मनुष्य ब्रह्मांड का केन्द्र है, ऐसा मेरा कहना नहीं है, ऐसा हमारे ऋषि महर्षियों का कहना है, इसमें मेरा भी अनुभव है, जिससे यह बात सिद्ध होती है, उदाहरण के लिए जब तक आप संसार में हैं, तभी तक आप के लिए संसार है, आपके नहीं रहने पर संसार या ब्रह्मंड है इससे आपको क्या फर्क पड़ता है? आपके साथ ही एक ब्रह्मांड का जन्म होता है और आप के साथ ही ब्रह्मंड का अंत भी होता है, यदि आपका अंत होता है तो ब्रह्मंड का भी अंत होता है, यदि आप का अंत नहीं होता है तो ब्रह्मांड का भी अंत नहीं होता है। आप और ब्रह्मांड का बहुत गहरा संबंध है, मानव स्वयं को जब क्षुद्र वस्तु से जोड़ लेता है तो वह भी स्वयं क्षुद्र हो जाता है, और जब वह स्वयं को वृहद वस्तु से संबंध जोड़ लेता है तो वह विशाल हो जाता है, उदाहरण के लिए यदि आप किसी जंगल में किसी आदिवासी के साथ उसकी मलिन वस्ती में रहते हैं, तो आप भी उन्हीं मलिन आदिवासियों के श्रेणी में आते हैं, और आप भी एक क्षूद्र प्रजाती के मनुष्य बन कर रह जाते हैं, और यदि आप एक बड़े मानव के साथ रहते हैं, जो हमारे समाज में किसी बहुत बड़े ओहदे पर रहता है, जैसे वह मूख्यमंत्री या प्रधानमंत्री हैं, या वह हमारे देश के बहुत बड़े व्यापारी हैं, जिनका व्यापार दूर देश तक फैला हुआ है, इससे उनकी संपती या उनके गुण आप में केवल नहीं आते हैं यद्यपि आप में उनके संगत से समाज में आपकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़ता है।
यह तो साधारण बात हो गई, लेकिन जब आप का संबंध इस ब्रह्मांड से होता है तो आप कितने विशाल हो जाते हैं, लेकिन इसका आपको ज्ञान नहीं है, यदि कहें की आप जानते हैं, कि आपका इस ब्रह्मांड से बहुत गहरा संबंध है, तो इस बात को सिद्ध करने की जरूरत मैं नहीं समझता हूं। क्योंकि इस पृथ्वी पर मानव जाती के साथ जो दूसरे प्राणी हैं वह हर प्रकार से इस पृथ्वी के संसाधनो पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आश्रीत है, और आप भी इसी में से एक हैं, जिस प्रकार से आप पृथ्वी के संसाधन के आश्रीत हैं, उसी प्रकार से यह पृथ्वी हमारे सौर्य मंडल के आश्रीत है, और हमारा सौर्यमंडल हमारी आकाशगंगा पर निर्भर करता है और हमारी आकाशगंगा हमारे ब्रह्मंड पर आश्रीत है, इस तरह से मनुष्य भौतिक रूप से सीधा - सीधा ब्रह्मांड से जुड़ा है, या यह कहें की हम सब ब्रह्मांडिय मानव हैं, हमें इसका ज्ञान नहीं है, यह अलग बात है, इसका हमें ज्ञान कैसे होगा? अब यह मुख्य प्रश्न खड़ा होता है।
और भी कुछ प्रश्न खड़े होते हैं, उदाहरण के लिए दुनिया में दरीद्रता के साथ महंगाई बढ़ रही है, मूर्खता की और पागलपन की मात्रा बढ़ रही है, लोग पहले से अधिक मात्रा में मानसीक बीमार हो रहें हैं, आज लोगों ऐसे ज्ञान की जरूरत हैं, जो उनके आमदनी के श्रोत को बढ़ाए, आप कह सकते हैं, कि मैंने यह कैसा प्रश्न ले कर आज आपके सामने उपस्थित हो गया हूं, जिसमें यह सिद्ध करने का प्रयाश कर रहां हूंं की आप ब्रह्मांड के केन्द्र हैं, या आप स्वयं ब्रह्मांडीय मानव है या आप स्वयं ब्रह्मांड है। आप यह भी पूछ सकते हैं, की आखीर इस ब्रह्मांड के केन्द्र होने या ना होने से हमें क्या फर्क पड़ता है, इससे हमें क्या फायदा होगा?
इस प्रकार के प्रश्न अवश्य आपके जहन में उठ सकते हैं, इसके बावजूद मैं आपसे कहता हूं की आपके जीवन की सारी समस्या का समाधान और इस संसार की समस्या का समाधान इस प्रश्न के उत्तर को प्राप्त करने से आपको मिल जाएगा, और इससे आपको अकल्पनिय फायदा होने वाला है, सबसे मुख्य जो बात है, की आपको स्वयं पर भरोशा और आस्था करना होगा, जो आप सच में है आपको यहां संसार मूर्ख बनाया जा रहा है। और आप अपनी मूर्खता के कारण ही संसय की स्थिति में जीवन व्यतीत करते हैं, आपको अपनेे ज्ञान पर भरोषा नहीं हैं। आपको आपने ज्ञान पर और अपनी विशालता का ज्ञान होना बहुत जरूरी है।
यह एक सार्भौमिक सत्य है और आपको इसका साक्षात्कार अवश्य करना चाहिए, क्योंकि आपके जीवन क यहीं मुख्य उद्देश्य है, जब तक आप इस सत्य को नहीं जानते हैं, तब तक आप स्वयं को मात्र एक क्षूद्र प्राणी समझते हैं, जो ता उम्र अपनी समस्या के समाधान के लिए ही परेशान रहता है, सत्य तो यह की आपके पास कोई समस्या है ही नहीं, आपके पास संपूर्ण जगत के प्राणियों के समस्या का समाधान करने का सामर्थ्थ है। लेकीन आप इसको नहीं जानते हैं, आपको एक सम्राट के रूप में उत्पन्न किया गया है, और आप स्वयं के एक श्रेष्ठ दास बनाने के अपने जीवन की सभी शक्ति को लगा रहें हैं, जिसमें अंत में आपको ज्ञात होता है, की आप इसमें भी पुरी तरह से सफल नहीं हो सके हैं।
इसको और अधिक विस्तार से मैं यजुर्वेद के मंत्रों से सिद्ध करता हूं जो मेरी बात को प्रमाणित करते हैं बहुत सून्दर तरीके से उदाहरण के लिए यजुर्वेद अध्याय 20 के प्रथम मंत्र को ही लेते हैं।
क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि क्ष॒त्रस्य॒ नाभि॑रसि।
मा त्वा॑ हिꣳसी॒न्मा मा॑ हिꣳसीः॥१॥
इस मंत्र का प्रथम शब्द कहता है, क्षत्रस्य अर्थात जो क्षत्र के समान है, क्षत्र का तात्पर्य कई तरह से लिया जा सकता है, क्षत्र से क्षेत्र बना है, जिसका अर्थ पृथ्वी का भुभाग होता है, क्षत्र का मतलब आकाश भी होता है क्योंकि आकाश भी एक प्रकार का क्षेत्र हैं जिसमें बहुत सी आकाशगंगा और ब्रह्मंड बीगड़ते और बनते रहते हैं, क्षेत्र का मतलब मानव या किसी प्राणी की शरीर को भी कहते हैं, तो इसके तीन अर्थ हुए पहला क्षेत्र आकाश है, दूसरा क्षेत्र यह पृथ्वी है तीसरा क्षेत्र यह सभी प्राणीयों की शरीर है, इसी मंत्र का अगला शब्द कहता है योनीरसी अर्थात जो सभी प्राणीयों के उत्पन्न होने का केन्द्र है, सभी प्राणीयों के साथ पृथ्वी और ब्रह्मंड के उत्पत्ती का भी जो उद्भव स्थल जैसा है, अर्थात इन दोनो शब्दों का अर्थ कुछ इस प्रकार से होगा की यह क्षेत्र ही सभी के भौतीक पदार्थों के उद्भव का साधन है, साधारण बात में यह कह सकते हैं, की मानव शरीर के उत्पन्न होने का साधन यह स्वयं की मानव शरीर ही है, इसी प्रकार से पृथ्वी और ब्रह्मांड के साथ भी होता है, अर्थात पृथ्वी भी से ही पृथ्वी उत्पन्न होती और ब्रह्मंड से ही ब्रह्मांड उत्पन्न होता है। अब आगला मंत्र का शब्द कहता है की यह क्षेत्र ही सब का केन्द्र नाभी के समान है, या नाभी है, जिस प्रकार से मानव शरीर का केन्द्र स्वयं मानव शरीर ही है उसी प्रकार से पृथ्वी का केन्द्र भी पृथ्वी ही है उसी प्रकार से ब्रह्मांड का केन्द्र भी ब्रह्मांड में है, जिस प्रकार से मानव शरीर में ही मानव का केन्द्र है, और यह मानव शरीर पृथ्वी पर है, और यह पृथ्वी ब्रह्मांड में हैं, इस प्रकार से यह बात सिद्ध होती है की इस ब्रह्माड का केन्द्र यह पृथ्वी है और इस पृथ्वी का केन्द्र मानव है और मानव का केन्द्र उसकी चेतना है। अगली वाक्य मंत्र का कहता है, कि तुम अर्थात जो समझदार मानव हैं वह इस बाहरी क्षेत्र अर्थात ब्रह्मांड की और आंतरीक आत्मा के क्षेत्र को हिंसित मत कर उसका नाश मत करें अर्थात इन दोनों की रक्षा करें।
निष॑साद धृ॒तव्र॑तो॒ वरु॑णः प॒स्त्यास्वा। साम्रा॑ज्याय सु॒क्रतुः॑।
मृ॒त्योः पा॑हि वि॒द्योत् पा॑हि॥२॥
अगले मंत्र में अपनी इसी बात को और विस्तृत करते हुए कहते हैं, जैसा की पहले मंत्र में कहा की ब्रह्मंड का केन्द्र मानव चेतना है, और इसकी हमें हर प्रकार से रक्षा करनी चाहिए और यह रक्षा दो प्रकार की ही है पहली बात बाहर से रक्षा करनी है दूसरी बात हमें अपने अंदर से इसकी रक्षा करनी है, रक्षा की जरूरत क्यों हैं, इसको हम इस प्रकार से समझ सकते हैं, जैसे आपके पास बहुत बड़ी संपत्ती है, और उसकी रक्षा नहीं करते हैं, वह संपत्ती नाश हो सकती है, क्योंकि भौतीक जगत में सभी वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है की वह अपने जन्म के साथ ही अपनी मृत्यु को साथ लेकर आती है, इसलिए जीवीत व्यक्ति का यह कर्तव्य है की वह उस वस्तु की जो उसके अधिकार में है उसकी यथा संभव समय से पहले वह अपने नाश को उपलब्ध को ना उपलब्ध हो, इसको औरअधिक सरलता से इस प्रकार से समझ सकते हैं, जैसे आपके पास कुछ पशु हैं, तो आपको उनको आवश्यक जीवन को बनाए रखने के लिए जरूरी सामग्री को उपलब्ध कराना होगा, दूसरी बात आप के पास मान की एक बड़ी कार है, उसका सही तरह से देखभाल नहीं करेंगे तो वह समय से पहले समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार से आप अपनी शरीर का सही तरह से देखभाल नहीं करते हैं तो वह समय से पहले ही समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार से इसको हम बड़े स्तर पर समझ सकते हैं, की यदि पृथ्वी पर मानव ही सभी प्राणियों में सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी है, इसलिए ईश्वर ने इस पृथ्वी को यहां पर रहने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों को त्यागपूर्वक उपभोग करने के लिए दिया है, और वह श्रेष्ठ मनुष्य जिनको आज हम सरकार कहते हैं, यदि वह उस जमीन का सही देखभाल नहीं करती है तो वह जमीन बंजर बन जाएगी उससे फायदा के स्थान पर नुकसान संपूर्ण मानव जाती का होगा। इसी प्रकार से इस ब्रह्मांड का भी नुकसान होता है, यह बात थोड़ी बडी हैकी मानव के कृत्यों का प्रभाव मानव के साथ पृथवी पर पड़ता ही है, इसके साथ ब्रह्मांड पर भी पड़ता है, यह बात आज तक वैज्ञानिक भी नहीं जानते हैं, लेकनि वेद इसके लिए मानव को आगाह करता है, इसी बात को अगले मंत्र में यजुर्वेद के 20 अध्याय का दूसरा मंत्र कहता है, जिसका पहला शब्द कहता है, निषसाद अर्थात मानव को संबोधित करते हुए कहता है की मानव अपने धर्म अपनी मर्यादा अपनी कर्तव्य और अपनी जीम्मेदारी के प्रती निष्ठावान हो, क्योंकि उसके कंधें के ऊपर ईश्वर ने बहुत बड़ी आधारशीला को रखा है, यदि यह कमजोर पड़ेगा, तो सारा का सारा यह विश्व ब्रह्मांड तास के पत्तो अथवा रेत के महल के समान भर भरा कर गीर जाएगा, इसलिए ही मंत्र का अगला शब्द कहता है, धृतव्रतो यह एक शब्द दो शब्दों को आपस में मिला कर बना है, धृत का मतलब है धृति धैर्य और इस धैर्य को आप पृथ्वी से समझ सकते हैं, की यह कितनी अधिक धैर्यशाली है जो इतने बड़े संसार के सभी प्रकार के तांडव को बड़ी सहजता के साथ लाखों करोड़ों सालो से सहन कर रही है, बीना किसी प्रकार से बीचलीत हुए अपने निश्चित कार्य को निरंतर संपादित कर रही है, इसका व्रत कभी भंग नहीं होता है, इसी प्रकार से मानव को धृतव्रती होना चाहिए, दृढ़तापूर्वक अपने जीवन के रक्षा का जो मूख्य आधार धर्म हैं, उससे किसी भी भयंकर से भयंकर स्थित में बीना बीचलीत हुए स्थिर होना चाहिए, इस मंत्र का अगला शब्द उदारहरण देता है, की कैसा नीयम और धर्म आपका होना चाहिए, इसके लिए मंत्र कहता वरूण अर्थात जो जल है इसके समान होना चाहिए, जल के की प्रत्येक बुंद में एक नियम कार्य करता है, इसके प्रत्येक बुंद में दो प्रकार के परमाणु होते हैं, पहला आक्सिजन होता है दूसरा हाइड्रोजन होता है, जिसमें हाइड्रोजन के दो अणु होते हैं और एक आक्सिजन का अणु होता है, जो पानी अथवा जल के एक परमाणु को बनाते हैं, यदि इन अणुओं नीयम और धर्म नहीं होगा तो पानी का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार से मानव जीवन में जो चेतना है उसका एक नीयम है और उस नीयम को ही धर्म कहते हैं, और जब मावन चेतना अपने धर्म से बीमुख हो जाएगी तो उसका अस्तित्व समाप्त हो सकता है, क्योंकि धर्म और आत्मा को जोड़ कर एक शब्द बनता है, धर्मात्मा, इसके अतीरीक्त एक और शब्द है, जिसको आध्यात्म कहते हैं, अर्थात आत्मा का अध्याय आत्मा की शीक्षा या आत्मा का ज्ञान जिसको एक साथ आत्माज्ञान कहते हैं, इसी प्रकार से जो शरीर है, वह आत्मा से अलग है, जिसके लिए योग दर्शन में इसको बर्हीअंग कहते हैं, बर्हि से ही ब्रह्म बना है, और जो हमसे बाहर का तत्व है वह ब्रह्म है अर्थात जैसे जल एक अलग तत्व है जो मानव चेतना से भीन्न है, और जब हमें इसके नीयम का ज्ञान होजाता है तो हमें इसमें विद्यमान ब्रह्म अर्थात स्रष्टा जो इसका रचना कार इसका नियम है उसको ज्ञान हो जाता है तो हमें उसका ब्रह्मज्ञान हो जाता है, और बाहर से मतलब जो हमारी भौतिक पकड़ से दूर हमारी शक्ति से बाहर हैं, इसलिए इसको ब्रह्मांड भी कहता है, इस ब्रह्मांड का संबंध भी एक नीयम धर्म से है उसी को इस मंत्र का अगला शब्द कहता है, पस्त्यास्वा जिसका सीधा सा अर्थ है, प्राचिन अर्थात जिस नीयम पर अनादि काल से यह ब्रह्मांड निरंतर कार्य कर रहा है, इस मंत्र का अगला शब्द है साम्राज्याय इस शब्द का अर्थ है बहुत ही सरल है, सम्राज्य का मतलब है किसी सम्राट के अंदर में जो राज्य है, वह सम्राज्य है, इसके साथ एक और शब्द जोड़ा गया वह ज्याय अर्थात जिससे यह सब जन्म लेते हैं, वह अर्थात यह समस्त प्राणी, भुमंडल और ब्रह्मांड को जन्म देने वाला जो चेतन तत्व है जिसको हम सब ईश्वर कहते हैं, वह ईश्वर अपने सुक्रतु अर्थात अपने कार्य में नीपुण है, वह सुक्रतु है, जो अपने कार्य में किसी प्रकार की न्युनता नहीं छोड़ता है, वह इस सबका स्रष्टा है, जिसने अपने अद्वितिय सामर्थ्थय से इन सब का सृजन संबर्धन और इनका समय आने पर संहार करता है, क्योंकि जब इनका समय समाप्त हो जाता है, तो वह फिर से इन सबको इसी प्रकार से निर्मित करता है इसलिए वह इन वस्तुओं में विद्यमान जो धर्म या नीयम है वह उसका कर्ता है, और इस नीयम और धर्म के विपरीत वह अधर्म है, इसलिए ही मंत्र का अगला शब्द कहता है की वह मृत्यु है, अर्थात जो स्वयं धर्म अमर है, जिसके अधिकार में मृत्यु रहता है, इससे बचाने के लिए इसकी रक्षा के लिए ही वह जो सब का मूल है वह विद्युत रूप है, क्योंकि यह पदार्थ जो भौतीक रूप है, यह सब उसी विद्युत से बने है और इनका अंत भी विद्युत ही होता है, और जिस विद्युत की बात यहा हो रही है वह हमारे घरों में जलने वाली विद्युत नहीं है यद्यपि वह सभी भौतिक परमाणुओं में व्याप्त विद्युत है, और यह विद्युत चेतन है, जो अपनी स्वेच्छा से मन चाहे रूप और आकार को धारण कर लेता है, जैसे कोई जोदुगर अपनी इच्छा से मन चाहे रूप और आकार को धारण कर लेता है, ऐसा एक योगी भी कर सकता है, वह अपनी इच्छा से अपने रूप और आकार को बदल सकता है। यहां जो रूप और आकार को बदलने की बात है, यह बहुत ही अधिक मूल्यवान है क्योंकि यहां पर हम स्वयं को विशाल ईश्वर जैसा बना सकते हैं, एक नीयम पर चल कर और नीयम का पालन नहीं करते हैं तो हम स्वयं को कीड़े मकौड़ों में तब्दिल भी कर सकते हैं, इसी से स्वयं को बचाना है, जब मानव चेतना श्रेष्ठता के पग पर बढ़ती है तो वह महानता के शीखर पर पहूंच जाती है, जहां पर वह ब्रह्मांड के सृजन उत्थान में सहयोग करती है, और जब वह इसके विपरीत चलती है तो वह इसके पतन के लिए उत्तर दाई होती है, कल्पना करें की सभी मानव निकृष्टता के मार्ग पर बड़ी तीब्रता के साथ बढ़ रहें हैं, जिससे कुछ सौ सालों में ही वह स्वयं को इस पृथ्वी पर रहने योग्य नहीं पाएंगे क्योंकि पृथ्वी आज के 400 सौ साल के बाद ऐसी होगी जहां पर मनुष्यों का रहना असंभव होगा। और आज के समय पृथ्वी जैसा दूसरा कोई ग्रह नहीं है जिस पर मानव आसानी से जा कर अपनी संस्कृती और सभ्यता का विस्तार कर सके, मान लेते है की पृथ्वी कोई मील भी जाती है तो कही दूर अंतरीक्ष के किसी छोर में तो वहां पर ऐसा जैसा इस पृथ्वी पर लाखों करोड़ों सालों में हुआ है, वह दूबारा फिर से बनाने में लाखों करोड़ो साल लगेगें, जिससे मानव आगे जाने के बजाय बहुत कई सौ लाख और करोड़ साल पीछे चला जाएगा। एक बार फिर से मानव को स्वयं को उस पृथ्वी पर रहना सीखना होगा। जैसा की इस पृथ्वी पर मानव ने किया है, आज से मात्र 300 सौ साल पहले युरोप आदि जो जगह हैं वह सब अंधकार का युग माना जाता था आज उसको स्वर्ग के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जहां पर ना कोई शभ्यता है ना संस्कृति है, ना ही उनकी कोई परंपरा है, वह सब केवल आसुरी माया के विकास में अंधे हो कर दौड़ लगा रहा है, उनके मन में ना कोई शांति है और ना ही कोई मानवता के प्रती कोई उनका धर्म है, वह सब ऐसी संस्कृति को विकसित कर चुके हैं, जहां पर भौतीक धन को ही ईश्वर की तरह से पूजा जाता है। और इसी संस्कृति को ही पुरी पृत्थी पर बड़ी तीब्रता के साथ फैला रहें है, यह मानव चेतना के पक्ष धर नहीं है, और ना ही उसके बीकसित होने के लिए किसी प्रकार का उद्योग करने पर ही जोर देते हैं। यह खतरा है इसी से बचने के लिए मंत्र आगाह कर रहा है, जैसा की परमाणु के अंदर जो विद्यमान अग्नि भौतिक रूप से वीद्युत है वह इस सब भुमंडल को तो भस्म कर ही सकता है, साथ में इसके अतीरिक्त जो वसने योग्य ग्रह है वह भी समाप्त कर सकता है क्योंकि मानव अपने संहार के समान को जीतनी तीव्रता से निर्मित कर रहा है वह इस पृथ्वी को समाप्त करने के बाद जिस ग्रह पर जाएगा वहां भी यह अपने संहार के समान को ले जाएगा जिससे यह संहार का खेल कभी नहीं समाप्त होने वाला सिद्ध होता है, और जब परमाणु का उपयोग बम के रूप में किया जाएगा तो आने वाले समय में ऐसे परमाणु और हाइड्रोजन के बम के साथ ऐसे बहुत से जैविक बम बन सकते हैं, जो इस समस्त जीव को ही संक्रमित कर करके इसके रूप और आकार को परिवर्तित कर दे आज जीस मानव को हम मात्र छः या पांच फीट का देखते हैं, वह भविष्य में तकनिकी की सहायता से स्वयं को सौफिट का कर सकता है, और स्वयं को कभी ना मरने वाला बना सकता है, जो हजारों लाखों सालों तक जिंदा रह सकता हो, या फिर यह भी सकता है किसी छोटी मानव की भुल के कारण मानव जाती किसी प्रकार के ऐसे प्रजाती में परिवर्तित हो जाए जो एक नए प्रकार का प्राणी हो जिसको अपनी काम पुर्ति के लिए आज जिस शरीर में मानव को देखते हैं वह इसके स्थान पर ऐसी धातु का हो जो हाड़ मांस से बनी शरीर से बहुत अधिक मजबूत हो, अर्थात वह स्वयं की शरीर को मशीन में परिवर्तित कर ले, तो यह एक तरफा विकास होगा, जिसस असंतुलन पैदा होगा, और असंतुलन अशांति को अब से कही अधिक बना देगा, उस समय मानव के पास कुछ भी खाने पीने के लिए नहीं होगा, इस लिए वह जिस प्रकार से दूसरे प्राणियों को पालता है उनको खाने के लिए इसी प्रकार से जिसे हम आज साधारण भाषा में मानव कहते है भविष्य का मानव वह ऐसे मानव को अपने खाने के लिए उपयोग करे तो यह एक प्रकार के दैत्य होंगे, ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है, हमारे शास्त्रों में ऐसे कई प्रमाण मिलते हैं, जब मानव दानव बन गया और फिर उन दानव का अंत करने लिए स्वयं ब्रह्मांडिय मानव जिसे हम ईश्वर कहते हैं वह इस जगत में आया और इनका संहार किया और फिर से धर्म की स्थापना की, जैसा की मैंने बताया यह आसुरी माया और आसुरी वृत्ति किसी प्रकार से मानव जाती के और ब्रह्मांड के लिए उचीत नहीं हैं।
क्योंकि आज हमारे सौर्य मंडल में जितने भी ग्रह हैं वह मनुष्यों के रहने योग्य अभी नहीं है इसका मतलब यह नहीं है की पहले से ही सब ऐसे ही हैं, यद्यपि सत्य यह है कि इसको यहां पर रहने वाले मनुष्यों ने इनको ऐसा बनाया है, अर्थात वह ग्रह मानुष्यों के द्वारा ऐसा बनाया गया उनको मनुष्यों के रहने योग्य नहीं छोड़ा गया है उनको पुरी तरह से नष्ट कर दिया गया है।
पहले के मनुष्य आज के मनुष्य से बहुत अधिक बलवान ज्ञानवान और दृढ़व्रती थे साथ में निकृष्टता की सभी सीमा को लांघने वाले राक्षस भी थे, जिन्होंने मानवता को शर्मसार करने वाले कार्य किये थे। ऐसा मानव आज का भी कर रहा है, इसको ऐसा करने से कोई बाहरी शक्ति नहीं रोक सकती है। क्योंकि इस मानव के अंदर ही इस ब्रह्मांड का केन्द्र स्वयं ईश्वर विद्यमान है, इसके बाहर तो केवल परमाणुओं का शंष्लेषण और विष्लेशण का खेल चल रहा है, और इस शंष्लेषण और विश्लेषण के मध्य में जब संतुलन होगा तो उन्नती होगी अंयथा अवनती निश्चित है, जैसा की हम सब जानते हैं कि ऊपर चढ़ना हमेशा परीश्रम भरा कार्य होता है और नीचे उतरना आसान होता है, जैसा की मानव का स्वभाव बन चुका है वह ऊपर बढ़ने के स्थान पर नीचे गीरने में अपने बहुत बड़ा समझदार सिद्ध करता हैं। जिससे इस मानव समाज की बहुत बड़ी संख्या ने आज तक यही सिद्ध किया की यह उस ईश्वर के नीयम को समाप्त करने के लिए और स्वयं उस ईश्वर को समाप्त करने के लिए अग्रसर है, इस मानव को यह नहीं समझ में आरहा है कि वह ईश्वर तो समाप्त होने से रहा यह स्वयं को समाप्त कर लेगा जैसा की इसका लाखों करोड़ों साल का इतिहास है, और इसका इतीहास ही इसके भवीष्य का नीर्माण करेगा, यह मानव स्वयं को स्वयं ही नियंत्रित कर सकता है, यह पृथ्वी अपने समय से पहले ही मनुष्यों के रहने योग्य नहीं रहेगी, यदि इसने स्वयं को निंयत्रित नहीं किया तो, यदि मानव समझदार होगा तो यह पृथ्वी मानव के लिए स्वर्ग बन सकती है, वह कैसे संभव है इसी बात को यह मंत्र कह रहें हैं,, अगले मंत्र को देखते जो हमारे विषय को साफ और स्पष्ट करेंगे।
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒श्विनो॒र्भैष॑ज्येन॒ तेज॑से ब्रह्मवर्च॒साया॒भि षि॑ञ्चामि॒ सर॑स्वत्यै॒ भैष॑ज्येन वी॒र्याया॒न्नाद्याया॒भि षि॑ञ्चा॒मीन्द्र॑स्येन्द्रि॒येण॒ बला॑य श्रि॒यै यश॑से॒ऽभि षि॑ञ्चामि॥३॥
अगला मंत्र मानव को आगाह करते हुए कह रहा है, कि दिव्यगुणों को धारण करने वाले देवता तुम ही हो उस दिव्यत्व को धारण करो, और सकल जगत के उत्पादक सच्चिदानंद को अपने अंदर उत्पन्न करों। क्योंकि वह बीज रूप में तुम सब के हृदय में आत्मा रूप से विद्यमान है, अपनी परीश्रम और पुरुषार्थ त्याग तपस्या और बैराग्य के द्वारा स्वयं के समार्थ्य को बढ़ाओं जिससे तुममें से वह सकल जगत का उत्पादक अपनी स्वच्छा से विकसित हो सके, या तुम स्वयं के सच्चे स्वरूप का साक्षात्कार कर सको,, अपने अंदर विद्यमान अपने ब्रह्म स्वरूप को पुष्ट करो अर्थात उसको शक्तिशाली बनाओं वह शक्तिशाली कैसे बनता है, इसके लिए मंत्र कहता है कि तुम अपने कर्मो को देखो और ऐसे कर्म करो जो तुम्हारे अदंर तुम्हारा ब्रह्म रूप निखर सके उसके ऊपर जो तुमने वासना काम क्रोध ईर्श्या लोभ शोक मोह का पर्दा डाल रखा है उसको स्वयं के चीत्त पर से हटा दो, जिस प्रकार से एक वैद्य चीकित्सक होता है जो अपने मरीज के बीमारी को समय रहते पहचान लेता है, और उसका निदान कर देता यहां जरूरत यदि आपरेशन की होती है तो मानव जीवन कोो बचाने के लिए वह शरीर की चीर फांड़ भी करता है, यहां चीकित्सक आप स्वयं हैं, और आप स्वयं ही मरीज भी हैं, यदि आपने अपनी बीमारी जो आपकी अज्ञानता है तो उसको दूर करो, और यह कार्य आपको अपने तेज से शक्ति से तीव्रता के साथ करता है, जैसा की एक राकेट को अंतरीक्ष में यात्रा करने के लिए उसमें बहुत अधीक शक्ति को भरना पड़ता है, और उसकी तीब्रता को पृथ्वी के गुरुत्वा कर्षण से कई गुना अधिक रहता है, जिसके कारण ही वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का अतिक्रमण करते हुए वह अंनंत अतरीक्ष में अपने लक्ष्य पर समय पर पहूंच जाता है, उसी प्रकार से आपको पता है, की आपकी शरीर की एक उम्र निश्चित है, आपको अपने शरीर के निश्चित समय के भीतर ही इसका जो आकर्षण हैं जो गुरुत्वा कर्षण के समान कार्य करता है, जो आपको अपने चेतना के आकाश में उड़ने अर्थात स्वयं को ब्रह्म होने से रोकता है उसके शक्ति अर्थात शरीर के आकर्षण शक्ति से कई गुना अधिक आकर्षण अपने चेतना करना है, जिससे वह एक निश्चित समय के अंदर आप को आपका लक्ष्य ब्रह्म का ज्ञान हो जाए, इसके लिए और दूसरे साधन मंत्र कहता है, जैसे ब्रह्मचर्य की शक्ति को बढ़ाए, अपनी शरीर को ब्रह्मचर्य की शक्ति से भर दो जिस प्रकार से हम किसी खेत को पानी से सींच कर उसमें बोई गई फशल को विकसित होने के लिए सुअवसर उपलब्ध करते हैं उसी प्रकार से अपनी शरीर को ब्रह्मचर्य की शक्ति से सिंचे भरे, और अपनी अज्ञाानता को दूर करने के लिए बड़े विद्वान गुरु के साथ संगत करे शाष्त्रोंं का अध्यन करें जिससे आपके जीवन की संका का समाधान हो और आपकी समाधि लगने में ज्यादा देन ना हो, जिसके लिए मंत्र में सरस्वती शब्द आया है, जिस प्रकार से सरस्वती का वाहक हंश है, जिसका एक प्रमुख गुण होता है, की वह नीर क्षीर वीवेकी होता है, वह पानी में से दुध को निकाल लेता है, उसी प्रकार से आपको अपने वीवेक को वीकसित करके अपने अमृत को प्राप्त करना है, और अपने जीवन व्याप्त अज्ञान जो आपकी मृत्यु का कारण है उनकी जड़ो को काट डालिए। मंत्र और शुद्ध रूप से अगला शब्द कहता है की तुम अपने शरीर में उत्पन्न होने वाले वीर्य को नदी के रूप में बनाओ जिस प्रकार से नदी में पानी का प्रवाह निरंतर होता है उसी प्रकार से आपके शरीर में वीर्य का तेज शरीर में बहने लगे ऐसा कुछ करना है, आगे मंत्र कहता है, कि इसके माध्यम से ही तुम अपनी इन्द्रियों की शक्ति को अतुलनिय रूप से बढ़ा कर आज ही अर्थात अपने वर्तमान जीवन में ही इसी जीवन में ही अपनी इन्द्रियों के द्वारा अर्थात अपने ज्ञान चक्षु से अर्थात नाक कान जीभ त्वाचा और आँखों माध्यम से मन को बुद्धि को इतना अधिक शक्तिशाली कर जिससे की तुम्हें तुम्हारा मालिकिय पर तुम्हारी आत्मा पूर्ण अधिकार हो जाए, क्योंकि इसी बल के माध्यम से तुम अपने इस जीवन काल में यश श्री लक्ष्मी पति बन जाओगे और निरंतर इसी माध्यम से स्वयं को वीकसित करते हूए तुम्हें अपने ब्रह्म और ब्रह्मंड के निअंता का भान होगा।
को॑ऽसि कत॒मोऽसि॒ कस्मै॑ त्वा॒ काय॑ त्वा।
सुश्लो॑क॒ सुम॑ङ्गल॒ सत्य॑राजन्॥४॥
वह ब्रह्म कौन है कहां कैसा है क्या है, इत्यादि के उत्तर के लिए अगला मंत्र कहता है कि वही इन लोकों का अर्थात पृथ्वी जिसे मृत्यु लोक कहते हैं, स्वर्ग जिसे अमर लोक कहते हैं, और तीसरा जो इनसे भीन्न असुरो का लोक है पाताल पुरी है, इसका तुम्हें ज्ञान होता है। क्योंकि इसमें जो सबसे सुन्दर है, अमर लोक है, उसके सच में सत्य में तुम्ही राजा हो।
शिरो॑ मे॒ श्रीर्यशो॒ मुखं॒ त्विषिः॒ केशा॑श्च॒ श्मश्रू॑णि।
राजा॑ मे प्रा॒णोऽअ॒मृत॑ꣳ स॒म्राट् चक्षु॑र्वि॒राट् श्रोत्र॑म्॥५॥
अपनी बातों को और अधिक स्पष्ट करते हुए अगला मंत्र यजुर्वेद का 20 अध्याय का 5 मंत्र कहता है कि वह ब्रह्म अपनी पुरी शक्ति का साथ तुम्हारे शीर रूपी हृदय में रहता है, आपके शरीर में दो हृदय हैं एक शीने में होता दूसरा आपके मस्तिष्क में होता है, जो आपके अंदर आपकी गुप्त शक्तियों को जगृत करता है, जो आपके जीवन में परम धन को और उसकी प्रतिष्ठा को स्थापित करता है, जो तुम्हारे अंदर धर्म के सद्गुण जागृत होने पर उदित होता है, वह उसी प्रकार से है जैसे तुम्हारे शरीर में बाल होते है जो अनंत है, जिनकी संख्या का निर्धारण करना असंभव है, उसी प्रकार से ब्रह्म से प्राप्त होने वाला धन भी अनंत है, श्मश्रुणी कामतलब है, जिसके बारे में तुमने कभी अपने जीवन में नहीं सुना है, जो तुम्हारी कल्पना से भी बाहर हैं, ऐसा आनंद कालजई सूख और ऐश्वर्य तुम्हें प्राप्त होगा, वह तुम्हारे जीवन में प्राण के समान राजा की तरह है, जो अदृश्य अमर तत्व है, वहीं सम्राट हो तुम तुम्हारी दृष्टि ज्ञान चक्षु सूर्य से भी बड़ा और वीराट है, और तुम स्वयं आकाश के समान हो जिसमें करोड़ों अरबो आकाश गंगा और ब्रह्मांड विद्यमान है वह ब्रह्म हो तुम।
जि॒ह्वा मे॑ भ॒द्रं वाङ् महो॒ मनो॑ म॒न्युः स्व॒राड् भामः॑।
ऐसा होने पर तुम्हारी जीह्वा सीर्फ ऐसे वाणी का उपयोग करती है, जो कल्याण का कारण बनती है, और तुम्हारे द्वारा जो शब्द बोला जोता है वह साक्षात ईश्वर की वाणी होती है, अर्थात तुम्हारे शरीर के द्वारा ब्रह्म स्वयं बोलता है, मन में अपरा शक्ति होती जिससे वह स्वयं सर्वज्ञ अपने ज्ञान के प्रकाश को फैलाता है।
मोदाः॑ प्रमो॒दा अ॒ङ्गुली॒रङ्गा॑नि मि॒त्रं मे॒ सहः॑॥६॥
मोदा अर्थात तुम्हारे जीवन में हर्ष उत्षाह उल्लास भर जाता है, प्रमोदा अर्थात प्रकृष्ट आनंद मन और जीव के एकाक्रित होने से ब्रह्म मय ब्रह्मांडिय शरीर की अनुभती तुम्हें होती है, तुम्हारी उंग्लियों के और शरीर के अंग तुम्हारे मित्र सखा के समान होजाते हैं, जब तक इच्छा हो शरीर में रहोऔर जब तुम्हारी इच्छा हो अपनी भौतिक शरीर से बाहर निकल सकते हों, जैसे शंकराचार्य अपनी शरीर से बाहर नीकल सकते थे, और प्रवेश कर सकते थे, जैसे महाभारत के भीष्म अपनी इच्छा से अपनी शरीर को त्याग करते हैं, वैसा ही तुम्हारे साथ भी संभव है।
मनोज पाण्डेय अध्यक्ष
ज्ञानविज्ञानब्रह्मज्ञान वैदिक विद्यालय
बा॒हू मे॒ बल॑मिन्द्रि॒यꣳ हस्तौ॑ मे॒ कर्म॑ वी॒र्यम्।
आत्मा क्ष॒त्रमुरो॒ मम॑॥७॥
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