् II5/88

सूत्र संख्या :88


अर्थ : जबकि अणु कार्य हैं तो कारण रहित कैसे हो सकते हैं? क्योंकि जो कार्य उसका कारण भी अवश्य ही कोई न कोई होगा। प्रश्न- जबकि प्रकृति और पुरूष दोनों ही आकार रहित हैं तो उनका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है, क्योंकि जब तक रूप न होगा तब तक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता?


सूत्र :न रूपनिबन्धनात्प्रत्यक्षनियमः II5/89

सूत्र संख्या :89


अर्थ : रूप के बिना प्रत्यक्ष नहीं होता, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि जो बाहर की वस्तु है उसके देखने के वास्ते अवश्यमेव इन्द्रियों से योग की आवश्यकता रहती है, लेकिन जो ज्ञान से जाना जाता है उसको रूपवान्होने की कोई आवश्यकता नहीं है और नास्तिक लोग जो यह बात कहते हैं कि साकार पदार्थ का ही प्रत्यक्ष होता है, निराकार का नही होता, यह कथन ठीक नहीं क्योंकि जब नेत्र आदि इन्द्रियों में दोष हो जाता है तब सामने रक्खे हुए घट पटादि पदार्थें का भी प्रत्यक्ष नहीं होता। इससे साबित होता है कि पदार्थ का स्वरूप होना प्रत्यक्ष होने में नियम नहीं, किन्तु इन्द्रियों की स्वच्छता हेतु है। प्रश्न- आपने जो कार्यरूप कहकर अनित्य सिद्ध किया तो क्या अणु कोई वस्तु आपके मत में है या नहीं? इस पर आचार्य अपना मत्र दिखाते हैं।


सूत्र :न परिमाणचातुर्विध्यं द्वाभ्यां तद्योगात् II5/90

सूत्र संख्या :90


अर्थ : जो अणु, महत, दीर्घहस्व यह चार भेद मानकर परिमाण चार तरह के मानते हैं ऐसा माना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस बात के सिद्ध करने को चार प्रकार के परिमाण मानते हैं, वह बात अणु और महत् इन दो तरह के परिमाणों से भी सिद्ध हो सकती है। दीर्घ और हस्व यह दो महत् परिमाण के अवान्तर भेद हैं। यदि गिनती बढ़ानी ही स्वीकार है तो एक तिरछा अणु, एक सीधा अणु ऐसे ही बहुत से भेद हो सकते हैं, लेकिन ऐसा होना ठीक नहीं। और हमने जो अणुओं को अनित्य प्रतिपादन किया था वह सिर्फ पृथ्वी आदि के अणु को अनित्य कहा था, किन्तु अणु परिमाण द्रव्यों को अनित्य नहीं प्रतिपादन किया था, क्योंकि हम भी तो अणु नित्य मानते हैं। प्रश्न- जब प्रकृति और पुरूष के सिवाय अनित्य कहा तो प्रत्यभिज्ञा किस तरह हो सकती हैं क्योंकि जब सब पदार्थें को नाशवान् मान लेंगे तब प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती है। प्रत्यभिज्ञा का लक्षण पहले अध्याय में कह आये हैं।


सूत्र :अनित्यत्वेऽपि स्थिरतायोगात्प्रत्य-भिज्ञानं सामान्यस्य II5/91

सूत्र संख्या :91


अर्थ : यद्यपि प्रकृति और पुरूष के सिवाय जितने समान्य पदार्थ हैं वे सब ही अनित्य हैं तथापि हम उनका स्थिर मानते हैं लेकिन क्षणिकवादियों के समान हर एक क्षण में परिवर्तंनशील नहीं मानते हैं इस वास्ते प्रत्यभिज्ञा हो सकती है।


सूत्र :न तदपलापस्तस्मात् II5/92

सूत्र संख्या :92


अर्थ : अतएव सामान्य पदार्थ कुछ न रहा ऐसा नहीं कहा जा सकता, किन्तु कहा जा सकता है कि सामान्य पदार्थ नित्य नहीं है।


सूत्र :नान्यनिवृत्तिरूपत्वं भावप्रतीतेः II5/93

सूत्र संख्या :93


अर्थ : सामान्य पदार्थों को अनित्य नहीं कह सकते हैं, क्योकि उनकी विद्यमानता दीखती है। आश्य यह है कि जब आचार्य प्रकृति और पुरूष के सिवाय सबको अनित्य मानते हैं तो प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी? इस शंका को दूर करने के वास्ते यह सूत्र कहा गया है कि सामान्य पदार्थ किसी प्रकार अनित्य नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे भी दीखते हैं।


सूत्र :न तत्त्वान्तरं सादृश्यं प्रत्यक्षोपलब्धेः II5/94

सूत्र संख्या :94


अर्थ : एक घड़े के समान दूसरा घड़ा प्रत्यभिज्ञा का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि यह बात तो प्रत्यक्ष ही से दीखती है कि जो घड़ा पहिले देखा था उसमें, और अब देखा है इसमें फर्क है इसलिए सदृश पदार्थ प्रत्यभिज्ञा का कारण नहीं हैं, इस कारण सामान्य पदार्थ और उनकी स्थिरता माननी पड़ेगी। प्रश्न- जो शक्ति पहिले देखे हुए घड़े में है वही शक्ति इस समय दीखते हुए घड़े में है। उस शक्ति के ही प्रकाश होने से प्रत्यभिज्ञा क्यों न मानी जाय। क्योंकि सब घड़े एक ही शक्ति वाले होते हैं, इस वास्ते दूसरे घड़े के देखने से प्रत्यभिज्ञा को मानना ही चाहिये?


सूत्र :निजशक्त्य-भिव्यक्तिर्वा वैशिष्ट्यात्तदुपलब्धेः II5/95

सूत्र संख्या :95


अर्थ : घटादि पदार्थें की शक्ति का प्रकाश होना प्रत्यभिज्ञा में हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि यह बात तो अर्थापत्ति से सिद्ध है। यदि सब घड़ों में समान शक्ति न होती तो उसका नाम क्यों होता? इस वास्ते समान आकृति और समान शक्ति प्रत्यभिज्ञा का हेतु नहीं हो सकती, किन्तु वहीं पदार्थ जो पहिले देखा है दूसरी बार देखने से प्रत्यभिज्ञा का हेतु हो सकता है, इस बात से सिद्ध हो गया कि सामान्य पदार्थ अनित्य होने पर भी स्थिर है इसी से प्रत्यभिज्ञा भी होती है। प्रश्न- एक घोड़े में जो संज्ञा संज्ञी सम्बन्ध है वही सम्बन्ध दूसरे घड़े में भी है फिर उसमें प्रत्यभिज्ञा क्यों नहीं होती?


सूत्र :न संज्ञासंज्ञिसम्बन्धोऽपि II5/96

सूत्र संख्या :96


अर्थ : संज्ञा संज्ञि का सम्बन्ध भी प्रत्यभिज्ञा में हेतु में हेतु नहीं हो सकता क्योंकि ये भी अर्थापत्ति से जाना जा सकता है कि संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध सब घड़ों में बराबर है परन्तु इतने पर भी अनेक घड़ों में अनेक भेद रहते हैं, इस कारण प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती और संज्ञासंज्ञि सम्बन्ध होने पर भी दूसरा पदार्थ प्रत्यभिज्ञा का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि


सूत्र :न सम्बन्धनित्यतोभयानित्यत्वात् II5/97

सूत्र संख्या :97


अर्थ : घटादि पदार्थें का सम्बन्ध नित्य नहीं है, क्योंकि संज्ञा और संज्ञि ये दोनों अनित्य हैं। तात्पर्य यह है कि जो घड़ा घट नाम से पुकारा जाता है उस घड़े के नाश होते ही उसकी संज्ञा का भी नाश हो जाता है क्योंकि उस घड़े के टूटने पर उसकी फिर घड़ा नहीं कह सकते हैं किन्तु कपाल कह सकते हैं। जबकि फिर दूसरा घड़ा नजर आया तो उसकी दूसरी घट संज्ञा हुई। दूसरी घट संज्ञा के होने में समता कहां रही जब समता ही नहीं है तो प्रत्यभिज्ञा कैसी? क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञा उसी पदार्थ में होती है जिसको कभी पहले देखा हो और जो घड़ा पहले देखा था उसका तो नाश हो गया, जिसको अब देख रहे हैं वह दूसरा है, जो वह पहिले देखा हुआ नहीं हो सकता इसी से प्रत्यभिज्ञा भी नहीं हो सकती। प्रश्न- सम्बन्धी अनित्य हो परन्तु सम्बन्ध तो नित्य ही मानना चाहिये?


सूत्र :नाजः सम्बन्धो धर्मिग्राहकमानबाधात् II5/98

सूत्र संख्या :98


अर्थ : जबकि संज्ञा-संज्ञी दोनों ही अनित्य सिद्ध हुए तो उनका सम्बन्ध कैसे नित्य हो सकता है? क्योंकि जिन प्रमाणों से सिद्ध होता है उनके ऐसा कहना नही बन सकता कि संबंधी चाहे अनित्य हो पर सम्बन्ध को नित्य मानना चाहिये। उत्तर यह है कि यह बात किसी प्रकार ठीक नहीं हो सकती कि सम्बन्धी तो अनित्य हो और सम्बन्ध नित्य हो। प्रश्न- गुण और गुणी का नित्य समवाय सम्बन्ध शास्त्रों से सुना जाता है और वास्त में दोनों अनत्य हैं, यह कैसे ठीक हो सकता है?


सूत्र :न समवायोऽस्ति प्रमाणाभावात् II5/99

सूत्र संख्या :99


अर्थ : समवाय कोई सम्बन्ध नहीं है प्रमाण के न होन से।


सूत्र :उभयत्राप्यन्यथासिद्धेर्न प्रत्यक्षम-नुमानं वा II5/100

सूत्र संख्या :100


अर्थ : घड़ा मिट्टी से बना है व बना होगा, इन दोनों तरह के ज्ञानों में अन्यथा सिद्ध है, इस वास्ते समवाय को मानने की कोई जरूरत नहीं। इस सूत्र का स्पष्ट भाव यह है कि घट का उपादान कारण मिट्टी है और यह बात प्रत्यक्ष दीखती है इस मिट्टी से ही घड़ा बनता है और अनुमान भी किया जाता है। इस प्रकार यह भी उक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि बिना मिट्टी के घड़ा नहीं बन सकता, इसलिए घट और मिट्टी का सम्बन्ध हुआ, लेकिन समवाय कोई सम्बन्ध नहीं है।


सूत्र :नानुमेयत्वमेव क्रियाया नेदिष्ठस्य तत्तद्वतोरेवापरोक्षप्रतीतेः II5/101

सूत्र संख्या :101


अर्थ : क्रिया और क्रिया वाले का संयोग होकर वह बनता है, इस बात के जानने के लिए अनमान की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि पास रहने वाले कुम्हार की प्रत्यक्ष क्रिया को देख कर ही जान लेते हैं कि दो कपालों के मिलने से घट बनता है, इसलिए जब तक वह घड़ा मौजूद रहेगा तब तक सम्बन्ध भी जरूर रहेगा, इसके लिए समवाय सम्बन्ध के मानने की कोई जरूरत नहीं है। दूसरे अध्याय में यह मतभेद कह चुके हैं कि शरीर पांच भौतिक है। अब उन मतों की सत्यासत्यता दिखाते हैं कि वे मत सच्चे हैं या झूठे।


सूत्र :न पाञ्चभौतिकं शरीरं बहूनामुपादानायोगात् II5/102

सूत्र संख्या :102


अर्थ : शरीर पांच भौतिक नहीं है अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज वायु, आकाश से शरीर की उत्पत्ति नहीं हैं, क्योंकि बहुत से पदार्थ के उपादान कारण (जो जिससे बने, जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है) नहीं हो सकते, इस कारण शरीर को सिर्फ पार्थिव (पृथ्वी से बना हुआ) ही माना चाहिये और जो अग्नि आदि चार भूत इसमें कहे जाते हैं वे सिर्फ नाममात्र को ही हैं। कोई-कोई स्थूल शरीर को भी मानते हैं उनका भी खण्डन करते हैं।


सूत्र :न स्थूलमिति नियम आतिवाहिकस्यापि विद्यमानत्वात् II5/103

सूत्र संख्या :103


अर्थ : स्थूल शरीर ही है ऐसा कोई भी नहीं है, क्योंकि आतिवाहिक अर्थात् ल्रिग शरीर भी मौजूद है। यदि लिंग शरीर को न माना जाय तो स्थूल शरीर में गमनादि क्रिया ही नहीं हो सकती। इस बात को तीसरे अध्याय में विस्तार विस्तारपूर्वक कह आये है जैसे-तेल बत्ती रूप से उत्पन्न हुई दीप की शिक्षा सम्पूर्ण घर का प्रकाश कर देती है, इसी तरह लिंग शरीर भी स्थूल शरीर को अनेक व्यापारों में लगाता है और इस बात को भी पहले कह आये हैं कि इन्द्रियां गोलकों से अतिरिक्त हैं, इसके साबित करने को ही इन्द्रियों की शक्ति कहते हैं।


सूत्र :नाप्राप्तप्रकाशकत्वमिन्द्रियाणा-मप्राप्तेः सर्वप्राप्तेर्वा II5/104

सूत्र संख्या :104


अर्थ : जिस पदार्थ का इन्द्रियों से कोई भी सम्बन्ध नही है उसका इन्द्रिया प्रकाश नहीं कर सकतीं। यदि कर्म करती हैं तो देशान्तर में रक्खी कोई वस्तु का भी प्रकाश करना सिद्ध हो जायेगा परन्तु ऐसी बात न तो नेत्रों से देखी और न कानों से सुनी। इस सूत्र का स्पष्ट भाव यह है कि इन्द्रियां उसी पदार्थ को प्रकाश कर सकती है जिसमें उनका सम्बन्ध होता है, सम्बन्ध रहित प्रकाश करने में उनकी शक्ति नहीं हैं। यदि इन्द्रियों में यह शक्ति होती कि बिना सम्बन्ध वाले पदार्थ को भी प्रकाश कर दिया करतीं तो देशान्तर के पदार्थ का भी प्रकाश करना कुछ मुश्किल न होता और दूसरी जगह रक्खे हुए पदार्थां का नेत्र आदि इन्द्रियों को ज्ञान हो जाया करता कि वह वस्तु अमुक स्थान में रक्खी है तो उनको सवंज्ञता प्राप्त हो सकती है, इसलिए ईश्वर और इन्द्रियों में कुछ भेद नहीं हो सकता, क्योकि ईश्वर सर्वज्ञ है और इन्द्रियां भी सर्वज्ञ हैं, ऐसा ही कहने में आवेगा। इस कारण यही बात माननी ठीक है कि नेत्र आदि इन्द्रियां उस वस्तु का ही प्रकाश कर सकती हैं जो उनको दीखती है। प्रश्न- अपसर्पण (फैलाना) तेज का धर्म है और तेज पदार्थ का प्रकाश करता है। इसी तरह नेत्र को भी तेजस्परूप मानना चाहिये, क्योंकि वह नेत्र भी पदार्थ का प्रकाश करता है।


सूत्र :न तेजोऽपसर्पणात्तैजसं चक्षुर्वृत्तितस्तत्सिद्धेः II5/105

सूत्र संख्या :105


अर्थ : निस्सन्देह तेज में फैलने की शक्ति है, परन्तु इससे चक्षु को तेज स्वरूप नहीं कह सकते, क्योंकि जिस बात के सिद्ध करने के लिए नेत्र को तेजस्वरूप मानने की जरूरत है वह बात इस रीति से सिद्ध हो सकती है कि जो नेत्र की वृत्ति है (जिससे कि पदार्थ का प्रत्यक्ष होता है) उसी से पदार्थ का प्रत्यक्ष माना जाये।


सूत्र :प्राप्तार्थप्रकाशलिङ्गाद्वृत्तिसिद्धिः II5/106

सूत्र संख्या :106


अर्थ : नेत्र का जिस पदार्थ से सम्बन्ध होती है उसको ही प्रकाश करता है, इससे साफ-साफ सिद्ध होता है कि चक्षु की बत्ति तेजस्वरूप है नेत्र तेजस्वरूप नहीं हैं। प्रश्न- जब नेत्र का पदार्थ से सम्बन्ध होता है तब नेत्र की वृत्ति शरीर को बिना छोड़े उस पदार्थ पर कैसे जा पड़ती है?


सूत्र :भागगुणाभ्यां तत्त्वान्तरं वृत्तिः सम्बन्धार्थं सर्पतीति II5/107

सूत्र संख्या :107


अर्थ : नेत्र आदि की वृत्ति पदार्थ के सम्बन्ध वास्ते जाती है, इससे नेत्र का भाग या रूप आदि गुण वृत्ति नहीं है किन्तु भाग और गुण इन दोनों से भिन्न एक तीसरे पदार्थ का नाम वृत्ति है, क्योंकि यदि चक्षु आदि के भाग का नाम वृत्ति है, क्योंकि यदि चक्षु आदि के भाग का नाम वृत्ति होता तो एक-एक पदार्थ का एक-एक- बार नेत्र से सम्बन्ध होने पर सहस्त्र-सहस्त्र नेत्र के टुकड़े होकर उसका नाश हो जाना योग्य जड़ होते हैं, इस वास्ते वृत्ति का पदार्थ के साथ सम्बन्ध होते ही पदार्थ में चला जाना नहीं हो सकता था। अतः भाग और गुण इन दोनों से वृत्ति भिन्न एक पदार्थ है। प्रश्न- ऐसे लक्षणों के करने से एक वृत्ति द्रव्य सिद्ध होता है तब इच्छा आदि जो बुद्धि के गुण हैं उनको वृत्ति क्यों माना है? क्योंकि गुणों का नाम वृत्ति नही हो सकता।


सूत्र :न द्रव्यनियमस्तद्योगात् II5/108

सूत्र संख्या :108


अर्थ : वृत्ति द्रव्य ही है यह नियम नहीं, क्योंकि अनेक वाक्यों में ऐसे विषय पर भी वृत्ति का व्यवहार देखने में आता है जहां पर द्रव्य का अर्थ नहीं हो सकता, जैसे-वैश्य वृत्ति शूद्र वृत्ति इत्यादि। अतः हमने जिस विषय पर वृत्ति को द्रव्य माना है उसी विषय पर द्रव्य है और जगह जैसा अर्थ हो वैसा ही करना चाहिये। इस बात को भी पहिले कह चुके हैं कि पांचभौतिक पदार्थ का शरीर सिर्फ नाममात्र ही है वास्तव में तो पार्थिव है। अब इस बात का विचार किया जाता है कि जिन इन्द्रियों के आश्रय से शरीर है वे इन्द्रियां जैसे कि हम लोगों की अहंकार पैदा हैं वैसे ही और देशों के मनुष्य की भी अहंकार से ही पैदा होती हैं पंचभूत से नही पैदा होती।


सूत्र :न देशभेदेऽप्य-न्योपादानतास्मदादिवन्नियमः II5/109

सूत्र संख्या :109


अर्थ : देश के भेद होने पर भी वस्तु का दूसरा उपादान नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे हम लोग देशों में जाकर वास करने ल्रते हैं, परन्तु इन्द्रियां नही बदलतीं वे ज्यों की त्यों रहती हैं, हमारा देश ही तो पलट जाता है। यदि देश भेद ही इन्द्रियों के बदलने में वा और उपादान कारण करने के हेतु होता है तो हम लोगों की इन्द्रियां भी वहां जाकर जरूर बदल जातीं, लेकिन देखने में नहीं आता, इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रिया पांचभौतिक नहीं, किन्तु अहंकार से पैदा है? प्रश्न- जब कि इन्द्रियों की तरह अहंकार से उत्पत्ति है तो उनको भोतिक क्यों प्रतिपादन किया है?


सूत्र :निमित्तव्यपदेशात्तद्व्यपदेशः II5/110

सूत्र संख्या :110


अर्थ : अन्द्रियों का निमित्त जो अहंकार है उससे पचंभूतों में भी इन्द्रियों का कार्णत्व स्थापन किया जाता है, जैसे-आग यद्यपि काष्ठादि रूप नहीं है तथापि उसका लकड़ी की आग इत्यादि रूपों से पुकारते हैं, इसी तरह इन्द्रियां भी भौतिक नहीं हैं, तो भी उनका भौतिक कहते हैं। प्रश्न- सृष्टि कितने प्रकार की है? उत्तर- छः प्रकार की, देखे-


सूत्र :ऊष्मजाण्डजजरायुजोद्भिज्जसांकल्पिकसांसिद्धिकं चेति न नियमः II5/111

सूत्र संख्या :111


अर्थ : (१) ऊष्मज (जो पसीने से पैदा होते हैं, जैसे लीख आदि), अण्डज (जो अण्डे से पैदा होते हैं, जैसे मुर्गी आदि), (३) जरायुग (जो झिल्लों से पैदा होते हैं, मनुष्य आदि), (४) उद्भिज्ज (जो जमीन को फोड़कर पैदा होते हैं, पेड़ आदि), (५) सांकल्पिक (जैसे सृष्टि के आदि में बिना माता-पिता के देवऋषि पैदा होते हैं), (६) सांसिद्धिक (जैसे खान में धातु बनते हैं)। आचार्य (कपिलजी) ने यही छः प्रकार की सृष्टि मानी है, लेकिन इन छः प्रकार के सिवाय और किसी तरह की सृष्टि नहीं हैं, ऐसा नियम भी नहीं, क्योंकि शायद किसी दशा में भूतों की सृष्टि इनसे अन्य प्रकार की हो। आचार्य के निश्चय से तो छः ही प्रकार की सृष्टि देखने में आती है।


सूत्र :सर्वेषु पृथिव्युपादानमसाधारण्यात्तद्व्यपदेशः पूर्ववत् II5/112

सूत्र संख्या :112


अर्थ : इन सब प्रकार की सृष्टियों का साधारण उपादान कारण पृथ्वी है, इसलिए इनका पार्थिव कहना योग्य है, और जो पंचभूतों का व्यपदेश (नाम) सुना जाता है वह पूर्वकथन के समान समझना चाहिये अर्थात् मुख्य उपादान कारण पृथ्वी है और सब गौण हैं। प्रश्न- इस शरीरा में प्राण ही प्रधान है, इसलिये प्राण को ही देह का कर्ता मानना चाहिए?


सूत्र :न देहारम्भकस्य प्राणत्वमिन्द्रियशक्तितस्तत्सिद्धेः II5/113

सूत्र संख्या :113


अर्थ : शरीर का कर्ता प्राण नहीं हो सकता, क्योंकि प्राण इन्द्रियों की शक्ति से अपने कार्यं को करता हैं और इन्द्रियों के साथ प्राण का अन्वय-व्यतिरेक दृष्टान्त भी हो सकता है कि जब तक इन्द्रियां हैं तब तक प्राण हैं, जब इन्द्रियां नाश हो गई तब प्राण भी नाश हो गया, इसलिए प्राण को देह का कारण नहीं कह सकते। प्रश्न- जबकि शरीर के बनने में प्राण नहीं है तो बिना प्राण के भी शरीर की उत्पत्ति होनी चाहिये?


सूत्र :भोक्तुरधिष्ठानाद्भोगायतननिर्माणम-न्यथा पूतिभावप्रसङ्गात् II5/114

सूत्र संख्या :114


अर्थ : भोक्ता (पुरूष) के व्यापार से शरीर का बनना हो सकता है। यदि वह प्राणों को अपने-अपने स्थान न लगावे तो प्राण-वायु कभी भी ठीक-ठीक रसों को नहीं पका सकता। जब रस ठीक तरह से न पकेंगे तो शरीर में सैकड़ों तरह के रोग पैदा हो जायेंगे और दुर्गन्ध आने लगेंगी। अतएव यद्यपि प्राण कारण है लेकिन मुख्य कारण पुरूष को ही मानना चाहिये। प्रश्न- जो अधिष्ठानतृत्व (बनानेवालापन) पुरूष में माना जाता हैं वह अधिष्ठातृत्व यदि प्राण में ही माना जावे तो क्या हानि है?


सूत्र :भृत्यद्वारा स्वाम्यधिष्ठितिर्नैकान्तात् II5/115

सूत्र संख्या :115


अर्थ : इस प्रकार हम भी पुरूष को अधिष्ठाता मानते है। जैसे राजा अपने भृत्यों (नौकरों) के द्वारा मकानादिकों को बनवाता है और वह मकानादि राजा के बनाये हुए हैं, इस प्राकर लोक में प्रसिद्ध होते हैं और उन मकानों का मालिक भी राजा ही है। इसी प्रकार पुरूष भी प्राण और इन्द्रियों के द्वारा शरीर को चलता है, परन्तु अकेला आप नहीं चलता और बिना उसके यह शरीर चल नहीं सकता इससे वह अधिष्ठाता समझा जाता है। अब इससे आगे पुरूष का मुक्त दशा में स्वरूप आदि कहते हैं।


सूत्र :समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता II5/116

सूत्र संख्या :116


अर्थ : समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में पुरूष को ब्रह्मरूपता हो जाती है अर्थात् जैसा ब्रह्म आनन्स्वरूप हैं वैसे ही जीव भी आनन्दस्वरूप हो जाता है। इस सूत्र का अर्थ और टीकाकारों ने ऐसा किया है कि समाधि, सुषुप्ति, मोक्ष इन तीनों अवस्थाओं में जीव ब्रह्म हो जाता है, परन्तु ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं हैं, क्योंकि रूप शब्द का सादृश अर्थ है, जैसा कि अमुक मनुष्य देवस्वरूप है इसके कहने से यह प्रयोजन सिद्ध हो जाता है कि यह देव नहीं है, किन्तु देवताओं के से उसमें गुण है जो विद्वान हैं उनको ही देवता कहते हैं, इस बात को यह कह चुके हैं। इसी से उसको देवस्वरूप कहा गया। यदि देवता ही कहना स्वीकार होता तो अमुक मनुष्य देवता है उतना ही कहना योग्य था, इसलिये इस कहे हुए सूत्र में भी ब्रह्म के से कितने ही गुण इन अवस्थाओं में हो जाते हैं, परन्तु जीव ब्रह्म नहीं हो जाता है तो ‘ब्रह्मरूपता’ न कहते, किन्तु ‘‘ब्रह्मत्वम्’’ ऐसा कहते। जो ब्रह्म को और जीव को एक मानते हैं उनका मत इस ज्ञापन से दूषित हुआ। प्रश्न- जबकि समाधि और सुषुप्ति में भी आनन्द हो जाता है, तो मुक्ति के लिए उपाय की क्या जरूरत है, और मुक्ति में अधिक कौनसी बात रही है?


सूत्र :द्वयोः सबीजमन्यत्र तद्धतिः II5/117

सूत्र संख्या :117


अर्थ : समाधि और सुषुप्ति में जो आनन्द प्रात होता है वह थोड़े ही समय के लिए होता है और उसमें बन्ध भी बना रहता है। मोक्ष का आनन्दों और मोक्ष के आनन्द में है। प्रश्न- समाधि और सुषुप्ति यह दोंनों प्रत्यक्ष दीखती हैं, परन्तु मोक्ष प्रत्यक्ष नहीं दीखता, इसलिए इसमें आनन्द न कहना चाहिए।


सूत्र :द्वयोरिव त्रयस्यापि दृष्टत्वान्न तु द्वौ II5/118

सूत्र संख्या :118


अर्थ : जैसे समाधि और सुषुप्ति यह दोनों प्रत्यक्ष दीखती हैं, वैसे ही मोक्ष भी प्रत्यक्ष दीखता हैं वह प्रत्यक्ष इस प्रकार होता है कि जब तक मनुष्य किसी कर्म को करके उसका फल नहीं भोग लेता है तब तक कर्म के साधन करने के लिए उसकी नीयत नहीं होती, जैसे-पहले भोजन कर चुके हैं तो दूसरे दिन भी भोजन करने के लिए उपाय किया जाता है। इसी तरह जब पहिले जीव मोक्ष के सुख को जान चुका है तब फिर भी मोक्ष सुख के लिए उपाय करने की नीयत होती है। यदि यह कहा जावे कि इस जन्म में जिस मनुष्य ने कभी राज्य सुख नहीं भोगा है, परन्तु उसकी यह इच्छा रहती है कि राज्य का सुख प्राप्त हो। इसका यह उत्तर है कि राज्य में जो सुख होता है उसका तो नेत्रों से देखते हैं इससे यह साबित हुआ कि या तो मोक्ष का सुख कभी आप उठाया है अथवा किसी को मोक्ष से आनन्दित देखा है, इसलिये उसकी मोक्ष में नीयत होती है, यही प्रत्यक्ष प्रमाण है और अनुमान से इस प्रकार मोक्ष को जान सकता है कि सुषुप्ति में जो आनन्द प्राप्त होता है उसको नाश करने वाले चित्त के रागादि दोष हैं वे रागादिक ज्ञान के अतिरिक्त और किसी प्रकार नाश नहीं हो सकते हैं। जब ज्ञान प्राप्त हो जायेगा तब सुषुप्ति आदि सब अवस्थाओें की अपेक्षा जिसमें अधिक समय तक आनन्द की प्राप्ति हो, ऐसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं। प्रश्न- समाधि में तो वैराग्य से कर्मों की वासना कमती हों जाती है, इस वास्ते समाधि में तो आनन्द प्राप्त हो सकता है, परन्तु सुषुप्ति में वासना प्रबल होती है, तो पदार्थों का ज्ञान भी अवश्य होगा अर्थात् वासनायें अपने विषय की तरफ खेंचकर उनमें जीव को लगा देंगी। जब पदार्थ का ज्ञान रहा तो आनन्द प्राप्ति कैसी?


सूत्र :वासनयानर्थख्यापनं दोषयोगेऽपि न निमित्तस्य प्रधानबाधकत्वम् II5/119

सूत्र संख्या :119


अर्थ : जैसे वैराग्य में वासना कमती होकर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती, इस तरह निद्रा दोष के योग से भी वासना अपने विषय की ओर नहीं खींच सकती, क्योंकि वासनाओं का निमित्त जो संस्कार है वह निद्रा के दोष से बाधित हो चुका है, इस वास्ते सुषुप्ति में भी समाधि की तरह आनन्द रहता है। पहले इस बात को कह चुके हैं कि संस्कार के लेश से जीवान्मुक्त शरीर बन सकता है। प्रश्न- जब संस्कार से शरीर बना रहता है वह एक ही संस्कार उस जीव के प्राण धारणरूपी क्रिया को दूर कर देता है वा पृथक्-पृथक् क्रियाओं के लिए पृथक्-पृथक् संस्कार हैं?


सूत्र :एकः संस्कारः क्रियानिर्वर्तको न तु प्रतिक्रियं संस्कारभेदा बहुकल्पनाप्रसक्तेः II5/120

सूत्र संख्या :120


अर्थ : जिस संस्कार से शरीर का कार्य चल रहा है वह एक ही संस्कार निवृत्त होकर शारीरिक क्रियाओं को भी दूर कर देता है। हर एक क्रिया के वास्ते अलग-अलग संस्कार नहीं मानने चाहियें, क्योंकि बहुत से संस्कार हो जायेंगे और उन बहुत से संस्कारों का होना व्यर्थ हैं। प्रश्न- सुषुप्ति अवस्था में बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, इस कारण उस दशा में शरीर को भोगायतन मानना ठीक नहीं।


सूत्र :न बाह्यबुद्धिनियमो वृक्षगु-ल्मलतौषधिवनस्पतितृणवीरुधादीनामपि भोक्तृभोगायतनत्वं पूर्ववत् II5/121

सूत्र संख्या :121


अर्थ : कुछ पुस्तकों में दो सूत्र माने गए हैं। अर्थ- जिसमें बाह्य बुद्धि होती है उसको शरीर कहते हैं, यह नियम भी नहीं हैं, क्योंकि मृतक शरीर में बाह्य बुद्धि नहीं होती है तो क्या उसको शरीर नही कह सकते हैं। और वृक्ष, गुल्म, औषधि, वनस्पति, तृणः वीरूद्ध आदिकों में बहुत से जीव भाग के निश्चित रहते हैं और उनका बाहर के पदार्थों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता, यदि बाहर के पदार्थों के ज्ञान से ही शरीर माना जावे तो उनको शरीर को शरीर न मानना चाहिए।


सूत्र :स्मृतेश्च II5/122

सूत्र संख्या :122


अर्थ : ‘‘शरीरजैः कर्मदोपैर्याति सर्थावरतां रनः’’ शरीर से पैदा हुए कर्म के दोषों से मनुष्य स्थावर योनि को प्राप्त होता है, इस बात को स्मृतियां कहती हैं। इससे सिद्ध होता है कि स्थावर भी शरीरी हैं? प्रश्न- जबकि वृक्षादिकों को भी शरीरधारी मानते हो तो उनमें धर्माधर्म मानने चाहियें?


सूत्र :न देहमात्रतः कर्माधिकारित्वं वैशिष्ट्यश्रुतेः II5/123

सूत्र संख्या :123


अर्थ : देहधारी मात्र को शुभा शुभ कर्मों का अधिकार नहीं दिया गया है किन्तु श्रुतियों ने मनुष्य जाति को ही धर्माधर्म का अधिकार प्रतिपादन किया है। देह के भेद से ही कर्म-भेद हैं, इस बात को आगे के सूत्र से शुद्ध करते हैं।


सूत्र :त्रिधा त्रयाणां व्यवस्था कर्मदेहोपभोगदेहोभयदेहाः II5/124

सूत्र संख्या :124


अर्थ : उत्तम, मध्यम, अधम, इन तीन तरह के शरीरों की तीन व्यवस्था हैं और उनके वास्ते ही धर्म आदि अधिकार हैं एक कर्म-देह जो सिर्फ कर्मों के करते-करते ही पूरा हो जाय जैसे अनेक ऋषि मुनियों का जन्म तप के करने ही में पूरा हो जाता है। दूसरा उपभोग देह जैसे अनेक पशु-पक्षी कीटादि का शरीर कर्मफल भोगते ही पूरा हो जाता है। तीसरा समान्य उभय देह है, जिसने कर्म भी किये हों और भोग भी भोगे हों, जैसे सामान्य मनुष्यों का शरीर। केवल दो प्रकार के देहों के लिए कर्म की विधि है, भोग योनि के वास्ते नहीं। मनुष्यों के अतिरिक्त और सब उपभोग देह अर्थात् भोग योनि हैं, इसलिये उनको धर्माधर्म का विधान नहीं है।


सूत्र :न किं चिदप्यनुशयिनः II5/125

सूत्र संख्या :125


अर्थ : जो मुक्त हो गया है उसके वास्ते कोई भी विधान नहीं हैं, औ न उसको किसी विशेष नाम से कह सकते हैं। प्रश्न- जीव को इस शास्त्र में नित्य माना है तो उस जीव के आश्रय में रहने वाली बुद्धि को भी नित्य मानना चाहिये?


सूत्र :न बुद्ध्यादिनित्यत्वमाश्रयविशेषेऽपि वह्निवत् II5/126

सूत्र संख्या :126


अर्थ : यद्यपि बुद्धि आदि का आश्रय जीव नित्य है तो भी बुद्धि आदि नित्य नहीं है, जैसे चन्दन का काठ शीत प्रकृति वाला होता है परन्तु आग के संयोग होने पर उसकी शीतलता आग में नहीं हो सकती।


सूत्र :आश्रयासिद्धेश्च II5/127

सूत्र संख्या :127


अर्थ : जीव बुद्धि का आश्रय हो ही नहीं सकता। इनका सम्बन्ध इस तरह जैसे स्फटिक और फूल का है, इस वास्ते प्रतिबिम्ब कहना चाहिए आश्रय नहीं। इस विषय पर यह संदेह होता है कि आचार्य योग की सिद्धियों को सच्ची मानते हैं और उनके द्वारा मुक्ति को भी मानते हैं, परन्तु योग की ऐसी भी सैकड़ों सिद्धियां हैं जो समझ में नहीं आतीं। इस विषय पर आचार्य आप ही कहते हैं।


सूत्र :योगसिद्धयोऽप्यौषधादिसिद्धिवन्नापलपनीयाः II5/128

सूत्र संख्या :128


अर्थ : जैसे औषधियों की सिद्धि होती है अर्थात् एक-एक औषध से अनेक रोगों की शान्ति होती है, इसी तरह योग की सिद्धियों को भी जानना चाहिए। कपिलाचार्य को चैतन्य मानते हैं अतएव जो पृथ्वी आदि भूतों को चैतन्य मानते हैं उनके मत को दोषयुक्त ठहरा कर अध्याय को समाप्त करते हैं।


सूत्र :न भूतचैतन्यं प्रत्येका-दृष्टेः सांहत्येऽपि च सांहत्येऽपि च II5/129

सूत्र संख्या :129

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : मिलने पर भी भूतों में चैतन्य नहीं हो सकता। यदि उनमें चेतनता होती तो उनके अलग-अलग होने पर भी दीखती, किन्तु पृथक् होने पर उनको जड़ देखते हैं तो चेतना कैसे मानें? ‘‘सांहत्येऽपि च’’ ऐसा दो बार कहना अध्याय की समाप्ति का सूचक है। इति सांख्यदर्शंने पंचमोऽध्यायः समाप्तः।





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