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भारतवर्ष का वर्णन---भुवनकोश वर्णन

 

भारतवर्ष का वर्णन

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अध्याय ११८, अग्निपुराण

 

    अग्निदेव कहते हैं: समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण की जो वर्ष है, उसका नाम 'भारत' है । उसका विस्तार नौ हज़ार योजन है । स्वर्ग तथा अपवर्ग पाने की इच्छा वाले पुरुषों के लिए यह कर्मभूमि है । महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, हिमालय, विन्ध्य और पारियात्र - ये साथ यहाँ के कुल-पर्वत हैं । इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गान्धर्व और वारुण - ये आठ द्वीप हैं । समुद्र से घिरा हुआ भारत नवां द्वीप है ।

    भारतद्वीप उत्तर से दक्षिण की ओर हज़ारों योजन लम्बा है । भारत के उपर्युक्त नौ भाग हैं । भारत की स्थिति मध्य में है । इसमें पूर्व की ओर किरात और पश्चिम में यवन रहते हैं । मध्यभाग में ब्राह्मण आदि वर्णों का निवास है । वेद-स्मृति आदि नदियां पारियात्र पर्वत से निकलती हैं । विंध्याचल से नर्मदा आदि प्रकट हुई हैं । सह्य पर्वत से तापी, पयोष्णी, गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणा आदि नदियों का प्रादुर्भाव हुआ है ।

 

   मलय से कृतमाला आदि और महेन्द्रपर्वत से त्रिसामा आदि नदियां निकली हैं । शुक्तिमान से कुमारि आदि और हिमालय से चन्द्रभागा आदि का प्रादुर्भाव हुआ है । भारत के पश्चिम में कुरु, पाञ्चाल और मध्यदेश आदि की स्थिति है ।


भुवनकोश वर्णन

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    अग्निदेव कहते हैं: वसिष्ठ ! भूमि का विस्तार सत्तर हज़ार योजन बताया गया है । इसकी ऊंचाई दस हज़ार योजन है । पृथ्वी के भीतर सात पाताल हैं । एक-एक पाताल दस-दस हज़ार योजन विस्तृत है । सात पातालों के नाम इस प्रकार हैं - अतल, वितल, नितल, प्रकाशमान महातल, सुतल, तलातल और सातवां रसातल या पाताल। इन पातालों की भूमियां क्रमशः काली, पीली, लाल, सफ़ेद, कंकरीली, पथरीली और सुवर्णमयी है । वे सभी पाताल बड़े रमणीय हैं । उनमें दैत्य और दानव आदि सुखपूर्वक निवास करते हैं । समस्त पातालों के नीचे शेषनाग विराजमान हैं, जो भगवान् विष्णु के तमोगुण-प्रधान विग्रह हैं । उनमें अनन्त गुण हैं, इसीलिए उन्हें 'अनन्त' भी कहते हैं । वे अपने मस्तक पर इस पृथ्वी को धारण करते हैं ।

     पृथ्वी के नीचे अनेक नरक हैं, परन्तु जो भगवान् विष्णु का भक्त है, वह इन नरकों में नहीं पड़ता है । सूर्यदेव से प्रकाशित होनेवाली पृथ्वी का जितना विस्तार है, उतना ही नभोलोक(अन्तरिक्ष या भुवर्लोक) का विस्तार माना गया है । वसिष्ठ ! पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है

 

 त्रिपुष्करोग - जिन नक्षत्रों के तीन चरण दूसरी राशि में प्रविष्ट हों । जैसे कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपदा - इन नक्षत्रों में, जब भद्रा द्वितीय, सप्तमी और द्वादशी तिथियां हों एवं राशि, शनि तथा मंगलवार हों तो त्रिपुष्कर योग होगा

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