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ओशो मैं कौन हू क्रांति सूत्र-3 ध्यान से भेंट

ओशो मैं कौन हू क्रांति सूत्र-3 ध्यान से भेंट

 


फिर हम आत्म-ज्ञान का क्या अर्थ करें? निश्चय ही वह वही ज्ञान नहीं है, जिससे कि हम परिचित हैं। वह ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध नहीं है। इसलिए चाहें तो उसे परम ज्ञान कहें, क्योंकि फिर और कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता है, या चाहें तो परम अज्ञान, क्योंकि वहां जानने को ही कुछ नहीं होता है।


पदार्थ-ज्ञान विषय-विषयी का संबंध है, आत्म-ज्ञान विषय-विषयी का अभाव। पदार्थ-ज्ञान में ज्ञाता है और ज्ञेय है; आत्म-ज्ञान में न ज्ञेय है और न ज्ञाता। वहां तो मात्र ज्ञान है। वह शुद्ध ज्ञान है।


जगत की सारी वस्तुएं ज्ञेय की भांति जानी जाती हैं। असल में जो ज्ञेय है, ज्ञेय बनती है, वही है वस्तु; जो जानता है, ज्ञाता है, वही है अवस्तु। ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध है पदार्थ-ज्ञान। किंतु जहां न ज्ञेय है, न कोई ज्ञाता--क्योंकि जहां ज्ञेय नहीं, वहां ज्ञाता कैसे होगा--वहां जो शेष रह जाता है, जो ज्ञान शेष रह जाता है, वही है आत्म-ज्ञान।


ज्ञान की पूर्ण शुद्ध अवस्था का नाम ही है आत्म-ज्ञान।


और भी उचित है कि हम उसे ज्ञान ही कहें, क्योंकि वहां न कोई आत्म है और न अनात्म। बुद्ध ने ठीक ही किया कि उसे आत्मा नहीं कहा। क्योंकि उस शब्द में अहंता की ध्वनि है। और जहां तक अहंता है, वहां तक आत्मा कहां?


इस ज्ञान को पाने की विधि क्या है? मार्ग क्या है? द्वार क्या है?


मैं एक घर में अतिथि था। उस घर में इतना सामान था कि हिलने-डुलने की भी जगह न थी। घर तो बड़ा था, किंतु सामान की अधिकता से बिलकुल छोटा हो गया था। वस्तुतः वहां सामान ही सामान था और घर था। नहीं ही क्योंकि घर तो दीवारों से घिरे रिक्त स्थान का ही नाम है। दीवारें नहीं, वह रिक्त स्थान ही गृह है। क्योंकि दीवारों में नहीं, रहना उस रिक्त स्थान में ही होता है। रात में गृहपति ने मुझसे कहा, घर में जगह बिलकुल नहीं है, लेकिन जगह लाएं भी कहां से? उनकी बात सुन मैं हंसने लगा। मैंने फिर उनसे कहा, रिक्त स्थान आपके घर में पर्याप्त है। वह यहीं है, और कहीं गया नहीं, केवल सामान से आपने उसे ढांक लिया है। कृपा कर सामान बाहर करें तो आप पाएंगे कि वह भीतर आ गया है। वह तो भीतर ही है, सामान के डर से दुबक गया है। सामान हटावें और वह अभी और यहीं है।


आत्म-ज्ञान की विधि भी यही है।


मैं तो निरंतर हूं। सोते-जागते, उठते-बैठते, सुख में, दुख में--मैं तो हूं ही। ज्ञान हो, अज्ञान हो, मैं तो हूं ही। मेरा यह होना असंदिग्ध है। सब पर संदेह किया जा सके, लेकिन स्वयं पर तो संदेह नहीं किया जा सकता है। जैसा कि देकार्त ने कहा है, संदेह भी करूं तो भी मैं हूं, क्योंकि संदेह भी बिना उसके कौन करेगा?


लेकिन यह ‘मैं’ कौन है? यह ‘मैं’ क्या है? कैसे इसे जानूं? हूं सो तो ठीक, लेकिन क्या हूं? कौन हूं?


मैं हूं, यह असंदिग्ध है। और क्या यह भी असंदिग्ध नहीं है कि मैं जानता हूं, मुझमें ज्ञान है, चेतना है, दर्शन है? यह हो सकता है कि जो जानूं, वह सत्य न हो, असत्य हो, स्वप्न हो। लेकिन मेरा जानना--जानने की क्षमता--तो सत्य है।


इन दो तथ्यों को देखें, विचार करें। मेरा होना, मेरा अस्तित्व; और मेरी जानने की क्षमता, मुझमें ज्ञान का होना; इन दोनों के आधार पर ही मार्ग खोजा का सकता है।


मैं हूं, लेकिन ज्ञात नहीं कौन हूं। अब क्या करूं? ज्ञान जो कि क्षमता है, ज्ञान जो कि शक्ति है, उसमें झांकूं और खोजूं। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प ही कहां है?

ज्ञान की शक्ति है, लेकिन वह ज्ञेय से--विषयों से--ढंकी है। एक विषय हटता है तो दूसरा आ जाता है। एक विचार जाता है तो दूसरे का आगमन हो जाता है। ज्ञान एक विषय से मुक्त होता है तो दूसरे से बंध जाता है, लेकिन रिक्त नहीं हो पाता। यदि ज्ञान विषय-रिक्त हो तो क्या हो? क्या उस अंतराल में, उस रिक्तता में, उस शून्यता में ज्ञान स्वयं में ही होने के कारण स्वयं की सत्ता का उदघाटक नहीं बन जाएगा? क्या जब जानने को कोई विषय नहीं होगा तो ज्ञान स्वयं को ही नहीं जानेगा?


ज्ञान जहां विषय-रिक्त है, वहीं वह स्व-प्रतिष्ठ होता है।


ज्ञान जहां ज्ञेय से मुक्त है, वहीं वह शुद्ध है। और वह शुद्धता--शून्यता--ही आत्म-ज्ञान है।


चेतना जहां निर्विषय है, निर्विचार है, निर्विकल्प है, वहीं जो अनुभूति है, वही स्वयं का साक्षात्कार है।


किंतु यहां इस साक्षात्कार में न तो कोई ज्ञाता है, न ज्ञेय है। यह अनुभूति अभूतपूर्व है। उसके लिए शब्द असंभव है।


लाओत्से ने कहा है, सत्य के संबंध में जो भी कहो, वह कहने से ही असत्य हो जाता है।


फिर भी सत्य के संबंध में जितना कहा गया है, उतना किस संबंध में कहा गया है? अनिर्वचनीय उसे कहें, तो भी कुछ कहते ही हैं! उसके संबंध में मौन रहें, तो भी कुछ कहते ही हैं!


ज्ञान है शब्दातीत। किंतु प्रेम उसके आनंद की, उसके आलोक की, उसकी मुक्ति की खबर देना चाहता है, फिर चाहे वे इंगित कितने ही अधूरे हों और कितने ही असफल वे इशारे हों। गूंगा भी गुड़ के संबंध में कुछ कहता है! वह चाहे कुछ भी न कह पाता हो, लेकिन कहना चाहता है, यह तो कह ही देता है।


किंतु सत्य के संबंध में किए गए अधूरे इंगितों को पकड़ लेने से बड़ी भ्रांति हो जाती है। आत्म-ज्ञान की खोज में जो व्यक्ति आत्मा को एक ज्ञेय पदार्थ की भांति खोजने निकल पड़ता है, वह प्रथम चरण में ही गलत दिशा में चल पड़ता है।


आत्मा ज्ञेय नहीं है और न ही उसे किसी आकांक्षा का लक्ष्य ही बनाया जा सकता है, क्योंकि वह विषय भी नहीं है। वस्तुतः उसे खोजा भी नहीं जा सकता, क्योंकि वह खोजने वाले का ही स्वरूप है। उस खोज में खोज और खोजी भिन्न नहीं हैं। इसलिए आत्मा को केवल वे ही खोज पाते हैं जो सब खोज छोड़ देते हैं और वे ही जान पाते हैं जो सब जानने से शून्य हो जाते हैं।


खोज को--सब भांति की खोज को--छोड़ते ही चेतना वहां पहुंच जाती है जहां वह सदा से ही है।


दौड़ को--सब भांति की दौड़ को--छोड़ते ही चेतना वहीं पहुंच जाती है जहां वह सदैव से ही खड़ी हुई है।


समाधि के बाद तथागत बुद्ध से किसी ने पूछा, समाधि से आपको क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा था, कुछ भी नहीं। खोया बहुत कुछ, पाया कुछ भी नहीं। वासना खोई, विचार खोए, सब भांति की दौड़ और तृष्णा खोई, और पाया वह जो सदा से ही पाया हुआ है।


मैं जिसे नहीं खो सकता हूं, वही तो है स्वरूप।


मैं जिसे नहीं खो सकता हूं, वही तो है परमात्मा।


और सत्य क्या है? जो सदा है, सनातन है, वही तो है सत्य। इस सत्य को, इस स्वरूप को पाने के लिए चेतना से उस सबको खोना आवश्यक है जो कि सत्य नहीं है। जिसे खोया जा सकता है, उस सबको खोकर ही वह जान लिया जाता है जो सत्य है। स्वप्न खोते ही सत्य उपलब्ध है।


मित्र, मैं पुनः दोहराता हूं: स्वप्न खोते ही सत्य उपलब्ध है। स्वप्न जहां नहीं हैं, तब जो शेष है, वही है स्व-सत्ता, वही है सत्य, वही है स्वतंत्रता।


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