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कथा सरित्सागर भाग 01 (The stories of ocean)

सरित्सागरभाषाकी भूमिका

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. यह वात प्रायः सर्वसाधारण को विदित है कि इस संसार में बहुधा जितने परोपकारी विषय प्रचलित हैं उनका आरम्भ यदि विचारपूर्वक सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो बहुधा इस भारतवर्ष के प्राचीन आचार्यॊ का ही किया हुआ पाया जाता है,यहां तक कि, सदुपदेश से भरी हुई सर्व साधारण में प्रचलित छोटी 2 कथाएं भी उन आचार्यों के बनाये हुए ग्रन्थों से बहिर्भूत नहीं है इसी बात का यह कथा सरित्सागर नाम ग्रन्थ उदाहरणभूत है यह ग्रन्थ पहले पिशाच भाषा में वृहत्कथा नाम से था जिसके निर्माण करने वाले महाकवि गुणाढ्य नाम है यह महाकवि ख्स्ताब्द के प्रथम शतक मे प्रतिष्ठान देश के अधिपति महाराज सात वाहन की सभा में थे इन्होंने जिस प्रकार से पिशाच भाषा में एक लाख श्लोक की वृहकथा नाम यह कथा बनाई सो इसके कथा पीठलम्बक में प्रकट है इसी वृहत्कथा को संक्षिप्त करके श्री महाकवि सोमदेवभट्ट ने संस्कृत के २५००० हजार श्लोकों में यह वृहत्कथा नाम ग्रन्थ कश्मीर देश के महाराज अनन्तराज की परम पण्डिता रानी सूर्यवती के कहने से निर्माण किया वृहत्कथा का सारांशरूप महाकवि क्षेमेन्दू का बनाया हुआ वृहत्कथा मंजरी नाम एक और ग्रन्थ भी है परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसा अधिक संक्षेप किया गया है कि ग्रन्थ की मनोहरता जाती रही आज कल महाकवि गुणाढ्य की बनाई हुई पिशाच भाषामय यह वृहत्कथा नहीं मिलती परन्तु प्राचीन गोवर्द्धन सप्तशती कुवलयानन्द तथा कादंबरी आदि ग्रन्थों में इसका नाम पाया जाता है।

      हिन्दी भाषा के परम हितैपी भार्गववंशावतंस मुंशी नवलकिशोर (सी, आई, ई) ने विद्वानों के मुख से इस कथा सरित्सागर नाम ग्रन्थरत्न की प्रशंसा तथा सदुपदेशभरी अत्यन्त मनोहर कथाओं को सुन कर अपनी मातृ भाषा हिन्दी का गौरव बढ़ाने के लिये हम लोगों को यथोचित धन देकर इसका अनुवाद करवाया इस अनुवाद में हम लोगों ने यथाशक्ति यह उद्योग किया है कि श्लोक के किसी शब्द का अर्थ न रहने पावे और यथा संभव भाषा का प्रवन्ध भी न बिगड़ने पाए इसमें जहां २ नीति के श्लोक आगये है वह भी अनुवाद सहित कोष्टक में लिख दिये गये हैं। 

      हमलोग आशा करते हैं कि जैसे इस ग्रन्थ की कथाओं के आशयों को लेकर संस्कृत के कवियों ने नागानन्द कादंबरी हितोपदेश मुद्राराक्षस तथा वेताल पञ्चविंशति आदि का अनेक ग्रन्थ बनाये, इसी प्रकार इस अनुवाद को देखकर हिन्दी भाषा के सुलेखक गणभी इसकी कथाओं के आशयों को लेकर अनेक नवीन ग्रन्थ बना के अपनी मातृभाषा के गौरव को बढ़ावेंगे हम लोगों का यह भी दृढ़ विश्वास है कि यदि इस यंत्रालयाधिपति की आज्ञानुसार इस ग्रन्थकी छोटी २ कथाओं को लेकर दो चार छोटे २ ग्रन्थ बनवा कर पाठशालाओं के दशम नवम अष्टम तथा सप्तम आदि वर्गों के विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिये नियत किये जाये तो उनको विना प्रयास के ही सदुपदेश का लाभ होगा। 

   इस वृहद्ग्रन्थरूपी समुद्र में मधुररसवती कथा रूपी अनेक नदियों का संगम है' इसी तात्पर्य से कवि ने इसका नाम कथासरित्सागर रक्खा है, इस सागर में यह विशेष चमत्कार है कि कथारूपी नदियों का रस क्षार नही किन्तु विशेष मधुर हो जाता है इस बात का अनुभव वही सहृदय महात्मा कर सकेंगे जो अपने मानस शरीर से इसमें मज्जन करेंगे॥ . . . . . . . .

    इस वृहद्ग्रन्थके अनुवाद में हम लोगों से भाषा की कल्पना तथा श्लोकार्थ में जो कुछ त्रुटी रह गई हो उसको गुणग्राही महात्मा सज्जन लोग क्षमा करके शुद्ध कर लें ।।

     पण्डित कालीचरण शर्मा तथा क्षमापति शर्मा तारीख ११ सितम्बर सन् १८६६ ईसवी  । मुताबिक भाद्रपद शुक्ला ? गुरुवार संवत् १९५३ । ...



 

कथा सरित्सागर की भाषा॥

' महाकवि श्रीसोमदेव भट्ट विरचित ॥

 कथापीठ नाम प्रथम लम्वक ॥ 

भवतुसदायुष्माकंसम्पद्धाम ॥ भक्ताननाब्जमधुपंगणपतिनाम १

श्रियंदिशतुवशम्भोःश्याम कण्ठोमनोभुवा ॥ अङ्कस्थपार्वतीदृष्टि पाशैरिवविवेष्टितः ॥ २ ॥ सन्ध्यानृत्योत्सवेताराः करेण्डूयविघ्नजित् ॥ शीत्कारसीकरैरन्या कल्पयन्निवपातुवः॥३॥ प्रणम्यवाचंनिश्शेष पदार्थोद्योतदीपिकाम् ॥

वृहत्कथायासारस्य संग्रहंरचयाम्यहम् ॥ ४ ॥ 

। दोहा॥ 

विघ्नहरण गजवदनके चरणन में शिरनाय।

वृहत्कथा के सार की भाषा रचौं बनाय १॥ 


     महाकवि शिरोमणि श्री सोमदेव भट्टजी इस कथा सरित्सागर नामक ग्रन्थ के प्रारम्भ में शिष्टाचार के अनुसार यह मंगलाचरण करते हैं श्री शिवजी का नीलकण्ठ आप लोगों का कल्याण करे जिस नीलकण्ठ की गोद में बैठी हुई पार्वती जी की दृष्टि रूपी वन्धनों से मनों को कामदेव ने वांधा है सन्ध्या समय नृत्य के महोत्सव में अपनी सूंड से आकाश के नक्षत्रों को मानो उड़ा करके जो गणेशशीत्कार के जल कणों से मानों अन्य नक्षत्र बनाते हैं वह आप लोगों की रक्षा करें-सम्पूर्ण पदार्थो को प्रकाशित करने वाली श्री सरस्वती को नमस्कार करके में वृहत्कथा के सार का संग्रह बनाता हूं इस ग्रन्थ में कथापीठ,१ कथामुख २ लावाणक ३ नरवाहनदत्त जनन ४ चतुर्दारिका ५ मदनमञ्चकारनप्रभा सूर्यप्रभम् अलङ्काखती शक्तियश १० बेला ११ शंशांफयती १२ मदिरावती १३ पञ्चलम्बक १४ महाभिषेक १५. सुरतमंजरी १५ पद्मावती १७ और विषमशील यह अठारह लम्बक है और इसमें मूल के सिवाय कुछ नही बढ़ाया गया है बड़े बन्ध का संक्षेप मात्र करके भाषा बदल दी गई है और यथा शक्ति शब्दों का सम्बन्ध भी ठीक २ रखा गया है और कविता ऐसी हो गई है कि जिसमें कथा का रस न बीगड़े। मैं ने अपनी पण्डिताई की प्रशंसा के लिये यह परिश्रम नहीं किया है। किन्तु अनेक प्रकार की कथाओं का सरलता पूर्वक से लोगों के जानने के लिये यह श्रम किया है १२॥

 अथ कथा ॥ ....

     संपूर्ण पर्वतो का राजा हिमालय नाम पर्वत जिस पर किन्नर गन्धर्व और विद्याधराविक ज्ञानवान पुरुष सुख पूर्वक निवास करते है जिसका माहात्म्यं संपूर्ण पर्वतों की अपेक्षा से इस कारण अधिक प्रसिद्ध है कि तीनो लोकों की माता साक्षात् पार्वती जी जिसकी कन्या जिसके उत्तर में उसी का शिखर रूप हजारों योजन के विस्तार वाला कैलास नाम पर्वत स्थित है यह कैलास पर्वत अपनी कांति के कारण मंदराचल पर हँसता है, कि यह समुद्र के मंथन से निकले हुए अमृत से भी उज्ज्वल हुआ है, और बिना परीश्रम के ऐसा उज्ज्वल नहीं हुया हूं। जैसा कि मेरे ऊपर सम्पूर्ण चराचर संसार के स्वामी श्री महादेव जी विद्याधर और सिद्ध योगीयों से सेवित किये हुए पार्वती जी समेत निवास करके विहार करते है। जिनकी पीली २ जटाओं के समूहों में प्राप्त चन्द्रमा सन्ध्याकाल की करुणता से पीतवर्ण होकर उदयाचल के शृंगों के संग के सुख को अनुभव करता है। और जिन शिवजी ने अन्धकासुर के हृदय में त्रिशूल गाड़ कर तीनोंलोकों के हृदयका शूल निकाल डाला, और मुकुटों पर जड़ी हुई मणियों में जिनके चरणों के नखों के प्रतिविम्ब पड़ने से देववा तथा दैत्य लोग चन्द्रशेखर से मातम होते हैं। ऐसे महादेवजी को पार्वती जी ने एकान्त में किसी समय प्रसन्न किया। तब स्तुति से प्रसन्न हुए महादेव जी पार्वती को गोद में बैठा कर, बोले कि हे प्रिये तुम क्या चाहती हो, वह हम करें ऐसे वचन सुनकर पार्वती जी बोली कि हे स्वामी यदि आप प्रसन्न हैं तो कोई अत्यन्त रमणीय नवीन कथा कहिये। यह सुन कर श्रीमहादेव जी बोले कि हे देवी भूत भविष्य और वर्तमान ऐसी कौन सी वस्तु है जिसको तुम नहीं जानती हो। लेकिन पार्वतीजी के अत्यन्त हठ करने पर, श्री महादेव जी ने एक छोटी सी कथा कहने लगे कि एक समय नारायण और ब्रह्मा जी मुझे देखने के लिये पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए हिमालय के नीचे आये। वहां उन दोनों ने एक जाज्वल्यमान महाभारी लिङ्ग देखा, उसके अन्त को देखने के लिये ब्रह्मा ऊपर को गये और नारायण नीचे को गये। जब दोनों ने उसका अन्त न पाया। तब मेरी प्रसन्नता के लिये तप करने लगे उस समय मैं प्रकट हो कर दोनों से कहा कि तुम कोई वरदान मांगो। यह सुनते ही ब्रह्मा ने यह वर मांगा कि आप हमारे पुत्र बन जाइए इसी निन्दित वचन के कहने से ब्रह्मा संसार में अपूज्य होगये। और नारायण ने यह वर मांगा, कि हे भगवन् मैं सदैव आपका सेवक बना रहूं। इसी से वह नारायण तुम्हारे स्वरूप में हो कर मेरे अर्धाङ्गी हुए। और इसी से तुम्हीं मेरी शक्तिरूप नारायण हो। और तुम्ही मेरे पूर्वजन्म में भी स्त्री थी। शिवजी के इस बचन को सुन कर पार्वती जी बोली कि मैं पूर्वजन्म में किस प्रकारसे आपकी स्त्री थी। शिवजी बोले हे पार्वती पूर्व समय में दक्ष प्रजापति के तुम और तुम्हारे सिवाय अनेक कन्या थी। दक्षप्रजापति ने तुम्हारा विवाह मेरे साथ किया, और अन्य कन्याओं का धर्मादिक देवंताओं के साथ कर दिया। एक समय दक्ष ने यज्ञ में सब जामातामों को बुलाया, परन्तु केवल मुझे नहीं बुलाया। तब तुमने दक्ष से पूछा कि मेरे पति को क्यों नहीं बुलाया। दक्ष ने यह उत्तर दिया कि तुम्हारा पति मनुष्यों के कपाल आदिक अशुभ वेष को धारण करता है। उसको में यज्ञ में कैसे बुलाऊं, उसके ऐसे कठोर वचनों को सुन कर हे पार्वती तुमने यह सोचा कि यह बड़ा पापी है। और मेरा शरीर भी इसी से उत्पन्न हुआ है, इसलिये तुमने उस अपने शरीर को योग से त्याग दिया। और मैंने क्रोध से दक्ष के यज्ञ का नाश कर दिया। इसके उपरान्त जैसे समुद्र से चन्द्रमा की कला उत्पन्न हुई है। उसी प्रकार हिमालय के घर में तुम्हारा जन्म हुआ। इसके उपरान्त तुम्हें तो याद ही होगा। कि जब मैं तप करने के लिये हिमालय पर गया, तब तुम्हारे पिता ने मेरी सेवा के लिये तुम को लगा दिया था, इसी बीच में तारकासुर के मारने के निमित्त मेरे पुत्र होने के लिये देवता लोगो के भेजे हुए कामदेव ने, अवसर पाकर मेरे ऊपर अपने वाण चलाये। और मैंने उसे भस्म कर दिया, फिर बड़ा कठोर तप करके तुमने मुझे प्रसन्न किया। और मैंने भी तुम्हारे तप को बढाने के लिये, बहुत देर लगाई। इस प्रकार से तुम मेरे पूर्वजन्म की स्त्री हो। बतायो अब मेैं और क्या कहूं। ऐसा कह कर महादेव जी के चुप हो जाने पर पार्वती जी क्रोध करके बोली कि तुम बड़े धूर्त हो। मेरे प्रार्थना करने पर भी कोई उत्तम कथा नहीं कहते, गङ्गा को शिर पर धारण करते हो 'सन्ध्या की वन्दना करते हो, क्या मैं तुम्हें नहीं जानती। यह वचन सुनकर जब शिवजी ने अपूर्व मनोहर कथा कहने की प्रतिज्ञा की तब पार्वती जी का क्रोध शान्त हुआ। 

     पार्वती जी ने कहा यहां कोई न आने पाए, यह कह कर नन्दी को द्वार पर खड़ा कर दिया और शिवजी ने कथा प्रारम्भ करके कहने लगे, कि देवता लोग अत्यन्त सुखी होते है, और मनुष्य अत्यन्त दुखी होते हैं। इसलिये देवता और मनुष्यों की कथा अत्यन्त मनोहर नहीं है, इस हेतु से में विद्याधरों (अर्थात् ज्ञानवान पुरुषों) की कथा प्रारम्भ करता हूं। इस प्रकार जब शिवजी कहने लागे, तो उसी समय शिवजी का अत्यन्त प्यारा पुष्पदन्त नाम का गण आया, और द्वार पर खड़े हुए नन्दी ने उसे रोक दिया। परन्तु मुझे निष्कारण रोका है ऐसा समझ कर योग के वल से अलक्षित अदृश्य होकर भीतर चला गया। और जाकर महादेवजी की कही हुई सात विद्याधरों की अपूर्व कथा सुनी, और वही सत्कथा उसने अपने घर जाकर जमानाम अपनी स्त्री से कही। क्योंकि कोई भी अपनी स्त्री से धन और गुणों का वर्णन को नहीं छुपासकता। 

     उसकथा के आश्चर्य से भरी हुई जयाने भी सम्पूर्ण कथा पार्वती जी के सन्मुख - कहीं क्योंकि (स्त्रियां किसी बात को छुपा नहीं सकती) जया से इस कथा को सुन कर बहुत क्रोध युक्त हो पार्वती जी ने शिवजी से कहा कि तुमने वह अभुतपूर्व कथा नहीं कही थी। इसे तो जयासी जानती है तब महादेव जी ने ध्यान करके देखा और कहा कि पुष्पदन्त ने योगबल से यहां आकर सभी कथा को सुनी है। और जया से उसने वर्णन की है, नहीं तो इसको कौन जान सकता है। यह सुन कर पार्वतीजी ने बड़े क्रोध से पुष्पदन्त को बुला कर कहा हे दुष्ट तू मनुष्य होजा, यह शाप दिया और उसके लिये शिफारस करने वाले माल्यवान को भी यही शाप दिया। 

     तब उन दोनों ने और जया ने पार्वती के पैर पर गिरकर बहुत समझाया जिससे पार्वती जी ने शाप का अन्त इस प्रकार से बतलाया कि जो विन्ध्याचल के वन में कुवेर के शाप से पिशाच हुआ सुप्रतीक नाम यक्ष काणभूत नामवाला स्थित है। उसके देखने से अपनी जातिको स्मरण करके जब उस से इस कथा को कहोगे, तब हे पुष्पदन्त तुम इस शाप से छूट जावोगे।

    और काणभूत की कथा को जब माल्यवान सुनेगा, तब काणभूत के मुक्त हो जाने पर कथा को प्रकट करके यह भी मुक्त हो जायगा। यह कह कर पार्वतीजी तो चुपकी हो गई। और वह दोनों गण भी देखते ही देखते बिजली के समान नष्ट होगये।

     इसके उपरान्त कुछ समय व्यतीत हो जाने पर पार्वती दयायुक्त होकर शिवजी से बोली कि हे स्वामी जिन दोनों गणो को मैंने शाप दिया था। वह पृथ्वी में कहां उत्पन्न हुए हैं। यह सुन कर महादेव जी बोले कि कौशाम्बी नाम नगरी में वररुचिनाम से पुष्पदन्त उत्पन्न हुआ है। और सुप्रतिष्ठित नाम नगर में गुणाव्य नाम से माल्यवान भी उत्पन्न हुआ है। यह उन दोनों का वृत्तांत है इस प्रकार कह कर श्री महादेव जी गणों को शाप देने से पश्चाचाप वाली पार्वती को लेकर कैलास पर्वत पर कल्पवृक्ष की लताओं में क्रीड़ा करके प्रसन्न करते रहें।

       ॥ इतिश्रीकथासरित्सागरभाषायांकथापीठलंबकेप्रथमस्तरङ्गः१॥ 


     इसके उपरान्त मनुष्य के शरीर में वररुचि अथवा कात्यायन नामसे प्रसिद्ध पुष्पदन्त नाम का गण संपूर्ण विद्याओं को पढ़ कर और राजा नन्द के यहां मन्त्री होकर एक समय बहुत उदास हो के श्री भगवती विन्ध्यवासिनी के दर्शन करने को गया वहां तप से प्रसन्न हुई भगवती ने स्वप्न में वररुचि से यह कहा कि तुम विन्ध्याचल के वन में जाकर काणभूत से मिलो। तब व्याघ्रादि अनेक हिंसक जीवों से भरे हुए निर्जन बड़े २ वृक्ष वाले विन्ध्याचल के घनें जंगल में भ्रमण करते २ वररुचिने एक बहुत वड़ा बरगद का वृक्ष देखा। और उसके निकट सैकड़ों पिशाचों से घिरे हुए शालवृक्ष के समान, ऊंचे डीलवाले काणभूत को देखा। 

    काणभूत ने उसे देख कर पैरों पर गिर कर बैठाया तव क्षण भर बैठ कर वररुचि बोले कि हे काणभूत आप के  आचार बहुत उत्तम हैं। यह गति कैसे हुई? यह बड़े प्रेम के वचन सुन कर काणभूत बोला, कि मैं अपने आप तो कुछ भी नहीं जान सकता हूं। परन्तु उज्जयनी के श्मशान में महादेवजी के मुखारविन्दसे जो सुना है वह कहता हूं। एक समय महादेव जी से पार्वती ने पूछा कि हे देवाधिदेव आपकी प्रीति कपाल और श्मशान में क्यों है? इस प्रकार से पूछे हुए प्रश्न पर महादेवजी बोले कि पूर्व कल्प के अन्त में सम्पूर्ण संसार के जलमय हो जाने पर मैंने अपनी जंघा चीरकर एक रुधिर की बूंद टपका दी थी। वह रुधिर की बूंद जल में गिरकर अण्डासी हो गई। उस अण्डे को फाड़ने से एक पुरुष उत्पन्न हुआ। उसी से मैंने संसार को बनाने के लिये प्रकृति उत्पन्न की, उन दोनों ने मिल कर प्रजापति उत्पन्न किये। और प्रजापतियों ने प्रजा उत्पन्न की। इसी से संसार में उस पुरुष को पितामह कहते हैं। 

      इस प्रकार सब संसार को उत्पन्न करके अभिमान युक्त होने वाले उस पुरुष का शिर मैंने काट डाला, उसी के पश्चात्ताप से मैंने यह बड़ा व्रत ग्रहण किया है। इसीलिये मैं कपालों को हाथ में लिये रहता हूं और श्मशान मुझे बहुत प्यारा है। और हे पार्वतीजी यह कपालरूप संसार मेरे हाथ में स्थित है क्योंकि उस अण्डे के दोनों टुकड़े पृथ्वी और आकाश कहलाते हैं। इस प्रकार महादेव जी के कहने पर उन वातों को सुनने के लिये, मैं वहां पर खड़ा था  कि पार्वतीजी फिर महादेव जी से बोली, कि हे प्रिय वह पुष्पदन्त हमारे पास कितने दिनों में आवेगा। यह सुनकर महादेव जी मेरी ओर देख कर बोले कि यह जो पिशाच दिखाई देता है। यह कुवेर का सेवक यक्ष है, इसकी मित्रता स्थूलशिर नाम किसी राक्षस से थी। उस पापी के साथ इसे देख कर कुवेस्ली ने इसे यह शाप दिया कि तू विन्ध्याचल के जंगल में पिशाच हो जाय। 

      तव दीर्घजंघ नामक इसके भाई ने कुवेर के चरणों पर गिर कर यह प्रार्थना की कि महाराज इसका शाप कब छूटेगा। तब कुवेर ने कहा कि शाप से छूटे हुए, पुष्पदन्त से बृहत्कथा कों सुन कर और उस कथा को शाप से मनुष्य हुए माल्यवान से कह कर, उन दोनों गणों के साथ यह भी शाप से छूटेगा। हे पार्वतीजी कुवेर ने इस प्रकार से इसके शाप का अन्त कहा है, तुमको भी यही जानना चाहिये। महादेव जी के ऐसे वचन सुन मैं बहुत प्रसन्न होकर यहां चला आया, इस प्रकार पुष्पदन्त के आने तक मेरा यह शाप रहेगा। इस प्रकार कह कर जब वह चुप हो गया। तब उसी समय वररुचि अपनी जाति को याद करके, मानों सोते से जग पड़ा, और बोला कि मैं वही पुष्पदन्त हूं, मुझसे उस कथा को सुनो, यह कह कर वररुचि ने सात लाख श्लोकोंकी सात महाकथा कहीं ।

    इसके उपरान्त काणभूत बोला हे पुष्पदन्त तुम तो शिवजी का अवतार हो तुम्हारे सिवाय इन कथाओं को कौन जान सक्ता है। तुम्हारी कृपा से अब यह मेरा' शाप गयाहीसा है। अब आप जन्म से लेकर अपना वृत्तान्त वर्णन करके मुझे पवित्र करो जो मुझसे छिपाना न चाहो। काणभूत के ऐसे कोमल वचनों को सुनकर वररुचि ने जन्म से लेकर अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तार पूर्वक यंहवर्णन किया।

      कौशाम्बी नाम नगरीमें सोमदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था जिसका दूसरा नाम मग्निशिख भी था उस ब्राह्मणकी स्त्री का नाम वसुदचा था वह किसी मुनि की कन्या थी। और किसी शाप से ब्राह्मण की स्त्री हुई थी। उन्ही दोनों से मेरा जन्म हुआ है, जब कि मैं बहुत छोटा बालक था तब मेरा पिता मर गया, मेरी माता बड़े दुःख से मेरा पालन करने लगी।  एक समय बहुत दूर से चले हुए दो ब्राह्मण रात्रिभर रहने के लिये मेरे घरपर ठहरे। वह दोनों मेरे घर पर टिके ही थे, कि उसी समय मृदंग की आवाज सुनाई पड़ी, उसको सुन कर मेरी माता मेरे पिता की याद करके गद्गदवचन से बोली, कि हे पुत्र यह तुम्हारे पिता का मित्र नन्द नाम का नट नाच रहा है। मैंने भी माता से कहा कि मैं इसे देखने को जाता हू। और देख कर तुझे भी सम्पूर्ण दिखाऊंगा, मेरे यह वचन सुनकर 'उन ब्राह्मणों को बड़ा आश्चर्य हुआ। तब मेरी माता ने उन दोनों से कहा कि इसमें कोई सन्देह नहीं है, यह बालक एक बार की सुनी हुई, सब बातों को हृदय में धर लेता है, तब मेरी परीक्षा के लिये उन्ह प्रीतिशाख्य का पाठ किया मैंने यह सुन कर उसी प्रकार उनको सुना दिया। इसके उपरान्त उन दोनों के साथ नाच देख कर, मैंने अपनी माता को भी उसी प्रकार करके दिखा दिया। इस प्रकार मुझे संकृत श्रुतिधर (एकवार सुनकर याद रखनेवाला) जान कर उन दोनों में से एक व्याड़ि नामक ब्राह्मण ने मेरी माता को प्रणाम करके यह कथा कही। 

    हे माता वेतसनाम पुर देश में देवस्वामी और करम्भक नाम दो ब्राह्मण अत्यन्त परस्पर प्रेम करने वाले भाई थे। उनमें से देवस्वामी का पुत्र यह इन्द्रदत्त नाम है, और करम्भक का पुत्र व्याडि नाम मैं है, उनमें से प्रथम मेरा पिता मरा उसी के शोकसे इन्द्रदत्त का भी पिता मर गया। और उन्हीं दोनों के शोकसे हमारी माता भी मर गई।

       इसी कारण से धन होने पर भी अनाथ होकर विद्या की अभिलाषा से हम दोनों स्वामि कुमार की तपस्या करने लगे। तप करते २ एक दिन स्वप्न में स्वामिकुमार ने यह कहा कि नन्दनाम राजा के पाटलिपुत्र नाम नगर में वर्ष नाम का एक ब्राह्मण है, उससे तुमको सम्पूर्ण विद्या मिलेंगी। तुम वहीं जाओ इसके उपरान्त पाटलिपुत्र नाम नगर में जाकर, हम लोगों ने पूंछा, तो लोगों ने कहा कि हाँ वर्ष नाम का एक मूर्ख ब्राह्मण है। तब सन्देह युक्त हो कर हम दोनों वर्ष के घर में गये, और जाकर मूसों के बिलो से युक्त गिरी हुई दीवार वाले छाया तथा छप्पर से रहित आपत्तियों के स्थान के समान घर में ध्यान लगाये बैठे हुए उस वर्ष ब्राह्मण को देखा। हम लोगों को आया देख कर वर्ष की स्त्री जिसका शरीर अत्यन्त मलिन दुर्बल बाल खुले हुए, और वस्त्र मैले थे, वह स्त्री क्या थी, मानों वर्ष के गुणों को देख कर साक्षात दुर्दशा ही स्वरूप को धारण किये आई थी उसने बड़ा सत्कार किया। तब हमने प्रणाम करके अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा और यह भी कहा कि हमने सुना है, कि वर्ष बड़े मूर्ख हैं, यह सुन कर वह बोली कि तुम हमारे पुत्र के समान हो तुमसे क्या लज्जा है? सुनो में तुम से यह कथा कहती हूं।

     इस नगर में शंकर स्वामी नाम के एक ब्राह्मण रहते थे, उनके दो पुत्र थे एक तो मेरापति और दूसरा उपवर्ष, मेरापति तो अत्यन्त मूर्ख तथा दरिद्रि हुआ। और इसका भाई अत्यन्त धनवान तथा विद्वान हुआ। उसने अपनी स्त्री को हमारे-घर का' भी पालन करने की आज्ञा दे दी थी, पर यहां की यह बड़ी बुरी रीति है, कि वर्षा ऋतु में गुड़ और पीठी को मिलाकर स्त्रियां गुप्तरूप से कोई बुरी चीज़ बना कर मूर्ख ब्राह्मण को देती हैं। ऐसा करने से जाड़ों के दिनों में स्नान का क्लेश और गर्मियों में स्वेदका दुःख नहीं होता है। इसलिये मेरी देवरानी ने भी दक्षिणा सहित वह पदार्थ मेरे पति को दिया, उसे लेकर जब यह घर आया, तब मैंने इसे बहुत डांटा। और यह भी अपनी मूर्खता के कारण अत्यन्त दुखी होकर स्वामिकुमार की सेवा करने को चले गये। इनके तप से प्रसन्न हुए स्वामिकुमार ने इनके हृदय में सम्पूर्ण विद्याओ का प्रकाश कर दिया। और कहा कि जब सकृत् श्रुतिधारी ब्राह्मण तुम को मिले, तब तुम इन विद्यायों का प्रकाश करना इस प्रकार स्वामिकुमार की आज्ञा पाकर बहुत प्रसन्नता पूर्वक घर में आकर इन्होंने सम्पूर्ण वृत्तान्त मुझसे कहा, तब से यह बराबर रात्रि दिन जप और ध्यान में लगे रहते हैं। इस्से कोई सकृत-श्रुतिधारी (एकवार सुनकर याद रखनेवाला) ब्राह्मण लाओ तो तुम्हारा कार्य सिद्ध होये। वर्ष की स्त्री से ऐसे वचन सुन कर और उसे १०० अशर्फी देकर सकृत् श्रुतिधर के ढूंदनेको , हम सब पृथ्वी पर घूमे, परन्तु वह कही नहीं मिला। आज थक कर तुम्हारे यहाँ पाया। तो यह तुम्हारा बालक सकृत श्रुतिधारी मिला सो तुम इसे विद्या पढ़ने के लिये हमको सुपुर्द करदो। 

    व्याड़ि के ऐसे वचन सुनकर-हमारी माता बड़े आदर पूर्वक बोली कि तुम्हारा कहना बहुत ठीकहै, क्योंकि जिस समय यह बालक उत्पन्न हुआ था, तब यह आकाशवाणी हुई थी कि यह बालक सकृत् श्रुतिधारी: होगा। और वर्ष, उपाध्याय से विद्या को पढ़कर संसार में व्याकरण शास्त्र की प्रतिष्ठा बढ़ाएगा। और इसका वररुचि नाम इस कारण से होगा, कि संसार में वर अर्थात् उत्तम पदार्थ ही इसको अच्छे लगेंगे। इसी से इस बालक के बढ़ने पर में रात्रि दिन-शोचती थी, कि वर्ष उपाध्याय कैसे मिलेंगे? आज तुम्हारे मुख से यह बात सुनकर मुझे बड़ा संतोष हुआ। तुम इसे लेजाओ, कोई शोच की बात नहीं है। यह तो तुम्हारे भाई के समान है, मेरी माता के ऐसे वचन सुनकर वह दोनों बड़े प्रसन्न हुए, और क्षण के समान वह रात्रि व्यतीत की, इसके उपरान्त उन दोनों ने मेरी माता के प्रसन्न होने के लिये अपना सम्पूर्ण धन देकर, मेरा यज्ञोपवीत किया। फिर मुझे लेजाने के लिये आज्ञा मांगी, तब मेरी माता ने भी बड़े दुःख से किसी प्रकार अपने आंसुओं को रोककर मुझे जाने की आज्ञा दी। वह मुझे साथ में लेकर वहां से बड़ी प्रसन्नता पूर्वक चले, और वर्ष के घर में पहुंचे पर वर्ष ने भी मुझे स्वामीकुमार के वरदान के समान मानकर दूसरे दिन हम लोगों के सन्मुख बैठा कर अपनी दिव्यवणी से ओमकार का  उचारण किया उसी समय सम्पूर्ण वेद अपने २ अंगो समेत उन को स्मरण हो आये। और वह हम लोगों को पढ़ाने लगे, एक बार सुन कर मैंने दोबार सुन कर व्याड़ि ने और तीन वार सुन कर इन्द्रदत्त ने गुरु का पढ़ाया हुआ याद कर लिया। उस अपूर्व दिव्यध्वनि को सुनकर सम्पूर्ण नगर निवासी बाह्मण लोग देखने को आये। और प्रशंसा करके वर्ष उपाध्याय को प्रणाम करने लगे, ऐसे आचार्य को देख कर पाटलिपुत्र नगर निवासी सम्पूर्ण लोग उत्सव करने लगे, परन्तु उसके भाई उपवर्ष ने अभिमान' के कारण नहीं किया और नन्द नाम राजा ने भी स्वामिकुमार के प्रभावको देखकर और वर्ष के ऊपर प्रसन्न होकर उनका घर धन से भरवा दिया॥ 

 इतिश्रीकथासरित्सागरभाषायांकथापीउलम्बफेदितीयस्तरका २॥ । '

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