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कथासरितसागर भाग-1.1 (The Stories of ocean)

कथासरितसागर भाग-1.1 

गतांक से आगे.......

            यह कह कर वररुचि एकाग्र मन से सुनने वाले काणभूत से फिर बोला, कि एकसमय अपने नित्य कार्यों को करके हमनें वर्ष नाम उपाध्याय से पूछा कि हे उपाध्याय किस कारण से इस पाटलिपुत्र नाम नगर के निवासी अत्यन्त धनवान और विद्वान होते हैं। सो आप कृपा करके वर्णन कीजिये, यह सुन कर उपाध्याय बोले कि हरद्वार में जो कनखल नाम अत्यन्तः पवित्र स्थान है, जिस तीर्थ में कांचनपात नाम दिग्गज उसी नगरी को तोड़ कर उस पर से श्रीगंगा जी को उतार लाया है, उसमें एक दक्षिणी ब्राह्मण अपनी स्त्री समेत तप करता था, उस बाह्मण के तीन पुत्र थे। समय पाकर जब वह ब्राह्मण स्त्री समेत मृत्यु को प्राप्त हुआ, तो उसके पुत्र विद्या पढ़ने की इच्छा से राजगृह नाम स्थान में जाकर विद्या पढ़ने लगे, और पढ़ कर किसी स्वामी के न होने से दुखि हो कर,  स्वामिकुमारके दर्शन करने को दक्षिण की ओर गये वहां समुद्र के तट पर चिंचिनी नाम नगरी में भोजिक नामक ब्राह्मण के घर में रहने लगे। उस बाह्मण की तीन कन्या थी, उसने अपनी तीनौ कन्याओं का विवाह इन तीनों से करके और अपना सब धन देके तप करने के निमित्त गंगा जी की यात्रा की, इसके उपरान्त सुसर के घर में रहते रहते हुए, उस देश में अवृष्टि के कारण बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा। इससे वहां तीनों ब्राह्मण अपनी - अपनी स्त्रियों को छोड़ कर दूसरे देशान्तर को चले गये। (क्योंकि कष्टों से पीड़ीत मनुष्यों के - हृदय में सम्बन्ध का स्नेह नहीं होता) और वह तीनों कन्या अपने पिता के मित्र किसी यज्ञदर्श नाम ब्राह्मण के घर में रहीं। उनमें से बीच वाली कन्या को गर्म भी था। समय पाकर उसको एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस बालक पर उन तीनौ का बहनों का स्नेह था, एक समय आकाश मार्ग में बिहार करते हुये महादेव जी की जंघे पर बैठी हुई, पार्वती जी उस बालक को देख कर दयापूर्वक बोली कि स्वामी दखो इस बालक पर यह तीनों स्त्रियां कैसा स्नेह करती हैं। और इनको यह आशा है कि यह हमारा पालन करेगा। सो हे स्वामी ऐसा करो जिससे कि यह पालक इनकी पालना करे, पार्वती जी के ऐसे दयायुक्त वचनों को सुनकर वरदाता भगवान महादेव जी बोले कि इस पर मैं अवश्य अनुग्रह करूंगा। क्योंकि पूर्वजन्म में इसने अंपनी 'स्त्री समेत मेरी बहुत आराधना की है। इसीलिये इसको यह जन्म भी दिया है, इसकी स्त्री महेन्द्र नामक राजा की पुत्री है, जो पाटली नाम से उत्पन्न हुई है, उसी से इसका विवाह भी होगा। 


   यह कह कर शिवजी ने उन पतिव्रता स्त्रियों को यह स्वप्न दिखाया कि तुम्हारे इस बालक का पुत्रक नाम है, यह जब शयन करके उठेगा, तब इसके सिरहाने में एक लाख अशर्फि प्रतिदिन मिलेंगी। और इसी से यह राजा होगा, इसके उपरान्त जब बालक सोते से उठा, तब वह स्त्रियां उस अशर्फियों के ढेर को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुई, इस प्रकार उन अशर्फियों से बड़ा भारी खजाना इकट्ठा हो गया। इसी से वह पुत्रक नाम लड़का राजा भी होगया। किसी समय उसके नाना का मित्र यज्ञदत्त एकान्त में उस बालक से बोला, कि हे राजन्,आपके पिता दुर्भिक्ष के कारण से दूसरे देशान्तर को चलेगये हैं। आप ब्राह्मणों को सदैव कुछ दान दिया कीजिये, जिसे सुन कर आपके पिताभी आजाएंगे। और मैं आप से इसी विषय में राजा ब्राह्मदत्त की कथा को कहता हुं, उसको सुनिये पूर्वकाल में काशीजी में ब्रह्मदत्त नाम का एक राजा हुआ, उस राजा ने रात्रि के समय आकाश में उड़ते हुये सैकड़ों राजहंसों से घिरे हुये दो सुवर्ण के हंसों को देखा, उनकी ऐसी शोभा थी कि मानों बिजली के समूह को स्वेत भेषों के समूह घेरे चले जाते हैं, राजा को इनको देखने की उत्कण्ठा ऐसी हुई कि राज्य के सब सुखों को भुल गया, और मन्त्रियों की सम्मति से एक बड़ा उत्तम तड़ाग बनवा कर, उस में सब जीवों के आने की बेरोंक आज्ञा दी, फिर समय पाकर वह दोनों हंस भी आये। राजा ने उनको आया हुआ देख कर विश्वास में लेके उन से पूँछा कि तुम्हारा शरीर सुवर्ण का क्यो है? यह सुन कर वह इस प्रकट वाणी से बोले कि हे राजन् पूर्वजन्म में हम दोनों काक थे, एक समय किसी निर्जन पवित्र शिवालय में भोजन के निमित्त लड़ते - लड़ते शिवालय की जलाधारी में गिर कर मर गये। और अब पूर्वजन्म के जानने वाले सुवर्ण के हंस हैं। उनके यह वचन सुन कर, और उन्हें अच्छे प्रकार से देख कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुया। इसी से में कहता हूं, कि जो आप कोई अपूर्व दान दिया करोगे तो आपके भी पिता उसके प्रभाव से आपको मिलेंगे। इस प्रकार यज्ञदत्त से सुनकर पुत्रक ने उसी प्रकार दान देने से दान की प्रसिद्धी को सुन कर उसके पिता भी वहां आगये। और पहचान लिये गये, तब पुत्रक ने उनको बड़े आदर पूर्वक धन देकर उनको रखा। (भाग्य से आपत्तियों का नाश हो जाने पर भी अविवेक से अन्धबुद्धि वाले दुष्टों का स्वभाव नहीं जाता है यह आश्चर्य है) एक समय उसके पितादिक राज्य पाने की इच्छा से उस पुत्रक नाम अपने पुत्र को मारने की इच्छा करके उसे विन्ध्यवासिनी के दर्शन के बहाने वहां लेगयें, और बधिकों को देवी के मन्दिर में स्थापित करके पुत्र से बोले कि पहले तुम अकेले ही देवी के मन्दिर में दर्शन करने जाओ, उसने उनके विश्वास से भीतर जाकर मारने को उद्युक्त हुये, उसने पुरुषों से पुंछा कि तुम लोग मुझे क्यों मारते हो? बधिक बोले, कि तुम्हारे पिता और चाचाओं ने सुवर्ण देकर हमको तुम्हारे मारने को यहां रखा है, इसके उपरान्त देवी की कृपा से मोहित हुए वधिकों से पुत्रक ने कहा कि यह संपूर्ण सुुवर्ण जड़ित में आभुषण ले कर मुझे छोड़ दे।

      संपूर्ण स्वर्ण जड़ित मेरे आभूषण लेकर, मुझे छोड़े दों। मैं इस बात की चर्चा किसी से नहीं कहूँगा, और कहीं दूर चला जाऊँगा। तव वधिक लोगों ने उसके सब आभूषण ले लिये, और उसके पिता से कह दिया कि हमने पुत्रक की हत्या कर दिया। फिर वहाँ से लौट कर गये हुए, राज्य के चाहने वाले उसके पितार्दिकों को मन्त्रियों ने द्रोही जान कर मार डाला (क्योंकि कृतघ्नियों को कल्याण कैसें हो सकता है) । इसी बीच में वह सत्यव्रती राजा पुत्रक सभी अपने बन्धुओ से विरक्त होकर विन्ध्याचल के वन में चला गया। और वहां जाकर घूमते घूमते, पुत्रक ने मल्ल युद्ध करते हुये दो पुरुषों को देख कर उनसे पूछा कि तुम कौन हों? उन दोनों ने कहा कि हम दोनों मयासुर के पुत्र हैं, और एक पात्र एक दंड तथा दो पादुका यही हमारे पिता का धन है, इसी धन के लिये हम दोनों लड़ रहें हैं। जो अधिक बलवान होगा वह छीन लेगा, उनके यह वचन सुन कर, पुत्रक ने हँसकर कहा कि यह कितना धन है? जिसके लिये तुम लड़ते हों, तब वह बोले कि इन खड़ाउंओं के पहनने से आकाश में उड़ जाने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। इस दंड से जो लिख दिया जाता है, वह सत्य हो जाता है। और इस पात्र में जिस भोजन की इच्छा करो वही प्राप्त हो जाता है। यह वचन सुन कर पुत्रक ने कहा कि युद्ध से क्या प्रयोजन है? यह प्रतिज्ञा करो कि दौड़ने से जो आगे निकल जाये, वही इस धन को पावे इस बात को मानकर वह दोनों मूर्ख दौड़े, और पुत्रक भी खड़ाउँओं पर चढ़ कर दंड और पात्र को लेकर आकाश को उड़ गया । इसके उपरान्त क्षण भर में बहुत दूर जाकर आकर्पिका नाम सुन्दर नगरी को देख कर आकाश से पुत्रक उतरा और यह विचारने लगा, कि वेश्यावंचक होती हैं ब्राह्मण हमारे पिताके समान होते हैं। और वैश्य धन के लोभी होते हैं, तो मुझे कहा रहना चाहिये? ऐसा विचार करते २ किसी निर्जन टूटे फूटे घर में एक वृद्धा स्त्री को उसने देखा, तब उसे कुछ देकर प्रसन्न करके उसी टूटे-फूटे घर में गुप्त होकर रहने लगा। एक समय उस वृद्धा ने पुत्रक के स्वरूप को देख प्रसन्न होकर उससे कहा हे पुत्र मुझे यह बड़ी चिन्ता है, कि तुम्हारे योग्य स्त्री कहीं नहीं है। यहां के राजा की कन्या का नाम पाटली है, वह तेरे योग्य है, परन्तु महलों में रत्न के समान उसकी चौकसी की जाती है। वृद्धा के ऐसे वचन सुनकर उसके चित्त में कामदेव की बाधा हुई, तो विचार किया कि आज उसको अवश्य देखूंगा। यह निश्चय करके, रात्रि के समय खड़ाऊं पहन कर आकाश मार्ग से वह चला, और पर्वत के शिखर के समान ऊंचे झरोखें में से प्रवेश करके महल में सोती हुई उस पाटली को देखा। उसकी ऐसी शोभा थी कि वह स्त्री नहीं है मानों सम्पूर्ण संसार को जीत कर थकी हुई कामदेव की शक्ति शरीर में लगी हुई चन्द्रिका से सेवन की जाती है। उसे सोती हुई देखकर पुत्रक ने सोचा कि इसे कैसे जगाऊँ? उसी समय अकस्मात किसी पहरुए ने यह दोहा पढ़ा। 

दोहा । अलस दृष्टियुत कामिनी आलिंगन करिजौन । 

         रहसि जगावे तरुण जन जन्मकेरिफल तीन ।

    इसको सुनकर कांपते हुए अंगों से उस परम सुन्दरी राजपुत्री का उसने आलिंगन किया, और वह जाग गइ, तब उस राजपुत्र को देख कर लज्जा तथा आश्चर्य से उस राज पुत्री की दृष्टि चकित हो गई। इसके उपरांत वार्तालाप करने पर इनका गन्धर्व विवाह हो गया। और उन दोनों की प्रीति परस्पर अत्यन्त बढ़ी फिर रात्रि के व्यतित हो जाने पर, राजपुत्री से पूछ कर पुत्रक उस वृद्धा के घर में फिर लौटा आया इस प्रकार वह हर रात्रि में वहां जाने आने लगा। एक समय रक्षकों ने पाटली के संभोग चिह्नोंको देखकर, उस के पिता से कहा तब राजा ने भी एक स्त्री को छिपाकर उसको पहचानने के लिये महल में रक्खा ।

      उस स्त्री ने जब पुत्रक सो गया तब पहचानने के लिये उसके वस्त्र में महावर लगा दी, प्रातःकाल उसके-कहने से राजा ने दूत भेजे, और उसी पहचान से दूत उसे पकड़ कर राजाके निकट ले आये, राजा को क्रोधित देख कर पुत्रक खड़ाऊ पहन कर आकाश में उड़ा, और पाटली को महल में पाकर बोला, कि हमको राजा ने जान लिया है, अब चलो हम दोनों खड़ाउँओं के बल से उड़ चले, यह कहकर पाटली को गोद में लेकर उड़ गया। इसके उपरान्त गंगा जी के तट पर आकाश से उतर कर थकी हुई प्रिया को उसी पात्र के द्वारा उत्पन्न हुए, भोजनों के प्रकारो से प्रसन्न किया। इस प्रकार के अद्भुत प्रभाव को देखकर पाटली ने प्रार्थना की, तब पुत्रक ने उस दंड से चतुरंगिणी सेना समेत एक नगर लिखा। उस नगर के सत्य हो जाने पर पुत्रक ने उसमें राज्य किया। और अपने श्वशुर से मिलकर धीरे २ वह सम्पूर्ण पृथ्वी भर का राजा हो गया। इसी से यह नगर लक्ष्मी सरस्वती का क्षेत्र विख्यात होकर अत्यन्त धनवान् तथा विद्यावान् पुरवासियों समेत माया से रचा हुआ है। और पाटली रानी के कारण से इसका नाम पाटलिपुत्र (पटना) रखा गया है। इस प्रकार उपाध्याय के मुख से इस अर्थपूर्व कथा को सुन कर हमारे चित्त में बहुत काल तक आश्चर्य और आनन्द बढ़ता रहा । 

।। इतिश्रीकथासरित्सागरंभापायांकथापीठलम्वकेतृतीयस्तरङ्गः ३॥ 

     इसप्रकार काणभूत से वीच में इस कथा को कहकर वररुचि फिर अपनी कथा कहने लगा-इस रीति से व्याड़ि और इन्द्रदत्त के साथ धीरे २ सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ कर मैं तरुण अवस्था को प्राप्त हुआ, एक समय हम सब लोग इन्दोत्सव नाम मेले को देखने गये थे वहां काम के शत्रु के समान एक कन्या को देख कर, मैंने इन्ददत्त से पूछा, कि यह कौन है? उसने कहा कि यह उप वर्ष की लड़की उपकोशा नाम है। इतने ही में उस कन्या ने भी अपनी सखियों से मेरा परिचय पूछा, और मेरे मन को खैचे हुए, अपने घर को चली गई। उस का मुखारविन्द पूर्ण चन्द्रमा के समान नेत्र नीलकमल के समान भुजा कमल की दण्डी के समान, स्तन बड़े ग्रीवा शंख के समान, और ओष्ठ मूंगे के समान थे। उसका कहां तक वर्णन किया जाये, मानों वह कामरूपी राजा की सौन्दर्यरूपी मन्दिर की दूसरी लक्ष्मी ही थी। इसके उपरान्त काम के वाणों से मेरा हृदय छिदने लगा। और उस रात्रि को उसके ध्यान में मुझे अच्छी प्रकार निद्रा भी, न-आई जब बड़े कष्ट से कुछ निद्रा आई तो यह स्वप्न दिखाई पड़ा, कि स्वेत वस्त्र धारण किये हुए, कोई स्री मुझसे यह कह रही है, कि हे पुत्र यह उपकोशा तेरी पूर्वजन्म की स्त्री है। तेरे सिवाय और किसी की उसको कामना नहीं है। इससे चिन्ता मत करो, और मैं तेरे शरीर के भीतर रहने वाली सरस्वती हूं मुझसे तेरा दुःख देखा नहीं जाता है।यह कह कर वह अंतध्यान होगई। तब मेरी निद्रा खुल गई, और मैं विश्वास युक्त होकर अपनी प्रिया के घरके समीप एक छोटेसे आम के वृक्ष के नीचे बैठा उसके ख्याल में मग्न था। इसके उपरान्त एक सखी ने आकर मुझसे  कहा कि उपकोशा भी तुम्हारे निमित्त काम से पीड़ित हो रही है। तब मैंने उससे कहा कि उसके पिता की आज्ञा के बिना में उपकोशा को कैसे स्वीकार कर सक्ता हूं, क्योकि इस संसार में अपयश से मौत अच्छी है। जो इस बात को उपकोशा के घर वाले जान जाये, तो बहुत अच्छा है। इसलिये तुम ऐसा ही करो जिससे मेरा और तुम्हारी सखी के प्राण बचें, यह सुन कर उसने सम्पूर्ण वृचान्त उपकोशा की-माता से कहा उसने अपने पति उपवर्ष से कहा उपवर्ष ने-अपने भाई वर्ष से कहा और वर्ष ने उस बातको स्वीकार किया। विवाह के समय ठहर जाने पर वर्ष उपाध्याय की आज्ञा से व्याड़ि मेरी माता को कौशाम्बी नगरी से वुला लाया। इसके उपरान्त उपवर्ष ने विधिपूर्वक उपकोशा नाम की कन्या का दान करके मुझे दे दी। तब मैं सुख चैन से अपनी माता और स्त्री समेत वहीं निवास करने लगा। इसके पीछे समय पाकर वर्ष उपाध्याय के बहुत से शिष्य बढ़ गये, उनमें से एक पाणिनि नाम का शिष्य बड़ा मूर्ख था, वह सेवा करने से बहुत घबरा कर वर्ष की स्त्री का भेजा हुआ विद्या की कामना से तप करने के लिए हिमालय पर्वत पर चला गया। वहां बड़े तप से प्रसन्न हुए महादेव जी ने-सम्पूर्ण विद्याओं का मुखरूप नवीन व्याकरण उसे दिया। उस विद्या को पाकर लौटे हुए पाणिनि ने शास्त्रार्थ करने के लिये मुझे बुलाया। तब हम लोगो के शास्त्रार्थ करते २ सात दिन व्यतीत होगये आठवें दिन मैंने पाणिनि को जीत लिया तब - आकाश में स्थित हुए शिवजी ने बड़ा घोर हुँकार किया, उससे हम लोग सम्पूर्ण वेद व्याकरण भूल गये। और पाणिनि ने हम लोगों को जीतलिया। तदनन्तर मैंने बहुत लज्जित होकर अपना सम्पूर्ण धन हिरण्यगुम नाम वणिये के यहाँ घरके खर्च के निर्वाह के लिये रख दिया। और यह बात उपकोशा को बताया, कि मैं तप से श्री शिवजी की आराधना करने के हिमालय पर जा रहा हूं। और तब उपकोशा भी मेरे कल्याण की इच्छा से नित्य नियम पूर्वक श्री गंगाजी का स्नान करके, अपने घर में रहा करती थी। एक समय वसन्त ऋतू में अत्यन्त दुर्वल शरीवाली पांडुवर्ण युक्त चन्द्रमा की कला के समान मनुष्यो के नेत्रों को आनन्द देनेवाली उपकोशा गंगाजी के स्नान करने को चली जारही थी, बीच में राजा के पुरोहित ने, कोतवाल ने, और मन्त्री के पुत्र ने, इसको देखा तो उसी समय से वह तीनों काम के वशीभूत हो गये। और उसने भी उस दिन स्नान करने में अधिक देर लगाई। जब वह लौटी तो सांयकाल के समय मन्त्री के बेटे ने हठ करके उसको रोका उसने भी अपने हिम्मत को जोड़ कर उससे यह कहा कि मेरी भी पहले ही से यह इच्छा थी। परन्तु मैं अच्छे कुल में उत्पन्न हुई हूं, और मेरा पति परदेश गया है, इस से में डरती हूं, कि जो कोई देखले तो मेरी और तेरी दोनों की बुराई होगी। इससे जव वसन्त का उत्सव देखने को लोग चले जायें, तब एक पहर रात्रि गये तुम मेरे घर आना। यह कह कर जैसे ही वह आगे को चली वैसे ही पुरोहित ने उसको पकड़ा, पुरोहित से भी उसने वही बात कह कर रात्रि के दूसरे पहर का संकेत कर दिया। उससे भी जब किसी प्रकार छूट कर चली तो कोतवाल ने रोका, उससे भी उसने वही बात कह कर रात्रि के तीसरे पहर का वादा कर दिया, इस प्रकार भाग्य वश से उसके हाथ से भी छूट कर घर में आई। और अपनी सखी से सलाह करने लगी कि रूप के लोभ से मतवाले पुरुषों के घूरनेके बनिस्वत पति के परदेश जाने पर कुलीन स्त्री का मर जाना ही वेहतर है। इस प्रकार से शोचती और मेरा स्मरण करती हुई 'उपकोशा ने उस दिन न भोजन किया न-रात्रि को सोई प्रातःकाल ब्राह्मणों के पूजन के निमित्त धन लेने के लिये हिरण्यगुप्त वणिये के यहां अपनी दासी भेजी तब उस वणिये ने उसके घर पर आकर उपकोशा से एकान्त मे यह कहा कि तुम मेरे साथ संग करो, तो मैं तुम्हारे पति का धरा हुआ धन तुम को दूं। उसके बचन सुन कर और अपने पति के रक्खे हुए धन का कोई गवाह न जान कर, खेद तथा क्रोध में भरी हुई उपकोशा ने उस पापी वाणिये से भी वहीं बात कह कर रात्रि के चौथे पहर का संकेत कर दिया। यह सुन कर वह वणिया चला गया। इसके उपरान्त उपकोशा ने अपनी दासियों से कस्तूरी आदि अनेक सुगन्धियों से युक्त तेल मिला हुआ काजल बनवाया और चार वस्र के टुकड़ों पर वह काजल लिपवाया और एक बड़ी मजबूत संदूक बाहरी कुंडी लगवा कर बनवाई । इसके उपरान्त रात्रि के पहले पहर में, वही उत्तम पोशाक पहन कर मन्त्री का पुत्र आया छिप कर आये हुए, उसे देखकर, उपकोशा ने कहा कि मैं तुझे बिना नहाये को नहीं छुऊंगी, इस लिए भीतर जाकर पहले स्नान करो, उसकी बात को मानकर वह मूर्ख दासियों के साथ बहुत गुप्त अन्धेरे घर में गया। वहां दासियों ने उसके वस्त्र तथा आभूषण लेकर उन वस्त्रों के टुकड़ों में से एक टुकड़ा लंगोटा बांधने को उसे दे दिया। और उबटन के बहाने से शिरसे पैरों तक वह काजल उसके शरीर में मल दिया, क्योंकि उसे वहाँ कुछ सूझता न था। उसके अंगों को दासियां मल ही रही थी, कि दूसरे पहर में पुरोहित जी आगये, तब दासियों ने मन्त्री के बेटे से कहा कि यह वररुचि का मित्र कोई पुरोहित आया है इसलिये तुम इस सन्दूक में चले जाओ, ऐसा कह कर दासियों ने सन्दूक के भीतर उस नंगे मंत्री के बेटे को बैठाकर बाहर से कुंडी बन्द करदी। फिर उस पुरोहित को भी स्नान के बहाने से भीतर ले जाकर सब वस्त्रादिक ले लिये, और वही वस्त्र का टुकड़ा पहना कर, तेल का काजल उतनी देर तक मलती रही कि तीसरे पहर में कोतवाल भी आगये, उसके आने के भय से दासियों ने उसे भी सन्दूक में बैठाकर बाहर से कुंडी लगा दी फिर स्नान के बहाने से कोतवाल को भी भीतर लेजा कर उसके वस्त्रादिक उतार लिये। और उसी प्रकार से काले वस्त्र का टुकड़ा पहना कर इतनी देर तक उबटन करती रहीं, कि पिछले पहर में वणिया भी आ गया। तब दासियों ने उसके आने का भय दिखा कर कोतवाल को भी सन्दूक में अन्द करके कुंडी बाहर से बन्द कर दी। सन्दूक के भीतर वह तीनों परस्परं स्पर्श होने पर भी मारे डरके नहीं बोले। इसके उपरान्त उपकोशा ने घर में दीपक जलवा कर उस वणिये को बुलाया, और बोली कि वह मेरे स्वामी का धन जो तुम्हारे पास रक्खा है, मुझे दे दो यह सुन कर वणिये ने घर को सूना देखकर कहा कि में तो कह चुका कि जो तेरे स्वामी का धन रक्खा है, वह दे दूंगा। तब उपकोशा सन्दूक को सुनाकर बोली कि हे देवता लोगो हिरण्यगुप्त के यह वचन सुनो, यह कहकर और दीपक बुझा कर उसे भी उन लोगों के ही समान स्नान के बहाने से भीतर भेजा दासियों ने उसके भी वस्त्रादिक लेकर और वही काले वस्त्र का टुकड़ा पहनाकर काजल के उबटन लगाने में इतनी देर लगाई कि प्रातःकाल होगया। तब दासियों ने कहा चले जाओ रात्रि व्यतीत होगई, यह कह कर जबरदस्ती उसे धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया। इसके उपरान्त काजल से लिपे हुए बस्त्र के टुकड़े को पहने हुए, वह वणिया लज्जित होकर अपने घर पहुंचा। घर में काजल की स्याही को धोते हुए सेवकों के सामने भी वह नहीं खड़ा हो सका था। (क्योंकि ठीक है अनीति में बड़ा कष्ट होता है)  प्रातःकाल उपकोशा अपनी दासी  को साथ लेकर अपने घरवालों के बिना पूंछे राजानन्द के महल में पहुँची, और जाकर यह कहा कि हिरण्यगुप्त नाम वणिया मेरे पति के धरे हुए धनको नहीं दे रहा है।

    राजाने इस बात की जांच करने के लिये, उसे बुला कर जो पूंछा तो उसने कहा कि मेरे पास कुछ भी इसके पति का धन नहीं है। तब उपकोशाने कहा कि राजा मेरापति सन्दूक में घर के देवताओं को वन्द करके गया है, वह मेरे गवाह हैं, उनके सामने इसने धन देना मंजूर किया है, उस सन्दूक को मँगा कर आप पूंछ लीजिये। यह वचन सुनकर राजा ने बड़े आश्चर्य पूर्वक बहुत से आदमियों को भेज कर वह सन्दूक मँगा लीया।  इसके पीछे उपकोशा ने कहा कि हे देवता लोगों जो कुछ इस वणिये ने कहा है, उसे सत्य सत्य कह कर अपने २ घरों को जाओ नहीं तो मैं तुम्हें राजा को सौंप दूंगी या सभा में खोल दूंगी, यह सुन कर सन्दूक में बैठे हुए वह सव डर कर बोले, कि ठीक है इसने हम लोगों के सन्मुख धन देने को कबूल किया है, तब तो उस बणिये ने निरुत्तर होकर उसका सब धन देदिया।। इसके उपरान्त राजा ने उपकोशा से पूछ कर बड़े आश्चर्यके साथ वह सन्दूक खुलवाया। तो उसमें से काजल से पुते तीन पुरुष निकले और राजा तथा मंत्रियों ने उनको बढ़ी कठिनता से पहचाना, तब हंस कर सब लोग आश्चर्य से पूछने लगे, कि यह क्या बात है? तव उपकोशा ने सारा वृत्तान्त साफ २ कह सुनाया। यह सुन कर सभा सब लोगों ने कहा कि शीलवती कुलवती स्त्रियों का अद्भुत चरित्र है। और उपकोशा की बड़ी प्रशंसा की इसके अनन्तर राजा ने पराई स्त्री के चाहने वाले उन लोगों का सब धन छीन लिया, और अपने देश से निकाल दिया (क्योकि बुरेस्वभावसे किसीका कल्याण नहीं होता) तू मेरी बहिन है, यह कह कर राजाने उपकोशा को उसके घर भेज दिया।
      वर्ष तथा उपवर्ष भी इस हाल को सुन कर बड़े खुश हुए, और उस नगर के सम्पूर्ण निवासी बड़े अचम्भे में हो गये। इसी वीच में मैं हिमालय नाम पर्वत पर मैंने बड़ा तप करके शीघ्र वरदायी शिवजी महाराज को प्रसन्न किया महादेव जी ने प्रसन्न होकर उस पाणिनीय शास्त्र का मेरे हृदय में भी प्रकाश कर दिया, और उन्हीं की कृपा से मैंने उस शास्त्र में जो कमी थी, उसे भी पूर्ण किया। इसके उपरान्त महादेवजी के मस्तक पर विराजमान चन्द्रमा की अमृतमय किरणों से सींचे हुए मैंने बिना परिश्रम घर में आकर माता तथा गुरुओं की बन्दना की, और उपकोशा का अत्यन्त अपूर्व वृत्तान्त सुना यह सुन कर मुझे आश्चर्य पूर्वक बड़ा आनन्द हुआ। और उपकोशा पर मेरा स्नेह तथा आदर बहुत बढगया।  इसके उपरान्त वर्ष उपाध्याय ने मेरे मुख से नवीन पाणिनीय व्याकरण सुनने की इच्छा की तो स्वामिकुमार ने स्वयं उनके हृदय में उसका प्रकाश कर दिया।
     इसके पीछे व्याड़ि और इन्द्रदत्त ने वर्ष उपाध्याय से गुरुदक्षिणा मांगने को कहा तब उन्होंने एक करोड़ अशर्फी मांगी गुरु के वचन को अंगीकार करके उन दोनों ने हमसे कहा कि आओ नन्दराजा के यहां गुरुदक्षिणा मांगने को चलें, उसके सिवाय और कोई इतना धन नहीं दे सक्ता है। क्योंकि उसके यहाँ ९९ करोड़ अशर्फियों की आमद है, और उसने उपकोशा को अपनी धर्म की बहिन कहा था। इसलिये वह तुम्हारा साला है, और वह तुम्हारे गुणों से भी प्रसन्न होकर तु्म्हें कुछ दे सकता है।  

     ऐसा निश्चय करके हम लोग अयोध्या में पढ़े हुए राजानन्द के डेरे में गये, जैसे ही हम लोग वहाँ पहुंचे, वैसे ही उस राजानन्द का देहत्याग हो गया था। और राज्य में कोलाहल मच गया था। इससे हम लोगों को बड़ा खेद हुआ। 
   
    इसके उपरान्त योग की सिद्धि से युक्त इन्द्रदेव ने कहा कि इस मरे हुए राजा के शरीर में में प्रवेश करूं तो वररुचि मेरे पास मांगने को आवे मैं एक करोड़ अशर्फि दे दूंगा, और जब तक में लौट कर न आऊं, तब तक व्याड़ि मेरे शरीर की रक्षा किया करे। यह कह कर इन्द्रदत्त ने राजानन्दके मृतक शरीर में प्रवेश किया, और राजा जी उठा फिर राजा के जी उठने पर वहां बड़ा उत्सव होने लगा तब किसी शून्य देव मन्दिर में इन्ददत्त के शरीर को व्याड़ि के सुपुर्द करके मैं राजा के यहां चला वहां राजा के पास जाके और स्वस्तिवचन कह कर राजा से एक करोड़ अशर्फी गुरुदक्षिणा के लिये मांगी। उसने शकटाल नाम राजा के मंत्री से कहा कि इसे करोड़ अशर्फी दिला दो, मरे हुए का फिर जीवन देख के और शीघ्र ही याचक का आना देख कर मंत्री तत्त्व को जान गया। क्योंकि बुद्धिमानो से कोई बत छिपी नहीं रहती है। स्वामी दिवाय देता हूं यह कह कर मंत्री विचारने लगा कि नन्द राजा का लड़का बहुत छोटा है, और राज्य में भी बहुत से शत्रु हैं, तो इस समय इस प्रकार से राजा के शरीर की रक्षाकरनी चाहिये। ऐसा निश्चय करके उसने वहां के सब मुर्दों जलवा दिय।  इस वीच में दूतों ने शून्य देवमन्दिर में इन्द्रदत्त का भी शरीर पाया, और ब्याड़ि से छीन कर वह भी जला दिया। इसी वीच में राजा को अशर्फियोंके देने में जल्दी करते देख कर शकटाल ने विचार कर कहा कि उत्सव से सम्पूर्ण लोगों का चित्त अभी सावधान नहीं है, क्षण भर यह ब्राह्मण ठहरे मैं अशर्फी दिवाय देता हूं। इसके उपरान्त ब्याड़ि ने योग से बने राजानन्द के आगे चिल्ला कर कहा कि बड़ा अन्धेर है, कि नहीं मरे हुए योग में स्थित ब्राह्मण का शरीर अनाथ मुर्दा कह कर आप के राज्य में जला दिया, यह सुन कर योग से बने हुए राजानन्दकी शोक से बुरी दशा होगई। देह के जल जाने से उस नन्दको स्थिर जान कर मंत्री ने बाहर आकर मुझे सब अशर्फिया दे दी। 
  
     इसके अनन्तर योग से बने हुए नन्द ने एकान्त में शोक युक्त होकर ब्याड़ि से कहा कि मैं ब्राह्मण से शूद्र हो गया। इस धन से क्या लाभ होगा? यह सुन कर व्याड़ि ने उसे समय के माफिक समझा कर कहा कि शकटाल तुझे जान गया, तो अब शोचो कि यह तुम्हारा मुख्य मंत्री है थोड़े दिनों में तुम्हें मरवा कर नन्द के पुत्र चन्द्रगुप्त को यहां का राजा वनावेगा। इसलिये वररुचि को अपना मुख्यमंत्री बनाओ उसकी बड़ी प्रभाववाली बुद्धि से तुम्हारा राज्य स्थिर हो जायगा। यह कह कर व्याड़ि तो गुरु दक्षिणा देने को चला गया। और उसने मुझे बुलाकर अपना मंत्री बनाया। तब मैं ने उससे कहा कि तुम्हारा ब्राह्मणत्व तो चला ही गया है, परन्तु शकटाल जब तक जीता है, तब तक राज्य को भी स्थिर न समझो, इसलिये इसका युक्ति पूर्वक नाश करना चाहिये। मेरे इस मन्त्र को सुन कर योग से बने हुए नन्द ने शकटाल को उसके सौ पुत्रों समेत अंधे कुए में गिरवा दिया। और जीते हुए ब्राह्मण को इसने मरवा डाला, इस बदनामी के डर से एक प्याले भर सत्तू और प्याले भर पानी इन सबके लिये प्रतिदिन बँधवा दिया तव शकटाल ने अपने पुत्रों से कहा कि इतने में एक का भी पेट नहीं भरेगा। बहुतौ की कौन कहे? इसलिये एक ही हममें से वह मनुष्य इस को रोज खाया करे जोकि योग से बने हुए इस राजा नन्द से अपना बदला ले सके।  तब उसके पुत्रों ने कहा कि आप ही इस काम को कर सकेंगे, इससे आपही इसे खाइये। क्योंकि धीर पुरुषों को शत्रुओं से बदला लेना प्राणों से भी बढ़ कर है।  तब शकटाल उस सत्तू और जल से अपने प्राणों की रक्षा करने लगा। क्योंकि जीतने की इच्छा करने वाले बड़े क्रुर होते हैं। अंधे कुए में पड़े हुए शकटाल ने अपने पुत्रों को मरता हुआ देख कर, यह शोचा कि कल्याण चाहने वाला मनुष्य स्वामियों के चित्तको बिना जाने और विश्वास हुए बिना उनके साथ कभी अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार न करे। इसके उपरान्त शकटाल के देखते ही देखते उसके सब पुत्र मर गये। और वह उनके हाड़ों के पांजरों से घिरा हुआ अकेला जीता रहा। इतने में योगसे होने वाले राजा नन्दका भी राज्य जम गया, और गुरू को दक्षिणा देकर लौटे हुए व्याड़ि ने आकर उससे कहा कि हे मित्र तुमको राज्य में सुख हो। अब मैं तुमसे पूंछ कर कहीं तप करने जाता हूं, यह सुनकर राजा गद्गद वचन करके बोला कि तुम भी राज्य में, ऐश्वर्य का भोग करो, और मुझे छोड़ कर कहीं न जाओ। तब व्याडि़ ने कहा कि हे राजा इस क्षण भंगुर शरीर में और इसी प्रकार की अन्य प्रकार वस्तुओं में कौन बुद्धिमान अपने को फंसावे? लक्ष्मीरूपी मृगतृष्णा बुद्धिमान मनुष्य को नही मोहित करती है, यह कह कर ब्याड़ि निश्चय करके तप करनेको चला गया।  इसके उपरांत वह राजा सम्पूर्ण सेना को लेकर मुझ समेत पाटलिपुत्र नाम अपने नगर में आनन्द पूर्वक सुख भोगने के लिये चला आया, वहां राजा के मन्त्रियों मैं मुख्य होकर और बहुत सी लक्ष्मी पाकर अपनी माता तथा गुरुओं के साथ उपकोशा से सेवन किया हुआ, मैं बहुत दिन तक रहा फिर तप से प्रसन्न हुई गंगाजी ने, प्रति दिन मुझे बहुत सा सुवर्ण दिया। और शरीर धारण किये हुए श्री सरस्वती जीने मुझे साक्षात दर्शन देकर मेरे कायों में उत्तम उपदेश दिया॥

इतिश्रीकथासरित्सागरभाषायांकथापीठलंक्केचतुर्थस्तरङ्गः ॥

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