कथासरितसागर भाग-1.1
गतांक से आगे.......
यह कह कर वररुचि एकाग्र मन से सुनने वाले काणभूत से फिर बोला, कि एकसमय अपने नित्य कार्यों को करके हमनें वर्ष नाम उपाध्याय से पूछा कि हे उपाध्याय किस कारण से इस पाटलिपुत्र नाम नगर के निवासी अत्यन्त धनवान और विद्वान होते हैं। सो आप कृपा करके वर्णन कीजिये, यह सुन कर उपाध्याय बोले कि हरद्वार में जो कनखल नाम अत्यन्तः पवित्र स्थान है, जिस तीर्थ में कांचनपात नाम दिग्गज उसी नगरी को तोड़ कर उस पर से श्रीगंगा जी को उतार लाया है, उसमें एक दक्षिणी ब्राह्मण अपनी स्त्री समेत तप करता था, उस बाह्मण के तीन पुत्र थे। समय पाकर जब वह ब्राह्मण स्त्री समेत मृत्यु को प्राप्त हुआ, तो उसके पुत्र विद्या पढ़ने की इच्छा से राजगृह नाम स्थान में जाकर विद्या पढ़ने लगे, और पढ़ कर किसी स्वामी के न होने से दुखि हो कर, स्वामिकुमारके दर्शन करने को दक्षिण की ओर गये वहां समुद्र के तट पर चिंचिनी नाम नगरी में भोजिक नामक ब्राह्मण के घर में रहने लगे। उस बाह्मण की तीन कन्या थी, उसने अपनी तीनौ कन्याओं का विवाह इन तीनों से करके और अपना सब धन देके तप करने के निमित्त गंगा जी की यात्रा की, इसके उपरान्त सुसर के घर में रहते रहते हुए, उस देश में अवृष्टि के कारण बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा। इससे वहां तीनों ब्राह्मण अपनी - अपनी स्त्रियों को छोड़ कर दूसरे देशान्तर को चले गये। (क्योंकि कष्टों से पीड़ीत मनुष्यों के - हृदय में सम्बन्ध का स्नेह नहीं होता) और वह तीनों कन्या अपने पिता के मित्र किसी यज्ञदर्श नाम ब्राह्मण के घर में रहीं। उनमें से बीच वाली कन्या को गर्म भी था। समय पाकर उसको एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस बालक पर उन तीनौ का बहनों का स्नेह था, एक समय आकाश मार्ग में बिहार करते हुये महादेव जी की जंघे पर बैठी हुई, पार्वती जी उस बालक को देख कर दयापूर्वक बोली कि स्वामी दखो इस बालक पर यह तीनों स्त्रियां कैसा स्नेह करती हैं। और इनको यह आशा है कि यह हमारा पालन करेगा। सो हे स्वामी ऐसा करो जिससे कि यह पालक इनकी पालना करे, पार्वती जी के ऐसे दयायुक्त वचनों को सुनकर वरदाता भगवान महादेव जी बोले कि इस पर मैं अवश्य अनुग्रह करूंगा। क्योंकि पूर्वजन्म में इसने अंपनी 'स्त्री समेत मेरी बहुत आराधना की है। इसीलिये इसको यह जन्म भी दिया है, इसकी स्त्री महेन्द्र नामक राजा की पुत्री है, जो पाटली नाम से उत्पन्न हुई है, उसी से इसका विवाह भी होगा।
संपूर्ण स्वर्ण जड़ित मेरे आभूषण लेकर, मुझे छोड़े दों। मैं इस बात की चर्चा किसी से नहीं कहूँगा, और कहीं दूर चला जाऊँगा। तव वधिक लोगों ने उसके सब आभूषण ले लिये, और उसके पिता से कह दिया कि हमने पुत्रक की हत्या कर दिया। फिर वहाँ से लौट कर गये हुए, राज्य के चाहने वाले उसके पितार्दिकों को मन्त्रियों ने द्रोही जान कर मार डाला (क्योंकि कृतघ्नियों को कल्याण कैसें हो सकता है) । इसी बीच में वह सत्यव्रती राजा पुत्रक सभी अपने बन्धुओ से विरक्त होकर विन्ध्याचल के वन में चला गया। और वहां जाकर घूमते घूमते, पुत्रक ने मल्ल युद्ध करते हुये दो पुरुषों को देख कर उनसे पूछा कि तुम कौन हों? उन दोनों ने कहा कि हम दोनों मयासुर के पुत्र हैं, और एक पात्र एक दंड तथा दो पादुका यही हमारे पिता का धन है, इसी धन के लिये हम दोनों लड़ रहें हैं। जो अधिक बलवान होगा वह छीन लेगा, उनके यह वचन सुन कर, पुत्रक ने हँसकर कहा कि यह कितना धन है? जिसके लिये तुम लड़ते हों, तब वह बोले कि इन खड़ाउंओं के पहनने से आकाश में उड़ जाने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। इस दंड से जो लिख दिया जाता है, वह सत्य हो जाता है। और इस पात्र में जिस भोजन की इच्छा करो वही प्राप्त हो जाता है। यह वचन सुन कर पुत्रक ने कहा कि युद्ध से क्या प्रयोजन है? यह प्रतिज्ञा करो कि दौड़ने से जो आगे निकल जाये, वही इस धन को पावे इस बात को मानकर वह दोनों मूर्ख दौड़े, और पुत्रक भी खड़ाउँओं पर चढ़ कर दंड और पात्र को लेकर आकाश को उड़ गया । इसके उपरान्त क्षण भर में बहुत दूर जाकर आकर्पिका नाम सुन्दर नगरी को देख कर आकाश से पुत्रक उतरा और यह विचारने लगा, कि वेश्यावंचक होती हैं ब्राह्मण हमारे पिताके समान होते हैं। और वैश्य धन के लोभी होते हैं, तो मुझे कहा रहना चाहिये? ऐसा विचार करते २ किसी निर्जन टूटे फूटे घर में एक वृद्धा स्त्री को उसने देखा, तब उसे कुछ देकर प्रसन्न करके उसी टूटे-फूटे घर में गुप्त होकर रहने लगा। एक समय उस वृद्धा ने पुत्रक के स्वरूप को देख प्रसन्न होकर उससे कहा हे पुत्र मुझे यह बड़ी चिन्ता है, कि तुम्हारे योग्य स्त्री कहीं नहीं है। यहां के राजा की कन्या का नाम पाटली है, वह तेरे योग्य है, परन्तु महलों में रत्न के समान उसकी चौकसी की जाती है। वृद्धा के ऐसे वचन सुनकर उसके चित्त में कामदेव की बाधा हुई, तो विचार किया कि आज उसको अवश्य देखूंगा। यह निश्चय करके, रात्रि के समय खड़ाऊं पहन कर आकाश मार्ग से वह चला, और पर्वत के शिखर के समान ऊंचे झरोखें में से प्रवेश करके महल में सोती हुई उस पाटली को देखा। उसकी ऐसी शोभा थी कि वह स्त्री नहीं है मानों सम्पूर्ण संसार को जीत कर थकी हुई कामदेव की शक्ति शरीर में लगी हुई चन्द्रिका से सेवन की जाती है। उसे सोती हुई देखकर पुत्रक ने सोचा कि इसे कैसे जगाऊँ? उसी समय अकस्मात किसी पहरुए ने यह दोहा पढ़ा।
दोहा । अलस दृष्टियुत कामिनी आलिंगन करिजौन ।
रहसि जगावे तरुण जन जन्मकेरिफल तीन ।
इसको सुनकर कांपते हुए अंगों से उस परम सुन्दरी राजपुत्री का उसने आलिंगन किया, और वह जाग गइ, तब उस राजपुत्र को देख कर लज्जा तथा आश्चर्य से उस राज पुत्री की दृष्टि चकित हो गई। इसके उपरांत वार्तालाप करने पर इनका गन्धर्व विवाह हो गया। और उन दोनों की प्रीति परस्पर अत्यन्त बढ़ी फिर रात्रि के व्यतित हो जाने पर, राजपुत्री से पूछ कर पुत्रक उस वृद्धा के घर में फिर लौटा आया इस प्रकार वह हर रात्रि में वहां जाने आने लगा। एक समय रक्षकों ने पाटली के संभोग चिह्नोंको देखकर, उस के पिता से कहा तब राजा ने भी एक स्त्री को छिपाकर उसको पहचानने के लिये महल में रक्खा ।
उस स्त्री ने जब पुत्रक सो गया तब पहचानने के लिये उसके वस्त्र में महावर लगा दी, प्रातःकाल उसके-कहने से राजा ने दूत भेजे, और उसी पहचान से दूत उसे पकड़ कर राजाके निकट ले आये, राजा को क्रोधित देख कर पुत्रक खड़ाऊ पहन कर आकाश में उड़ा, और पाटली को महल में पाकर बोला, कि हमको राजा ने जान लिया है, अब चलो हम दोनों खड़ाउँओं के बल से उड़ चले, यह कहकर पाटली को गोद में लेकर उड़ गया। इसके उपरान्त गंगा जी के तट पर आकाश से उतर कर थकी हुई प्रिया को उसी पात्र के द्वारा उत्पन्न हुए, भोजनों के प्रकारो से प्रसन्न किया। इस प्रकार के अद्भुत प्रभाव को देखकर पाटली ने प्रार्थना की, तब पुत्रक ने उस दंड से चतुरंगिणी सेना समेत एक नगर लिखा। उस नगर के सत्य हो जाने पर पुत्रक ने उसमें राज्य किया। और अपने श्वशुर से मिलकर धीरे २ वह सम्पूर्ण पृथ्वी भर का राजा हो गया। इसी से यह नगर लक्ष्मी सरस्वती का क्षेत्र विख्यात होकर अत्यन्त धनवान् तथा विद्यावान् पुरवासियों समेत माया से रचा हुआ है। और पाटली रानी के कारण से इसका नाम पाटलिपुत्र (पटना) रखा गया है। इस प्रकार उपाध्याय के मुख से इस अर्थपूर्व कथा को सुन कर हमारे चित्त में बहुत काल तक आश्चर्य और आनन्द बढ़ता रहा ।
।। इतिश्रीकथासरित्सागरंभापायांकथापीठलम्वकेतृतीयस्तरङ्गः ३॥
इसप्रकार काणभूत से वीच में इस कथा को कहकर वररुचि फिर अपनी कथा कहने लगा-इस रीति से व्याड़ि और इन्द्रदत्त के साथ धीरे २ सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ कर मैं तरुण अवस्था को प्राप्त हुआ, एक समय हम सब लोग इन्दोत्सव नाम मेले को देखने गये थे वहां काम के शत्रु के समान एक कन्या को देख कर, मैंने इन्ददत्त से पूछा, कि यह कौन है? उसने कहा कि यह उप वर्ष की लड़की उपकोशा नाम है। इतने ही में उस कन्या ने भी अपनी सखियों से मेरा परिचय पूछा, और मेरे मन को खैचे हुए, अपने घर को चली गई। उस का मुखारविन्द पूर्ण चन्द्रमा के समान नेत्र नीलकमल के समान भुजा कमल की दण्डी के समान, स्तन बड़े ग्रीवा शंख के समान, और ओष्ठ मूंगे के समान थे। उसका कहां तक वर्णन किया जाये, मानों वह कामरूपी राजा की सौन्दर्यरूपी मन्दिर की दूसरी लक्ष्मी ही थी। इसके उपरान्त काम के वाणों से मेरा हृदय छिदने लगा। और उस रात्रि को उसके ध्यान में मुझे अच्छी प्रकार निद्रा भी, न-आई जब बड़े कष्ट से कुछ निद्रा आई तो यह स्वप्न दिखाई पड़ा, कि स्वेत वस्त्र धारण किये हुए, कोई स्री मुझसे यह कह रही है, कि हे पुत्र यह उपकोशा तेरी पूर्वजन्म की स्त्री है। तेरे सिवाय और किसी की उसको कामना नहीं है। इससे चिन्ता मत करो, और मैं तेरे शरीर के भीतर रहने वाली सरस्वती हूं मुझसे तेरा दुःख देखा नहीं जाता है।यह कह कर वह अंतध्यान होगई। तब मेरी निद्रा खुल गई, और मैं विश्वास युक्त होकर अपनी प्रिया के घरके समीप एक छोटेसे आम के वृक्ष के नीचे बैठा उसके ख्याल में मग्न था। इसके उपरान्त एक सखी ने आकर मुझसे कहा कि उपकोशा भी तुम्हारे निमित्त काम से पीड़ित हो रही है। तब मैंने उससे कहा कि उसके पिता की आज्ञा के बिना में उपकोशा को कैसे स्वीकार कर सक्ता हूं, क्योकि इस संसार में अपयश से मौत अच्छी है। जो इस बात को उपकोशा के घर वाले जान जाये, तो बहुत अच्छा है। इसलिये तुम ऐसा ही करो जिससे मेरा और तुम्हारी सखी के प्राण बचें, यह सुन कर उसने सम्पूर्ण वृचान्त उपकोशा की-माता से कहा उसने अपने पति उपवर्ष से कहा उपवर्ष ने-अपने भाई वर्ष से कहा और वर्ष ने उस बातको स्वीकार किया। विवाह के समय ठहर जाने पर वर्ष उपाध्याय की आज्ञा से व्याड़ि मेरी माता को कौशाम्बी नगरी से वुला लाया। इसके उपरान्त उपवर्ष ने विधिपूर्वक उपकोशा नाम की कन्या का दान करके मुझे दे दी। तब मैं सुख चैन से अपनी माता और स्त्री समेत वहीं निवास करने लगा। इसके पीछे समय पाकर वर्ष उपाध्याय के बहुत से शिष्य बढ़ गये, उनमें से एक पाणिनि नाम का शिष्य बड़ा मूर्ख था, वह सेवा करने से बहुत घबरा कर वर्ष की स्त्री का भेजा हुआ विद्या की कामना से तप करने के लिए हिमालय पर्वत पर चला गया। वहां बड़े तप से प्रसन्न हुए महादेव जी ने-सम्पूर्ण विद्याओं का मुखरूप नवीन व्याकरण उसे दिया। उस विद्या को पाकर लौटे हुए पाणिनि ने शास्त्रार्थ करने के लिये मुझे बुलाया। तब हम लोगो के शास्त्रार्थ करते २ सात दिन व्यतीत होगये आठवें दिन मैंने पाणिनि को जीत लिया तब - आकाश में स्थित हुए शिवजी ने बड़ा घोर हुँकार किया, उससे हम लोग सम्पूर्ण वेद व्याकरण भूल गये। और पाणिनि ने हम लोगों को जीतलिया। तदनन्तर मैंने बहुत लज्जित होकर अपना सम्पूर्ण धन हिरण्यगुम नाम वणिये के यहाँ घरके खर्च के निर्वाह के लिये रख दिया। और यह बात उपकोशा को बताया, कि मैं तप से श्री शिवजी की आराधना करने के हिमालय पर जा रहा हूं। और तब उपकोशा भी मेरे कल्याण की इच्छा से नित्य नियम पूर्वक श्री गंगाजी का स्नान करके, अपने घर में रहा करती थी। एक समय वसन्त ऋतू में अत्यन्त दुर्वल शरीवाली पांडुवर्ण युक्त चन्द्रमा की कला के समान मनुष्यो के नेत्रों को आनन्द देनेवाली उपकोशा गंगाजी के स्नान करने को चली जारही थी, बीच में राजा के पुरोहित ने, कोतवाल ने, और मन्त्री के पुत्र ने, इसको देखा तो उसी समय से वह तीनों काम के वशीभूत हो गये। और उसने भी उस दिन स्नान करने में अधिक देर लगाई। जब वह लौटी तो सांयकाल के समय मन्त्री के बेटे ने हठ करके उसको रोका उसने भी अपने हिम्मत को जोड़ कर उससे यह कहा कि मेरी भी पहले ही से यह इच्छा थी। परन्तु मैं अच्छे कुल में उत्पन्न हुई हूं, और मेरा पति परदेश गया है, इस से में डरती हूं, कि जो कोई देखले तो मेरी और तेरी दोनों की बुराई होगी। इससे जव वसन्त का उत्सव देखने को लोग चले जायें, तब एक पहर रात्रि गये तुम मेरे घर आना। यह कह कर जैसे ही वह आगे को चली वैसे ही पुरोहित ने उसको पकड़ा, पुरोहित से भी उसने वही बात कह कर रात्रि के दूसरे पहर का संकेत कर दिया। उससे भी जब किसी प्रकार छूट कर चली तो कोतवाल ने रोका, उससे भी उसने वही बात कह कर रात्रि के तीसरे पहर का वादा कर दिया, इस प्रकार भाग्य वश से उसके हाथ से भी छूट कर घर में आई। और अपनी सखी से सलाह करने लगी कि रूप के लोभ से मतवाले पुरुषों के घूरनेके बनिस्वत पति के परदेश जाने पर कुलीन स्त्री का मर जाना ही वेहतर है। इस प्रकार से शोचती और मेरा स्मरण करती हुई 'उपकोशा ने उस दिन न भोजन किया न-रात्रि को सोई प्रातःकाल ब्राह्मणों के पूजन के निमित्त धन लेने के लिये हिरण्यगुप्त वणिये के यहां अपनी दासी भेजी तब उस वणिये ने उसके घर पर आकर उपकोशा से एकान्त मे यह कहा कि तुम मेरे साथ संग करो, तो मैं तुम्हारे पति का धरा हुआ धन तुम को दूं। उसके बचन सुन कर और अपने पति के रक्खे हुए धन का कोई गवाह न जान कर, खेद तथा क्रोध में भरी हुई उपकोशा ने उस पापी वाणिये से भी वहीं बात कह कर रात्रि के चौथे पहर का संकेत कर दिया। यह सुन कर वह वणिया चला गया। इसके उपरान्त उपकोशा ने अपनी दासियों से कस्तूरी आदि अनेक सुगन्धियों से युक्त तेल मिला हुआ काजल बनवाया और चार वस्र के टुकड़ों पर वह काजल लिपवाया और एक बड़ी मजबूत संदूक बाहरी कुंडी लगवा कर बनवाई । इसके उपरान्त रात्रि के पहले पहर में, वही उत्तम पोशाक पहन कर मन्त्री का पुत्र आया छिप कर आये हुए, उसे देखकर, उपकोशा ने कहा कि मैं तुझे बिना नहाये को नहीं छुऊंगी, इस लिए भीतर जाकर पहले स्नान करो, उसकी बात को मानकर वह मूर्ख दासियों के साथ बहुत गुप्त अन्धेरे घर में गया। वहां दासियों ने उसके वस्त्र तथा आभूषण लेकर उन वस्त्रों के टुकड़ों में से एक टुकड़ा लंगोटा बांधने को उसे दे दिया। और उबटन के बहाने से शिरसे पैरों तक वह काजल उसके शरीर में मल दिया, क्योंकि उसे वहाँ कुछ सूझता न था। उसके अंगों को दासियां मल ही रही थी, कि दूसरे पहर में पुरोहित जी आगये, तब दासियों ने मन्त्री के बेटे से कहा कि यह वररुचि का मित्र कोई पुरोहित आया है इसलिये तुम इस सन्दूक में चले जाओ, ऐसा कह कर दासियों ने सन्दूक के भीतर उस नंगे मंत्री के बेटे को बैठाकर बाहर से कुंडी बन्द करदी। फिर उस पुरोहित को भी स्नान के बहाने से भीतर ले जाकर सब वस्त्रादिक ले लिये, और वही वस्त्र का टुकड़ा पहना कर, तेल का काजल उतनी देर तक मलती रही कि तीसरे पहर में कोतवाल भी आगये, उसके आने के भय से दासियों ने उसे भी सन्दूक में बैठाकर बाहर से कुंडी लगा दी फिर स्नान के बहाने से कोतवाल को भी भीतर लेजा कर उसके वस्त्रादिक उतार लिये। और उसी प्रकार से काले वस्त्र का टुकड़ा पहना कर इतनी देर तक उबटन करती रहीं, कि पिछले पहर में वणिया भी आ गया। तब दासियों ने उसके आने का भय दिखा कर कोतवाल को भी सन्दूक में अन्द करके कुंडी बाहर से बन्द कर दी। सन्दूक के भीतर वह तीनों परस्परं स्पर्श होने पर भी मारे डरके नहीं बोले। इसके उपरान्त उपकोशा ने घर में दीपक जलवा कर उस वणिये को बुलाया, और बोली कि वह मेरे स्वामी का धन जो तुम्हारे पास रक्खा है, मुझे दे दो यह सुन कर वणिये ने घर को सूना देखकर कहा कि में तो कह चुका कि जो तेरे स्वामी का धन रक्खा है, वह दे दूंगा। तब उपकोशा सन्दूक को सुनाकर बोली कि हे देवता लोगो हिरण्यगुप्त के यह वचन सुनो, यह कहकर और दीपक बुझा कर उसे भी उन लोगों के ही समान स्नान के बहाने से भीतर भेजा दासियों ने उसके भी वस्त्रादिक लेकर और वही काले वस्त्र का टुकड़ा पहनाकर काजल के उबटन लगाने में इतनी देर लगाई कि प्रातःकाल होगया। तब दासियों ने कहा चले जाओ रात्रि व्यतीत होगई, यह कह कर जबरदस्ती उसे धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया। इसके उपरान्त काजल से लिपे हुए बस्त्र के टुकड़े को पहने हुए, वह वणिया लज्जित होकर अपने घर पहुंचा। घर में काजल की स्याही को धोते हुए सेवकों के सामने भी वह नहीं खड़ा हो सका था। (क्योंकि ठीक है अनीति में बड़ा कष्ट होता है) प्रातःकाल उपकोशा अपनी दासी को साथ लेकर अपने घरवालों के बिना पूंछे राजानन्द के महल में पहुँची, और जाकर यह कहा कि हिरण्यगुप्त नाम वणिया मेरे पति के धरे हुए धनको नहीं दे रहा है।
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