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परमात्मा मझदार है ओशो आध्यात्म उपनिषद




        अंतः शरीरे निहतो गुहायामज एको नित्यमस्य।

पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमंतरे संचरन्‌ यं पृथिवी न वेद।

यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरे संचरन्‌ यमापो न विदुः।

यस्य तेजः शरीरं यस्तेजोऽन्तरे संचरन्‌ यं तेजो न वेद।

यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरे संचरन्‌ यं वायुर्न वेद।

यस्याकाशः शरीरं य आकाशमन्तरे संचरन्‌ यमाकाशो न वेद।

यस्य मनः शरीरं यो मनोऽन्तरे संचरन्‌ यं मनो न वेद।

यस्य बुद्धिः शरीरं यो बुद्धिमन्तरे संचरन्‌ यं बुद्धिर्न वेद।

यस्याहंकारः शरीरं योऽहंकारमन्तरे संचरन्‌ यमहंकारो न वेद।

यस्य चित्त शरीरं यश्चित्तमन्तरे संचरन्‌ यमचित्तं न वेद।

यस्याव्यक्तं शरीरं योऽव्यक्तमन्तरे संचरन्‌ यमव्यक्तं न वेद।

यस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन्‌ यमक्षरं न वेद।

यस्य मृत्युः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन्‌ यं मृत्युर्न वेद।

स एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव नारायणः।

अहं समेति यो भावो देहाक्षाद्यवनात्मनि।

अध्यासो यं निरस्तव्यो विदुषा ब्रह्मनिष्ठया ।। 1।।


     शरीर के भीतर हृदय रूपी गुहा में एक अजन्मा नित्य रहता है। इसका शरीर पृथ्वी है, वह पृथ्वी के भीतर रहता है, पर पृथ्वी उसे जानती नहीं। जल जिसका शरीर है और जल के अंदर जो रहता है, पर जल जिसे जानता नहीं। तेज जिसका शरीर है और जो तेज के भीतर रहता है, तो भी तेज जिसको जानता नहीं। जो वायु के भीतर रहता है और वायु जिसका शरीर है, पर वायु जिसे जानता नहीं। आकाश जिसका शरीर है और जो आकाश के भीतर रहता है, पर आकाश जिसे जानता नहीं। मन जिसका शरीर है और जो मन के भीतर रहता है, तो भी मन जिसको जानता नहीं। बुद्धि जिसका शरीर है और बुद्धि के भीतर जो रहता है, तो भी बुद्धि जिसको जानती नहीं। अहंकार जिसका शरीर है और जो अहंकार के भीतर रहता है, तो भी अहंकार जिसको जानता नहीं। चित्त जिसका शरीर है और चित्त के भीतर जो रहता है, तो भी चित्त जिसको जानता नहीं। अव्यक्त जिसका शरीर है और अव्यक्त के भीतर जो रहता है, तो भी अव्यक्त जिसको जानता नहीं। अक्षर जिसका शरीर है और अक्षर के भीतर जो रहता है, तो भी अक्षर जिसको जानता नहीं। मृत्यु जिसका शरीर है और मृत्यु के अंदर जो रहता है, तो भी मृत्यु जिसे जानती नहीं। वही इन सर्वभूतों का अंतरात्मा है, उसके पाप नष्ट हो गए हैं और वही एक दिव्य देव नारायण है।


     देह, इंद्रियां, आदि अनात्म पदार्थ हैं, इनके ऊपर मैं-मेरा ऐसा जो भाव होता है, वह अध्यास (भ्रम) है, इसलिए विद्वान को ब्रह्मनिष्ठा द्वारा इस अध्यास को दूर करना चाहिए।


     सागर की मछली सागर से अपरिचित रह जाती है। इसलिए नहीं कि सागर बहुत दूर है, इसीलिए कि सागर बहुत निकट है। जो दूर है वह दिखाई पड़ता है, जो निकट है वह आंख से ओझल हो जाता है। दूर को जानना कठिन नहीं, निकट को जानना ही कठिन है। और जो निकट से भी निकट है, उसे जानना असंभव है। इसे थोड़ा हम ठीक से समझ लें; क्योंकि अंतर्यात्रा में अत्यंत अपरिहार्य है जानना इसे।


      पूछते हैं लोग, कहां खोजें परमात्मा को? पूछते हैं कि जो भीतर ही छिपा है, वह भूल कैसे गया है? पूछते हैं कि जो इतना करीब है कि हृदय की धड़कन भी उतनी करीब नहीं, श्वासें भी उतनी पास नहीं स्वयं के, वह भी बिछुड़ कैसे गया है? जो मैं स्वयं ही हूं, उससे भी विस्मृति कैसे हो गई है?


     और उनका पूछना तर्कयुक्त मालूम पड़ता है। प्रतीत होता है, वे जो पूछते हैं, ठीक ही पूछते हैं। और लगता है कि होना नहीं चाहिए था ऐसा। जो मेरे भीतर ही छिपा है, उसे ही मैं नहीं जान पाता हूं! जो मैं ही हूं, वह भी अपरिचित रह जाता है! तो फिर परिचय किससे होगा? पहचान किससे होगी? ज्ञान किसका होगा? जब पास ही छूट जाता है हाथ से, तो दूर को हम कैसे पा सकेंगे!


     और ऐसा नहीं कि वह आज पास हो गया हो, वह सदा से ही पास है, अनंत-अनंत काल से पास है। उससे क्षण भर को भी हमारा छूटना और दूर होना नहीं हुआ है। हम जहां भागें, वह हमारे साथ भागता है। हम जहां जाएं, वह हमारे साथ जाता है। नर्कों में भी वह हमारे साथ यात्रा करता है और स्वर्गों में भी। पाप में भी वह हमारे साथ उतना ही खड़ा होता है, जितना पुण्य में। यह कहना भी ठीक नहीं कि साथ खड़ा होता है, क्योंकि जो हमारे साथ होता है उससे भी थोड़ी दूरी होती है। हमारा होना और उसका होना एक ही बात है।


       अगर यह सच है, तो इस जगत में बड़ा चमत्कार हो गया कि हम अपने को ही खो बैठे! जो असंभव मालूम पड़ता है, अपने को कैसे खोया जा सकता है! अपनी छाया तक को खोना मुश्किल है। हम अपनी आत्मा को खो बैठे हैं, यह कैसे हो सकता है!


      पर यह हुआ है। उसके होने की घटना कैसे घटती है, वही इस सूत्र का सार है। इस सूत्र में प्रवेश करने के पहले इसके बुनियादी आधार समझ लें।


      आंख की सीमा है, एक परिधि है। उससे ज्यादा दूर हो तो आंख नहीं देख पाती, उससे ज्यादा पास हो तो भी आंख नहीं देख पाती। आंख के देखने का एक विस्तार है। किसी चीज को आंख के बहुत पास ले आएं, फिर आंख नहीं देख पाएगी; बहुत दूर ले जाएं तो भी आंख नहीं देख पाएगी। तो एक क्षेत्र है जहां आंख देखती है। और इस क्षेत्र के उस पार या इस पार आंख अंधी हो जाती है। और आप तो इतने निकट हैं कि आंख के पास ही नहीं हैं, आंख के पीछे हैं। यही अड़चन है।


      ऐसा समझें कि दर्पण के सामने खड़े हैं, तो एक खास दूरी से दर्पण पर ठीक प्रतिबिंब बनता है। अगर बहुत दूर चले जाएं तो फिर दर्पण पर प्रतिबिंब नहीं बनेगा। बहुत पास आ जाएं, कि आंख को दर्पण से ही लगा लें, तो प्रतिबिंब दिखाई नहीं पड़ेगा। लेकिन यहां मामला ऐसा है कि आप दर्पण के पीछे खड़े हैं; इसलिए दर्पण पर प्रतिबिंब बनने का कोई उपाय ही नहीं है।


      आंख आगे है, आप पीछे हैं। आंख देखती है उसको जो आंख के आगे हो। आंख उसको कैसे देखे जो आंख के पीछे है? कान सुनते हैं उसको जो कान के बाहर है। कान उसको कैसे सुनें जो कान के भीतर है? आंख बाहर खुलती है; कान भी बाहर खुलते हैं। मैं आपको छू सकता हूं, अपने को कैसे छुऊं? और अगर अपने शरीर को भी छू लेता हूं इसीलिए, तो वह इसीलिए कि शरीर भी मैं नहीं हूं, वह भी पराया है, इसलिए छू लेता हूं। लेकिन जो मैं हूं, जो छू रहा है, उसे कैसे छुऊं? उसे किससे छुऊं?


       इसलिए हाथ सब छू लेते हैं और खुद को नहीं छू पाते हैं; आंख सब देख लेती है और खुद को नहीं देख पाती है। अपने लिए हम बिलकुल अंधे हैं। हमारी कोई इंद्रिय काम की नहीं है। जिन इंद्रियों से हम परिचित हैं, वे कोई भी काम की नहीं हैं। अगर कोई और इंद्रिय का उदघाटन न हो जो भीतर देखती हो, अगर कोई और आंख न खुल जाए जो भीतर देखती हो, जो पीछे देखती हो, जो उलटा देखती हो, कोई कान न खुल जाए, जिस पर भीतर की ध्वनि-तरंगें भी प्रभाव लाती हों, तब तक हम स्वयं को देख और जान और सुन न पाएंगे। तब तक स्वयं को छूने का कोई उपाय नहीं है।


       जो निकट है वह चूक जाता है। जो निकट से भी निकट है वह असंभव है। इसीलिए मछली सागर को नहीं जान पाती।


     दूसरी बात, सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही जीती है, सागर ही उसका भोजन, सागर ही उसका पेय, सागर ही उसका प्राण, सागर ही सब कुछ। फिर सागर में ही मरती और लीन हो जाती है। जानने के लिए मौका नहीं मिलता, क्योंकि दूरी नहीं मिलती, फासला नहीं मिलता। मछली को सागर का पता चलता है, अगर कोई उठा कर उसे सागर के किनारे फेंक दे, तभी। यह बड़ी उलटी बात हुई! सागर का पता तब चलता है जब सागर से दूर हो जाए।


       तो मछली तड़पती है रेत पर, धूप में, तब उसे सागर का पता चलता है। क्योंकि इतनी दूरी तो चाहिए पता चलने के लिए। पैदा होने के भी पहले जो मौजूद था और मरने के बाद भी जो मौजूद रहेगा, और जिसमें ही पैदा हुए और जिसमें ही लीन हो गए, उसका पता कैसे चलेगा? पता चलने के लिए थोड़ी बिछुड़न, थोड़ा बिछोह होना चाहिए। इसलिए मछली को सागर का पता नहीं चलता। किनारे पर कोई फेंक दे तो पता चलता है।


       आदमी की और भी मुसीबत है। परमात्मा सागर ही सागर है; उसका कोई किनारा नहीं जिस पर आपको फेंका जा सके, जहां आप तड़पने लगें मछली की तरह। ऐसा कोई किनारा होता तो बड़ी आसानी हो जाती। ऐसा कोई किनारा नहीं, परमात्मा सागर ही सागर है। इसीलिए तो जो परमात्मा में किनारा खोजते हैं, वे उसे कभी नहीं खोज पाते। जो परमात्मा की मझधार में डूबने को राजी हैं, उनको ही उसका किनारा मिलता है।


       किनारा है ही नहीं; खोजने का कोई उपाय नहीं है। और किनारा हो भी कैसे! सब चीजों का किनारा हो सकता है, समस्त का किनारा नहीं हो सकता; क्योंकि किनारा बनता है किसी और चीज से। नदी का किनारा बनता है, सागर का किनारा बनता है, किसी और चीज से। परमात्मा के अतिरिक्त कुछ और नहीं है, जिससे किनारा बन सके। परमात्मा का अर्थ ही इतना है कि जिसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।


       परमात्मा का मतलब कोई आकाश में बैठे हुए किसी व्यक्ति का नहीं है, जो जगत को चला रहा हो। ये तो बच्चों की कहानियां हैं। परमात्मा से अर्थ है उस तत्व का, जिसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह उसकी वैज्ञानिक परिभाषा हुई। परमात्मा का अर्थ है: समस्त, सर्व, सब कुछ, जो भी है।


      जो भी है उसका कोई किनारा नहीं हो सकता; क्योंकि उसके अतिरिक्त कुछ किनारा बनने को बचता नहीं है। इसलिए परमात्मा मझधार है। वहां कोई किनारा नहीं है। जो डूबने को राजी है, वह उबर जाता है; जो उबरने की कोशिश करता है, बुरी तरह डूबता है। कोई किनारा हो तो पता भी चल जाए। इसीलिए हमें पता नहीं चला है। उसी में हम हैं। जिसे हम खोजते हैं, उसी में हम हैं। जिसे हम पुकारते हैं, उसे पुकारने की जरा भी जरूरत नहीं है; क्योंकि इतनी भी दूरी नहीं है कि हमारी आवाज हमें जोर से पुकारनी पड़े।


      इसलिए कबीर ने कहा है कि क्या तुम्हारा खुदा बहरा हो गया है जो तुम इतनी जोर से अजान पढ़ते हो? क्या तुम्हारा ईश्वर बहरा हो गया है जो तुम इतनी जोर से पुकारते हो? इतने पास है कि आवाज देने की भी तो जरूरत नहीं! अगर मौन भी कुछ भीतर होगा तो वह भी सुन लिया जाएगा, इतने पास है!


      दूसरे को पुकारना हो तो आवाज देनी पड़ती है, खुद को पुकारने के लिए आवाज देने की भी क्या जरूरत है! दूसरे का तो तब ही सुनाई पड़ता है जब शब्द ध्वनित हो, स्वयं का तो मौन भी सुनाई पड़ता है।


        इतने जो निकट है, वही कठिनाई है। इसे ठीक से खयाल में ले लें कि सत्य से हम इसलिए चूक गए हैं, क्योंकि हम उसी में पैदा होते हैं। उसी से बनती है हमारी मांस-मज्जा, उसी से निर्मित होती हैं हमारी हड्डियां। वही है हमारी श्वास, वही है हमारा प्राण, वही सब कुछ है। अनेक-अनेक रूपों में, अनेक-अनेक द्वारों से हम उसी का जोड़ हैं, उसी का खेल हैं। फासला बिलकुल नहीं है। इसलिए स्मरण नहीं आता। इसलिए स्मरण असंभव हो गया है। इसलिए संसार तो बहुत दिखाई पड़ता है, सत्य बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। संसार दूर है; जगह है दोनों के बीच में; इसलिए संसार की वासना जगती है।


       वासना का अर्थ क्या है? वासना का अर्थ है, जिससे हमें दूरी मालूम पड़ती हो, उससे दूरी मिटाने की कोशिश। वासना का अर्थ है, जिससे हमें दूरी मालूम पड़ती हो, उससे दूरी मिटाने की कोशिश।


        इसलिए परमात्मा की कोई वासना नहीं है, क्योंकि दूरी ही मालूम नहीं पड़ती। या कभी कोई परमात्मा को खोजता भी मालूम पड़ता है तो झूठी वासना मालूम पड़ती है। परमात्मा के नाम से कुछ और खोजता मालूम पड़ता है। नाम परमात्मा का लेता है, चाहता कुछ और है। शक्ति चाहता हो, सिद्धि चाहता हो, धन चाहता हो, पद चाहता हो--कुछ और!


        एक मित्र मुझे आकर कहते थे कि जब से आपके शिविर में साधना में लीन होने लगे हैं, बड़ा लाभ हो रहा है! मैंने पूछा, क्या लाभ हो रहा है? तो उन्होंने कहा, अभी आध्यात्मिक तो नहीं हो रहा, लेकिन आर्थिक शुरू हो गया है।


        ठीक! आध्यात्मिक की इतनी जल्दी भी क्या है! टाला जा सकता है, स्थगित किया जा सकता है। आर्थिक तत्काल है।


       हम खोजते कुछ और हैं, नाम कुछ और देते हैं। जहां-जहां हमने परमात्मा लिख छोड़ा है, अगर जरा हम लेबल उखाड़ें, तो भीतर कुछ और पाया जाएगा। हम कुछ और चाहते हैं। जो आदमी कुछ और चाहता है परमात्मा के नाम से, वह आदमी उससे ज्यादा बेईमान है जो सीधा संसार चाहता है। कम से कम एक आनेस्टी, एक ईमानदारी है, एक प्रामाणिकता है।


       एक आदमी कहता है, मैं धन चाहता हूं; एक आदमी कहता है, मैं कामवासना चाहता हूं; एक आदमी कहता है, मुझे पद चाहिए, अहंकार की तृप्ति चाहिए। एक आदमी कहता है, मैं तो परमात्मा चाहता हूं। लेकिन परमात्मा की चाह में मन उसका कुछ ऐसा ही है कि एक दिन दुनिया को दिखा दूं कि मेरी मुट्ठी में परमात्मा भी है!


       इसलिए परमात्मा के खोजी को अगर खयाल से देखें, अगर उसका अहंकार बढ़ता जाए, तो समझना कि उसकी खोज किसी और चीज की है। अहंकार क्षीण होता जाए, टूटता जाए, विसर्जित होता जाए, तो ही समझना कि खोज परमात्मा की है।


      संन्यासियों की अकड़ जाहिर है। महात्माओं की अकड़! बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ भी मात हो जाएं उस अकड़ से। राजनैतिक की तो खोज ही, ठीक है, उसी अकड़ के लिए है। बात सीधी-साफ है; उसमें कोई जाल नहीं है ज्यादा। कुछ होने का मजा ही सारी बात है। लेकिन महात्मा की बात कुछ और है। वह कहता है, हम ना-कुछ होने की खोज में हैं; और फिर कुछ होता चला जाता है। दो महात्मा मिल जाएं तो उनको एक तख्त पर बिठाया नहीं जा सकता; क्योंकि ऊंचा-नीचा कौन बैठे, कहां बैठे! इसीलिए महात्मा मिलते ही नहीं एक-दूसरे से; क्योंकि बड़ी दिक्कतें आती हैं!


        एक मित्र, पागल हैं थोड़े। पागल ऐसे कि महात्माओं को मिलाने की कोशिश करते हैं। वे मुझसे कहने लगे कि बड़ी मुसीबतें आती हैं। यहां तक सवाल उठता है कि अगर दो महात्माओं को मिलाया तो नमस्कार में पहले हाथ कौन जोड़े।


          कठिन है मामला! संसारी भी इतने संसारी नहीं मालूम होते। न भी जोड़ना चाहते हों हाथ, तो भी जोड़ लेते हैं। मन में भला होता हो कि दूसरा ही पहले जोड़ता है; लेकिन फिर भी इसको छिपा कर चलते हैं। अभद्र मालूम पड़ता है। लेकिन महात्माओंको अभद्र भी नहीं मालूम पड़ता। कुछ महात्मा तो नमस्कार करते ही नहीं! उन्होंने व्यवस्था ही बंद कर रखी है। वे सिर्फ आशीर्वाद देते हैं!


          ऐसे ही एक महात्मा को मिलाने के लिए कोई मित्र कोशिश में थे किसी दूसरे महात्मा से। तो उस दूसरे महात्मा ने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन हम नमस्कार न करें और वे आशीर्वाद दे दें तो इसमें सब खराब हो जाएगा!


          यह हमारी खोज कुछ और है। धर्म से कुछ, परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है। हम कुछ और चाह रहे हैं; हम कुछ और मांग रहे हैं; लेकिन बेईमान हैं, और हमने शब्द कुछ और ओढ़ रखे हैं।


        परमात्मा की खोज कैसे हो? क्योंकि दूरी नहीं है। दूरी हो तो वासना जगती है। फासला हो तो दिल होता है, दौड़ें। फासला हो तो जीतने की आकांक्षा पैदा होती है। कठिनाई हो तो अहंकार को रस आता है पराजित करने का, जीतने का। फासला ही नहीं, दूरी ही नहीं--परमात्मा मिला ही हुआ है।


         ऐसी हालत है, जैसे कि तेनसिंग या हिलेरी एवरेस्ट पर चढ़ते हैं, तो मजा क्या है? पहला आदमी मनुष्य के इतिहास में एवरेस्ट पर खड़ा हो जाता है! और तो एवरेस्ट पर कुछ भी नहीं है। लेकिन एवरेस्ट पर पहला आदमी इतिहास का खड़ा हो जाता है तो अहंकार को एक ऐतिहासिकता मिल जाती है। अब दुनिया में जब तक एवरेस्ट है, तब तक हिलेरी और तेनसिंग का नाम मिटाना मुश्किल है।


         अभी चांद की इतनी दौड़ चलती थी। तो बड़े मजे की बात है कि चांद पर हम क्या छोड़ आए? जो गए वे ईसाई हैं, लेकिन जीसस की मूर्ति नहीं छोड़ आए, झंडा छोड़ आए हैं अमरीका का! थोड़ा सोचें, झंडे असली हैं, जीसस वगैरह सब झूठे हैं! खयाल भी नहीं आया अमरीका के यात्रियों को कि जीसस की एक छोटी मूर्ति भी ले जाएं कम से कम। झंडा ले गए! झंडा है असली आदमी का अहंकार। और जीसस का भी अगर कभी-कभार नाम ले लेते हैं, तब उसका मतलब भी झंडा ही होता है, और कुछ मतलब नहीं होता। जब लड़ना हो, झंडा ऊंचा रहे हमारा; तब! तब जीसस, राम, कृष्ण, बुद्ध, सब आ जाते हैं। मगर उनका भी उपयोग झंडे से ज्यादा नहीं है। वे भी आदमी के अहंकार पर लगाई गई पताकाएं हैं।


        चांद पर हम छोड़ आए हैं झंडे। आदमी इस आकांक्षा में लगा रहता है कि कुछ मैं कर दिखाऊं जो मैं ही कर पाऊं, ताकि मेरा मैं एक ऐतिहासिकता ले ले। पर अगर आप एवरेस्ट पर ही पैदा हुए हों! तब बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे: झंडा भी कहां लगाएं?


      आदमी परमात्मा पर ही पैदा हुआ है; वहीं है। आप वहां हैं ही, वहां से आपका कभी जाना नहीं हुआ। वही है आपकी भूमि जहां आप खड़े हैं। इसलिए परमात्मा के पाने में कोई अहंकार के लिए दौड़ नहीं है, गुंजाइश नहीं है; कोई तरह का रस नहीं मालूम पड़ता। फिर परमात्मा की वासना ही न हो तो अभीप्सा, प्यास कैसे जगे?


     परमात्मा की प्यास बड़े उलटे ढंग से जगती है। इसे खयाल में ले लें, क्योंकि उसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। संसार की प्यास जगती है दूरी से। और अगर अलंघ्य दूरी हो तो आकर्षण भारी हो जाता है। और इसलिए संसार में जो चीजें भी पा ली जाती हैं, उनका मजा चला जाता है; क्योंकि दूरी खतम हो जाती है।


      आप एक स्त्री को पाना चाहते थे, फिर पा लिया; आप एक मकान बनाना चाहते थे, बन गया; आप सोने का शिखर चढ़ाना चाहते थे अपने मकान पर, वह चढ़ गया; अब? जो मिल जाता है, वह व्यर्थ हो जाता है; क्योंकि वह पास आ जाता है। उसमें दूरी नहीं रह जाती। दूर हो, कठिनाई हो, कोई न पा सके, आप ही पा सकें, तो ही मजा होता है।


     अमीरी का मजा अमीरी में नहीं है, बहुत लोगों की गरीबी में है। अगर सब लोग अमीर हो जाएं--बात खराब हो जाती है। अमरीका में वही परेशानी है। अमीर का मजा कम हुआ जा रहा है। गरीब भी वही कपड़े पहन रहा है, उन्हीं कारों में चल रहा है, उन्हीं मकानों में रह रहा है। गरीब और अमीर के बीच अब कोई बहुत बुनियादी फासला नहीं है। अमीर का मजा किरकिरा हुआ जा रहा है। अमीर परेशान है। वह कुछ और तरकीबें खोज रहा है, जो वही कर सके और सभी लोग न कर पाएं।


परमात्मा में ही हम हैं, इसलिए परमात्मा में कोई अहंकार के लिए बुलावा नहीं है; कोई निमंत्रण नहीं है; कोई चोट, कोई चुनौती, कोई चैलेंज नहीं है। फिर परमात्मा की अभीप्सा कैसे पैदा होती?


संसार की अभीप्सा पैदा होती है दूरी से, बुलावे से, चुनौती से; परमात्मा की अभीप्सा होती है संसार की असफलता से।


इसे खयाल कर लें। जब आप सब तरफ दौड़ चुकते हैं और सब तरफ हार जाते हैं; सब पा लेते हैं और सब व्यर्थ हो जाता है; खोज पूरी हो जाती है और पूरे होते ही नकार हो जाता है; सब शून्य हो जाता है। हाथ में आते ही सब चीजें मिट्टी सिद्ध होती हैं, दूर सब सोना मालूम पड़ती हैं। जितनी हो दूरी उतना स्वर्ण शुद्ध मालूम पड़ता है। जैसे-जैसे पास आता है, अशुद्ध होने लगता है। और पास आता है, मिट्टी होने लगता है।


यूनानी कथा मिदास की है। कथा में बड़ा व्यंग्य है। कथा है कि मिदास ने ऐसी सिद्धि पा ली, ऐसा वरदान पा लिया कि जो भी छुए, सोना हो जाए। हम सब मिदास से उलटे हैं; जो भी छुएं, मिट्टी हो जाए! लेकिन बड़ा मजा है। मिदास भी मुश्किल में पड़ गया था तो हमारी मुश्किल का तो क्या अंत!


मिदास जो भी छूता, सोना हो जाता। उसने अपनी पत्नी को छुआ, वह सोना हो गई! उसने भोजन छुआ, वह सोना हो गया! उसने पानी पीने को उठाया, ओंठ तक पानी गया और सोना हो गया! मरा मिदास! बड़ी मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि सोने से प्यास नहीं बुझती। और कितनी ही लोग बातें करें--कनक जैसा शरीर, स्वर्ण जैसा शरीर; सोने के शरीर से कोई तृप्ति होने वाली नहीं। कोई कितना ही कहे कि मेरी प्रेयसी की जो काया है, कनक-काया है, स्वर्ण-काया है; लेकिन हो जाए तब पता चले! तब सिर धुनें बैठ कर कि यह क्या हो गया! इससे तो वही काया बेहतर थी।


तो मिदास इस मुश्किल में पड़ गया; कवियों की बातों में आ गया। वरदान मांग बैठा। पत्नी हो गई सोने की। पानी सोना हो गया। भोजन सोना हो गया। लोग उससे भागने लगे। खुद के बेटे-बेटी दूर रहने लगे। कहीं वह छू न दे! कोई मित्र पास न आए कि कहीं छू न दे। मिदास अकेला हो गया। भरा-पूरा जगत था उसका; सम्राट था; अकेला हो गया। वजीर पास न आएं। सदा एक फासला रखें, कि बचने का उपाय रहे, भागने की सुविधा रहे। अगर वह छू ही दे! और मिदास भूखा मरने लगा। पानी मिले न, भोजन मिले न। वह चिल्लाने लगा, चीखने लगा कि हे भगवान! वापस कर दे, वही ठीक था। यह तो वरदान अभिशाप हो गया।


मिदास की यह हालत हो गई, सब चीजें सोना होने लगीं; तब हमारी क्या हालत होगी, जब जो भी छूते हैं मिट्टी हो जाता है! पत्नी दूर थी तो सोने की मालूम पड़ती थी। जिस दिन विवाह किया, उसी दिन मिट्टी की होनी शुरू हो गई। दो-चार साल बाद मिट्टी रह जाती है, कुछ नहीं है उसमें। सब चीजें मिट्टी हो जाती हैं। जो भी छुएं मिट्टी हो जाता है।


जिस दिन आपको यह अनुभव होता है कि सब दौड़ व्यर्थ है, उस दिन आप उसी जगह खड़े रह जाते हैं जहां परमात्मा है। जिस दिन आपको पता चलता है कि दौड़ कर कुछ भी नहीं मिला, कुछ भी नहीं पाया, उस दिन दौड़ते नहीं हैं। और न दौड़ने की वजह से वह दिखाई पड़ जाता है, जो दौड़ने की वजह से दिखाई नहीं पड़ रहा था। दौड़ने की धुन थी सवार तो दूर की चीजें दिखाई पड़ती थीं। दौड़ना व्यर्थ हो जाए तो दूर से आंख पास लौट आती है।


        और अगर सारी ही दौड़ व्यर्थ हो जाए तो आंख उलटी हो जाती है; अब तक बाहर देखती थी, अब भीतर देखने लगती है। दर्पण घूम जाता है, जब संसार में देखने योग्य कुछ भी नहीं लगता, पाने योग्य कुछ भी नहीं लगता, खोजने योग्य कुछ भी नहीं लगता; जब संसार वासना नहीं रह जाती।


         इसीलिए इतना जोर दिया है बुद्ध ने, महावीर ने और उपनिषदों ने कि निर्वासना द्वार है।


          वासना है दूर जाने की व्यवस्था, निर्वासना है पास आने का द्वार।


          इस सूत्र को अब हम खयाल में ले लें:


         ‘शरीर के भीतर छिपा है वह अजन्मा नित्य।’


         कभी पैदा नहीं हुआ जो--और सदा है, और सदा है, और सदा है। ऐसा जो अजन्मा नित्य है, वह इसी शरीर के भीतर छिपा है, लेकिन शरीर को उसका कोई पता नहीं। शरीर है पृथ्वी का अंग, वह पृथ्वी के भीतर छिपा है, पर पृथ्वी को उसका कोई पता नहीं।


          इसी की पुनरुक्ति है, इसी सूत्र की।


       अग्नि के भीतर छिपा है, अग्नि को पता नहीं। सब जगह छिपा है; और जहां छिपा है, जिसके भीतर छिपा है, उसे ही पता नहीं। क्यों? क्योंकि जिसके भीतर छिपा है, वह बाहर दौड़ रहा है।


       आपने कभी अनुभव किया? शरीर की भीतर की तरफ दौड़ अगर आप अनुभव कर लें, तो समाधि उपलब्ध हो जाए। आपने शरीर की बाहर की तरफ दौड़ अनुभव की है। एक सुंदर काया दिखाई पड़ती है, शरीर दौड़ने लगा, पुलक आ गई; शरीर का रोआं-रोआं भागने लगा। एक सुंदर फूल दिखाई पड़ा, आंखें भागने लगीं। एक सुंदर ध्वनि सुनाई पड़ी, कान भागने लगे।


      शरीर भागता है सदा बाहर की तरफ। कभी आपने अनुभव किया कि भीतर की तरफ भी शरीर भागा हो? कभी अनुभव नहीं किया। तो शरीर को पता भी कैसे चले कि कौन भीतर छिपा है! जहां शरीर जाता ही नहीं, जहां शरीर कभी देखता नहीं, सुनता नहीं, खोजता नहीं। शरीर को पता कैसे चले? शरीर अपरिचित रह जाता है उससे ही, जिसका वह शरीर है।


       सब दौड़ बाहर की तरफ है, इसलिए भीतर अज्ञान छा जाता है।


       यह सूत्र अनेक-अनेक द्वारों से एक ही बात की पुनरुक्ति है।


      वायु के भीतर जो छिपा है, वायु उसे जानती नहीं। मन जिसका शरीर है, मन उससे अपरिचित। अहंकार जिसकी देह है, अहंकार उसके प्रति अनजान। चित्त जिसका शरीर है, अक्षर, अव्यक्त जिसका शरीर है, वे भी उसे जानते नहीं जो भीतर छिपा है। मृत्यु भी उससे अपरिचित रह जाती है, जिसकी मृत्यु घटित होती है, जो मरता है। यह जरा अजीब वाक्य है; क्योंकि जो मरता है, मृत्यु उससे अपरिचित रह जाती है! जो मरता है, वह मरता ही नहीं!


     मृत्यु जब घटती है तो कौन मरता है? कोई भी नहीं मरता। क्योंकि शरीर सदा से मरा हुआ है; उसके मरने का कोई उपाय नहीं। और शरीर के भीतर जो छिपा है, वह सदा से अमृत है; उसके मरने का कोई उपाय नहीं। सिर्फ संबंध टूटता है। अमृत का और मृत का संबंध टूटता है मृत्यु में। लेकिन मृत्यु इतने निकट भी आकर उससे अपरिचित रह जाती है, वह जो अमृत है।


      इसीलिए तो हम कितनी बार मर चुके और हमें अब तक पता नहीं चला कि हमारे भीतर वह भी है जो मरता नहीं है। इस अपरिचय की प्रक्रिया ही यही है कि निकट आकर भी भीतर देखना नहीं हो पाता, देखना बाहर ही होता रहता है। मरता हुआ आदमी देखें। मरने को पड़ा है, लेकिन बाहर ही देखता रहेगा। अभी भी भीतर जाने का मन नहीं हो रहा उसका। मृत्यु उसे धकाती है, हटाती है शरीर से, लेकिन वह पकड़ रहा है--जोर से पकड़ रहा है; और भी जोर से पकड़ रहा है, जैसा उसने कभी नहीं पकड़ा था।


         इसलिए वृद्ध आदमी कुरूप हो जाते हैं, जवान सुंदर मालूम पड़ते हैं। उसका कारण गहरे में शरीर ही नहीं है। जवान शरीर को पकड़ता नहीं; अभी आश्वस्त है। बूढ़ा शरीर को पकड़ने लगता है। उस पकड़ने से सब कुरूपताएं पैदा हो जाती हैं। बूढ़ा डरने लगता है कि अब मरे! अब मरे! अब मौत करीब है! जितना मौत से डरता है, उतना जीवन को जोर से पकड़ता है। और जितना जोर से पकड़ता है, उतना ही जीवन कुरूप हो जाता है।


         बच्चे इतने प्यारे लगते हैं। पकड़ते ही नहीं बिलकुल। अभी उन्हें पता ही नहीं कि मौत भी है। पशु-पक्षी देखे? कितना ही बूढ़ा हो जाए पशु, कितना ही बूढ़ा हो जाए पक्षी...।


        उनकी बात कर रहा हूं जिनका आदमी से सत्संग नहीं है। आदमी तो बिगाड़ ही देता है।


        तो बड़ी हैरानी होती है! जंगल में पशु और पक्षी बूढ़े नहीं होते मालूम पड़ते। जैसा बुढ़ापा आदमी को पकड़ता है, ऐसा पशु-पक्षियों को पकड़ता नहीं मालूम पड़ता। बच्चे ही बने रहते हैं। किसी गहरे तल पर उन्हें पता ही नहीं कि मौत होने वाली है। इसलिए कोई शरीर की पकड़ नहीं आती।


         बच्चे में जो ताजगी है, जीवन सहज है, मौत की पकड़ नहीं है कोई। बुढ़ापे में कठिनाई आ जाती है। मौत साफ होने लगती है। जिंदगी अब चेष्टा है। अब प्रयास से जीता है आदमी। अब इंच-इंच सोच कर चलता है कि कहीं मौत न आ जाए। इससे दुविधा पैदा हो जाती है, तनाव बढ़ जाता है भीतर। और पूरे समय चिंता, संताप पकड़ लेता है। वही चित्त को कुरूप कर जाता है।


         मौत भी नहीं जान पाती उसको जो भीतर छिपा अमृत है। कारण एक ही है कि भीतर देखने की घटना ही तब घटती है जब बाहर देखने का सारा सिलसिला व्यर्थ हो जाए।


        इसे थोड़ा हम समझ लें। व्यर्थ कई बार होता मालूम पड़ता है, फिर भी होता नहीं। ऐसा नहीं है कि आपको व्यर्थ नहीं हो जाता, आपको भी व्यर्थ हो जाता है। एक कार खरीदने का सोचते थे, खरीद ली। जब नहीं खरीदी थी तो रात उसके सपने भी आते थे। जिस दिन कार की डिलीवरी मिलने वाली थी उस दिन रात सो भी नहीं सके थे--रात भर!


         ओटेगा वाई गासिप ने लिखा है अपने एक मित्र के बाबत कि उसने एक बहुत खूबसूरत गाड़ी फरारी खरीदी। बड़ी कीमती गाड़ी। और पहले ही दिन लेकर उसे निकला और एक जरा सी खरोंच लग गई।


         बच्चा नहीं था मित्र, पचास साल का आदमी था! गैर पढ़ा-लिखा नहीं था, युनिवर्सिटी का प्रोफेसर था! साधारण विषय का प्रोफेसर नहीं था, फिलासफी का प्रोफेसर था!


        ओटेगा वाई गासिप ने लिखा है कि मैंने अपने उस मित्र को अपनी मां के कंधे पर सिर रख कर रोते देखा। फरारी में खरोंच लग गई। कार थी कीमती, न मालूम कितने सपने देखे होंगे! जो खरोंच थी, वह भीतर तक चली गई, आत्मा तक प्रवेश कर गई होगी, तभी रोया है। रोते आप सब भी हैं। वह आदमी जरा ईमानदार रहा होगा। खुली सड़क पर, मां के कंधे पर सिर रख कर रोने लगा।


        लेकिन कितने दिन चलेगा यह? दो-चार दिन में फरारी पुरानी पड़ जाएगी। महीने, दो महीने में यह आदमी इसी गाड़ी में बैठेगा, इसे पता भी नहीं चलेगा कि किस गाड़ी में बैठा है। इस गाड़ी से ऊब जाएगा, लेकिन गाड़ियों से नहीं ऊबेगा। दूसरी गाड़ी को सपना पकड़ लेगा। सोचेगा एक रॉल्स रायस हो जाए; कुछ और हो जाए। एक स्त्री से ऊब जाएगा मन, एक पुरुष से ऊब जाएगा, लेकिन स्त्रियों से नहीं ऊबेगा, पुरुषों से नहीं ऊबेगा।


       ऊबते हम भी हैं, लेकिन हमारी ऊब वस्तुओं से बंधी होती है। हमारी ऊब दर्शन नहीं बनती; हमारी ऊब दृष्टि नहीं बनती। एक चीज से ऊबते हैं तो ठीक वैसी ही दूसरी चीज से पकड़ जाते हैं। और यह सिलसिला जारी रहता है।


      इतना ही फर्क है आप में और किसी बुद्ध में कि आप एक स्त्री से ऊबते हैं, दूसरी स्त्री में रस बना रहता है। अपनी स्त्री से ऊब जाते हैं, दूसरे की स्त्री में रस बना रहता है। जो पास है वह व्यर्थ हो जाता है, लेकिन जो दूर है वह सार्थक मालूम रहता है। वह भी कल पास आकर व्यर्थ हो जाएगा। लेकिन सभी चीजें पास नहीं आ पातीं, कुछ चीजें तो दूर बनी ही रहती हैं। इसलिए रस बना ही रहता है, वासना दौड़ती ही रहती है। बुद्ध एक स्त्री में ऊब कर समस्त स्त्रियों से ऊब जाते हैं। बुद्ध एक महल में रह कर सब महलों में रह लेते हैं। बुद्ध के लिए एक घटना काफी है।


      यह वैज्ञानिक बात है, एक पानी की बूंद अगर जान ली जाए तो सब सागर जान लिए गए। वह पागल होगा वैज्ञानिक जो पूरे सागरों की जांच करता रहे और कहे कि जब मैं सब पानी की बूंदों की जांच कर लूंगा, तब वक्तव्य दूंगा कि पानी हाइड्रोजन और आक्सीजन से बनता है। हम सब वैसे ही पागल हैं।


       एक वैज्ञानिक एक बूंद को परख लेता है, खोल लेता है, तोड़ लेता है--पा लेता है कि एच टू ओ; ये उदजन और आक्सीजन के अणुओं का ऐसा जोड़ है। खतम हो गए, सब सागर व्यर्थ हो गए; सब सागर जान लिए गए। अब कहीं भी होगा पानी, न केवल इस पृथ्वी पर, वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई पचास हजार पृथ्वियां होंगी सारे विस्तार में, इन पचास हजार पृथ्वियों पर कहीं भी अगर पानी होगा, तो भी एच टू ओ; तो भी वह बनेगा इसी व्यवस्था से। सारा पानी जान लिया गया एक बूंद को जान कर।


        एक वासना की व्यवस्था को समझ कर सारी वासना को जो जान लेता है, वह बुद्ध हो जाता है। एक वासना को पहचान कर उसकी व्यर्थता को, उसकी अनिवार्य व्यर्थता को, उसकी अपरिहार्य असफलता को जो देख लेता है, उसकी वासना गिर जाती है। उसकी वासना ऐसे गिर जाती है, जैसे लंगड़े की बैसाखियां अचानक गिर जाएं। उनसे ही वह चलता था; पैर तो थे नहीं चलने के, बैसाखियों से चलता था, लकड़ी के पैर थे। अचानक बैसाखियां गिर जाएं और लंगड़ा वहीं गिर पड़े, ठीक ऐसी ही घटना घटती है जब वासना की बैसाखियां गिर जाती हैं।


       संसार में चलने के कोई पैर थोड़े ही हैं! लकड़ी के पैर हैं, नकली पैर हैं, वासनाओं से निर्मित हैं। वासना के गिरते ही बैसाखियां गिर जाती हैं और आदमी अचानक अपने को वहां पाता है जहां से वह कभी हटा ही नहीं था; जहां वह सदा था, जहां होना उसका स्वभाव है। वही है परमात्म, वही है अध्यात्म।


        इस सूत्र का आखिरी हिस्सा उसकी खबर है:


       ‘मृत्यु जिसका शरीर है और मृत्यु के अंदर जो है, और मृत्यु जिसे जानती नहीं, वही इन सर्वभूतों का अंतरात्मा, उसके पाप नष्ट हो गए हैं और वही एक दिव्य देव नारायण है।’


        ‘देह, इंद्रियां आदि अनात्म पदार्थ हैं; इनके ऊपर मैं-मेरा ऐसा जो भाव है, वह अध्यास (भ्रम) है, इसलिए विद्वान को ब्रह्मनिष्ठा द्वारा इस अध्यास को, इस भ्रम को दूर करना चाहिए।’


        आखिरी बात इस सूत्र में। यह जो वासनाओं की दौड़ है, यह इसीलिए है कि हमें दिखता है दूर कहीं कोई सपना पूरा होता हुआ। जैसे मरुस्थल में कोई देखता है, दूर मालूम होता है जल का सरोवर। दौड़ता है, जल के लिए दौड़ता है। वहां जाकर पाता है, नहीं है कुछ, रेत ही रेत है। लेकिन तब तक कहीं और जल का सरोवर दिखाई पड़ने लगता है। भ्रम है, अध्यास है।


        सूर्य की किरणें जब तपती हैं जोर से रेत के ऊपर और वापस लौटती हैं, रिफ्लेक्ट होती हैं, जब वापस लौटने लगती हैं; तो कंपती हुई सूर्य की किरणें जब वापस लौटती हैं तो उनके कंपन के कारण भ्रम पैदा होता है कि लहरें कंप रही हैं। और वह कंपन इतना सतत होता है और कंपन की एक धारा बन जाती है कि अगर पास में कोई वृक्ष खड़ा हो तो उस कंपन में उस वृक्ष की छाया नीचे दिखाई पड़ने लगती है, वह कंपन दर्पण का काम करने लगता है।


       और जब आपको दूर से दिखाई पड़ता हो पानी भी, और न केवल पानी, आकाश में उड़ती हुई बदलियों की नीचे प्रतिच्छाया भी दिखाई पड़ती हो, तो भरोसा भी कैसे न करें! आकाश में उड़ते हों कबूतर या आकाश में उड़ती हो बगुलों की कतार और नीचे पानी में भी उसकी छाया हो जाती हो, पास में खड़े वृक्ष भी नीचे दिखाई पड़ते हों, तो फिर भरोसा पक्का हो जाता है कि पानी होना चाहिए--न केवल लहरें दिखाई पड़ती हैं, लहरों में प्रतिबिंब भी दिखाई पड़ता है! पास जाकर, जैसे-जैसे पास पहुंचते हैं, वैसे-वैसे तिरोहित होने लगती हैं छायाएं। बिलकुल पास पहुंच कर रेत हाथ लगती है।


      अध्यास का अर्थ है, जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना। शंकर के लिए यह बड़ा प्यारा शब्द है और उपनिषदों के लिए बड़ा आधारभूत। अध्यास का अर्थ है: प्रोजेक्शन, प्रक्षेपण, जो नहीं है उसका दिखाई पड़ना। वह जो दिखाई पड़ता है, वहां है नहीं, आप अपने भीतर से आरोपित करते हैं। आप ही कारणभूत हैं उसे आरोपित करने के। एक चेहरा आपको सुंदर लगता है। वह सौंदर्य वहां है या आप आरोपित करते हैं? क्योंकि कल वही चेहरा आपको कुरूप लग सकता है। हो सकता है कल तक सुंदर न लगा हो, आज अचानक आपका दिव्य-चक्षु खुल गया और आपको सुंदर दिखाई पड़ने लगा! और आपके मित्रों को अभी भी दिखाई नहीं पड़ता।


       कहते हैं लैला सुंदर नहीं थी, मजनू को दिखाई पड़ती थी। सारा गांव परेशान था। और लोगों ने समझाया मजनू को कि तू पागल है! इससे बहुत सुंदर लड़कियां गांव में हैं, तू व्यर्थ ही दीवाना हुआ जाता है। तो कहा है मजनू ने कि लैला को देखना हो तो मजनू की आंख चाहिए।


       यह अध्यास है। सवाल लैला नहीं, सवाल मजनू की आंख है। सवाल वह नहीं है जो दिखाई पड़ रहा है, सवाल वह है जो देख रहा है।


       तो मजनू ने कहा, मेरी आंख से देखो, तब तुम्हें लैला दिखाई पड़ेगी।


       लेकिन इसमें खतरा है, मजनू की आंख से दिखाई पड़ेगी। अगर सच में मजनू की आंख उधार मिल जाए, तो लैला जैसी मजनू को दिखाई पड़ती है, वैसी आपको दिखाई पड़ेगी। आंख भी एक चश्मा है। चश्मे के रंग उतर जाते हैं विषयों पर।


       आपकी सारी इंद्रियां प्रक्षेपण कर रही हैं। आप अपने चारों तरफ एक जगत निर्माण कर रहे हैं। आपका मन केवल ग्राहक नहीं है, निर्माता है। आप बना रहे हैं एक दुनिया अपने चारों तरफ--सौंदर्य की, सुगंध की, इसकी, उसकी। आप एक दुनिया निर्मित कर रहे हैं।


        यह दुनिया वैसी नहीं है, जैसी आप देखते हैं। यह आप पर निर्भर है। और आप बदल जाते हैं तो दुनिया इसीलिए तो बदल जाती है। जवान दूसरी दुनिया देखता है, बूढ़ा दूसरी दुनिया देखता है, बच्चे दूसरी दुनिया देखते हैं। क्या, फर्क क्या पड़ जाता है? दुनिया वही है!


        लेकिन बच्चों के पास वह आंख नहीं है, जो जवान के पास है। बच्चे अभी कंकड़-पत्थर बीन रहे हैं। रंगीन होना काफी है। जवान कहता है, फेंको भी इनको, इनमें क्या रखा है! इनकी कीमत क्या है! जवान के लिए अर्थ मूल्यवान हो गया; धन समझ में आने लगा। अब सिर्फ कंकड़-पत्थर बीनने से काम नहीं चलेगा; तितलियों के पीछे दौड़ने से कुछ हल होने वाला नहीं है। बच्चे तितलियां पकड़ रहे हैं, तितलियां स्वर्ग मालूम पड़ती हैं। जवान बच्चों को नासमझ समझते हैं।


        फिर आदमी बूढ़ा हो जाता, इंद्रियां थक जातीं, अनुभव तिक्त होते, कडुवे होते, मुंह उनकी बेस्वाद धारा से भर जाता। जवान भी उसको दिखते हैं कि ये भी दूसरी तरह की तितलियां पकड़ रहे हैं। तितलियां बदल गई हैं। तितलियां नहीं बदली हैं, बस और तरह की तितलियां पकड़ रहे हैं।


      बूढ़े कहे जाते हैं, समझाए चले जाते हैं, कोई जवान उनकी सुनता नहीं। उन्होंने भी अपने बाप-दादों की नहीं सुनी थी। नहीं सुनने का कारण है, आंखें दूसरी हैं। बूढ़े की आंख अगर जवान को मिल जाए तो उसे भी ऐसा ही दिखाई पड़ेगा। और ध्यान रखो कि मजा यह है कि अगर अभी बूढ़े को फिर जवान की आंख मिल जाए तो वह सब अनुभव भूल जाएंगे! वह जो ज्ञान बता रहे हैं, वह सब भूल जाएगा। फिर जगत रंगीन हो जाएगा।


         सुना है मैंने, अमरीका की सुप्रीम कोर्ट का एक चीफ जस्टिस, न्यायाधीश, जब जवान था तब पेरिस आया था। शादी करके सीधा पेरिस आया था। फिर तीस साल बाद, जब बूढ़ा हो गया, और बेटों की शादियां हो गईं, और बेटे पेरिस हो आए, तब फिर दुबारा अपनी पत्नी को लेकर आया। उसका नाम था, पीयरे। पेरिस देख कर उसने अपनी पत्नी से कहा, वह बात न रही पेरिस में, सब फीका-फीका हो गया! कहां वे दिन जब हम पहली दफा पेरिस आए थे! बात ही और थी, पेरिस कुछ और था!


        उसकी पत्नी ने कहा, माफ करें, आप भूल रहे हैं। पीयरे और था, पेरिस तो वही है, पेरिस तो अब भी वही है। जवान की आंख से देखें, पेरिस अब भी वही है। पेरिस क्या बदलता है! लोग बदल जाते हैं, दृष्टि बदल जाती है।


       दृष्टि के बदलने से अगर जगत बदल जाता है तो समझना कि आपने जो जाना था वह अध्यास था। वह दृष्टि की वजह से पैदा हुआ था, वह जगत नहीं था। क्या ऐसा भी कोई उपाय है कि बिना दृष्टि के जगत देखा जा सके? अगर हो, तो ही जगत देखा जा सकता है, नहीं तो नहीं।


         दृष्टियां अध्यास हैं। इसलिए खयाल रखें, दर्शन का मतलब दृष्टि नहीं है। दर्शन का मतलब है वैसी अवस्था, जब सब दृष्टियां शांत हो जाती हैं; कोई दृष्टि नहीं रह जाती, तब देखना। जब अपनी कोई आंख नहीं रह जाती थोपने को, और अपना कोई भाव नहीं रह जाता आरोपित करने को, अपनी कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। मरुस्थल को तब देखना, जब भीतर कोई प्यास नहीं होती, फिर मरुस्थल धोखा नहीं दे सकता। प्यास की वजह से धोखा हो जाता है। पानी की चाह होती है, और नहीं मिलता तो चाह और बढ़ जाती है। और जब चाह ज्यादा बढ़ जाती है तो मन विक्षिप्त हो जाता है, और जो नहीं है उसे भी मानने का मन होने लगता है।


        लेकिन एक ऐसी स्थिति भी है जब सब दृष्टियां क्षीण हो जाती हैं और दर्शन का उदय होता है।


        कब होती हैं दृष्टियां क्षीण? दृष्टियां तभी क्षीण होती हैं, जब सभी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं; क्योंकि हर दृष्टि वासना का खेल है, वासना का फैलाव है।


         यह सूत्र कहता है: ‘देह, इंद्रियां आदि अनात्म पदार्थ हैं, इनके ऊपर मैं-मेरा ऐसा जो भाव होता है, वह अध्यास है। इसलिए बुद्धिमान को ब्रह्मनिष्ठा द्वारा इस अध्यास को दूर करना चाहिए।’


       ब्रह्मनिष्ठा द्वारा, अपने में निष्ठा द्वारा।


       हमारी निष्ठा हमेशा पराए में है, किसी और में है, अपने में नहीं है। दौड़ कहीं और है, अपने में नहीं है। जा कहीं और रहे हैं एक जगह को छोड़ कर, वह जगह जो भीतर है। ब्रह्मनिष्ठा का अर्थ है कि वासनाओं की दौड़ हट गई, आदमी अपने में खड़ा हो गया। आदमी वहीं खड़ा हो गया जहां कोई मन नहीं है, कोई इंद्रियां नहीं हैं, कोई शरीर नहीं है; सिर्फ शुद्ध चैतन्य है। उसमें प्रतिष्ठित होते ही सब अध्यास टूट जाते हैं। और तब संसार नहीं है, ब्रह्म ही है।


        जब मैं हिंदी में बोल रहा हूं, बहुत लोगों को हिंदी समझ में नहीं आती, लेकिन वे भी उपयोग कर सकते हैं। जिन्हें हिंदी समझ में नहीं आती, वे आंख बंद कर लें और केवल ध्वनि सुनें; शांत बैठ जाएं, जैसे ध्यान में हों। और बहुत बार जो शब्द समझ कर भी समझ में न आता, वह मात्र ध्वनि सुनने से समझ में आता है।


       जब मैं अंग्रेजी में बोल रहा हूं, जिन मित्रों को अंग्रेजी समझ में नहीं आती, वे ऐसा न सोचें कि उनके काम का नहीं है। आंख बंद कर लें और जो मैं बोल रहा हूं उसकी ध्वनि पर ध्यान करें, समझने की कोशिश न करें। जो भाषा समझ में नहीं आती, समझने की कोशिश ही मत करें। बिलकुल नासमझ होकर शांत बैठ जाएं, सिर्फ ध्वनि का आघात ध्यान करें; सिर्फ सुनें। वह सुनना ध्यान बन जाएगा और उपयोगी होगा।


         बड़ा सवाल समझना नहीं है, बड़ा सवाल शांत होना है। बड़ा सवाल सुनना नहीं है, बड़ा सवाल मौन होना है। तो कई बार तो यह होता है, जो बात आपकी समझ में आ जाती है वह आपके भीतर विघ्न बन जाती है, क्योंकि उससे विचार शुरू हो जाते हैं। कई बार तो अच्छा है कि जो बात बिलकुल समझ में नहीं आती, उसको सुनें, क्योंकि फिर विचार नहीं चल सकते। जो समझ में नहीं आए तो विचार के चलने का कोई उपाय नहीं है, विचार रुक जाते हैं।


        इसलिए कभी तो वृक्षों के बीच से गुजरती हुई हवा को सुनना, कभी पक्षियों की आवाज सुनना, कभी पानी की कल-कल धारा से उठता निनाद सुनना ऋषि-मुनियों को सुनने से भी ज्यादा बेहतर है। असली उपनिषद वहां बह रहे हैं। पर वे आपकी समझ में नहीं आएंगे। पर समझने की कोई जरूरत भी नहीं है, सुनना काफी है। और जब समझ में न आए और आप सुन सके, तो थोड़ी देर में बुद्धि शांत हो जाती है, क्योंकि उसका कोई काम ही नहीं होता। और जब बुद्धि शांत हो जाती है तो आप वहां पहुंच जाते हैं, जिसकी तलाश है

   

        ये त्रि॑ष॒प्ताः प॑रि॒यन्ति॒ विश्वा॑ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तः। 

       वा॒चस्पति॒र्बला॒ तेषां॑ त॒न्वो॑ अ॒द्य द॑धातु मे ॥

      

        इस संसार में जब से संसार प्रारंभ हुआ, इसको जो भी जानने वाले हुए वह कहते हैं, कि इस सब को एक स्वामी है, जिसे लोग परमात्मा कहते हैं, और परमात्मा का  परमात्मा हम सब के हृदय में सांसे ले रहा है।


        शिक्षालय में शिक्षा नहीं व्यवसाय हो रहा है, शिक्षालय का काम क्या है केवल बच्चों को एकत्रित करके उनके साथ ऐसा व्यवहार करना की वह धन उत्पन्न करने वाले उसी प्रकार से हैं जैसे सोने के अण्डे देने वाली मुर्गि होती है।

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