पागलपन या विक्षिप्तता ईश्वर के साक्षात्कार का सुचक है। इसके दो पक्ष हैं, पहले पक्ष पर जो मुर्खता का साधन है, उसको पहले देखते हैं, दूसरे पक्ष पर आगे विचार करेंगे।
पागलपन का दौरा क्या है, और क्यों कुछ लोगों को पागलपन का दौरा पड़ता है? दुनीया में कुछ बेचारे ऐसे लोग भी होते हैं जिनको पागलपन का दौरा पड़ता है और वह अपना आपा खो देते हैं, उनको कुछ भी समझ में नहीं आता है, जिसके कारण वह अपने मन का पागलपन करते हैं, स्वयं को और दूसरो को वह इस स्थिति में कष्ट पहुंचा लेते हैं। बाद में इस पर प्रायश्चित करते हैं, जब कोई बुरा और बड़ा नुकासन दायक कार्य कर लेते हैं।
जहां तक मैं समझता हूं जब कोई मनुष्य अपना हाथ पैर मार कर भी संसार में कुछ अपने परिश्रम से कुछ सिद्ध नहीं कर पाता है, तो वह अपने खींज और निराशा के कारण इस प्रकार के अवसाद से ग्रसित हो जाता है। यह किसी भी मनुष्य के लिए बहुत खतरनाक है, इसमें वह अपने सभी संसारिक संबध को बुरी तरह से खराब कर देता है। यहां तक स्वयं को भी हानी पहुंचा लेता है। यह उस मनुष्य को अंदर से तोड़ देता है।
मैं एक ऐसे मनुष्य को जानता हूं जिसने अपने अवसाद में और पागलपन में अपने जीवन को पूरी तरह से बिगाड़ दिया या यह कहें कि खराब कर दिया और खत्म होने के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। क्योंकि उस व्यक्ति ने जो प्रारंभिक काल से ही तनाव और हिंसा की पारिवारिक स्थिति में पला बड़ा था। उसके परिवार वालों ने उसके साथ बहुत अन्याय किया था, जिसके कारण उसने अपने परिवार वालों से बदला लेने की ठान ली, लेकिन वह स्वयं शारीरिक शक्ति से कमजोर और आर्थिक शक्ति से भी कमजोर था। उसने बहुत प्रयास किया बहुत जगह छोटी मोटी नौकरिया की लेकिन उसे आशा जनक सफलता नहीं मिली। जिसके कारण वह अंदर से टूट गया। और उसने एक ऐसा युद्ध शुरू कर दिया, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली, क्योंकि उसके परिवार वाले उसे ज्यादा शक्तिशाली और आर्थिक रूप से भी काफी मजबूत थे, उन्होंने उस व्यक्ति के साथ पहले से भी बहुत बुरा व्यवहार किया और उसको पकड़ कर बांध दिया। और बांधने के बाद उसको बहुत मारा पीटा, और यहां तक उसकी जान पर बन आई। लेकिन कुछ रहम दिल गांव वाले पहुंच गए, और उन्होंने उसे आदमी की जान बचाई लेकिन आदमी सही तरह से समाज में स्वयं को स्थापित नहीं कर सका, उसकी शादी हुई। लेकिन अपनी पत्नी को भी सही तरह से घर में नहीं रख पाया। क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही थी, उसने कुछ छोटे-मोटे व्यापार को भी शुरू किया लेकिन मानसिक स्थिति ठीक ना होने के कारण वह सब भी खत्म कर दिया जिसके कारण उसकी पत्नी उसके साथ नहीं रह सकी वह किसी और के साथ भाग गई।
वह एक बार फिर अकेला हो गया, लेकिन उसने स्वयं सम्हालने का बहुत प्रयास किया कुछ हद तक सफलता मिली लेकनि उसके पागलपन दौरे से परेशान हो कर उसने स्वयं आत्म हत्या कर ली। क्योंकि वह जब जींदा था, वह अपने साथ हुए अन्याय को लोगों से कहता और चिल्लाता था कहता था की मैं सब को मार दूंगा, जिसमें उसका पिता जो उसके साथ बहुत बड़ा अन्याय किया था और उसके लिए उसने हमेशा ऐसी स्थिति उत्पन्न करके रखी जिससे वह कभी भी उभर नहीं सका। उसका पिता भी जो स्वयं को बहुत अधिक बुद्धिमान कहता था, वह भी उसी प्रकार के अवसाद अर्थात पागलपन का शिकार था, जिसके कारण उसने भी बहुत से कार्य को किया लेकिन उसको आशा जनक सफलता नहीं मिली। और वह अपने पुस्तैनी जमीन जो उसको उसके पिता के द्वारा मिली थी उसको बेंच बेच कर अपने जीवन को अपने अहंकार में व्यतीत करता रहा। उसका एक दूसरा लड़का भी था, जिसके साथ उसका व्यवहार पहले लड़के से कुछअलग था, क्योंकि उसकी पत्नी ने आकर अपने चरीत्रहिनता के जाल में उसको फंसा लिया और वह उसके साथ रहता है। लेकिन जिस समाज में रहता है, उस समाज में उसका लोगों के साथ वहीं पागलपन का व्यवहार है। जिससे उसका कोई साथ नहीं देता, अकसर लोग उसके बीरोध में रहते हैं, वह जिंदा तो है, लेकिन किसी मानसीक रूप से बीमार व्यक्ति से अधिक नहीं है।
हमारे समाज में ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हो रही है, लोग पागलपन के शिकार क्यों हो रहें है, और क्या इस पागल पन का इलाज हमारे समाज में नहीं उपलब्ध है। यदि है तो वह क्या है?
यह पागलपन एक प्रकार का क्रोध है, एक प्रकार की सनक है, जो एक वीक्षिप्त मस्तिष्क के कारण उत्पन्न होती है, इस प्रकार से हम कह सकते हैं, की लोग वीक्षीप्त हो रहें हैं, और इस वीक्षीप्तता के कारण वह यह समझने में असमर्थ हो रहें हैं, कि उनके लिए क्या शुभ है, और क्या अशुभ है, लोग आखीर हमारे समाज में सफल क्यों नहीं हो पाते हैं, क्या हमारे समाज में लोगों को विकसित होने का धनार्जन करने का मार्ग नहीं है, यदि है तो वह सब के लिए क्यों सुलभ नहीं है।
इस पागलपन और विक्षिप्तता से बचने के लिए साधन है, जैसा कि योग दर्शन कार पतञ्जली अपने योग दर्शन में बताते हैं कि मानव मन की पांच अवस्था होती है, वह कुछ इस प्रकार से हैं-
क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध- मन की इन पांच अवस्थाओं को समझने के लिए एक एक को बारी बारी समझन होगा।
चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार के समन्वय को ही मन कहते हैं। इसी को अंतःकरण भी कहते हैं। वैदिक मंत्रों में भी चित्त की असीम शक्तियों का वर्णन किया गया है। वैदिक मंत्रों में चित्त बलशाली और आत्म विश्वासी बनाने की कामना की गई। अर्थात इस शक्तिशाली मन को अपने आत्मा के अनुकूल करने की प्रत्येक साधक करता है।
हमारा चित्त त्रिगुणात्मक अर्थात सत्व प्रकाशशील अर्थात ज्ञानवान सात्विक गुण की जब अधिकता होती है, रज क्रियाशील अर्थात जब भोग वीलाश भौतीक सामग्री का संग्रह किसी दूसरें का अतीक्रमण करके अपने लिए उसके उपभोग करने की इच्छा की प्रबलता होती है। तमोगुण जड़ता अर्थता मुर्खथा अज्ञानता किसी की सच्ची और मर्यादित जीवन जीने में असमर्थ है ऐसे स्वभाव वाला होने से त्रिगुणात्मक इस मन को कहा गया है। जैसा की हमारे चित्त को जैसा भी वातावरण मिलता है चित्त भी वैसा ही हो जाता है। अर्थात जब हम ऐसे लोगों के मध्य में रहते हैं, जो अज्ञानता के नशे में मस्त जिनकी आँखों पर काम क्रोध और अपनी भौतिक इच्छा की तृप्ती को सर्वोपरी मानने वाले यत्र तत्र सर्वत्र हर जगह उनको अपनी वासना की तृप्ती का साधन ही नजर आता है तो हम सब भी ऐशे ही हो जाते हैं।
1.क्षिप्त= चित्त की क्षिप्त अवस्था में रजोगुण प्रधान होता है। इस अवस्था में मन अत्यंत अस्थिर और चँचल होता है। चित्त किसी एक विषय पर स्थिर नहीं हो पाता, चित्त इधर से उधर भटकता रहता है। इस अवस्था में योग संभव नहीं है। अर्थात इस अवस्था में आपका मन किसी एक विषय में स्थिर नहीं होता है, जिसके कारण का आप किसी भी प्रकार से सफलता को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं।
2. मूढ़ = चित्त की मूढ़ अवस्था में तमोगुण की प्रधानता रहती है। तमोगुण के कारण मन अत्यंत आलस्य में रहता है। तमोगुणी भोजन करना व आलस्य के कारण देर तक सोए रहना। हमेशा नींद में रहना। क्या करना है क्या नहीं करना समझ में नहीं आता। इस अवस्था में भी योग संभव नहीं है। ऐसे लोग जीवन के लिए भार होते हैं, वह स्वयं को इस संसार में बंधा हुआ पाते हैं, उनके लिए संसार एक जेल के समान होता है, जहां उनकी स्वतत्रंता को नियंत्रि उनका स्वयं का मन ही करता है।
3. विक्षिप्त= विक्षिप्त अवस्था में सत्व गुण प्रभावशाली होता है। बीच-बीच में तमोगुण- रजोगुण घटते- बढ़ते रहते हैं, जैसे साधक ध्यान में बैठा 2 मिनट ध्यान लगा फिर ध्यान भटक गया। मन थोड़ी देर शांत है फ़िर कोई स्मृति याद आई मन फिर भटक गया। जब मन की शांति स्थिति बिगड़ती है उसी का नाम विक्षिप्त अवस्था है। इस अवस्था में योग का आरंभ होता है। यह विक्षिप्त की अवस्थात बहुत अच्छि है, जो स्वयं को योग में स्थित करना चाहते है, जैसे कि मैंने बताया की यह एक प्रकार का पागलपन है, लेकनि यह पागल पन अच्छा है, जब आप संसार में भौतिक वस्तु को प्राप्त करने में पूर्ण तरह से समर्थ नहीं पारहें तो आपके उसकी तरफ से अपने ध्यान को फेर कर अपने आंतरिक यात्रा पर चलने की तैयारी करनी चाहिए लेकिन जो मूर्ख किस्म के लोग है तो वह थक हार कर आत्महत्या कर लेते हैं। यह पागल पन जो किसी को जीवन को कत्म कर सकता है तो वह उसी आदमी के लिए औषधि भी है। अभी हाल में ही ऐसी बहुत सी खबर आरही है की बड़े बड़े नायक और नाइका बंगाल में और दूसरे प्रांतों में इसके साथ ऐसी समाचर बहुत प्रकार के अखबारों में आते हैं, कि लोग अपने पत्नी बच्चों के साथ आत्महत्या कर लिया। यह सब इसिलिए हो रहा क्योंकि वह योग की इस अवस्था को पहचानने ंमें असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं। ऐसे लोग आत्मह्त्या केवल इसलिए कर रहें क्योंकि लोग अपनी जरुरत की वस्तु को समाज से प्राप्त करने में स्वयं को असमर्थ पार रहें है, अर्थात वह धनार्जन नहीं कर पा रहे है, और जिनके पास धन है वह भी ऐसी कर रहें इसके पीछे कारण है की उनको साथ ऐसे लोग ऐसा आचरण और व्यवहार करते हैं, जिससे वह अपनी ग्लानी के कारण इस गंदे और उन गंदे लोगों के साथ संसार में जीने से श्रेष्ठ मरना समझते हैं।
4. एकाग्र= चित्त की एकाग्र अवस्था में समाधि होती है। इस अवस्था में सत्व गुण प्रधान होता है। एकाग्र अवस्था में वस्तु के सत्य स्वरूप का बोध हो जाता है। इस अवस्था में पंच क्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष , अभिनिवेश क्षीण हो जाते हैं। जन्म- जन्मांतर के कर्म के बंधन ढीले पड़ जाते हैं। वह एकाग्र अवस्था संप्रज्ञात योग नाम से जानी जाती है।
5.= निरोध अवस्था= चित्त की निरोध अवस्था में चित्त त्रिगुणात्मक अवस्था से मुक्त हो जाता है। अर्थात चित्त सत्व गुण से भी मुक्त हो जाता है। चित्त की इसी अवस्था को असंप्रज्ञात योग भी कहा जाता है।
इसको कुछ और तरह से भी समझ सकते हैं।
मन एक है लेकिन इसके चार विभाग हैं, अर्थात यह चार भागों में है, इसकी पाँच अवस्थायें हैं। इसमें जो पांचवीं अवस्था है वह ईश्वर साक्षात्कार के बाद उत्पनान होती है जिसको निरुद्ध कहते हैं। साधरणतः मनुष्य में यहीं चार अवस्था होती है, जो समय-समय पर स्वचालित रूप से मौसम के कारण, खान-पान आदि परिस्थितियों के कारण, घटनाओं के कारण और कुछ हमारे अपने विचारों से बदलती रहती हैं। इसलिए हमको सावधानी से प्रयोग करना है और अच्छी से अच्छी अवस्था बना के रखनी है।
1. क्षिप्त अवस्था :- मन की पहली अवस्था है- क्षिप्त अवस्था। क्षिप्त का अर्थ है-मन की चंचल स्थिति, चंचल अवस्था।
इस मन की जब चंचल अवस्था होती है, उसका नाम है- क्षिप्त-अवस्था। हम मन में जल्दी-जल्दी विचारों को बदलते रहते हैं। आप पांच मिनिट बैठिये। मन में देखिए, आप फटाफट पचास विचार उठा लेंगे। वहाँ जाना है, यह करना है, उसको यह बोलना, उससे यह लेना है, उसको वो देना है, ये खरीदना है, वो काम करना है, अभी यह कर लूँ, यह खा लूँ, फिर वहाँ सो जाऊँ, फिर यूँ बात कर लूँ। फटाफट विचार बदलते रहना मन की ‘क्षिप्त-अवस्था’ है।
इस क्षिप्त अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है। चंचल-अवस्था में व्यक्ति जल्दी-जल्दी मन में विचार बदलता है, वो जल्दी-जल्दी स्मृतियाँ उठती है। कभी इसको याद किया, कभी उसको याद किया, कभी और चीज याद की, कभी और चीज याद की।
2. मूढ़ अवस्था – दूसरी अवस्था है- अर्थात यह अवस्था मन का जो दूसरा विभाग अंहकार है, उसकी अवस्था है, जिसे मूढ़ अवस्था कहते हैं। जब तमोगुण का प्रभाव अधिक होता है, तब मूढ़ अवस्था उत्पन्न होती है। मूर्च्छा जैसी, थोड़ी नशीली, नशे जैसी अवस्था या तमोगुणी अवस्था मूढ़़ता प्रधान अवस्था है।
जैसे-थोड़ी नींद सी आ रही है, झटके आ रहे हैं, आलस्य आ रहा है। या कोई शराब पी लेता है तो नशे की स्थिति हो जाती है। ये सारी मूढ़-अवस्था कहलाती है। उस समय व्यक्ति का मन पूरा स्वस्थ नहीं होता। बुद्धि काम नहीं करती, समझ नहीं आता है, उसको पता नहीं चलता, कि क्या करना, क्या नहीं करना। इस तरह की जो स्थिति है, उसको ‘मूढ़-अवस्था’ कहते हैं।
3. विक्षिप्त अवस्था- फिर तीसरी है- अर्थात यह मन का जोतीसरा विभाग चित्त है उसी अवस्था है अर्था इस अवस्था में मानव चेतना के संपर्क में अधिक रहता है जिसे विक्षिप्त अवस्था। विक्षिप्त अवस्था में सत्त्वगुण प्रभावशील होता है, सत्त्व गुण प्रधान होता है। लेकिन बीच-बीच में रजोगुण और तमोगुण स्थिति को बिगाड़ते रहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति ध्यान में दो-चार मिनट बैठा, उसका मन ठीक लगा। उसका मन थोड़ा-थोड़ा टिकने लगता है, फिर किसी कारण से वो ध्यान टूट जाता है, इसलिए उसकी एकाग्रता बिगड़ जाती है। इसको बोलते हैं-‘विक्षिप्त अवस्था’।
दो-चार मिनट बाद उसने फिर कोई वृत्ति उठा ली और वो स्थिति बिगड़ गई। इस बिगड़ी हुई अवस्था का नाम है- विक्षिप्त। विक्षिप्त का अर्थ ‘बिगड़ा हुआ’ होता है। इस तरह रजोगुण के कारण ध्यान की अवस्था जब बिगड़ती है, मन की शांत-स्थिर अवस्था जब बिगड़ती है, तब उसका नाम है- ‘विक्षिप्त अवस्था’।
4. एकाग्र अवस्था- फिर चौथी है- अर्थात यह मन की चौथा विभाग जो सभी मानव में सक्रिय नहीं होता है, जिसे बुद्धि कहते हैं, लेकिन जब यह पूर्ण रूप से सक्रिय होता है तो यहीं इसे एकाग्र अवस्था कहते हैं। जिसमें पूरा सत्त्वगुण का प्रभाव होता है। अब रज और तम पूरे चुपचाप बैठ गए, ठंडे हो गए। अब वो बीच में गड़बड़ नहीं कर सकते। मन के ऊपर आत्मा का पूरा प्रभाव है, पूरा पूरा नियंत्रण है।
इस ‘एकाग्र-अवस्था’ का मतलब है, कि मन अब पूरा नियंत्रण में आ गया, पूरा अधिकार में आ गया। मन अब हमारी इच्छा के विरुद्ध कहीं इधर-उधर नहीं जाता। जैसे पहले लगता था, कि हम विचार उठाना नहीं चाहते, फिर भी आ जाते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। अब तो हम जो चाहते हैं, वही विचार लाते हैं। इस अवस्था का नाम है-‘एकाग्र -अवस्था’।
इस अवस्था में ”दिल है, कि मानता नहीं” वाली शिकायत खत्म हो गई। पहले शिकायत थी न, दिल है कि मानता नहीं, वो क्षिप्त अवस्था थी। और अब दिल पूरा मान लेता है, सौ प्रतिशत नियंत्रण में आ जाता है। इस अवस्था का नाम है- एकाग्र अवस्था। यानि अब सत्त्वगुण प्रबल है। व्यक्ति का मन के ऊपर वैसा ही नियंत्रण है, जैसा गाड़ी वाले का अपनी गाड़ी के ऊपर है। अर्थात उसके चालक को होता है, ऐसा ही आत्मा का मन के ऊपर जब पूरा नियंत्रण होता है, तो वो ‘एकाग्र-अवस्था’ है।
इस अवस्था में जीवात्मा को समाधि में अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति होती है और सूक्ष्म प्राकृतिक तत्त्वों की भी अनुभूति होती है। इस चौथी अवस्था में प्राकृतिक तत्त्वों और आत्मा, इन दो चीजों का अनुभव होता है। इसका नाम एकाग्र अवस्था। इस अवस्था में एक समाधि होती है, उसको बोलते हैं-‘संप्रज्ञात- समाधि’ ।
5. निरूद्ध -अवस्था :-मन की पाँचवी अवस्था है- निरूद्ध अवस्था। यह एकाग्र अवस्था से भी और ऊंची अवस्था है। इसमें भी मन पर पूरा नियंत्रण होता है। इसमें भी एकाग्र की तरह से ही मन पर पूरा नियंत्रण है तो एकाग्र में और निरूद्ध में अंतर क्या है? अंतर इतना है, एकाग्र अवस्था में प्राकृतिक तत्त्वों और जीवात्मा, इन दो चीजों की अनुभूति होती है। लेकिन इस अवस्था में समाधि का विषय बदल जाता है। असंप्रज्ञात समाधि यानी निरूद्ध अवस्था में ‘ईश्वर’ का अनुभव होता है। जब ईश्वर की अनुभूति होती है, उस अवस्था का नाम है- निरूद्ध अवस्था। और उस समय जो समाधि होती है, उसका नाम है- ‘असंप्रज्ञात-समाधि’।
इस तरह से मन की ये पांच अवस्थाऐं हैं। इनमें से चौथी और पांचवी एकाग्र और निरूद्ध, इन दो अवस्थाओं में समाधि होती है, बाकी तीन में समाधि नहीं है।
क्षिप्त और मूढ़ अवस्था तो खराब ही है। उनसे अच्छी तो है विक्षिप्त अवस्था। और इससे अच्छी है चौथी- एकाग्र अवस्था। और सबसे अच्छी है- निरूद्ध अवस्था।
इस योगाभ्यास में यही करना है। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ अर्थात् मन के विचारों को रोको। जैसे-जैसे रोकते जाएंगे, वैसे-वैसे हमारी स्थिति ऊँची-ऊँची होती जाएगी। जैसे-जैसे थोड़े-थोड़े विचार रुकेंगे, तो विक्षिप्त अवस्था आ जाएगी और जब पूरे विचार रोक देंगे तो समाधि शुरू हो जाएगी अर्थात एकाग्र अवस्था आ जाएगी। फिर ईश्वर की अनुभूति हो जाएगी, तो निरूद्धा अवस्था आएगी। इस तरह से मन की बात समझनी चाहिए।
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