सूत्र :तत् तु समन्वयात् 1/1/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (तत्) इसमें (तु) आक्षेपकत्र्ता के उत्तर के लिये आया है। (समन्वयात्) सब विद्वानों के लेखों को एकमत होने से वा सबका उसमें सम्मत होने से।
व्याख्या :भावार्थ- वह सर्वज्ञ ब्रह्म सब वेदान्त शास्त्र के विद्वान मनुष्यों के विचार में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश को कारण है। प्रश्न-किस प्रकार समन्वय सिद्ध होता है? उत्तर- सब वेदान्त के पक्ष जो सृष्टि आदि के संबंध से इसमें घट सकते हैं। प्रश्न- उपनिषदों में लिखा है-इस सृष्टि से पूर्व सत् अर्थात् प्रकृति ही थी क्योंकि सत् शब्दों से प्रकृति को ग्रहण होता है। उत्तर- निश्चय सत् शब्दों से प्रकृति का ही ग्रहण होता है; परन्तु जीव और ब्रह्म से सत् होने से इनका भी ग्रहण होता है। यदि सत् शब्द से प्रकृति को लें, तो इन श्रुतियों के साथ विराध हो; इस कारण सत् के अर्थ ब्रह्मा ही लेना उचित है। प्रश्न- ब्रह्मा ही सत्ता को प्रमाण न होने से प्रकृति जो सिद्ध है वह ही लेना उचित है; क्योंकि जगत् बनता तो किसीने देखा नहीं और प्रकृति अर्थात् परमाणुओं से सर्व वस्तुयें बनती प्रतीत होती हैं; इस कारण प्रकृति अर्थात् परमाणुओं से सर्व वस्तुओं बनती प्रतीत होती है; इस कारण प्रकृति लेना ही उचित है। उत्तर- प्रकृति से जगत् का बनना, बिगड़ना और स्थिर रहना असम्भव होने से ब्रह्म ही होता है; क्योंकि प्रकृति परमाणु (जर्रों)की दशा का नाम है। अब विचार यह उत्पन्न होता है कि परमाणुओं की क्रिया स्वाभाविक है वा नैमित्तिक। यदि कहो कि परमाणुओं में प्रत्येक क्रिया स्वाभाविक है, तो वह आपस में मिल नहीं सकते और बिना परमाणुओं के सम्मिलित कोई वस्तु बन नहीं सकती है; क्योंकि परमाणु सजातीय (हमजिंस) होने से एक ही बल और एक रूप् रखते होंगे; इस कारण उनकी क्रिया (हरकत) सम होगी, ता चाहे वह किसी ओर क्रिया करें मिलना स्वीकार किया जावें, जा उत्पत्ति भी मान सकते हैं, परन्तु नाश किससे होगा और प्रकृति के स्वयम् सक्रिय होने से निष्क्रिय वस्तुओं का दृष्टिगोचर होना असम्भव है; इस कारण प्रकृति से जगत् नहीं बन सकता। ब्रह्मा को जगत् का कारण मानना चाहिए। प्रकृति में बनना, बिगड़ना और स्थिर रहना, तीन प्रकार की शक्ति चेतन के बिना नहीं हो सकती; पुनः प्रकृति कर्ता किस प्रकार मानी जा सकती है। प्रश्न- एक ही ब्रह्मा को मानकर भी जगत् की उत्पत्ति असंभव होगी, क्योंकि उत्पत्ति दो प्रकार से होती है - संयोग अर्थात् मिलाप से, वियोग; अर्थात् तफ़रीफ़ से। जब ब्रह्मा एक है, उसके कण (टुकड़े) नहीं हैं।जिनके संयोग से सृष्टि बन सके और न निराकार के टुकड़े ही हो सकते हैं, इस कारण वियोग से भी सृष्टि नहीं हो सकती। जब ब्रह्मा से सृष्टि बनना असम्भव ही है, तो यह दोष दोनों में बराबर है; परन्तु प्रकृति प्रत्यक्ष होने से उसके कार्य बनते-बिगड़ते देखने से प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति मानना ही उचित है। उत्तर-ब्रह्म एक ही है इसमें कोई संदेह नहीं; परन्तु जगत का उत्पन्न करनेवाला, स्थिति रखनेवाला और प्रलयकर्ता है। वेदान्त शास्त्र कर्ता का वाद करता है न कि उपानद कारण अर्थात् इल्लते-माद्दी का। प्रकृति जगत् का उपादान कारण (इल्लते-माद्दी है) और ब्रह्म जगत् निमित्त कारण (इल्लेते-फायली) है। जो मनुष्य वस्तु को ही इल्लते-माद्दी और फायली दोनों स्वीकार करते हैं, वह असम्भव को सम्भव बनाना चाहते हैं। यदि केवल प्रकृति से जगत् बन जाता है, तो कुम्हार के बिना घड़ा और बिना जुलाहे के वस्त्र बनने चाहिए। इस कारण यह मानना पड़ता है कि केवल प्रकृति की जगत् का उपादान कारण मानने और केवल ब्रह्म को जगत्का निमित कारण अर्थात् इल्लते-फायली मानने से उचित व्यवस्था हो सकती है। प्रश्न- यदि दोनों कारण पृथक् स्वीकार किये जावें, तो ऊपर की श्रुतियों में विराध होगा; क्योंकि इस जगत् से पहले आत्मा ही था और ‘‘सत्‘‘ स्वीकार किया गया है। उत्तर-ब्रह्म के लक्षण करने से ही सब झगड़ा समाप्त हो जाता है; क्योंकि ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरूप् बतलाया जाता है, जो तीन शब्दों से बना है। सत् जिसका अर्थ आदि और अन्त से रहित अर्थात् वाजिबुलवुजूद है। यदि वेदान्त शास्त्र के सिद्धान्त में एक ही नित्य वाजिबुलवुजूद होता, तो ब्रह्म के कारण सत् को शब्द उचित था। चित् अथवा आनन्द के कहने की आवश्यकता ही न पड़ती; इस कारण सत्य तीन हैं-जीव, ब्रह्म अथवा प्रकृति। इस कारण प्रकृति से ब्रह्म पृथक् दिखलाने के कारण चित् अर्थात् ज्ञानवाला (मुदरिक) कहा। यदि वेदान्त शास्त्र के आचार्य जीव और ब्रह्मा को एक मानते, तो ब्रह्मा के कारण सत्, चित् यह लक्षण पर्याप्त होता; परन्तु जीव ब्रह्म का भेद है, इस कारण ब्रह्म का लक्षण सच्चिदानन्द बतलाया। अतः जहाँ सूष्टि से पूर्व सत् बतलाया है, उसका आशय तीनों से है; क्योंकि सत् तीन हैं। सृष्टि से पूर्व एक आत्मा था, इससे भी तीनों का विधान होता हैं; क्योंकि आत्मा शब्द के अर्थ व्यापक के हैं जो, बिना व्याप्य (मुहीत) के हो नहीं सकता; इस कारण आत्मा के शब्दार्थ से दो का विधान हो जाता है-एक वह जो व्याप्क है, दूसरे वह जिसमें व्याप्य व्यापक है। व्याप्य इस कारण प्रकृति में आत्मा के व्यापक होने से आत्मा शब्द से प्रकट हो जाती है; दूसरे आत्मा दो हैं- शरीर में व्यापक होने से जीव आत्मा और संसार में व्यापक होने से परमात्मा। इस कारण सत् के शब्द में जीव ब्रह्म प्रकृति उपस्थित है। आत्मा शब्द से भी तीनों प्रकट होते हैं। प्रश्न- सब पण्डित तो यह मानते हैं कि वेदान्त शास्त्र में एक ब्रह्म को विचार है और तुम तीन मानते हों; अब तुम्हारी बात मानें या सब विद्वानों की? उत्तर- निश्चय वेदान्त शास्त्र एक ब्रह्म के विचार के हेतु बनाया गया जैसा कि इसके पहले सूत्र से प्रकट है; परन्तु वह जीव और प्रकृति का निषेध नहीं करता; किन्तु सैकड़ों श्रुतियाँ प्रकृति और जीव की सत्ता का प्रमाण देती हैं, इस कारण वेदान्त दर्शन जगत् के निमित कारण और ज्ञान का अन्तिम उद्देश्य अथवा मुक्ति के सत्य कारण ब्रह्म का ही विचार करता है। शेष जगत् के कारणों का कथन पहले पाँच शास्त्रों में आ चुका है; इस कारण पहले ही सूत्र में अर्थ शब्द दे दिया। अर्थात् प्रमाणादि के बतलानेवाले शास्त्रों के ज्ञान में अनन्त ब्रह्म के जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। प्रश्न- वेदान्त के जिस श्लोक में बतलाया है कि मैं आधे श्लोक में बतलाऊँगा जो करोड़ों ग्रंथों ने बताया है अर्थात् ब्रह्म-सत्य और जगत् मिथ्या है और जीव ब्रह्म में भेद नहीं है; क्या यह श्लोक मिथ्या हो सकता है। उत्तर- यह श्लाक मिथ्या नहीं, परन्तु तुम्हारी बुद्धि की कमी है; क्योंकि इस श्लाक में प्रकृति को मिथ्या नहीं बतलाया, न जीव ही को; किन्तु जगत् को मिथ्या और ब्रह्म को सत्य बतलाया है अर्थात् मुक्ति के लिये ब्रह्म सत्य साधन और जगत् मिथ्या साधन है। जो मनुष्य ब्रह्म से आनन्द की इच्छा रखते हैं वह सत्य पर है और जो मनुष्य विषयों में आनन्द ढूँढ़ते हैं; वह मिथ्या ज्ञान है। प्रश्न- इस श्लाक में तो यह बतलाया कि जीव और ब्रह्म में भेद नहीं।और सुर्मा दो वस्तुयें होते हुए भी उसमें दूरी नहीं होती। इस कारण ऐ जीव! तु मुक्ति के कारण जगत् में भटकता हुआ मत फिर। वह ब्रह्म तुझसे दूर नहीं, बिलकुल निकट है; केवल जो तुझे दर्पण ब्रह्म के देखने के कारण दिया, उसको ठीक करने की आवश्यकता हैं। प्रश्न- वह दर्पण कौन है, जिससे द्वारा ब्रह्म जाना जाता है? उत्तर-वह दर्पण मन है; क्योंकि उपनिषत्कारों ने लिखा है कि यह ब्रह्म मन ही से जाना जाता है। इस स्थान में अनेक वस्तुएँ नहीं हैं। वह मनुष्य बार-बार मृत्यु को प्राप्त करते हैं, जो उस स्थान में अनेक वस्तुओं को जानते हैं। प्रश्न- देखों श्रुति स्पष्ट शब्दो में बतला रही है कि जो मनुष्य उसके स्थान में अनेक वस्तुओं को जानते हैं, वह बार-बार जन्म पाते हैं, अर्थात् मुक्ति से वंचित रहते हैं। उत्तर- निश्चय ही जिस प्रकार आँख के भीतर केवल सुर्मा ही होता है, अनेक वस्तुएँ नहीं होती; इसी प्रकार जीवात्मा के अन्तःकरण में केवल परमात्मा ही रह सकते हैं। सूक्ष्म वस्तु में स्थूल वस्तु नहीं रह सकती; किन्तु स्थूल में सूक्ष्म वस्तु रहा करती है; क्योंकि प्रकृति जीव से स्थूल है, इस कारण वह जीव के भीतर रह सकती है। जीव के भीतर केवल ब्रह्म ही रह सकता है। इस कारण जो जीव के भीतर बहुत-सी वस्तुएँ देखता है, वह मुक्ति नहीं पा सकता। प्रश्न-मनुष्यों का कथन है कि ब्रह्म मन अथवा इन्द्रियों का विषय नहीं और श्रुति बतलाती है कि ब्रह्म मन से नहीं जाना जाता; परन्तु कठोपनिषद् में लिखा है कि ब्रह्म मन से ही जाना जाता हैं इन दो परस्पर-विरूद्ध वाक्यों में से कौन सत्य है? आपस के विराध से दोनों अशुद्ध प्रतीत होती हैं अर्थात् ब्रह्म है ही नहीं। उत्तर-दोनें में विराध नहीं; क्योंकि म नही दो दशायें हैं-एक मल विक्षेप और आवरण से युक्त मन, दूसरा इन दोनों से रहित। जिस दशा में मन इन दोनों से युक्त होता है, उस समय मन से ब्रह्म नहीं जाना जाता और जब मन इन दोनों से पवित्र होता है, तब ब्रह्मा को जान सकता है। प्रश्न-सब आचार्य तो वेदान्त का भाष्य करते हुए जीव ब्रह्म की एकता सिद्ध करते हैं, तुम द्वैत की ओर ले जाते हो। देखों रत्नप्रभा टीका लिखनेवाले गोविन्दानन्द लिखते हैं कि जीव ब्रह्म ही है; आत्मा होने से ब्रह्म का प्रकाश, क्या यह झूठ हो सकता है? उत्तर-यह अनुमान अशुद्ध है; क्योंकि जीव का ब्रह्म होना साध्य और ब्रह्म दृष्टान्त है। यह तो ऐसा अनुमान है जैसे कोई कहे कलक्टर एडवर्ड है। अधिकारी होने से एडवर्ड की भांति अथवा अग्नि जल है द्रव्य होने से जल की भाँति; इस प्रकार के हेत्वाभास अशुद्ध उदाहरण तीनों सिद्धान्तों को बिगड़ देते हैं। प्रश्न-निश्चलदास भी विचार-सागर में ऐसा अनुमान करते हैं कि जीव ब्रह्म से अभिन्न हैं। चेतन होने से क्या यह भी उचित नहीं ? उत्तर-संसार में जितनी वस्तुयें हैं, इनमें गुणों में अनुकूलता और प्रतिकूलता अवश्य साधम्र्य से होती है। किसी एक गुण के मिल जाने से दो वस्तुओं का एक होना सत्य नहीं। इस प्रकार हेत्वाभास अर्थात् मुगालता देना अविधा है अथवा स्वार्थ है। कोई कहे मनुष्य गधा है, जीवधारी होने से- इस हेतु को कौन-सा बुद्धिमान् स्वीकार करेगा? कोई विद्वान न धर्मात्मा पुरूष इस प्रकार को धोखा नहीं दे सकता। प्रश्न-इसमें क्या धोखा है? उत्तर- पहले तो प्रतिज्ञा (दावा) में दो बातें होती हैं-एक पक्ष (मौजू) दूसरा साध्य (मोहसूल)। अब प्रश्न यह है कि जीव को यदि पक्ष माना जावे, तो ब्रह्मत्व उसमें साध्य हो जाता है; परन्तु ब्रह्मत्व केवल ब्रह्म के दूसरे में नहीं रह सकमा। यदि केवल जीव और ब्रह्म इन दोनां को सधर्मी मान लिया जावे; परन्तु इस दशा में जो लक्षण पृथक-पृथक किये गये हैं, वे अशुद्ध हो जावेंगे; क्योंकि जीव का लक्षण है अविद्या उपाधि से ढका हुआ चेतन और ब्रह्म है शुद्ध चेतन। किसी एक गुण मिलने से पदार्थत्व (नवय्यत या जिंसियत) जो हो सकता है- यथा सब देहधारियों में चाहे गधा हो या मनुष्य प्राणित्व अवश्य होगा। इस जिंसियत और नवय्यत से दो विरूद्ध रूप एक नहीं हो सकते। आत्मपन और चेतन दोनों जाति हैं, जो एक में वास ही नहीं करतीं; किन्तु मुताद्दिद में जो भिन्न व्यक्तियों में से अनुकूलता है असको प्रकट करती हैं। इस कारण जाति को एकता को हेतु बतलाना अज्ञान है या धोखा है। यदि इन मनुष्यों ने यह युक्ति सच्चाई से दी, तो वे अज्ञानी थे; यदि जानते हुए दी, तो धोखेबाज थे। प्रश्न- इतने उच्च विद्वानों को ऐसा कहना किसी प्रकार उचित नहीं। उनके ग्रंथ लाखों साधु और पंडित पढ़ते हैं। तुम उनको अविद्वान् कहते हो। उत्तर- निःसंदेह लाखों मनुष्य उनके ग्रंथों को पढ़ते हैं, जिससे वह विद्या के स्थान में अविद्या प्राप्त करतें हैं। यह लोग शब्दों के पंडित होंगे; परन्तु अर्थ में पग-पग पर ठोकरें खाते हैं। प्रश्न- निश्चलदास की भी विद्या तो मानी हुई है, उसको केवल शब्दों का पंडित कहना ठीक नहीं। उत्तर- अविद्या दो प्रकार से उत्पन्न होती है-एक इन्द्रियों के दोष से, दूसरी संस्कार-दोष से। इन मनुष्यों में बालकपन से ही इस प्रकार के अशुद्ध संस्कार डाले गये, जिससे उन्होंने स्वयम् अविद्वान् होकर कुछ देश में अविद्या फैला दी। प्रश्न-अविद्या का कोई प्रमाण दे सकते हो ? उनको तो सब आचार्य मानते हैं। उत्तर- विचार सागर का प्रथम दोहा पढ़ो- अलख अगाधि- स्वरूप् ममख् लहरी विष्णु-महेश। यदि वह इतना ही समझता कि विष्णु भी सर्वव्यापक, महेश भी सर्वव्यापक और लहर एक देशी समुद्र में हुआ करती है, सर्वव्यापक में नहीं होती। तो ऐस अण्ड-बण्ड न लिखता। प्रश्न- ब्रह्म के जगत्कर्ता होने और प्रकृति के कर्ता न होने से क्या प्रमाण ?
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