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॥अथ तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम्॥

 

॥अथ तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम्॥


 

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।

नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥१॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः।

ज्योत्स्नायै चेन्दुरुपिण्यै सुखायै सततं नमः॥२॥

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।

नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥३॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।

ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥४॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।

नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥५॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥६॥

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्‍‌यभिधीयते।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥७॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥८॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥९॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१०॥

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥११॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१२॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१३॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१४॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१५॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१६॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१७॥

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१८॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१९॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२०॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२१॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२२॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२३॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२४॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२५॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्त्स्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२६॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।

भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥२७॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्‌व्याप्य स्थिता जगत्।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२८॥

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रया-

त्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।

करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी

शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥२९॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै-

रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।

या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः

सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥३०॥

इति तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम् समाप्तं।

 अथा तंत्रोक्त देवी सूक्तम॥


 


देवी महादेवी शिव को नमन, सदा प्रणाम।


उस शुभ प्रकृति को प्रणाम, जिसे हम आत्मसंयमी और नमन करते हैं।


भयानक, शाश्वत, सुंदर, माँ को नमन।


हे प्रकाशमय, चन्द्र-सदृश, सुखी, मैं सदा तुझे प्रणाम करता हूँ।


आइए हम कल्याण के लिए, विकास के लिए, पूर्णता के लिए नमन करें, और नमन करें।


हे दक्षिण-पश्चिम, हे पृथ्वीवासियों की लक्ष्मी, हे शरवानी, मैं आपको प्रणाम करता हूं।


दुर्गा, दुर्गापारा, सराय, सर्वकारी।


हे प्रसिद्धि और कृष्ण और धूम्रपान करने के लिए, मैं हमेशा अपना प्रणाम करता हूं।


मैं उसे नमन करता हूं जो बहुत ही कोमल और बहुत भयानक है।


ईश्वरीय रचनाकार, ब्रह्मांड के संस्थापक और उन्हें नमन।


वह देवी हैं जिन्हें सभी प्राणियों में विष्णुमाया कहा जाता है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तासयै ओमे नमो नमो॥6॥


वह देवी हैं जिन्हें सभी प्राणियों की चेतना कहा जाता है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्याै ओमे नमो नमो॥7॥


वह देवी हैं जो सभी प्राणियों में बुद्धि के रूप में निवास करती हैं।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्यै ओमे नमो नमो॥8॥


वह सभी प्राणियों में सुषुप्ति के रूप में वास करने वाली देवी हैं।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तासयै ओमे नमो नमो॥9॥


वह सभी प्राणियों में भूख के रूप में निवास करने वाली देवी हैं।


नमो स्तासयै नमो स्तस्यै नमो स्तास्याय ओमे नमो नमो॥10॥


वह देवी हैं जो सभी प्राणियों में छाया के रूप में निवास करती हैं।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तासयै ओमे नमो नमो 11॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में शक्ति के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्याय ओमे नमो नमो 12॥


वह देवी हैं जो सभी प्राणियों में प्यास के रूप में निवास करती हैं।


नमो स्टासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्यै ओमे नमो नमो 13॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में क्षमा के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तासयै ओमे नमो नमो 14॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में जाति के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्याय ओमे नमो नमो 15॥


वह देवी हैं जो सभी प्राणियों में शर्म के रूप में निवास करती हैं।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तासयै ओमे नमो नमो 16॥


वह देवी हैं जो सभी प्राणियों में शांति के रूप में निवास करती हैं।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्यै ओमे नमो नमो 17॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में आस्था के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्यै ओमे नमो नमो 18॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में तेज के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तासयै ओमे नमो नमो 19॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में लक्ष्मी के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तस्यै नमो स्तास्याय ओमे नमो नमो 20॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में वृत्ति के रूप में स्थित है।


नमस्तेसै, नमस्तेसै, नमस्तेस्यायै, नमस्तेस्याै।


वह देवी जो सभी प्राणियों में स्मृति रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्याय ओमे नमो नमो॥22॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में दया के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तस्याई ओमे नमो नमो 23॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में संतुष्टि के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तस्यै नमो स्तास्याय ओमे नमो नमो 24॥


वह देवी जो सभी प्राणियों में माता के रूप में स्थित है।


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तस्याई ओमे नमो नमो 25॥


वह देवी हैं जो सभी प्राणियों में भ्रम के रूप में निवास करती हैं।


नमो स्तासयै नमो स्तस्यै नमो स्तास्यै ओमे नमो नमो 26॥


वह इंद्रियों और सभी प्राणियों की नियंत्रक है।


उस देवी को नमन जो सभी प्राणियों में निरंतर व्याप्त है।


वह जो इस पूरे संसार में चिति के रूप में व्याप्त है


नमो स्तासयै नमो स्तास्यै नमो स्तास्याई ओमे नमो नमो 28॥


देवताओं द्वारा स्तुति पूर्व वांछित शरण-


इस प्रकार वह देवताओं के स्वामी द्वारा दिनों तक सेवा की गई


वह, देवी, हमारे अच्छे कारण बनें


शुभ और शुभ धनुष विपत्तियों को पराजित करें।


जो अब प्रोत्साहित राक्षसों द्वारा सताया जाता है-


रसमा और ऋष की पूजा देवताओं द्वारा की जाती है।


और जो याद किया जाता है वह हमें तुरंत मार डालता है


भक्ति और विनम्र रूपों के साथ सभी आपदाएं।


यह तंत्र में वर्णित देवी सूक्त की पूर्णता है।


 


॥अथ प्राधानिकं रहस्यम्॥

 

 

 

pradhanikam rahasyam

pradhanikam rahasyam

 

॥विनियोगः॥

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्दः,

महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थं जपे विनियोगः।

ऊँ सप्तशतीके इन तीनों रहस्योंके नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं । शास्तोक्त फलकी प्राप्तिके लिये जपमें विनियोग होता है ।

राजोवाच

भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिताः।

एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि॥१॥

राजा बोले- भगवन् ! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही । ब्रह्मन् ! अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरुपण कीजिये ॥१॥

आराध्यं यन्मया देव्याः स्वरूपं येन च द्विज।

विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥२॥

द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपके चरणों में पड़ा हूँ । मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधि से आराधना करनी है , वह सब यथार्थ रूप से बतलाइये ॥२॥

ऋषिरूवाच

इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।

भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥३॥

ऋषि कहते हैं- राजन् ! यह रहस्य परम गोपनीय है । इसे किसी से कहने - योग्य नहीं बतलाया गया है ; किंतु तुम मेरे भक्त हो , इसलिये तुमसे न कहने - योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है ॥ ३॥

सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।

लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥४॥

त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं । वे ही दृश्य और अदृश्य रूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं ॥४॥

 

मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।

नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥५॥

राजन् ! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुंग (बिजौरे का फल ) ,गदा , खेट (ढ़ाल ) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग , लिंग तथा योनि - इन वस्तुओं को धारण करती हैं ॥५॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।

शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥६॥

तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति है , तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं । उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत् को परिपूर्ण किया है ॥६॥

शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्व॥री।

बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥७॥

परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूपा उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया ॥७॥

सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।

विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा ॥८॥

वह रूप एक नारी के रूपमें प्रकट हुआ , जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी , उसका श्रेष्ठ मुख दाढ़ों से सुशोभित था । नेत्र बड़े - बड़े और कमर पतली थी ॥८॥

खड्गपात्रशिरःखेटैरलङ्कृतचतुर्भुजा।

कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिरःस्रजम्॥९॥

उसकी चार भुजाएँ ढ़ाल , तलवार , प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं । वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड़ ) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये हुए थी ॥९॥

सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।

नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नमः॥१०॥

इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों मे श्रेष्ठ तामसी देवीने महालक्ष्मी से कहा - माताजी ! आपको नमस्कार है । मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये॥१०॥

तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।

ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥११॥

तब महालक्ष्मीने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा-मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो - जो कर्म हैं , उनको भी बतलाती हूँ, ॥११॥

महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।

निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥१२॥

महामाया , महाकाली , महामारी , क्षुधा , तृषा , निद्रा ,तृष्णा , एकवीरा , कालरात्रि तथा दुरत्यया - ॥१२॥

इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभिः।

एभिः कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्नुते सुखम्॥१३॥

ये तुम्हारे नाम हैं , जो कर्मों के द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे । इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मों को जानकर जो उनका पाठ करता है , वह सुख भोगता है ॥१३॥

तामित्युक्त्वा महालक्ष्मीः स्वरूपमपरं नृप।

सत्त्‍‌वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥१४॥

राजन् ! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्त्व गुण के द्वारा रूप धारण किया , जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण था ॥१४॥

अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।

सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥१५॥

वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला , अंकुश , वीणातथा पुस्तक धारण किये हुए थी । महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किये ॥१५॥

महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।

आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥१६॥

महाविद्या , महावाणी , भारती , वाक् , सरस्वती , आर्या , ब्राह्मी , कामधेनु , वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धिकी स्वामिनी ) ये तुम्हारे नाम होंगे ॥१६॥

अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।

युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपतः॥१७॥

तदनन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा-देवियो ! तुम दोनों अपने - अपने गुणों के योग्य स्त्री - पुरुष के जोड़े उत्पन्न करो॥१७॥

 

इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मीः ससर्ज मिथुनं स्वयम्।

हिरण्यगर्भौ रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥१८॥

उन दोनों से यों कह कर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री - पुरुष का एक जोड़ा उत्पन्न किया। वे दोनों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञानसे सम्पन्न ) सुन्दर तथा कमल के आसनपर विराजमान थे । उनमें से एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष ॥१८॥

ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।

श्रीः पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥१९॥

तत्पश्चात् माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन ! विधे ! विरिंच! तथा धात: ! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्री को श्री ! पद्मा ! कमला ! लक्ष्मी ! इत्यादि नामों से पुकारा ॥१९॥

महाकाली भारती च मिथुने सृजतः सह।

एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥२०॥

इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक - एक जोड़ा उत्पन्न किया । इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥२०॥

नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्वे ताङ्गं चन्द्रशेखरम्।

जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥२१॥

महाकाली ने कण्ठ में नील चिह्न से युक्त , लाल भुजा , श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को जन्म दिया ॥२१॥

स रुद्रः शंकरः स्थाणुः कपर्दी च त्रिलोचनः।

त्रयी विद्या कामधेनुः सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥२२॥

वह पुरुष रुद्र , शंकर , स्थाणु , कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयी , विद्या , कामधेनु , भाषा , अक्षरा और स्वरा ये नाम हुए ॥२२॥

सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।

जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥२३॥

राजन् ! महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री और श्याम रंग के पुरुषको प्रकट किया । उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥२३॥

विष्णुः कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दनः।

उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥२४॥

उनमें पुरुष के नाम विष्णु , कृष्ण , ह्रषीकेश , वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा , गौरी , सती , चण्डी , सुंदरी , सुभगा और शिवा - इन नामों से प्रसिद्ध हुई ॥२४॥

एवं युवतयः सद्यः पुरुषत्वं प्रपेदिरे।

चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जनाः॥२५॥

इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुष को प्राप्त हुईं । इस बात को ज्ञान नेत्रवाले लोग ही समझ सकते हैं । दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्य को नहीं जान सकते ॥२५॥

ब्रह्मणे प्रददौ पत्‍‌नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।

रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥२६॥

राजन् ! महालक्ष्मी ने त्रयीविद्यारूपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिये पत्नीरूप में समर्पित किया , रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेव को लक्ष्मी दे दी ॥२६॥

स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।

बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥२७॥

इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया ॥२७॥

अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।

महाभूतात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥२८॥

राजन् ! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान (महत्तत्त्व) आदि कार्यसमूह पंचमहाभूतात्मक समस्त स्थावर - जंगमरूप जगत् की उत्पत्ति हुई ॥२८॥

पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशवः।

संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्वशरः॥२९॥

फिर लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु ने उस जगत् का पालन - पोषण किया और प्रलयकाल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत् का संहार किया ॥२९॥

महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्‍‌वमयीश्वरी।

निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥३०॥

नामान्तरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित्॥ॐ॥३१॥

इति प्राधानिकं रहस्यं सम्पूर्णम्।

महाराज ! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्वमयी तथा सब सत्त्वों की अधीश्वरी हैं । वे ही निराकार और साकार रूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं ॥३०॥ सगुणवाचक सत्य , ज्ञान , चित् , महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरुपण करना चाहिये । केवल एक नाम (महालक्ष्मीमात्र ) से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता ॥३१॥

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