नाड़ीचक्र का वर्णन
(अग्निपुराण अध्याय २१४)
संक्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अयन, अधिमास, ऋण, उनरात्र एवं धन - ये सूर्य की गति से होनेवाली
दस दशाएं शरीर में भी होती हैं । इस शरीर में हिक्का(हिचकी), उनरात्र, विजृंभिका(जम्भाई), अधिमास,
कास(खांसी), ऋण और निःश्वास 'धन' कहा जाता है । शरीरगत वामनाड़ी 'उत्तरायण' और दक्षिणनाड़ी 'दक्षिणायन'
है । दोनों के मध्य में नासिका के दोनों छिद्रों से निर्गत होने
वाली श्वासवायु 'विषुव' कहलाती है । इस
विषुववायु का ही अपने स्थान से चलकर दुसरे स्थान ये युक्त होना 'संक्रान्ति' है । द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ ! शरीर के
मध्य में सुषुम्णा स्थित है, वामभाग में 'इड़ा' और दक्षिणभाग में 'पिङ्गला'
है । ऊर्ध्वगतिवाला प्राण 'दिन' माना गया है और अधोगामी अपान को 'रात्रि' कहा गया है । एक प्राणवायु ही दस वायु के रूप में विभाजित है । देह के
भीतर जो प्राणवायु का आयाम(बढ़ना) है, उसे 'चन्द्रग्रहण' कहते हैं । वही जब देह से ऊपर तक बढ़
जाता है तब उसे 'सूर्यग्रहण' मानते हैं
।
धनुष के लक्षण
(अग्निपुराण अध्याय २४५ )
अग्निदेव कहते हैं: वसिष्ठ ! धनुष के निर्माण के लिए
लौह, श्रृंग या काष्ठ - इन तीन
द्रव्यों का प्रयोग करें । प्रत्यञ्चा के लिए तीन वस्तु उपयुक्त हैं - वंश,
भङ्ग एवं चर्म ।
दारुनिर्मित श्रेष्ठ धनुष का प्रमाण चार हाथ माना गया
है । उसी में क्रमशः एक एक हाथ कम मध्यम और अधम होता है । मुष्टिग्राह के निमित्त
धनुष के मध्यभाग में द्रव्य निर्मित करावे ।
धनुष की कोटि कामिनी की भ्रू-लता के समान आकारवाली
एवं अत्यंत संयत बनवानी चाहिए । लौह या श्रृंग के धनुष के धनुष पृथक-पृथक एक ही
द्रव्य के या मिश्रित भी बनवाये जा सकते हैं । श्रृंगनिर्मित धनुष को अत्यन्त उपयुक्त
तथा सुवर्ण बिंदुओं से अलङ्कृत करें ।
कुटिल, स्फुटित या छिद्रयुक्त धनुष निन्दित होता है । धातुओं में सुवर्ण, रजत, ताम्र एवं कृष्ण लौह का धनुष के निर्माण में
प्रयोग करें । शार्ङ्गधनुषों में - महिष, शरभ एवं रोहिण मृग
के श्रृंगों से निर्मित चाप शुभ माना गया है । चन्दन, बेतस,
साल, धव तथा अर्जुन वृक्ष के काष्ठ से बना हुआ
दारुमय शरासन उत्तम होता है । इनमें भी शरद ऋतु में काटकर लिए गए पके बांसों से
निर्मित धनुष सर्वोत्तम माना जाता है । धनुष एवं खङ्ग की त्रैलोक्यमोहन मन्त्र से
पूजा करें ।
लोहे, बांस, सरकण्डे अथवा
उससे भिन्न किसी और वस्तु के बने हुए बाण सीधे, स्वर्णाभ,
स्नायुश्लिष्ट, सुवर्णपुङ्गभूषित, तैलधौत, सुनहले एवं उत्तम पंखयुक्त होने चाहिए ।
बारह प्रकार के सजातीय पुत्र
(अग्निपुराण - अध्याय २५६)
औरस - अपनी धर्मपत्नी से स्वकीय वीर्यद्वारा उत्पादित
पुत्र। यह सब पुत्रों में मुख्य होता है ।
पुत्रिकापुत्र - यह भी औरस के समान ही है ।
क्षेत्रज - अपनी स्त्री के गर्भ से किसी सगोत्र या
सपिण्ड पुरुष के द्वारा अथवा देवर के द्वारा उत्पन्न पुत्र ।
गूढ़ज - पति
के घर में छिपे तौर जो सजातीय पुरुष से उत्पन्न होता है ।
कानीन - अविवाहिता कन्या से उत्पन्न पुत्र । वह नाना
का पुत्र माना गया है ।
पौनर्भव - अक्षतयोनि या क्षतयोनि की विधवा से सजातीय
पुरुष द्वारा उत्पन्न पुत्र ।
दत्तक - जिसे माता या पिता किसी को गोद दे दें ।
क्रीतपुत्र - जिसे किसी माता-पिता ने खरीदा और दुसरे
माता-पिता ने बेचा हो ।
कृत्रिम - जिस को स्वयं धन आदि का लोभ देकर पुत्र
बनाया गया हो ।
दत्तात्मा - माता-पिता से रहित बालक जो "मुझे
अपना पुत्र बना लें" - ऐसा कहकर स्वयं आत्मसमर्पण करता है ।
सहोढज - जो विवाह से पूर्व ही गर्भ में आ गया और
गर्भवती के विवाह होनेपर उसके साथ परिणीत हो गया ।
अपविद्ध - जिसे माता-पिता ने त्याग दिया हो वह समान
वर्ण का पुत्र यदि को ले ले ।
इनमें से पूर्व पूर्व के अभाव में उत्तर उत्तर
पिण्डदाता और धनांशभागी होता है
*धर्मपत्नी - अपने समान वर्ण की पत्नी जब
धर्मविवाह के अनुसार ब्याहकर लायी जाती है ।
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