द्विचत्वारिंशोऽध्यायः
शमीकका अपने पुत्रको समझाना और गौरमुखको राजा परीक्षित्के पास भेजना, राजाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था तथा तक्षक नाग और काश्यपकी बातचीत
शृङ्गयुवाच
यद्येतत् साहसं तात यदि वा दुष्कृतं कृतम् ।
प्रियं वाप्यप्रियं वा ते वागुक्ता न मृषा भवेत् ॥१॥
शृंगी बोला-तात! यदि यह साहस है अथवा यदि मेरे द्वारा दुष्कर्म हो गया है तो हो जाये। आपको यह प्रिय लगे या अप्रिय, किंतु मैंने जो बात कह दी है, वह झूठी नहीं हो सकती ।। १॥
नैवान्यथेदं भविता पितरेष ब्रवीमि ते ।
नाहं मषा ब्रवीम्येवं स्वैरेष्वपि कुतः शपन् ॥२॥
पिताजी! मैं आपसे सच कहता हूँ, अब यह शाप टल नहीं सकता। मैं हँसी-मजाकमें भी झूठ नहीं बोलता, फिर शाप देते समय कैसे झूठी बात कह सकता हूँ॥२॥
शमीक उवाच
जानाम्युग्रप्रभावं त्वां तात सत्यगिरं तथा।
नानृतं चोक्तपूर्व ते नेतन्मिथ्या भविष्यति ॥३॥
शमीकने कहा-बेटा! मैं जानता हूँ तुम्हारा प्रभाव उग्र है, तुम बड़े सत्यवादी हो, तुमने पहले भी कभी झूठी बात नहीं कही है; अतः यह शाप मिथ्या नहीं होगा ।।३।।
पित्रा पुत्रो वयःस्थोऽपि सततं वाच्य एव तु ।
यथा स्याद् गुणसंयुक्तः प्रामुयाच्च महद्यशः ।।४।।
तथापि पिताको उचित है कि वह अपने पुत्रको बड़ी अवस्थाका हो जानेपर भी सदा सत्कर्माका उपदेश देता रहे; जिससे वह गुणवान् हो और महान् यश प्राप्त करे ।। ४ ।।
किं पुनर्वाल एव त्वं तपसा भावितः सदा।
वर्धते च प्रभवतां कोपोऽतीव महात्मनाम् ॥५॥
फिर तुम्हें उपदेश देनेकी तो बात ही क्या है, तुम तो अभी बालक ही हो। तुमने सदा तपस्याके द्वारा अपनेको दिव्य शक्तिसे सम्पन्न किया है। जो योगजनित ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं, ऐसे प्रभावशाली तेजस्वी पुरुषोंका भी क्रोध अधिक बढ़ जाता है; फिर तुम जैसे बालकको क्रोध हो, इसमें कहना ही क्या है ॥ ५ ॥
सोऽहं पश्यामि वक्तव्यं त्वयि धर्मभृतां वर ।
निसियशिकायपुत्रत्वं बालतां चैव तवावेक्ष्य च साहसम् ।।६।।
किंतु यह क्रोध धर्मका नाशक होता है) इसलिये धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पुत्र! तुम्हारे बचपन और दुःसाहसपूर्ण कार्यको देखकर मैं तुम्हें कुछ कालतक उपदेश देनेकी आवश्यकता समझता हूँ॥६॥
स त्वं शमपरो भूत्वा वन्यमाहारमाचरन् ।
चर क्रोधमिम हत्या नैवं धर्म प्रहास्यसि ॥७॥
तुम मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें तत्पर होकर जंगली कन्द, मूल, फलका आहार करते हुए इस क्रोधको मिटाकर उत्तम आचरण करो: ऐसा करनेसे तुम्हारे धर्मकी हानि नहीं होगी ।।७।।
क्रोधो हि धर्म हरति यतीनां दुःखसंचितम्।
ततो धर्मविहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते ॥८॥
क्रोध प्रयत्नशील साधकोंके अत्यन्त दुःखसे उपार्जित धर्मका नाश कर देता है। फिर धर्महीन मनुष्योंको अभीष्ट गति नहीं मिलती है।॥८॥
शम एव यतीनां हि क्षमिणां सिद्धिकारकः ।
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम् ।।९॥
शम (मनोनिग्रह) ही क्षमाशील साधकोंको सिद्धिकी प्राप्ति करानेवाला है। जिनमें क्षमा है, उन्हीं के लिये यह लोक और परलोक दोनों कल्याणकारक हैं ॥९॥
तस्माच्चरेथाः सततं क्षमाशीलो जितेन्द्रियः ।
क्षमया प्राप्स्यसे लोकान् ब्रह्मणः समनन्तरान् ।। १०॥
इसलिये तुम सदा इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए क्षमाशील बनो। क्षमासे ही ब्रह्माजीके निकटवर्ती लोकोंमें जा सकोगे ।।१०।।
मया तु शममास्थाय यच्छक्यं कर्तुमद्य वै।
तत् करिष्याम्यहं तात प्रेषयिष्ये नृपाय वै ।। ११ ।।
मम पुत्रेण शप्तोऽसि बालेन कशबुद्धिना।
ममेमां धर्षणां त्वत्तः प्रेक्ष्य राजन्नमर्षिणा ।। १२ ।।
तात! मैं तो शान्ति धारण करके अब जो कुछ किया जा सकता है, वह करूंगा। | राजाके पास यह संदेश भेज दूंगा कि 'राजन्! तुम्हारे द्वारा मुझे जो तिरस्कार प्राप्त हुआ है उसे देखकर अमर्षमें भरे हुए मेरे अल्पबुद्धि एवं मूढ पुत्रने तुम्हें शाप दे दिया है ।। ११-१२ ।।
सोतिरुवाच
एवमादिश्य शिष्यं स प्रेषयामास सुव्रतः ।
परिक्षिते नृपतये दयापन्नो महातपाः ।। १३ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं-उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दयाल एवं महातपस्वी शमीक मुनिने अपने गौरमुख नामवाले एकाग्रचित्त एवं शीलवान् शिष्यको इस प्रकार आदेश दे | कुशल-प्रश्न, कार्य एवं वृतान्तका संदेश देकर राजा परीक्षित्के पास भेजा ।। १३-१४ ।।
सोऽभिगम्य ततः शीघ्रं नरेन्द्रं कुरुवर्धनम्।।
विवेश भवनं राज्ञः पूर्व द्वाःस्थेनिवेदितः ।। १५ ।।
गौरमुख वहाँसे शीघ्र कुरुकुलकी वृद्धि करनेवाले महाराज परीक्षितके पास चला गया। राजधानी में पहुँचनेपर द्वारपालने पहले महाराजको उसके आनेकी सूचना दी और उनकी आज्ञा मिलनेपर गौरमुखने राजभवन में प्रवेश किया ॥१५॥
पूजितस्तु नरेन्द्रेण द्विजो गोरमुखस्तदा।
आचख्यो च परिश्रान्तो राज्ञः सर्वमशेषतः ।। १६ ।।
शमीकवचनं घोरं यथोक्तं मन्त्रिसन्निधो।
महाराज परीक्षितने उस समय गौरमुख ब्राह्मणका बड़ा सत्कार किया। जब उसने विश्राम कर लिया, तब शमीकके कहे हुए घोर वचनको मन्त्रियोंके समीप राजाके सामने पूर्णरूपसे कह सुनाया ।। १५१॥
गौरमुख उवाच
शमीको नाम राजेन्द्र वर्तते विषये तव ॥ १७॥
ऋषिः परमधर्मात्मा दान्तः शान्तो महातपाः ।
तस्य त्वया नरव्याघ्र सर्पः प्राणर्वियोजितः ॥ १८ ॥
अवसक्तो धनुष्कोट्या स्कन्धे मोनान्वितस्य च ।
क्षान्तवांस्तव तत् कर्म पुत्रस्तस्य न चक्षमे ।। १९ ॥
गौरमुख बोला-महाराज! आपके राज्यमें शमीक नामवाले एक परम धर्मात्मा महर्षि रहते हैं। वे जितेन्द्रिय, मनको वशमें रखनेवाले और महान तपस्वी हैं। नरव्याघ्र! आपने मौन व्रत धारण करनेवाले उन महात्माके कंघेपर धनुषकी नोकसे उठाकर एक मरा हुआ साँप रख दिया था। महर्षिने तो उसके लिये आपको क्षमा कर दिया था, किंतु उनके पुत्रको वह सहन नहीं हुआ ।। १०-१९ ॥
तेन शप्तोऽसि राजेन्द्र पितुरज्ञातमद्य वै।
तक्षकः सप्तरात्रेण मृत्युस्तव भविष्यति ।। २० ॥
राजेन्द्र! उस ऋषिकुमारने आज अपने पिताके अनजानमें ही आपके लिये यह शाप दिया है कि 'आजसे सात रातके बाद ही तक्षक नाग आपकी मृत्युका कारण हो जायगा' ॥२०॥
गौरमुखके चले जानेपर राजाने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियोंके साथ गुप्त मन्त्रणा की ।। २८॥
सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिश्चैव स तथा मन्त्रतत्त्ववित् ।
प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम् ।। २९ ।।
मन्त्र-तत्त्वके ज्ञाता महाराजने मन्त्रियोंसे सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; जिसमें एक ही खंभा लगा था। वह भवन सब ओरसे सुरक्षित था ।। २९ ।।
रक्षां च विदघे तत्र भिषजश्वोषधानि च ।
ब्राह्मणान् मन्त्रसिद्धांश्च सर्वतो वे न्ययोजयत् ।। ३०॥
राजाने वहाँ रक्षाके लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकारकी ओषधियाँ जुटा ली और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणोंको सब ओर नियुक्त कर दिया ।। ३०॥
राजकार्याणि तत्रस्थः सर्वाण्येवाकरोच्च सः ।।
मन्त्रिभिः सह धर्मज्ञः समन्तात् परिरक्षितः ॥३१॥
वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओरसे सुरक्षित हो मन्त्रियोंके साथ सम्पूर्ण राजकार्यकी व्यवस्था करने लगे ।। ३१ ।।
न चैनं कश्चिदारुडं लभते राजसत्तमम् ।
वातोऽपि निश्वरंस्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते ।। ३२ ।।
उस समय महलमें बैठे हुए महाराजसे कोई भी मिलने नहीं पाता था। वायुको भी वहाँसे निकल जानेपर पुनः प्रवेशके समय रोका जाता था ।। ३२ ॥
प्राप्ते च दिवसे तस्मिन् सप्तमे द्विजसत्तमः।
काश्यपोऽभ्यागमद् विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम् ।। ३३ ।।
सातवाँ दिन आनेपर मन्त्रशास्त्रके ज्ञाता द्विज श्रेष्ठ काश्यप राजाकी चिकित्सा करनेके लिये आ रहे थे ।। ३३ ।।
श्रुतं हि तेन तदभूद् यथा तं राजसत्तमम्।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्यते यमसादनम् ।। ३४ ।।
उन्होंने सुन रखा था कि 'भूपशिरोमणि परीक्षितको आज नागोंमें श्रेष्ठ तक्षक यमलोक पहुँचा देगा' ।। ३४ ।।
तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण करिष्येऽहमपज्वरम् ।
तत्र मेऽर्थश्व धर्मश्च भवितेति विचिन्तयन् ।। ३५॥
अतः उन्होंने सोचा कि नागराजके डंसे हुए महाराजका विष उतारकर मैं उन्हें जीवित कर दूँगा। ऐसा करनेसे वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजाको जिलानेसे धर्म भी होगा ।। ३५ ॥
तं ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षकः काश्यपं पथि।
गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोऽतिगः ।। ३६ ।।
तमब्रवीत् पन्नगेन्द्रः काश्यपं मुनिपुङ्गवम्।
क्व भवांस्त्वरितो याति किं च कार्य चिकीर्षति ।। ३७॥
मार्गमें नागराज तक्षकने काश्यपको देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुरकी ओर बड़े जा रहे थे। तब नागराजने बूढ़े ब्राह्मणका वेश बनाकर मुनिवर काश्यपसे पूछा-'आप कहाँ बड़ी उतावलीके साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?' || ३६-३७ ।।
काश्यप उवाच नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिन्दमम् ।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाद्य प्रधक्ष्यति ।। ३८ ॥
काश्यपने कहा-कुरुकुलमें उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित्को आज नागराज तक्षक अपनी विषाग्निसे दग्ध कर देगा ।। ३८ ॥
तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसा ।
पाण्डवानां कुलकरं राजानममितोजसम् ।
गच्छामि त्वरितं सौम्य सद्यः कर्तुमपज्वरम् ।। ३९ ।।
वे राजा पाण्डवोंकी वंशपरम्पराको सुरक्षित रखने वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। अतः सौम्य! अग्निके समान तेजस्वी नागराजके डंस लेनेपर उन्हें तत्काल विषरहित करके जीवित कर देनेके लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ ।। ३९ ॥
तक्षक उवाच
अहंस तक्षको ब्रह्मस्तं धक्ष्यामि महीपतिम् ।
निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् ।। ४०॥
तक्षक बोला-ब्रह्मन्! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजाको भस्म कर डालूँगा। आप लौट जाइये। मैं जिसे डॅस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते ।। ४० ।।
काश्यप उवाच
अहं तं नृपतिं गत्वा त्वया दष्टमपज्वरम् ।
करिष्यामीति मे बुद्धिर्विद्याबलसमन्विता ।। ४१ ।।
काश्यपने कहा-मैं तुम्हारे डंसे हुए राजाको वहाँ जाकर विषसे रहित कर दूंगा। यह विद्याबलसे सम्पन्न मेरी बुद्धिका निश्चय है ।। ४१ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि काश्यपागमने द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥४२ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें काश्यपागमनविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ४२ ।।
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